(३) प्राप्त सामग्री का वर्गीकरण- निरूपण शैली की दृष्टि से देखें तो संस्कृत के कुछ आचार्यों ने केवल पद्यात्मक शैली को अपनाया। उदाहरणार्थ भामह, दण्डी, उद्भट, रुद्रट, धनंजय, वाग्भट प्रथम, जयदेव, अप्पय दीक्षित आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। भरत ने कुछेक स्थलों पर गद्य का आश्रय लिया है। संस्कृत के आचार्यों की दूसरी निरूपण शैली ‘सूत्र-वृत्ति-शैली’ है। वामन और रुयक के सिंद्धात सूत्र बद्ध हैं और सूत्र की वृति गद्यात्मक है। उदाहरणों के लिए उन्होने पद्य का आश्रय लिया। ‘तीसरी कारिका-वृत्तिशैली’ है। आनंदवद्र्धन, कुंतक, मम्मट, हेमचंद्र, विश्वनाथ आदि ने इसी शैली को अपनाया। उनकी व्याख्या गद्यवृत्ति में है और उदाहरण पद्यात्मक हैं। इधर हिन्दी के आचार्यों ने सामान्यत: प्रथम शैली को अपनाया। वाग्भट प्रथम की निरूपण शैली के सामान शास्त्रीय विवेचन के लिए दोहा अथवा सोरठा जैसे छोटे छंदों का प्रयोग किया हैं और उदाहरण के लिये कवित, सवैये जैसे छंदों का। केशव, चिंतामणि, भूषण, देव, भिखारी दास, दूलह, मद्माकर आदि की निरूपण-शैली नहीं है। जसवंत सिंह और जगत सिंह की शैली इनसे थोड़ी भिन्न है। इन्होंने जयदेव के समान शास्त्रीय-विवेचन और उदाहरण को प्राय: एक दोहे में समाविष्ट करने का प्रयास किया है। हिन्दी के कुछ आचार्यों ने उक्त शैली को अपनाते हुए तिलक अथवा वृत्तिरूप में गद्य का भी आश्रय लिया है। उदाहरणर्थ चिंतामणि, कुलपति, सोमनाथ और प्रताप सिंह के नाम लिए जा सकते हैं। देखा जाय तो जसवंत सिंह, जगत सिंह आदिको छोड़ कर षेष किसी आचार्य की शैली संस्कृत की शैली शैली के ठीक अनुरूप नहीं है। उपर्यक्त प्रथम शैली के आचार्यों में दण्डी के उदाहरण स्व निर्मित हैं, पर उन्होनें शास्त्रीय विवेचन और उदाहरणों के लिए प्राय: एक छंद को अपनाया है, हिन्दी आचार्यों के समान भिन्न-भिन्न छंदों को नहीं। द्वितीय शैली के संस्कृत-आचार्यों में जगन्नाथ के उदाहरण स्व निर्मित हैं, पर उनका समग्र शास्त्रीय विवेचन गद्य बद्ध है। इधर हिन्दी रीतिग्रंथों में एक भी ग्रंथ इस शैली में उपलब्ध नहीं है। तृतीय शैली के ग्रंथ- निर्माताओं-मम्मट आदि ने गद्य बद्ध वृत्ति को कारिका गत शास्त्रीय सिद्धांतों की व्याख्या का साधन बनाया है, इधर उपर्युक्त कुलपति आदि हिन्दी के आचार्यों ने कुछेक स्थलों पर गद्य बद्ध वृत्ति का आश्रय इसी उद्देश्य से लिया है। परंतु इनका गद्य-भाग संस्कृत ग्रंथों में प्रयुक्त गद्य-भाग की तुलना में मात्रा की दृष्टि से शतांश भी नहीं है; दूसरे, न यह परिष्कृत एवं गंभीर विवेचनोपयोगी है। इस प्रकार संस्कृत काव्य शास्त्र और हिन्दी काव्य का रीतिकालीन काव्य शास्त्र वण्र्य-विषय की दृष्टि से लगभग एक होता हुए भी विषय की व्यापकता, शास्त्रीय विवेचना और प्रतिपादन-शैली की दृष्टि से भिन्न है और इस भिन्नता का प्रधान कारण है उद्देश्य की भिन्नता। उधर लक्ष्य ग्रंथों को ध्यान में रखकर लक्षण-निर्माण प्रमुख उद्देश्य रहा है, पर इधर लक्ष्य-निर्माण को ही प्रमुख उद्देश्य बना कर पूर्व निर्मित लक्षणों का आधार ग्रहण किय गया है।
उपलब्ध सामग्री को रूप-विधानुसार तीन वर्गों में रखा जा सकता है। इनमें पहले के अंतर्गत मुक्तक रचनाएँ ली जा सकती हैं। इसके भीतर काव्यंागों के निरूपण के लिए अथवा काव्य शास्त्र के नियमों को दृष्टि में रखकर लिखे गये ग्रंथों के अतिरिक्त वे ग्रंथ भी परिगणित होंगे, जिनमें काव्य शास्त्रीय नियमों को दृष्टि में न रख कर रचे हुए स्फुट छंदों का संकलन किया गया है। इस प्रकार के छंद परिमाण में सर्वाधिक हैं दूसरे वर्ग में प्रबन्ध काव्य आ सकते हैं। इनमें वे सभी रचनाएँ ग्रहण की जायेंगी, जिनमें किसी प्रसिद्ध अथवा काल्पनिक कथा, घटना प्रसंग या चरित्र को कथात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है। इनकी संख्या अपेक्षा कृत कम है। तीसरा वर्ग नाटकों का है। इसमें संस्कृत के प्रसिद्ध नाटकों के पद्य बद्ध अनुवाद रखे जा सकते है। ये प्रबंध काव्यों की तुलना में और भी कम हैं।
उपलब्ध सामग्री को रूप-विधानुसार तीन वर्गों में रखा जा सकता है। इनमें पहले के अंतर्गत मुक्तक रचनाएँ ली जा सकती हैं। इसके भीतर काव्यंागों के निरूपण के लिए अथवा काव्य शास्त्र के नियमों को दृष्टि में रखकर लिखे गये ग्रंथों के अतिरिक्त वे ग्रंथ भी परिगणित होंगे, जिनमें काव्य शास्त्रीय नियमों को दृष्टि में न रख कर रचे हुए स्फुट छंदों का संकलन किया गया है। इस प्रकार के छंद परिमाण में सर्वाधिक हैं दूसरे वर्ग में प्रबन्ध काव्य आ सकते हैं। इनमें वे सभी रचनाएँ ग्रहण की जायेंगी, जिनमें किसी प्रसिद्ध अथवा काल्पनिक कथा, घटना प्रसंग या चरित्र को कथात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है। इनकी संख्या अपेक्षा कृत कम है। तीसरा वर्ग नाटकों का है। इसमें संस्कृत के प्रसिद्ध नाटकों के पद्य बद्ध अनुवाद रखे जा सकते है। ये प्रबंध काव्यों की तुलना में और भी कम हैं।
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