देव-
देव- ये इटावा के रहने वाले थे। इनका पूरा नाम देवदत्त था। सोलह वर्ष की अवस्था में सं.1746 में ‘भाव विलास’ की रचना की और उस ग्रंथ के निर्माण के समय उनकी आयु सोलह वर्ष बतायी है। इस हिसाब से इनका जन्म सं.1730 निश्चित होता है। ये इटावा के काश्यप गोत्रीय कान्यकुब्ज द्विवेदी ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम बिहारीलाल था। ये 94 वर्ष की अवस्था तक जीवित रहे और सं. 1824 इनका अनुमानित मृत्युकाल है।
इसके अतिरिक्त इनका कोई परिचय नही मिलता। इन्होंने अनेक प्रदेशों का भ्रमण किया था। इन्होंने कई आश्रयदाताओं के यहाँ रहकर अपनी रचनाएँ की परन्तु किसी भी उदार आश्रयदाता के यहाँ इन्होंने सुखपूर्वक काल-यापन नहीं किया। इनके कुछ आश्रयदाताओं के नाम इस प्रकार हैं-1. आजमशाह, जिन्हें इन्होंने अपने दो ग्रंथ ‘भाव विलास’ और ‘अष्टयाम’ भेंट किये थे। 2. चर्खी- ददरी पति राजा सीताराम के भतीजे भवानीदत्त वैश्य, जिनके नाम पर इन्होंने ‘भवानी विलास’ ग्रंथ की रचना की। 3. फफँूद रियासत के राजा कुशल सिंह जिनके लिए ‘देव’ ने ‘कुशलविलास’ की रचना की। 4. राजा भोगीलाल, जिसके लिए इन्होंने ‘रस विलास’ की रचना की थी। 5. इटावा के समीप ड्योंडिया खेरा के राजा-जमीदार राव मर्दन सिंह के पुत्र उद्योत सिंह, जिन्हें इन्होंने अपना ग्रंथ ‘प्रेम चन्द्रिका’ समर्तित किया था। 6. दिल्ली के रईस पातीराम के पुत्र सुजानमणि, जिनके लिए ‘सुजान विनोद’ की रचना की गयी और 7. पिहानी के अधिपति अकबर अली खाँ, जिन्हें इन्होंने ‘सुखसागरतरंग’ समर्पित किया।
रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों में शायद सबसे अधिक ग्रंथ रचना देव की है जिसकी संख्या 52 बताई जाती है। जिनमें आचार्य शुक्ल के अनुसार निम्न हैं- भाव विलास, अष्टयाम, भवानी विलास, सुजान विनोद, प्रेम तरंग, देव चरित, तत्व दर्शन पचीसी, नख-शिख, प्रेम दर्शन आदि। देव जी अपने पुराने ग्रंथों के कवित्तों को इधर दूसरे क्रम से रखकर एक नया ग्रंथ प्राय: तैयार कर दिया करते थे। इसलिये कई ग्रंथों में छंदों का बार-बार आना स्वाभाविक है। इनकी रचनाओं से इनके मासिक क्रम विकास का पता लगता है और ज्ञात होता है कि यौवन काल के शंृगारी कवि देव अपनी वृद्धावस्था तक पहुँचते-पहुँचते वेदान्ती और ज्ञानी हो गये थे।
ये आचार्य और कवि दोनों रूपों में हमारे सामने आते हैं। कवित्व शक्ति और मौलिकता दोनों देव में थी। रीति निरूपण की दृष्टि से कवि देव के विवेचन में गुण और दोष-दोनों ही स्पष्ट हैं। गुणों में लक्षणों की सुबोधता, स्पष्टता और संक्षिप्तता तथा उदाहरणों की तदनुरूपता एवं सरसता के अतिरिक्त सबसे महत्वपूर्ण यह है कि ये अपने मत को प्रबल शब्दों में एवं आत्म-विश्वास के साथ व्यक्त करते है। ‘दधि, घृत, मधु, पायस तजि वायसु चाम चबात’। कह कर चित्र काव्य का तथा ‘प्रेम हीन त्रिय वेश्या है ‘शृंगार भास’ के द्वारा सामान्य-प्रेम का तिरस्कार इन्होंने जिस प्रकार से किया है, वह इसकी पुष्टि के लिए पर्याप्त है। कवित्व की दृष्टि से इनकी रचनाएं कहीं अधिक आकर्षक एवं प्रभावी कही जा सकती हैं। इनका शब्द रसायन विविधांग निरूपक ग्रंथ है, भावविलास में शंृगार रस तथा अलंकारों का निरूपण है, भवानी विलास, प्रेमतरंग, कुशलविलास, जातिविलास, रसविलास, सुजानविनोद और सुखसागरतरंग और विशेषत: इनके नायक-नायिका-भेद प्रसंग से सम्बद्ध ग्रंथ हैं। एक कवि द्वारा एक ही विषय से सम्बद्ध अनेक ग्रंथों के प्रणयन का परिणाम यह हुआ कि अनेक प्रसंगों का कई बार पुनरावर्तन हो गया है और कई उदाहरणों की पुनरावृत्ति हो गयी है।
यद्यपि इन्होंने देाहा, कवित्त, सवैया में भी अपनी रचनाएँ की हैं परन्तु इनकी घनाक्षरियाँ ही अधिक है और उत्कृष्टता की दृष्टि से भी अच्छी हैं। इनके प्राय: प्रत्येक पद में एक साथ कई अलंकार, लक्षणा, व्यंजना, ध्वनि, रस, वृत्ति आदि पाये जाते हैं और यह इनकी विशेषता है।
भाषा पर इनका अद्भुत अधिकार है। इनका संगीतमय प्रवाहयुक्त शब्द-चयन, छन्द को सहज स्मरणीय बना देता है। इनकी भाष विशुद्ध ब्रजभाषा है। इनके छन्दों में पद-मैत्री तथा यमक एवं अनुप्रास अभूतपूर्व चमत्कार मिलता है। इनकी रचनाओं में मुहावरों और कहावतों का भी अच्छा प्रयोग हुआ है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इनका काव्य सरस एवं ग्राह्य है। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण ‘देव’ हिन्दी-साहित्य में अत्यन्त उत्कृष्ट स्थान के अधिकारी बने हैं।
पाठ्यक्रम आधारित देव के पद-
जो ब्रज सों, ब्रज जासों लसै,
तिहुँ काल घड़ी ब्रज-बाल लहावै।
‘देव’ दुकूलन फूलन में मिलि,
एक अनेक सरूप दिखावै।
खेल में खेलत खेल नये-नये,
‘नाहीं’ में नाह सों नेह जनावै।
राधिका-सी रमनीय रमा,
रती को न लगै, रति कौन कहावौ।। 1।।
शब्दार्थ: लसै= शोभा देती है। नाह=प्रिय, नाथ। रती को न लगै= रत्ती भर न लगे।
ईगुर-सी रँग एडिऩ बीच,
भरी अँगुरी अति कोमलयातिनि।
चन्दन-बिन्दु मनौ दमकै नख,
देव चुनी चमकै ज्यों सुभायनि।
बंदत नन्दकुमार तिहारेई,
राधे-बधू ब्रज की ठकुरायनि।
नूपुर-संजुत मंजु मनोहर,
जावत-रंजित कंज-से पाँयनि।। 2।।
शब्दार्थ: कोमलयातनि= कोमलता से। चुनी= लालमणि। सुभायनि= सुन्दर भाव से। नूपुर -संजुत= नूपुरों से युक्त।
कोमलताई लताई सें लोनी, ले फूलनि ही की सुहाई।
कोकिल की कल बोलनि, तोहि बिलोकन बाल-भ्रिगीनि बताई।
चाल मरालन ही सिखयी, नख ते सिख यों मधु की मधुराई।
जानति हौं, ब्रज-भू पर आये सबै सिखि रूप की सम्पति पाई ।। 3।।
मोतिन जोति बेंदी जराऊ से बंदय-दीपति ‘देव’ रही दबि।
चक्र तर्यौना, जुबा भ्रकुटी, मृगनैन नहे ससि को रथ संभबि।
बेनी बनाइ कै माँग गुही, तेहि माँह रही लर हीरन की फबि।
सोम के सीस मनो तम-तोमहि मध्य तें चीर कढ़ी रबि की छबि।।4 ।।
शब्दार्थ: तम तोमहि= अन्धकार के समूह को। बंदय-दीपति= सिन्दूर की कान्ति।
रीझि-रीझि रहसि-चकि, हँस-हँसि उठैं,
साँसें भरि आँसैं भरि कहत ‘दई-दई’।
चौंकि-चौंकि, चकि-चकि, उचकि-उचकि ‘देव’
जकि-जकि, बकि-बकि परत बई-बई।
दोउन को रूप-गुन दोउ बरनत फिरैं,
घर न थिरात, रीति नेह की नई-नई।
मोहि-मोहि मोहन को मन भयो राधा-मय,
राधा मन मोहि-मोहि मोहनमयी भई।। 5।।
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