Monday, 16 December 2019

अरस्तू का त्रासदी सिद्धांत

 अरस्तू
  यूनानी भाषा में अरस्तू का वास्तविक नाम है ‘अरिस्तोतेलस’। उसका जन्म ई.पू. 384 में स्तगिरा नगर में Ÿा उत्तरी युनान के मैसीडोनिया प्रांत में हुआ। वह पिता की मृत्यु के बाद ई.पू. 368 के लगभग एवेन्स आकर (प्लेटो) प्लतोन के प्रसिद्ध विद्यापीठ(अकादमी) में प्रविष्ठ हो गया। वे एक महान युनानी चिकित्सक के पुत्र थे। अरस्तू प्लेटो का शिष्य और समकालीन था। प्लेटो ने गणित का अध्ययन किया था। अरस्तू ने प्राणिशा. का। गणित के अध्ययन के फलस्वरूप प्लेटो सूक्ष्म तत्व से स्थूल पदार्थ की ओर आया और अरस्तू का चिन्तन स्थूल पदार्थ से सूक्ष्म तत्व की ओर गया।ई.पू. 322 में जन्म भूमि स्तगिरा के निकट खलकिस नामक नगरी में आंत-रोग के कारण मृत्यु हो गई।
पाश्चात् सभ्यता और संस्कृति का मूल स्रोत यूनानी ज्ञान-विज्ञान और यूनानी ज्ञान-विज्ञान की मूल प्रेरणा का केन्द्र अरस्तू की प्रतिभा। यूनानी भाषा में अरस्तू का वास्तविक नाम है ‘अरिस्तोतेलस’। उसका जन्म ई.पू. 384 में स्तगिरा नगर में हुआ था। वह पिता की मृत्यु के बाद ई.पू. 368 के लगभग एवेन्स आकर (प्लेटो) प्लतोन के प्रसिद्ध विद्यापिठ (अकादमी) में प्रविष्ठ हो गया। वह प्लेटो के साथ बीस वर्ष तक रह कर अध्ययन-मनन पश्चात् अध्यापन भी किया। प्लेटो अरस्तू की प्रतिभा से बहुत प्रभावित थे तथा उन्हे ‘विद्यापीठ का मस्तिष्क’ कहते थे। अरस्तू ने प्लेटो के बहुत से सिद्धान्तों का दृढ़ता से खण्डन किया फिर भी गुरु-शिष्य सम्बन्ध मधुर ही बने रहे। प्लेटो की मृत्यु के बाद ई.पू. 348 के लगभग अरस्तु हरमेइअस के निमत्रंण पर अथेन्स छोड़ कर आक्सौस नगर में अकादमी की एक शाखा स्थापित की।
ई.पू. 343 में अरस्तू को मकेदोनिया का राजा फिलिप अपने राजकुमार (विश्वविख्यात) सिकन्दर महान का शिक्षक नियुक्त किया। सिंहासन में आरूढ़ हो जाने तक अरस्तु सिकन्दर के साथ रहे।
ई.पू. 335 में उन्होंने अथेन्स के निकट अपोलो में अपना एक स्वतंत्र विद्यापीठ ‘ल्यूकेउम’ नाम से स्थापित किया जहाँ विद्या के सभी अंगो-उपांगो का अध्ययन-अध्यापन होता था। अरस्तू की अध्यापन शैली- प्रायः टहलते हुए प्रवचन किया करते थे और इसी आधार पर उनकी शिक्षा-पद्यति का नामकरण भी हुआ है। ई.पू. 323 में बेबिलोन में सिकन्दर की मृत्यु हो गई। इसके बाद अथेन्स छोड़ दिया। अथेन्स छोड़ते समय उनका यह वाक्य था-‘‘मैं अथेन्स इसलिये छोड़ रहा हूँ कि कहीं अथेनी जनता दर्शन के विरुद्ध फिर दूसरी बार अपराध न कर बैठे।’’ ई.पू. 322 में जन्म भूमि स्तगिरा के निकट खलकिस नामक नगरी में आंत-रोग के कारण मृत्यु हो गई।
अरस्तू बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। प्राणिविज्ञान के विद्यार्थी होते हुए भी ज्ञान-विज्ञान का ऐसा कोई भी क्षेत्र नही था जिसे उसकी प्रतिभा का आलोक प्राप्त न हो। आपने बासठ वर्ष के जीवन में 400 ग्रंथों की रचना की जिसमें- तर्कशास्त्र, अधिमानस शास्त्र, मनोविज्ञान, भौतिक विज्ञान, ज्योतिष विज्ञान, राजनीतिशास्त्र, आचार शास्त्र, साहित्यशास्त्र,आदि। साहित्य शास्त्र,से सम्बद्ध उनके दो ग्रंथ है 1. भाषण शास्त्र, (लेखनेस रितोरिकेस), 2. काव्यशास्त्र, (पेरीवोद्रतिकेस)
ऐतिहासिक दृष्टि से पाश्चात्य काव्य शाó में अरस्तू का स्थान वही है जो भारतीय काव्य शास्त्र, मे भरत का। अरस्तू की मेधा अत्यन्त प्रखर थी- उनकी वस्तुपरक दृष्टि तथ्य पर आश्रित रहने कारण निर्भ्रान्त थी।
उन्होने यूरोप में अनुगम शैली का अवलम्बन कर ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक आलोचना का सूत्रपात किया। उनकी विवेचन पद्यति स्पष्ट और तर्क संगत है, जो विवेक के मार्ग से कभी विचलित नही होती। अरस्तू ने नैतिक और राजनैतिक मूल्यों से स्वतंत्र कलागत मूल्यों की प्रतिष्ठा कर, काव्य और कला को धर्म और राजनीति की दासता से मुक्त किया। अरस्तू ने निभ्रान्त शब्दों में यह घोषणा की कि जीवन की कल्याण-साधना में बाधक न होकर भी कला मूलतः सौन्दर्य की साधना में ही अनुरत रहती है- उसकी सिद्धि आनन्द ही है।

अरस्तू: अनुकरण सिद्धान्त
   अरस्तू प्लेटो का शिष्य और समकालीन था। किन्तु ज्यों-ज्यों प्रतिभा का विकास होता गया त्यों-त्यों वह अपने गुरु द्वारा निर्धारित दर्शन-तत्व-प्रधान मार्ग से अलग होता गया। उसने विज्ञान तथा तर्क मिश्रत-विश्लेषण एवं विवेचन की पद्यति ग्रहण की। उसने प्लेटो की दर्शन पद्धति का विरोध कर अपने स्वतंत्र मार्ग का निर्माण किया। वास्तव में चिन्तन क्षेत्र में से दो परस्पर विरोधी दृष्टिकोण कठिनाई से ही मिलेंगे। प्लेटो ने गणित का अध्ययन किया था। अरस्तू ने प्राणिशा. का। गणित के अध्ययन के फलस्वरूप प्लेटो सूक्ष्म तत्व से स्थूल पदार्थ की ओर आया और अरस्तु का चिन्तन स्थूल पदार्थ से सूक्ष्म तत्व की ओर गया। प्लेटो मूलतः अध्यात्म मूलक था, अरस्तु विज्ञानवादी। दोनों के दृष्टिकोणों का अन्तर उस समय और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है। 

सामान्यतः कविता दो कारणों से प्रस्फुटित हुई प्रतीत होती है और इन दोनों की ही जड़े हमारे स्वभाव में गहरी है।

पहला- अनुकरण की सहजवृत्ति मनुष्य में शैशव से ही सन्निहित रहती है। मनुष्य जीवधारियों में सबसे अनुकरण शील प्राणी है। अनुकूल वस्तु से प्राप्त आनन्द भी कम सर्वभौम नही है। अतः किसी प्रतिकृति को देखकर मनुष्य के अह््लादित होने का कारण यह है कि उसका भावन करने में वह सब कुछ ज्ञान प्राप्त करता है या निष्कर्ष ग्रहण करता है-शायद वह अपने मन में कहता है,‘अरे!यह तो अमुक है।’क्योंकि यदि अपने मूल वस्तु को नही देखा तो आपका आनन्द अनुकरण जन्य न होगा वह अंकन, रंग-योजना या किसी अन्य कारण पर आहत होगा। अतः अनुकरण हमारे स्वभाव की एक सहजवृति है। दूसरी वृति है सामंजस्य और लय की-
छन्द भी स्पष्टतः ही लय के अनुभाग होते हैं। इसलिए जो इस सहज शक्ति से सम्पन्न थे, उन्होंने धीरे-धीरे अपनी विशिष्ट प्रवृत्तियों का विकास कर लिया, और अन्त में उनकी भोंड़ी आशु रचनाओं से ही कविता का जन्म हुआ।

स्वभाव के अनुसार-व्यक्तिगत स्वभाव के अनुसार काव्य धारा दो दिशाओं में विभक्त हो गई। गम्भीर लेखकों ने उदार व्यापारों और सानों के क्रिया कलापों का अध्ययन किया तथा जो क्षुद्र वृद्धि व्यक्ति थे उन्होंने अधम जनों के कार्याे का अनुकरण किया। जिस प्रकार प्रथम वर्ग के लेखकों ने देव-सूक्त और यशस्वी पुरुषों की प्रशस्तियाँ लिखी, उसी प्रकार इन लोगों ने पहले-पहल व्यंग्य-काव्य की रचना की। महाकाव्य और त्रासदी के घटक अंगो में से कुछ तो दोनों में ही समान रूप से होते हैं। महाकाव्य के सभी तत्व त्रासदी में वर्तमान रहते हैं, पर त्रासदी के सम्पूर्ण तत्व महाकाव्य में उपलब्ध नही होते।

 अरस्तू का काव्य शा यद्यपि अधूरा है, फिर भी उसका प्रभाव व्यापक और गम्भीर पड़ा। अरस्तू का ‘काव्य शा.’ साहित्य के क्षेत्र में ‘बाइबिल’ बन गया। अरस्तू के काव्य कला-सम्बधी सिद्धान्तों के द्वारा साहित्य-समीक्षा का क्षेत्र व्यापक प्रशस्त एवं स्पष्ट हुआ।

कला का स्वरूप सम्बधी सिद्धान्त। यूनान में ‘ललित कला’ शब्द प्रचलित न होकर अनुकरणात्मक कला या उदार कला प्रचलित था। साहित्य क्षेत्र में अनुकरणात्मक कला का प्रयोग सर्वप्रथम प्लेटो ने किया। अरस्तु ने इस शब्द को स्वीकार कर अनुकरन को कलाओं की सामान्य विशेषता बताया। अनुकरन की चर्चा करते हुए अरस्तू का कहना है कि कार्यरत मनुष्य ही ललित कलाओं के अनुकरन के पात्र या अवलम्बन है। इस कार्य में मानसिक जीवन और बुद्धि पूर्ण व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति सभी का समावेश है। मानव जीवन ही इन कलाओं की प्रेरणा का मूल स्रोत है।

कलात्मक अनुकरण कोई नकल नही है, क्योंकि कलाकृति मौलिक वस्तु को ज्यों का त्यों प्रस्तुत नहीं करती, प्रत्युत जैसी की मानस गोचर होती है। और वह वस्तुगत यथार्थता को अंकित न कर उसका मानस प्रत्पक्ष समुपस्थित करती है। 
अरस्तू कहता है कि कवि को शब्द असम्भावना   की अपेक्षा संभाव्य असंम्भावना (चतवइंइसम पउचतवइंइपसपजपम) को पंसद करना चाहिये।
काव्य और छन्द का भेद बताते हुए अरस्तु कहता है कि जो कुछ पद्यबद्ध है, वह सब काव्य नही है। काव्य का सार पद्यबद्धता में न होकर विचार के अनुकरण में है।

काव्य के सम्बन्ध में अरस्तु द्वारा प्रयुक्त ‘अनुकरण’ ‘अनुकृति’ कोरी नकल न होकर ‘प्रतिकृति’ या विचार के अनुरुप सर्जन है। इस प्रकार कलात्मक अनुकरण सर्जनात्मक कार्य हुआ।

अरस्तू का कथन है कि ‘कवि का काम, जो घटित हो चुका है, उसका कथन नही है, प्रत्युत जो घटित हो सके उसका कथन है-जो सम्भावना और आवश्यकता के नियम के अनुसार सम्भव हो।’

अरस्तू ने अनुकरणात्मकता की प्रवृति के विषय मंे अपने पूर्ववर्ती विचारक प्लेटो से मतवैषम्व प्रकट किया। उसने बहुत वैज्ञानिक शैली में तर्क प्रस्तुत करते हुए अपने गुरु के मत का खण्डन किया। उसने बहुत वैज्ञानिक शैली में तर्क प्रस्तुत करते हुए अपने गुरु के मत का खण्डन किया। उसने काव्य की दर्शन तथा इतिहास आदि से तुलना करते हुए प्रतिवादित किया कि जहाँ तक दार्शनिकता का सम्बध है वह इतिहास की अपेक्षा काव्य में अधिक होती है। अरस्तु का मानना है कि एक कवि और दार्शनिक की प्रेरणा समान होती है और काव्य तथा दर्शन दोनों ही सत्य का समान रूप से निरुपण करते है।

अरस्तू ने व्यापक दृष्टिकोण से अपने अनुकरन सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए कहा कि महाकाव्य, दुखान्त नाटक,  सुखान्त नाटक, गीति काव्य, मुरली-वादन, तथा वीणावादन ये सब अनुकरण की ही विविध प्रणालियाँ है, परन्तु इन सब में भिन्नता यह है कि सब की शैलियाँ पृथक-पृथक रूप से स्वतंत्र है।

               प्रसिद्ध आलोचक बूचर के अनुसार अरस्तू के अनुकरण शब्द का अर्थ है, सादृश्य-विधान अथवा मूल का पुनरूत्पादन, सांकेतिक उल्लेखन नहीं। कला या कविता के मानव-जीवन के सर्वव्यापक तत्व की अभिव्यक्ति मानता हुआ वह अनुकरण को रचनात्मक प्रक्रिया मानता है। प्रो. गिलबर्ट मरे ने यूनानी शब्द पोएतेस (कर्ता-रचयिता) को आधार मानकर अनुकरण शब्द की यही व्याख्या की है और अनुकरण में सर्जना का अभाव नहीं माना है। 

आधुनिक टीकाकार पॉट्स के अनुसार अनुकरण का अर्थ है-जीवन का पुनःसृजन और एटकिन्स के अनुसार प्रायः पुनःसृजन का ही दूसरा नाम अनुकरण है। 

स्कॉट जेम्स इसे जीवन के कलात्मक पुनर्निर्माण का पर्याय मानता है-‘‘यह सत्य है कि अनुकरण को नया अर्थ प्रदान कर अरस्तू ने कला का स्वतन्त्र अस्तित्व स्थापित किया। कला पर प्लेटो द्वारा लगाये आरोप को वृथा बताया और कविता को दार्शनिक तथा नीति के चंगुल से छुटकारा दिलाया।’’

पोएटिका (काव्यशास्त्र या पेरीवोद्रतिकेस)के दो भाग हैं-पहले भाग में नाटक और त्रासदी विवेचन है।दूसरे भाग में कामदी पर विचार हुआ है।
अरस्तू का दूसरा महान ग्रंथ ‘रिटोरिक’ (भाषणशास्त्र या लेखनेस रितोरिकेस ) अलंकार या वक्तृत्व कला पर आधारित है। रिटोरिक में गद्य में दिए गए भाषणों के अलंकरण पर विचार हुआ है।

अरस्तू ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘पोएटिका’ में त्रासदी को परिभाषित करते हुए लिखा है- त्रासदी मानव-भावनाओं का परिष्कार करती है। वह भाषा के माध्यम से जीवन की विषम परिस्थितियों और मूलों तथा नासमझी के कारण उत्पन्न हुई संकट पूर्ण घटनाओं का अनुकरण करती है।

अरस्तू ने अपने ग्रन्थ पोइटिक्स में जहाँ उन्होंने त्रासदी की परिभाषा तथा उसका स्वरूप निश्चित करते हुए कहा है कि त्रासदी किसी गम्भीर, स्वतःपूर्ण तथा निश्चित आयाम से युक्त कार्य की अनुकृति का नाम है, जिसका माध्यम नाटक के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न रूप से प्रयुक्त सभी प्रकार के आभरणों से अलंकृत भाषा होती है जो समाख्यान रूप में न होकर कार्य-व्यापार रूप में होती है और जिसमें करुणा तथा त्रास के उद्रेक द्वारा इन मनोविकारों का उचित विरेचन किया जाता है। 

इस उद्धरण से प्रकट होता है कि यहाँ अरस्तू ने प्लेटो के आक्षेप का उत्तर देने के साथ-साथ यह भी स्पष्ट किया है कि त्रासदी के मूलभाव त्रास और करुणा होते हैं और इन भावों को उद्बुद्ध कर विरेचन की पद्धति से मानव-मन का परिष्कार त्रासदी का मुख्य उद्देश्य होता है।

त्रासदी के छह तत्व होते हैं-  कथा वस्तु,  चरित्र, भाषाशैली, विचार, प्रदर्शन, संगीत।
अरस्तू ने कला सम्बन्धी दो धारणाओं को स्पष्ट किया है-
1.कला मानव भावनाओं का विरेचन करती है।
2.कला अनुकरणात्मक होती है।अरस्तू कला को प्रकृति की अनुकृति मानते है।‘‘
कविता सामान्यतः मानवीय प्रकृति की दो सहज प्रवृत्तियों से उद्भूत हुई जान पड़ती है। इनमंे से एक है अनुकरण की प्रवृत्ति।.........कला प्रकृति का अनुकरण करती है।’’ यहाँ प्रश्न उठता है कि प्रकृति से अरस्तू का क्या अभिप्राय है। क्या वह जगत् के बाह्य, स्थूल और गोचर रूप को-पर्वत, नदी, पशु आदि को प्रकृति के अन्तर्गत मानते है? स्पष्ट है कि नहीं। 

उसके अनुसार प्रथम तो मानवेतर प्रकृति का अनुकरण करना-अनुकरणात्मक कला का काम नहीं। दूसरे,कवि या कलाकार प्रकृति की गोचर वस्तुओं का नहीं, वरन् प्रकृति की सर्जन-प्रक्रिया का अनुकरण करता है। उसके अनुसार अनुकरण का विषय गोचर वस्तुएँ न होकर,उनमें निहित प्रकृति-नियम हैं। 

उन्होंने लिखा है,‘‘प्रत्येक वस्तु पूर्ण विकसित होने पर जो होती है, उसे ही हम उसकी प्रकृति कहते हैं।’’ प्रकृति इसी आदर्श रूप की उपलब्धि की ओर निरन्तर कार्यरत रहती है, किन्तु कई कारणों से वह अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति में सफल नहीं हो पाती। कवि या कलाकर उन अवरोधक कारणों को हटाकर प्रकृति की सर्जन-क्रिया का अनुकरण करता हुआ प्रकृति का ही कार्य करता है। वह प्रस्तुत वस्तु से उसके विश्वव्यापक और आदर्श रूप का बोध कराता है। 

इस प्रकार अनुकरण एक सर्जन-क्रिया है। इस सम्बन्ध में एबरक्रोम्बे का मत उल्लेखनीय है। उन्होंने लिखा है कि अरस्तू का तर्क था कि यदि कविता प्रकृति का केवल दर्पण होती, तो वह हमें उससे कुछ अधिक नहीं दे सकती थी जो प्रकृति देती है, पर तथ्य यह है कि हम कविता का आस्वादन इसलिए करते हैं कि वह हमें वह प्रदान करती है जो प्रकृति नहीं दे सकती। 

एबरक्रोम्बे के अनुसार ‘अरस्तू ने कविता में अनुकरण का वही अर्थ ग्रहण किया जो अर्थ आजकल हम तन्त्र या शिल्प का मानते हैं।’’ तात्पर्य यह है कि वस्तु-जगत् के द्वारा कवि की कल्पना में जो वस्तु-रूप प्रस्तुत होता है, कवि उसी को भाषा में प्रस्तुत करता है।

 यह पुनर्प्रस्तुतीकरण ही अनुकरण है। ‘‘अनुकरण वह तन्त्र है जिसके द्वारा कवि अपनी कल्पनात्मक अनुभूति की प्रक्षेपणीय अभिव्यक्ति को अन्तिम रूप प्रदान करता है।’’

 स्पष्ट है कि अरस्तु का कल्पना सिद्धांत प्लेटो से भिन्न है। वह अनुकरण का अर्थ हू-ब-हू नकल नहीं, बल्कि संवेदना, अनुभूति, कल्पना, आदर्श आदि के प्रयोग द्वारा अपूर्ण को पूर्ण बनाना मानता है।

 अरस्तू के अनुसार कलाकर तीन प्रकार की वस्तुओं में से किसी एक का अनुकरण कर सकता है-जैसी वह थीं या हैं, जैसी वे कही या समझी जाती हैं और जैसी वे होनी चाहिए। स्पष्ट है कि वे काव्य का विषय प्रकृति के प्रतीयमान, सम्भाव्य व आदर्श रूप को मानते हैं। कवि को स्वतन्त्रता है कि वह प्रकृति को उस रूप में चित्रित करे जैसी वह उसकी इन्द्रियों को प्रतीत होती है या जैसी वह भविष्य में प्रतीत हो सकती है अथवा जैसी वह होनी चाहिए। इस चित्रण में निश्चय ही कवि की भावना और कल्पना का योगदान होगा-वह नकल मात्र नहीं होगा। 

प्रतीयमान एव संभाव्य रूप में यदि वह भावना और कल्पना का आश्रय लेगा,तो आदर्श रूप में वह अपनी रूचि,इच्छा तथा आदर्शों के अनुरूप चित्र प्रस्तुत करेगा।इस प्रकार अरस्तू का अनुकरण-सिद्धान्त भावनामय तथा कल्पनामय अनुकरण को मानकर चलता है,शुद्ध प्रतिकृति को नहीं।

कविता और इतिहास के बारे में अरस्तू का मत है कि कविता इतिहास की अपेक्षा अधिक दार्शनिक एवं उच्चतर वस्तु है।‘‘कवि और इतिहासकार में वास्तविक भेद यह है कि इतिहासकार एक तो उसका वणर्न करता है जो घटित हो चुका है और दूसरा उसका वर्णन करता है जो घटित हो सकता है।............काव्य सामान्य की अभिव्यक्ति है और इतिहास विशेष की।’’ उनके इस कथन में इतिहास के सत्य के मूर्त एवं अव्यापक बताया गया है और काव्य के सत्य को अमूर्त एवं व्यापक कहा गया है। मूर्त वस्तुपरक होता है जब कि अमूर्त का चित्रण कल्पना, अनुभूति तथा विचार पर आश्रित होता है। 

अतः उनके काव्य और इतिहास सम्बन्धी विवेचन से भी हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि अनुकरण से अरस्तू का अभिप्र्राय भावपरक अनुकरण से था न कि यथार्थ वस्तुपरक प्रत्यांकन से। उनका यह वक्तव्य भी इसी तथ्य की और संकेत करता है।

कार्य: त्रासदी के विवेचन में अरस्तू ने लिखा है कि वह मनुष्यों का नहीं वरन् कार्य का और जीवन का अनुसरण करती है।कार्य शब्द का प्रयोग उन्होंने मानव-जीवन के चित्र के अर्थ में किया है।जो कुछ भी मानव-जीवन के आन्तरिक-पक्ष को व्यक्त कर सके, बुद्धि-सम्मत व्यक्तित्व का उद्घाटन करे, वह सभी कुछ कार्य शब्द के अन्तर्गत आएगा। 

अतः कार्य का अर्थ केवल मनुष्य के कर्म ही नहीं, उसके विचार,भाव,चरित्र आदि भी हैं,जो कर्म के लिए उŸारदायी होते हैं। अतः यहाँ भी अनुकरण का अर्थ नकल न होकर पुनर्प्रस्तुतीकरण है। इसी सन्दर्भ में उन्होंने लिखा है कि काव्य में जिस मानव का चित्रण होता है,वह सामान्य मानव से अच्छा भी हो सकता है,उससे बुरा भी हो सकता है और वैसे का वैसा भी। पर उन्होंने तीसरे वर्ग की चर्चा न कर केवल सामान्य से अच्छे और बुरे की चर्चा की है। इस चर्चा से भी स्पष्ट है कि वह काव्य में प्रकृति के अन्धानुकरण के विरूद्ध थे,क्योंकि सामान्य से अच्छा या बुरा मानव चित्रित करने के लिए तो कल्पना-तत्व आवश्यक है ।

अतः अनुकरण से उनका अभिप्राय कल्पनात्मक पुनःसर्जन था जिसमें कुछ चीजें बढ़ाई जा सकती हैं तो कुछ अनावश्यक बातें छोड़ी भी जा सकती हैं।

आनंद: अरस्तू ने एक स्थान पर लिखा है, जिन वस्तुओं का प्रत्यक्ष दर्शन हमें दुःख देता है, उनका अनुकरण द्वारा प्रस्तुत रूप हमें आनन्द प्रदान करता है। डरावने जानवर को देखने में हमें भय एवं दुःख होता है, किंतु उसका अनुकृत रूप हमें आनन्द प्रदान करता है। इसका आशय यह हुआ कि अनुकरण द्वारा वास्तविक जीवन में भय और दुःख की अनुभूति प्रदान करने वाला वस्तु को इस प्राकर प्रस्तुत किया जाता है कि उससे केवल आनन्द की उपलब्धि होती है। भय और दुःख का निराकरण हो जाता है। यह अनुकरण निश्चय ही यथार्थ वस्तुपरक अंकन न होकर भावनात्मक और कल्पनात्मक होगा।

अरस्तू का कथन है कि अनुकृत वस्तु से प्राप्त आनन्द कर्म सार्वभौम नहीं होता। यद्यपि इस कथन में अरस्तू का संकेत सहृदय के ही आनन्द से है, पर सहृदय को भी आनन्द तभी प्राप्त हो सकता है जब कवि के हृदय में आनन्द भाव की अनुभूति हो। इसका अर्थ यह हुआ कि अनुकरण में आत्म-तत्त्व का प्रकाशन अनिवार्य है, आत्माभिव्यंजना आवश्यक है, वह केवल वस्तु का यथार्थ अंकन नहीं है।
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