धर्मवीर भारती का काव्य संग्रह ’ठंडा लोहा’: एक दृष्टि
शब्द को कहा जाना था
चूँकि सत्य सदा सत्य है
आज भी अनिवार्य है
अतः आज के लिए भी शब्द है
और उसे कहा जाना अनिवार्य है। 1
उक्त शब्द हैं, हिन्दी जगत के शब्द शिल्पी धर्मवीर भारती के। शब्द ब्रह्म है। शब्द सत्य है। शब्द अभिव्यक्ति की अनिवार्यता है। शब्द सृजन का आधार है। शब्द युग की सीमा से परे है। शब्द का सातत्य है। भारती जी कहते हैं, इसलिये शब्द का कहा जाना अनिवार्य है। शब्द की अनिवार्यता इसलिये भी है कि आरम्भ में केवल शब्द था। किन्तु शब्द के लिये दो चाहिए। ’एकोऽहम बहुष्यामं’ यह श्रुति की आवश्यकता है। बिना उसके शब्द की सार्थकता सिद्ध नहीं हो सकती। शब्द मौन तोड़ने के लिये आवश्यक है। वे लिखते हैं-
आरम्भ में केवल शब्द था
किन्तु उसकी सार्थकता थी श्रुति बनने में
कि वह किसी से कहा जाय
मौन को टूटना अनिवार्य था 2
ऐसे शब्द शिल्पी, हिन्दी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार और सामाजिक विचारक धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसंबर, 1926 को इलाहाबाद के अतर सुइया मुहल्ले में हुआ। उनके पिता का नाम श्री चिरंजीव लाल वर्मा और माँ का श्रीमती चंदादेवी था। डॉ. धर्मवीर भारती ने अपनी वंष परंपरा के बारे में लिखा है,’’ मेरे बाबा ने ’मलका बिकटूरिया’ के जमाने में एक मकान बनवाया था जिसमें सबसे ऊपर लिखवाया था- ’ओम् सत्यमेव जयते नान्ताम’ और उसके नीचे लिखवाया था ’दिल्लीष्वरो वा जगदीष्वरो वा ।’ 3 ’डाकखाना -मेघदूत षहर दिल्ली’ ठेेले पर हिमालय पृ.131 धर्मवीर भारती जी लिखते हैं, उनके ऊपर पिता जी का प्रत्यक्ष प्रभाव जीवन भर रहा। ’’.........मैंने उस दिन दरवाजे के पास से यह वृतान्त सुना और पिता जी का भक्त हो गया। उनके मूल्य, उनकी प्रखरता,उनकी उदार दृष्टि, उनकी देषभक्ति, उनकी समझौता-विहीन ईमानदारी मेरा आदर्ष बन गयी।’’4 डॉ. चन्द्रकांत बांदिवडेकर, धर्मवीर भारती, व्यक्तित्व और कृतित्व, पृ.14
पिता की मृत्यु हो जाने से मां के सानिघ्य में स्कूली शिक्षा डी.ए.वी. हाई स्कूल से प्राप्त की।1942 में इंटरमीडिएट पास कर उच्च शिक्षा हेतु प्रयाग विश्वविद्यालय में प्रवेष लिया, किन्तु उस वर्ष ’भारत छोड़ों आन्दोलन’ में सक्रिय भाग लेने के कारण एक वर्ष के अन्तराल से बी.ए. की परीक्षा पास की। बी.ए. की परीक्षा में सर्वाधिक अंक हिन्दी में प्रज्ञपत होने से ’चिन्तामणि घोष स्वर्ण पदक’ 5 डॉ. हुकुमचन्द सोनवणे, धर्मवीर भारती के साहित्य के विविध आयाम, पृ. 6 प्राप्त कर हिन्दी में एम.ए.प्रथम श्रेणी में उतीर्ण करने के बाद डॉ. धीरेन्द्र वर्मा के निर्देशन में ’सिद्ध साहित्य’ पर शोध-कार्य सम्पन्न कर डी.फिल की उपाधि प्राप्त की।
डॉ. षषिभूषण सिंहल ने लिखा है,’’रचयित ने जैसा जीवन बिताया है, जीवन में जो कुछ देखा-सुना है, जीवन-सम्बधी उसकी जो मान्यताएं हैं, उन्हीं को वह कथा, पात्रों, विषय-विवेचनन तथा परिस्थिति -चित्रण के मे माध्यम से रचना में प्रस्तुम करता चलता है। अतः व्यक्तित्व यानी जीवन-सम्बन्धी उसका अनुभव ही रचना में अभिव्यक्त होता है।’’ (डॉ षषिभूषण सिंहल, साहित्यिक षोध के आयाम, पृ 36) भगवती चरण वर्मा जी भी लिखते हैं, ’’साहित्य अथवा कला को प्राणवान् और सफल साहित्य में साहित्यकार का व्यक्तित्व मूर्त होता है। साहित्यकार का व्यक्तितव उसके जीसन का अभिन्न अंग होने के नाते उसके कृतित्व का भी अभिन्न अंग हाता है। (डॉ भगवती चरण वर्मा, साहित्य के सिद्धान्त तथा रूप पृ 64-65) धर्मवीर भारती जी स्वयं रचनाकार और रचनाप्रक्रिया में समन्वय मानते हैं,’’जो खरा काव्य है,उसकी रचना प्रक्रिया में, कितने ही अप्रत्यक्ष रूप में हों किन्तु जीवन प्रक्रिया अनिवार्यतः उलझी रहती है।’’ (डॉ ’डाकखाना मेघदूत-षहर दिल्ली’ठेले पर हिमालय पृ 131) ’ठेले पर हिमालय’ में एक जगह वे कहते हैं, जानने की प्रक्रिया में होने और जीने की प्रक्रिया में जानने वाला मिजाज जिन लोगों का है उनमें मैं अपने को पाता हूं।
भारती जी के घर और स्कूल दोनों के संस्कार आर्य समाजी वातावरण में हुआ। बाद में प्रयाग में विश्वविद्यालय का साहित्यिक वातावरण उन्हें प्राप्त हुआ। पिता की मृत्यु वाल्यावस्था में ही हो जाने के कारण भारती जी को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। प्रयाग तत्कालीन राजनैतिक गतिविधियों का केन्द्र होने के कारण भारती जी का उसकी हलचलों से परिचित होना सहज था। भारती जी का चिन्तन किसी भाव विशेष में बंधा नहीं मिलता। यदि आर्यसमाज की चिंतन और तर्कशैली उन्हें प्रभावित करती है तो वे रामायण, महाभारत और श्रीमदभागवत के अध्येता एवं चिन्तक भी प्रतीत होते हैं। प्रसाद और शरतचन्द्र का साहित्य भी उन्हें उतना ही प्रिय था।
परिणामतः वे परिस्थिति ने जल्दी ही उन्हें अतिसंवेदनशील, तर्कशील बना दिया। शायद यह पंक्तियाँ वही स्पष्ट करती हैं-
शब्द का कहा जाना था
ताकि प्रलय का अराजक तिमिर
व्यवस्थित उजियाले में
रूपान्तरित हो
उन्हें जीवन में दो ही शौक थे- अध्ययन और यात्रा। भारतीय जीवन दर्शन ही नहीं तो ईसाइयत और इस्लाम का भी उन्होंने अध्ययन किया था। उनके शब्दों में इसकी सहज अभिव्यक्ति दिखाई देती है-
ताकि रेगिस्तान
गुलाबों की क्यारी बन जाय
शब्द का कहा जाना अनिवार्य था।
आदम की पसलियों के घाव से
इवा के मुक्त अस्तित्व की प्रतिष्ठा के लिए।
1948 में ’संगम; सम्पादक श्री इलाचंद्र जोशी में सहकारी संपादक नियुक्त हुए। दो वर्ष वहाँ काम करने के बाद हिन्दुस्तानी अकादमी में अध्यापक नियुक्त हुए जहाँ सन् 1960 तक कार्य किया। प्रयाग विश्वविद्यालय में अध्यापन के दौरान ’हिंदी साहित्य कोश’ के सम्पादन में सहयोग दिया। बाद में ’निकष’ पत्रिका निकाली तथा ’आलोचना’ का सम्पादन भी किया।
धर्मवीर भारती और प्रख्यात साप्ताहिक पत्रिका ’धर्मयुग’ दोनों अन्योन्याश्रित थे यदि ऐसा कहा जाय तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। वे मुम्बई में धर्मयुग के वर्षों तक यशस्वी प्रधान संपादक थे। वे लिखते हैं- जानने की प्रक्रिया में होने और जीने की प्रक्रिया में जानने वाला मिजाज़ जिन लोगों का है उनमें मैं अपने को पाता हूँ। (ठेले पर हिमालय) यह कथन उनके विशद साहित्य के अध्ययन और यात्रा-अनुभवों का प्रभाव है। ’सिद्ध साहित्य’ के ’शोध’ में उनकी रुचि भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान की ओर उनकी जिज्ञासा का परिचय कराती है। डॉ. धर्मवीर भारती को 1972 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। 1987 में डॉ. भारती ने अवकाश ग्रहण किया। 4 सितंबर,1997 को उन्होंने अपने भौतिक जीवन की यात्रा समाप्त कर पारलौकिक यात्रा प्रारंभ की।
भारती का 1952 में प्रकाषित प्रथम कविता संग्रह ’ठंडा लोहा’है। इस संग्रह में भारती जी की 1946 से 1952 के बीच की लिखी 38 कविताएं संग्रहीत हैं। इसमें से आठ कविताएं ’दूसरे सप्तक’ में भी पाई जाती हें। इस संग्रह के अन्तराल के संबन्ध में धर्मवीर जी लिखते हैं, ’’ इस संग्रह में दी गयी कविताएं मेरे पिछले छह वर्षों की रचनाओंमें से चुनी गयी है और चूंकि यह समय अधिक मानसिक उथल-पुथल का रहा है, अतः इन कविताओं मं स्तर, भावभूमि, षिल्प, टोन की काफी विविधता मिलेगी।’’ (धर्मवीर भारती,ठंडा लोहा- प्रथम संस्करण की अनाम भूमिका)
विभिन्न परिस्थितियों, मनस्थ्तियों में लिखी इन कविताओं में भावुक हृदय कवि सामने आता है। जिसमें अधिकतर कविताएं नारी-सौंन्दर्य और प्रेम-भावना से परिपूर्ण है। फागुन की षाम, बोआई का गीत झील के किनारे, बादलों की पांत, तुम्हारे चरण, बासन्ती दिन, पावस-गीत, आदि अनेक कविताओं में प्रकृति-सौन्दर्य का आलम्बन, उद्दीपन, प्रतीकात्मक, आंलकारिक और मानवीय रूप में सुन्दर चित्रण हुआ है। तुम्हारे चरण, प्रार्थना की कड़ी, उदास मैं, डोले का गीत, फागुन की षाम, फीरोजी होठ, मुग्धा, कच्ची सांसों का इसरार, बसन्ती दिन, जागरण, तुम, आदि कविताओं में नारी-सौन्दर्य का सुन्दर आंगिक चित्रण है। नारी-पुरुष के प्रेमाभाव यहां चरमोत्कर्ष में दिखाई देते हैं। पुरुष-स्त्री का सहज आकर्षण ’फीरोजी ओठ’, गुनाह का गीत, यह आत्मा की खूंखर प्यास’, षीर्षक कविताओं में दिखाई देती है। यहां वासनात्मक प्रेम भी है किन्तु अपराध बोध नहीं। उनका आवेगात्मक आवेष संवेगात्मक आत्मविष्वास में प्रकट होता है। ’प्रार्थना की कड़ी;, तुम्हारे चरण, और मुक्तक’,षीर्षक में उनके वैष्णवी संस्कार और प्रेम का उत्कर्ष दिखाई देता है।
’बोआई का गीत’ की पंक्तियाँ- ’’गोरी-गोरी सोधी धरती-कारे-कारे बीज
बदरा पानी दे!
क्यारी-क्यारी गूँज उठा संगीत
बेने वालो! नयी फसल में बोओगे क्या चीज ?
बदरा पानी !
मैं बोऊँगी बीरबहूटी, इन्द्रधनुष सतरंग
नये सितारे, नयी पीढ़ियाँ, कजरी, मेहंदी-
राखी के कुछ सूत ओर सावन की पहली तीज
बदरा पानी दे!’’
(धर्मवीर भारती,ठंडा लोहा- बोआई के गीत,पृ.34 प्रथम संस्करण)
’तुम्हारे चरण’ के छन्द- उनकी कविताओं में प्रेम और रोमांस के तत्व स्पष्ट रूप से मौजूद है।
’’तुम्हारे चरण
ये शरद के चाँद-से उजले धुले-से पाँव,
मेरी गोद में !
ये लहर पर नाचते ताज़े कमल की छाँव,
मेरी गोद में !
दो बड़े मासूम बादल, देवताओं से लगाते दाँव,
मेरी गोद में !
रसमसाती धूप का ढलता पहर,
ये हवाएँ शाम की, झुक-झूमकर बरसा गईं
रोशनी के फूल हरसिंगार-से,
प्यार घायल साँप-सा लेता लहर,
अर्चना की धूप-सी तुम गोद में लहरा गईं
ज्यों झरे केसर तितलियों के परों की मार से,
सोनजूही की पँखुरियों से गुँथे, ये दो मदन के बान,
मेरी गोद में !
हो गये बेहोश दो नाजुक, मृदुल तूफ़ान,
मेरी गोद में !
ज्यों प्रणय की लोरियों की बाँह में,
झिलमिलाकर औ’ जलाकर तन, शमाएँ दो,
अब शलभ की गोद में आराम से सोयी हुईं
या फ़रिश्तों के परों की छाँह में
दुबकी हुई, सहमी हुई, हों पूर्णिमाएँ दो,
देवताओं के नयन के अश्रु से धोई हुईं ।
चुम्बनों की पाँखुरी के दो जवान गुलाब,
मेरी गोद में !
सात रंगों की महावर से रचे महताब,
मेरी गोद में !
ये बड़े सुकुमार, इनसे प्यार क्या ?
ये महज आराधना के वास्ते,
जिस तरह भटकी सुबह को रास्ते
हरदम बताये हैं रुपहरे शुक्र के नभ-फूल ने,
ये चरण मुझको न दें अपनी दिशाएँ भूलने !
ये खँडहरों में सिसकते, स्वर्ग के दो गान, मेरी गोद में !
रश्मि-पंखों पर अभी उतरे हुए वरदान, मेरी गोद में !’’
(धर्मवीर भारती,ठंडा लोहा- बोआई के गीत,पृ.4 प्रथम संस्करण)
’प्रार्थना की कड़ी’ में देखें - उनका बल पूर्व और पश्चिम के मूल्यों, जीवन-शैली और मानसिकता के संतुलन पर है, वे न तो किसी एक का अंधा विरोध करते हैं न अंधा समर्थन, परंतु क्या स्वीकार करना और क्या त्यागना है इसके लिए व्यक्ति और समाज की प्रगति को ही आधार बनाना होगा यही उनका मानना था। वे लिखते हैं- पश्चिम का अंधानुकरण करने की कोई जरूरत नहीं है, पर पश्चिम के विरोध के नाम पर मध्यकाल में तिरस्कृत मूल्यों को भी अपनाने की जरूरत नहीं है। आस्था उनके जीवन की डोर है- ’प्रार्थना की कड़ी’ में लिखते हैं-
प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी
बाँध देती है, तुम्हारा मन, हमारा मन,
फिर किसी अनजान आशीर्वाद में-डूब
मिलती मुझे राहत बड़ी!
(धर्मवीर भारती,ठंडा लोहा- प्रार्थना, सपना अभी भी, पृ.70 प्रथम संस्करण)
उनकी दृष्टि में वर्तमान को सुधारने और भविष्य को सुखमय बनाने के लिए आम जनता के दुरूख दर्द को समझने और उसे दूर करने की आवश्यकता है। दुरूख तो उन्हें इस बात का है कि आज ’जनतंत्र’ में ’तंत्र’ शक्तिशाली लोगों के हाथों में चला गया है और ’जन’ की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है। अपनी रचनाओं के माध्यम से इसी ’जन’ की आशाओं,आकांक्षाओं, विवशताओं, कष्टों को अभिव्यक्ति देने का प्रयास उन्होंने किया है। वे मूल्यहीनता के विरोधी हैं और इतने दृढ़ है कि कोई भी प्रलोभन उन्हें डिगा नहीं सकता। परंपरागत ज्ञान और भारतीयता का उपनिषदकालीन ज्ञान उन्हें सदा सहारा प्रतीत होता है।
प्रात सद्यःस्नात कन्धों पर बिखेरे केश
आँसुओं में ज्यों धुला वैराग्य का सन्देश
चूमती रह-रह बदन को अर्चना की धूप
यह सरल निष्काम पूजा-सा तुम्हारा रूप
जी सकूँगा सौ जनम अँधियारियों में,
यदि मुझे मिलती रहे
काले तमस की छाँह में
ज्योति की यह एक अति पावन घड़ी!
प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी!
चरण वे जो लक्ष्य तक चलने नहीं पाये
वे समर्पण जो न होठों तक कभी आये
कामनाएँ वे नहीं जो हो सकीं पूरी-
घुटन, अकुलाहट, विवशता, दर्द, मजबूरी-
जन्म-जन्मों की अधूरी साधना,
पूर्ण होती है किसी मधु-देवता की बाँह में!
ज़िन्दगी में जो सदा झूठी पड़ी-
प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी!
ठंडा लोहा की कुछ कविताओं में अस्तित्ववादी चिन्तन के प्रभावस्वरूप सुख-दुख की स्वीकृति , पीड़ा-बोध, मृत्य -बोध, निराषा, हताषा, अनास्था आदि के स्वर भी सुननेको मिलते हैं, किन्तु कहीं भी कवि-मन में निराष जड़ जमा कर नहीं बैठी है, बल्कि उनके सभी कृतियों में अनस्था पर आस्था, की , निराषा में से आषा की, दुःा में सेसुख की खेाज की है। ठंडा लोहा में प्रेम के अतिरिक्त् िकुछ कविताओं मं भारती का सामाजिक यर्था से भी साक्षात्कार हुआ है। भारती जी की अपनी अभिव्यक्ति देश की अभिव्यक्ति को स्पष्ट करती है-
ठंडा लोहा! ठंडा लोहा! ठंडा लोहा!
मेरी दुखती हुई रगों पर ठंडा लोहा!
मेरी स्वप्न भरी पलकों पर
मेरे गीत भरे होठों पर
मेरी दर्द भरी आत्मा पर
स्वप्न नहीं अब
गीत नहीं अब
दर्द नहीं अब
एक पर्त ठंडे लोहे की
मैं जम कर लोहा बन जाऊँ ?
हार मान लूँ ?
यही शर्त ठंडे लोहे की
ओ मेरी आत्मा की संगिनी!
तुम्हें समर्पित मेरी सांस सांस थी, लेकिन
मेरी सासों में यम के तीखे नेजे सा
कौन अड़ा है?
ठंडा लोहा!
मेरे और तुम्हारे भोले निश्चल विश्वासों को
कुचलने कौन खड़ा है ?
ठंडा लोहा!
ओ मेरी आत्मा की संगिनी!
अगर जिंदगी की कारा में
कभी छटपटाकर मुझको आवाज़ लगाओ
और न कोई उत्तर पाओ
यही समझना कोई इसको धीरे धीरे निगल चुका है
इस बस्ती में दीप जलाने वाला नहीं बचा है
सूरज और सितारे ठंढे
राहे सूनी
विवश हवाएं
शीश झुकाए खड़ी मौन हैं
बचा कौन है?
ठंडा लोहा! ठंडा लोहा! ठंडा लोहा!
कवि के षब्दों में, ’’कैषेरावस्था के प्रणय, रूपासक्ति और आकुल निराषा से एक पावन, आतमसमर्पणमयी वैष्णव भावना और उसके माध्या से अपने मन की अहम् का षमन कर अपने से बाहर की व्यापक सच्चाई को हृदयंगम करते हुए संकीर्णताओं और कट्टरता से ऊपर एक जनवादी भावभूमि की खोज-मेरी इस छन्दयात्रा के यही प्रमुख मोड़ हैं। ’’ (धर्मवीर भारती,ठंडा लोहा- अनाम भूमिका)
’कविता की मौत’, ’थके हुए कलाकार से’, कवि ओर अनजान पगध्वनियां, ’दो आवाजें’, ’फूल, मोमवत्तियां और सपने’ ष्षीर्षक कविताओं में कव का जीवन और कव िकी वाणी समाज के प्रति अर्तित जीवन और अर्तित वाणी केरूप् मं प्रस्तु हुई है। ’निराला के प्रति’ कविता में भारती की महाकिव निराला के माध्या से सर्वस्व त्याग और सव्रहिताय की भावना साकार हो उठी है। ’सुीााष की मृत्यु पर’ कविता में कव का राष्ट्रीय -बोध उत्कर्ष पर प्रतिष्ठित है।
भाषा-सौन्दर्य, षिल्प की दृष्टि से ठंडा लोहा कीकविता अपने चरमोत्कर्ष पर है। इसमं छद-प्रयोग केसाथ ष्षब्द-चयन, बिम्बख् प्रतीक, अलंकार, विचलन-प्रयोग पर कवि ने पूरा ध्यान दिय ाहै। कुल् मिला कर कह सकते हैं कि ’ठंडा लोहा’ धर्मवीर भारती की एकमहत्वपूण्र कृति है, जिसमं प्रकृति-सौन्दर्य, नारी-सौन्दर्य, प्रेमानुभूति केउत्कर्ष के साथ- सामाजिक यथार्थ, सांस्कृतिक चिन्त और राष्ट्रीय बोध का सुन्दर चित्रण देाने को मिलता है।
उनकी ’एक वाक्य’ कविता उस महान चिंतक के जीवन का ऐसा अद्भुत संदेश है, जो आज के राजनीतिक प्रदूषित वातावरण में हर व्यक्ति के लिये अनुकरणीय और प्रेरणादायी है-
चेक बुक हो पीली या लाल,
दाम सिक्के हों या शोहरत
-कह दो उनसे
जो खऱीदने आये हों तुम्हें
हर भूखा आदमी बिकाऊ नहीं होगा है !
शब्द को कहा जाना था
चूँकि सत्य सदा सत्य है
आज भी अनिवार्य है
अतः आज के लिए भी शब्द है
और उसे कहा जाना अनिवार्य है। 1
उक्त शब्द हैं, हिन्दी जगत के शब्द शिल्पी धर्मवीर भारती के। शब्द ब्रह्म है। शब्द सत्य है। शब्द अभिव्यक्ति की अनिवार्यता है। शब्द सृजन का आधार है। शब्द युग की सीमा से परे है। शब्द का सातत्य है। भारती जी कहते हैं, इसलिये शब्द का कहा जाना अनिवार्य है। शब्द की अनिवार्यता इसलिये भी है कि आरम्भ में केवल शब्द था। किन्तु शब्द के लिये दो चाहिए। ’एकोऽहम बहुष्यामं’ यह श्रुति की आवश्यकता है। बिना उसके शब्द की सार्थकता सिद्ध नहीं हो सकती। शब्द मौन तोड़ने के लिये आवश्यक है। वे लिखते हैं-
आरम्भ में केवल शब्द था
किन्तु उसकी सार्थकता थी श्रुति बनने में
कि वह किसी से कहा जाय
मौन को टूटना अनिवार्य था 2
ऐसे शब्द शिल्पी, हिन्दी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार और सामाजिक विचारक धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसंबर, 1926 को इलाहाबाद के अतर सुइया मुहल्ले में हुआ। उनके पिता का नाम श्री चिरंजीव लाल वर्मा और माँ का श्रीमती चंदादेवी था। डॉ. धर्मवीर भारती ने अपनी वंष परंपरा के बारे में लिखा है,’’ मेरे बाबा ने ’मलका बिकटूरिया’ के जमाने में एक मकान बनवाया था जिसमें सबसे ऊपर लिखवाया था- ’ओम् सत्यमेव जयते नान्ताम’ और उसके नीचे लिखवाया था ’दिल्लीष्वरो वा जगदीष्वरो वा ।’ 3 ’डाकखाना -मेघदूत षहर दिल्ली’ ठेेले पर हिमालय पृ.131 धर्मवीर भारती जी लिखते हैं, उनके ऊपर पिता जी का प्रत्यक्ष प्रभाव जीवन भर रहा। ’’.........मैंने उस दिन दरवाजे के पास से यह वृतान्त सुना और पिता जी का भक्त हो गया। उनके मूल्य, उनकी प्रखरता,उनकी उदार दृष्टि, उनकी देषभक्ति, उनकी समझौता-विहीन ईमानदारी मेरा आदर्ष बन गयी।’’4 डॉ. चन्द्रकांत बांदिवडेकर, धर्मवीर भारती, व्यक्तित्व और कृतित्व, पृ.14
पिता की मृत्यु हो जाने से मां के सानिघ्य में स्कूली शिक्षा डी.ए.वी. हाई स्कूल से प्राप्त की।1942 में इंटरमीडिएट पास कर उच्च शिक्षा हेतु प्रयाग विश्वविद्यालय में प्रवेष लिया, किन्तु उस वर्ष ’भारत छोड़ों आन्दोलन’ में सक्रिय भाग लेने के कारण एक वर्ष के अन्तराल से बी.ए. की परीक्षा पास की। बी.ए. की परीक्षा में सर्वाधिक अंक हिन्दी में प्रज्ञपत होने से ’चिन्तामणि घोष स्वर्ण पदक’ 5 डॉ. हुकुमचन्द सोनवणे, धर्मवीर भारती के साहित्य के विविध आयाम, पृ. 6 प्राप्त कर हिन्दी में एम.ए.प्रथम श्रेणी में उतीर्ण करने के बाद डॉ. धीरेन्द्र वर्मा के निर्देशन में ’सिद्ध साहित्य’ पर शोध-कार्य सम्पन्न कर डी.फिल की उपाधि प्राप्त की।
डॉ. षषिभूषण सिंहल ने लिखा है,’’रचयित ने जैसा जीवन बिताया है, जीवन में जो कुछ देखा-सुना है, जीवन-सम्बधी उसकी जो मान्यताएं हैं, उन्हीं को वह कथा, पात्रों, विषय-विवेचनन तथा परिस्थिति -चित्रण के मे माध्यम से रचना में प्रस्तुम करता चलता है। अतः व्यक्तित्व यानी जीवन-सम्बन्धी उसका अनुभव ही रचना में अभिव्यक्त होता है।’’ (डॉ षषिभूषण सिंहल, साहित्यिक षोध के आयाम, पृ 36) भगवती चरण वर्मा जी भी लिखते हैं, ’’साहित्य अथवा कला को प्राणवान् और सफल साहित्य में साहित्यकार का व्यक्तित्व मूर्त होता है। साहित्यकार का व्यक्तितव उसके जीसन का अभिन्न अंग होने के नाते उसके कृतित्व का भी अभिन्न अंग हाता है। (डॉ भगवती चरण वर्मा, साहित्य के सिद्धान्त तथा रूप पृ 64-65) धर्मवीर भारती जी स्वयं रचनाकार और रचनाप्रक्रिया में समन्वय मानते हैं,’’जो खरा काव्य है,उसकी रचना प्रक्रिया में, कितने ही अप्रत्यक्ष रूप में हों किन्तु जीवन प्रक्रिया अनिवार्यतः उलझी रहती है।’’ (डॉ ’डाकखाना मेघदूत-षहर दिल्ली’ठेले पर हिमालय पृ 131) ’ठेले पर हिमालय’ में एक जगह वे कहते हैं, जानने की प्रक्रिया में होने और जीने की प्रक्रिया में जानने वाला मिजाज जिन लोगों का है उनमें मैं अपने को पाता हूं।
भारती जी के घर और स्कूल दोनों के संस्कार आर्य समाजी वातावरण में हुआ। बाद में प्रयाग में विश्वविद्यालय का साहित्यिक वातावरण उन्हें प्राप्त हुआ। पिता की मृत्यु वाल्यावस्था में ही हो जाने के कारण भारती जी को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। प्रयाग तत्कालीन राजनैतिक गतिविधियों का केन्द्र होने के कारण भारती जी का उसकी हलचलों से परिचित होना सहज था। भारती जी का चिन्तन किसी भाव विशेष में बंधा नहीं मिलता। यदि आर्यसमाज की चिंतन और तर्कशैली उन्हें प्रभावित करती है तो वे रामायण, महाभारत और श्रीमदभागवत के अध्येता एवं चिन्तक भी प्रतीत होते हैं। प्रसाद और शरतचन्द्र का साहित्य भी उन्हें उतना ही प्रिय था।
परिणामतः वे परिस्थिति ने जल्दी ही उन्हें अतिसंवेदनशील, तर्कशील बना दिया। शायद यह पंक्तियाँ वही स्पष्ट करती हैं-
शब्द का कहा जाना था
ताकि प्रलय का अराजक तिमिर
व्यवस्थित उजियाले में
रूपान्तरित हो
उन्हें जीवन में दो ही शौक थे- अध्ययन और यात्रा। भारतीय जीवन दर्शन ही नहीं तो ईसाइयत और इस्लाम का भी उन्होंने अध्ययन किया था। उनके शब्दों में इसकी सहज अभिव्यक्ति दिखाई देती है-
ताकि रेगिस्तान
गुलाबों की क्यारी बन जाय
शब्द का कहा जाना अनिवार्य था।
आदम की पसलियों के घाव से
इवा के मुक्त अस्तित्व की प्रतिष्ठा के लिए।
1948 में ’संगम; सम्पादक श्री इलाचंद्र जोशी में सहकारी संपादक नियुक्त हुए। दो वर्ष वहाँ काम करने के बाद हिन्दुस्तानी अकादमी में अध्यापक नियुक्त हुए जहाँ सन् 1960 तक कार्य किया। प्रयाग विश्वविद्यालय में अध्यापन के दौरान ’हिंदी साहित्य कोश’ के सम्पादन में सहयोग दिया। बाद में ’निकष’ पत्रिका निकाली तथा ’आलोचना’ का सम्पादन भी किया।
धर्मवीर भारती और प्रख्यात साप्ताहिक पत्रिका ’धर्मयुग’ दोनों अन्योन्याश्रित थे यदि ऐसा कहा जाय तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। वे मुम्बई में धर्मयुग के वर्षों तक यशस्वी प्रधान संपादक थे। वे लिखते हैं- जानने की प्रक्रिया में होने और जीने की प्रक्रिया में जानने वाला मिजाज़ जिन लोगों का है उनमें मैं अपने को पाता हूँ। (ठेले पर हिमालय) यह कथन उनके विशद साहित्य के अध्ययन और यात्रा-अनुभवों का प्रभाव है। ’सिद्ध साहित्य’ के ’शोध’ में उनकी रुचि भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान की ओर उनकी जिज्ञासा का परिचय कराती है। डॉ. धर्मवीर भारती को 1972 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। 1987 में डॉ. भारती ने अवकाश ग्रहण किया। 4 सितंबर,1997 को उन्होंने अपने भौतिक जीवन की यात्रा समाप्त कर पारलौकिक यात्रा प्रारंभ की।
भारती का 1952 में प्रकाषित प्रथम कविता संग्रह ’ठंडा लोहा’है। इस संग्रह में भारती जी की 1946 से 1952 के बीच की लिखी 38 कविताएं संग्रहीत हैं। इसमें से आठ कविताएं ’दूसरे सप्तक’ में भी पाई जाती हें। इस संग्रह के अन्तराल के संबन्ध में धर्मवीर जी लिखते हैं, ’’ इस संग्रह में दी गयी कविताएं मेरे पिछले छह वर्षों की रचनाओंमें से चुनी गयी है और चूंकि यह समय अधिक मानसिक उथल-पुथल का रहा है, अतः इन कविताओं मं स्तर, भावभूमि, षिल्प, टोन की काफी विविधता मिलेगी।’’ (धर्मवीर भारती,ठंडा लोहा- प्रथम संस्करण की अनाम भूमिका)
विभिन्न परिस्थितियों, मनस्थ्तियों में लिखी इन कविताओं में भावुक हृदय कवि सामने आता है। जिसमें अधिकतर कविताएं नारी-सौंन्दर्य और प्रेम-भावना से परिपूर्ण है। फागुन की षाम, बोआई का गीत झील के किनारे, बादलों की पांत, तुम्हारे चरण, बासन्ती दिन, पावस-गीत, आदि अनेक कविताओं में प्रकृति-सौन्दर्य का आलम्बन, उद्दीपन, प्रतीकात्मक, आंलकारिक और मानवीय रूप में सुन्दर चित्रण हुआ है। तुम्हारे चरण, प्रार्थना की कड़ी, उदास मैं, डोले का गीत, फागुन की षाम, फीरोजी होठ, मुग्धा, कच्ची सांसों का इसरार, बसन्ती दिन, जागरण, तुम, आदि कविताओं में नारी-सौन्दर्य का सुन्दर आंगिक चित्रण है। नारी-पुरुष के प्रेमाभाव यहां चरमोत्कर्ष में दिखाई देते हैं। पुरुष-स्त्री का सहज आकर्षण ’फीरोजी ओठ’, गुनाह का गीत, यह आत्मा की खूंखर प्यास’, षीर्षक कविताओं में दिखाई देती है। यहां वासनात्मक प्रेम भी है किन्तु अपराध बोध नहीं। उनका आवेगात्मक आवेष संवेगात्मक आत्मविष्वास में प्रकट होता है। ’प्रार्थना की कड़ी;, तुम्हारे चरण, और मुक्तक’,षीर्षक में उनके वैष्णवी संस्कार और प्रेम का उत्कर्ष दिखाई देता है।
’बोआई का गीत’ की पंक्तियाँ- ’’गोरी-गोरी सोधी धरती-कारे-कारे बीज
बदरा पानी दे!
क्यारी-क्यारी गूँज उठा संगीत
बेने वालो! नयी फसल में बोओगे क्या चीज ?
बदरा पानी !
मैं बोऊँगी बीरबहूटी, इन्द्रधनुष सतरंग
नये सितारे, नयी पीढ़ियाँ, कजरी, मेहंदी-
राखी के कुछ सूत ओर सावन की पहली तीज
बदरा पानी दे!’’
(धर्मवीर भारती,ठंडा लोहा- बोआई के गीत,पृ.34 प्रथम संस्करण)
’तुम्हारे चरण’ के छन्द- उनकी कविताओं में प्रेम और रोमांस के तत्व स्पष्ट रूप से मौजूद है।
’’तुम्हारे चरण
ये शरद के चाँद-से उजले धुले-से पाँव,
मेरी गोद में !
ये लहर पर नाचते ताज़े कमल की छाँव,
मेरी गोद में !
दो बड़े मासूम बादल, देवताओं से लगाते दाँव,
मेरी गोद में !
रसमसाती धूप का ढलता पहर,
ये हवाएँ शाम की, झुक-झूमकर बरसा गईं
रोशनी के फूल हरसिंगार-से,
प्यार घायल साँप-सा लेता लहर,
अर्चना की धूप-सी तुम गोद में लहरा गईं
ज्यों झरे केसर तितलियों के परों की मार से,
सोनजूही की पँखुरियों से गुँथे, ये दो मदन के बान,
मेरी गोद में !
हो गये बेहोश दो नाजुक, मृदुल तूफ़ान,
मेरी गोद में !
ज्यों प्रणय की लोरियों की बाँह में,
झिलमिलाकर औ’ जलाकर तन, शमाएँ दो,
अब शलभ की गोद में आराम से सोयी हुईं
या फ़रिश्तों के परों की छाँह में
दुबकी हुई, सहमी हुई, हों पूर्णिमाएँ दो,
देवताओं के नयन के अश्रु से धोई हुईं ।
चुम्बनों की पाँखुरी के दो जवान गुलाब,
मेरी गोद में !
सात रंगों की महावर से रचे महताब,
मेरी गोद में !
ये बड़े सुकुमार, इनसे प्यार क्या ?
ये महज आराधना के वास्ते,
जिस तरह भटकी सुबह को रास्ते
हरदम बताये हैं रुपहरे शुक्र के नभ-फूल ने,
ये चरण मुझको न दें अपनी दिशाएँ भूलने !
ये खँडहरों में सिसकते, स्वर्ग के दो गान, मेरी गोद में !
रश्मि-पंखों पर अभी उतरे हुए वरदान, मेरी गोद में !’’
(धर्मवीर भारती,ठंडा लोहा- बोआई के गीत,पृ.4 प्रथम संस्करण)
’प्रार्थना की कड़ी’ में देखें - उनका बल पूर्व और पश्चिम के मूल्यों, जीवन-शैली और मानसिकता के संतुलन पर है, वे न तो किसी एक का अंधा विरोध करते हैं न अंधा समर्थन, परंतु क्या स्वीकार करना और क्या त्यागना है इसके लिए व्यक्ति और समाज की प्रगति को ही आधार बनाना होगा यही उनका मानना था। वे लिखते हैं- पश्चिम का अंधानुकरण करने की कोई जरूरत नहीं है, पर पश्चिम के विरोध के नाम पर मध्यकाल में तिरस्कृत मूल्यों को भी अपनाने की जरूरत नहीं है। आस्था उनके जीवन की डोर है- ’प्रार्थना की कड़ी’ में लिखते हैं-
प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी
बाँध देती है, तुम्हारा मन, हमारा मन,
फिर किसी अनजान आशीर्वाद में-डूब
मिलती मुझे राहत बड़ी!
(धर्मवीर भारती,ठंडा लोहा- प्रार्थना, सपना अभी भी, पृ.70 प्रथम संस्करण)
उनकी दृष्टि में वर्तमान को सुधारने और भविष्य को सुखमय बनाने के लिए आम जनता के दुरूख दर्द को समझने और उसे दूर करने की आवश्यकता है। दुरूख तो उन्हें इस बात का है कि आज ’जनतंत्र’ में ’तंत्र’ शक्तिशाली लोगों के हाथों में चला गया है और ’जन’ की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है। अपनी रचनाओं के माध्यम से इसी ’जन’ की आशाओं,आकांक्षाओं, विवशताओं, कष्टों को अभिव्यक्ति देने का प्रयास उन्होंने किया है। वे मूल्यहीनता के विरोधी हैं और इतने दृढ़ है कि कोई भी प्रलोभन उन्हें डिगा नहीं सकता। परंपरागत ज्ञान और भारतीयता का उपनिषदकालीन ज्ञान उन्हें सदा सहारा प्रतीत होता है।
प्रात सद्यःस्नात कन्धों पर बिखेरे केश
आँसुओं में ज्यों धुला वैराग्य का सन्देश
चूमती रह-रह बदन को अर्चना की धूप
यह सरल निष्काम पूजा-सा तुम्हारा रूप
जी सकूँगा सौ जनम अँधियारियों में,
यदि मुझे मिलती रहे
काले तमस की छाँह में
ज्योति की यह एक अति पावन घड़ी!
प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी!
चरण वे जो लक्ष्य तक चलने नहीं पाये
वे समर्पण जो न होठों तक कभी आये
कामनाएँ वे नहीं जो हो सकीं पूरी-
घुटन, अकुलाहट, विवशता, दर्द, मजबूरी-
जन्म-जन्मों की अधूरी साधना,
पूर्ण होती है किसी मधु-देवता की बाँह में!
ज़िन्दगी में जो सदा झूठी पड़ी-
प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी!
ठंडा लोहा की कुछ कविताओं में अस्तित्ववादी चिन्तन के प्रभावस्वरूप सुख-दुख की स्वीकृति , पीड़ा-बोध, मृत्य -बोध, निराषा, हताषा, अनास्था आदि के स्वर भी सुननेको मिलते हैं, किन्तु कहीं भी कवि-मन में निराष जड़ जमा कर नहीं बैठी है, बल्कि उनके सभी कृतियों में अनस्था पर आस्था, की , निराषा में से आषा की, दुःा में सेसुख की खेाज की है। ठंडा लोहा में प्रेम के अतिरिक्त् िकुछ कविताओं मं भारती का सामाजिक यर्था से भी साक्षात्कार हुआ है। भारती जी की अपनी अभिव्यक्ति देश की अभिव्यक्ति को स्पष्ट करती है-
ठंडा लोहा! ठंडा लोहा! ठंडा लोहा!
मेरी दुखती हुई रगों पर ठंडा लोहा!
मेरी स्वप्न भरी पलकों पर
मेरे गीत भरे होठों पर
मेरी दर्द भरी आत्मा पर
स्वप्न नहीं अब
गीत नहीं अब
दर्द नहीं अब
एक पर्त ठंडे लोहे की
मैं जम कर लोहा बन जाऊँ ?
हार मान लूँ ?
यही शर्त ठंडे लोहे की
ओ मेरी आत्मा की संगिनी!
तुम्हें समर्पित मेरी सांस सांस थी, लेकिन
मेरी सासों में यम के तीखे नेजे सा
कौन अड़ा है?
ठंडा लोहा!
मेरे और तुम्हारे भोले निश्चल विश्वासों को
कुचलने कौन खड़ा है ?
ठंडा लोहा!
ओ मेरी आत्मा की संगिनी!
अगर जिंदगी की कारा में
कभी छटपटाकर मुझको आवाज़ लगाओ
और न कोई उत्तर पाओ
यही समझना कोई इसको धीरे धीरे निगल चुका है
इस बस्ती में दीप जलाने वाला नहीं बचा है
सूरज और सितारे ठंढे
राहे सूनी
विवश हवाएं
शीश झुकाए खड़ी मौन हैं
बचा कौन है?
ठंडा लोहा! ठंडा लोहा! ठंडा लोहा!
कवि के षब्दों में, ’’कैषेरावस्था के प्रणय, रूपासक्ति और आकुल निराषा से एक पावन, आतमसमर्पणमयी वैष्णव भावना और उसके माध्या से अपने मन की अहम् का षमन कर अपने से बाहर की व्यापक सच्चाई को हृदयंगम करते हुए संकीर्णताओं और कट्टरता से ऊपर एक जनवादी भावभूमि की खोज-मेरी इस छन्दयात्रा के यही प्रमुख मोड़ हैं। ’’ (धर्मवीर भारती,ठंडा लोहा- अनाम भूमिका)
’कविता की मौत’, ’थके हुए कलाकार से’, कवि ओर अनजान पगध्वनियां, ’दो आवाजें’, ’फूल, मोमवत्तियां और सपने’ ष्षीर्षक कविताओं में कव का जीवन और कव िकी वाणी समाज के प्रति अर्तित जीवन और अर्तित वाणी केरूप् मं प्रस्तु हुई है। ’निराला के प्रति’ कविता में भारती की महाकिव निराला के माध्या से सर्वस्व त्याग और सव्रहिताय की भावना साकार हो उठी है। ’सुीााष की मृत्यु पर’ कविता में कव का राष्ट्रीय -बोध उत्कर्ष पर प्रतिष्ठित है।
भाषा-सौन्दर्य, षिल्प की दृष्टि से ठंडा लोहा कीकविता अपने चरमोत्कर्ष पर है। इसमं छद-प्रयोग केसाथ ष्षब्द-चयन, बिम्बख् प्रतीक, अलंकार, विचलन-प्रयोग पर कवि ने पूरा ध्यान दिय ाहै। कुल् मिला कर कह सकते हैं कि ’ठंडा लोहा’ धर्मवीर भारती की एकमहत्वपूण्र कृति है, जिसमं प्रकृति-सौन्दर्य, नारी-सौन्दर्य, प्रेमानुभूति केउत्कर्ष के साथ- सामाजिक यथार्थ, सांस्कृतिक चिन्त और राष्ट्रीय बोध का सुन्दर चित्रण देाने को मिलता है।
उनकी ’एक वाक्य’ कविता उस महान चिंतक के जीवन का ऐसा अद्भुत संदेश है, जो आज के राजनीतिक प्रदूषित वातावरण में हर व्यक्ति के लिये अनुकरणीय और प्रेरणादायी है-
चेक बुक हो पीली या लाल,
दाम सिक्के हों या शोहरत
-कह दो उनसे
जो खऱीदने आये हों तुम्हें
हर भूखा आदमी बिकाऊ नहीं होगा है !
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