Monday, 16 December 2019

रीति काल का नामकरण एवं विभाजन

 रीति काल

(1)रीति काल का नामकरण एवं विभाजन
परिचय- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में रीतिकाल का निरूपण करते हुआ लिखा हैं कि हिन्दी काव्य पूर्ण प्रौढ़ता को पहुँच गया था। संवत 1598 में कृपाराम थोड़ा बहुत रसनिरूपण भी कर चुके थे। उसी समय के लगभग चरखारी के मोहनलाल मिश्र ने ‘शृंगार सागर’ नामक एक ग्रंथ शृंगार सम्बन्धी लिखा। नरहरि कवि के साथी ‘करनेस’ कवि ने ‘कर्णाभरण’, श्रुतिभूषण’ और ‘भूपभूषण’ नामक तीन अलंकार सम्बन्धी ग्रंथ लिखे। रसनिरूपण और अलंकार निरूपण का इस प्रकार सूत्रपात हो जाने पर केशवदास जी ने काव्य के सब अंगों का निरूपण शास्त्रीय पद्धति पर किया। इसमें संदेह नहीं कि काव्यरीति का सम्यक समावेश पहले पहल आचार्य केशव ने ही किया। पर हिन्दी में रीतिग्रंथों की अविरल और अखंडित परम्परा का प्रवाह  केशव की ‘कविप्रिया’ के प्राय: पचास वर्ष पीछे चला और वह भी एक भिन्न आदर्श को लेकर, केशव के आदर्श को लेकर नहीं।
रीति काल की सीमा- रीतिकाल की सीमा निर्धारण में वैसे तो कोई कठिनाई नही दिखती किन्तु जिस युग में रीति-निरूपण अथवा रीति-प्रभावित ग्रंथों के निर्माण का प्राचुर्य रहा, उसको ‘रीतिकाल’ संज्ञा देते हुए उसका समय भी संवत् 1700 (1643 ई.) से 1900 (1843 ई.) तक निश्चित किया है। इस काल में आपत्ति आती है कि कुछ कवि इस काल से दस से बीस साल आगे पीछे को आते हैं। इनमें चितामणि, मतिराम और ग्वाल की कुछ रचनाएं हैं। इनके अतिरिक्त कतिपय कवि ऐेसे भी हैं जिनका जन्म भक्तिकाल में हुआ और उनकी रचनाएँ रीति काल में लिखी गयीं। अतएव डॉ. नगेन्द्र के मत से सहमत होते हुए कहा जा सकता है कि-रीति काल की सीमाएं हमें सामान्य रूप सेे सत्रहवीं शती के मध्य से उन्नीसवीं शती के मध्य तक मान लेना चाहिए। वे कहते हैं, भाषा साहित्य के ऐतिहासिक अध्ययन में कवियों की प्रवृति का विवेचन करने के लिए जिस प्रकार वण्र्य विषय के अनुसार रचनाओं का वर्ग-विभाजन तथा उस प्रवृति के द्योतक प्रत्येक विभाग का नामकरण अनिवार्य होता है, उसी प्रकार उस प्रवृति के प्रेरक तत्वों का विश्लेषण करने तथा तत्सम्बन्धी रचनाओं के परिमाण को आंकने के निमित्त उसके प्रसार-काल की सीमाएं निर्धारित कर लेना भी आवश्यक हुआ करता है। किन्तु यह सीमा-निर्धारण ऐतिहासिक घटनाओं के समान निश्चित नहीं हो सकती और न तो किसी साहित्यिक प्रवृत्ति के आरम्भ की ही निश्चित तिथि बतायी जा सकती है तथा न समाप्ति की ही। उसकी प्रस्तावना और अविच्छिन्न  विकास-परम्परा के तथा चरम सीमा और उपसंहृति के बीच कम-से-कम 25-30 वर्षों का अन्तर तो रहता ही है। ऐसी दशा में संगत यही होना चाहिए कि प्रवृत्ति विशेेष की अविच्छिन्न विकास-परम्परा के आरंभ तथा चरम सीमा की समाप्ति सम्बन्धी तिथियों को निर्धारित करते समय उदारता से काम लिया जाये। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिदी साहित्य का इतिहास’ लिखते समय उसे प्रवृत्तियों के अनुसार चार भागों में विभाजित किया है तथा परवर्ती विद्वानों ने उनके इस विभाजन की काल-सीमाओं को प्राय: अविकाल रूप में ग्रहण भी कर लिया है, किंतु उनका सबसे बड़ा दोश यही है कि वे इस सम्बन्ध में उदार नहीं हो पाये तथा निश्चित संवत् से प्रवृत्ति विशेष का आरंभ और निश्चित संवत् पर उसका अंत:निर्धारित कर बैठे हैं, पर इन निश्चत संवतों को स्वीकार करने में सबसे बड़ी आपति यह होती है कि उन रीति कवियों के कतिपय ग्रंथ इनसे आगे-पीछे रचे जाने के कारण रीति काल की परिधि में नहीं आ पाते जिन्हेे वे स्वयं ही इस युग में परिगणित कर चुके हैं। उदाहरण के लिए, चिंतामणि-कृत ‘रस विलास’ तथा मतिराम-कृत ‘रसराज’ 1643 ई. से लगभग 10 वर्ष पूर्व की तथा ग्वाल कवि की ‘रसरंग’ आदि रचनाएँ 1843 ई. से लगभग 10-15 वर्ष बाद की ही ठहरती हैं। इनके अतिरिक्त कतिपय कवि ऐसे भी है। जिनका जन्म भक्ति काल में हुआ और रचनाएँ 10-20 वर्ष बाद तक करते रहे। अतएव रीतिकाल की सीमाएँ हमें सामान्य रूप से सत्रहवीं शती के मध्य से उन्नीसवीं शती के मध्य तक मान लेनी चाहिए। इस काल के आदि और अन्त के दोनों ओर लगभग 20-20 वर्ष का समय जोड़ छोड़ा गया है, उसे स्वीकार करने में आपत्ति नही होनी चाहिये, कारण इससे काल विषयक सीमा-बंधन के परिणाम स्वरूप एक ही परंपरा के कतिपय ग्रंथों को इस प्रकार की रचनाओं के वर्ग से निरिसित न किया जा सकेगा।
आचार्य नगेन्द्र कहते हैं -हिन्दी में रीति-काव्य प्राय: उपेक्षा का ही भागी रहा है। द्विवेदी-युग के आलोचकों ने इस कविता को नीतिभ्रष्ट कहकर तिरस्कृत किया, छायावाद के प्रतिनिधि कवि-लेखक इसकों अति-ऐन्द्रिय और स्थूल कहकर हेय समझते रहे और आज का प्रगतिशील समीक्षक इसको सामन्तवद की अभिव्यक्ति मानकर प्रतिक्रियावादी कविता कहता है।             
आज रामचन्द्र शुक्ल द्वारा किया हुआ हिन्दी-साहित्य का काल-विभाजन प्राय: सर्वमान्य-सा ही हो गया है। चाहे यह सर्वथा निर्दोश न हो तो भी वह संगत एवं विवेकपूर्ण अवश्य है। शुक्ल जी के अनुसार रीतिकाल के अन्तर्गत सं.1700 से सं.1900 तक पूरी दो शताब्दियाँ आ जाती हैं। सोलहवीं शती विक्रमी के आस पास उत्तर मध्ययुगीन काव्य-प्रवृत्तियाँ उद्घाटित होकर साहित्य में स्वीकृत पाने लगी थीं। उदाहरण के लिए-रसनिरूपक आचार्य कृपाराम-कृत ‘हित तरंगिणी’, सं.1598, गोपा-‘कृत रामभूषण’ और ‘अलंकार-चन्द्रिका’, मोहनमिश्र का नायिकाभेद-विषयक ग्रंथ- ‘शृंगार सागर’ सं. 1615, करनेस रचित तीन अलंकार निरूपक गं्रथ- ‘कर्णभरण’, ‘श्रुतिभूषण’ और ‘भूपभूषण’, गंग, ब्रह्म (राजा वीरबल) तानसेन, कलावंत आदि के शृंगारिक मुक्तक; अब्दुर्रहीम खानखाना-कृत ‘नगरशोभा’ तथा नायिका भेद सम्बन्धी ग्रंथ ‘बरवै नायिका भेद’; रीति के प्रथम आचार्य अलंकारवादी केशव की ‘रसिकप्रिया’ और ‘कविप्रिया’ के निर्माण का काल भी सं.1648 और 1658 ही था। रीतिकाल में रीति के अतिरिक्त भी वीरकाव्य, भक्ति काव्य तथा गद्य के क्षेत्र में भी योगदान है। हिन्दी गद्य का अविर्भाव रीतिकाल की एक अन्य उपलब्धि है। इस प्रकार रीति काल हिन्दी साहित्य के बहुबिधि विस्तार का काल है।
नामकरण- संस्कृत-काव्य शास्त्र में ‘रीति’ शब्द काव्य रचना के मार्ग अथवा पद्धति विशेष के अर्थ में ही व्यवहृत हुआ है। जिसे काव्य की आत्मा के रूप में घोषित कर आचार्य वामन ने तत्सम्बन्धी पृथक सप्रदाय का प्रवर्तन किया। उनके अनुसार गुण विशिष्ट रचना अर्थात पद संघटना-पद्यति विशेष का नाम ‘रीति’ है। इधर व्याकरण के आधार पर गत्यर्थक ‘रीड़्’ धातु  से ‘क्चित’ प्रत्यय करके इसकी जा व्युत्पति कही जाती है, उससे यह ‘मार्ग’ का वाचक ठहरता है। इस प्रकार उक्त दोनों शास्त्रों में इस अकेले ही शब्द के दो पृथक प्रयोग कहे जा कसते हैं। किन्तु वास्तव में यह पार्थक्य किसी मौलिक विभेद का द्योतक न हो कर, व्यवहारिक विकास का ही परिणाम रहा है, आचार्य नगेन्द्र कहते हैं-दण्डी की मान्यता है कि ‘‘बात यह है कि व्यक्ति का अथवा वर्ग विशेष का अपने भावों की अभिव्यक्ति, व्यपारगत अनुकरण और अनुसरण का एक लक्ष्य हो जाता है, तो उनकी विधात्री पद्यति विशेष शब्द ‘मार्ग’ संज्ञा द्वारा स्वीकृत मानी जाती है।’’ दंडी का यह कथन कि काव्य रचना के तो ये दो मार्ग-वैदर्भ और गौड़ ही होते हैं, पर कवि में आश्रित होने के कारण इसके अनंत भेद हो जाते हैं। स्पष्टत: प्रदेश तथा व्यक्ति की अभिव्यक्ति पद्धति की ‘मार्ग’ संज्ञा द्वारा स्वीकृति होती है। वामन ने भी संभवत: रचना पद्धति के लिए ‘मार्ग’ के इस परंपरागत प्रयोग को दृष्टि में रख कर ही उसके पर्याय-रूप में ‘रीति’ शब्द को ग्रहण किया तथा उपर्युक्त व्युत्पत्ति दर्शाते हुए उसे मार्ग का ही पर्याय माना है। कारण दंडी ने जिन दो मार्गों और उनके नियामक दश गुणों का उल्लेख किया है, वे वामन ने भी ग्रहण कर रखे हैं। आगे परिवर्ती आचार्यों में ‘भोज’ ने तो स्पष्ट शब्दों में ‘रीति’ की उपर्यक्त व्युत्पत्ति दर्शाते हुए उसे ‘मार्ग’ का ही पर्याय माना है। ऐसी दशा में यह सहज ही स्वीकार किया जा सकता है कि संस्कृत-काव्य शास्त्र में ‘रीति’ शब्द काव्य रचना के मार्ग अथवा पद्धति विशेष के अर्थ में ही व्यवहृत हुआ है।
हिन्दी के मध्ययुगीन कवियों में भी चिंतामणि, मतिराम, भूषण, देव आदि अनेक ऐसे हैं, जिन्होंने काव्य रचना-पद्धति को ‘रीति’ और उसके पर्याय ‘पथ’ से ही अभिहित किया है। यथा- चिंतामणि- ‘रीति सुभाषा कवित की बरनत बुध अनुसार’ (कविकुल कल्पतरु- प्रथम संस्करण)।, मतिराम-‘सो विश्रब्ध नवौढ़ यों बरनत कवि रसरीति।’ (रसराज), भूषण - ‘सुकविन हूँ की कछु कृपा समुझि कविन को पंथ। ’ (शिवराजभूषण), देव - (क) अपनी अपनी रीति के काव्य और कवि रीति। (ख) भाषा प्राकृत संस्कृत देखि महाकवि पंथ। (शब्द रसायन-एकादश प्रकाश)। रीति शब्द को इसी रूढ़ अर्थ में ग्रहण करते हुए कह सकते हैं कि ‘रीति काव्य’ वह काव्य है जिसकी रचना विशिष्ट पद्धति अथवा नियमों को दृष्टि में रख कर  की गई हो। 
तात्पर्य यह कि हिन्दी साहित्य का उत्तर-मध्य काल लगभग सन् 1643 से 1843 ई. तक माना जाता है। इसके नामकरण को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद हैं। मिश्र बन्धुओं ने इसे ‘अलंकृत काल’, आचार्य रामचंद्र शुक्ल इसे ‘रीति काल’ और विश्वनाथ मिश्र ‘शंृगार काल’ कहते हैं। डॉ. नगेन्द्र कहते हैं कि इन अभिधानों में से प्रथम दो के लिए जहाँ रचना-पद्धति का आधार ग्रहण किया गया है, वहाँ अन्तिम के लिये उस युग की रचनाओं को आधार माना है। किन्तु इस युग के लिए ‘अलंकृत’ विशेषण अधिक समीचीन नही होता। कारण मिश्र महोदयों ने इसके समर्थन में जो यह तर्क दिया है कि इय युग की कविता को अलंकृत करने की परिपाटी अधिक थी, वह इसलिए मान्य नहीं हो सकता क्योंकि यह कविता केवल अलंकृत ही नहीं है, इतर काव्यांगों को भी इसमें यथोचित स्थान प्राप्त रहा है। कवियों की प्रवृति भी केवल अलंकार युक्त रचनाएँ करने की नहीं थी। उन्होंने इसकी अपेक्षा रस पर अधिक बल दिया है। हाँ, संस्कृत-काव्य शास्त्र में ‘अलंकार’ शब्द विविध काव्यांगों का बोधक अवश्य रहा है। अत: इस अर्थ में यदि ‘अलंकार’ विशेषण इस युग की काव्यांग-निरूपण-प्रवृति के लिए ग्रहण किया जाये तो असंगत नहीं। पर चूकि ‘अलंकृत’ शब्द इस युग की कविता का ही विशेषण हो सकता है, लक्षण ग्रंथों का नहीं, जो प्रचुर परिमाण में उपलब्ध होते हैं। इसलिए इस युग को किसी सीमा तक ‘अलंकार काल’ कहना भी युक्त संगत नहीं हो सकता है। इधर हिन्दी मेे ‘अलंकार’ शब्द काव्यांग विशेष के लिए ही रूढ़ है, काव्य शास्त्र के लिए गृहीत नहीं होता। अत: व्यवहार और अव्याप्ति के कारण, इसको स्वीकार करना भी संगत प्रतीत नहीं होता।
जहाँ तक शेष दो विशेषणों-‘रीति’ और ‘शंृगार’ का प्रश्न है, वे दोनों ही अपने-अपने स्थानों पर महत्वपूर्ण हैं। इस युग के लिए ‘रीति’ विशेषण का प्रयोग करने वाले आचार्य रामचंद्र शुक्ल तक ने इसे ‘शृंगारकाल’ कहने में आपत्ति प्रकट नहीं की। किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि इस युग को ‘शंृगार काल’ कहना सर्वथा समीचीन है। इस नाम के पक्ष में जो यह तर्क दिया जाता है कि इस युग के कवियों की व्यापक प्रवृति शृंगार’ वर्णन की थी, उसके स्वीकार किये जाने में आपत्ति की जा सकती है। इसमें संदेह नहीं कि इस युग में अधिकांश रचनाएँ शंृगारिक ही हैं तथापि ये आश्रय दाताओं को प्रसन्न करने के लिए ही लिखी गयी हैं। इनका प्रेरक तत्व कवियों की काम वासना नहीं, ‘अर्थ’ है, जो विलासी आश्रय दाताओं से इस प्रकार के काव्य की रचना करके ही प्राप्त किया जा सकता था। वैसे, इस युग में अनेक ऐसे कवि भी हुए है। जो इस प्रकार के वर्णन करने पर भी अपने कर्म से असंतुष्ट रहे हैं- यथा: जैसा कि अनेक कवि लिखते हैं कि उनका ध्येय शंृगार रचना नही है-यथा- ‘‘नृपति नैन कमलनि वृथा, चितवत बासर जाहि। हृदय कमल में हेरि लैं, कमल मुखी कमलाहि।। (मतिराम: सतसई, 394)। इसी प्रकार भिखारी दास के इस कथन को देखें तो उनकी इच्छा प्रकट होती है: ‘‘आगे के कवि रीझिहैं, तौ कबिताई, न तौ । राधिका कन्हाई सुमिरन कौ बहानौं है।। (भिखारी दास, काव्य निर्णय 1/8) इससे यह ध्वनि निकलती है कि ये कवि शृंगारिक काव्य को ‘काव्य’ कहने में संकोच करते थे। गोप, रसरूप, सेवादास आदि कवियों ने भी अपने लक्षण ग्रंथों में शंृगार का वहिष्कार किया है। कुछ कवि तो स्पष्ट घोषणा करते हैं कि उनके ग्रंथों का उद्देश्य दूसरों को काव्य रचना-पद्धति का ज्ञान कराने के लिए है अथवा काव्यांग निरूपण के लिये। यथा: (क) ‘‘भाषा भूषण ग्रंथ को, जो देखै चित लाय। विविध अर्थ साहित्य रस, ताहि सकल दरसाय’’।। (जसवंत सिंह: भाषा भूषण, 212), (ख) ‘‘बांचि आदि तें अन्त लों, यह समुझै जो कोइ। ताहि और रस ग्रंथ को, फेरि चाह नहिं होइ।’’ (रसलीन:रसप्रबोध),(ग) जान्यौ चहै जु थोरे ही, रस कबित्त को बंस। तिन्ह रसिकन के हेतु यह, कीन्हो रस सारंस।। (भिखारी दास: रस सारांश)
वस्तुत: इस युग में कवि काव्यांग-चर्चा में उसी प्रकार गौरव का अनुभव करते थे, जिस प्रकार कि ब्रह््मज्ञान विषयक चर्चा भक्ति काल में जन सामान्य के लिये गौरव की बात हुआ करती थी। ये लोग यद्यपि उस अर्थ में आचार्य नहीं थे, जिसमें कि संस्कृत के काव्य शास्त्र विवेचक आचार्य आते हैं, पर स्वच्छ और सुबोध निरूपण के कारण ‘शिक्षक’ के अर्थ में तो आचार्य कहे ही जा सकते हैं। इनमें चिंतामणि, कुलपति, दास, प्रताप सिंह आदि तो ऐसे हैं जिन्होंने इस कर्म को अत्यंत मनोयोग के साथ ग्रहण किया है। इनकी रचनाओं में यदि शृंगारिक छंदों का समावेश हुआ है तो उसका मुख्य कारण इनकी शंृगारिक प्रवृत्ति के स्थान पर विलासी आश्रय दाताओं को प्रसन्न करने के अतिरिक्त शास्त्र के इस रुक्ष विषय को सरस  बना कर सुकंठ करने का प्रयत्न ही कहा जाना चाहिए। यदि ये शृंगार वर्णन को ही अपना उद्देश्य समझते, तो लक्षणों के बन्धन में डाल कर अपनी रचनाओं को कहीं-कहीं दूषित अथवा कवित्व हीन न कर बैठते, अपितु स्वतंत्र ग्रंथ भी तो रचे जा सकते थे। बिहारी जैसे कवियों ने इस फेर में न पड़ कर स्वतंत्र रूप से शृंगारिक ग्रंथों की रचना की ही है किंतु इसके मूल में भी उनकी अपनी शृंगारिक प्रवृति थी, यह नहीं कहा जा सकता। कारण, ये भी विलासी आश्रय दाताओं के लिये ही लिखे थे। वैसे इन ग्रंथों की भलीभांति परीक्षा की जाये तो सहज ही स्पष्ट हो जायेगा कि इनके रचनाकारों पर भी काव्य शास्त्र की गहरी छाप है। इन्होंने लक्षण नहीं लिखे, पर उनके अनुरूप अपनी रचनाएँ अवश्य की है। मतिराम, भूपति, चंदन आदि तो ऐेेसे हैं जिन्होने काव्य शास्त्र के किसी अंग पर कुछ-न-कुछ लिखा भी है। दूसरा, यदि यह स्वीकार कर भी लिया जाये कि इस युग के कवियों की व्यापक प्रवृत्ति शृंगारिक ही थी, तो भी इसे ‘शृंगार काल’ कहने में अव्यप्ति दोष होगा, क्योंकि इस काल में वीर,भक्ति आदि की रचनाएँ भी हुई हैं। साथ ही काव्यांग-विवेचन की दृष्टि से लिखित अनेक महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध लक्षण ग्रंथ इसकी परिसीमा में न आ सकेंगे। इस सम्बन्ध में यद्यपि यह तर्क दिय जा सकता है कि चूंकि इनके रचनाकारों ने थोड़े बहुत शंृगारिक छंद भी लिखे हैं, इसलिए ये भी शंृगार काल की परिधि के भीतर आ सकते हैं। किंतु ये रचनाएँ विशिष्ट परिस्थितियों में लिखी सामग्री के अन्तर्गत ही आवेगी। अत: प्रवृत्तियों के आधार पर इसे शृंगार काल कहना उचित नही।
डॉ.नगेन्द्र लिखते हैं कि इस युग को ‘रीति’ विशेषण सहित प्रयोग में लाया जा सकता है क्योंकि यह शृंगार की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक है। कारण इस अवधि में रीति सम्बन्धी ग्रंथ ही अधिक लिखे गये हैं तथा रचनाकारों की प्रवृत्ति भी यही रही है। यदि इस काल के कवियों को समझने का प्रयत्न करे तो ध्यान में आता है कि यदि शंृगारिक छंद रचे भी, तो भी वे सामान्यत: स्वतंत्र रूप से रचित न हो कर शृंगार रस की सामग्री के लक्षणों के उदाहरण होने के कारण रीतिबद्ध ही थे। इतना ही नहीं, रीति-निरूपपण की यह प्रवृत्ति अपनी विशिष्ट पृष्ठभूमि और परंपरा के साथ आयी थी। भक्ति काल में ही काव्य शास्त्र लोगों की चर्चा का विषय बन चुका था। नन्ददास द्वारा ‘रसमंजरी’ जैसा नायिका भेद सबन्धी ग्रंथ लिखा जाना तथा तुलसी द्वारा ‘धुनि अवरेब कबित गुन जाती, मान मनोहर ते बहु भांती’ आदि कहा जाना इसकी पुष्टि के लिए पर्याप्त है। इसके साथ-ही-साथ केशव, रहीम, सुंदर आदि अनेक कवियों ने कवि-चर्चा के इस विषय को अग्रसर किया, जो आगे चलकर साधारण कवियों तक का वण्र्य विषय होने के कारण इस युग की प्रवृत्ति का द्योतक हो गया। दूसरे, इस अभिधान को स्वीकार कर लेने में सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसकी परिधि के भीतर केवल वे लक्षण और लक्ष्य ग्रंथ ही नहीं आ जाते जो शृंगारिक रचनाओं से युक्त हैं, अतिपु वे ग्रंथ भी इसकी परिसीमा के बाहर नहीं पड़ते जो अन्य रसों में काव्यांग-विवेचन के निमित्त रचे गये।
यद्यपि यह कहा जा सकता है कि ‘रीति काल’ संज्ञा भी अपने आप में पूर्ण नहीं, क्योंकि घनानंद, बोधा, ठाकुर, आलम, आदि ऐसे कवि भी हैं जो इस श्रेणी में भी नहीं आते। ये सब ‘रीतिमुक्त’ के अन्तर्गत आते हैं, जिन्होन अपने काव्य ग्रंथों की रचना न तो काव्यांगों के विवेचन के लिए की और न उन पर काव्य शास्त्र का  प्रभाव ही रहा। साथ ही डॉ. नगेन्द्र के इस  तर्क से सहमत हुआ जा सकता है: कि यदि देखें तो सूदन, जोधराज जैसे कवि तो वीरगाथा काल की परम्परा में रखे जा सकते हैं कारण इनकी रचना-शैली उस युग के ग्रंथों की शैली से दूर नहीं है। साथ ही वर्तमान युग में ब्रज भाषा-काव्य तथा काव्य शास्त्र के अनेक ग्रंथों का प्रणयन हुआ है और अब भी हो रहा है, तो उनके सन्निविष्ट न हो सकने के कारण क्या आधुनिक काल अथवा गद्य काल अभिधान को अमान्य ठहराया जा सकता है ? ऐसे ही घनानन्द, बोधा अदि कतिपय उत्कृष्ट कोटि के कवियों के विषय में भी कहा जा सकता है कि इन इने-गिने कवियों की पृथक् प्रवृत्ति को ‘रीतिमुक्त’ नाम दे देने में कोई हर्ज नही होगा। यदि इनके वण्र्य विषय को शृंगार कहते हुए इन्हें फुटकल खाते में न डाले जाने की दुहाई दे कर, इनको उचित स्थान दिलाने के लिए ही ‘शृंगार काल’ संज्ञा पर बल दिया जाता है, तो इनके विषय में भी यह स्पष्ट कर देना आवश्यक होगा कि इन कवियों का काव्य संस्कृत-काव्य शास्त्र की दृष्टि से विशुद्ध शृंगार की कोटि में नहीं रखा जा सकता। विषय चयन के आधार पर भी इस काल को ‘रीति काल’ कहने में किसी प्रकार का अव्याप्ति दोश न होगा, क्योंकि प्रत्येक कवि द्वारा इसमें शृंगार को न्यूनाधिक रूप से ग्रहण किया जाना भी तो एक विशेष प्रकार की ‘रीति’ (पद्यति) ही है। आचार्य शुक्ल का शृंगार काल कहे जाने का मौन या दवे स्वर का कारण यह था कि उनके समय तक जो साहित्य प्रकाश में आया था वह शृंगार प्रधान अधिक था। अंत में काल के नाम निर्धारण में ‘रीति काल’ उचित प्रतीत होता है।
  उपलव्ध सामग्री:
   रीति काल की सामग्री पर विचार करे तो ध्यान में आता है कि प्राचीन वांड्मय के समान मध्यकालीन हिन्दी साहित्य का भी यह दुर्भाग्य रह है कि प्रकाशन और उचित देख रेख के आभाव में इसके अनेक ग्रंथ जो साहित्य के लिये रत्न सिद्ध हो सकते थे, लुप्त हो गये और आज भी वैज्ञानिक साधनों के उपलब्ध होते हुए भी यह कोई गारंटी नहीं कि भविष्य में से इस अभिशाप से बच सकेंगे। रीतिकालीन ग्रंथ इस प्रकार के ग्रंथों में यद्यपि अपेक्षा कृत अधिक अर्वाचीन हैं तथापि इनमें से अधिकांश नष्ट हो गये? डॉ. नगेन्द्र के अनुसार रीतिकालीन साहित्य आज जिन स्रोतों से उपलब्ध हैं, उन्हें तीन वर्गों में रखा जा सकता है। इनमें पहला- इस देश के विभिन्न पुस्तकालय हैं, जहाँ हस्तलिखित ग्रंथ सुरक्षित हैं। इन पुस्तकालयों में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-काशी की नागरी प्रचारिणी सभा का आर्य भाषा पुस्तकालय, रामनगर (वाराणसी) स्थित काशी नरेश का पुस्तकालय, पटियाला-स्थित नेशनल आर्काइव्स का पुस्तकालय, बडौदा-स्थित गायकवाड़ ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, सयाजीराव विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग का पुस्तक संग्रह एवं राजस्थान में जयपुर, जोधपुर, बीकानेर और उदयपुर के तथा मध्यप्रेदश में दतिया, टीकमगढ़, बीजापुर, छतरपुर और रीवा के महाराजाओं के व्यक्तिगत पुस्तकालय। दूसरा वर्ग कतिपय उन लोगों का है, जिन्होंने अपने पास अनेक हस्तलिखित एवं प्रकाशित गं्रथ एकत्र कर रखे हुए हैं। इनमें स्व. ठाकुर शिवसिंह सेंगर-उन्नाव, श्री गोविद चतुर्वेदी-मथुरा, श्री जवाहर लाल चतुर्वेदी- मथुरा, कैप्टेन शूरवीर सिंह अलीगढ़, स्व. भवानी शंकर याज्ञिक आदि के वैयक्तिक संग्रहों का विशेष उल्लेख किया जा सकता है। तीसरा वर्ग पुरानी और नयी प्रकाशन-संस्थाओं का है। प्राचीन प्रकाशन, श्री वेंकटेश्वर प्रेस-बंबई, भारत जीवन प्रेस-काशी; नवलकिशोर प्रेस-लखनऊ, इंडियन प्रेस इलाहाबाद; नागरी प्रचारिणी सभा आज भी इस दिशा में विशेष सक्रिय है । नवीन संस्थाओं में विभिन्न नगरों में अवस्थित व्यावसायिक एवं शोध-संस्थान हैं, जिन्होंने कतिपय ग्रंथावलियाँ एवं स्वतंत्र ग्रंथ प्रकाशित कराये हैं अथवा कराने की जिनकी योजना है। इस प्रकर प्रथम दो वर्गों के स्रोतों  से उपलब्ध साहित्य जहाँ विशिष्ट लोगों की पहुँच तक सीतिम है, वहीं तृतीय वर्ग ने इसे सर्वसाधारण के लिए उपलब्ध कर दिया हैं।
रीतिकालीन गद्य साहित्य-रीति काल में गद्य- साहित्य का निर्माण भक्ति काल की अपेक्षा अधिक हुआ है। इस काल में ब्रज भाषा, राजस्थानी, खड़ीबोली, दक्खिनी, मैथिली आदि अन्य विभाषाओं में भी गद्य लिखा गया है। इस समय की प्रमुख गद्य विधाएं हैं- कथा-कहानी, वार्ता, वात, वर्णन, चरित्र, नाटक, ख्यात, पीढ़ी, विगत, वचनिका, दवावैत, सलोका, वचनामृत (प्रवचन) गोस्ट, जनमसाखी, परचीओ, जीवनी, वंशावली, पट्टावली, पत्र (मौलिक रूप) और बालाव बोध, टीका, टिप्पण, भाषा, परमारथ, भाव, भावना, वर्तिक (व्याख्यानुवाद), पुस्तक परिचय, निबंधात्मक रचनाएं और जीवनी शैली की रचनाएं भी प्राप्त हैं। इस समय के गद्य में प्रतिपादित विषय हैं-धर्म, दर्शन, आध्यात्म, इतिहास, भूगोल, चिकित्सा, ज्योतिष, काव्य शास्त्र, शकुन शास्त्र, प्रश्न शास्त्र, सामुद्रिक, गणित और व्याकरण, विज्ञान, योग, वेदांत, वैद्यक आदि। रीति काल के गद्य -साहित्य को प्रमुख रूप से निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-ब्रज भाषा, खड़ीबोली गद्य, दक्खिनी गद्य, राजस्थानी-गद्य, भोजपुरी और अवधी की गद्य रचनाएं। बघेली, बुंदेली, मारवाड़ी, छत्तीसगढ़ी के बारे में जानकारी उपलब्ध करनी चाहिए।

No comments:

Post a Comment