केशवदास
केशवदास की जन्मतिथि के सम्बन्ध में पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है। किन्तु केशवदास को तुलसीदास का समकालीन माना जाता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने केशवदास का जन्मकाल सं.1612 स्वीकार किया है। इनकी मृत्यु के सम्बन्ध में माना जाता है कि संवत् 1674 में हुई। केशवदास के पिता का नाम काशीनाथ तथा पितामह का नाम कृष्णदत्त था। इनका परिवार संस्कृत पण्डितों का था। इनके पितामह कृष्णदत्त गहरवार महाराज प्रतापरुद्र के आश्रित थे और उनके पास ओरछा में पुराण की वृत्ति पर रहा करते थे। महाराज प्रतापरुद्र के पुत्र मधुकरशाह केशवदास के पिता काशीनाथ का बहुत आदर करते थे। काशीनाथ के तीन पुत्र हुए-बलभद्र, केशवदास और कल्यान। केशवदास ओरछा नरेश इद्रजीत सिंह के दरवार में रहा करते थे। इन्होंने केशवदास के सम्मान में उन्हें इक्कीस गांव दिए थे। गोस्वामी विठ्ठलदास को इनका दीक्षा-गुरु माना जाता है। केशवदास के परिचित व्यक्तियों में उल्लेखनीय नाम इस प्रकार हैं- बीरबल, रहीम, टोडरमल, पतिराम सुनार, रायप्रवीण आदि। केशवदास एक स्वाभिमानी व्यक्ति थे। वे एक प्रसिद्ध ब्राह्मण और अपने समय के चमत्कारवादी कवि थे। वह जीवन भर वैभव के वातावरण में रहे और अन्त में उन्हें वैराग्य हो गया था। केशवदास एक सच्चरित व्यक्ति थे उनसे प्रभावित होकर प्रवीणराय ने वेश्यावृत्ति को त्यागकर पातिव्रत अपना लिया था।
केशवदास राम के भक्त थे किन्तु वे पहले कवि बाद में भक्त थे। केशवदास द्वारा लिखित दस ग्रंथ विद्वानों के बीच प्रचलित थे-1. रामचन्द्रिका (सं.1658), 2. कविप्रिया (सं.1658), 3. रसिकप्रिया (सं.1648), 4. रतनबावनी (सं.1638), 5.वीरसिंहदेव-चरित (सं.1664), 6. जहाँगीर-जस-चन्द्रिका (सं.1669), 7. विज्ञान-गीता (सं.1667), 8. बारहमासा (सं.1657),। इधर उनके दो और ग्रंथ उपलब्ध हुए हैं- 9. शिखनख (सं.1657), और 10. छंदमाल (सं.1659),। इन दसों ग्रंथों को हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद ने ‘केशव -ग्रंथवाली’ के नाम से तीन खण्डों में प्रकाशित किया है। केशव को आचार्य-रूप में प्रतिष्ठित करने वाले ‘कविप्रिया’ और ‘रसिकप्रिया’ ग्रंथ तो प्रसिद्ध हैं ही, रामचंद्रिका भी उनकी बहुत प्रसिद्ध पुस्तक है। रामचंद्रिका वस्तुत: द्वंद्वों की पिटारी है। यह राम-कथा पर आधारित एक गौरवपूर्ण काव्य-ग्रथ है। जिसमें महाकाव्य की कलेवरात्मक साज-सज्जा से युक्त करने का कवि-संकल्प सर्वत्र दिखाई देता है। पद-पद पर कवि छंद को इस प्रकार बदलता गया है कि प्रतीत होता है कि उसकी दृष्टि भाव पर नहीं, छंद पर ही अड़ी हुई है। प्रबंध-काव्य नहीं लिखकर जैसे कवि एक छंद:शास्त्र का निर्माण कर रहा हो।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि- ‘केशवदास को कवि हृदय नहीं मिला। उनमें वह सहृदयता और भावुकता न थी जो एक कवि में होनी चाहिए। वे संस्कृत साहित्य से सामग्री लेकर अपने पाण्डित्य की धाक जमाना चाहते थे।’
डॉ. श्यामसुन्दर दास ने लिखा है - ‘‘हमारी दृढ़ भावना है कि केशव ने हिन्दी को ‘महान गौरव’ प्रदान किया है। जिस प्रकार तुलसी अपनी सरलता और सूर अपनी गम्भीरता के हेतु सराहनीय है, वैसे ही वरन् उनसे भी बढक़र केशव अपनी भाषा की परिपुष्टता के लिए प्रशंसनीय हैं।’’
’रतनबावनी’, ‘वीरसिंह देव चरित’ और ‘जहाँगीर-जस-चन्द्रिका’ प्रशस्ति काव्य हैं। ‘रतनबावनी’ में मधुकरशाह के पुत्र रतनशाह देव की वीरगाथा का गौरव-गान है। ‘जहाँगीर-जस-चन्द्रिका’ में राजा वीरसिंहदेव के परम हितैषी सम्राट जहाँगीर का यशोगान है। ‘रसिकप्रिया’ में रसों का मौलिक ढंग से विवेचन है। ‘विज्ञानगीता’ एक रूपक ग्रंथ है। ‘बारहमासा’ में वियोग शंृगार का वर्णन है। ‘छन्दमाल’ छंद सम्बन्धी ग्रंथ है।
वस्तुत: ब्रजभाषा में रचना करने वाले कवियों में केशव ही प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने भाषा को अर्थ वहन करने की शक्ति और गाम्भीर्य प्रदान किया। रीतिकाल में प्रणीत समस्त काव्य को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है- प्रशस्ति काव्य या वीरकाव्य, शंृगार काव्य, रीतिशास्त्रीय काव्य और भक्ति-वैरग्य काव्य। केशवदास में ये चारों प्रवृत्तियाँ यथाविधि परंपरा के रूप में उपलब्ध हैं। केशवदास का रचनाकाल भक्तिकाल और रीतिकाल का संधि युग कहलाता है। केशव रीतिकाल के प्रथम आचार्य माने जाते हैं। वे बौद्धिक वाद के कवि थे। संस्कृत की प्रधानता के कारण उनकी रचनाएँ क्लिष्ट हैं। पं. जगन्नाथ तिवारी ने कहा है कि -‘‘केशव की क्लिष्टता उनकी साहित्यिकता के कारण है, न कि केवल भाषा के कारण।’’ क्लिष्टता के निर्वाह में केशव श£ेष और विरोधाभास का प्रयोग करते हैं। इसीलिए इन्हें अलंकारवादी कवि भी कहा जाता है। रामचन्द्रिका में दर्शनशास्त्र, आयुर्वेद, ज्योतिष, काव्यशास्त्र, नीति आदि से सम्बन्धित बातें अनेक स्थान पर आई हैं। रामचन्द्रिका के प्रमुख संवाद हैं- 1. सुमति-विमति संवाद, 2. रावण-जाणासुन संवाद, 3. राम-परशुराम संवाद, 4. राम-जानकी-संवाद, 5. राम-लक्ष्मण संवाद, 6. सूर्पणखा संवाद, 7. सीता-रावण-संवाद, 8. सीता-हनुमान-संवाद, 9. रावण-अंगद-संवाद, 10. लव-कुश संवाद।
पाठ्यक्रम आधारित पद-
2.
पावक पवन मणिपन्नग पतंग पितृ जेते,
जोतिवंत जग ज्येतिषिन गाए हैं।
असुर प्रसिद्ध सिद्ध तीरथ सहित सिंधु,
‘केसव’ चराचर जे बेदन बताए हैं।
अजर अमर अज अंगी औ अनंगी सब बरनि,
सुनावै ऐसे कौने गुन पाए हैं।
सीता के स्वयंवर को रूप अवलोकिबे कौं,
भूपन को रूप धरि बिस्वरूप आए हैं।। 1।।
शब्दार्थ: पावक= अग्रि। पवन=हवा। मणिपन्नग= मणिधारी बड़े बड़े सर्प, शेषनाग, वासुकि आदि। चराचर= जंगम और जड़। पतंग= पक्षी। पितृ= पितृलोक निवासी। ज्योतिवंत= प्रतापी, सूर्य और चन्द्र आदि। अजर= अविकृत, जो पुराने न पड़ें। जिन पर अवस्था का प्रभाव ने पड़े। अज= जिसका जन्म न हो, जो जन्म न ले। विस्वरूप= विश्वभर के रूपधारीलोग।
सन्दर्भ: सीता के स्वयंवर की शोभा अपार है। इसमें तीनों लोकों के जीव उपस्थित हैं। स्वयंवर में तीनों लोकों का सौंदर्य एकत्र है। उनको देखने के लिए दृश्यमान जगत के समस्त रूप-नामधरी जीव उपस्थित हैं।
भावार्थ: केशवदास जी कहते हैं कि पवन, अग्रि, वासुकि नाग, आकाश मार्गी सभी जीव, पितृलोक से पधारे पुरुखे, जगत के प्रतापी गण, ज्योतिषी, असुर, प्रसिद्ध-सिद्ध चराचर जीव तथा ऐसे सभी जिनकी कीर्ति वेदों ने गाई है। अशरीरी, विभिन्न प्रकार के शरीरधारी सभी प्रकार के लोग सीता के स्वयंम्बर में भाग लेने, उसे देखने, सीता की सुन्दरता को अवलोकने विभिन्न राजाओं का रूप धारण कर आए हैं। तात्पर्य यह कि इस सभा में विश्वभर की सुन्दरता एकत्र होकर सुन्दरता को देखने आई है।
विशेष: अनुप्रास। अतिशयोक्ति।
2.
दिगपाल की भुवपालन की लोकपालन की किन मातु गई च्वै।
भाँड भए उठि आसन तें कहि ‘केसव’ संभसरासन को छ्वै।
काहू चढ़ायो न काहू नवायो न काहू उठायो न आँगुरहू द्वै।
कछु स्वारथ भो न भयो परमारथ आए ह्वै वीर चले बनिता ह्वै।। 2।।
शब्दार्थ: किन मातु गई च्वै= अर्थात माता के गर्भ से जन्म क्यों लिया। भाँड़ भए= हँसी के पात्र बने। नवायो= झुकाया। आँगरहँू द्वै= दो अंगुल भी। वनिता= नारी।
सन्दर्भ: धनुष यज्ञ में आए राजाओं की बलाबल की स्थिति का वर्णन।
भावार्थ: सीता के विवाह का शिवधनुष उठा सकने का सामथ्र्य किसी भी राजा का न रहा। कवि कहता है कि दृश्य ऐसा है कि बड़े -बड़े भूपाल, दिग्पाल, लोकपाल कहलाने वालों को माता ने जन्म ही क्यों दिया। इनका गर्भपात जन्मने के पहले ही क्यों नहीं हो गया। अपने-अपने आसन से उठ कर धनुष उठाने आए बड़े-बड़े राजा, धनुष उठाना तो बड़ी बात, चढ़ाना उससे भी बड़ी बात थी, राजा गण तो धनुष को दो अंगुल जमीन से ऊपर उठा तक न सके। बलहीन, स्त्री-रती राजा अपना सिर झुकाए वहाँ से हट गए।
विशेष: पदमैत्री- भुवपाल, दिगपाल, लोकपाल। किन मातु च्वे-गूढ़ार्थ। छेकानुप्रास- भाँड़ भए, संभु सरासन।
3.
अरुन गात अतिप्रात पद्यिनी-प्राननाथ भय।
मानहु ‘केसवदास’ कोकनद कोक प्रेममय।
परिपूरन सिंदूर पूर कैधों मंगलघट।
किधौं सक्र को छत्र मढ्यो मानिकप्रयूख-पट।
कै श्रोनित कलित कपाल यह किल कापालिक काल को।
यह ललिड खाल कैधौं लसत दिगभामिनि के भाल को।। 3।।
शब्दार्थ: अरुण= लाल, सूर्योदय पूर्व का रंग। पद्यिनी प्राणनाथ=सूर्य। भय=भये, हुए। कोकनद= कमल। कोक=चक्रवाक, चकवा। शुक्र= इन्द्र। परिपूरन= समस्त। किधौं= अथवा। सिंदूर पूर मंगल घट = विवाहादि के अवसर पर स्थापित किए जानेवाला मंगल कलश। माणिक मयूख पट= माणिक की किरणों से बना हुआ वस्त्र। श्रोणित कलित= शैव मतावलम्बी तान्त्रिक साधु जो मद्य माँस का सेवल करते हैं तथा जो काली एवं भैरव को बलि चढ़ाते हैं। ये लोग प्राय: मानव कंकाल की खोपड़ी को भोजन खाने के पात्र के समान प्रयुक्त करते हैं। लाल= माणिक। दिग्भामिनी= दिशा रूपी स्त्री। भाल= कपाल। दिग्भामिनी के भाल को= पूर्व दिशा रूपी स्त्री के मस्तक पर।
संदर्भ: जनकपुरी में श्रीराम के प्रवेश करते ही सूर्योदय हुआ। या सूर्यादय की बेला है जब राम लक्ष्मण यहाँ आए। लक्ष्मण उदित होते सूर्य का वर्णन विभिन्न प्रकार की उपमाओं से कर रहे हैं।
भावार्थ: श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण जी के साथ जनकपुरी में हैं और भगवान भास्कर प्राची दिशा में उदित हो रहे हैं। प्राची में उदित होते भगवे रंग से आच्छादित सूर्य को देखकर लक्ष्मण जी सूर्य के इस बाल रूप के सौन्दर्य का वर्णन विभिन्न उपमाओं के साथ कर रहे हैं। वे कहते हैं पद्यिनी वल्लभ सूर्य (सूर्य के उदित होते ही लाल कमल खिल जाता है अत: सूर्य को पद्मिनी वल्लभ कहा है) अपनी रक्तिम आभा के साथ उदित हुए हैं। अपनी रक्तिम आभा में वे ऐसे लगते हैं मानो उनके रूप में कमल और चक्रवाक का प्रेम ही उदय हो गया है। (चकवा और चकई पक्षी रात्रि होते ही अलग हो जाते हैं किन्तु जैसे ही प्रात: होता है वे फिर मिल जाते हैं। कमल भी सूर्योदय के समय खिलता है।) अथवा यह बालारुण मांगलिक अवसरों पर रखा जाने वाला सिंदूर से पूर्ण मंगल कलश है, अथवा यह माणिक्य से बुना हुआ इन्द्र का छत्र है, अथवा यह निश्चय ही काल-रूपी कापालिक के हाथ का कपाल है जो रक्त से भरा हुआ है अथवा यह बलि के लिए तैयार रक्त में डूबा हुआ मुण्ड है अथवा यह पूर्व दिशा रूपी स्त्री के मस्तक की सुन्दर मणि हैं।
विशेष: केशव के अलंकार नियोजन का चमत्कार इस पद में दिखाई देता है। रूपक अलंकार- कापालिक काल, दिग्भामिनि। उत्पेक्षा। छेकानुप्रास।
4.
सातुहु दीपन के अबनीपति हारि रहे जिय में जब जाने।
बीस बिसे ब्रतभंग भयो सु कहौ अब ‘केशव’ को धनु ताने।
साके की आगि लगी परिपूरन आइ गए घनश्याम बिहाने।
जानकि के जनकादिक के सब फूलि उठे तरु पुन्य पुराने।। 4।।
शब्दार्थ: अवनीपति= राजा। बीस बिसे= निश्चय ही। ब्रत=व्रत, प्रतिज्ञा। घनस्याम=1. श्रीराम, 2.पानी भरे बादल। बिहाने= प्रात:। तरुपुण्य पुराने= पूर्व कालीन पुण्य रूपी वृक्ष। पूर्व कालीन का अर्थ है पूर्व जन्म के।
सन्दर्भ: राम के आगमन से स्वयंबर हाल का वातावरण कैसे बदल जाता है। उसका ही वर्णन है।
भावार्थ: सातों द्वीप के भूपाल धनुष न उठा पाने के कारण मन ही मन हार मान चुके थे। ऐसा प्रतीत होता है सभी के संकल्प टूट चुके थे, सभी के सीता विवाह का व्रत भंग हो चुका था। सभी निराश, कुठित और मन ही मन क्षुब्ध थे। और सभी सोच विचार कर रहे थे कि इस धनुष की प्रत्यंचा अब कौन चढ़ावेगा। तभी राम (सांवले-सलोन, घनश्याम) आते हैं और सभी के मने में ईष्र्या, डाह की लगी आग को (घनश्याम) बादल बन कर बुझाते हैं। इस अवसर को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे जनक और उनके परिवार के पूर्व जन्म के कर्म फल जागृत हो उठे हों। और राम के व्यक्तित्व को देखकर सब को विश्वास हो गया की इनके आगमन से धनुष अवश्य टूटेगा और सीता का विवाह सम्पन्न हो जायेगा।
विशेष: अलंकार- श£ेश। रूपक, अनुप्रास आदि। मुहावरे का प्रयोग- बीस बिसे।
5.
नृपमनि दसरथ नृपति के प्रगटे चारि कुमार।
राम भरत लक्ष्मन ललित अस सत्रुघ्र उदार।। 5।।
सन्दर्भ: विश्वामित्र राजा जनक को श्रीराम का परिचय करा रहे हैं।
भावार्थ: विश्वामित्र धनुष यज्ञ में श्रीराम और लक्ष्मण को लेकर आए हैं। वे राजा जनक से श्रीराम और लक्ष्मण का परिचय राजा दशरथ के पुत्र के रूप में कराते हुए बता रहे हैं कि अयोध्यापति राजा दशरथ के चार पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्र हैं। यहाँ राम और लक्ष्मण आपके स्वयंवर में पधारे हैं। ये चारे भाई ललित-सुन्दर और उदार हैं।
केशवदास की जन्मतिथि के सम्बन्ध में पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है। किन्तु केशवदास को तुलसीदास का समकालीन माना जाता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने केशवदास का जन्मकाल सं.1612 स्वीकार किया है। इनकी मृत्यु के सम्बन्ध में माना जाता है कि संवत् 1674 में हुई। केशवदास के पिता का नाम काशीनाथ तथा पितामह का नाम कृष्णदत्त था। इनका परिवार संस्कृत पण्डितों का था। इनके पितामह कृष्णदत्त गहरवार महाराज प्रतापरुद्र के आश्रित थे और उनके पास ओरछा में पुराण की वृत्ति पर रहा करते थे। महाराज प्रतापरुद्र के पुत्र मधुकरशाह केशवदास के पिता काशीनाथ का बहुत आदर करते थे। काशीनाथ के तीन पुत्र हुए-बलभद्र, केशवदास और कल्यान। केशवदास ओरछा नरेश इद्रजीत सिंह के दरवार में रहा करते थे। इन्होंने केशवदास के सम्मान में उन्हें इक्कीस गांव दिए थे। गोस्वामी विठ्ठलदास को इनका दीक्षा-गुरु माना जाता है। केशवदास के परिचित व्यक्तियों में उल्लेखनीय नाम इस प्रकार हैं- बीरबल, रहीम, टोडरमल, पतिराम सुनार, रायप्रवीण आदि। केशवदास एक स्वाभिमानी व्यक्ति थे। वे एक प्रसिद्ध ब्राह्मण और अपने समय के चमत्कारवादी कवि थे। वह जीवन भर वैभव के वातावरण में रहे और अन्त में उन्हें वैराग्य हो गया था। केशवदास एक सच्चरित व्यक्ति थे उनसे प्रभावित होकर प्रवीणराय ने वेश्यावृत्ति को त्यागकर पातिव्रत अपना लिया था।
केशवदास राम के भक्त थे किन्तु वे पहले कवि बाद में भक्त थे। केशवदास द्वारा लिखित दस ग्रंथ विद्वानों के बीच प्रचलित थे-1. रामचन्द्रिका (सं.1658), 2. कविप्रिया (सं.1658), 3. रसिकप्रिया (सं.1648), 4. रतनबावनी (सं.1638), 5.वीरसिंहदेव-चरित (सं.1664), 6. जहाँगीर-जस-चन्द्रिका (सं.1669), 7. विज्ञान-गीता (सं.1667), 8. बारहमासा (सं.1657),। इधर उनके दो और ग्रंथ उपलब्ध हुए हैं- 9. शिखनख (सं.1657), और 10. छंदमाल (सं.1659),। इन दसों ग्रंथों को हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद ने ‘केशव -ग्रंथवाली’ के नाम से तीन खण्डों में प्रकाशित किया है। केशव को आचार्य-रूप में प्रतिष्ठित करने वाले ‘कविप्रिया’ और ‘रसिकप्रिया’ ग्रंथ तो प्रसिद्ध हैं ही, रामचंद्रिका भी उनकी बहुत प्रसिद्ध पुस्तक है। रामचंद्रिका वस्तुत: द्वंद्वों की पिटारी है। यह राम-कथा पर आधारित एक गौरवपूर्ण काव्य-ग्रथ है। जिसमें महाकाव्य की कलेवरात्मक साज-सज्जा से युक्त करने का कवि-संकल्प सर्वत्र दिखाई देता है। पद-पद पर कवि छंद को इस प्रकार बदलता गया है कि प्रतीत होता है कि उसकी दृष्टि भाव पर नहीं, छंद पर ही अड़ी हुई है। प्रबंध-काव्य नहीं लिखकर जैसे कवि एक छंद:शास्त्र का निर्माण कर रहा हो।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि- ‘केशवदास को कवि हृदय नहीं मिला। उनमें वह सहृदयता और भावुकता न थी जो एक कवि में होनी चाहिए। वे संस्कृत साहित्य से सामग्री लेकर अपने पाण्डित्य की धाक जमाना चाहते थे।’
डॉ. श्यामसुन्दर दास ने लिखा है - ‘‘हमारी दृढ़ भावना है कि केशव ने हिन्दी को ‘महान गौरव’ प्रदान किया है। जिस प्रकार तुलसी अपनी सरलता और सूर अपनी गम्भीरता के हेतु सराहनीय है, वैसे ही वरन् उनसे भी बढक़र केशव अपनी भाषा की परिपुष्टता के लिए प्रशंसनीय हैं।’’
’रतनबावनी’, ‘वीरसिंह देव चरित’ और ‘जहाँगीर-जस-चन्द्रिका’ प्रशस्ति काव्य हैं। ‘रतनबावनी’ में मधुकरशाह के पुत्र रतनशाह देव की वीरगाथा का गौरव-गान है। ‘जहाँगीर-जस-चन्द्रिका’ में राजा वीरसिंहदेव के परम हितैषी सम्राट जहाँगीर का यशोगान है। ‘रसिकप्रिया’ में रसों का मौलिक ढंग से विवेचन है। ‘विज्ञानगीता’ एक रूपक ग्रंथ है। ‘बारहमासा’ में वियोग शंृगार का वर्णन है। ‘छन्दमाल’ छंद सम्बन्धी ग्रंथ है।
वस्तुत: ब्रजभाषा में रचना करने वाले कवियों में केशव ही प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने भाषा को अर्थ वहन करने की शक्ति और गाम्भीर्य प्रदान किया। रीतिकाल में प्रणीत समस्त काव्य को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है- प्रशस्ति काव्य या वीरकाव्य, शंृगार काव्य, रीतिशास्त्रीय काव्य और भक्ति-वैरग्य काव्य। केशवदास में ये चारों प्रवृत्तियाँ यथाविधि परंपरा के रूप में उपलब्ध हैं। केशवदास का रचनाकाल भक्तिकाल और रीतिकाल का संधि युग कहलाता है। केशव रीतिकाल के प्रथम आचार्य माने जाते हैं। वे बौद्धिक वाद के कवि थे। संस्कृत की प्रधानता के कारण उनकी रचनाएँ क्लिष्ट हैं। पं. जगन्नाथ तिवारी ने कहा है कि -‘‘केशव की क्लिष्टता उनकी साहित्यिकता के कारण है, न कि केवल भाषा के कारण।’’ क्लिष्टता के निर्वाह में केशव श£ेष और विरोधाभास का प्रयोग करते हैं। इसीलिए इन्हें अलंकारवादी कवि भी कहा जाता है। रामचन्द्रिका में दर्शनशास्त्र, आयुर्वेद, ज्योतिष, काव्यशास्त्र, नीति आदि से सम्बन्धित बातें अनेक स्थान पर आई हैं। रामचन्द्रिका के प्रमुख संवाद हैं- 1. सुमति-विमति संवाद, 2. रावण-जाणासुन संवाद, 3. राम-परशुराम संवाद, 4. राम-जानकी-संवाद, 5. राम-लक्ष्मण संवाद, 6. सूर्पणखा संवाद, 7. सीता-रावण-संवाद, 8. सीता-हनुमान-संवाद, 9. रावण-अंगद-संवाद, 10. लव-कुश संवाद।
पाठ्यक्रम आधारित पद-
2.
पावक पवन मणिपन्नग पतंग पितृ जेते,
जोतिवंत जग ज्येतिषिन गाए हैं।
असुर प्रसिद्ध सिद्ध तीरथ सहित सिंधु,
‘केसव’ चराचर जे बेदन बताए हैं।
अजर अमर अज अंगी औ अनंगी सब बरनि,
सुनावै ऐसे कौने गुन पाए हैं।
सीता के स्वयंवर को रूप अवलोकिबे कौं,
भूपन को रूप धरि बिस्वरूप आए हैं।। 1।।
शब्दार्थ: पावक= अग्रि। पवन=हवा। मणिपन्नग= मणिधारी बड़े बड़े सर्प, शेषनाग, वासुकि आदि। चराचर= जंगम और जड़। पतंग= पक्षी। पितृ= पितृलोक निवासी। ज्योतिवंत= प्रतापी, सूर्य और चन्द्र आदि। अजर= अविकृत, जो पुराने न पड़ें। जिन पर अवस्था का प्रभाव ने पड़े। अज= जिसका जन्म न हो, जो जन्म न ले। विस्वरूप= विश्वभर के रूपधारीलोग।
सन्दर्भ: सीता के स्वयंवर की शोभा अपार है। इसमें तीनों लोकों के जीव उपस्थित हैं। स्वयंवर में तीनों लोकों का सौंदर्य एकत्र है। उनको देखने के लिए दृश्यमान जगत के समस्त रूप-नामधरी जीव उपस्थित हैं।
भावार्थ: केशवदास जी कहते हैं कि पवन, अग्रि, वासुकि नाग, आकाश मार्गी सभी जीव, पितृलोक से पधारे पुरुखे, जगत के प्रतापी गण, ज्योतिषी, असुर, प्रसिद्ध-सिद्ध चराचर जीव तथा ऐसे सभी जिनकी कीर्ति वेदों ने गाई है। अशरीरी, विभिन्न प्रकार के शरीरधारी सभी प्रकार के लोग सीता के स्वयंम्बर में भाग लेने, उसे देखने, सीता की सुन्दरता को अवलोकने विभिन्न राजाओं का रूप धारण कर आए हैं। तात्पर्य यह कि इस सभा में विश्वभर की सुन्दरता एकत्र होकर सुन्दरता को देखने आई है।
विशेष: अनुप्रास। अतिशयोक्ति।
2.
दिगपाल की भुवपालन की लोकपालन की किन मातु गई च्वै।
भाँड भए उठि आसन तें कहि ‘केसव’ संभसरासन को छ्वै।
काहू चढ़ायो न काहू नवायो न काहू उठायो न आँगुरहू द्वै।
कछु स्वारथ भो न भयो परमारथ आए ह्वै वीर चले बनिता ह्वै।। 2।।
शब्दार्थ: किन मातु गई च्वै= अर्थात माता के गर्भ से जन्म क्यों लिया। भाँड़ भए= हँसी के पात्र बने। नवायो= झुकाया। आँगरहँू द्वै= दो अंगुल भी। वनिता= नारी।
सन्दर्भ: धनुष यज्ञ में आए राजाओं की बलाबल की स्थिति का वर्णन।
भावार्थ: सीता के विवाह का शिवधनुष उठा सकने का सामथ्र्य किसी भी राजा का न रहा। कवि कहता है कि दृश्य ऐसा है कि बड़े -बड़े भूपाल, दिग्पाल, लोकपाल कहलाने वालों को माता ने जन्म ही क्यों दिया। इनका गर्भपात जन्मने के पहले ही क्यों नहीं हो गया। अपने-अपने आसन से उठ कर धनुष उठाने आए बड़े-बड़े राजा, धनुष उठाना तो बड़ी बात, चढ़ाना उससे भी बड़ी बात थी, राजा गण तो धनुष को दो अंगुल जमीन से ऊपर उठा तक न सके। बलहीन, स्त्री-रती राजा अपना सिर झुकाए वहाँ से हट गए।
विशेष: पदमैत्री- भुवपाल, दिगपाल, लोकपाल। किन मातु च्वे-गूढ़ार्थ। छेकानुप्रास- भाँड़ भए, संभु सरासन।
3.
अरुन गात अतिप्रात पद्यिनी-प्राननाथ भय।
मानहु ‘केसवदास’ कोकनद कोक प्रेममय।
परिपूरन सिंदूर पूर कैधों मंगलघट।
किधौं सक्र को छत्र मढ्यो मानिकप्रयूख-पट।
कै श्रोनित कलित कपाल यह किल कापालिक काल को।
यह ललिड खाल कैधौं लसत दिगभामिनि के भाल को।। 3।।
शब्दार्थ: अरुण= लाल, सूर्योदय पूर्व का रंग। पद्यिनी प्राणनाथ=सूर्य। भय=भये, हुए। कोकनद= कमल। कोक=चक्रवाक, चकवा। शुक्र= इन्द्र। परिपूरन= समस्त। किधौं= अथवा। सिंदूर पूर मंगल घट = विवाहादि के अवसर पर स्थापित किए जानेवाला मंगल कलश। माणिक मयूख पट= माणिक की किरणों से बना हुआ वस्त्र। श्रोणित कलित= शैव मतावलम्बी तान्त्रिक साधु जो मद्य माँस का सेवल करते हैं तथा जो काली एवं भैरव को बलि चढ़ाते हैं। ये लोग प्राय: मानव कंकाल की खोपड़ी को भोजन खाने के पात्र के समान प्रयुक्त करते हैं। लाल= माणिक। दिग्भामिनी= दिशा रूपी स्त्री। भाल= कपाल। दिग्भामिनी के भाल को= पूर्व दिशा रूपी स्त्री के मस्तक पर।
संदर्भ: जनकपुरी में श्रीराम के प्रवेश करते ही सूर्योदय हुआ। या सूर्यादय की बेला है जब राम लक्ष्मण यहाँ आए। लक्ष्मण उदित होते सूर्य का वर्णन विभिन्न प्रकार की उपमाओं से कर रहे हैं।
भावार्थ: श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण जी के साथ जनकपुरी में हैं और भगवान भास्कर प्राची दिशा में उदित हो रहे हैं। प्राची में उदित होते भगवे रंग से आच्छादित सूर्य को देखकर लक्ष्मण जी सूर्य के इस बाल रूप के सौन्दर्य का वर्णन विभिन्न उपमाओं के साथ कर रहे हैं। वे कहते हैं पद्यिनी वल्लभ सूर्य (सूर्य के उदित होते ही लाल कमल खिल जाता है अत: सूर्य को पद्मिनी वल्लभ कहा है) अपनी रक्तिम आभा के साथ उदित हुए हैं। अपनी रक्तिम आभा में वे ऐसे लगते हैं मानो उनके रूप में कमल और चक्रवाक का प्रेम ही उदय हो गया है। (चकवा और चकई पक्षी रात्रि होते ही अलग हो जाते हैं किन्तु जैसे ही प्रात: होता है वे फिर मिल जाते हैं। कमल भी सूर्योदय के समय खिलता है।) अथवा यह बालारुण मांगलिक अवसरों पर रखा जाने वाला सिंदूर से पूर्ण मंगल कलश है, अथवा यह माणिक्य से बुना हुआ इन्द्र का छत्र है, अथवा यह निश्चय ही काल-रूपी कापालिक के हाथ का कपाल है जो रक्त से भरा हुआ है अथवा यह बलि के लिए तैयार रक्त में डूबा हुआ मुण्ड है अथवा यह पूर्व दिशा रूपी स्त्री के मस्तक की सुन्दर मणि हैं।
विशेष: केशव के अलंकार नियोजन का चमत्कार इस पद में दिखाई देता है। रूपक अलंकार- कापालिक काल, दिग्भामिनि। उत्पेक्षा। छेकानुप्रास।
4.
सातुहु दीपन के अबनीपति हारि रहे जिय में जब जाने।
बीस बिसे ब्रतभंग भयो सु कहौ अब ‘केशव’ को धनु ताने।
साके की आगि लगी परिपूरन आइ गए घनश्याम बिहाने।
जानकि के जनकादिक के सब फूलि उठे तरु पुन्य पुराने।। 4।।
शब्दार्थ: अवनीपति= राजा। बीस बिसे= निश्चय ही। ब्रत=व्रत, प्रतिज्ञा। घनस्याम=1. श्रीराम, 2.पानी भरे बादल। बिहाने= प्रात:। तरुपुण्य पुराने= पूर्व कालीन पुण्य रूपी वृक्ष। पूर्व कालीन का अर्थ है पूर्व जन्म के।
सन्दर्भ: राम के आगमन से स्वयंबर हाल का वातावरण कैसे बदल जाता है। उसका ही वर्णन है।
भावार्थ: सातों द्वीप के भूपाल धनुष न उठा पाने के कारण मन ही मन हार मान चुके थे। ऐसा प्रतीत होता है सभी के संकल्प टूट चुके थे, सभी के सीता विवाह का व्रत भंग हो चुका था। सभी निराश, कुठित और मन ही मन क्षुब्ध थे। और सभी सोच विचार कर रहे थे कि इस धनुष की प्रत्यंचा अब कौन चढ़ावेगा। तभी राम (सांवले-सलोन, घनश्याम) आते हैं और सभी के मने में ईष्र्या, डाह की लगी आग को (घनश्याम) बादल बन कर बुझाते हैं। इस अवसर को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे जनक और उनके परिवार के पूर्व जन्म के कर्म फल जागृत हो उठे हों। और राम के व्यक्तित्व को देखकर सब को विश्वास हो गया की इनके आगमन से धनुष अवश्य टूटेगा और सीता का विवाह सम्पन्न हो जायेगा।
विशेष: अलंकार- श£ेश। रूपक, अनुप्रास आदि। मुहावरे का प्रयोग- बीस बिसे।
5.
नृपमनि दसरथ नृपति के प्रगटे चारि कुमार।
राम भरत लक्ष्मन ललित अस सत्रुघ्र उदार।। 5।।
सन्दर्भ: विश्वामित्र राजा जनक को श्रीराम का परिचय करा रहे हैं।
भावार्थ: विश्वामित्र धनुष यज्ञ में श्रीराम और लक्ष्मण को लेकर आए हैं। वे राजा जनक से श्रीराम और लक्ष्मण का परिचय राजा दशरथ के पुत्र के रूप में कराते हुए बता रहे हैं कि अयोध्यापति राजा दशरथ के चार पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्र हैं। यहाँ राम और लक्ष्मण आपके स्वयंवर में पधारे हैं। ये चारे भाई ललित-सुन्दर और उदार हैं।
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