शायद फिर राष्ट्र को कोई इद्रेंश कुमार ढूँढऩा मुश्किल होगा
प्रो. उमेश कुमार सिंह
‘कुछ भी उल्लेखनीय नहीं’ अपने समय के साथ एक संवाद है। जी नही, यह एक संवाद ही नहीं एक करारी टिप्पणी भी है जो लोक की बुलन्द आवाज है। यह संकलन नहीं घटनाओं का लेखा-जोखा भरा दस्तावेज है। इसीलिए पहले ही लिख देना उचित होगा कि भले ही द्विवेदी जी विभिन्न शीर्षकों के साथ मीडिया, संचार माध्यमों की भूमिका, राजनैतिक व्यक्तित्वों की पहचान, राजनीति में नैतिकता के प्रश्र आदि विषय को उठाते हैं किन्तु नक्सलवाद, आतंकवाद, सामाजिक सरोकारों को छूते विषयों ने इस पुस्तक को पठनीय ही नहीं संग्रहणीय भी बना दिया है। पुस्तक में छिपी आँच की बानगी डॉ. राममनोहर लोहिया के इस एक वाक्य से मिलती है- ‘लोकराज लोकलाज से चलता है।’ लेखक की चिन्ता ‘लोक’ है। जन है, देश के तमाम विद्यार्थी हैं, नौजवान हैं। वे इन्हें निराश कर रही राजनीति, सत्ता और प्रशासनिक तंत्र के बीच आशा की किरण मानते हैं। वास्तविकता तो यह है कि श्री द्विवेदी स्वयं नौजवान हैं और शिक्षक तथा विद्यार्थी के बीच के प्रवक्ता हैं, सेतु हैं। वे तक्षशिला के स्नातकों के प्रतिनिधि हैं। इसीलिए वे निराश नहीं अदम्य साहस से भरे हैं। पुस्तक की भूमिका उनके अन्त: का वह तार है जो समाज के अनछुए लोगों के हृदय तंत्री का प्रतिनिधित्व करता है और वह जन की मौत, गरीबी, बेरोजगारी के साथ झनझना उठता है।
स्वं. विश्वनाथ प्रताप सिंह का कथन उद्धृत करते हुए मानो वे अपनी ही नहीं समस्त ‘लोक’ की इच्छा को व्यक्त कर रहे हैं- ‘गरीबी के साथ अमीरी की भी रेखा तय होनी चाहिए।’ लेखक समय की चुनैती को उठाता है- ‘‘भारत जैसे बेहद परम्परावादी, सांस्कृतिक वैभव से भरपूर देश और जीवंत समाज के बीच से बाजार और उसके उपादानों ने मनुष्य के शाश्वत विवेक का अपहरण कर लिया है। &&&& भारतीय परम्परा आज बेदह सकुचाई हुई सी नजर आती है। &&&& विकास के पथ पर दौड़ती नई पीढ़ी इसके जड़ से उखड़ती जा रही है। &&&& खाली होते गाँव, ठूँठ होते पेड़, उदास होती चिडिय़ा, पालीथिन के ग्रास खाती गाय, फार्म हाउस में बदलते खेत, बिकती नारी, धुआँ उड़ेलती चिमनियाँ, सभी बर्बरता की निशानी हैं। &&&& शिकागो के विवेकानन्द, दक्षिण अफ्रीका के महात्मा गाँधी अब युवाओं के आर्दश नहीं हैं। &&&& आज की शिक्षा ने नई पीढ़ी को सरोकार, संस्कार और समय किसी की समझा नहीं दी। &&&& फ्लेटस मेंं सिकुड़ते परिवार, अंग्रेजी का हिन्दी का गला घोटना, विज्ञापन की चकाचौध अनेक प्रश्र उठाते हैं। &&&& विश्व ग्राम वसुधैव कुटुबकम् का पयार्य हो सकता है? ’’
पुस्तक एक बिंब खड़ा करती है जैसे कोई वक्ता अपनी पीड़ा, अपनी कराह एक सांस में कह देना चाहता है। उसके पास इन्तजार के लिए समय नहीं है। अगला पल न जाने कौन सा नया वितण्डा ले कर आ रहा होगा। पुस्तक में 2010 और 2011 के बीच लिखी प्रतिक्रियात्मक किन्तु सकारात्मक समाधान खोजती टिप्पणियों का संग्रह है। आलेखों का क्रम तिथिवार नहीं बल्कि प्रासंगिकता के आधार पर रखे गये हैं।
किसी भी जाति के जिंदा रहने में जिस तरह उसकी संस्कृति का योगदान होता है उसी प्रकार किसी भी राष्ट्र की सार्वभौमिकता की निगरानी सीमा पर तैनात उन जबानों के हाथ होती है जो हमारे देश की आन-वान-शान के लिए जीते हैं। जिनके कारण हम रात को गहरी नीद सोते हैं, फिर जब उन पर टिप्प्णी हो तो कोई भी राष्ट्रभक्त कैसे सहन कर सकता है। द्विवेदी जी का मानस -पिण्ड राष्ट्रीय है। वे कहते हैं ‘सेना को तो बख्श दीजिए’। वे प्रश्र उठाते हैं- ‘जिस देश के राजनीतिज्ञों के हाथ अफजल गुरु की फाँसी की फाइलों को छूते काँपते हों वह जाने किस दबाव में देश की सुरक्षा से समझौता करने जा रही हैै।’ सेनाध्याक्षों के विरोध के बावजूद ‘आर्मस् फोस्ेस स्पेशल पावर्स’ एक्ट में बदलाव की गंदी राजनीति से हारे सुरक्षा बलों के हाथ बधेंगे। उनका प्रश्र है ‘कश्मीर की राज्य सरकार विस्थापित कश्मीरी पण्डितों को वापस बसाने की बात नहीं करती किन्तु सेना को वापस बुला लें यह बार-बार दुहराती है, क्यों। वे पूछते हैं कि क्या यह अब्दुल्ला खानदान की भारत के साथ खड़े रहने की कीमत है या मुफ्ती परिवार की आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति रखने की। प्रश्र उठता है कि इस परिस्थिति में - ‘सेना को किस चिदम्बरम या मनमोहन के भरोसे छोड़ दिया जाय?’
एफ.डी.आई. की मंजूरी पर ‘एक चिठ्ठी राहुल गाँंधी के नाम’ पर गाँधी के ‘स्वराज ’ का उदाहरण देते हुए बड़े परिणाम की ओर संकेत करते हैं, बापू के शब्दों में -‘‘कारखाने की खूबी यह है कि उसे इस बात से कोई सरोकार नहीं रहता कि लोग हिन्दुस्तान में या दुनिया में कहीं भूखे मर रहे हैं। उसका तो बस एक ही मकसद होता है, वह यह कि दाम ऊँचे बने रहें। इंसानियत का जरा भी ख्याल नहीं किया जाता।’’ द्विवेदी जी कृषि प्रधान देश की तस्वीर को गाँधी के शब्दों में हमारे सामने रखते हुए किसान और उसके सरोकार के प्रश्र को उठाते हैं - ‘‘अनाज और खेती की दूसरी चीजों का भाव किसान तय नहीं किया करता। इसके अलावा कुछ चीजे ऐसी हैं, जिन पर उसका कोई बस नहीं चलता और कई बार मानसून के सहारे रहने की बजह साल में कई महीने वह खाली भी रहता है, लेकिन इस अर्से में पेट को तो रोटी चाहिए।’ पत्र के माध्यम से वे राहुल गाँधी से पूछते हैं, कि आखिर हम कौन सा देश बनाना चाहते हैं? गांधी, पटेल, इन्दिरा जी का या और कोई ?
छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता से जुड़े रहने के कारण श्री द्विवेदी जी बड़ी निर्भिकता से नक्सलवाद के यथार्थ को अपने अनुभव के आधार पर स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- ‘यह देश तोडक़ अभियान को वैचारिक, आर्थिक और हथियार से दिया जाने वाला राजनैतिक नेताओं का समर्थन है।’ किसी भी विषय पर लिखते समय श्री द्विवेदी जी का सजग पत्रकार अपनी भूमिका में आज भी साथ रहता है। जहाँ वे छत्तीसगढ़ की रमन सरकार को सराहते हैं वहीं सत्ताधारियों को आड़े हाथों लिया है।
श्री द्विवेदी ध्येयवादी, संकल्प बद्ध, वैचारिक धरातल पर पूरी तरह परिपक्व पिण्ड के धनी हैं इसीलिए उनके लेखन में कहीं हताशा और निराशा नहीं हैं बल्कि एक दूरदृष्टि दिखती है जो समाज के हर वर्ग का सच्चा मूल्यांकन करते हुए उसके भविष्य की ओर इंगित करते हैं- ‘‘ आदिवासियों का सैन्यीकरण करने का पाप कर रहे हैं, &&&&&नक्सली जंगल के राजा को वर्दी पहना कर बन्दूक थमा कर नक्सली कौन सा समाज बनाना चहाते हैं? &&&&& भारत जैसे देश में इस कथित जनक्रांति के सपने पूरे नहीं हो सकते। &&&&& नक्सलवाद देश के विकास में बड़ी चुनौती हैं।’’ द्विवेदी जी को छत्तीसगढ़ और उसकी अस्मिता से बड़ा स्नेह है। इसीलिए वे कई प्रंसगों पर उस विषय को लेकर कलम चलाते हैं, चाहे वहाँ की सांस्कृतिक विरासत हो, कला और साहित्य हो या विकास। छत्तीसगढ़ को वे सम्भावनओं का घर मानते हैं। चाहे विकास का हो या समता का।
‘आखिर देश कहाँ जा रहा है’ जैसे कई लेखों के माध्यम से वे देश की आर्थिक स्थिति पर अपनी चिन्ता व्यक्त करते हैं। वे देश की जनता को झकझोरते हुए डॉ. राम मनोहर लोहिया के विचार को युवा कौम के सामने रखते हैं- ‘जिन्दा कौेमें पाँच साल तक इन्तजार नहीं करती।’ भ्रष्टाचार को उजागर करती ‘कैग और न्यायालय ’ सरकार के लिए चुनौती बन गई हैं और सरकार की इन संवैधानिक संस्थाओं को घेरने की कोशिश पर वे चिन्तित हैं।
देश में राजनैतिक अराजकता पर उन्हें उसके भविष्य के वाहक की तलाश है और इस परिस्थिति में वे प्रश्र उठाते हैं कि, क्या भा. ज. पा. दूसरा विकल्प है? इस पर लिखते हुए आडवाड़ी की बेवसी के माध्यम से वर्तमान राजनीतिक पीढ़ी की बेवसी को उजागर करना चाहते हैं। राजनीति में भाजपा क्या शून्य की पूर्ति कर सकती है? यही उनका प्रश्र हम सब का प्रश्र बन कर सामने आता है।
लेखक की विशेषता यह है कि वे केवल राजनैतिक समस्याओं को ही नहीं उठाते बल्कि वे बुजुर्गों की आशाओं और पुरखों की आत्माओं के अशीष की बात भी करते हैं। आस्था और श्रद्धा जीवन के मूल हैं, यही आज का विज्ञान है। विज्ञापन और बाजार के साथ अपनी बात रखते हुए कहते हैं- ‘बाजार के केन्द्र में खड़ी स्त्री और उसकी सुचिता का अपहरण हो रहा है।’ स्त्री के सामार्थ को आदर दिया जाना चाहिए। आधुनिक संचार माध्यम की उपयोगिता, गुरु-शिष्य की तलास, आदि में बड़ी गहराई से वे सम्बन्धों की पड़ताल करते हैं। साथ ही चेतावनी देते हुए कहते हैं ‘बौद्धिक कुलीनता देश के लिए बड़ा खतरा है।’ अन्ना की भूमिका देश के लिए कैसी है इस पर उनका मानना है कि अन्ना ने देश की आत्मा को छुआ है।
मातृ-पितृ ऋण के लिए वे जहाँ श्रवण कुमार और श्री राम की याद दिलाते हैं, वहीं राष्ट्र ऋण के लिए इन्द्रेश कुमार जी के समर्पित जीवन से हमें अपने दैनिक आचरण और कर्तव्यों की याद दिलाते हैं। द्विवेदी जी देश के सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक पर कांग्रेस के हमले को नाजायज और अनैतिक मानते हैं। सबल और स्वभिमानी राष्ट्र के आकांक्षी इस संगठन को वे देश के लिए संजीवनी मानते हैं। वे कहते हैं कांग्रेस यह भूल जाती है कि जिस व्यक्ति और वस्तु का नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ता है उससे उस व्यक्ति और वस्तु का महत्व बढ़ जाता है। ऐसे में कुछ दिन पहले राहुल गांधी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक को सिमी के साथ खड़ा करना उनकी अपरिपक्व मानसिकता को ही उजागर करता है। जो व्यक्ति देश के प्रधानमंत्री की कतार में खड़ा हो वह एक देशभक्त संगठन और आतंकियों की जमात में अंतर न कर पाये यह राहुल गांधी की नहीं देश की विडम्बना है।
ऐसे में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सेतु बनाने वाले एक स्वयंसेवक इन्द्रेश कुमार को जब कांग्रेस सरकार घेरने की कोशिश करती है तब द्विवेदी जी का अन्तर्मन छटपटा उठता है, वे पूरी निष्ठा और लेखकीय धर्म के साथ लिखते है- ‘‘तमाम हिन्दू मुस्लिम रिश्ते अविश्वास की आग में जल रहे हैं। ऐसे कठिन समय में इन्द्रेश कुमार क्या इतिहास की धारा को मोड़ देना चाहते हैं और उन्हें यह तब क्यों लगना चाहिए कि यह कार्य इतना आसान है? वे दुष्टता भरी राजनीतिक चालों को उजागर करते हुए मानो भभक उठते है,- ‘‘क्योंकि आज नहीं अगर दस सल बाद भी इन्द्रेश कुमार अपने इरादों में सफल हो जाते हैं तो भारतीय राजनीति में जाति और धर्म की राजनीति करने वाले नेताओं की दुकाने बंद हो जाएगी। इसीलिए इस आदमी के कदम रोकना जरूरी है।’’ तब मानो वे पर्दाफास कर रहे हों- ‘‘यह सिर्फ संयोग नहीं कि एक ऐसा आदमी जो सदियों से जमी बर्फ को पिघलाने की कोशिश कर रहा है उसे ही अजमेर के बम विस्फोट कांड का आरोपी बनाने का प्रयत्न किया जाए ?’’ सम्पूर्ण राष्ट्र को चेतावनी देते हुए श्री द्विवेदी जी कहते हैं- ‘‘हिन्दुस्तान के बीस करोड़ मुसलमानों को देश की मुख्य धारा में लाने की यह कोशिश अगर विफल होती है तो शायद फिर कोई नद्रेंश कुमार हमें ढूँढऩा मुश्किल होगा।’’
प्रो. उमेश कुमार सिंह
‘कुछ भी उल्लेखनीय नहीं’ अपने समय के साथ एक संवाद है। जी नही, यह एक संवाद ही नहीं एक करारी टिप्पणी भी है जो लोक की बुलन्द आवाज है। यह संकलन नहीं घटनाओं का लेखा-जोखा भरा दस्तावेज है। इसीलिए पहले ही लिख देना उचित होगा कि भले ही द्विवेदी जी विभिन्न शीर्षकों के साथ मीडिया, संचार माध्यमों की भूमिका, राजनैतिक व्यक्तित्वों की पहचान, राजनीति में नैतिकता के प्रश्र आदि विषय को उठाते हैं किन्तु नक्सलवाद, आतंकवाद, सामाजिक सरोकारों को छूते विषयों ने इस पुस्तक को पठनीय ही नहीं संग्रहणीय भी बना दिया है। पुस्तक में छिपी आँच की बानगी डॉ. राममनोहर लोहिया के इस एक वाक्य से मिलती है- ‘लोकराज लोकलाज से चलता है।’ लेखक की चिन्ता ‘लोक’ है। जन है, देश के तमाम विद्यार्थी हैं, नौजवान हैं। वे इन्हें निराश कर रही राजनीति, सत्ता और प्रशासनिक तंत्र के बीच आशा की किरण मानते हैं। वास्तविकता तो यह है कि श्री द्विवेदी स्वयं नौजवान हैं और शिक्षक तथा विद्यार्थी के बीच के प्रवक्ता हैं, सेतु हैं। वे तक्षशिला के स्नातकों के प्रतिनिधि हैं। इसीलिए वे निराश नहीं अदम्य साहस से भरे हैं। पुस्तक की भूमिका उनके अन्त: का वह तार है जो समाज के अनछुए लोगों के हृदय तंत्री का प्रतिनिधित्व करता है और वह जन की मौत, गरीबी, बेरोजगारी के साथ झनझना उठता है।
स्वं. विश्वनाथ प्रताप सिंह का कथन उद्धृत करते हुए मानो वे अपनी ही नहीं समस्त ‘लोक’ की इच्छा को व्यक्त कर रहे हैं- ‘गरीबी के साथ अमीरी की भी रेखा तय होनी चाहिए।’ लेखक समय की चुनैती को उठाता है- ‘‘भारत जैसे बेहद परम्परावादी, सांस्कृतिक वैभव से भरपूर देश और जीवंत समाज के बीच से बाजार और उसके उपादानों ने मनुष्य के शाश्वत विवेक का अपहरण कर लिया है। &&&& भारतीय परम्परा आज बेदह सकुचाई हुई सी नजर आती है। &&&& विकास के पथ पर दौड़ती नई पीढ़ी इसके जड़ से उखड़ती जा रही है। &&&& खाली होते गाँव, ठूँठ होते पेड़, उदास होती चिडिय़ा, पालीथिन के ग्रास खाती गाय, फार्म हाउस में बदलते खेत, बिकती नारी, धुआँ उड़ेलती चिमनियाँ, सभी बर्बरता की निशानी हैं। &&&& शिकागो के विवेकानन्द, दक्षिण अफ्रीका के महात्मा गाँधी अब युवाओं के आर्दश नहीं हैं। &&&& आज की शिक्षा ने नई पीढ़ी को सरोकार, संस्कार और समय किसी की समझा नहीं दी। &&&& फ्लेटस मेंं सिकुड़ते परिवार, अंग्रेजी का हिन्दी का गला घोटना, विज्ञापन की चकाचौध अनेक प्रश्र उठाते हैं। &&&& विश्व ग्राम वसुधैव कुटुबकम् का पयार्य हो सकता है? ’’
पुस्तक एक बिंब खड़ा करती है जैसे कोई वक्ता अपनी पीड़ा, अपनी कराह एक सांस में कह देना चाहता है। उसके पास इन्तजार के लिए समय नहीं है। अगला पल न जाने कौन सा नया वितण्डा ले कर आ रहा होगा। पुस्तक में 2010 और 2011 के बीच लिखी प्रतिक्रियात्मक किन्तु सकारात्मक समाधान खोजती टिप्पणियों का संग्रह है। आलेखों का क्रम तिथिवार नहीं बल्कि प्रासंगिकता के आधार पर रखे गये हैं।
किसी भी जाति के जिंदा रहने में जिस तरह उसकी संस्कृति का योगदान होता है उसी प्रकार किसी भी राष्ट्र की सार्वभौमिकता की निगरानी सीमा पर तैनात उन जबानों के हाथ होती है जो हमारे देश की आन-वान-शान के लिए जीते हैं। जिनके कारण हम रात को गहरी नीद सोते हैं, फिर जब उन पर टिप्प्णी हो तो कोई भी राष्ट्रभक्त कैसे सहन कर सकता है। द्विवेदी जी का मानस -पिण्ड राष्ट्रीय है। वे कहते हैं ‘सेना को तो बख्श दीजिए’। वे प्रश्र उठाते हैं- ‘जिस देश के राजनीतिज्ञों के हाथ अफजल गुरु की फाँसी की फाइलों को छूते काँपते हों वह जाने किस दबाव में देश की सुरक्षा से समझौता करने जा रही हैै।’ सेनाध्याक्षों के विरोध के बावजूद ‘आर्मस् फोस्ेस स्पेशल पावर्स’ एक्ट में बदलाव की गंदी राजनीति से हारे सुरक्षा बलों के हाथ बधेंगे। उनका प्रश्र है ‘कश्मीर की राज्य सरकार विस्थापित कश्मीरी पण्डितों को वापस बसाने की बात नहीं करती किन्तु सेना को वापस बुला लें यह बार-बार दुहराती है, क्यों। वे पूछते हैं कि क्या यह अब्दुल्ला खानदान की भारत के साथ खड़े रहने की कीमत है या मुफ्ती परिवार की आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति रखने की। प्रश्र उठता है कि इस परिस्थिति में - ‘सेना को किस चिदम्बरम या मनमोहन के भरोसे छोड़ दिया जाय?’
एफ.डी.आई. की मंजूरी पर ‘एक चिठ्ठी राहुल गाँंधी के नाम’ पर गाँधी के ‘स्वराज ’ का उदाहरण देते हुए बड़े परिणाम की ओर संकेत करते हैं, बापू के शब्दों में -‘‘कारखाने की खूबी यह है कि उसे इस बात से कोई सरोकार नहीं रहता कि लोग हिन्दुस्तान में या दुनिया में कहीं भूखे मर रहे हैं। उसका तो बस एक ही मकसद होता है, वह यह कि दाम ऊँचे बने रहें। इंसानियत का जरा भी ख्याल नहीं किया जाता।’’ द्विवेदी जी कृषि प्रधान देश की तस्वीर को गाँधी के शब्दों में हमारे सामने रखते हुए किसान और उसके सरोकार के प्रश्र को उठाते हैं - ‘‘अनाज और खेती की दूसरी चीजों का भाव किसान तय नहीं किया करता। इसके अलावा कुछ चीजे ऐसी हैं, जिन पर उसका कोई बस नहीं चलता और कई बार मानसून के सहारे रहने की बजह साल में कई महीने वह खाली भी रहता है, लेकिन इस अर्से में पेट को तो रोटी चाहिए।’ पत्र के माध्यम से वे राहुल गाँधी से पूछते हैं, कि आखिर हम कौन सा देश बनाना चाहते हैं? गांधी, पटेल, इन्दिरा जी का या और कोई ?
छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता से जुड़े रहने के कारण श्री द्विवेदी जी बड़ी निर्भिकता से नक्सलवाद के यथार्थ को अपने अनुभव के आधार पर स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- ‘यह देश तोडक़ अभियान को वैचारिक, आर्थिक और हथियार से दिया जाने वाला राजनैतिक नेताओं का समर्थन है।’ किसी भी विषय पर लिखते समय श्री द्विवेदी जी का सजग पत्रकार अपनी भूमिका में आज भी साथ रहता है। जहाँ वे छत्तीसगढ़ की रमन सरकार को सराहते हैं वहीं सत्ताधारियों को आड़े हाथों लिया है।
श्री द्विवेदी ध्येयवादी, संकल्प बद्ध, वैचारिक धरातल पर पूरी तरह परिपक्व पिण्ड के धनी हैं इसीलिए उनके लेखन में कहीं हताशा और निराशा नहीं हैं बल्कि एक दूरदृष्टि दिखती है जो समाज के हर वर्ग का सच्चा मूल्यांकन करते हुए उसके भविष्य की ओर इंगित करते हैं- ‘‘ आदिवासियों का सैन्यीकरण करने का पाप कर रहे हैं, &&&&&नक्सली जंगल के राजा को वर्दी पहना कर बन्दूक थमा कर नक्सली कौन सा समाज बनाना चहाते हैं? &&&&& भारत जैसे देश में इस कथित जनक्रांति के सपने पूरे नहीं हो सकते। &&&&& नक्सलवाद देश के विकास में बड़ी चुनौती हैं।’’ द्विवेदी जी को छत्तीसगढ़ और उसकी अस्मिता से बड़ा स्नेह है। इसीलिए वे कई प्रंसगों पर उस विषय को लेकर कलम चलाते हैं, चाहे वहाँ की सांस्कृतिक विरासत हो, कला और साहित्य हो या विकास। छत्तीसगढ़ को वे सम्भावनओं का घर मानते हैं। चाहे विकास का हो या समता का।
‘आखिर देश कहाँ जा रहा है’ जैसे कई लेखों के माध्यम से वे देश की आर्थिक स्थिति पर अपनी चिन्ता व्यक्त करते हैं। वे देश की जनता को झकझोरते हुए डॉ. राम मनोहर लोहिया के विचार को युवा कौम के सामने रखते हैं- ‘जिन्दा कौेमें पाँच साल तक इन्तजार नहीं करती।’ भ्रष्टाचार को उजागर करती ‘कैग और न्यायालय ’ सरकार के लिए चुनौती बन गई हैं और सरकार की इन संवैधानिक संस्थाओं को घेरने की कोशिश पर वे चिन्तित हैं।
देश में राजनैतिक अराजकता पर उन्हें उसके भविष्य के वाहक की तलाश है और इस परिस्थिति में वे प्रश्र उठाते हैं कि, क्या भा. ज. पा. दूसरा विकल्प है? इस पर लिखते हुए आडवाड़ी की बेवसी के माध्यम से वर्तमान राजनीतिक पीढ़ी की बेवसी को उजागर करना चाहते हैं। राजनीति में भाजपा क्या शून्य की पूर्ति कर सकती है? यही उनका प्रश्र हम सब का प्रश्र बन कर सामने आता है।
लेखक की विशेषता यह है कि वे केवल राजनैतिक समस्याओं को ही नहीं उठाते बल्कि वे बुजुर्गों की आशाओं और पुरखों की आत्माओं के अशीष की बात भी करते हैं। आस्था और श्रद्धा जीवन के मूल हैं, यही आज का विज्ञान है। विज्ञापन और बाजार के साथ अपनी बात रखते हुए कहते हैं- ‘बाजार के केन्द्र में खड़ी स्त्री और उसकी सुचिता का अपहरण हो रहा है।’ स्त्री के सामार्थ को आदर दिया जाना चाहिए। आधुनिक संचार माध्यम की उपयोगिता, गुरु-शिष्य की तलास, आदि में बड़ी गहराई से वे सम्बन्धों की पड़ताल करते हैं। साथ ही चेतावनी देते हुए कहते हैं ‘बौद्धिक कुलीनता देश के लिए बड़ा खतरा है।’ अन्ना की भूमिका देश के लिए कैसी है इस पर उनका मानना है कि अन्ना ने देश की आत्मा को छुआ है।
मातृ-पितृ ऋण के लिए वे जहाँ श्रवण कुमार और श्री राम की याद दिलाते हैं, वहीं राष्ट्र ऋण के लिए इन्द्रेश कुमार जी के समर्पित जीवन से हमें अपने दैनिक आचरण और कर्तव्यों की याद दिलाते हैं। द्विवेदी जी देश के सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक पर कांग्रेस के हमले को नाजायज और अनैतिक मानते हैं। सबल और स्वभिमानी राष्ट्र के आकांक्षी इस संगठन को वे देश के लिए संजीवनी मानते हैं। वे कहते हैं कांग्रेस यह भूल जाती है कि जिस व्यक्ति और वस्तु का नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ता है उससे उस व्यक्ति और वस्तु का महत्व बढ़ जाता है। ऐसे में कुछ दिन पहले राहुल गांधी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक को सिमी के साथ खड़ा करना उनकी अपरिपक्व मानसिकता को ही उजागर करता है। जो व्यक्ति देश के प्रधानमंत्री की कतार में खड़ा हो वह एक देशभक्त संगठन और आतंकियों की जमात में अंतर न कर पाये यह राहुल गांधी की नहीं देश की विडम्बना है।
ऐसे में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सेतु बनाने वाले एक स्वयंसेवक इन्द्रेश कुमार को जब कांग्रेस सरकार घेरने की कोशिश करती है तब द्विवेदी जी का अन्तर्मन छटपटा उठता है, वे पूरी निष्ठा और लेखकीय धर्म के साथ लिखते है- ‘‘तमाम हिन्दू मुस्लिम रिश्ते अविश्वास की आग में जल रहे हैं। ऐसे कठिन समय में इन्द्रेश कुमार क्या इतिहास की धारा को मोड़ देना चाहते हैं और उन्हें यह तब क्यों लगना चाहिए कि यह कार्य इतना आसान है? वे दुष्टता भरी राजनीतिक चालों को उजागर करते हुए मानो भभक उठते है,- ‘‘क्योंकि आज नहीं अगर दस सल बाद भी इन्द्रेश कुमार अपने इरादों में सफल हो जाते हैं तो भारतीय राजनीति में जाति और धर्म की राजनीति करने वाले नेताओं की दुकाने बंद हो जाएगी। इसीलिए इस आदमी के कदम रोकना जरूरी है।’’ तब मानो वे पर्दाफास कर रहे हों- ‘‘यह सिर्फ संयोग नहीं कि एक ऐसा आदमी जो सदियों से जमी बर्फ को पिघलाने की कोशिश कर रहा है उसे ही अजमेर के बम विस्फोट कांड का आरोपी बनाने का प्रयत्न किया जाए ?’’ सम्पूर्ण राष्ट्र को चेतावनी देते हुए श्री द्विवेदी जी कहते हैं- ‘‘हिन्दुस्तान के बीस करोड़ मुसलमानों को देश की मुख्य धारा में लाने की यह कोशिश अगर विफल होती है तो शायद फिर कोई नद्रेंश कुमार हमें ढूँढऩा मुश्किल होगा।’’
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