स्वामी विवेकानन्द एवं वर्तमान सन्दर्भ
दुनिया में हिंदू धर्म और भारत की प्रतिष्ठा स्थापित करने वाले स्वामी विवेकानंद एक आध्यात्मिक हस्ती होने के बावजूद अपने नवीन एवं जीवंत विचारों के कारण आज भी युवाओं के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। विवेकानंद जन्म 12 जनवरी 1863 ई., सोमवार के दिन प्रातःकाल सूर्योदय के किंचित् काल बाद 6 बजकर 49 मिनट पर हुआ था।
मकर संक्रांति का वह दिन हिन्दू जाति के लिए महान उत्सव का अवसर था और भक्तगण उस दिन लाखों की संख्या में गंगा जी को पूजा अर्पण करने जा रहे थे। अतः जिस समय भावी विवेकानंद ने इस धरती पर पहली बार साँस ली, उस समय उनके घर के समीप ही प्रवाहमान पुण्यतोया भागीरथी लाखों नर-नारियों की प्रार्थना, पूजन एवं भजन के कलरव से प्रतिध्वनित हो रही थीं।
स्वामी विवेकानंद के जन्म के पूर्व, अन्य धर्मप्राण हिन्दू माताओं के समान ही, उनकी माताजी ने भी व्रत-उपवास किए थे तथा एक ऐसी संतान के लिए प्रार्थना की थी, जिससे उनका कुल धन्य हो जाए। उन दिनों उनके मन-प्राण पर त्यागीश्वर शिव ही अधिकार जमाए हुए थे, अतः उन्होंने वाराणसी में रहने वाली अपने रिश्ते की एक महिला से वहाँ के वीरेश्वर शिव के मंदिर में विशेष पूजा चढ़ा कर आशीर्वाद माँगने का अनुरोध किया था। एक रात उन्होंने स्वप्न में महादेव जी को ध्यान करते देखा, फिर उन्होंने नेत्र खोले और उनके पुत्र के रूप में जन्म लेने का वचन दिया। नींद खुलने के बाद उनके आनंद की सीमा न रही थी।
माता भुवनेश्वरी देवी ने अपने पुत्र को शिव जी का प्रसाद माना और उसे वीरेश्वर नाम दिया। परंतु परिवार में उनका नाम नरेंद्रनाथ दत्त था और संक्षेप में उन्हें नरेंद्र तथा दुलार में नरेन कहकर संबोधित किया जाता था। कलकत्ते के जिस दत्त वंश में नरेंद्रनाथ का जन्म हुआ था, वह अपनी समृद्धि, सहृदयता, पांडित्य एवं स्वाधीन मनोवृत्ति के लिए सुविख्यात था। उनके दादा श्री दुर्गाचरण ने अपने प्रथम पुत्र का मुख देखने के बाद ही ईश्वर प्राप्ति की अभिलाषा से गृह त्याग कर दिया था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय में अधिवक्ता थे। उन्होंने अँगरेजी तथा फारसी साहित्य का गहन अध्ययन किया था।
उनकी माता भुवनेश्वरी देवी एक अलग ही साँचे में ढली थीं। वे देखने में गंभीर और आचरण में उदार थीं तथा प्राचीन हिन्दू परंपरा का प्रतिनिधित्व करती थीं। वे एक भरे पूरे परिवार की मालकिन थीं और अपने अवकाश का समय सिलाई एवं भजन गाने में बिताती थीं। रामायण एवं महाभारत में उनकी विशेष रुचि थी तथा इन ग्रंथों के अनेक अंश उन्हें कंठस्थ भी थे। निर्धनों के लिए वे आश्रय थीं। अपनी ईश्वर भक्ति, आंतरिक शांति तथा अपनी व्यस्तता के बीच तीव्र अनासक्ति के फलस्वरूप वे सबके सम्मान की अधिकारिणी हुई थीं। नरेंद्रनाथ के अतिरिक्त उन्हें और भी दो पुत्र तथा चार पुत्रियाँ हुईं, परंतु उनमें से दो पुत्रियाँ अल्प आयु में ही चल बसी थीं।
पगड़ी, कोड़े तथा भड़कील पोशाक में सजे अपने परिवार के संन्यासी का व्यक्तित्व उसे बड़ा लुभावना लगता था। वह प्रायः बड़े होकर वैसा ही बनने की आकांक्षा व्यक्त करता था। नरेंद्र का उसके संसार त्यागकर संन्यासी हो जाने वाले पितामह से काफी साम्य दिख पड़ता था और इस कारण कइयों का विचार था कि उन्होंने ही नरेन के रूप में पुनर्जन्म लिया है। भ्रमण करने वाले संन्यासियों में बालक की बड़ी रुचि थी और उन्हें देखते ही वह उत्साहित हो उठता।
एक दिन एक ऐसे परिव्राजक संन्यासी उसके द्वार पर आकर भिक्षा माँगने लगे। नरेंद्र ने उनको अपनी एकमात्र वस्तु-कमर से लिपटा हुआ एक छोटा सा नया वस्त्र दे दिया। तब से जब कभी आस-पड़ोस में कोई संन्यासी दिख जाते तो नरेंद्र को एक कमरे में बंद कर दिया जाता। तथापि जो कुछ भी हाथ में आता, वह खिड़की के रास्ते उनकी ओर डाल देता। इन्हीं दिनों माँ के हाथों में उसकी प्रारंभिक शिक्षा का सूत्रपात हुआ। इस प्रकार उसने बंगला की वर्णमाला, कुछ अँगरेजी शब्द तथा रामायण एवं महाभारत की कथाएँ सीखीं।
1886 में रामकृष्ण के निधन के बाद स्वामी विवेकानंद ने जीवन एवं कार्यों को एक नया मोड़ दिया। 25 वर्ष की अवस्था में उन्होंने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। गरीब, निर्धन और सामाजिक बुराई से ग्रस्त देश के हालात देखकर दुःख और दुविधा में रहे। उसी दौरान उन्हें सूचना मिली कि शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन आयोजित होने जा रहा है। उन्होंने वहाँ जाने का निश्चय किया। वहाँ से आने के बाद देश में प्रमुख विचारक के रूप में उन्हें सम्मान और प्रतिष्ठा मिली। 1899 में उन्होंने पुनः पश्चिम जगत की यात्रा करने के बाद भारत में आध्यात्मिकता का संदेश फैलाया। स्वामी विवेकानंद नर सेवा को ही नारायण सेवा मानते थे।
उनका मानना था कि “जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत् की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है। अंत में उनकी शक्ति के फलस्वरूप ऐसा कोई शक्ति सम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो संसार को शिक्षा प्रदान करता है।”
11 सितंबर, 1893 को स्वामी विवेकानंद ने शिकागो ‘पार्लियामेंट आफ रिलीजन’ में भाषण दिया था, उसे आज भी दुनिया भुला नहीं पाती। इस भाषण से दुनिया के तमाम पंथ आज भी सबक ले सकते हैं। इस अकेली घटना ने पश्चिम में भारत की एक ऐसी छवि बना दी, जो आजादी से पहले और इसके बाद सैकड़ों राजदूत मिलकर भी नहीं बना सके। स्वामी विवेकाननंद के इस भाषण के बाद भारत को एक अनोखी संस्कृति के देश के रूप में देखा जाने लगा। अमेरिकी प्रेस ने विवेकानंद को उस धर्म संसद की महानतम विभूति बताया था और स्वामी विवेकानंद के बारे में लिखा था, उन्हें सुनने के बाद हमें महसूस हो रहा है कि भारत जैसे एक प्रबुद्ध राष्ट्र में मिशनरियों को भेजकर हम कितनी बड़ी मूर्खता कर रहे थे। यह ऐसे समय हुआ, जब ब्रिटिश शासकों और ईसाई मिशनरियों का एक वर्ग भारत की अवमानना और पाश्चात्य संस्कृति की श्रेष्ठता साबित करने में लगा हुआ था।
उदाहरण के लिए 19वीं सदी के अंत में अधिकारी से मिशनरी बने रिचर्ड टेंपल ने मिशनरी सोसायटी इन न्यूयार्क को संबोधित करते हुए कहा था- भारत एक ऐसा मजबूत दुर्ग है, जिसे ढहाने के लिए भारी गोलाबारी की जा रही है। हम झटकों पर झटके दे रहे हैं, धमाके पर धमाके कर रहे हैं और इन सबका परिणाम उल्लेखनीय नहीं है, लेकिन आखिरकार यह मजबूत इमारत भरभराकर गिरेगी ही। हमें पूरी उम्मीद है कि किसी दिन भारत का असभ्य पंथ सही राह पर आ जाएगा। जब शिकागो धर्म संसद के पहले दिन अंत में विवेकानंद संबोधन के लिए खड़े हुए और उन्होंने कहा- अमेरिका के भाइयो और बहनो, तो तालियों की जबरदस्त गड़गड़ाहट के साथ उनका स्वागत हुआ, लेकिन इसके बाद उन्होंने हिंदू धर्म की जो सारगर्भित विवेचना की, वह कल्पनातीत थी। उन्होंने यह कहकर सभी श्रोताओं के अंतर्मन को छू लिया कि हिंदू तमाम पंथों को सर्वशक्तिमान की खोज के प्रयास के रूप में देखते हैं। वे जन्म या साहचर्य की दशा से निर्धारित होते हैं, प्रत्येक प्रगति के एक चरण को चिह्नित करते हैं।
स्वामी विवेकानंद ने तब जबरदस्त प्रतिबद्धता का परिचय दिया, जब एक अन्य अवसर पर उन्होंने ईसाई श्रोताओं के सामने कहा- तमाम डींगों और शेखी बखारने के बावजूद तलवार के बिना ईसाईयत कहां कामयाब हुई? जो ईसा मसीह की बात करते हैं वे अमीरों के अलावा किसकी परवाह करते हैं! ईसा को एक भी ऐसा पत्थर नहीं मिलेगा, जिस पर सिर रखकर वह आप लोगों के बीच स्थान तलाश सके..आप ईसाई नहीं हैं। आप लोग फिर से ईसा के पास जाएं। एक अन्य अवसर पर उन्होंने यह मुद्दा उठाया- आप ईसाई लोग गैरईसाइयों की आत्मा की मुक्ति के लिए मिशनरियों को भेजते हैं।
साफगोई और बेबाकी विवेकानंद का सहज गुण था। देश में वह हिंदुओं से अधिक घुलते-मिलते नहीं थे। जब उनके आश्रम में एक अनुयायी ने उनसे पूछा कि व्यावहारिक सेवा के लिए रामकृष्ण मिशन की स्थापना का उनका प्रस्ताव संन्यासी परंपरा का निर्वहन कैसे कर पाएगा? तो उन्होंने जवाब दिया- आपकी भक्ति और मुक्ति की कौन परवाह करता है ? धार्मिक ग्रंथों में लिखे की किसे चिंता है ? अगर मैं अपने देशवासियों को उनके पैरों पर खड़ा कर सका और उन्हें कर्मयोग के लिए प्रेरित कर सका तो मैं हजार नर्क भी भोगने के लिए तैयार हूं। मैं मात्र रामकृष्ण परमहंस या किसी अन्य का अनुयायी नहीं हूं। मैं तो उनका अनुयायी हूं, जो भक्ति और मुक्ति की परवाह किए बिना अनवरत दूसरों की सेवा और सहायता में जुटे रहते हैं। विवेकानंद की साफगोई के बावजूद जिसने उन्हें अमेरिकियों के एक वर्ग का चहेता नहीं बनने दिया, उन्हें हिंदुत्व के विभिन्न पहलुओं की विवेचना के लिए बाद में भी अमेरिका से न्यौते मिलते रहे। जहां-जहां वह गए उन्होंने बड़ी बेबाकी और गहराई से अपने विचार पेश किए। उन्होंने भारत के मूल दर्शन को विज्ञान और अध्यात्म, तर्क और आस्था के तत्वों की कसौटी पर कसते हुए आधुनिकता के साथ इनका सामंजस्य स्थापित किया। उनका वेदांत पर भी काफी जोर रहा।
विवेकानंद ने यह स्पष्ट किया कि अगर वेदांत को जीवन दर्शन के रूप में न मानकर एक धर्म के रूप में स्वीकार किया जाता है, तो यह सार्वभौमिक धर्म है- समग्र मानवता का धर्म। इसे हिंदुत्व के साथ इसलिए जोड़ा जाता है, क्योंकि प्राचीन भारत के हिंदुओं ने इस अवधारणा की संकल्पना की और इसे एक विचार के रूप में पेश किया। एक अलग परिप्रेक्ष्य में श्री अरबिंदो ने भी यही भाव प्रस्तुत किया- भारत को अपने भीतर से समूचे विश्व के लिए भविष्य के पंथ का निर्माण करना है। एक शाश्वत पंथ जिसमें तमाम पंथों, विज्ञान, दर्शन आदि का समावेश होगा और जो मानवता को एक आत्मा में बांधने का काम करेगा। स्पष्ट तौर पर मात्र एक भाषण ने ऐसी ज्योति प्रज्ज्वलित की, जिसने पाश्चात्य मानस के अंतर्मन को प्रकाश से आलोकित कर दिया और ऊष्मा से भर दिया।
स्वामी विवेकानंद और युवा वर्ग - स्वामी विवेकानंद का कहना है कि बहती हुई नदी की धारा ही स्वच्छ, निर्मल तथा स्वास्थ्यप्रद रहती है। उसकी गति अवरुद्ध हो जाने पर उसका जल दूषित व अस्वास्थ्यकर हो जाता है। नदी यदि समुद्र की ओर चलते-चलते बीच में ही अपनी गति खो बैठे, तो वह वहीं पर आबद्ध हो जाती है। प्रकृति के समान ही मानव समाज में भी एक सुनिश्चित लक्ष्य के अभाव में राष्ट्र की प्रगति रुक जाती है और सामने यदि स्थिर लक्ष्य हो, तो आगे बढ़ने का प्रयास सफल तथा सार्थक होता है। हमारे आज के जीवन के हर क्षेत्र में यह बात स्मरणीय है।
अब इस लक्ष्य को निर्धारित करने के पूर्व हमें विशेषकर अपने चिरन्तन इतिहास, आदर्श तथा आध्यात्मिकता का ध्यान रखना होगा। स्वामी जी ने इसी बात पर सर्वाधिक बल दिया था। देश की शाश्वत परंपरा तथा आदर्शों के प्रति सचेत न होने पर विश्रृंखलापूर्ण समृद्धि आएगी और संभव है कि अंततः वह राष्ट्र को प्रगति के स्थान पर अधोगति की ओर ही ले जाए।
विशेषकर आज के युवा वर्ग को, जिसमें देश का भविष्य निहित है, और जिसमें जागरण के चिह्न दिखाई दे रहे हैं, अपने जीवन का एक उद्देश्य ढूँढ़ लेना चाहिए। हमें ऐसा प्रयास करना होगा ताकि उनके भीतर जगी हुई प्रेरणा तथा उत्साह ठीक पथ पर संचालित हो। अन्यथा शक्ति का ऐसा अपव्यय या दुरुपयोग हो सकता है कि जिससे मनुष्य की भलाई के स्थान पर बुराई ही होगी।
स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि भौतिक उन्नति तथा प्रगति अवश्य ही वांछनीय है, परंतु देश जिस अतीत से भविष्य की ओर अग्रसर हो रहा है, उस अतीत को अस्वीकार करना निश्चय ही निर्बुद्धिता का द्योतक है। अतीत की नींव पर ही राष्ट्र का निर्माण करना होगा। युवा वर्ग में यदि अपने विगत इतिहास के प्रति कोई चेतना न हो, तो उनकी दशा प्रवाह में पड़े एक लंगरहीन नाव के समान होगी। ऐसी नाव कभी अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँचती। इस महत्वपूर्ण बात को सदैव स्मरण रखना होगा।
मान लो कि हम लोग आगे बढ़ते जा रहे हैं, पर यदि हम किसी निर्दिष्ट लक्ष्य की ओर नहीं जा रहे हैं, तो हमारी प्रगति निष्फल रहेगी। आधुनिकता कभी-कभी हमारे समक्ष चुनौती के रूप में आ खड़ी होती है। इसलिए भी यह बात हमें विशेष रूप से याद रखनी होगी। इसी उपाय से आधुनिकता के प्रति वर्तमान झुकाव को देश के भविष्य के लिए उपयोगी एक लक्ष्य की ओर सुपरिचालित किया जा सकता है। मैं कह रहा था कि आधुनिकता कभी-कभी हमारे सामने चुनौती के रूप में आ खड़ी होती है। इसका तात्पर्य यह है कि आधुनिक समाज राष्ट्रहित के लिए उसकी शक्ति का उपयोग करने के प्रयास में अंधकार में भटकता रहता है। आधुनिकता की इस शक्ति को सुनियोजित महान लक्ष्य की ओर परिचालित करना होगा। इसी कारण स्वामीजी ने कहा है कि युवा वर्ग के सम्मुख एक लक्ष्य स्थापित करना होगा और इस ओर ध्यान देना होगा कि युवकगण उत्साह तथा प्रेरणा के साथ अपनी क्षमता का सदुपयोग कर सकें।
स्वामीजी ने बताया है कि उन्नति की प्रथम सीढ़ी स्वाधीनता है। स्वाधीनता के अभाव में हम बद्ध हो जाते हैं और इससे क्रमशः हमारा विनाश अवश्यंभावी हो जाता है। इसीलिए युवकों को पूर्ण स्वाधीनता देनी होगी, उनके पथ निर्धारण में सहायता भी करनी होगी।
स्वामी ने बारंबार कहा है कि अतीत की नींव के बिना सुदृढ़ भविष्य का निर्माण नहीं हो सकता। अतीत से जीवन शक्ति ग्रहण करके ही भविष्य जीवित रहता है। जिस आदर्श को लेकर राष्ट्र अब तक बचा हुआ है, उसी आदर्श की ओर वर्तमान युवा पीढ़ी को परिचालित करना होगा, ताकि वे देश के महान अतीत के साथ सामंजस्य बनाकर लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकें।
युवाशक्ति के भीतर जो सक्रियता एवं उद्दाम भावावेग देखने में आता है, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। वे कुछ करने को उत्सुक हैं और यह उसी का लक्षण है। उनके नेतृत्व का भार जिनके ऊपर है, उन वयस्क लोगों को इस विषय में सोचना होगा। युवकों को केवल विधि-निषेध की सीमा में आबद्ध न रखकर, उन्हें स्पष्ट मार्ग दिखाना होगा। प्रायः देखने में आता है कि वयस्क लोगों को युवा वर्ग के केवल दोष ही दिखाई देते हैं।
वयस्कों की गलती यह है कि वे यह जानने का प्रयास नहीं करते कि युवक-युवतियाँ क्या सोचते हैं तथा क्या करना चाहते हैं। इसी कारण वयस्कगण युवा वर्ग की आलोचना करते हैं और इसके फलस्वरूप युवा समाज भी बड़ों की उपेक्षा करता है, उनकी परवाह नहीं करता। तब मामला आग से खेलने जैसा हो जाता है। जो आग घर में दीपक बनकर प्रकाश फैलाती है, वही सब कुछ जलाकर राख भी कर सकती है। यौवन के भीतर जो शक्ति है, वह भली भीनहीं है और बुरी भी नहीं है, ठीक उपयोग करने पर वह कल्याणकारी होगी तथा दुरुपयोग करने पर विध्वंसक।
इसीलिए तरुणों के प्रति स्वामीजी का आह्वान है- अपनी शक्ति को व्यर्थ बरबाद न होने देना। अतीत की ओर देखो, जिस अतीत ने तुम्हें अनंत जीवन रस प्रदान किया है, उससे पुष्ट हो। यदि अतीत की परंपरा का सदुपयोग कर सको, उसके लिए गौरव का बोध कर सको, तो फिर उसका अनुसरण कर अपना पथ निर्धारित करो। वह परंपरा तुम्हें दृढ़ नींव पर प्रतिष्ठित करेगी और इसके फलस्वरूप तुम देखोगे कि देश सामंजस्यपूर्ण समृद्धि की दिशा में अग्रसर हो रहा है।
इसी प्रकार अपेक्षाकृत अत्यल्प समय के भीतर लक्ष्य तक पहुँचा जा सकेगा। वैज्ञानिकगण नए-नए उपायों से खोज में तरह-तरह के परीक्षण-निरीक्षण किया करते हैं, परंतु वे भी क्या उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त अतीत काल की प्रज्ञा पर निर्भर नहीं करते ? अणु का आविष्कार आकस्मिक रूप से नहीं हो गया। अनेक युगों के अनेक वैज्ञानिकों की जी-तोड़ खोजों के बाद अंततः वर्तमान शताब्दी में आण्विक शक्ति के अस्तित्व का पता चला है। उसी प्रकार इस क्षेत्र में भी हमें अपने पूर्ववर्तियों के प्रयास को स्मरण रखना होगा।
दुनिया में हिंदू धर्म और भारत की प्रतिष्ठा स्थापित करने वाले स्वामी विवेकानंद एक आध्यात्मिक हस्ती होने के बावजूद अपने नवीन एवं जीवंत विचारों के कारण आज भी युवाओं के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। विवेकानंद जन्म 12 जनवरी 1863 ई., सोमवार के दिन प्रातःकाल सूर्योदय के किंचित् काल बाद 6 बजकर 49 मिनट पर हुआ था।
मकर संक्रांति का वह दिन हिन्दू जाति के लिए महान उत्सव का अवसर था और भक्तगण उस दिन लाखों की संख्या में गंगा जी को पूजा अर्पण करने जा रहे थे। अतः जिस समय भावी विवेकानंद ने इस धरती पर पहली बार साँस ली, उस समय उनके घर के समीप ही प्रवाहमान पुण्यतोया भागीरथी लाखों नर-नारियों की प्रार्थना, पूजन एवं भजन के कलरव से प्रतिध्वनित हो रही थीं।
स्वामी विवेकानंद के जन्म के पूर्व, अन्य धर्मप्राण हिन्दू माताओं के समान ही, उनकी माताजी ने भी व्रत-उपवास किए थे तथा एक ऐसी संतान के लिए प्रार्थना की थी, जिससे उनका कुल धन्य हो जाए। उन दिनों उनके मन-प्राण पर त्यागीश्वर शिव ही अधिकार जमाए हुए थे, अतः उन्होंने वाराणसी में रहने वाली अपने रिश्ते की एक महिला से वहाँ के वीरेश्वर शिव के मंदिर में विशेष पूजा चढ़ा कर आशीर्वाद माँगने का अनुरोध किया था। एक रात उन्होंने स्वप्न में महादेव जी को ध्यान करते देखा, फिर उन्होंने नेत्र खोले और उनके पुत्र के रूप में जन्म लेने का वचन दिया। नींद खुलने के बाद उनके आनंद की सीमा न रही थी।
माता भुवनेश्वरी देवी ने अपने पुत्र को शिव जी का प्रसाद माना और उसे वीरेश्वर नाम दिया। परंतु परिवार में उनका नाम नरेंद्रनाथ दत्त था और संक्षेप में उन्हें नरेंद्र तथा दुलार में नरेन कहकर संबोधित किया जाता था। कलकत्ते के जिस दत्त वंश में नरेंद्रनाथ का जन्म हुआ था, वह अपनी समृद्धि, सहृदयता, पांडित्य एवं स्वाधीन मनोवृत्ति के लिए सुविख्यात था। उनके दादा श्री दुर्गाचरण ने अपने प्रथम पुत्र का मुख देखने के बाद ही ईश्वर प्राप्ति की अभिलाषा से गृह त्याग कर दिया था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय में अधिवक्ता थे। उन्होंने अँगरेजी तथा फारसी साहित्य का गहन अध्ययन किया था।
उनकी माता भुवनेश्वरी देवी एक अलग ही साँचे में ढली थीं। वे देखने में गंभीर और आचरण में उदार थीं तथा प्राचीन हिन्दू परंपरा का प्रतिनिधित्व करती थीं। वे एक भरे पूरे परिवार की मालकिन थीं और अपने अवकाश का समय सिलाई एवं भजन गाने में बिताती थीं। रामायण एवं महाभारत में उनकी विशेष रुचि थी तथा इन ग्रंथों के अनेक अंश उन्हें कंठस्थ भी थे। निर्धनों के लिए वे आश्रय थीं। अपनी ईश्वर भक्ति, आंतरिक शांति तथा अपनी व्यस्तता के बीच तीव्र अनासक्ति के फलस्वरूप वे सबके सम्मान की अधिकारिणी हुई थीं। नरेंद्रनाथ के अतिरिक्त उन्हें और भी दो पुत्र तथा चार पुत्रियाँ हुईं, परंतु उनमें से दो पुत्रियाँ अल्प आयु में ही चल बसी थीं।
पगड़ी, कोड़े तथा भड़कील पोशाक में सजे अपने परिवार के संन्यासी का व्यक्तित्व उसे बड़ा लुभावना लगता था। वह प्रायः बड़े होकर वैसा ही बनने की आकांक्षा व्यक्त करता था। नरेंद्र का उसके संसार त्यागकर संन्यासी हो जाने वाले पितामह से काफी साम्य दिख पड़ता था और इस कारण कइयों का विचार था कि उन्होंने ही नरेन के रूप में पुनर्जन्म लिया है। भ्रमण करने वाले संन्यासियों में बालक की बड़ी रुचि थी और उन्हें देखते ही वह उत्साहित हो उठता।
एक दिन एक ऐसे परिव्राजक संन्यासी उसके द्वार पर आकर भिक्षा माँगने लगे। नरेंद्र ने उनको अपनी एकमात्र वस्तु-कमर से लिपटा हुआ एक छोटा सा नया वस्त्र दे दिया। तब से जब कभी आस-पड़ोस में कोई संन्यासी दिख जाते तो नरेंद्र को एक कमरे में बंद कर दिया जाता। तथापि जो कुछ भी हाथ में आता, वह खिड़की के रास्ते उनकी ओर डाल देता। इन्हीं दिनों माँ के हाथों में उसकी प्रारंभिक शिक्षा का सूत्रपात हुआ। इस प्रकार उसने बंगला की वर्णमाला, कुछ अँगरेजी शब्द तथा रामायण एवं महाभारत की कथाएँ सीखीं।
1886 में रामकृष्ण के निधन के बाद स्वामी विवेकानंद ने जीवन एवं कार्यों को एक नया मोड़ दिया। 25 वर्ष की अवस्था में उन्होंने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। गरीब, निर्धन और सामाजिक बुराई से ग्रस्त देश के हालात देखकर दुःख और दुविधा में रहे। उसी दौरान उन्हें सूचना मिली कि शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन आयोजित होने जा रहा है। उन्होंने वहाँ जाने का निश्चय किया। वहाँ से आने के बाद देश में प्रमुख विचारक के रूप में उन्हें सम्मान और प्रतिष्ठा मिली। 1899 में उन्होंने पुनः पश्चिम जगत की यात्रा करने के बाद भारत में आध्यात्मिकता का संदेश फैलाया। स्वामी विवेकानंद नर सेवा को ही नारायण सेवा मानते थे।
उनका मानना था कि “जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत् की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है। अंत में उनकी शक्ति के फलस्वरूप ऐसा कोई शक्ति सम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो संसार को शिक्षा प्रदान करता है।”
11 सितंबर, 1893 को स्वामी विवेकानंद ने शिकागो ‘पार्लियामेंट आफ रिलीजन’ में भाषण दिया था, उसे आज भी दुनिया भुला नहीं पाती। इस भाषण से दुनिया के तमाम पंथ आज भी सबक ले सकते हैं। इस अकेली घटना ने पश्चिम में भारत की एक ऐसी छवि बना दी, जो आजादी से पहले और इसके बाद सैकड़ों राजदूत मिलकर भी नहीं बना सके। स्वामी विवेकाननंद के इस भाषण के बाद भारत को एक अनोखी संस्कृति के देश के रूप में देखा जाने लगा। अमेरिकी प्रेस ने विवेकानंद को उस धर्म संसद की महानतम विभूति बताया था और स्वामी विवेकानंद के बारे में लिखा था, उन्हें सुनने के बाद हमें महसूस हो रहा है कि भारत जैसे एक प्रबुद्ध राष्ट्र में मिशनरियों को भेजकर हम कितनी बड़ी मूर्खता कर रहे थे। यह ऐसे समय हुआ, जब ब्रिटिश शासकों और ईसाई मिशनरियों का एक वर्ग भारत की अवमानना और पाश्चात्य संस्कृति की श्रेष्ठता साबित करने में लगा हुआ था।
उदाहरण के लिए 19वीं सदी के अंत में अधिकारी से मिशनरी बने रिचर्ड टेंपल ने मिशनरी सोसायटी इन न्यूयार्क को संबोधित करते हुए कहा था- भारत एक ऐसा मजबूत दुर्ग है, जिसे ढहाने के लिए भारी गोलाबारी की जा रही है। हम झटकों पर झटके दे रहे हैं, धमाके पर धमाके कर रहे हैं और इन सबका परिणाम उल्लेखनीय नहीं है, लेकिन आखिरकार यह मजबूत इमारत भरभराकर गिरेगी ही। हमें पूरी उम्मीद है कि किसी दिन भारत का असभ्य पंथ सही राह पर आ जाएगा। जब शिकागो धर्म संसद के पहले दिन अंत में विवेकानंद संबोधन के लिए खड़े हुए और उन्होंने कहा- अमेरिका के भाइयो और बहनो, तो तालियों की जबरदस्त गड़गड़ाहट के साथ उनका स्वागत हुआ, लेकिन इसके बाद उन्होंने हिंदू धर्म की जो सारगर्भित विवेचना की, वह कल्पनातीत थी। उन्होंने यह कहकर सभी श्रोताओं के अंतर्मन को छू लिया कि हिंदू तमाम पंथों को सर्वशक्तिमान की खोज के प्रयास के रूप में देखते हैं। वे जन्म या साहचर्य की दशा से निर्धारित होते हैं, प्रत्येक प्रगति के एक चरण को चिह्नित करते हैं।
स्वामी विवेकानंद ने तब जबरदस्त प्रतिबद्धता का परिचय दिया, जब एक अन्य अवसर पर उन्होंने ईसाई श्रोताओं के सामने कहा- तमाम डींगों और शेखी बखारने के बावजूद तलवार के बिना ईसाईयत कहां कामयाब हुई? जो ईसा मसीह की बात करते हैं वे अमीरों के अलावा किसकी परवाह करते हैं! ईसा को एक भी ऐसा पत्थर नहीं मिलेगा, जिस पर सिर रखकर वह आप लोगों के बीच स्थान तलाश सके..आप ईसाई नहीं हैं। आप लोग फिर से ईसा के पास जाएं। एक अन्य अवसर पर उन्होंने यह मुद्दा उठाया- आप ईसाई लोग गैरईसाइयों की आत्मा की मुक्ति के लिए मिशनरियों को भेजते हैं।
साफगोई और बेबाकी विवेकानंद का सहज गुण था। देश में वह हिंदुओं से अधिक घुलते-मिलते नहीं थे। जब उनके आश्रम में एक अनुयायी ने उनसे पूछा कि व्यावहारिक सेवा के लिए रामकृष्ण मिशन की स्थापना का उनका प्रस्ताव संन्यासी परंपरा का निर्वहन कैसे कर पाएगा? तो उन्होंने जवाब दिया- आपकी भक्ति और मुक्ति की कौन परवाह करता है ? धार्मिक ग्रंथों में लिखे की किसे चिंता है ? अगर मैं अपने देशवासियों को उनके पैरों पर खड़ा कर सका और उन्हें कर्मयोग के लिए प्रेरित कर सका तो मैं हजार नर्क भी भोगने के लिए तैयार हूं। मैं मात्र रामकृष्ण परमहंस या किसी अन्य का अनुयायी नहीं हूं। मैं तो उनका अनुयायी हूं, जो भक्ति और मुक्ति की परवाह किए बिना अनवरत दूसरों की सेवा और सहायता में जुटे रहते हैं। विवेकानंद की साफगोई के बावजूद जिसने उन्हें अमेरिकियों के एक वर्ग का चहेता नहीं बनने दिया, उन्हें हिंदुत्व के विभिन्न पहलुओं की विवेचना के लिए बाद में भी अमेरिका से न्यौते मिलते रहे। जहां-जहां वह गए उन्होंने बड़ी बेबाकी और गहराई से अपने विचार पेश किए। उन्होंने भारत के मूल दर्शन को विज्ञान और अध्यात्म, तर्क और आस्था के तत्वों की कसौटी पर कसते हुए आधुनिकता के साथ इनका सामंजस्य स्थापित किया। उनका वेदांत पर भी काफी जोर रहा।
विवेकानंद ने यह स्पष्ट किया कि अगर वेदांत को जीवन दर्शन के रूप में न मानकर एक धर्म के रूप में स्वीकार किया जाता है, तो यह सार्वभौमिक धर्म है- समग्र मानवता का धर्म। इसे हिंदुत्व के साथ इसलिए जोड़ा जाता है, क्योंकि प्राचीन भारत के हिंदुओं ने इस अवधारणा की संकल्पना की और इसे एक विचार के रूप में पेश किया। एक अलग परिप्रेक्ष्य में श्री अरबिंदो ने भी यही भाव प्रस्तुत किया- भारत को अपने भीतर से समूचे विश्व के लिए भविष्य के पंथ का निर्माण करना है। एक शाश्वत पंथ जिसमें तमाम पंथों, विज्ञान, दर्शन आदि का समावेश होगा और जो मानवता को एक आत्मा में बांधने का काम करेगा। स्पष्ट तौर पर मात्र एक भाषण ने ऐसी ज्योति प्रज्ज्वलित की, जिसने पाश्चात्य मानस के अंतर्मन को प्रकाश से आलोकित कर दिया और ऊष्मा से भर दिया।
स्वामी विवेकानंद और युवा वर्ग - स्वामी विवेकानंद का कहना है कि बहती हुई नदी की धारा ही स्वच्छ, निर्मल तथा स्वास्थ्यप्रद रहती है। उसकी गति अवरुद्ध हो जाने पर उसका जल दूषित व अस्वास्थ्यकर हो जाता है। नदी यदि समुद्र की ओर चलते-चलते बीच में ही अपनी गति खो बैठे, तो वह वहीं पर आबद्ध हो जाती है। प्रकृति के समान ही मानव समाज में भी एक सुनिश्चित लक्ष्य के अभाव में राष्ट्र की प्रगति रुक जाती है और सामने यदि स्थिर लक्ष्य हो, तो आगे बढ़ने का प्रयास सफल तथा सार्थक होता है। हमारे आज के जीवन के हर क्षेत्र में यह बात स्मरणीय है।
अब इस लक्ष्य को निर्धारित करने के पूर्व हमें विशेषकर अपने चिरन्तन इतिहास, आदर्श तथा आध्यात्मिकता का ध्यान रखना होगा। स्वामी जी ने इसी बात पर सर्वाधिक बल दिया था। देश की शाश्वत परंपरा तथा आदर्शों के प्रति सचेत न होने पर विश्रृंखलापूर्ण समृद्धि आएगी और संभव है कि अंततः वह राष्ट्र को प्रगति के स्थान पर अधोगति की ओर ही ले जाए।
विशेषकर आज के युवा वर्ग को, जिसमें देश का भविष्य निहित है, और जिसमें जागरण के चिह्न दिखाई दे रहे हैं, अपने जीवन का एक उद्देश्य ढूँढ़ लेना चाहिए। हमें ऐसा प्रयास करना होगा ताकि उनके भीतर जगी हुई प्रेरणा तथा उत्साह ठीक पथ पर संचालित हो। अन्यथा शक्ति का ऐसा अपव्यय या दुरुपयोग हो सकता है कि जिससे मनुष्य की भलाई के स्थान पर बुराई ही होगी।
स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि भौतिक उन्नति तथा प्रगति अवश्य ही वांछनीय है, परंतु देश जिस अतीत से भविष्य की ओर अग्रसर हो रहा है, उस अतीत को अस्वीकार करना निश्चय ही निर्बुद्धिता का द्योतक है। अतीत की नींव पर ही राष्ट्र का निर्माण करना होगा। युवा वर्ग में यदि अपने विगत इतिहास के प्रति कोई चेतना न हो, तो उनकी दशा प्रवाह में पड़े एक लंगरहीन नाव के समान होगी। ऐसी नाव कभी अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँचती। इस महत्वपूर्ण बात को सदैव स्मरण रखना होगा।
मान लो कि हम लोग आगे बढ़ते जा रहे हैं, पर यदि हम किसी निर्दिष्ट लक्ष्य की ओर नहीं जा रहे हैं, तो हमारी प्रगति निष्फल रहेगी। आधुनिकता कभी-कभी हमारे समक्ष चुनौती के रूप में आ खड़ी होती है। इसलिए भी यह बात हमें विशेष रूप से याद रखनी होगी। इसी उपाय से आधुनिकता के प्रति वर्तमान झुकाव को देश के भविष्य के लिए उपयोगी एक लक्ष्य की ओर सुपरिचालित किया जा सकता है। मैं कह रहा था कि आधुनिकता कभी-कभी हमारे सामने चुनौती के रूप में आ खड़ी होती है। इसका तात्पर्य यह है कि आधुनिक समाज राष्ट्रहित के लिए उसकी शक्ति का उपयोग करने के प्रयास में अंधकार में भटकता रहता है। आधुनिकता की इस शक्ति को सुनियोजित महान लक्ष्य की ओर परिचालित करना होगा। इसी कारण स्वामीजी ने कहा है कि युवा वर्ग के सम्मुख एक लक्ष्य स्थापित करना होगा और इस ओर ध्यान देना होगा कि युवकगण उत्साह तथा प्रेरणा के साथ अपनी क्षमता का सदुपयोग कर सकें।
स्वामीजी ने बताया है कि उन्नति की प्रथम सीढ़ी स्वाधीनता है। स्वाधीनता के अभाव में हम बद्ध हो जाते हैं और इससे क्रमशः हमारा विनाश अवश्यंभावी हो जाता है। इसीलिए युवकों को पूर्ण स्वाधीनता देनी होगी, उनके पथ निर्धारण में सहायता भी करनी होगी।
स्वामी ने बारंबार कहा है कि अतीत की नींव के बिना सुदृढ़ भविष्य का निर्माण नहीं हो सकता। अतीत से जीवन शक्ति ग्रहण करके ही भविष्य जीवित रहता है। जिस आदर्श को लेकर राष्ट्र अब तक बचा हुआ है, उसी आदर्श की ओर वर्तमान युवा पीढ़ी को परिचालित करना होगा, ताकि वे देश के महान अतीत के साथ सामंजस्य बनाकर लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकें।
युवाशक्ति के भीतर जो सक्रियता एवं उद्दाम भावावेग देखने में आता है, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। वे कुछ करने को उत्सुक हैं और यह उसी का लक्षण है। उनके नेतृत्व का भार जिनके ऊपर है, उन वयस्क लोगों को इस विषय में सोचना होगा। युवकों को केवल विधि-निषेध की सीमा में आबद्ध न रखकर, उन्हें स्पष्ट मार्ग दिखाना होगा। प्रायः देखने में आता है कि वयस्क लोगों को युवा वर्ग के केवल दोष ही दिखाई देते हैं।
वयस्कों की गलती यह है कि वे यह जानने का प्रयास नहीं करते कि युवक-युवतियाँ क्या सोचते हैं तथा क्या करना चाहते हैं। इसी कारण वयस्कगण युवा वर्ग की आलोचना करते हैं और इसके फलस्वरूप युवा समाज भी बड़ों की उपेक्षा करता है, उनकी परवाह नहीं करता। तब मामला आग से खेलने जैसा हो जाता है। जो आग घर में दीपक बनकर प्रकाश फैलाती है, वही सब कुछ जलाकर राख भी कर सकती है। यौवन के भीतर जो शक्ति है, वह भली भीनहीं है और बुरी भी नहीं है, ठीक उपयोग करने पर वह कल्याणकारी होगी तथा दुरुपयोग करने पर विध्वंसक।
इसीलिए तरुणों के प्रति स्वामीजी का आह्वान है- अपनी शक्ति को व्यर्थ बरबाद न होने देना। अतीत की ओर देखो, जिस अतीत ने तुम्हें अनंत जीवन रस प्रदान किया है, उससे पुष्ट हो। यदि अतीत की परंपरा का सदुपयोग कर सको, उसके लिए गौरव का बोध कर सको, तो फिर उसका अनुसरण कर अपना पथ निर्धारित करो। वह परंपरा तुम्हें दृढ़ नींव पर प्रतिष्ठित करेगी और इसके फलस्वरूप तुम देखोगे कि देश सामंजस्यपूर्ण समृद्धि की दिशा में अग्रसर हो रहा है।
इसी प्रकार अपेक्षाकृत अत्यल्प समय के भीतर लक्ष्य तक पहुँचा जा सकेगा। वैज्ञानिकगण नए-नए उपायों से खोज में तरह-तरह के परीक्षण-निरीक्षण किया करते हैं, परंतु वे भी क्या उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त अतीत काल की प्रज्ञा पर निर्भर नहीं करते ? अणु का आविष्कार आकस्मिक रूप से नहीं हो गया। अनेक युगों के अनेक वैज्ञानिकों की जी-तोड़ खोजों के बाद अंततः वर्तमान शताब्दी में आण्विक शक्ति के अस्तित्व का पता चला है। उसी प्रकार इस क्षेत्र में भी हमें अपने पूर्ववर्तियों के प्रयास को स्मरण रखना होगा।
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