Tuesday, 17 December 2019

बौद्धिक व्यायाम से महर्षि अरविन्द तक ३

बौद्धिक व्यायाम से महर्षि अरविन्द तक
फिर भी एक दिन आया जब इस बौद्धिक व्यायाम से श्री अरविन्द का जी भर गया। निस्संदेह उन्होंने देख लिया था कि हो सकता है कि मनुष्य अनंत काल तक ज्ञानसंचय जारी रखेऔर पढ़ता ही जायेऔर अनेक भाषाएं सीखेसंसार की सारी भाषाएँ सीख ले और दुनिया भर की सारी पुस्तकें पढ़ डालेऔर एक अंगुल भी आगे न बढ़ पाये ! क्योंकि मन को सचमुच ज्ञान की खोज नहीं हैयद्यपि लगता ऐसा ही हैउसे चाहिए की उसकी चक्की चलती रहे। उसकी ज्ञान पिपसा मुख्यत: पीसने के लिए किसी वस्तु की आवश्यकता है।

श्री अरविन्द ने बाद में अपने एक शिल्प शिष्य को यह रहस्य बताया थामेरे बौद्धिक विकास का सब से महत्वपूर्ण काल वह था जब मैं यह स्पष्ट देख सका कि बुद्धि जो कुछ कहती हैवह ठीक भी हो सकता है और गलत थी। बुद्धि जिसे उचित ठहराती हैवह सच हैपर उसका विपरीत भी सच है। मैं कभी अपने मन में कोई सत्य स्वीकार नहीं करता था जब तक साथ ही उसके विपरीत के लिए भी दरवाज़ा खुला न हो। .... और इसका सबसे पहला नतीजा यह हुआ कि बुद्धि की धाक उठ गयी।

श्री अरविन्द अब तक एक मोड़ पर खड़े थे। मंदिरों में उनकी रुचि नहीं थीऔर पुस्तकें थोथी हो गई थीं। उनके एक मित्र ने योग करने की सलाह दी। श्री अरविन्द ने इंकार कर दिया जिस योग के लिए मुझे संसार को छोडऩा पड़ेवह योग मेरे लिए नहीं है। उन्होंने आगे यह भी कहासंसार को उसके भाग्य पर छोड़अकेले मोक्ष भी प्राय: अरुचिकर सा लागता था।

परन्तु श्री अरविन्द ने एक दिन अपनी आँखों एक विचित्र घटना देखीयद्यपि भारत में वह मामूली बात हैपर कई बार मामूली बातें ही अंदर के पट खोलने के लिए सब से बढिय़ा बहाना बन जाती हैं। श्री अरविन्द का भाई बारीन बीमार पड़ा था - उसे ज़ोर का बुखार चढ़ा हुआ था (बंगाल में भारतीय विरोध के संगठन कार्य में इंग्लैंड में जन्माबारीन ही श्री अरविन्द के गुप्तचर का कार्य करता था।) तभी घूमता हुआ एक नागा संन्यासीकौपीन धारेशरीर पर भभूत मलेवहाँ आ निकाला। संभवत: वह रोज़ की तरह दर-दर भिक्षा माँगने के लिए निकला थातभी उसने बारीन को रज़ाई में लिपटेबुखार से काँपते हुए देखा। कुछ भी कहे बिना उसने एक गिलास पानी माँगाउस पर एक चिह्न बनायामंत्र पढ़ा और रोगी को पीने के लिए दिया। पांच मिनट बाद बारीन ठीक हो गया और साधु का कहीं पता न था।

श्री अरविन्द ने इन संन्यासियों की अद्भुत शक्तियों की चर्चा बहुत सुन रखी थीपरन्तु इस बार तो उन्होंने अपनी आँखों से देखा था। तब उन्हें यह पता चला कि संसार में भाग निकलने के अतिरिक्त भी योग का कुछ उपयोग हो सकता है। और उन्हें भारत को दास्ता से मुक्त कराने के लिए शक्ति की आवश्यकता थीमेरे भीतर एक अज्ञेयवादी थाएक नास्तिक थाएक संशयवादी था और मुझे यह पक्का निश्चय नहीं था कि ईश्वर नाम की कोई चीज़ है या नहीं। ... मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि इस योग में ज़रूर कहीं कोई महान् सत्य होगा। .... अत: जब मैं योग की ओर मुड़ा और मैंने यह निश्चय किया कि योग करूँ और देखूँ कि मेरा विचार ठीक है या नहींतब मैंने इस भाव से यह किया था और उस प्रभु के प्रति मेरी यह प्रार्थना थी, ‘यदि तू है तो तू मेरे हृदय की बात जानता है। तू जानता है कि मैं मोक्ष नहीं चाहता। मैं वह सब कुछ नहीं माँगता जो दूसरे लोग माँगते हैं। मैं इस देश का उद्धार करने के लिए केवल शक्ति की याचना कर रहा हूँ। मेरी केवल यह विनती है कि मुझे उन लोगों के लिए जीवित रहने और काम करने दिया जाएजिन्हें मैं प्यार करता हूँ। श्री अरविन्द ने इस तरह अपने मार्ग पर प्रस्थान किया था।

  मानस की नीरवता : श्री अरविन्द के योग की पहली मंजिल है मानस की नीरवता। यही वह मूल कर्म है जो अनेक सिद्धियों की कुंजी प्रदान करता है। श्री अरविन्द विनोदपूर्वक कहते थेक्या तुम्हारे दिमाग में कभी यह नहीं आया कि यदि वे प्रेमप्रकाश और आनंद से विहीन किसी चीज़ को परम कल्याण के रूप में खोज रहे होते तो वे ऋषि नहींगधे हुए होते?

जब मानसिक चक्की चलनी बंद हो जाती हैतब सचमुच कई तरह की बातें पता चलती हैंऔर पहली यह कि यदि विचार करने की शक्ति अद्भुत देन है तो विचार न करने की शक्ति उससे भी कहीं बढक़र है। एक तरह से हम केवल मानसिकस्नायविक और शारीरिक आदतों का एक जटिल पुंज भर हैं जो कुछेक प्रधान विचारोंइच्छाओं और संसर्गो के द्वारा जुड़ा रहता है - छोटी-छोटी पुन: पुनरावर्तनशील अनेक शक्तियों का एक समिश्रण मात्र जिसके अंदर कुछ प्रमुख स्पंदन शामिल रहते हैं।
यह कहना गलत न होगा कि अट्ठारह वर्ष की आयु तक हमारा जमाव हो चुकता हैहमारे मुख्य स्पंदनों की स्थापना हो चुकती हैऔर इन्हीं के इर्द-गिर्द उस सहस्रासना अनन्य शाश्वत् वस्तु के जिसे हम संस्कृति कहते हैंअवशेष आकर अधिकाधिक घनीपरिष्कृतसुसंस्कृत परतों मेंनिरंतर लिपटे चले जाते हैं - यही हम’ स्वयं हैं।

सच तो यह है कि हरेक को अपना तरीका अपने आप ढूँढना है। और इस काम में अधीरता व तनाव जितने कम रहेंगेउतनी ही जल्दी सफलता होगी। इस हेतु मनुष्य किसी भी एक विधि को आरंभ कर सकता है जिसका साधारणतया अर्थ है चिर प्रयासऔर ऊपर से महती नीरवता क्षिप्र हस्तक्षेप अथवा निज अभिव्यक्ति द्वारा आरंभ से ही उस पर अपना आधिपत्य जमा सकती हैजिसका फल आरंभ में उपयुक्त साधनों के अनुपात में कहीं अधिक बढ़ा-चढ़ा होता है

मनुष्य शुरू करता है विधि के अनुसारपर ऊपर से अवतरित भगवत्कृपाउस परम देव की कृपा जिसके लिए हम अभीप्सा करते हैंइस काम का भार उठा लेती हैअथवा उस परम आत्मन् की अनंतता ही धावा बोल देती है। स्वयं मुझे ही मन की पूर्ण नीरवताजिसकी मैं साक्षात् अनुभूति से पूर्व कल्पना भी नहीं कर सकता थाइसी अंतिम विधि के द्वारा प्राप्त हुई थी। और फिर योग की तो यह एक खूबी है कि केवल इसी लिए कि किसी ने इस पथ पर चलना शुरू किया हैवह आप से आप उन प्रसुप्त कार्य-क्षमताओं और अदृश्य शक्तियों का एक पूरा क्षेत्र जागृत कर देता है जो हमारी बाह्य सत्ता की संभावनाओं से कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी हैंऔर वे हमारे लिए वह सब कर दे सकती हैं जो करने में साधारणतया हम असमर्थ रहते हैं। मनुष्य के लिए आवश्यक है कि बाह्य मानस और आंतरिक सत्ता का अंतर्वतीं रास्ता साफ हो जाए.... क्योंकि वे (योग संबंधी चेतना और उसकी शक्तियाँ) पहले से ही तुम्हारे अंदर विद्यमान हैं।

जहाँ अंतर और बाह्य केआंतरिक जीवन और सांसारिक जीवन के बीच एक अनंत विच्छेद है। हमें आवश्यकता है संपूर्ण जीवन की। हमें केवल एकांतवास में या छुट्टी और पर्व के दिन ही नहींबल्कि प्रतिदिनप्रतिक्षण अपनी सत्ता के सत्य को अपने जीवन में उतारने की आवश्यकता है। उसका उपाय बस्ती से दूरसानंद समाधि लगा कर बैठ जाना नहीं है। भौतिक स्तर पर कोई असर नहीं रखता। उस दशा में ब्राह्य जीवन और देह का रूपांतर करने में बड़ी भारी मुश्किल पड़ेगी। अथवा हम देखेंगे कि हमारे कर्म हमारी आंतरिक ज्योति के अनुरूप नहीं है - अभी भी वे उन्हीं पुराने गलत रास्तों का अनुसरण  करते हैंजिनकी उन्हें आदत पड़ी हुई हैउन्हीं अपूर्ण प्रभावों के अधीन अब भी हैंजिनका साधारणतया उन पर पहले वश था।

हमारी ब्राह्य प्रकृति के अज्ञानपूर्ण यंत्र को हमारे अंतर्वर्ती परम सत्य से पृथक् करने वाली दु:खमयी खाई पूर्ववत् बनी हुई है। .... मानों हम एक अधिक विशालअधिक सृूक्ष्मदूसरे ही जगत् में बसतें होंऔर इस पार्थिवजड़ जगत् पर हमारा दिव्य नियंत्रणया हो सकता है किसी तरह का भी कोई नियंत्रणन रहे। क्योंकि योग का अर्थ एक विशेष तरह से करना नहींबल्कि एक विशेष तरह का होना है। प्याला खाली और साफ कर रखना जरूरी है, ताकि दिव्य सोम उसके अन्दर ढाला जा सके। श्री अरविन्द का कथन हैविश्वास एक अन्तज्र्ञान है जो सत्य प्रमाणित होने के लिए केवल अनुभव की अपेक्षा नहीं करता है बल्कि अनुभव तक पहुँचा देता है।

धीरे-धीरे यह दबाव एक अधिक स्पष्ट रूप धारण करता है और साधक सचमुच का एक प्रवाह अनुभव करता है जो नीचे उतर रहा है - एक शक्तिधाराजो अप्रिय विद्युतद्वार की तरह नहींबल्कि अधिकतर एक तरल राशि सम होती है। तब मालूम पड़ता है कि उस दबाव’ अथवा आरंभ के मिथ्या सिरदर्द का एकमात्र कारण इस पराशक्ति के अवरोहण में हमारी रुकावट है और हमें करना उतना ही है कि उसका मार्ग बंद न करें (अर्थात् प्रवाह को सिर के अन्दर न रोकें) बल्कि उसे अपनी सत्ता के सारे स्तरों परऊपर से नीचे तक उतरने दें। (श्री अरविन्द के शब्दों मेंशान्ति का एक ठोस शीतल पिण्ड)। पूर्ण योग का यह प्रारंभिक अनुभव है। जब शान्ति स्थापित हो जाती हैतब ऊपर की अथवा दिव्य शक्ति नीचे आकर हमारे अन्दर काम कर सकती है।

साधारणतया वह पहले सिर में उतरती है और आभ्यंतर मानस के केन्द्रों को उन्मुक्त कर देती हैफिर हच्चक्र में... इसके बाद नाभि में तथा अन्य प्राणिक चक्रों में.... फिर मूलाधार (त्रिक प्रदेश) में और उससे नीचे... वह एक साथ संपूर्णता तथा मुक्ति दोनों के लिए कार्य करती है। वह संपूर्ण प्रकृति में एक-एक भाग करके कार्य संपन्न करती हैजो त्याज्य है उसे छोड़ देती हैजिसे ऊँचा उठाने की आवश्यकता है उसे ऊँचा उठाती हैजिसका निर्माण करना है उसका निर्माण करती है। वह संपूर्णता तथा सामंजस्य प्रदान करती हैहमारी प्रकृति में एक नयी लय भरती है।

यह ऋग्वेद के काल की एक बहुत पुरानी खोज है, ‘शोभन पंखों वाले दो पक्षी जो परस्पर सखा और सहयात्री हैंसमान वृक्ष पर बैठे हैंउनमें एक मधुर फल खाता हैदूसरा चखता तक नहींकेवल उसका साक्षी है’(1.164.20)।

उस अवस्था तक पहुँच जाने परमन में सोचने कीस्मरण रखनेआयोजन बनानेअनुमान लगाने की पुरानी थोथी आदतों की जगहमौनभाव से इस स्पंदनमय गहराई का आश्रय लेने की आदत डालने में हस्तक्षेप पहले से आसान हो जायेगापर शुरू में उसके लिए इच्छा करनी होगी। 

इसका समर्थन कराती हुई श्रीमाँ कहती हैंमानस ज्ञान-प्राप्ति का साधन नहींबल्कि केवल ज्ञान का आयोजक हैऔर ज्ञान का स्रोत अन्यत्र है। मानस की नीरवता में शब्दवचन कर्मसब स्वत: आश्चर्यजनक यथार्थता और वेग के साथ आते हैं। सचमुच वह जीने का एक दूसराबहुत ही सहज तरीका है क्योंकि वास्तव में जो भी मन करता है उसमें कुछ भी ऐसा नहीं जो मानसिक निश्चलता और निर्विचार शान्ति में न हो सकेऔर ज्यादा अच्छा न हो सके।

यह सत्व संबंधी अन्तर शुरू में अप्रिय लक्षणों द्वारा प्रकट होगा क्योकि साधारण मनुष्य सामान्यतया एक मोटी चमड़ी के अन्दर सुरक्षित रहता है पर साधक को अब यह संरक्षण प्राप्त न होगा। लोगों के विचारउनके संकल्पउनकी इच्छाएँ बिना किसी लाग-लपेट के वह ग्रहण करेगाजो कुछ वे दरअसल हैंयानी आक्रमणउस पर आकर पड़ेंगे। और यह ध्यान देने की बात है कि केवल बुरे विचार’ या दुर्भावनाएँ’ ही उस हमले में भाग नहीं लेते। सत्संकल्पोंसद्भावोंपरोपकार भावना से बढक़र घातक और कुछ नहीं है - इस ओर भीउस ओर भीमधुरता द्वारा अथवा बल द्वारामनुष्य का अहंकार ही है जो पुष्ट होता है। हम केवल ऊपरी तल पर ही सभ्य हुए हैंनीचे आदमखोर बसता है। अत: यह बहुत ही जरूरी है कि साधक के पास यह पराशक्ति हो।

साधक को नीरवता में किसी स्थान पर अथवा किसी व्यक्ति पर अपना ध्यान टिका देने भर से ही वस्तुस्थिति का लगभग ठीक ज्ञान प्राप्त हो जायेगा। उसकी मानस को नीरव करने की क्षमता के अनुसार उसका ज्ञान कम या अधिक सही होगा क्योकि यहाँ भी गड़बड़ मन ही करता है - उसकी इच्छा हैभय हैसंकल्प है और कुछ भी मानस तक नहीं पहुँच जाता जो तुरंत ही इस इच्छाभयसंकल्प द्वारा दूषित न हो जाये।

हम केवल यही नहीं देखते कि लोगों के विचार बाहर से हमारे अंदर आते हैं,। बल्कि हमारे निजी विचार भी हमारे अंदर उसी मार्ग से - बाहर से - आते हैं। जब हम काफी पारदृश्य बन जायेंगेतब मानस की निश्चल नीरवता में हम अनुभव कर सकेंगे कि छोटे-छोटे भँवर से आकर हमारे वायुमंडल से टकराते हैंअथवा मानो धीमे स्पन्दन हमारा ध्यान आकृष्ट करते होंऔर यदि क्या हैयह देखने के लिए’ थोड़ा भी झुकेंअर्थात् यदि हम स्वीकृति दे दें कि इन भँवरों में से कोई एक हमारे अन्दर आ जाऐ तो हम सहसा अपने आप को किसी विषय पर विचार करते हुए पाते हैं। अपनी सत्ता की परिधि पर जिसे हमने पकड़ा थावह अपने विशुद्ध रूप में एक विचार था यों कहें कि एक मानसिक स्पन्दन था जिसे अभी समय नहीं मिला था कि हमारे बिना जाने ही हमारे अन्दर घुस जाये और हमारी निजी छाप लेकर बाहर निकलेताकि हम शान से कह सकें, ‘यह मेरा विचार है। श्रीमाँ पूछती थींतुम्हारे अन्दर वह मै’ कहाँ है जो यह सब रच सके?

विचारों को जब हम बाहर से आते देखें तब उन्हें बाहर निकाल फेंकना आसान है। एक बार जब नीरवता हमारे वश में आ गईतब हम अनिवार्यत: मानस जगत् के अधिपति बन गये क्योंकि अनन्त काल तक एक ही तरंग-दैघ्र्य पर चिपके रहने के बदलेहम तरंगदैध्र्यों की सारी सरगम पर घूम सकते हैं और जो जी चाहे ले या छोड़ सकते हैं।

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