बौद्धिक व्यायाम से महर्षि अरविन्द तक
फिर भी एक दिन आया जब इस बौद्धिक व्यायाम से श्री अरविन्द का जी भर गया। निस्संदेह उन्होंने देख लिया था कि हो सकता है कि मनुष्य अनंत काल तक ज्ञानसंचय जारी रखे, और पढ़ता ही जाये, और अनेक भाषाएं सीखे, संसार की सारी भाषाएँ सीख ले और दुनिया भर की सारी पुस्तकें पढ़ डाले, और एक अंगुल भी आगे न बढ़ पाये ! क्योंकि मन को सचमुच ज्ञान की खोज नहीं है, यद्यपि लगता ऐसा ही है, उसे चाहिए की उसकी चक्की चलती रहे। उसकी ज्ञान पिपसा मुख्यत: पीसने के लिए किसी वस्तु की आवश्यकता है।
श्री अरविन्द ने बाद में अपने एक शिल्प शिष्य को यह रहस्य बताया था, मेरे बौद्धिक विकास का सब से महत्वपूर्ण काल वह था जब मैं यह स्पष्ट देख सका कि बुद्धि जो कुछ कहती है, वह ठीक भी हो सकता है और गलत थी। बुद्धि जिसे उचित ठहराती है, वह सच है, पर उसका विपरीत भी सच है। मैं कभी अपने मन में कोई सत्य स्वीकार नहीं करता था जब तक साथ ही उसके विपरीत के लिए भी दरवाज़ा खुला न हो। .... और इसका सबसे पहला नतीजा यह हुआ कि बुद्धि की धाक उठ गयी।
श्री अरविन्द अब तक एक मोड़ पर खड़े थे। मंदिरों में उनकी रुचि नहीं थी, और पुस्तकें थोथी हो गई थीं। उनके एक मित्र ने योग करने की सलाह दी। श्री अरविन्द ने इंकार कर दिया जिस योग के लिए मुझे संसार को छोडऩा पड़े, वह योग मेरे लिए नहीं है। उन्होंने आगे यह भी कहा, संसार को उसके भाग्य पर छोड़, अकेले मोक्ष भी प्राय: अरुचिकर सा लागता था।
परन्तु श्री अरविन्द ने एक दिन अपनी आँखों एक विचित्र घटना देखी, यद्यपि भारत में वह मामूली बात है, पर कई बार मामूली बातें ही अंदर के पट खोलने के लिए सब से बढिय़ा बहाना बन जाती हैं। श्री अरविन्द का भाई बारीन बीमार पड़ा था - उसे ज़ोर का बुखार चढ़ा हुआ था (बंगाल में भारतीय विरोध के संगठन कार्य में इंग्लैंड में जन्मा, बारीन ही श्री अरविन्द के गुप्तचर का कार्य करता था।) तभी घूमता हुआ एक नागा संन्यासी, कौपीन धारे, शरीर पर भभूत मले, वहाँ आ निकाला। संभवत: वह रोज़ की तरह दर-दर भिक्षा माँगने के लिए निकला था, तभी उसने बारीन को रज़ाई में लिपटे, बुखार से काँपते हुए देखा। कुछ भी कहे बिना उसने एक गिलास पानी माँगा, उस पर एक चिह्न बनाया, मंत्र पढ़ा और रोगी को पीने के लिए दिया। पांच मिनट बाद बारीन ठीक हो गया और साधु का कहीं पता न था।
श्री अरविन्द ने इन संन्यासियों की अद्भुत शक्तियों की चर्चा बहुत सुन रखी थी, परन्तु इस बार तो उन्होंने अपनी आँखों से देखा था। तब उन्हें यह पता चला कि संसार में भाग निकलने के अतिरिक्त भी योग का कुछ उपयोग हो सकता है। और उन्हें भारत को दास्ता से मुक्त कराने के लिए शक्ति की आवश्यकता थी, मेरे भीतर एक अज्ञेयवादी था, एक नास्तिक था, एक संशयवादी था और मुझे यह पक्का निश्चय नहीं था कि ईश्वर नाम की कोई चीज़ है या नहीं। ... मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि इस योग में ज़रूर कहीं कोई महान् सत्य होगा। .... अत: जब मैं योग की ओर मुड़ा और मैंने यह निश्चय किया कि योग करूँ और देखूँ कि मेरा विचार ठीक है या नहीं, तब मैंने इस भाव से यह किया था और उस प्रभु के प्रति मेरी यह प्रार्थना थी, ‘यदि तू है तो तू मेरे हृदय की बात जानता है। तू जानता है कि मैं मोक्ष नहीं चाहता। मैं वह सब कुछ नहीं माँगता जो दूसरे लोग माँगते हैं। मैं इस देश का उद्धार करने के लिए केवल शक्ति की याचना कर रहा हूँ। मेरी केवल यह विनती है कि मुझे उन लोगों के लिए जीवित रहने और काम करने दिया जाए, जिन्हें मैं प्यार करता हूँ।’ श्री अरविन्द ने इस तरह अपने मार्ग पर प्रस्थान किया था।
मानस की नीरवता : श्री अरविन्द के योग की पहली मंजिल है मानस की नीरवता। यही वह मूल कर्म है जो अनेक सिद्धियों की कुंजी प्रदान करता है। श्री अरविन्द विनोदपूर्वक कहते थे, क्या तुम्हारे दिमाग में कभी यह नहीं आया कि यदि वे प्रेम, प्रकाश और आनंद से विहीन किसी चीज़ को परम कल्याण के रूप में खोज रहे होते तो वे ऋषि नहीं, गधे हुए होते?
जब मानसिक चक्की चलनी बंद हो जाती है, तब सचमुच कई तरह की बातें पता चलती हैं, और पहली यह कि यदि विचार करने की शक्ति अद्भुत देन है तो विचार न करने की शक्ति उससे भी कहीं बढक़र है। एक तरह से हम केवल मानसिक, स्नायविक और शारीरिक आदतों का एक जटिल पुंज भर हैं जो कुछेक प्रधान विचारों, इच्छाओं और संसर्गो के द्वारा जुड़ा रहता है - छोटी-छोटी पुन: पुनरावर्तनशील अनेक शक्तियों का एक समिश्रण मात्र जिसके अंदर कुछ प्रमुख स्पंदन शामिल रहते हैं।
यह कहना गलत न होगा कि अट्ठारह वर्ष की आयु तक हमारा जमाव हो चुकता है, हमारे मुख्य स्पंदनों की स्थापना हो चुकती है, और इन्हीं के इर्द-गिर्द उस सहस्रासना अनन्य शाश्वत् वस्तु के जिसे हम संस्कृति कहते हैं, अवशेष आकर अधिकाधिक घनी, परिष्कृत, सुसंस्कृत परतों में, निरंतर लिपटे चले जाते हैं - यही ‘हम’ स्वयं हैं।
सच तो यह है कि हरेक को अपना तरीका अपने आप ढूँढना है। और इस काम में अधीरता व तनाव जितने कम रहेंगे, उतनी ही जल्दी सफलता होगी। इस हेतु मनुष्य किसी भी एक विधि को आरंभ कर सकता है जिसका साधारणतया अर्थ है चिर प्रयास, और ऊपर से महती नीरवता क्षिप्र हस्तक्षेप अथवा निज अभिव्यक्ति द्वारा आरंभ से ही उस पर अपना आधिपत्य जमा सकती है, जिसका फल आरंभ में उपयुक्त साधनों के अनुपात में कहीं अधिक बढ़ा-चढ़ा होता है।
मनुष्य शुरू करता है विधि के अनुसार, पर ऊपर से अवतरित भगवत्कृपा, उस परम देव की कृपा जिसके लिए हम अभीप्सा करते हैं, इस काम का भार उठा लेती है, अथवा उस परम आत्मन् की अनंतता ही धावा बोल देती है। स्वयं मुझे ही मन की पूर्ण नीरवता, जिसकी मैं साक्षात् अनुभूति से पूर्व कल्पना भी नहीं कर सकता था, इसी अंतिम विधि के द्वारा प्राप्त हुई थी। और फिर योग की तो यह एक खूबी है कि केवल इसी लिए कि किसी ने इस पथ पर चलना शुरू किया है, वह आप से आप उन प्रसुप्त कार्य-क्षमताओं और अदृश्य शक्तियों का एक पूरा क्षेत्र जागृत कर देता है जो हमारी बाह्य सत्ता की संभावनाओं से कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी हैं, और वे हमारे लिए वह सब कर दे सकती हैं जो करने में साधारणतया हम असमर्थ रहते हैं। मनुष्य के लिए आवश्यक है कि बाह्य मानस और आंतरिक सत्ता का अंतर्वतीं रास्ता साफ हो जाए.... क्योंकि वे (योग संबंधी चेतना और उसकी शक्तियाँ) पहले से ही तुम्हारे अंदर विद्यमान हैं।
जहाँ अंतर और बाह्य के, आंतरिक जीवन और सांसारिक जीवन के बीच एक अनंत विच्छेद है। हमें आवश्यकता है संपूर्ण जीवन की। हमें केवल एकांतवास में या छुट्टी और पर्व के दिन ही नहीं, बल्कि प्रतिदिन, प्रतिक्षण अपनी सत्ता के सत्य को अपने जीवन में उतारने की आवश्यकता है। उसका उपाय बस्ती से दूर, सानंद समाधि लगा कर बैठ जाना नहीं है। भौतिक स्तर पर कोई असर नहीं रखता। उस दशा में ब्राह्य जीवन और देह का रूपांतर करने में बड़ी भारी मुश्किल पड़ेगी। अथवा हम देखेंगे कि हमारे कर्म हमारी आंतरिक ज्योति के अनुरूप नहीं है - अभी भी वे उन्हीं पुराने गलत रास्तों का अनुसरण करते हैं, जिनकी उन्हें आदत पड़ी हुई है, उन्हीं अपूर्ण प्रभावों के अधीन अब भी हैं, जिनका साधारणतया उन पर पहले वश था।
हमारी ब्राह्य प्रकृति के अज्ञानपूर्ण यंत्र को हमारे अंतर्वर्ती परम सत्य से पृथक् करने वाली दु:खमयी खाई पूर्ववत् बनी हुई है। .... मानों हम एक अधिक विशाल, अधिक सृूक्ष्म, दूसरे ही जगत् में बसतें हों, और इस पार्थिव, जड़ जगत् पर हमारा दिव्य नियंत्रण, या हो सकता है किसी तरह का भी कोई नियंत्रण, न रहे। क्योंकि योग का अर्थ एक विशेष तरह से करना नहीं, बल्कि एक विशेष तरह का होना है। प्याला खाली और साफ कर रखना जरूरी है, ताकि दिव्य सोम उसके अन्दर ढाला जा सके। श्री अरविन्द का कथन है, विश्वास एक अन्तज्र्ञान है जो सत्य प्रमाणित होने के लिए केवल अनुभव की अपेक्षा नहीं करता है बल्कि अनुभव तक पहुँचा देता है।
धीरे-धीरे यह दबाव एक अधिक स्पष्ट रूप धारण करता है और साधक सचमुच का एक प्रवाह अनुभव करता है जो नीचे उतर रहा है - एक शक्तिधारा, जो अप्रिय विद्युतद्वार की तरह नहीं, बल्कि अधिकतर एक तरल राशि सम होती है। तब मालूम पड़ता है कि उस ‘दबाव’ अथवा आरंभ के मिथ्या सिरदर्द का एकमात्र कारण इस पराशक्ति के अवरोहण में हमारी रुकावट है और हमें करना उतना ही है कि उसका मार्ग बंद न करें (अर्थात् प्रवाह को सिर के अन्दर न रोकें) बल्कि उसे अपनी सत्ता के सारे स्तरों पर, ऊपर से नीचे तक उतरने दें। (श्री अरविन्द के शब्दों में, शान्ति का एक ठोस शीतल पिण्ड)। पूर्ण योग का यह प्रारंभिक अनुभव है। जब शान्ति स्थापित हो जाती है, तब ऊपर की अथवा दिव्य शक्ति नीचे आकर हमारे अन्दर काम कर सकती है।
साधारणतया वह पहले सिर में उतरती है और आभ्यंतर मानस के केन्द्रों को उन्मुक्त कर देती है, फिर हच्चक्र में... इसके बाद नाभि में तथा अन्य प्राणिक चक्रों में.... फिर मूलाधार (त्रिक प्रदेश) में और उससे नीचे... वह एक साथ संपूर्णता तथा मुक्ति दोनों के लिए कार्य करती है। वह संपूर्ण प्रकृति में एक-एक भाग करके कार्य संपन्न करती है, जो त्याज्य है उसे छोड़ देती है, जिसे ऊँचा उठाने की आवश्यकता है उसे ऊँचा उठाती है, जिसका निर्माण करना है उसका निर्माण करती है। वह संपूर्णता तथा सामंजस्य प्रदान करती है, हमारी प्रकृति में एक नयी लय भरती है।
यह ऋग्वेद के काल की एक बहुत पुरानी खोज है, ‘शोभन पंखों वाले दो पक्षी जो परस्पर सखा और सहयात्री हैं, समान वृक्ष पर बैठे हैं, उनमें एक मधुर फल खाता है, दूसरा चखता तक नहीं, केवल उसका साक्षी है’(1.164.20)।
उस अवस्था तक पहुँच जाने पर, मन में सोचने की, स्मरण रखने, आयोजन बनाने, अनुमान लगाने की पुरानी थोथी आदतों की जगह, मौनभाव से इस स्पंदनमय गहराई का आश्रय लेने की आदत डालने में हस्तक्षेप पहले से आसान हो जायेगा, पर शुरू में उसके लिए इच्छा करनी होगी।
इसका समर्थन कराती हुई श्रीमाँ कहती हैं, मानस ज्ञान-प्राप्ति का साधन नहीं, बल्कि केवल ज्ञान का आयोजक है, और ज्ञान का स्रोत अन्यत्र है। मानस की नीरवता में शब्द, वचन कर्म, सब स्वत: आश्चर्यजनक यथार्थता और वेग के साथ आते हैं। सचमुच वह जीने का एक दूसरा, बहुत ही सहज तरीका है क्योंकि वास्तव में जो भी मन करता है उसमें कुछ भी ऐसा नहीं जो मानसिक निश्चलता और निर्विचार शान्ति में न हो सके, और ज्यादा अच्छा न हो सके।
यह सत्व संबंधी अन्तर शुरू में अप्रिय लक्षणों द्वारा प्रकट होगा क्योकि साधारण मनुष्य सामान्यतया एक मोटी चमड़ी के अन्दर सुरक्षित रहता है पर साधक को अब यह संरक्षण प्राप्त न होगा। लोगों के विचार, उनके संकल्प, उनकी इच्छाएँ बिना किसी लाग-लपेट के वह ग्रहण करेगा, जो कुछ वे दरअसल हैं, यानी आक्रमण, उस पर आकर पड़ेंगे। और यह ध्यान देने की बात है कि केवल ‘बुरे विचार’ या ‘दुर्भावनाएँ’ ही उस हमले में भाग नहीं लेते। सत्संकल्पों, सद्भावों, परोपकार भावना से बढक़र घातक और कुछ नहीं है - इस ओर भी, उस ओर भी, मधुरता द्वारा अथवा बल द्वारा, मनुष्य का अहंकार ही है जो पुष्ट होता है। हम केवल ऊपरी तल पर ही सभ्य हुए हैं, नीचे आदमखोर बसता है। अत: यह बहुत ही जरूरी है कि साधक के पास यह पराशक्ति हो।
साधक को नीरवता में किसी स्थान पर अथवा किसी व्यक्ति पर अपना ध्यान टिका देने भर से ही वस्तुस्थिति का लगभग ठीक ज्ञान प्राप्त हो जायेगा। उसकी मानस को नीरव करने की क्षमता के अनुसार उसका ज्ञान कम या अधिक सही होगा क्योकि यहाँ भी गड़बड़ मन ही करता है - उसकी इच्छा है, भय है, संकल्प है और कुछ भी मानस तक नहीं पहुँच जाता जो तुरंत ही इस इच्छा, भय, संकल्प द्वारा दूषित न हो जाये।
हम केवल यही नहीं देखते कि लोगों के विचार बाहर से हमारे अंदर आते हैं,। बल्कि हमारे निजी विचार भी हमारे अंदर उसी मार्ग से - बाहर से - आते हैं। जब हम काफी पारदृश्य बन जायेंगे, तब मानस की निश्चल नीरवता में हम अनुभव कर सकेंगे कि छोटे-छोटे भँवर से आकर हमारे वायुमंडल से टकराते हैं, अथवा मानो धीमे स्पन्दन हमारा ध्यान आकृष्ट करते हों, और यदि ‘क्या है, यह देखने के लिए’ थोड़ा भी झुकें, अर्थात् यदि हम स्वीकृति दे दें कि इन भँवरों में से कोई एक हमारे अन्दर आ जाऐ तो हम सहसा अपने आप को किसी विषय पर विचार करते हुए पाते हैं। अपनी सत्ता की परिधि पर जिसे हमने पकड़ा था, वह अपने विशुद्ध रूप में एक विचार था यों कहें कि एक मानसिक स्पन्दन था जिसे अभी समय नहीं मिला था कि हमारे बिना जाने ही हमारे अन्दर घुस जाये और हमारी निजी छाप लेकर बाहर निकले, ताकि हम शान से कह सकें, ‘यह मेरा विचार है’। श्रीमाँ पूछती थीं, तुम्हारे अन्दर वह ‘मै’ कहाँ है जो यह सब रच सके?
विचारों को जब हम बाहर से आते देखें तब उन्हें बाहर निकाल फेंकना आसान है। एक बार जब नीरवता हमारे वश में आ गई, तब हम अनिवार्यत: मानस जगत् के अधिपति बन गये क्योंकि अनन्त काल तक एक ही तरंग-दैघ्र्य पर चिपके रहने के बदले, हम तरंगदैध्र्यों की सारी सरगम पर घूम सकते हैं और जो जी चाहे ले या छोड़ सकते हैं।
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