Tuesday, 17 December 2019

अरविन्द की आध्यात्मिक यात्रा -2

 अरविन्द की आध्यातिम यात्रा  
 महर्षि अरविन्द : अरविन्द में अध्यात्म चेतना अचानक नहीं उत्पन्न हुई थी। बचपन से ही उन्हें कुछ अलौकिक आभास होने लगे थे, जिससे उन्हें कभी-कभी घटनाओं का पूर्वाभास हो जाता था। एक बार वे बड़ौदा के महाराजा के साथ कश्मीर गएउन्हें शंकराचार्य की पहाड़ी पर ब्रह्म की अनुभूति हुई थी। उसके बाद उन्होंने एक स्वामी जी से प्राणायाम सीखा और प्रतिदिन 5-6 घंटे अभ्यास करने लगे। इससे उनका स्वास्थ्य ठीक हो गयामन प्रफुल्लित रहने लगा और उनकी कवित्व शक्ति भी बढ़ गई। वे साधु-संतों से मिलतेउनके सुझावों को भी मानते परन्तु मूर्तिपूजा से दूर रहते थे। संयोगवश एक दिन नर्मदा के तट पर काली मन्दिर में उनका साक्षात्कार देवीजी से हुआ। उन्हें लगा कि योग से बहुत शक्ति मिलती है। अत: उन्होंने निर्णय लिया कि इससे शक्ति प्राप्त करके जनहित में लगाई जाय। 

अलीपुर जेल से छूटने के बाद उन्होंने विष्णु भास्कर लेले से योग की शिक्षा ली और तीन दिन में समाधि तक पहुँच गए। उसके बाद जब वे अनेक शहरों में भ्रमण करते हुए भाषण देने जाते तो वे अप्रत्यक्ष रूप से समाधि में ही होते। उनके विचार कहीं ऊपर से आते थे। अत: जेल से ही उन्हें साधना करने की प्रेरणा मिली थी जो पांडिचेरी में आकर व्यापकता ग्रहण कर रही थी। यद्यपि तिलकचितरंजन दासएनीबेसेंट जैसे नेता उन्हें पुन: भारत लौटकर काम करने के लिए आमंत्रित कर रहे थे परन्तु अब वे राजनीति से दूर अध्यात्म के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ चुके थे। अब वे पूरी तरह आत्मा के विकास और शरीर के उद्धार के लिए कृत संकल्प हो गए थे। यह शरीर किस प्रकार अमृत युक्त हो जायअब यही उनकी साधना बन चुकी थी।

परन्तु अब उनका झुकाव धर्म एवं अध्यात्म की ओर बढ़ रहा था। अरविन्द की अंतरात्मा भी उन्हें प्रेरित करती जा रही थी कि ईश्वर से साक्षात्कार करना है। उनके अध्यात्म की ओर हो रहे झुकाव को देखते हुए निवेदिता सहित उनके शुभचिंतकों ने उन्हें सलाह दी कि वे ब्रिटिश सीमा से दूर चले जांय। अत: अंतरात्मा की आवाज पर वे पहले फ्रेंच कॉलोनी चन्दर नगर फिर अंग्रेजी राज से दूर पांडिचेरी निकल गए। वहाँ वे 14 अप्रेल1910 को पहुँचे। अंग्रेज सरकार उन्हें ढूँढ़ रही थी। जब उन्हें पता चला कि वे पांडिचेरी पहुँच गए हैं तो अंग्रेजी सरकार ने वहाँ की सरकार से अनुरोध किया कि उन्हें पकड़ कर भारत के हवाले करें। परन्तु कोई प्रमाण न मिलने के कारण वहाँ की फ्रेंच सरकार ने अरविन्द को गिरफ्तार करने से मना कर दिया। अंग्रेजों ने पांडिचेरी में भी उनके पीछे जासूस लगा दिए। एक बार तो उन्हें फँसाने के लिए एक जासूस ने कुछ क्रांन्तिकारी साहित्य उस कुँए में फिंकवा दिया जहाँ से अरविन्द पानी भरते थे, ताकि छापे में उसे बरामद करके उसका दोषारोपण अरविन्द पर किया जा सके और उन्हें वहाँ की सरकार से गिरफ्तार करवाया जा सके। परन्तु ईश्वर कृपा से जासूस का भंडाफोड़ हो गया और वहाँ के अधिकारी अरविन्द के साहित्यिक-दार्शनिक ज्ञान से प्रभावित होकर उनका आदर करने लगे। जासूस को बहुत शर्मिंदगी लगीउसने क्षमा माँगी और भारत वापस लौट आया।

   पांडिचेरी में उन्होंने आर्य’ नामक आध्यात्मिक पत्र निकाला जिसमें अध्यात्म एवं दार्शनिक विषयों की विवेचना होती थी। यह पत्र 1921 तक निकलता रहा। पांडिचेरी में उनकी आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी। उनके साथ 4 लोग थे। वहाँ के एक जमींदार रंगास्वामी अयंगर ने उन्हें सिद्ध पुरुष के रूप में देखा। वे उनकी आर्थिक सहायता करते रहते थे। 1913 में स्थिति यह थी कि अरविन्द के सोने के लिए एक चारपाई थी, बाकी लोग चटाई पर नीचे ही सोते थे। सब मकान के बाहर लगे सार्वजानिक नल पर नहाते थे और एक ही तौलिए से सब बदन पोंछते थे। बाद में उनके आश्रम में लोगों की संख्या धीरे-धीरे बढऩे लगी और 600 तक पहुँच गई।

जीवन दर्शन : अरविन्द पत्नी को साहित्यिक और दार्शनिक पत्र लिखते रहते थे। ऐसे ही एक पत्र में उन्होंने पत्नी को लिखा कि उन्हें तीन प्रकार का पागलपन है-
1. पहला यह कि मुझे जो कुछ ईश्वर ने दिया हैउसमें से निर्वाह योग्य रखकर शेष जनता को लौटा देना चाहता हूँ । इस गरीब समाज का अंग होते हुए भी यदि मैं अपने इस आराम या संग्रह की बात सोचूँगा तो तब वह मेरे लिए चोरीबेईमानी के समान एक घृणित कार्य होगा।
2. दूसरा यह कि मैं ईश्वर को प्राप्त करके रहूँगा। यह मेरी पक्की निष्ठा है कि ईश्वर है और उसे कोई सच्चा मनुष्य ही प्राप्त कर सकता है। मैं मार्ग खोजूँगाउस पर चलूँगा और कितना भी श्रम एवं कष्ट क्यों न होमैं अपना लक्ष्य ईश्वर प्राप्त करके ही रहूँगा।
3. तीसरा यह कि भारत माता मेरी माता है। उसी भावना से उसकी पूजा करना चाहता हूँसेवा करना चाहता हूँ और इस मातृभक्ति के लिए बड़ा से बड़ा बलिदान करने की प्रसन्नता अनुभव करना चाहता हूँ।
अंत में उन्होंने पत्नी को यह भी लिखा कि वह उन्हें सनकी कह सकती है। अरविन्द घोष का जीवन इन्हीं पागलपनों की गाथा है। इसके साथ ही उनका जीवन इस तथ्य का भी साक्षी है कि जो कुछ करता है ईश्वर करता हैमनुष्य के हाथ में कुछ नहीं है। दूसरे शब्दों में भाग्य मनुष्य को अपने साथ वैसे ही उड़ा ले जाता है जैसे तिनके को चक्रवात।

 अरविन्द अन्य संन्यासियों की भाँति जोगी बनकर या कर्मकांडों द्वारा उपासना नहीं करते थे। उनकी अभीप्सा’ पद्धति असीम चैतन्य प्राप्त करने की तीव्र इच्छा एवं रूपांतरण पर आधारित है। इसमें स्वयं से संघर्ष करते हुए मनबुद्धिप्राण एवं अन्न के सत्ता केंद्र पर नियंत्रण प्राप्त करना होता है। अन्नमय कोष प्राण में जन्म जन्मान्तरों से जड़ रूप में जमा बैठा, अज्ञान उस असीम सत्ता के प्रकाश की ओर बढऩे में सबसे बड़ी बाधा उत्पन्न करता है। इसी के साथ तर्क और बुद्धि पीछे धकेलते हैं कि इससे कुछ नहीं मिलेगा। अधिकांश साधक यहीं पस्त हो जाते हैं जबकि परम आनंदयुक्त तत्व उसको पार करके ही प्राप्त किया जा सकता है। महर्षि अरविन्द घोष की साधना का उद्देश्य स्वयं के बाद उस तत्व से सबका साक्षात्कार कराना था ताकि सबको परम आनन्द प्राप्त हो सके।

राजनीतिक विचार : इतिहास के विद्यार्थी होने के कारण अरविन्द घोष अंग्रेजों की कुटिल नीति के प्रबल विरोधी थे तथा भारत की स्वतंत्रता के लिए क्रांन्तिकारी मार्ग के समर्थक थे। वे बाल गंगाधर तिलक को अपना नेता मानते थे तथा नरम पंथियों के चापलूसी युक्त रवैयेप्रार्थनाआवेदन देकर सरकार से भिक्षा माँगने की कार्यपद्धति के कटु आलोचक थे। उनका विश्वास था कि बिना संघर्ष किए भारत की असंवैधानिक अंग्रेजी सरकार सत्ता नहीं छोड़ेगी। राज्य क्षत्रिय-धर्म अर्थात शक्ति द्वारा संचालित एवं नियंत्रित होता हैअत: यहाँ ब्राह्मणों की उपदेशात्मक नीति से कोई लाभ नहीं होगा। गीता की व्याख्या में उन्होंने कहा कि धर्मयुद्ध में शत्रुओं का संहार करना भी धर्म का अंग है। यदि समय और परिस्थितियों की माँग हो तो हिंसा भी उचित है जैसे यदि शत्रुसेना से सामना होने पर किसी भी अहिंसा से देश की रक्षा नहीं की जा सकती है।

अंग्रेजी सरकार उन्हें क्रांतिकारियों का प्रेरणा स्रोत मानती थी और उनके लेखों पर कड़ी नजऱ रखती थी। महाराजा बड़ौदा की नौकरी छोडऩे के बाद उन्होंने बंगाल के लोगों को संगठित करनेस्वदेशी का विचार संचारित करनेविदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करनेराष्ट्रीय शिक्षा देने तथा निष्क्रिय प्रतिरोध के विचार प्रस्तुत किए। इसके साथ ही वे धार्मिक एवं सामाजिक सुधारक भी थे। पाँच वर्षों तक सक्रिय राजनीति में रहने के बाद अंतरात्मा की आवाज पर वे अध्यात्म के क्षेत्र में प्रवेश कर गए थे।

वे बेन्थम के विचार अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’ के स्थान पर भारतीय विचार सबके कल्याण’ के पक्षधर थे। वे पूंजीवाद एवं ट्रस्टीशिप के विरोधी थे। उन्होंने कांग्रेस का आह्वान किया कि वे सुविधाभोगी लोगों की स्थान पर श्रमिकों के लिए सोचे और कार्य करे। परन्तु वे साम्यवाद के विरोधी थे क्योंकि उसमें व्यक्ति का कोई अस्तित्व ही नहीं रह जाता है। समाजवाद के विपरीत उनकी यह धारणा थी कि राज्य को व्यक्ति की स्वतन्त्रता में न्यूनतम हस्तक्षेप करते हुए ऐसी व्यवस्था निर्मित करनी चाहिए कि वह अपना आध्यात्मिक विकास कर सके।

अरविन्द राष्ट्रीयत्व को विभिन्न राजनीतिक विचारोंसामाजिक-आर्थिक विषमताओं तथा धार्मिक-सांस्कृतिक आस्थाओं एवं मान्यताओं में एकता स्थापित करने की प्रबल दैवी शक्ति के रूप में स्वीकार करते थे। अपने विचारों को मूर्त रूप देने के लिए कर्मयोगी अरविन्द घोष ने पांडिचेरी में एक विद्यालय तथा बाद में विश्वविद्यालय की स्थापना की जहाँ मनुष्य और उसकी आत्मा का सर्वांगीण विकास किया जा सके। उन्होंने स्वतन्त्रता के पश्चात् विकसित होने वाले भारत की कल्पना ऐसे आदर्श राष्ट्र के रूप में की थी जो जाति-पातिवर्गभेद आदि से मुक्त होकर मानवीय समानता से युक्त तथा आध्यात्मिक शक्ति से परिपूर्ण होगा। 

रचनाएँ : सावित्री उनका महाकाव्य है। उनकी अन्य रचनाएँ हैंदि लाइफ डिवाइनगीता पर निबन्धयोग का समन्वयह्यूमन साइकिल और दि आइडियल ह्यूमन यूनिटी। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके लेखों एवं टिप्पणियों की भी लम्बी सूची है। 

श्री माँ : फ्रांस के एक बैंकर के घर 21 फरवरी1878 को जन्मी मीर रिचर्ड बचपन से आध्यात्मिक शक्ति से प्रेरित थीं। वे स्वयं को राधा और अरविन्द को कृष्ण का अवतार मानती थीं। इसलिए उनका अरविन्द से आत्मीय लगाव था। वे 1920 में पति के साथ उनके आश्रम में आईं और वहीं रहने लगीं। 1922 से अरविन्द की एवं आश्रम की सारी व्यवस्थाएं वे ही देखने लगीं। उन्हीं के कारण अरविन्द अपनी साधना के प्रति समर्पित होते गए। 24 नवंबर1926 को अरविन्द ने सिद्धि प्राप्त कर ली। वे मृत्यु पर्यंत साधना में लीन रहे। 5 दिसम्बर1950 को उनकी श्वांस रुक गई। उनके मुख का तेज देखकर लगता था कि वे गहन समाधि में हैं और पुन: जागृत होंगे। पाँचवे दिन उनका मुख मलिन होने लगा। तब श्री माँ के आदेश पर उन्हें समाधि दी गई। उनके निधन पर श्री माँ ने कहा,‘श्री अरविन्द के लिए शोक करना उनका अपमान करना है। वे हमारे साथ सचेतन एवं सजीव रूप से उपस्थित हैं।‘’

इस अवस्था में पहुँचाने के पूर्व 'अरविन्द अपनी पढऩे की मेज़ के सामने बैठ जाते और तेल के लैंप की रोशनी में रात के एक बजे तकमच्छरों के असह्य डंकों की परवाह न करते हुएपढ़ते रहते। बाहर की सब सुध-बुध भुला कर भगवान् के ध्यान में निमग्न एक योगी की तरहअपनी पुस्तक पर दृष्टि जमायेज्यों का त्योंमैं उन्हें घंटोंलगातार वहीं बैठे देखता था। यदि मकान में आग भी लग जाती तो वह ध्यान भंग न होता।’ अँग्रेजीरूसीजर्मनफ्रेंचसभी भाषाओं के उपन्यासऔर फिर अधिकाधिक भारत के धर्मग्रंथउपनिषद् गीतारामायणसब एक के बाद एकइसी प्रकार अध्ययन में चलते जाते थेजबकि किसी मंदिर में उन्होंने कभी पग धरा हो तो केवल दर्शक की भांतिअन्यथा नहीं। उनके एक साथी वर्णन करते हैं, ‘एक दिन श्री अरविन्द कॉलेज से वापिस आकर बैठेयों ही एक किताब उठाई और पढऩे लगेजबकि क. और कुछ अन्य मित्र शतरंज की बाजी लगाये खूब शोर मचा रहे थे। यदि वे एक सौ पृष्ठ आधे घंटे में पढ़ लेने की क्षमता रखते थेतो क्या आश्चर्य है कि वे पेटी भर किताबें इतने कम समय में पढ़ लेते हों कि विश्वास आना कठिन है! 

                      

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