प्रो. उमेश कुमार सिंह
मानवाधिकार और महिलाएँ : वैदिक और आधुनिक सन्दर्भ- एक विश्लेषण
सारांश: महिला सशक्तिकरण शब्द का तात्पर्य यहाँ सभी उम्र की औरतों और बच्चियों की स्वतंत्रता एवं व्यक्तित्व की पहचान से है। इनके अधिकारों को किसी भी संस्थागत नियमों, समाज के नियमों, रीतिरिवाजों से सुरक्षित रखना है। वस्तुत: मानवाधिकार द्वारा महिलाओं के अधिकारों के सुरक्षा के लिए भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक सभी प्रकार की सीमाओं से बाहर रख कर देखने का प्रयत्न है। और यह बिना पुरुष और महिलाओं के साहसिक आचरण के सम्भव नहीं है। इसके साथ ही विश्व की सभी संस्थाओं, देशों की सरकारों को मानवाधिकार को बनाए रखना है। राजसत्ता का यह कतव्र्य होता है कि वह अपने अधीनस्थ संस्थाओं के माध्यम से महिलाओं के मानवाधिकार की सुरक्षा करे तथा अपने पुलिस और सशस्त्र बल से महिलाओं के उत्पीडऩ को रोकें। साथ ही समाज का जागरण हो जिसमें मूल्यों का संरक्षण एवं परम्परा का काल की माँग के आधार पर बोध हो। शोध आलेख में पाश्चत्य से लेकर भारतीय परम्परा तक का विहंगम अवलोकन और उसके निष्कर्ष देने का प्रयत्न है। सशक्तिकरण मात्र भौतिक नहीं नैतिक और आध्यात्मिक भी होना है। यही भविष्य की माँग तथा अध्ययन का निष्कर्ष है।
उद्देश्य- जिस प्रकार ग्रीस मन या आधुनिक यूरोपियन मन, जीवन तथा सत्ता की सब पवित्र समस्याओं का समाधान बाह््य जगत की खोज करके पाना चाहता है, वैसे ही हमारे पुरखों ने किया था और ठीक जैसे यूरोपियन असफल हुए, वे भी असफल रहे। किन्तु पश्चिम के लोग आगे नहीं बढ़े, वहीं रह गये, वे बाह्य जगत में जीवन और मृत्यु की महान समस्याओं का समाधन खोज निकालने में असफल रहे। हमारे पुरखों को भी यह असम्भव लगा, किन्तु समाधान पाने में, इन्द्रियों की नितान्त लाचारी घोषित करने में वे अधिक साहसी निकले। उपनिषदों ने कहा- ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।’ अर्थात् पहुँच न सकने पर वाणी मन सहित लौट पड़ती है- (तैतरीय उपनिषद 2-4)। कई वाक्य हैं जो इन्द्रियों की नितान्त लाचारी घोषित करते हैं किन्तु वे वहाँ नहीं रुके, उन्होंने मनुष्य की अन्त:प्रकृति का आसरा लिया। अपनी आत्मा से उत्तर माँगा और अन्तर्मुखी बन गये। निरर्थक जानकर बाह्य प्रकृति की खोज छोड़ी दी। क्योंकि उन्होंने खोज निकाला कि अचेतन जड़ प्रकृति से उन्हें सत्य प्राप्त नहीं होगा और उन्होंने मनुष्य की दिव्य आत्मा का आसरा लिया, और वहाँ समाधान मिला। स्वामी विवेकानन्द जी का यह उपनिषदों के सन्देश से प्राप्त निष्कर्ष ही आज महिला सशक्तिकरण का आधार है। सम्पूर्ण नारी के उत्थान के लिए अनेक प्रयत्न चल रहे हैं किन्तु मात्र भौतिकता के उत्कर्ष का आधार ही अन्तिम उत्कर्ष है यह मानकर जब-जब समाधान पाने का प्रयत्न किया गया हम असफल दिखे। इस शोध आलेख में यह जानने का प्रयत्न है कि क्या भौतिकता और आध्यत्मिकता के योग से हम एक सशक्तनारी का निर्माण कर सकते हैं।
सशक्तिकरण शब्द- उपनिषदों ने शक्ति की खोज को आदिम इच्छा माना और इसके लिए निरन्तर प्रयत्न किया है। उपनिषदों के निष्कर्ष को समझाते हुए विवेकानन्द जी कहते हैं- उपनिषदों की भाषा और भाव की गति सरल है, उनकी प्रत्येक बात तलवार की धार के समान, हथौड़े की चोट के समान साक्षात् भाव से हृदय में आघात करती है। उनका अर्थ समझने में कोई भूल होने की सम्भावना नहीं - उस संगीत के प्रत्येक सुर में शक्ति है, और वह हृदय पर पूरा असर करती है। उनमें अस्पष्टता नहीं, असम्बद्ध कथन नहीं, किस प्रकार की जटिलता नहंी, जिससे दिमाग घूम जाय। उनमें अवनति के चिन्ह नहीं है, अन्योक्तियों द्वारा वर्णन की भी ज्यादा चेष्टा नहीं की गयी है ........ उपनिषदों का प्रत्येक पृष्ठ मुझे शक्ति का सन्देश देता है। यह विषय विशेष रूप से स्मरण रखने योग्य है, समस्त जीवन में मैंने यही महाशिक्षा प्राप्त की है - उपनिषद कहते हैं, हे मानव, तेजस्वी बनों, वीर्यवान बनो, दुर्बलता को त्यागो।
तथ्य और विश्लेषण:
महिलाओं के अधिकार- महिला अर्थात सभी प्रकार की स्त्रियाँ, बच्चियाँ जिन्हें किसी भी प्रकार के जाति या आर्थिक आधार पर विभाजित नहीं किया जा सकता। यहाँ मानवाधिकार और महिलाओं का सम्बन्ध न केवल उनके शारीरिक शोषण की सुरक्षा की गारंटी स्थापित करना है वरन उनके सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासकीय कार्यों में उनकी दक्षाता, क्षमता को सुरक्षित और संरक्षित रखना भी है। ध्यान रहे यह करते समय किसी भी पुरुष, संस्था और सरकार को यह नहीं लगना चाहिए कि वह किसी भी प्रकार से महिलाओं पर कृपा या दया कर रहा है। अथवा महिलाएं निरीह हैं इसलिए सुरक्षा दे रहा है। मेधा से लेकर शारीरिक श्रम तक किसी भी प्रकार की छमता में हीन भाव का प्रदर्शन पुरुषोचित समाज द्वारा किया जाना महिलाओं को सशक्त न बनाने का कदम है। साथ ही इसका दूसरा पक्ष भी है जो महिला को सशक्त बनाता है वह है आध्यात्मिक पक्ष। शोध आलेख में इस बिन्दु को भी लिया जा रहा है।
इतिहास- डॉ. जमाल ए बाडविन कहते हैं- ‘‘वर्तमान सदी में जो अधिकार और सम्मान महिलाओं ने प्राप्त किया है वह पुरुषों के किसी कृपा का परिणाम नहीं है,बल्कि यह महिलाओं के एक लम्बे संघर्ष और समर्पण का परिणाम है। विशेष रूप से इन दो महायुद्धों के बीच में यह उनकी समाज की वह हिस्सेदारी का परिणाम है जो समाज की अपेक्षा में उन्होंने अपनी भूमिका का निर्वहन किया है। इसके साथ ही इसमें तकनीकी परिवर्तन का भी योगदान है।’’1
प्राचीन सभ्यता और औरत-
(क) भारत में महिला-
वैदिक युग और भारतीय महिलाएं- ऋग्वेद कहता है- ‘नारी ही घर है’। अथर्ववेद कहता है- ‘नववधू, तू जिस घर में जा रही है, वहाँ की तू साम्राज्ञी है। तेरे ससुर, सास, देवर व अन्य तुझे साम्राज्ञी समझते हुए तेरे शासन में आनन्दित हैं।’ यजुर्वेद से स्पष्ट होता है कि नारी को संध्या करने तथा उपनयन संस्कार के अधिकार प्राप्त थी। इस काल में महिला को शिक्षा एवं साहित्य के अध्ययन करने की पुरुषों के समान स्वतंत्रता थी। पी.एन.प्रभु के अनुसार- ‘‘जहाँ तक शिक्षा का सम्बन्ध था, स्त्री-पुरुष में कोई विशेष भेद नहीं था और इस युग में दोनों की सामाजिक स्थिति समान रूप से महत्वपूर्ण थी। विधवाओं को अपने देवर से विवाह का अवसर था। पुत्रों की कामना की गई किन्तु कन्याओं के न प्राप्त करने का कोई उल्लेख नहींं।’’
उत्तर वैदिक काल- उत्तर वैदिक काल में कर्मकाण्ड की जटिलता, उच्चारण की शुद्धता आदि ने महिलाओं को धार्मिक और आध्यात्मिक कार्यों से दूर रखा। दूसरा कारण अन्तर्जातीय विवाह तथा बहुपत्नी प्रथा। जिसने सैद्धान्तिक रूप से महिलाओं के अधिकारों पर पावन्दी लगा दी। सामान्यत: धर्मशास्त्र का काल तीसरी शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं सदी तक के पूर्वाद्र्ध तक को माना जाता है। इस काल में संहिता और स्मृतियों की रचना हुईं। जिनमें पाराशर-संहिता एवं याज्ञवल्क्य संहिता, मनुस्मृति आदि हैं। जिनमें वैदिक नियमों को तिलांज्जलि दी गई। वैदिक काल की वह नारी जो अपने प्रबल व्यक्तित्व के द्वारा देश के साहित्य और समाज के आदर्शों को प्रभावित करती थी, अब परतन्त्र, पराधीन और निस्सहाय और निर्बल बन चुकी थी। पति स्त्री का देवता बन गया। मनुस्मृति ने कहा- ‘‘नारी कभी स्वतंत्र रहने योग्य नहीं है, बचपन में पिता के अधिकार में, युवावस्था में पति के वश में तथा वृद्धावस्था में पुत्र के नियंत्रण में रहे।’’ मनुस्मृति-5-148
प्रो होपकिंस ने लिखा - ‘‘एक स्त्री का पति सर्वरूप से गुणरहित होते हुए भी पूज्य देवता के रूप में मान्य है। वही एकमात्र केन्द्र है, जिसके चिन्तन में एक महिला अपने को नियोजित करती है, वही उसके जीवन का ताना- बाना है, सर्वस्व है।’’ - रिलीजन्स आफ इण्डिया, 370
मध्यकालीन काल - इस युग में इस्लामिक शासन में महिला की सबसे अधिक दुर्गति हुई। सतीप्रथा, बहुविवाह प्रथा आदि आये। यह अवश्य हुआ कि जिसके भाई नहीं होता था उस बहन को सम्पति का अधिकार मिलने लगा। भारत में प्राचीन काल में महिलाए सभी क्षेत्रों में पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थी। भारतीय शास्त्रों में लिखा है कि महिलाएं सभी क्षेत्रों में चाहे वह शास्त्र ज्ञान की बात हो या शस्त्र ज्ञान की दोनों में बराबर की अधिकारिणी थी।
भारत में प्राचीन काल में महिलाएं सभी क्षेत्रों में पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थी। भारतीय शास्त्रों में लिखा है कि महिलाएं सभी क्षेत्रों में चाहे वह शास्त्र ज्ञान की बात हो या शस्त्र ज्ञान की दोनों में बराबर की अधिकारिणी थी। वृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य की आध्यात्मिक पत्नी मैत्रेयी तथा वाचकनवी गार्गी जो एक प्रतिभा सम्पन्न वक्ता और तत्ववेत्ता महिला मानी जाती थी के साथ अन्य विवरणों में विदुला, अपाला, अनुसुइया, सीता, सावित्री जैसी महिलाओं की एक लम्बी कतार मिलती है, जिनका जीवन समर्पण, त्याग और विद्वता का प्रत्यक्ष उदाहरण रहा है। वैदिक काल में वर्णन आता है कि- आदिम काल में स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध स्थिर नहीं था। स्त्रियाँ स्वतंत्र थी। वे किसी के साथ रह सकती थी। किन्तु वैदिक काल आते-आते विवाह की मर्यादा पूरी तरह स्थापित हो चुकी थी। विवाह के समय वर ओर कन्या दोनों प्रौढ़ होते थे। पर्दा प्रथा का अभाव था जिससे वर-वधू के चयन की स्वतत्रंता थी और उसके लिए यज्ञों, उत्सवों, मेलों और दूसरे सामाजिक अवसरों का उपयोग किया जाता था। ऋग्वेद में अनेक जगह जो वर्णन आता है उससे प्रौढ़ विवाह की पुष्टि होती है। यथा- अविवाहित घोघा का अपने पितृगृह में प्रौढ़ होना, मेलों के अवसर पर प्रेमियों को आकृष्ट करने के लिए कुमारियों द्वारा आभूषण धारण करना, एक नवयुवक का एक कुमारी से प्रेमाचार, विवाह के उपरान्त पति-पत्नी का सहवास आदि सभी तथ्य हैं। समाज में स्त्रियों की स्थिति इससे ही समझा जा सकता है कि एक विवाह प्रथा प्रचलित थी। सम्पूर्ण वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति बहुत अच्छी थी। कन्या, माता और स्त्री के रूप में उसकी प्रतिष्ठा थी। घोघा, लोपमुद्रा, जुहू, विश्ववारा, उर्वशी आदि वैदिक स्त्रियों की संख्या ऋषियों के रूप में होती थी। महलों में उसकी स्थिति साम्राज्ञी के रूप में थी तथा वह रणभूमि में भी रण कुशल समझी जाती थी। वैदिक काल की तत्वज्ञानी स्त्री उर्वशी कामदग्ध पुरुरवा को कहती है- पुरुरवा मरो मत, नष्ट मत होओ, निर्दय भेडिय़ों के भक्ष्य मत बनों। स्त्री की मित्रता कभी स्थायी नहीं होती, उसका हृदय वृक के समान होता है।
इसी तरह शिकागों की सर्वधर्म सभा में उपनिषदों की महत्ता बतलाते हुए स्वामी विवेकानन्द जी भारतीय महिलाओं की विशेषता को उजागर करते हैं- ‘‘कदाचित श्रोताओं को यह हास्यास्पद मालूम पड़े कि एक पुस्तक अनादि और अनन्त कैसे हो सकती है। किन्तु वेदों से अभिप्राय पुस्तक का नहीं है। उनका अर्थ है, विभिन्न कालों में, विभिन्न पुरुषों द्वारा अविष्कृत आध्यात्मिक तत्वों का संचित खजाना। विभिन्न कालों में, विभिन्न पुरूषों द्वारा अविष्कृत आध्यात्मिक तत्वों का संचित खजाना। जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण का नियम, उसकी खोज से पहले भी था और समस्त मानवता उसे भुला दे, तो भी विद्यमान रहेगा, इसी प्रकार आध्यात्मिक जगत के नियम भी है। जीवों-जीवों के बीच, और सब जीवों के पिता के बीच, नैतिक सम्बन्ध, सदाचार और आध्यात्मिक सम्बन्ध उनकी खोज से पहले भी थे और उन्हें यदि हम भूल जाये तो भी रहेंगे।..........इन सिद्धान्तों के आविष्कारक, ऋषि कहलाते हैं, और हम उनको सिद्ध पुरुष मानकर उनका आदर करते हैं। इन श्रेाताओं को मुझे यह बताते हुए हर्ष होता है, कि इनमें से कुछ महत्तम महिलाएं थी।’’
महाभारत काल और महिलाएँ- महाभारत काल में चार आश्रमों का अस्तित्व था। इनमें गृहस्थ आश्रम को सबसे अधिक मान्यता थी। और उसमें स्त्रियों की महती भूमिका थी। परिवार संस्था का बड़ा ही महत्व था। इसे सुरक्षित रखने के लिए स्त्री नियोग पद्धति का प्रयोग कर सकती थी। स्त्री को अपने जीवन में नवीन प्रयोग करने का अधिकार था। यदि किसी का पति रुग्ण या नपुसंक है तो ही यह व्यवस्था मान्य थी। कुन्ती इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। वह पञ्चकन्याओं और साध्वी स्त्रियों में गिनी जाती थी। महाभारत में आठों प्रकार के विवाह की परम्परा थी - ब्राह्म, आर्ष, प्रजापात्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच। दुष्यन्त साकुन्तला का विवाह गान्धर्व विवाह था। कृष्ण रुक्मिणी तथा अर्जुन-सुभद्रा के विवाह हरण के माध्यम से हुए थे इसीलिए इन्हें राक्षस विवाह कहा गया। इन्दुमति और द्रोपदी का विवाह स्वयंवर विवाह था किन्तु इस प्रकार के विवाह में सर्तें रखी जाती थी। इस काल में स्त्री का स्थान ऊँचा था। पाराशर और धीवर कन्या सत्यवती का विवाह, लोमपाद की कन्या शान्ता का ऋषिशृंग से विवाह भी जाति प्रथा को तोडऩे वाले उदाहरण हैं।
पत्नी को अर्थ, धर्म और काम का संरक्षक माना जाता था। सती प्रथा का प्रचलन इस काल में प्राप्त होता है किन्तु इसमें भी जबरदस्ती नहीं थी। माद्री ने सती प्रथा का वरण किया किन्तु कुन्ती बच्चों की सुरक्षा के लिए जीवित रही।
बुद्धकाल में महिलाओं की स्थिति- पुत्रों की तरह पुत्रियों के पालन-पोषण और शिक्षा का ध्यान रखा जाता था। सफल गृहणी होना तथा संगीत एवं कलाप्रियता और उनमें निपुणता ही स्त्रियों के विकास के मापदण्ड थे। विवाह की दोनों परम्पराएं थी जिनमें या तो पिता वर की तलास करता था या कन्या अपना वर स्वंय ढूढ़ लेती थी। सचरित्र स्त्रियों का घर और समाज दोनों में प्रतिष्ठा थी। पर्दा प्रथा नहीं थी किन्तु शील, लज्जा और पुरुषों से थोड़ा आवरण रखना पड़ता था। पहले स्त्रियां भिक्षुणी नहीं होती थी किन्तु बाद में भिक्षुणी और परिव्राजक दोनों रूप मिलते हैं। यहाँ तक कि गणिकाएं और वैश्या का काम करने वाल स्त्रियाँ भी उस समाज में प्राप्त होती हैं।
मौर्यकालीन समाज में स्त्रियों का स्थान काफी ऊँचा था। उन्हें पारिवारिक सम्पति पर अधिकार प्राप्त था। पति से दुव्यवहार पर उनके साथ रहने न रहने का निर्णय प्राप्त था। हाँ महिलाएं स्वतन्त्र तो थी परन्तु बौद्ध भिक्षुणियों और संन्यासिनी की तरह स्व विचार से यहाँ से वहाँ तक विचरने की स्वच्छन्दता नहीं प्राप्त थी। किन्तु कुल मिलाकर सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। मौर्यकालीन समाज में भी नियोग की व्यवस्था थी। यदि कोई राजपुरुष विदेश यात्रा पर गया हो या नपुसंक हो तो स्त्री दूसरा विवाह तो नहीं करती थी किन्तु नियोग पद्यति से पुत्र की प्राप्त कर सकती थी। किन्तु इसमें समाज में अनैतिकता न फैले इसलिए इस व्यवस्था को केवल वंश चलाने के लिए होता था। विवाह विच्छेद या तलाक परम्परा भी थी। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में इसे मोक्ष कहा है। इसमें स्त्री और पुरुष दोनों का यह अधिकार प्राप्त था।
इस्लाम के आधुनिक परिवर्तन- इस्लाम में 610 से 661 के बीच इस बात के काफी प्रयत्न हुए कि महिलाओं को उनके विवाह आदि में महत्वपूर्ण मान्यताएँ दी जाये। 662 ई. में मदीना में इस्लामिक प्रोफेट मोहम्मद साहब द्वारा एक संविधान का खाका तैयार किया गया जिसमें इस्लाम में महिलाओं के सम्मान के लिए विचार किया गया। विलियम मोनटग्मेरी कहते हैं, ‘‘क्या मुझे कोई ऐसा स्वरूप देखने को प्राप्त हो सकता है जो महिलाओं की पूर्णता का साक्षी हो।’’ 2
‘‘मूल रूप से इस्लाम में इसके बाद जो औरतों के लिए विषय सामने आया उसमें उनके सम्मान की बात तो थी ही, महत्वपूर्ण बात यह थी कि औरतों को एक प्राणी के रूप में उनके अस्तित्व को स्वीकार करना। देहज को एक कीमत के रूप में अदा करना पड़ता था जिसे औरत द्वारा उपहार माना जाता था, जो व्यक्तिगत सम्पति थी।’’ 3
इस्लामिक कानून में बहुत दिनों तक महिलाओं के विवाह को च्ह्यह्लड्डह्लह्वह्यज् नहीं माना जाता था बल्कि वह एक तरह का अनुबन्ध था। साथ ही उसमें महिलाओं के मत को मान्यता नहीं दी जाती थी।
‘‘किन्तु बाद में महिलाओं को बड़े कुटुम्बिओं द्वारा वे अधिकार भी महिलओं को दिए गए जो पहले पुरुषों की ओर से पैत्रिक सम्पति के अधिकार के रूप में वर्जित थे।’’4
इस तरह तुलनात्मक दृष्टि से इस्लामिक काल के पूर्व से इस्लामिक काल में महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी हुई। तुलनात्मक दृष्टि से यह भी ध्यान में आता है कि इस्लाम पूर्व की स्थिति से यदि देखा जाय तो औरतों को इस्लामिक कानून में वे अधिकार मुहैया कराये गये जिससे वे पारिवारिक सम्पति और कार्यों में अपनी सहभागिता दे सकें।’’5
मध्यकाल और पश्चिमी महिलाएं- रोम में प्राचीन काल से ही महिलाए स्वतंत्र तथा इस बात के लिए बन्धन मुक्त थी कि वे अपने जीवन साथी को कभी भी यदि उससे उनका रिस्ता मानसिक और सामाजिक स्तर पर ठीक नहीं बैठ रहा तो वे उससे कानूनी तौर पर अलग हो सकती थीं। किन्तु बाद में इनमें भी काफी बन्ध आये।
‘‘किन्तु यह बात भी ध्यान में आती है कि अंगे्रजी कानून के अनुसार, जो बारहवीं शती के आसपास बना, के पूर्व में महिलाएं पुरुषों की दौलत समझी जाती थीं। फ्रेंच की विवाहित औरतें अपने स्वत्व के लिए प्रतिबंन्धित थी जो 1965 में जाकर दूर हुआ।’’6
सोलहवीं शती में यूरोप के सुधार प्रक्रिया के बाद अधिकतम महिलाओं ने अपनी आवाज स्थापित की। जिनमें अंग्रेजी लेखिका छ्वड्डठ्ठद्ग ड्डठ्ठद्दद्गह्म्, ्रद्गद्वद्बद्यड्ड रुड्डठ्ठ4द्गह्म् ड्डठ्ठस्र ह्लद्धद्ग श्चह्म्शश्चद्धद्गह्लद्गह्यह्य ड्डठ्ठठ्ठड्ड ञ्जह्म्ड्डश्चठ्ठद्गद्यद्य हैं। वास्तव में तो अंग्रेजी महिलाओं को उन्नीसवीं सदी के मध्य में अपने अस्तित्व को स्वीकारने का मौका मिला।
फ्रांस और ब्रिटेन में अठरहवीं सदी में एक बहस छिड़ी जिसमें महिलाओं का अधिकार केन्द्र में आया। फे्रंच नाटककार और राजनीतिज्ञ ह्रद्य4द्वश्चद्ग स्रद्ग त्रशह्वद्दद्गह्य ने फ्रेच क्रान्ति के बारे में अपनी पुस्तक -च्ष्ठद्गष्द्यड्डह्म्ड्डह्लद्बशठ्ठ शद्घ ह्लद्धद्ग क्रद्बद्दद्धह्लह्य शद्घ ङ्खशद्वड्डठ्ठ ड्डठ्ठस्र ह्लद्धद्ग स्नद्गद्वड्डद्यद्ग ष्टद्बह्लद्ब5द्गठ्ठज् में लिखा है- ‘‘क्रान्ति तभी सफल हुई जब सभी महिलाएं अपनी वास्तविक स्थिति से अवगत हुईं जिसे वे अपने ही समाज में खो चुकी थीं।’’ 7
पहली बार फ्रेंच में किसी लेख में आया कि- ‘‘महिलाएं भी पुरुषों के समान स्वतंत्र पैदा हुई हैं और उन्हें भी पुरुषों के समान बराबरी के अधिकार हैं। सामाजिक श्रेष्ठता का आधार केवल समान उपयोगिता पर ही निर्भर है।’’8
ह्रद्य4द्वश्चद्ग स्रद्ग त्रशह्वद्दद्गह्य ने अपने निबन्ध में महिला सशक्तीकरण के विषय में आवाज उठाई। सभी नागरिक जिसमें महिलाएं भी साम्मिलित हैं, कार्यालय अथवा सार्वजनिक जीवन में अपनी क्षमता के आधार पर ही स्वीकार्य हैं इसके अतिरिक्त किसी के आंकलन का दूसरा कोई मापदण्ड नहीं है।
ब्रिटिस लेखक और दार्शनिक द्वद्गह्म्4 ङ्खशद्यद्यह्यह्लशठ्ठद्गष्ह्म्ड्डद्घह्ल ने अपनी पुस्तक च्च््र ङ्कद्बठ्ठस्रद्बष्ड्डह्लद्बशठ्ठ शद्घ ह्लद्धद्ग क्रद्बद्दद्धह्लह्य शद्घ ङ्खशद्वड्डठ्ठ द्बठ्ठ १७९२ज्ज् में राइट टू ह््यूमिनिटी की बात की।
उन्नीसवीं सदी और महिलाएं- 1869 में जान स्टुअर्ट मिल ने ब्रिटेन की औरतों की स्थिति का वर्णन करते हुए लिखते हैं- ‘‘हम निरन्तर इस बात को उठाते आ रहे हैं कि सभ्यता और क्रिस्चियनिटी ने औरातों के अधिकारों को दबा के रखा है तथा उनका अधिकर कहीं भी एक नौकर से अधिक नहीं है।’’9
आधुनिक काल में 1960 के दशक में एक आन्दोलन सामने आया जिसे च्च् स्नद्गद्वद्बठ्ठद्बह्यद्वज्ज् शह्म् च्च् 2शद्वद्गठ्ठज्ह्य द्यद्बड्ढद्गह्म्ड्डह्लद्बशठ्ठ.ज्ज् के नाम से जाना गया।
यू.एस.ए में 1966 में च्हृड्डह्लद्बशठ्ठड्डद्य शह्म्द्दड्डठ्ठद्ब5ड्डह्लद्बशठ्ठ द्घशह्म् ङ्खशद्वद्गठ्ठ ज् ( हृह्रङ्ख) की स्थापना हुई। परिणामत: 20वीं शताबदी में यूरोप में महिलाएं महती भूमिका निभाने लगीं। परिणाम यह हुआ कि जहाँ बीसवीं सदी में यूरोप में महिलाएं 20 प्रतिशत महाविद्यालयीन शिक्षा प्राप्त कर रहीं थी और 5 प्रतिशत डॉक्टर थीं वहीं आज प्रापत आंकड़ों के अनुसार 50 से 60 प्रतिशत महिलाएं चिकित्सा के क्षेत्र में हैं।
1947 में यूनाइटेड नेशन ने महिलाओं के उन्नति के लिए एक कमीशन की स्थापना की। एक लेख के अनुसार- ‘1946 में यूनाइटेड नेशन ने महिलाओं के लिए एक कमीशन का गठन किया जिसमें महिलाओं की स्थिति के विचार के लिए, उनके सामाजिक, आर्थिक स्थिति को देखने के लिए मानवाधिकार विभाग में जिसे (श्वष्टह्रस्ह्रष्ट) कहा गया। 1975 के बाद महिलओं के सशक्तिकरण के लिए लगातार सम्मेलन किए गए। जिसमें महिलाओं के अधिकार के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय मंच मिला। जहाँ सांस्कृतिक दृष्टि से विश्व की महिलाओं पर विचार करने की दृष्टि प्राप्त हुई।’ 12
विश£ेषण- मानवाधिकार नामकरण भले ही आज की बात हो लेकिन व्यक्ति के अधिकारों का विचार उतना ही पुराना है जितना की राजनीतिक दर्शन का इतिहास। यूनान के चिन्तकों ने प्राकृतिक कानून की अवधारणा को विकसित किया। सुकरात का कहना था कि निर्णय का आधार यह होना चाहिए कि क्या अच्छा है तथा क्या बुरा। रोमन कानून में व्यक्ति की समानता की बात कही गयी थी। थॉमस एक्वीनास का कहना था कि प्राकृतिक कानून का स्थान सबसे ऊपर है। थॉमस हॉब्स ह्यूगो ग्रेशियस रेन डेसफार्टिस, लेब्रीज फ्रासिस वेकन, जॉन लाक मॅटिस्क्यू, बाल्वेयर, रूसी आदि दार्शनिकों ने अपने-अपने तरीके से व्यक्ति के अधिकारों की चर्चा की।
यद्यपि राजनीतिक चिन्तन की इस धारा में वर्क, डेविडट, ह्यूम, जर्मी बेन्थन, जे एस मिल, फ्रेडरिक कार्ल वॉन सेविगने सर हेरनीमेन, जॉन ऑस्टिन जैसे विद्वान भी आये जिन्होंने व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों का विरोध किया। इसके बावजूद भी मानव अधिकारों की अवधारणा का विकास हुआ। मेग्गा कार्टा (1215), पेटिसन ऑफ राइट (1628), पीस ऑफ वेस्टफेलिया (1648), बिल ऑफ राइट (1689) आदि उद्घोषणाओं ने मानव अधिकारों की अवधारणा को बल प्रदान किया। मावनाधिकारों का प्रथम दस्तावेज सन् 1945 में सेन फ्रांन्सिस्को में अभिस्वीकार किया गया। जिसमेंं उन कारणों को दर्शाया गया जो वे परिस्थितियाँ निर्माण करते हैं जिनके कारण महिलाओं का अपमान होता है, साथ ही उनका शोषण भी।
भारतीय दर्शन में तो व्यक्ति की समानता का उल्लेख हर जगह मिलता है। भारत एक ऐसा देश है जहाँ प्राचीन काल से न केवल मनुष्य बल्कि जीव-जन्तुओं, पेड़-पौधों, नदियों-पहाड़ों में भी एक ही परमात्मा का वास माना है। फिर महिलाओं की उपेक्षा की कल्पना कैसे की जा सकती है। यह वहीं देश हैं जहाँ कहा जाता है- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता। जहाँ नारी का सम्मान होता है वहीं ईश्वर निवास करता है। भारतीय संस्कृति में अस्मिता नारी की धरोहर है। इसी अस्मिता के लिए पुरुष का पिता, भाई, पति के लिए संरक्षण की अवधारणा विकसित हुई। किन्तु जीवन की ऊँची उड़ान की कल्पना, लघुतम मार्ग से सफलता प्राप्त करने के चिन्तन ने इस अस्मिता को चौराहे पर खड़ा कर दिया है। नारी अस्मिता को कभी-कभी हम श£ील-अश£ील के दायरे में बाँध कर इस शब्द को सीमित कर देते हैं और विर्मश के नाम पर एक व्यापक दायरा उजागर करने का प्रयत्न करते हैं। यह भी समझने की बात है। अधिकार कभी कर्तव्य पालन में समाहित था जो नैतिकता का जामा पहने था। आज इसी नैतिक पतन के कारण मूल्यों का हस हो रहा है तथा मानवाधिकार की आवश्यकता समझ में आ रही है। विज्ञापन, मॉडलिंग, फैशन शो, सिनेमा और दूरदर्शन के माध्यम से नारी आज व्यवसाय और आर्थिक संसाधन प्राप्त करने की कठपुतली बन गई है। बाजारवाद में स्त्री देह स्वयं बिकने को तैयार है। कामकाजी महिलाएं दोहरे शिकंजे में फंसती जा रही हैं। वह पुरुष से कंधे से कंधा मिलाकर होड़ में दौडऩा तो चाहती है किन्तु यह भूल जाती है कि जिस पुरुष से वह होड़ कर रही है उसकह्य अस्तित्व को अपने से अधिक बड़ा मान कर पहले ही हार चुकी है। इस प्रकार आज जहाँ वह प्रतिस्पर्धी दिखाई देती है वहीं अपना स्त्रीत्व और मातृत्व के दोनों पद खोती जा रही है। यही संघर्ष का कारण है और आज यहीं सामजस्य बिठाकर चलने की आवश्यकता है। भारतीय चिन्तन में दोनों अन्योनाश्रित हैं।
निष्कर्ष- (क) मानव अधिकार के विचार चार बातों पर आधारित हैं- 1- सभी व्यक्ति जन्मजात रूप से समान हैं।,2- सभी व्यक्ति कानून के समक्ष समान हैं। , 3- सभी को स्वतन्त्रता मिले। , 4- जब तक किसी व्यक्ति का दोष सिद्ध न हो जाय तब तक वह निर्दोष है। मावनाधिकारों का प्रथम दस्तावेज सन् 1945 में सेन फ्रांन्सिस्कों में अभिस्वीकार किया गया।
(ख) विकास बनाम सशक्तिकरण। महिला शिक्षा का अधूरा सच। भ्रूण हत्या। कामकाजी महिलाओं का सशक्तिकरण । महिला राजनीति का स्याह पक्ष। मीडिया-विज्ञापन और अश£ीलता। खुदकुशी को विवश आधी दुनिया। घरों में पलती हिंसा। सरकारी पक्ष। पुरुषों पर आॢथक निर्भरता, कन्यादान का आदर्श। संयुक्त परिवार व्यवस्था का नैतिक क्षरण। बालविवाह। वैवाहिक कुरीतियाँ। बाह्य आक्रमण की अवांक्षित देन।
(ग) समाधान- नैतिक आधार की उच्च शिक्षा, कानूनों का वैश्विक प्रयोग, आर्थिक पक्ष का सन्तुलन, आडम्बर रहित जीवन, परिवार नामक इकाई का दृढ़ीकरण, कुरीतियों को तिलांजलि, परम्पराओं का काल सापेक्ष बोध, साम्प्रदायिक सौहार्द, मानसिक स्तर पर सभी प्रकार की बन्धन मुक्ति, स्वास्थ्य के प्रति चेतना, तार्किकता, अस्मिता की पहचान, स्व का बोध, सेवा और समर्पण जीवन के मूल्य बने, चरित्र्य और नैतिक जीवन दर्शन, मानवीय चेतनाओं का विकास, आध्यात्मिक जीवन, धर्म की सही अवधारणा। सनातन संस्कृति- ‘मातृवत पर दारेषु’ का स्मरण। संक्षेप में कह सकते हैं कि भारतीय नारी की आधुनिक बनने की दौड़ को समाज तभी स्वीकार करेगा जब वह भारतीय संस्कारों तथा मापदण्डों के अनुसार बन कर चलेगी। वस्तुत: भारतीय समाज में वैदिक काल से नारी को जो सम्मान और स्वतंत्रता प्राप्त थी वह दुनिया के किसी भी देश और धर्म की स्त्री को नहीं प्राप्त थी। स्त्री और पुरुष परिवार के दो चक्के माने जाते हैं। कोई भी धार्मिक अनुष्ठान बिना स्त्री के पूर्ण नहीं होता। ‘द्विधा कृत्वात्यनों, देहम धर्मेन पुरूषोड़ भवत् /अर्धेन नारी तस्या स विराजम सृजन प्रम:’। कहा जाता है कि ईश्वर के विराट स्वरूप के दो भाग हैं स्त्री और पुरुष। यह समझौता और वासना तृप्त का साधन नहीं। देह को ‘शरीर आद्यं खलु धर्म साधनम्ं’ कहा गया है। अत: आज स्त्री को जेण्डर से बाहर निकल कर आत्ममुग्धता और अध्र्यसत्य अनुभवों से बाहर निकल कर पुरुषों से बढक़र या पुरुषों से आगे निकल कर कुछ कर सकने की मानसिकता से बाहर आना होगा। बोल्ड लेडी के नाम पर शालीनता की सीमा नहीं लांघी जा सकती। कोमलता, शील और सामंजस्य ही नारी है।
मानवाधिकार और महिलाएँ : वैदिक और आधुनिक सन्दर्भ- एक विश्लेषण
सारांश: महिला सशक्तिकरण शब्द का तात्पर्य यहाँ सभी उम्र की औरतों और बच्चियों की स्वतंत्रता एवं व्यक्तित्व की पहचान से है। इनके अधिकारों को किसी भी संस्थागत नियमों, समाज के नियमों, रीतिरिवाजों से सुरक्षित रखना है। वस्तुत: मानवाधिकार द्वारा महिलाओं के अधिकारों के सुरक्षा के लिए भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक सभी प्रकार की सीमाओं से बाहर रख कर देखने का प्रयत्न है। और यह बिना पुरुष और महिलाओं के साहसिक आचरण के सम्भव नहीं है। इसके साथ ही विश्व की सभी संस्थाओं, देशों की सरकारों को मानवाधिकार को बनाए रखना है। राजसत्ता का यह कतव्र्य होता है कि वह अपने अधीनस्थ संस्थाओं के माध्यम से महिलाओं के मानवाधिकार की सुरक्षा करे तथा अपने पुलिस और सशस्त्र बल से महिलाओं के उत्पीडऩ को रोकें। साथ ही समाज का जागरण हो जिसमें मूल्यों का संरक्षण एवं परम्परा का काल की माँग के आधार पर बोध हो। शोध आलेख में पाश्चत्य से लेकर भारतीय परम्परा तक का विहंगम अवलोकन और उसके निष्कर्ष देने का प्रयत्न है। सशक्तिकरण मात्र भौतिक नहीं नैतिक और आध्यात्मिक भी होना है। यही भविष्य की माँग तथा अध्ययन का निष्कर्ष है।
उद्देश्य- जिस प्रकार ग्रीस मन या आधुनिक यूरोपियन मन, जीवन तथा सत्ता की सब पवित्र समस्याओं का समाधान बाह््य जगत की खोज करके पाना चाहता है, वैसे ही हमारे पुरखों ने किया था और ठीक जैसे यूरोपियन असफल हुए, वे भी असफल रहे। किन्तु पश्चिम के लोग आगे नहीं बढ़े, वहीं रह गये, वे बाह्य जगत में जीवन और मृत्यु की महान समस्याओं का समाधन खोज निकालने में असफल रहे। हमारे पुरखों को भी यह असम्भव लगा, किन्तु समाधान पाने में, इन्द्रियों की नितान्त लाचारी घोषित करने में वे अधिक साहसी निकले। उपनिषदों ने कहा- ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।’ अर्थात् पहुँच न सकने पर वाणी मन सहित लौट पड़ती है- (तैतरीय उपनिषद 2-4)। कई वाक्य हैं जो इन्द्रियों की नितान्त लाचारी घोषित करते हैं किन्तु वे वहाँ नहीं रुके, उन्होंने मनुष्य की अन्त:प्रकृति का आसरा लिया। अपनी आत्मा से उत्तर माँगा और अन्तर्मुखी बन गये। निरर्थक जानकर बाह्य प्रकृति की खोज छोड़ी दी। क्योंकि उन्होंने खोज निकाला कि अचेतन जड़ प्रकृति से उन्हें सत्य प्राप्त नहीं होगा और उन्होंने मनुष्य की दिव्य आत्मा का आसरा लिया, और वहाँ समाधान मिला। स्वामी विवेकानन्द जी का यह उपनिषदों के सन्देश से प्राप्त निष्कर्ष ही आज महिला सशक्तिकरण का आधार है। सम्पूर्ण नारी के उत्थान के लिए अनेक प्रयत्न चल रहे हैं किन्तु मात्र भौतिकता के उत्कर्ष का आधार ही अन्तिम उत्कर्ष है यह मानकर जब-जब समाधान पाने का प्रयत्न किया गया हम असफल दिखे। इस शोध आलेख में यह जानने का प्रयत्न है कि क्या भौतिकता और आध्यत्मिकता के योग से हम एक सशक्तनारी का निर्माण कर सकते हैं।
सशक्तिकरण शब्द- उपनिषदों ने शक्ति की खोज को आदिम इच्छा माना और इसके लिए निरन्तर प्रयत्न किया है। उपनिषदों के निष्कर्ष को समझाते हुए विवेकानन्द जी कहते हैं- उपनिषदों की भाषा और भाव की गति सरल है, उनकी प्रत्येक बात तलवार की धार के समान, हथौड़े की चोट के समान साक्षात् भाव से हृदय में आघात करती है। उनका अर्थ समझने में कोई भूल होने की सम्भावना नहीं - उस संगीत के प्रत्येक सुर में शक्ति है, और वह हृदय पर पूरा असर करती है। उनमें अस्पष्टता नहीं, असम्बद्ध कथन नहीं, किस प्रकार की जटिलता नहंी, जिससे दिमाग घूम जाय। उनमें अवनति के चिन्ह नहीं है, अन्योक्तियों द्वारा वर्णन की भी ज्यादा चेष्टा नहीं की गयी है ........ उपनिषदों का प्रत्येक पृष्ठ मुझे शक्ति का सन्देश देता है। यह विषय विशेष रूप से स्मरण रखने योग्य है, समस्त जीवन में मैंने यही महाशिक्षा प्राप्त की है - उपनिषद कहते हैं, हे मानव, तेजस्वी बनों, वीर्यवान बनो, दुर्बलता को त्यागो।
तथ्य और विश्लेषण:
महिलाओं के अधिकार- महिला अर्थात सभी प्रकार की स्त्रियाँ, बच्चियाँ जिन्हें किसी भी प्रकार के जाति या आर्थिक आधार पर विभाजित नहीं किया जा सकता। यहाँ मानवाधिकार और महिलाओं का सम्बन्ध न केवल उनके शारीरिक शोषण की सुरक्षा की गारंटी स्थापित करना है वरन उनके सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासकीय कार्यों में उनकी दक्षाता, क्षमता को सुरक्षित और संरक्षित रखना भी है। ध्यान रहे यह करते समय किसी भी पुरुष, संस्था और सरकार को यह नहीं लगना चाहिए कि वह किसी भी प्रकार से महिलाओं पर कृपा या दया कर रहा है। अथवा महिलाएं निरीह हैं इसलिए सुरक्षा दे रहा है। मेधा से लेकर शारीरिक श्रम तक किसी भी प्रकार की छमता में हीन भाव का प्रदर्शन पुरुषोचित समाज द्वारा किया जाना महिलाओं को सशक्त न बनाने का कदम है। साथ ही इसका दूसरा पक्ष भी है जो महिला को सशक्त बनाता है वह है आध्यात्मिक पक्ष। शोध आलेख में इस बिन्दु को भी लिया जा रहा है।
इतिहास- डॉ. जमाल ए बाडविन कहते हैं- ‘‘वर्तमान सदी में जो अधिकार और सम्मान महिलाओं ने प्राप्त किया है वह पुरुषों के किसी कृपा का परिणाम नहीं है,बल्कि यह महिलाओं के एक लम्बे संघर्ष और समर्पण का परिणाम है। विशेष रूप से इन दो महायुद्धों के बीच में यह उनकी समाज की वह हिस्सेदारी का परिणाम है जो समाज की अपेक्षा में उन्होंने अपनी भूमिका का निर्वहन किया है। इसके साथ ही इसमें तकनीकी परिवर्तन का भी योगदान है।’’1
प्राचीन सभ्यता और औरत-
(क) भारत में महिला-
वैदिक युग और भारतीय महिलाएं- ऋग्वेद कहता है- ‘नारी ही घर है’। अथर्ववेद कहता है- ‘नववधू, तू जिस घर में जा रही है, वहाँ की तू साम्राज्ञी है। तेरे ससुर, सास, देवर व अन्य तुझे साम्राज्ञी समझते हुए तेरे शासन में आनन्दित हैं।’ यजुर्वेद से स्पष्ट होता है कि नारी को संध्या करने तथा उपनयन संस्कार के अधिकार प्राप्त थी। इस काल में महिला को शिक्षा एवं साहित्य के अध्ययन करने की पुरुषों के समान स्वतंत्रता थी। पी.एन.प्रभु के अनुसार- ‘‘जहाँ तक शिक्षा का सम्बन्ध था, स्त्री-पुरुष में कोई विशेष भेद नहीं था और इस युग में दोनों की सामाजिक स्थिति समान रूप से महत्वपूर्ण थी। विधवाओं को अपने देवर से विवाह का अवसर था। पुत्रों की कामना की गई किन्तु कन्याओं के न प्राप्त करने का कोई उल्लेख नहींं।’’
उत्तर वैदिक काल- उत्तर वैदिक काल में कर्मकाण्ड की जटिलता, उच्चारण की शुद्धता आदि ने महिलाओं को धार्मिक और आध्यात्मिक कार्यों से दूर रखा। दूसरा कारण अन्तर्जातीय विवाह तथा बहुपत्नी प्रथा। जिसने सैद्धान्तिक रूप से महिलाओं के अधिकारों पर पावन्दी लगा दी। सामान्यत: धर्मशास्त्र का काल तीसरी शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं सदी तक के पूर्वाद्र्ध तक को माना जाता है। इस काल में संहिता और स्मृतियों की रचना हुईं। जिनमें पाराशर-संहिता एवं याज्ञवल्क्य संहिता, मनुस्मृति आदि हैं। जिनमें वैदिक नियमों को तिलांज्जलि दी गई। वैदिक काल की वह नारी जो अपने प्रबल व्यक्तित्व के द्वारा देश के साहित्य और समाज के आदर्शों को प्रभावित करती थी, अब परतन्त्र, पराधीन और निस्सहाय और निर्बल बन चुकी थी। पति स्त्री का देवता बन गया। मनुस्मृति ने कहा- ‘‘नारी कभी स्वतंत्र रहने योग्य नहीं है, बचपन में पिता के अधिकार में, युवावस्था में पति के वश में तथा वृद्धावस्था में पुत्र के नियंत्रण में रहे।’’ मनुस्मृति-5-148
प्रो होपकिंस ने लिखा - ‘‘एक स्त्री का पति सर्वरूप से गुणरहित होते हुए भी पूज्य देवता के रूप में मान्य है। वही एकमात्र केन्द्र है, जिसके चिन्तन में एक महिला अपने को नियोजित करती है, वही उसके जीवन का ताना- बाना है, सर्वस्व है।’’ - रिलीजन्स आफ इण्डिया, 370
मध्यकालीन काल - इस युग में इस्लामिक शासन में महिला की सबसे अधिक दुर्गति हुई। सतीप्रथा, बहुविवाह प्रथा आदि आये। यह अवश्य हुआ कि जिसके भाई नहीं होता था उस बहन को सम्पति का अधिकार मिलने लगा। भारत में प्राचीन काल में महिलाए सभी क्षेत्रों में पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थी। भारतीय शास्त्रों में लिखा है कि महिलाएं सभी क्षेत्रों में चाहे वह शास्त्र ज्ञान की बात हो या शस्त्र ज्ञान की दोनों में बराबर की अधिकारिणी थी।
भारत में प्राचीन काल में महिलाएं सभी क्षेत्रों में पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थी। भारतीय शास्त्रों में लिखा है कि महिलाएं सभी क्षेत्रों में चाहे वह शास्त्र ज्ञान की बात हो या शस्त्र ज्ञान की दोनों में बराबर की अधिकारिणी थी। वृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य की आध्यात्मिक पत्नी मैत्रेयी तथा वाचकनवी गार्गी जो एक प्रतिभा सम्पन्न वक्ता और तत्ववेत्ता महिला मानी जाती थी के साथ अन्य विवरणों में विदुला, अपाला, अनुसुइया, सीता, सावित्री जैसी महिलाओं की एक लम्बी कतार मिलती है, जिनका जीवन समर्पण, त्याग और विद्वता का प्रत्यक्ष उदाहरण रहा है। वैदिक काल में वर्णन आता है कि- आदिम काल में स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध स्थिर नहीं था। स्त्रियाँ स्वतंत्र थी। वे किसी के साथ रह सकती थी। किन्तु वैदिक काल आते-आते विवाह की मर्यादा पूरी तरह स्थापित हो चुकी थी। विवाह के समय वर ओर कन्या दोनों प्रौढ़ होते थे। पर्दा प्रथा का अभाव था जिससे वर-वधू के चयन की स्वतत्रंता थी और उसके लिए यज्ञों, उत्सवों, मेलों और दूसरे सामाजिक अवसरों का उपयोग किया जाता था। ऋग्वेद में अनेक जगह जो वर्णन आता है उससे प्रौढ़ विवाह की पुष्टि होती है। यथा- अविवाहित घोघा का अपने पितृगृह में प्रौढ़ होना, मेलों के अवसर पर प्रेमियों को आकृष्ट करने के लिए कुमारियों द्वारा आभूषण धारण करना, एक नवयुवक का एक कुमारी से प्रेमाचार, विवाह के उपरान्त पति-पत्नी का सहवास आदि सभी तथ्य हैं। समाज में स्त्रियों की स्थिति इससे ही समझा जा सकता है कि एक विवाह प्रथा प्रचलित थी। सम्पूर्ण वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति बहुत अच्छी थी। कन्या, माता और स्त्री के रूप में उसकी प्रतिष्ठा थी। घोघा, लोपमुद्रा, जुहू, विश्ववारा, उर्वशी आदि वैदिक स्त्रियों की संख्या ऋषियों के रूप में होती थी। महलों में उसकी स्थिति साम्राज्ञी के रूप में थी तथा वह रणभूमि में भी रण कुशल समझी जाती थी। वैदिक काल की तत्वज्ञानी स्त्री उर्वशी कामदग्ध पुरुरवा को कहती है- पुरुरवा मरो मत, नष्ट मत होओ, निर्दय भेडिय़ों के भक्ष्य मत बनों। स्त्री की मित्रता कभी स्थायी नहीं होती, उसका हृदय वृक के समान होता है।
इसी तरह शिकागों की सर्वधर्म सभा में उपनिषदों की महत्ता बतलाते हुए स्वामी विवेकानन्द जी भारतीय महिलाओं की विशेषता को उजागर करते हैं- ‘‘कदाचित श्रोताओं को यह हास्यास्पद मालूम पड़े कि एक पुस्तक अनादि और अनन्त कैसे हो सकती है। किन्तु वेदों से अभिप्राय पुस्तक का नहीं है। उनका अर्थ है, विभिन्न कालों में, विभिन्न पुरुषों द्वारा अविष्कृत आध्यात्मिक तत्वों का संचित खजाना। विभिन्न कालों में, विभिन्न पुरूषों द्वारा अविष्कृत आध्यात्मिक तत्वों का संचित खजाना। जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण का नियम, उसकी खोज से पहले भी था और समस्त मानवता उसे भुला दे, तो भी विद्यमान रहेगा, इसी प्रकार आध्यात्मिक जगत के नियम भी है। जीवों-जीवों के बीच, और सब जीवों के पिता के बीच, नैतिक सम्बन्ध, सदाचार और आध्यात्मिक सम्बन्ध उनकी खोज से पहले भी थे और उन्हें यदि हम भूल जाये तो भी रहेंगे।..........इन सिद्धान्तों के आविष्कारक, ऋषि कहलाते हैं, और हम उनको सिद्ध पुरुष मानकर उनका आदर करते हैं। इन श्रेाताओं को मुझे यह बताते हुए हर्ष होता है, कि इनमें से कुछ महत्तम महिलाएं थी।’’
महाभारत काल और महिलाएँ- महाभारत काल में चार आश्रमों का अस्तित्व था। इनमें गृहस्थ आश्रम को सबसे अधिक मान्यता थी। और उसमें स्त्रियों की महती भूमिका थी। परिवार संस्था का बड़ा ही महत्व था। इसे सुरक्षित रखने के लिए स्त्री नियोग पद्धति का प्रयोग कर सकती थी। स्त्री को अपने जीवन में नवीन प्रयोग करने का अधिकार था। यदि किसी का पति रुग्ण या नपुसंक है तो ही यह व्यवस्था मान्य थी। कुन्ती इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। वह पञ्चकन्याओं और साध्वी स्त्रियों में गिनी जाती थी। महाभारत में आठों प्रकार के विवाह की परम्परा थी - ब्राह्म, आर्ष, प्रजापात्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच। दुष्यन्त साकुन्तला का विवाह गान्धर्व विवाह था। कृष्ण रुक्मिणी तथा अर्जुन-सुभद्रा के विवाह हरण के माध्यम से हुए थे इसीलिए इन्हें राक्षस विवाह कहा गया। इन्दुमति और द्रोपदी का विवाह स्वयंवर विवाह था किन्तु इस प्रकार के विवाह में सर्तें रखी जाती थी। इस काल में स्त्री का स्थान ऊँचा था। पाराशर और धीवर कन्या सत्यवती का विवाह, लोमपाद की कन्या शान्ता का ऋषिशृंग से विवाह भी जाति प्रथा को तोडऩे वाले उदाहरण हैं।
पत्नी को अर्थ, धर्म और काम का संरक्षक माना जाता था। सती प्रथा का प्रचलन इस काल में प्राप्त होता है किन्तु इसमें भी जबरदस्ती नहीं थी। माद्री ने सती प्रथा का वरण किया किन्तु कुन्ती बच्चों की सुरक्षा के लिए जीवित रही।
बुद्धकाल में महिलाओं की स्थिति- पुत्रों की तरह पुत्रियों के पालन-पोषण और शिक्षा का ध्यान रखा जाता था। सफल गृहणी होना तथा संगीत एवं कलाप्रियता और उनमें निपुणता ही स्त्रियों के विकास के मापदण्ड थे। विवाह की दोनों परम्पराएं थी जिनमें या तो पिता वर की तलास करता था या कन्या अपना वर स्वंय ढूढ़ लेती थी। सचरित्र स्त्रियों का घर और समाज दोनों में प्रतिष्ठा थी। पर्दा प्रथा नहीं थी किन्तु शील, लज्जा और पुरुषों से थोड़ा आवरण रखना पड़ता था। पहले स्त्रियां भिक्षुणी नहीं होती थी किन्तु बाद में भिक्षुणी और परिव्राजक दोनों रूप मिलते हैं। यहाँ तक कि गणिकाएं और वैश्या का काम करने वाल स्त्रियाँ भी उस समाज में प्राप्त होती हैं।
मौर्यकालीन समाज में स्त्रियों का स्थान काफी ऊँचा था। उन्हें पारिवारिक सम्पति पर अधिकार प्राप्त था। पति से दुव्यवहार पर उनके साथ रहने न रहने का निर्णय प्राप्त था। हाँ महिलाएं स्वतन्त्र तो थी परन्तु बौद्ध भिक्षुणियों और संन्यासिनी की तरह स्व विचार से यहाँ से वहाँ तक विचरने की स्वच्छन्दता नहीं प्राप्त थी। किन्तु कुल मिलाकर सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। मौर्यकालीन समाज में भी नियोग की व्यवस्था थी। यदि कोई राजपुरुष विदेश यात्रा पर गया हो या नपुसंक हो तो स्त्री दूसरा विवाह तो नहीं करती थी किन्तु नियोग पद्यति से पुत्र की प्राप्त कर सकती थी। किन्तु इसमें समाज में अनैतिकता न फैले इसलिए इस व्यवस्था को केवल वंश चलाने के लिए होता था। विवाह विच्छेद या तलाक परम्परा भी थी। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में इसे मोक्ष कहा है। इसमें स्त्री और पुरुष दोनों का यह अधिकार प्राप्त था।
इस्लाम के आधुनिक परिवर्तन- इस्लाम में 610 से 661 के बीच इस बात के काफी प्रयत्न हुए कि महिलाओं को उनके विवाह आदि में महत्वपूर्ण मान्यताएँ दी जाये। 662 ई. में मदीना में इस्लामिक प्रोफेट मोहम्मद साहब द्वारा एक संविधान का खाका तैयार किया गया जिसमें इस्लाम में महिलाओं के सम्मान के लिए विचार किया गया। विलियम मोनटग्मेरी कहते हैं, ‘‘क्या मुझे कोई ऐसा स्वरूप देखने को प्राप्त हो सकता है जो महिलाओं की पूर्णता का साक्षी हो।’’ 2
‘‘मूल रूप से इस्लाम में इसके बाद जो औरतों के लिए विषय सामने आया उसमें उनके सम्मान की बात तो थी ही, महत्वपूर्ण बात यह थी कि औरतों को एक प्राणी के रूप में उनके अस्तित्व को स्वीकार करना। देहज को एक कीमत के रूप में अदा करना पड़ता था जिसे औरत द्वारा उपहार माना जाता था, जो व्यक्तिगत सम्पति थी।’’ 3
इस्लामिक कानून में बहुत दिनों तक महिलाओं के विवाह को च्ह्यह्लड्डह्लह्वह्यज् नहीं माना जाता था बल्कि वह एक तरह का अनुबन्ध था। साथ ही उसमें महिलाओं के मत को मान्यता नहीं दी जाती थी।
‘‘किन्तु बाद में महिलाओं को बड़े कुटुम्बिओं द्वारा वे अधिकार भी महिलओं को दिए गए जो पहले पुरुषों की ओर से पैत्रिक सम्पति के अधिकार के रूप में वर्जित थे।’’4
इस तरह तुलनात्मक दृष्टि से इस्लामिक काल के पूर्व से इस्लामिक काल में महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी हुई। तुलनात्मक दृष्टि से यह भी ध्यान में आता है कि इस्लाम पूर्व की स्थिति से यदि देखा जाय तो औरतों को इस्लामिक कानून में वे अधिकार मुहैया कराये गये जिससे वे पारिवारिक सम्पति और कार्यों में अपनी सहभागिता दे सकें।’’5
मध्यकाल और पश्चिमी महिलाएं- रोम में प्राचीन काल से ही महिलाए स्वतंत्र तथा इस बात के लिए बन्धन मुक्त थी कि वे अपने जीवन साथी को कभी भी यदि उससे उनका रिस्ता मानसिक और सामाजिक स्तर पर ठीक नहीं बैठ रहा तो वे उससे कानूनी तौर पर अलग हो सकती थीं। किन्तु बाद में इनमें भी काफी बन्ध आये।
‘‘किन्तु यह बात भी ध्यान में आती है कि अंगे्रजी कानून के अनुसार, जो बारहवीं शती के आसपास बना, के पूर्व में महिलाएं पुरुषों की दौलत समझी जाती थीं। फ्रेंच की विवाहित औरतें अपने स्वत्व के लिए प्रतिबंन्धित थी जो 1965 में जाकर दूर हुआ।’’6
सोलहवीं शती में यूरोप के सुधार प्रक्रिया के बाद अधिकतम महिलाओं ने अपनी आवाज स्थापित की। जिनमें अंग्रेजी लेखिका छ्वड्डठ्ठद्ग ड्डठ्ठद्दद्गह्म्, ्रद्गद्वद्बद्यड्ड रुड्डठ्ठ4द्गह्म् ड्डठ्ठस्र ह्लद्धद्ग श्चह्म्शश्चद्धद्गह्लद्गह्यह्य ड्डठ्ठठ्ठड्ड ञ्जह्म्ड्डश्चठ्ठद्गद्यद्य हैं। वास्तव में तो अंग्रेजी महिलाओं को उन्नीसवीं सदी के मध्य में अपने अस्तित्व को स्वीकारने का मौका मिला।
फ्रांस और ब्रिटेन में अठरहवीं सदी में एक बहस छिड़ी जिसमें महिलाओं का अधिकार केन्द्र में आया। फे्रंच नाटककार और राजनीतिज्ञ ह्रद्य4द्वश्चद्ग स्रद्ग त्रशह्वद्दद्गह्य ने फ्रेच क्रान्ति के बारे में अपनी पुस्तक -च्ष्ठद्गष्द्यड्डह्म्ड्डह्लद्बशठ्ठ शद्घ ह्लद्धद्ग क्रद्बद्दद्धह्लह्य शद्घ ङ्खशद्वड्डठ्ठ ड्डठ्ठस्र ह्लद्धद्ग स्नद्गद्वड्डद्यद्ग ष्टद्बह्लद्ब5द्गठ्ठज् में लिखा है- ‘‘क्रान्ति तभी सफल हुई जब सभी महिलाएं अपनी वास्तविक स्थिति से अवगत हुईं जिसे वे अपने ही समाज में खो चुकी थीं।’’ 7
पहली बार फ्रेंच में किसी लेख में आया कि- ‘‘महिलाएं भी पुरुषों के समान स्वतंत्र पैदा हुई हैं और उन्हें भी पुरुषों के समान बराबरी के अधिकार हैं। सामाजिक श्रेष्ठता का आधार केवल समान उपयोगिता पर ही निर्भर है।’’8
ह्रद्य4द्वश्चद्ग स्रद्ग त्रशह्वद्दद्गह्य ने अपने निबन्ध में महिला सशक्तीकरण के विषय में आवाज उठाई। सभी नागरिक जिसमें महिलाएं भी साम्मिलित हैं, कार्यालय अथवा सार्वजनिक जीवन में अपनी क्षमता के आधार पर ही स्वीकार्य हैं इसके अतिरिक्त किसी के आंकलन का दूसरा कोई मापदण्ड नहीं है।
ब्रिटिस लेखक और दार्शनिक द्वद्गह्म्4 ङ्खशद्यद्यह्यह्लशठ्ठद्गष्ह्म्ड्डद्घह्ल ने अपनी पुस्तक च्च््र ङ्कद्बठ्ठस्रद्बष्ड्डह्लद्बशठ्ठ शद्घ ह्लद्धद्ग क्रद्बद्दद्धह्लह्य शद्घ ङ्खशद्वड्डठ्ठ द्बठ्ठ १७९२ज्ज् में राइट टू ह््यूमिनिटी की बात की।
उन्नीसवीं सदी और महिलाएं- 1869 में जान स्टुअर्ट मिल ने ब्रिटेन की औरतों की स्थिति का वर्णन करते हुए लिखते हैं- ‘‘हम निरन्तर इस बात को उठाते आ रहे हैं कि सभ्यता और क्रिस्चियनिटी ने औरातों के अधिकारों को दबा के रखा है तथा उनका अधिकर कहीं भी एक नौकर से अधिक नहीं है।’’9
आधुनिक काल में 1960 के दशक में एक आन्दोलन सामने आया जिसे च्च् स्नद्गद्वद्बठ्ठद्बह्यद्वज्ज् शह्म् च्च् 2शद्वद्गठ्ठज्ह्य द्यद्बड्ढद्गह्म्ड्डह्लद्बशठ्ठ.ज्ज् के नाम से जाना गया।
यू.एस.ए में 1966 में च्हृड्डह्लद्बशठ्ठड्डद्य शह्म्द्दड्डठ्ठद्ब5ड्डह्लद्बशठ्ठ द्घशह्म् ङ्खशद्वद्गठ्ठ ज् ( हृह्रङ्ख) की स्थापना हुई। परिणामत: 20वीं शताबदी में यूरोप में महिलाएं महती भूमिका निभाने लगीं। परिणाम यह हुआ कि जहाँ बीसवीं सदी में यूरोप में महिलाएं 20 प्रतिशत महाविद्यालयीन शिक्षा प्राप्त कर रहीं थी और 5 प्रतिशत डॉक्टर थीं वहीं आज प्रापत आंकड़ों के अनुसार 50 से 60 प्रतिशत महिलाएं चिकित्सा के क्षेत्र में हैं।
1947 में यूनाइटेड नेशन ने महिलाओं के उन्नति के लिए एक कमीशन की स्थापना की। एक लेख के अनुसार- ‘1946 में यूनाइटेड नेशन ने महिलाओं के लिए एक कमीशन का गठन किया जिसमें महिलाओं की स्थिति के विचार के लिए, उनके सामाजिक, आर्थिक स्थिति को देखने के लिए मानवाधिकार विभाग में जिसे (श्वष्टह्रस्ह्रष्ट) कहा गया। 1975 के बाद महिलओं के सशक्तिकरण के लिए लगातार सम्मेलन किए गए। जिसमें महिलाओं के अधिकार के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय मंच मिला। जहाँ सांस्कृतिक दृष्टि से विश्व की महिलाओं पर विचार करने की दृष्टि प्राप्त हुई।’ 12
विश£ेषण- मानवाधिकार नामकरण भले ही आज की बात हो लेकिन व्यक्ति के अधिकारों का विचार उतना ही पुराना है जितना की राजनीतिक दर्शन का इतिहास। यूनान के चिन्तकों ने प्राकृतिक कानून की अवधारणा को विकसित किया। सुकरात का कहना था कि निर्णय का आधार यह होना चाहिए कि क्या अच्छा है तथा क्या बुरा। रोमन कानून में व्यक्ति की समानता की बात कही गयी थी। थॉमस एक्वीनास का कहना था कि प्राकृतिक कानून का स्थान सबसे ऊपर है। थॉमस हॉब्स ह्यूगो ग्रेशियस रेन डेसफार्टिस, लेब्रीज फ्रासिस वेकन, जॉन लाक मॅटिस्क्यू, बाल्वेयर, रूसी आदि दार्शनिकों ने अपने-अपने तरीके से व्यक्ति के अधिकारों की चर्चा की।
यद्यपि राजनीतिक चिन्तन की इस धारा में वर्क, डेविडट, ह्यूम, जर्मी बेन्थन, जे एस मिल, फ्रेडरिक कार्ल वॉन सेविगने सर हेरनीमेन, जॉन ऑस्टिन जैसे विद्वान भी आये जिन्होंने व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों का विरोध किया। इसके बावजूद भी मानव अधिकारों की अवधारणा का विकास हुआ। मेग्गा कार्टा (1215), पेटिसन ऑफ राइट (1628), पीस ऑफ वेस्टफेलिया (1648), बिल ऑफ राइट (1689) आदि उद्घोषणाओं ने मानव अधिकारों की अवधारणा को बल प्रदान किया। मावनाधिकारों का प्रथम दस्तावेज सन् 1945 में सेन फ्रांन्सिस्को में अभिस्वीकार किया गया। जिसमेंं उन कारणों को दर्शाया गया जो वे परिस्थितियाँ निर्माण करते हैं जिनके कारण महिलाओं का अपमान होता है, साथ ही उनका शोषण भी।
भारतीय दर्शन में तो व्यक्ति की समानता का उल्लेख हर जगह मिलता है। भारत एक ऐसा देश है जहाँ प्राचीन काल से न केवल मनुष्य बल्कि जीव-जन्तुओं, पेड़-पौधों, नदियों-पहाड़ों में भी एक ही परमात्मा का वास माना है। फिर महिलाओं की उपेक्षा की कल्पना कैसे की जा सकती है। यह वहीं देश हैं जहाँ कहा जाता है- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता। जहाँ नारी का सम्मान होता है वहीं ईश्वर निवास करता है। भारतीय संस्कृति में अस्मिता नारी की धरोहर है। इसी अस्मिता के लिए पुरुष का पिता, भाई, पति के लिए संरक्षण की अवधारणा विकसित हुई। किन्तु जीवन की ऊँची उड़ान की कल्पना, लघुतम मार्ग से सफलता प्राप्त करने के चिन्तन ने इस अस्मिता को चौराहे पर खड़ा कर दिया है। नारी अस्मिता को कभी-कभी हम श£ील-अश£ील के दायरे में बाँध कर इस शब्द को सीमित कर देते हैं और विर्मश के नाम पर एक व्यापक दायरा उजागर करने का प्रयत्न करते हैं। यह भी समझने की बात है। अधिकार कभी कर्तव्य पालन में समाहित था जो नैतिकता का जामा पहने था। आज इसी नैतिक पतन के कारण मूल्यों का हस हो रहा है तथा मानवाधिकार की आवश्यकता समझ में आ रही है। विज्ञापन, मॉडलिंग, फैशन शो, सिनेमा और दूरदर्शन के माध्यम से नारी आज व्यवसाय और आर्थिक संसाधन प्राप्त करने की कठपुतली बन गई है। बाजारवाद में स्त्री देह स्वयं बिकने को तैयार है। कामकाजी महिलाएं दोहरे शिकंजे में फंसती जा रही हैं। वह पुरुष से कंधे से कंधा मिलाकर होड़ में दौडऩा तो चाहती है किन्तु यह भूल जाती है कि जिस पुरुष से वह होड़ कर रही है उसकह्य अस्तित्व को अपने से अधिक बड़ा मान कर पहले ही हार चुकी है। इस प्रकार आज जहाँ वह प्रतिस्पर्धी दिखाई देती है वहीं अपना स्त्रीत्व और मातृत्व के दोनों पद खोती जा रही है। यही संघर्ष का कारण है और आज यहीं सामजस्य बिठाकर चलने की आवश्यकता है। भारतीय चिन्तन में दोनों अन्योनाश्रित हैं।
निष्कर्ष- (क) मानव अधिकार के विचार चार बातों पर आधारित हैं- 1- सभी व्यक्ति जन्मजात रूप से समान हैं।,2- सभी व्यक्ति कानून के समक्ष समान हैं। , 3- सभी को स्वतन्त्रता मिले। , 4- जब तक किसी व्यक्ति का दोष सिद्ध न हो जाय तब तक वह निर्दोष है। मावनाधिकारों का प्रथम दस्तावेज सन् 1945 में सेन फ्रांन्सिस्कों में अभिस्वीकार किया गया।
(ख) विकास बनाम सशक्तिकरण। महिला शिक्षा का अधूरा सच। भ्रूण हत्या। कामकाजी महिलाओं का सशक्तिकरण । महिला राजनीति का स्याह पक्ष। मीडिया-विज्ञापन और अश£ीलता। खुदकुशी को विवश आधी दुनिया। घरों में पलती हिंसा। सरकारी पक्ष। पुरुषों पर आॢथक निर्भरता, कन्यादान का आदर्श। संयुक्त परिवार व्यवस्था का नैतिक क्षरण। बालविवाह। वैवाहिक कुरीतियाँ। बाह्य आक्रमण की अवांक्षित देन।
(ग) समाधान- नैतिक आधार की उच्च शिक्षा, कानूनों का वैश्विक प्रयोग, आर्थिक पक्ष का सन्तुलन, आडम्बर रहित जीवन, परिवार नामक इकाई का दृढ़ीकरण, कुरीतियों को तिलांजलि, परम्पराओं का काल सापेक्ष बोध, साम्प्रदायिक सौहार्द, मानसिक स्तर पर सभी प्रकार की बन्धन मुक्ति, स्वास्थ्य के प्रति चेतना, तार्किकता, अस्मिता की पहचान, स्व का बोध, सेवा और समर्पण जीवन के मूल्य बने, चरित्र्य और नैतिक जीवन दर्शन, मानवीय चेतनाओं का विकास, आध्यात्मिक जीवन, धर्म की सही अवधारणा। सनातन संस्कृति- ‘मातृवत पर दारेषु’ का स्मरण। संक्षेप में कह सकते हैं कि भारतीय नारी की आधुनिक बनने की दौड़ को समाज तभी स्वीकार करेगा जब वह भारतीय संस्कारों तथा मापदण्डों के अनुसार बन कर चलेगी। वस्तुत: भारतीय समाज में वैदिक काल से नारी को जो सम्मान और स्वतंत्रता प्राप्त थी वह दुनिया के किसी भी देश और धर्म की स्त्री को नहीं प्राप्त थी। स्त्री और पुरुष परिवार के दो चक्के माने जाते हैं। कोई भी धार्मिक अनुष्ठान बिना स्त्री के पूर्ण नहीं होता। ‘द्विधा कृत्वात्यनों, देहम धर्मेन पुरूषोड़ भवत् /अर्धेन नारी तस्या स विराजम सृजन प्रम:’। कहा जाता है कि ईश्वर के विराट स्वरूप के दो भाग हैं स्त्री और पुरुष। यह समझौता और वासना तृप्त का साधन नहीं। देह को ‘शरीर आद्यं खलु धर्म साधनम्ं’ कहा गया है। अत: आज स्त्री को जेण्डर से बाहर निकल कर आत्ममुग्धता और अध्र्यसत्य अनुभवों से बाहर निकल कर पुरुषों से बढक़र या पुरुषों से आगे निकल कर कुछ कर सकने की मानसिकता से बाहर आना होगा। बोल्ड लेडी के नाम पर शालीनता की सीमा नहीं लांघी जा सकती। कोमलता, शील और सामंजस्य ही नारी है।
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