Monday, 16 December 2019

प्लेटोः काव्य सिद्धांत

 प्लेटोः काव्य सिद्धांत

 सुकरात के शिष्य यवन आचार्य प्लेटो पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के आदि स्रोत हैं। वे मूलतः एक दार्शनिक एवं स्मृतिकार थे और यूनान के दार्शनिकों में उन्हें मूर्धन्य स्थान प्राप्त है। अनुमान के आधार पर उनका जन्म 427 ई.पू. तथा मृत्यु 347 ई.पू. मानी जाती है। उनके माता और पिता-दोनों का सम्बन्ध एथेन्स के अत्यंत संभ्रान्त और प्रतिष्ठित कुलों से था। प्लेटो का वास्तविक नाम अरिस्तोतल्स था। बाद में वे प्लतौन उपनाम से प्रसिद्ध हो गये। लगभग 387 ई.पू. में उन्होंने एक विद्यापीठ की स्थापना की, जहाँ उनके निर्देशन में दर्शन-शा., प्राकृतिक-विज्ञान, न्याय एवं विधि सम्बंधी शिक्षा दी जाती थी। उन्होंने कीड़ो तथा गणतंत्र जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे।

प्लेटो का काव्य सिद्धांत
        प्लेटो के मत से काव्य-सत्य का मूल्य है, उसका नैतिक औदात्य और सामाजिक उपादेयता है। प्लेटो ईश्वरवादी थे। आत्मा-परमात्मा तथा परमात्मा और विश्व के सम्बन्ध के विषय में, उनके दर्शन में नैतिक और आध्यात्मिक सिद्धांतों का मिश्रण है। सत्य का मूल्य निश्चित करते हुए प्लेटो अपने नैतिक सिद्धान्तों का आश्रय लिया।
प्लेटो के अनुसार इस परिवर्तनशील दृश्यमान जगत् के पीछे अपरिवर्तनशील अदृश्य शक्ति की स्थिति है। प्रत्येक पदार्थ का गोचर रूप उसकी अगोचर सत्ता बिम्ब है, यह अगोचर सत्ता  ही सत्य है। वही पदार्थ का आदर्श है, इस आगोचर सत्ता इंद्रियानुभूति से असंपृक्त बुद्धि के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। पदार्थ के ये सभी आदर्श रूप ईश्वर की सत्ता पर आधारित हैं। इसी परमसत्ता ज्ञान ही गुण है। तात्पर्य यह है कि सभी विशेष सत्ताएं एक परम सत्ता में  पर आधारित हैं, वही परम और एकमात्र सत्य है। उसी का ज्ञान शुद्ध है, वही सात्विक सत्य है।

प्लेटो का यूरोपीय विचारधारा पर जितना गंभीर और व्यापक प्रभाव पड़ा है उतना कदाचित् ही किसी अन्य विचारक का पड़ा हो। फिर भी उसमें उसने जो लिखा, कहा उसमें मुख्य विचार उसके गुरु सुकरात का है। कहा जाता है कि सुकरात ने कुछ नहीं लिखा, प्लेटो ने कुछ नही कहा। पाश्चात्य आलोचना में मौलिक सिद्वांतों का सर्वप्रथम प्रतिपादन प्लेटो और अरस्तू द्वारा ही हुआ। यूनान उस समय तक यूरोप की संस्कृति का प्रतिनिधित्व कर रहा था। किन्तु चौथी सदी तक आते-आते यूनानी जीवन के राजनीतिक, सामाजिक तथा साहित्यिक सभी क्षेत्रों में अराजकता फैल गयी थी। उसके सांस्कृतिक वैभव का विघटन जोरों से प्रारंभ हो चुका था।
सुकरात, प्लेटो, अरस्तू की विचारधाराओं ने क्रमिक रूप से यूनान की संस्कृति के उत्थान में अपना अत्यन्त शक्तिशाली और महत्वपूर्ण योगदान दिया।
धर्म और आध्यात्म आदि के क्षेत्रों में भी प्लेटों ने कतिपय मौलिक स्थापना की। सुकरात की मृत्यु के बाद वह दर्शनशा. का अध्यापन करने लगा। उसकी एकेडमी एथेंस के नजदीक ही स्थिति थी। जहाँ उसके जीवन का अधिकांश समय व्यतीत हुआ। सुकरात के साथ-साथ उसके ऊपर यूनानी गणितज्ञ, पैथागोरस का भी प्रभाव था।
     संपूर्ण विश्व में व्याप्त सौंदर्य का आदर्श एक है। इसी प्रकार शिवत्व का आदर्श, सत्य का आदर्श और आनन्द का आदर्श एक-एक होता है। संसार में जहाँ कहीं वस्तु-सौंदर्य व्यक्त होता है, वह उस मूल व्यक्त सौंदर्य की छाया मात्र होता है। जो व्यक्ति उस वस्तुगत सौंदर्य की भावना के सहारे वैसी ही सृष्टि करने में प्रवृत्त होता है।वस्तुतः मूल सौंदर्य की छाया का अनुकरण करता है, और जो इस मानव-सृष्टि को अन्य कौशल से प्रस्तुत करता है वह स्पष्टतः मूल अव्यक्त सौंदर्य की छाया की छाया (या अनुकृति) निर्मित करता है। अपने इस मत को समझाने के लिए प्लेटो ने लिखा हैंः-
जब कभी कई प्राणियों या वस्तुओं की एक सामान्य संज्ञा होती है, तो हम कल्पना कर लेते हैं कि उनका एक सामान्य आदर्श या रूप होगा। (जैसे मनुष्य कहने से एक समान भावना या आकृति का बोध होता है)। उदाहरणार्थ संसार में कई प्रकार के पलंग होते हैं, किन्तु सबके विषय में सामान्य भावना केवल एक होती है। उन पलंगों को बनाने वाला बढ़ई उसी सामान्य भावना के अनुसार उनका निर्माण करता है, किन्तु वह उस भावना का निर्माण नहीं कर सकता हैं ,चित्रकार उसके द्वारा निर्मित पलंग का अनुकरण करता है। इस प्रकार तीन कलाकार हैं-ईश्वर,बढ़ई और चित्रकार।
’’ईश्वर ने अपनी इच्छा से, एक ही पलंग प्रकृति में बनाया। क्योंकि यदि वह दो आदर्श पलंग बनाता तो उन दोनों के मूल में एक तीसरा आदर्श पलंग रहता। ईश्वर इसे जानता था, उसने वास्तविक पलंग का वास्तविक कर्ता बनना पसन्द किया न कि एक पलंग-विशेष का कर्ता-विशेष।’’ अतः उसने एक पलंग बनाया जो मूलतः केवल एक है।तात्पर्य यह कि-‘‘बढ़ई उस एक सामान्य तथा आदर्श पलंग का निर्माण नहीं करता वरन् अनुकरण कर वस्तु जगत् में प्रस्तुत करता है।’’ अतः यह एक उस मूल सत्य का अनुकरण हुआ। जब कवि अपने काव्य में किसी वस्तु का वर्णन करता है तो  मूल सत्य के अनुकरण का अनुकरण होता है और इसी रूप में काव्य मूल सत्य के अनुकरण का अनुकरण होने के कारण उससे तीनगुना दूर हो गया। अतः यहाँ कहा जा सकता है कि यह अंश प्लोटो के सत्य की प्रकृति या स्वरूप-विषयक सिद्धांत का बीजमंत्र है।
कविता पर प्लेटो का आक्षेप -
सत्य की प्रकृति और मूल्य-विषयक अपनी इन मान्यताओं के आधार पर प्लेटो ने जब अपने युग की कविता की परख की तो उन्होंने कवि को अनुकर्ता कहा। उन्होंने कहा कि एक तो भौतिक पदार्थ स्वयं ही सत्य की अनुकृति है और फिर काव्य तो इन भौतिक पदार्थों की भी अनुकृति होता है। अतएव, अनुकरण का भी अनुकरण होने के कारण वह त्याज्य है। वस्तुतः प्लेटो के सामने उसके युग की काव्य-कृतियाँ थी। उनके आधार पर उन्होंने देखा कि जीवन के व्यावहारिक क्षेत्र में जो कुछ  उदात्त  और वांछनीय है, काव्य में उसके विपरीत Ÿा उदात्त और अवांछनीय व्यवहार प्रदर्शित किए जाते हैं। अतः व्यावहारिक जीवन के सत्य से दूर व पृथक् होने के कारण-‘काव्य-सत्य’ वास्तविक नहीं होता। इसलिए कविता ‘असत्य’ होती है और इसीलिए यह त्याज्य है।
प्लेटो कहते हैं कि हम कुछ व्यक्तियों को ऐसा कहते सुनते हैं कि ये कवि (होमर आदि) सब कलाओं के ज्ञाता हैं, समस्त मानवीय गुण-दोषों एवं आलौकिक विषयों के भी ज्ञाता होते हैं, क्योंकि श्रेष्ठ कवि विषय-ज्ञान के अभाव में सुन्दर रचना नहीं कर सकता और इस ज्ञान के बिना कवि की सत्ता असम्भव है किन्तु प्लेटो के ही अनुसार यह मान्यता ऐसे व्यक्तियों की है जो इन अनुकर्ताओं (कवियों) के संपर्क में आकर इनसे भी छले गए हैं। उन्होंने इनकी कृतियों का अवलोकन करते समय यह विस्मरण कर दिया कि वे सत्य से तिगुनी दूर हैं तथा उनका प्रणयन सत्य के वास्वतिक ज्ञान के अभाव में भी संभव है, क्योंकि वे सत्य का आभास मात्र हैं।
अपनी इस बात को प्लेटो ने तर्क के माध्यम से प्रमाणित किया है। वे एक उदाहरण उस चित्रकार का देते हैं जो चित्र के विषय का तत्समान चित्रांकन प्रस्तुत करता है, परन्तु चित्रांकित विषयों का स्वयं ज्ञाता नहीं होता। एक चर्मकार का चित्र बनाने वाला चित्रकार स्वयं इस कला में विज्ञ एवं उसमें व्यवहार सिद्ध नहीं होता, फिर भी उसकी रचना, उन दर्शकों के सामने भी, जो स्वयं इस चित्रकार के समान अज्ञानी होते हैं, वास्तविकता का भ्रम उत्पन्न कर देता है। कारण-उनके निर्णय का आधार रूप-रंग की समानता ही होती है। ठीक उसी प्रकार होमर आदि कवि जो सत् एवं अन्य विषयों का अपने काव्य में छायानुकरण करते हैं, केवल अनुकर्ता होते हैं, सत्य से उनका संपर्क नहीं होता। प्लेटों के मतानुसार कलाकार, मानो प्रकृति के सामने दर्पण रख देता है। इससे अधिक उसकी और कोई सिद्धि नहीं है। और दर्पण में प्रकृति के बाह्म या दृश्यमान रूप से अधिक प्रतिबिम्बित हो ही क्या सकता है ? इसी रूप में कविता में मूल सत्य की सच्ची अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। कवि, शब्दों और वाक्यांशों से विषय को रूप-रंग देता है, किन्तु विषय के प्रकृत रूप का उसे केवल उतना ही ज्ञान होता है जितना अनुकरण के लिए आवश्यक है। निष्कर्षतः अनुकर्ता अथवा छायानुकृतियों का निर्माता केवल बाह्म रूप का ही ज्ञाता होता है, विषयों के सत्य-रूप अथवा स्थिति का नहीं।
प्लेटो की काव्य-सृजन सम्बन्धी स्थापनाओं का मूल उनकी वही आधारभूत मान्यता है कि यह भौतिक सृष्टि परम सत्य का, और काव्य इस वस्तु-जगत् का अनुकरण है। दोनों ही आध्यात्मिकता से दूर-जिसमें काव्य अपेक्षाकृत और भी दूर है। फलतः कवि जिसका अनुकरण करता हैं, उसकी प्रकृति से वह अनभिज्ञ होता है। उनका कहना है, ‘‘जिस प्रकार बढ़ई द्वारा बनाए गये पलंग का चित्र बनाने वाला चित्रकार उस पलंग की प्रकृति को नहीं जानता, उसी प्रकार त्रासदी का कवि भी अपने अनुकार्य की प्रकृति से अपरिचित रहता है।’’ और यही कारण है कि अनुकरण अज्ञान-जन्य होता है अर्थात् कविता अज्ञान से उत्पन्न होती है।
2-कविता पर प्लेटो का अगला आक्षेप यह है कि कलाएँ हमारे लिये हानिकर है। कारण यह कि अनुकरणात्मक कला क्षुद्र होती है, क्षुद्रता में सम्बद्ध रहती है और क्षुद्रता को जन्म देती है। मूलतः कवि यश और कीर्ति चाहता है। उसकी प्रकृति आत्मा के विवेक पूर्ण अंश के प्रसन्न करने या प्रभावित करने की नहीं होती और न ऐसा करना उसका प्रयोजन ही होता है। ऐसा कवि पाठकों या श्रोताओं की वासनाओं को उŸोजित कर लोकप्रिय बनना चाहता है और इसी रूप में त्रासदी का कवि हमारे विवेक को नष्ट कर हमारी वासनाओं को जागृत करता है और उनका पोषण करता है। इन सभी दशाओं में कविता हमारी वासनाओं को हम पर शासन करने के लिए छोड़ देती है, जबकि यदि मानव-जाति के आनन्द और गुण में  वृद्धि करनी है तो कवि को उन्हें नियंत्रित करना चाहिए। प्लेटो का कहना है कि दूसरों के अवगुणों के साथ सहानुभूति रखने में उसका कुछ अंश जाने-अनजाने दर्शक में भी आ जाता है। कठिनाइयों या विपत्तियों में, संयम के अभाव के कारण, अन्यों को बिलखते हुए देखकर यदि उनसे कोई सहानुभूति करते हुए स्वयं बिलखने लगता है तो धीरे-धीरे वह अपनी विपत्तियों में बिलखने और संयम हीनता प्रदर्शित करने का अभ्यस्त हो जायेगा। यही बात अन्य भावों के बारे में कही जा सकती है। इस रूप में कविता निश्चय ही हमारी विवेक शक्ति को नष्ट करती है, हमारी वासनाओं को जागृत करती हैं, उन्हें उत्तेजित कर पुष्ट करती है।
प्लेटो दार्शनिक थे, ईश्वर-वादी थे, सत्य के उपासक थे और तर्क के हिमायती थे। प्लेटो का मानना है कि आत्मा को पतन की ओर ले जाने वाली ‘काव्य-वस्तु’ आग्रह्य है। वे कहते हैं कि ‘‘होमर के काव्य में वर्णित देव-युद्धों को हमारे आदर्श समाज में स्थान नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि अपरिपक्व मानस वाले व्यक्ति अन्योक्ति और तथ्योक्ति में अन्तर नहीं समझ सकेगें।’’

प्लेटो की मुख्य देन-‘थ्योरी आफ आइडियाज’ कहा जाता है। प्लेटों के काव्य या साहित्य संबंधी विचारों पर इन दोनों भावनाओं की गहरी छाया है। उसने काव्य की आदर्शवादी व्याख्या प्रस्तुत की और उसका संबंध जोड़ दिया नैतिकता के चरम लक्ष्य से। सत्साहित्य की परख और जाँच के लिए उसने शिवत्व की भावना को उसकी कसौटी बनाया। प्लेटो, श्रृंखला-सिद्धांत की चर्चा करते हुए कहता है कि ‘काव्य देवी द्वारा लटकाई हुई दैवी प्रेरणा की इस लड़ी में कवि सबसे पहले है, व्याख्याता बीच में है और पाठक अंत में है तथा एक दूसरे से जुड़े होने के कारण उनकी आत्मा को ईश्वरीय प्रेरणा परिचालित करती रहती है।’
प्लेटो मूलतः रहस्यवादी था। प्लेटो यह भी कहता है कि यदि इन कवियों से स्वयं उनके ग्रंथों की व्याख्या करने के लिए कहा जाए तो वे असमर्थ ठहरते है। उनसे अच्छी व्याख्या दूसरे कर देते हैं। प्लेटो कहता है कि ‘‘इससे मैं तत्काल समझ गया कि कवि अपनी कविताएँ अपने ज्ञान से नहीं प्रत्युत प्रतिभा से रचते हैं  और इसीलिए कि पैगम्बरों और भविष्य-वक्ताओं की तरह उन्हें ईश्वरीय प्रेरणा प्राप्त है। क्योंकि वे उत्तम वक्तृता देते हुए यह नही जानते कि हम क्या कर रहे हैं। मुझे ऐसा लगा कि कवि भी बहुत कुछ वैसी ही दशा (या अनुभूति)  को प्राप्त होते हैं।’’
इस सम्बंध में प्लेटो एक अन्य स्थान पर यह कहता है कि ‘‘हम लोगों के बीच एक कथा बराबर दुहराई गई है और दूसरों केा भी मान्य है कि कवि जब कभी अपने को काव्य देवी के त्रिशूल पर स्थापित करता है तो वह अपने सही दिमांग में नहीं रहता और वह उस फव्वारे के सदृश्य होता है जो अपने उठते हुए जल को स्वच्छन्दता से प्रवाहित करता है। चूंकि उसकी कला अनुकरणात्मक है, इसीलिए उसे विपरीत पात्रों  के सृजन द्वारा अपना ही विपर्यय दिखाना पड़ता है, और वह यह नही जानता कि इन विपरीत पात्रों में कौन सच बोलता है।’’
प्लेटो कवि को अनुकर्ता और काव्य को अनुकरणात्मक मानता है। इसका आधार एक तो ‘आइडिया’ (विचार) या भावना का उच्चतर संसार जो इन्द्रियातीत, पूर्व और चिरंतन है और दूसरा इन्द्रियों का निम्न संसार जो आभासित और निकट होते हुए भी सत्य नहीं है।
इस प्रकार प्लेटों के ‘विचारात्मक सिद्धांत (प्कमंस जीमवतल) के दो पक्ष हुए। एक तो वह बोध सिद्वांत है जो यह बतलाता है कि हमें किसी चीज का ज्ञान कैसे होता है, और इसकी ओर ‘वास्तविक का सिद्वांत’ भी है।
प्लेटो के विख्यात ‘शिवत्व की भावना’ के सिद्धांत के बीज भी इसमें निहित है। प्लेटो इसी ‘शिवत्व’ या कल्याण की कसौटी पर काव्यादि को कसकर खरा या खोटा बताता है।
प्लेटों ने सत्य और सत्याभास की समस्या भी उठाई। जिस प्रकार चित्र सत्य की अपेक्षा सत्याभास का अनुकरण नहीं है। अनुकरण होने के कारण चित्र स्पष्टतः सत्य से बहुत दूर है, अवास्तविक है, अपूर्ण है। कवि भी इसी प्रकार अनुकरणात्मक है, मौलिक स्पष्ट नही। जिस प्रकार चित्रकार बिना बढ़ई गिरी का काम समझे ऐसी चीजें बना देता है जो कम से कम समझ वालों को (रंग और मोह की चेष्टा में पड़कर) बढ़ई सा प्रतीत होता है। उसी प्रकार होमर से लेकर सभी कवि, गुण (धर्म) या वर्ण विषय की झलक  के अनुकर्ता है, और सत्य पर उनका कोई अधिकार नही है।
प्लेटो पूंछता है कि क्या कोई वस्तु विशेष और उसकी प्रतिच्छाया या अनुकृति बनावेगा। वह कहता है- ‘‘मेरी समझ में यदि वह उन चीजों को जिनका की वह अनुकरण करता है ठीक समझ सका है तो वह नकल को छोड़कर उन्ही चीजों को जिनका की वह अनुकरण करता है में काम करना पसंद करेगा, और अपने पीछे अपनी सुन्दर कृतियों की यादगार छोड़ने की चेष्टा करेगा। वह दूसरे की प्रशंसा करने की अपेक्षा स्वयं प्रशंसित होना चाहेगा।’’
कवि के ज्ञान की समस्या - प्लेटो अपनी प्रसिद्ध कृति ‘रिपब्लिक’ में उसने काव्य और कवियों का घोर विरोध कर उन्हें हेî और निन्दनीय प्रभावित किया है। उसका अपना मत है कि कवि का ज्ञान आंशिक और अपूर्ण है। वह विशेषज्ञ नहीं है और सत्य से अनभिज्ञ है। यह आवश्यक नही है कि वह जिस वर्षा विषय का सुन्दर वर्णन करता है उसका पूर्ण ज्ञाता हो।
प्लेटो यूनान के सबसे बड़े कवि होमर से पूछता है कि मेरे प्रिय होमर, यदि तुम गुण के ज्ञान में सत्य के सम्पर्क से दूर नही हो जिस प्रकार (हमारी परिभाषा अनुसार) केवल झलक  अंकित करने वाला अनुकर्ता है, यदि तुम सत्य के अत्यन्त निकट हो और यदि तुम जानते हो कि कौन से क्रिया-कलाप मनुष्य को सामुदायिक या वैयक्तिक रूप से अच्छा या बुरा बनाते है तो बताओ किस नगर के शासन मंे तुमने सुधार किया ....... कौन नगर नियमों का अच्छा विधायक मानता है, और कौन नगर लाभान्वित हुआ। (पाश्चात् समीक्षा सिद्धान्त) अरस्तू का स्पष्ट संकेत यह है कि ‘कवियों द्वारा किसी प्रकार का सुधार नही हुआ।’ वह कहता है ‘‘किन्तु मैंने अब तक काव्य की सबसे खराब बात नही कही। कुछ लोगों को छोड़कर अच्छे नागरिकों को भ्रष्ट करने की दूसरी शक्ति इसका अत्यन्त खतरनाक गुण है।’’- 
प्लेटो का विचार-
कवियों की तुलना अपने प्रसिद्ध गुफा बाले उदाहरण से देता है। वह कहता है ‘‘एक मनुष्य प्रारम्भ से अपना मुख गुफा की ओर कर बैठा है। उसके पीठ के पीछे समस्त जगत का कार्य व्यापार चलता है किन्तु वह उससे सर्वथा अनभिज्ञ है। वह तो केवल उसकी छाया मात्र को अपने सामने पड़ते देख सकता है। भ्रमवश वह उस छाया-जगत को ही वास्तविक समझ बैठता है। और उसे कभी भी यह सन्देह नही होता कि उसके सामने होने वाला छाया-जगत स्वयं वास्तविकता न होकर भ्रम है।’’ प्लेटो के अनुसार समस्त कला अनुकृति की अनुकृति है। कवियों की बहुत सी रचनाएॅ असत्य, अनुपयुक्त, और अहितकर है, इसलिए कवियों को आर्दश प्रजातंत्र से निर्वासित कर देना चाहिए और यदि कवियों को इस-प्रजातंत्र में रहना है तो नगर के नियम-विधायकों को नियम बना देना चाहिए कि कौन कविता करने पायेगें और उनका वर्ण्य विषय क्या  होगा।
प्लेटो का कहना है कि बहुत सा साहित्य बच्चों के लिए अनुपयुक्त है, क्योंकि उसकी बहुत सी शिक्षा उसके विपरीत है, जो कि हम उनकी आत्मा में प्रविष्ट करना चाहते हैं।
प्लेटो का कहना है ‘‘देवताओं की दुश्चरित्रता का, चाहे वह सच भी हो तो भी, वर्णन न करना चाहिए। कवियों को चाहिये की देवताओं का वैसा ही अंकन करे जैसा वे हैं।’’
प्लेटो के अनुसार- ‘‘कवियों ने जो लिखा उसमें शिवत्व का ध्यान होना चाहिये। यद्यपि यह कहा गया है कि संगीत(कलाओं) का मूल्यांकन या निर्णय उससे मिलने वाले आनन्द के अनुरूप ही होना चाहिए, फिर भी इसमें शिष्ट व्यक्तियों का ही आनन्द मानदण्ड बन सकेगा।’’
निर्णायक दर्शकों का शिष्य न होकर उनका शिक्षक है और उसमें योग्यता के साथ-साथ ज्ञान और साहस की भी आवश्यकता होती है। जिससे वे दर्शकों से आतंकित होकर गलत निर्णय न दें। इससे कवियों का भी पतन होता है।
प्लोटो का अपना आदर्श प्रजातंत्र है-
आर्दश प्रजातंत्र में प्लेटो कवि और काव्य के निर्वासन की सलाह बराबर देता है। उसके मतानुसार कवि सत्य ज्ञान और वास्तविकता से दूर है और उसका काव्य अनुरणात्मक होने के कारण अत्यन्त निम्न श्रेणी की वस्तु है, वह कहता है-
‘‘कवियों की जाति यह ठीक-ठाक जानने में सर्वथा असमर्थ है कि क्या अच्छा है और क्या नहीं।’’
‘‘सभी अनुरणात्मक कलाएॅ मुझे उन सभी श्रोताओं की मानसिक शक्तिओं को भयंकर रूप से नष्ट करने वाली प्रतीत होती हैं जिनको प्रतिमान या काट के रूप में उन कलाओं की सच्ची वास्तविकता का ज्ञान नही।’’
‘‘चित्रण और अनुकरण अपना काम सच्चाई से बहुत दूर करते हैं, और उनका हमारे अन्तर (या अंत:) के उस अशं से सम्बध है जो सत्य से बहुत दूर है। ये दोनों कलाएॅ सत्य एवं शिव की मित्र नहीं है।’’
‘‘यदि हम काव्य देवी को स्वीकार करेंगे- जो काव्य और गद्य से युक्त अत्यन्त मधुर है तो हमारे नगर के ऊपर नियम और सम्यक् बुद्धि के स्थान पर आनन्द और पीड़ा का शासन रहेगा।’’
‘‘काव्य के समर्थक प्रमाणित कर स्थापित करंे कि काव्य राष्ट्र और जीवन के लिए केवल आनन्ददायक ही नहीं, प्रत्युत हितकारी भी है, और हम मित्रों की तरह उनकी बात सुनेगें। यदि काव्य केवल अहलादकारी न प्रतीत होकर लाभकारी भी है, तो फायेदे में रहेगें। .... किन्तु यदि ऐसा नही किया जा सकता तो हम उन लोगों की तरह काम करेगें जो किसी वस्तु से प्रेम करते हुए भी उसे हानिकर समझते है और अपने को उससे जबरदस्ती अलग कर लेते है।’’
प्लेटो कहता है-‘‘समस्त इन्द्रिय गोचर जगत एक अन्य वास्तविक जगत का अनुकरण मात्र है। वह वास्तविक जगत अनेक सŸााओं, विचारों अथवा सिद्धान्तों का जगत है। वे सिद्धान्त हैं- शिव, न्याय, सत्य और सुन्दर। इन्हें प्लेटो ‘आर्वी टाइप्स’ अथवा मौलिक सिद्धान्त कहता है। प्लेटो के लिए भावनाओ ंका जगत ही सत्य था। कला अनुकरण-मूलक (मिमेटक)होती है।’’
 आलोचना-प्लेटो का विषय काव्य-सिद्धान्त निरूपण न होकर, आदर्श राज्य-विधान था। प्लेटो का समस्त काव्य-विवेचन नैतिक और आदर्शवादी दृष्टि से आक्रांत है और निषेधपरक है। यही कारण है कि नैतिक औदात्य और सामाजिक उपादेयता की बात को वे बराबर उठाते हैं। कविता पर उनके विचार कलाकार या काव्य-शास्त्री होने के नाते नहीं प्रकट किए गये हैं। उनके आदर्श राज्य-विधान में काव्य-विषयक चिंतन अनुषांगिक रूप से ही हुआ है। इसलिए काव्य से सम्बन्धित उनकी कसौटियों का अध्ययन इसी संदर्भ में किया जाना चाहिए।

अभिभावक या सेंसर की योजना स्थापना प्लेटो के उच्च विचार और उसकी दुर्बलता दोनों को प्रकट करती है। उसकी आदर्शवादिता, कल्याण और शिवत्व की उत्कट कामना उसे इस नियमन के लिये प्रेरित करता है। किन्तु प्रश्न उठता है कि सेंसर का सेंसर कौन होगा? उसकी त्रुटि यह है कि वह यह भूल जाता है कि उसे मनुष्यों से काम लेना है। गुण की ओर विवश करने पर जन-मन विद्रोह कर बैठता है। यदि विवश करने वाला सफल भी हो जाता है तो मानव-मन विकृत हो जाता है।
किन्तु कुछ विद्वानों के मतानुसार प्लेटो की नैतिकता के आग्रह के ऐतिहासिक पक्ष भी है। उनका कहना है प्लेटो का युग विषमता और उथल-पुथल का युग था। परम्परा प्राप्त विश्वास नये-नये वैज्ञानिक विचारों से नष्ट हो चुके थे और जिसका ढाचा महान युद्ध से हिल गया था। सोफिस्टों के विचारों की नवीनता, प्रचलित नैतिकता और रूढ़िवादिता के विचारों को हिला रही थी। यह युग आध्यात्मिक हलचल का युग था। आलोचना विश्व के विषय में प्रचलित धारना को बदल रही रही थी और फिर धर्म, नैतिकता, और राजनीति की ओर मुड़कर उसको भी नष्ट-भ्रष्ट कर रही थी। इसी से प्लेटो का शिवत्व तथा नियमन का इतना आग्रह था।
इस ऐतिहासिक पक्ष के साथ उनका चिंतन पक्ष था कि हर युग में कुछ कवि ऐसे होते है जो काव्य को काव्य की दृष्टि से नही पाते और जिनके व्यवहारिक जीवन पर काव्य के कुछ चित्रों का अहितकर प्रभाव पड़ सकता है।
प्लेटो का कहना है ‘‘काव्य का अनुशीलन काव्य-दृष्टि से करना चाहिए, व्यवहारिक(वैज्ञानिक) दृष्टि से नहीं।’’
ऐसी स्थिति में आलोचना का कर्तव्य हो जाता है कि वह कला और समाज के सम्बन्ध में जांच करे तथा देखे कि कौन सी रचना समाज हित की है या नही।
प्लेटो का अनुकरण सिद्धान्त निर्दाेष नही माना जाता। उसका सबसे बड़ा दोष उसकी अपनी नैतिकता और दर्शन ज्ञान की वेदी पर कला और सौन्दर्य का हनन कर दिया है।
प्लेटो के काव्यशास्त्रीय विचार संक्षेप में इस प्रकार हैं -
1. कवि काव्य की रचना दैवी प्रेरणा और आवेश में आकर करता है,उसकी वाणी ईश्वर की वाणी हैं,परतु उसके वर्णन सच्चे और तर्क पर आधारित नहीं होते। अधिकांश रूप में वह मानव-वासनाओं को उभारकर लोगों को अनैतिक बनाता है ।
2. कवि का किया गया वर्णन काल्पनिक और अज्ञान जन्य होता है जो समाज को गलत दिशा देता है। अतः त्याज्य है। उसने कवियों को बहिष्कृत करने का सुझाव दिया ।
3. प्लेटो के विचार से वस्तु के तीन रूप होते हैं-
1.आदर्श,
2.वास्तविक,
3.अनुकृत।
प्रकृति और सृष्टि भी ईश्वर के किसी आदर्श के आधार पर रची गई अपूर्व सृष्टि है। कला और काव्य उसकी ही अनुकृति होने से सत्य से तिगुनी दूर है।
4. कविता और कला में वस्तु के साथ-साथ उसका रूप भी महत्त्वपूर्ण होता है। काव्य में वह लय और छंद को भी विशेष महत्त्व देता है। उनकी काव्यशास्त्रीय दृष्टि समाज परक एवं नैतिक है।

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