रसखानि
परिचय: रसखानि रीतिकाल के रीतिमुक्त धारा के कवि हैं। हरि के हाथ से माखन-रोटी ले जानेवाले काग के भाग्य की सराहना करने वाले और श्रीकृष्ण की अजही को छोहरियों द्वारा छछिया भरि छाछ पर नाच नचाने वाले रसखानि प्रेमो भंग के गायक थे, अत: हिन्दी की स्वच्छन्द काव्य धारा के सबसे प्राचीन कवि ये ही ठहरते हैं। जिन मुसलमान कवियों ने अपने हृदय-रस से हिन्दी की कविता-लता को समय-समय पर सींचा है, उनमें रसखानि का स्थान सर्वोच्च है। ये बादशाही खानदान के पठान थे। ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ में उल्लेख है कि ये दिल्ली के पठान थे और गोसाई विट्ठलनाथ ने इन्हें गोविन्द कुण्ड पर वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित किया था। मुसलमान होकर भी वैष्णव प्रभाव के कारण ये कण्ठीमाला धारण करने लगे थे। गुसाई विट्ठलनाथ जी का स्वर्गवास सं.1642 में हुआ, अत: इनका आनुमानिक जन्म.सं.1615 और मृत्यु सं.1685 है। इनके माता-पिता कौन थे, यह पता नहीं है।
इनकी केवल दो छोठी रचनाएँ-‘प्रेम-वाटिका’ (सं.1671)और ‘सुजान रसखानि’-उपलब्ध हैं, जिनमें ये हिन्दी-साहित्य में अमर हो गये हैं। ‘प्रेम-वाटिका’ में केवल 52 दोहे हैं, जिनमें शुद्ध प्रेेेेेम का वर्णन है, तथा ‘सुजान रसखानि’ में 120 छन्द हैं। जिनमें 10 दोहे-सोरठे और शेष सवैया और कवित्त हैं। इनमें भक्ति एवं प्रेम का अद्भुत चमत्कार दृष्टिगोचर होता है। पुष्ठिमार्गीय सगुण लीला-भाव के भक्त होते हुए भी प्रेमानुभूति में कुछ-कुछ सूफी सन्तों के सदृश प्रतीत होत हैं।
इनकी रचनाओं में भक्त्ति, शंृगार एवं वात्सल्य रस पाये जाते हैं। इनकी भाषा स्वाभाविक है और उसमें माधुर्य, सौंन्दर्य एवं प्रवाह है, जो बिना किसी प्रयास के आ गया है। इनकी रचनाओं में भाव एवं भाषा का सुन्दर सामंजस्य है। मुहावरों का सुन्दर प्रयोग इनकी भाषा में सजीवता ला देता है। अलंकारों के लिए इन्होंने प्रयास नहीं किया है,परंतु इनकी रचना अलंकार से स्वभावत: अलंकृत हैं।
रसखान के छंद-
(प्रेम वाटिका से)
1. बिनु गुन जोबन रूप धन, बिनु स्वारथ हित जानि।
शुद्ध, कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि।।
2.
दंपति सुख अरु विषय रस, पूजा निष्ठा, ध्यान।
इनतें परे, बखानिए, शुद्ध प्रेम रसखान।।
3. प्रेम हरी को रूप है, त्यों हरि प्रेम सरूप।
एक होई द्वै यों लसै, ज्यों सूरज अरु धूप।।
4. ज्ञान, ध्यान, विद्या, मती, मत, विश्वास विवेक।
बिना प्रेम सब धूर हैं, अग-जग एक अनेक।।
5. हरि के सब आधीन, पै हरी प्रेम आधीन।
याही तें हरि आपुहीं, याहि बड़प्पन दीन।।
परिचय: रसखानि रीतिकाल के रीतिमुक्त धारा के कवि हैं। हरि के हाथ से माखन-रोटी ले जानेवाले काग के भाग्य की सराहना करने वाले और श्रीकृष्ण की अजही को छोहरियों द्वारा छछिया भरि छाछ पर नाच नचाने वाले रसखानि प्रेमो भंग के गायक थे, अत: हिन्दी की स्वच्छन्द काव्य धारा के सबसे प्राचीन कवि ये ही ठहरते हैं। जिन मुसलमान कवियों ने अपने हृदय-रस से हिन्दी की कविता-लता को समय-समय पर सींचा है, उनमें रसखानि का स्थान सर्वोच्च है। ये बादशाही खानदान के पठान थे। ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ में उल्लेख है कि ये दिल्ली के पठान थे और गोसाई विट्ठलनाथ ने इन्हें गोविन्द कुण्ड पर वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित किया था। मुसलमान होकर भी वैष्णव प्रभाव के कारण ये कण्ठीमाला धारण करने लगे थे। गुसाई विट्ठलनाथ जी का स्वर्गवास सं.1642 में हुआ, अत: इनका आनुमानिक जन्म.सं.1615 और मृत्यु सं.1685 है। इनके माता-पिता कौन थे, यह पता नहीं है।
इनकी केवल दो छोठी रचनाएँ-‘प्रेम-वाटिका’ (सं.1671)और ‘सुजान रसखानि’-उपलब्ध हैं, जिनमें ये हिन्दी-साहित्य में अमर हो गये हैं। ‘प्रेम-वाटिका’ में केवल 52 दोहे हैं, जिनमें शुद्ध प्रेेेेेम का वर्णन है, तथा ‘सुजान रसखानि’ में 120 छन्द हैं। जिनमें 10 दोहे-सोरठे और शेष सवैया और कवित्त हैं। इनमें भक्ति एवं प्रेम का अद्भुत चमत्कार दृष्टिगोचर होता है। पुष्ठिमार्गीय सगुण लीला-भाव के भक्त होते हुए भी प्रेमानुभूति में कुछ-कुछ सूफी सन्तों के सदृश प्रतीत होत हैं।
इनकी रचनाओं में भक्त्ति, शंृगार एवं वात्सल्य रस पाये जाते हैं। इनकी भाषा स्वाभाविक है और उसमें माधुर्य, सौंन्दर्य एवं प्रवाह है, जो बिना किसी प्रयास के आ गया है। इनकी रचनाओं में भाव एवं भाषा का सुन्दर सामंजस्य है। मुहावरों का सुन्दर प्रयोग इनकी भाषा में सजीवता ला देता है। अलंकारों के लिए इन्होंने प्रयास नहीं किया है,परंतु इनकी रचना अलंकार से स्वभावत: अलंकृत हैं।
रसखान के छंद-
(प्रेम वाटिका से)
1. बिनु गुन जोबन रूप धन, बिनु स्वारथ हित जानि।
शुद्ध, कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि।।
2.
दंपति सुख अरु विषय रस, पूजा निष्ठा, ध्यान।
इनतें परे, बखानिए, शुद्ध प्रेम रसखान।।
3. प्रेम हरी को रूप है, त्यों हरि प्रेम सरूप।
एक होई द्वै यों लसै, ज्यों सूरज अरु धूप।।
4. ज्ञान, ध्यान, विद्या, मती, मत, विश्वास विवेक।
बिना प्रेम सब धूर हैं, अग-जग एक अनेक।।
5. हरि के सब आधीन, पै हरी प्रेम आधीन।
याही तें हरि आपुहीं, याहि बड़प्पन दीन।।
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