लॉन्जाइनस
यूनानी काव्यशास्त्र मे अरस्तू के पश्चात् लॉन्जाइनस का दूसरा स्थान है। इनकी प्रसिद्ध रचना ‘पेरिइप्सुस’ नाम से जानी जाती है। एक लंबे अर्से तक अतीत के गर्त में पड़ी इस रचना की अंततः 16 वीं शताब्दी में खोज हो सकी।इसका प्रथम संस्करण 1554 ई. में प्रकाशित हो सका। इसके प्रकाशन के बाद ही ‘लाँजाइनस’ का प्रसिद्ध काव्यशास्त्रीय सिद्धांत-जिसे समीक्षा जगत ‘औदात्य सिद्धांत’ के नाम से जानता है,सामने आ सका।
यूनानी काव्यशास्त्र मे अरस्तू के पश्चात् लॉन्जाइनस का दूसरा स्थान है। इनकी प्रसिद्ध रचना ‘पेरिइप्सुस’ नाम से जानी जाती है। एक लंबे अर्से तक अतीत के गर्त में पड़ी इस रचना की अंततः 16 वीं शताब्दी में खोज हो सकी।इसका प्रथम संस्करण 1554 ई. में प्रकाशित हो सका। इसके प्रकाशन के बाद ही ‘लाँजाइनस’ का प्रसिद्ध काव्यशास्त्रीय सिद्धांत-जिसे समीक्षा जगत ‘औदात्य सिद्धांत’ के नाम से जानता है,सामने आ सका।
इसका पहला अंग्रेजी अनुवाद सन् 1652 में हुआ। बोलो (Boleu) के फ्रेंच अनुवाद 1674 से इसकी लोकप्रियता बढ़ी।
ड्राइडेन का कहना है कि यूनानियों में अरिस्टाटल के पश्चात् लाँन्जाइनस सबसे बड़ा आलोचक है।
अठरहवी शताब्दी में यह अत्यन्त लोकप्रिय हुआ और इस कृति के आधार पर बर्क जैसे विद्वानों द्वारा पर्याप्त विचार-विमर्श हुआ।
उसकी पुस्तक ‘आन द सबलाइम’ में अनेक मौलिक सिद्धान्त मिलते है। उसका मानना है कि ‘‘कला या साहित्य का ध्येय आनन्द है वह केवल आनन्दात्मकता के गुण को गौरव देता है।
यूनानी काव्यशास्त्र में अरस्तु की प्रसिद्ध रचना ‘पेरि-पोइतिकेस’ के उपरांत ‘पेरिइप्सुस’ का दूसरा स्थान है। ‘पेरिइप्सुस’ का अर्थ है- औदात्य, ऊँचाई।
इस निबंध का अंग्रेजी में ‘the
sublime नाम से अनुवाद हुआ है।
लान्जाइनस के विचार -
लॉन्जाइनस की ‘पेरिइप्सुस’ कृति का केवल 2/3 भाग उपलब्ध हुआ है। इसका अनुशीलन करने से पता लगता है कि उसका प्रतिपाद्य काव्यगत उदात्त - भावना नहीं है। जैसा कि उसके अँग्रेजी शीर्षक On the sublime से भ्रम होता है ।
इस संबंध में डॉ. नगेन्द्र ने कहा है, ‘‘इसमें उदात्त की प्रेरक भावनाओं और धारणाओं का विश्लेषण नहीं, वरन् उदात्त शैली के आधार तत्त्वों का विवेचन प्रधान है।’’
लॉन्जाइनस के पूर्व कवि का मुख्य कर्म पाठक-श्रोता को आनंद तथा शिक्षा प्रदान करना और गद्य लेखक या वक्ता का मुख्य कर्म अपनी बात मनवाना समझा जाता था।
यदि होमर वक्ता का कर्त्तव्य और उसकी सफलता श्रोताओं को मुग्ध करने में मानता था, तो एरिस्टोफेंस कवि का कर्त्तव्य पाठकों को सुधारना मानते थे।
इसी प्रकार वक्ता का गुण - संतुलित भाषा, सुव्यवस्थित तर्क द्वारा श्रोता के मस्तिष्क पर इस प्रकार छा जाना कि वह वक्ता की बात मान ले, माना जाता था।
लाँजाइनस कहता है किसी भी ग्रन्थ को पढ़ते समय केवल उसकी कथावस्तु अथवा विषय क्षेत्र पर ही ध्यान नही देना चाहिए वरन यह भी देखना चाहिए कि अभिव्यंजनात्मकता की दृष्टि से उसका स्तर क्या है।
उदात की अवधारणाः-
लॉन्जाइनस उन लेखकों में है जिनकी कृति को छोड़कर उनके बारे में कोई जानकारी नही है। इनकी कृति का शीर्षक ‘On the sublime है।
इसके शीर्षक उदातता का अंग्रेजी में कई बार रूपान्तरण हुआ।
इसे ‘भाषण की उच्चता ’ The
hight of eloqueuce ' कहता है। प्लेटो ने इसे ‘उच्चता या भाषण की भव्यता ’ The
loftiness of elegaucy of speech' शीर्षक दिया। बाद में अधिकांश रूपान्तरण भव्यता पर 'On the sub lime' है।
प्रो. टकर ने अपने अनुवाद को ‘शैली की उत्कृष्टता पर’ On
the elevation of style
शीर्षक दिया। और अपनी भूमिका में उदतता के लिए (ublimity)‘अभिव्यक्ति की उत्कृष्टता’ (Excellence of Expresion) के प्रयोग का सुझाव दिया।
शीर्षक दिया। और अपनी भूमिका में उदतता के लिए (ublimity)‘अभिव्यक्ति की उत्कृष्टता’ (Excellence of Expresion) के प्रयोग का सुझाव दिया।
लॉनजाइनस की मुख्य देन (काव्यतत्व) के मूल तत्व की खोज, उसके स्वरूप का विवेचन उसके स्रोत का संकेत तथा उसके प्रभाव का द्योतन है।
‘भव्यता’ के सिद्धांत में पाँच स्रोत इसकी उपलब्धि में सहायक हैं जिनमें दो प्रकृति के आधीन है और शेष तीन ‘कला’ (या प्रक्रिया) द्वारा साध्य हैं।
संक्षेप में ‘भव्यता’ (Sublime) और ‘भावावेश’ 'Ecstasy' के सिद्धांत लॉनजाइनस की मौलिक तथा गंम्भीर दृष्टि के परिचायक हैं।
लॉनजाइनस के मतानुसार ‘भव्यता’ आवेश या ‘अतिरेक’ में स्थित रहती है।(sublimity lies in intensity). ‘‘भव्यता वह स्वर है जो महान मस्तिष्क से ध्वनित होता है।’’ (sublimity is the note that things from a great mind)
क्योंकि असाधारण प्रतिभावान्की Geniu वाक्यावली या पदसमूह Passage श्रोता को सम्बोधन Persuation की ओर न ले जाकर भावावेश की स्थिति में पहुचा देता है।’’
‘भावावेश ’Ecstasy इसी ‘भव्यता’ का परिणाम और लक्ष्य दोनो है।
भावावेश की स्थिति सम्बोधन’ Persuation की स्थिति से ऊपर उठी हुई है और उससे भिन्न है। ‘भावावेश’ की स्थिति में सच्ची भव्यता का जो प्रभाव पड़ता है वह सतत् और सब को आनंददायी होता है और उसकी छाप अमिट होती है।
‘‘यह प्रकृति का सत्य है कि सच्ची ‘भव्यता’ के द्वारा आत्मा ऊँची उठ जाती है। यह गर्वपूर्ण ऊँचा पद प्राप्त करती है। यह आनन्द और आह्लद से भर जाती है, जैसे की मानों जिसको वह सुन रही है उसका उसी ने ही सर्जन किया हो। सचमुच मे महान ‘काव्य वस्तु’ वही है जो नई विचारणा के लिए सामग्री देता है, जिसका विरोध कठिन ही नही प्रत्युत असंभव हो, जिसकी समृद्धि दृढ़ एवं अमिट हो। यह समझ लो कि जो सतत आनन्दित करे और सबको आनंदित करे वह भव्यता का सुन्दर और सच्चा प्रभाव है।’’
लॉनजाइनस के इस उद्गार में विद्वानों को कई महत्वपूर्ण ‘बीज’ सूत्र दिखाई पड़े। ‘‘यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि यह भव्यता और भाव के सम्बध पर विशेष जोर देता है, यह भाषण कला से ऊपर उठकर भव्य वस्तुओं के मस्तिष्क पर पड़ने वाले प्रभाव के उस विश्लेषण को शुरू करता है जो आगे चलकर ‘भव्यता’ की लालित्वमूलक भावना की ओर ले जाने वाला है।’’
भावावेश का उदाहरणः-‘‘ऐसी कृति को इन सभी साधनों के द्वारा हमारे सुनने के साथ हमारा शमन करना चाहिए और हमंे उदात्तता, उच्चभाव और भव्यता तथा उन सब की ओर जो कि उसमें है- प्रत्येक दिशा में, मस्तिष्क के ऊपर पूर्ण अधिकार प्राप्त करते हुए, उन्मुख करना चाहिए।’’
भावावेश का उदाहरणः-‘‘ऐसी कृति को इन सभी साधनों के द्वारा हमारे सुनने के साथ हमारा शमन करना चाहिए और हमंे उदात्तता, उच्चभाव और भव्यता तथा उन सब की ओर जो कि उसमें है- प्रत्येक दिशा में, मस्तिष्क के ऊपर पूर्ण अधिकार प्राप्त करते हुए, उन्मुख करना चाहिए।’’
लॉनजाइनस ‘भव्यता’ केे दोषों की चर्चा करते हुए कहता है कि ‘दोष और गुण का स्रोत एक ही है। जो गुण है वे ही दोष बन जाते हैं। यदि उनके प्रयोग में विवेक से काम न लिया गया।’
लाँन्जाइनस के शब्दों में-‘‘शैली का विवेकपूर्ण निर्णय अत्याधिक अनुभवों का अन्तिम तथा पूर्णतया परिपक्व फल है।’’
इस प्रकार लॉनजाइनस के अनुसार उदातत्ता के पाँच स्रोत हैं। इनमें प्रथम और सबसे शक्तिशाली महान विचारणाओं की संग्रहण शक्ति या महान भावनाओं या धारणाओं की अपार क्षमता है।
दूसरा-उत्तम,शक्तिशाली भावावेग।
भव्यता के ये दोनों तत्व सहजात या प्रकृति प्रदत्त हैं। शेष (तीन) कला द्वारा सम्प्राप्त है।
3. काव्य युक्तियों का समुचित प्रयोग। विचार की युक्तियाँ और पदविन्यास इसके अन्तर्गत है।
4. उदात्त शब्दयोजन है जिसके उपविभाग शब्द-चयन असमान्य कथन व्यास-पद्यति है।
5. आवेश पूर्ण और शालीन प्रवंध है।
‘भव्यता’ के इन स्रोतों को बताते हुए लॉनजाइनस हमें सावधान करता है कि ‘भव्यता’ और भावुकता को एक समझना, उनको सहस्थित या उनका सामान्यस्रोत मानना भूल होगी, क्योंकि कुछ भाव ‘भव्यता’ से बिल्कुल अलग है, और क्षुद्र हैं, जैसे करुणा, दुःख और भय के भाव।
इसी तरह बिना भाव के भी भव्यता हो सकती है। साथ ही ‘‘समुचित भावावेग के समान उच्चता या उद्दात्ता प्रदान करने वाला कोई अन्य नही है। यह जोश एवं दैवी आवेश की साँस फूँक देता है और शब्दों को स्फुरन देता है।’’
लॉन्जाइनस कहता है कि ‘कल्पना’ के द्वारा गुरुत्व, भव्यता और वाक्शक्ति का और भी विकास होता है।
लॉन्जाइनस कहता है कि भव्यता की ओर ले जाने वाला एक मार्ग है पूर्ववर्ती कवियों और लेखकों का अनुकरण।
इसी के साथ वह (अन्य साधनों) युक्तियों का वर्णन करता है। जिनमें मुख्य इस प्रकार हैं- प्रश्नोत्तर, संयोजक शब्दो का त्याग शब्द-समूह के समुचित क्रम में अव्यवस्था, पुरुष, लिंग, संख्या, भूतकाल के लिए वर्तमान का प्रयोग, घुमा फिराकर बात कहना , समुचित और भव्य शब्दों का चुनाव, अतिशयोक्ति । किन्तु इन सबसे भव्यता प्रधान है। यह सब साधन रूप है।
लॉन्जाइनस कहता है त्रुटिहीनता नही प्रत्युत ‘भव्यता’ मनुष्य को देवत्व के निकट ले जाती है।
लॉन्जाइनस ‘भव्यता’ को चरित्र की उदाततता पर आश्रित मानता है। यह उदाहरण दृष्टव्य है -
‘‘मैं यह नही समझ पाता कि यह कैसे सम्भव है कि लोग, जो कि असीम धन का अत्यधिक आदार करते हैं और सच तो यह है कि उसे देवता बना बैठे हैं, आत्मा में उन बुराइयों के प्रवेश को कैसे रोक सकते हैं जो उसके साथ सम्बद्ध है।
धीरे-धीरे सम्पूर्ण जीवन का नाश हो रहा है। आत्मा की महत्ता संकुचित हो रही है और अनुकरणीय नही रह गई है। मनुष्य अपने अमर अंश को छोड़कर नश्वर अंगो की प्रशंसा में लगे हैं और जब हम अपनी आत्मा से ही लाभ का सौदा करते हैं तो क्या सचमुच हम यह आशा करते हैं कि जीवन की इस बरबादी के बीच महान वस्तुओं और चिरतंन वस्तुओं का कोई स्वतंत्र एवं अदूषित पारखी बन रहा होगा।
’’इस प्रकार लॉनजाइनस के इस ग्रंथ का मुख्य उद्देश्य आरम्भ मे भाषण कला से संम्बधित था बाद में शैलीगत किन्तु अपनी व्यापकता के कारण अन्त में वह साहित्यगत या काव्यगत बन गया।
लाँजाइनस काव्य के लिए भावोत्कर्ष को मूल तत्त्व, अति आवश्यक तत्त्व मानते थे। उन्होंने इस बात का पता लगाने की चिंता नहीं की कि इस भावोत्कर्ष, प्रगाढ़ अनुभूति या चरमोल्लास का स्रोत क्या है, पर उसने निर्णायक रूप में यह सिद्धांत प्रस्तुत किया कि काव्य या साहित्य का चरम उद्देश्य चरमोल्लास प्रदान करना है, तर्क द्वार बाध्य करना नहीं ।
लाँजाइनस काव्य के लिए भावोत्कर्ष को मूल तत्त्व, अति आवश्यक तत्त्व मानते थे। उन्होंने इस बात का पता लगाने की चिंता नहीं की कि इस भावोत्कर्ष, प्रगाढ़ अनुभूति या चरमोल्लास का स्रोत क्या है, पर उसने निर्णायक रूप में यह सिद्धांत प्रस्तुत किया कि काव्य या साहित्य का चरम उद्देश्य चरमोल्लास प्रदान करना है, तर्क द्वार बाध्य करना नहीं ।
कहा जा सकता है कि पाश्चात्य साहित्य में रस-आनंदवाद के प्रथम प्रबल प्रवर्त्तक और समर्थक लॉन्जाइनस ही थे। यद्यपि लॉन्जाइनस ने ‘कल्पना’ शब्द का प्रयोग नहीं किया, तथापि उसका स्पष्ट मत था कि साहित्य का संबंध तर्क से नहीं है, कल्पना से है। वह तर्क द्वारा नहीं, कल्पना द्वारा पाठक को अभिभूत करता है ।
यद्यपि लॉन्जाइनस का मत था कि ‘कला प्रकृति के समान प्रतीत होने पर ही संपूर्ण होती है’, तथापि वह कवि के अध्ययन या जिसे भारतीय काव्य-शास्त्र में ‘अभ्यास’ कहा गया है, पर भी कम बल नहीं देते थे। उनका विश्वास था कि प्रतिभा या सौन्दर्य- शक्ति आकाश से यूँ ही नहीं टपक पड़ती, उसके लिए सतत् अभ्यास अपेक्षित होता है।
वे कुशल अलंकार-शास्त्री थे, अतः उन्होंने ‘उदात्त’ के स्रोतों की चर्चा करते समय उसके कलात्मक या बहिरंग पक्ष की भी चर्चा की। अलंकारों के प्रयोग के संबंध में अपना मत दिया तथा तुच्छता या ‘बालेयता’ का विरोध किया।
वस्तुतः लॉन्जाइनस में स्वच्छन्दतावाद और अभिव्यंजनावाद दोनों के तत्त्व विद्यमान है। वे एक अत्यंत संतुलित विचारधारा वाला समन्वयवादी विचारक तथा आलोचक थे, अतः उन्होंने काव्य के अंतरंग और बहिरंग दोनों में औदात्य का समर्थन किया ।
यही कारण है कि उसने विचार तत्त्व और पद-विन्यास को एक-दूसरे से संबद्ध माना- ‘‘विचार और पद -विन्यास अधिकतर एक-दूसरे के आश्रय में विकसित होते है ।’’ तथा कहा - ‘‘सुंदर शब्द ही वास्तव में विचार को विशेष प्रकार का आलोक प्रदान करते हैं ।’’
तात्पर्य यह कि लॉन्जाइनस की दृष्टि में भव्य कविता वही है जो आनंदातिरेक के कारण हमें इतना निमग्न और तन्मय कर दे कि हम अपना मान भूल जाएँ और ऐसी उच्च भाव-भूमि पर पहुँच जाएँ जहाँ निरी बौद्धिकता पंगु हो जाती है और वर्ण्य - विषय विद्युत् प्रकाश की भाँति आलोकित हो उठता है ।’’
वह कहता है, "उद्दात्तता वाणी का ऐसा वैशिष्ट्य और चरमोत्कर्ष है, जिसे महान् कवियों और इतिहासकारों को जीवन में प्रतिष्ठा और यश मिलता है।’’
इनका विचार है कि श्रोता अथवा पाठक को अत्यधिक आनंद प्रदान करने वाला यही तत्त्व है।उन्होंने बताया कि काव्यानंद प्रदान करने वाला तत्त्व रचना-नैपुण्य से भिन्न, अधिक सूक्ष्म और गहरा है। इस तत्त्व को ही इन्होंने उदात्त की संज्ञा दी। इन्होंने कला मात्र को उदात्त माना और कहा कि वहीं कला श्रेष्ठ है, जिसमें हृदय को स्पर्श करने की अद्भुत शक्ति है।
उदात्त को काव्य की आत्मा मानते हुए इन्होंने स्पष्ट किया कि ‘‘काव्य का मूल्यांकन पाठक या श्रोता के मानस पर पड़े उसके प्रभाव के आधार पर ही होना चाहिए। यदि किसी काव्य के पाठक या श्रोता को अपने प्रवाह में वहाँ ले जाने की, उसे इस संसार के ऊपर उठाकर समाधि या तन्मयावस्था में पहुँचा देने की शक्ति है, तो वह काव्य उत्कृष्ट कोटि का है और ऐसा उदात्तता के समावेश से ही किया जा सकता है।अर्थात् उदात्तता काव्य की आत्मा है ।
उदात्त काव्य सृजन के संबंध में लाँजाइनस का मत है कि उदात्त चरित्र और हृदय वाले व्यक्ति ही ऐसे काव्य की रचना कर सकते हैं क्योंकि उदात्तता आत्मा की महानता का प्रतिबिम्ब है।
अतः इन्होंने लिखा है-सच्ची उदात्तता केवल उन्हीं में होती है, जिनकी चेतना उदात्त एवं विकासोन्मुख है। जिनका सारा जीवन तुच्छ एवं संकीर्ण विचारों का अनुसरण करने में व्यतीत होता है, ऐसे व्यक्ति संभवतः मानवता के लिए स्थायी महत्त्व की रचना करने में कभी भी सफल नहीं होते।
यह सर्वथा स्वाभाविक है कि जिनके मस्तिष्क उदात्त धारणाओं में परिपूर्ण हैं, उन्हीं की वाणी से उदात्त शब्द झंकृत हो सकते हैं।औदात्य के स्वरूप के संबंध में लॉन्जाइनस के विचार चार रूपों में दृष्टिगत होते हैं -
1. औदात्य अभिव्यक्ति की उच्चता और उत्कृष्टता का नाम है ।
2. औदात्य अभिव्यक्ति की उच्चता (उदात्तता) श्रोता के तर्क का समाधान नहीं करती, वरन् से पूर्णतया अभिभूत कर लेती है।
3. किसी वस्तु पर विश्वास करें या नहीं, यह अपने वश में हैं,पर औदात्य अपनी प्रबल एवं दुर्विचार शक्ति के कारण पाठक को अनायास ही वहाँ ले जाता है।
4. किसी भी सर्जना को शिल्प, उसकी सुस्पष्ट व्याख्या और तथ्यों के प्रस्तुतीकरण के गुणों का ज्ञान उसके एक या दो अंशों से नहीं, अपितु संपूर्ण रचना के शिल्प विधान से धीरे- धीरे चलता है, जबकि उदात्त विचार यदि अवसर के अनुकूल हों तो एकाएक बिजली की भाँति चमक कर समूची विषय-वस्तु को प्रकाशित कर देता है तथा वक्ता के समस्त वाग्यवैभव को एक क्षण से ही प्रकट कर देता है ।
उदात्तता के मूल प्रेरक तत्त्व -
लॉन्जाइनस ने उदात्तता के मूलाधार पाँच तत्त्व माने हैं-
1. औदात्य अभिव्यक्ति की उच्चता और उत्कृष्टता का नाम है ।
2. औदात्य अभिव्यक्ति की उच्चता (उदात्तता) श्रोता के तर्क का समाधान नहीं करती, वरन् से पूर्णतया अभिभूत कर लेती है।
3. किसी वस्तु पर विश्वास करें या नहीं, यह अपने वश में हैं,पर औदात्य अपनी प्रबल एवं दुर्विचार शक्ति के कारण पाठक को अनायास ही वहाँ ले जाता है।
4. किसी भी सर्जना को शिल्प, उसकी सुस्पष्ट व्याख्या और तथ्यों के प्रस्तुतीकरण के गुणों का ज्ञान उसके एक या दो अंशों से नहीं, अपितु संपूर्ण रचना के शिल्प विधान से धीरे- धीरे चलता है, जबकि उदात्त विचार यदि अवसर के अनुकूल हों तो एकाएक बिजली की भाँति चमक कर समूची विषय-वस्तु को प्रकाशित कर देता है तथा वक्ता के समस्त वाग्यवैभव को एक क्षण से ही प्रकट कर देता है ।
उदात्तता के मूल प्रेरक तत्त्व -
लॉन्जाइनस ने उदात्तता के मूलाधार पाँच तत्त्व माने हैं-
1.उदात्त विचार
2. भावों का उदात्त रूप में चित्रण,
3.समुचित अलंकार योजना
4.उत्कृष्ट भाषा 5.गरिमामय रचना विधान ।
1. उदात्त विचार -
उदात्त विचार से तात्पर्य है-उत्कृष्ट,उच्च विचार।लॉन्जाइनस का मत है कि काव्य के उत्तम विचारों की अभिव्यक्ति होनी चाहिये।उदात्त विचार उसी साहित्यकार के होंगे,जिसका चरित्र महान् होगा जिसके अपने विचार महान् होंगे,जिसका हृदय विशाल होगा,जो श्रेष्ठ आत्मा वाला होगा।
यह‘उदात्त वाणी सदात्मा व्यक्तियों को सहज ही प्राप्त ही है।औदात्य महान् आत्मा की सच्ची प्रति ध्वनि होती है।’’इन धारणाओं के कारण ही लाँजाइनस ने उदात्त विचार को काव्य का सर्वप्रमुख गुण माना और नैसर्गिक प्रतिभा का पर्याप्त स्वीकार किया ।
2. भावों की उत्कटता -
भावों की उत्कटता का अभिप्राय ऐसे आवेश से है,जिसके परिणामस्वरूप आत्मा का उत्कर्ष होता है तथा आत्मा हर्ष उल्लास से परिपूर्ण होकर उच्चाकाश में विचरण करने लगती है।लॉन्जाइनस की मान्यता है-भव्यता के लिए उचित प्रसंग में सच्चे भाव से बढ़कर साधन और कुछ नहीं होता।यह शब्दों को एक मनोरम उन्माद से अनुप्रमाणित कर देता है और उन्हें दिव्य आवेश से भर देता है। इन्होंने औदात्य और संवेग में कोई अंतर नहीं माना। आवेश अथवा संवेग के भव्य और निम्न दो भेद करते हुए लाँजाइनस ने दया,शोक,भय से संबंधित संवेगों को निम्न कोटि का माना तथा आत्मा का उत्कर्ष करने वाले संवेगों को भव्य। एक स्थान पर उन्होंने संवेग को ‘आत्मा का प्रखर विक्षोभ’ कहा और उदात्त के लिए संवेगों का प्रबल होना स्वीकार किया। इस प्रकार इन्होंने महान् और पुष्ट विचारों के साथ-साथ प्रबल भावावेग को ही महत्त्व दिया।
3. समुचित अलंकार योजना -
औदात्य की सिद्धि के लिए लॉन्जाइनस ने समुचित अलंकार योजना पर बल दिया।यद्यपि इससे पूर्व भी काव्य में अलंकारों का प्रयोग किया जाता था परंतु उनका प्रयोग अमनोवैज्ञानिक था।लॉन्जाइनस ने स्पष्ट किया कि‘‘अलंकार सर्वाधिक प्रभावशाली तब होता है,जब इस बात पर ध्यान ही न जाये कि वह अलंकार है।’’ इनका विचार था कि अलंकारों का प्रयोग केवल चमत्कार उत्पन्न करने के लिये नहीं वरन् पाठक को आनंद प्रदान करने के लिए और अर्थ को प्रभावशाली बनाने के लिए होना चाहिए। साथ ही अलंकारों का प्रयोग स्थल, विषय, परिस्थिति, उद्देश्य एवं प्रसंगानुकूल होना चाहिए । इन सबसे स्पष्ट है कि लोंजाइनस ने अलंकारों के स्वाभाविक प्रयोग पर बल दिया है ।
4. उत्कृष्ट भाषा -
उत्कृष्ट भाषा से अभिप्राय है अभिजात पद् रचना। तात्पर्य यह है कि भाषा का सरल,स्वाभाविक और प्रभावपूर्ण प्रयोग होना चाहिये।प्रसंगानुकूल भाषा सरल, सुबोध और गारिमापूर्ण होना चाहिए।सर्वत्र गरिमामय, परिष्कृत और प्रौढ़ भाषा का प्रयोग इनकी दृष्टि में उचित नहीं है।इसलिए इन्होंने लिखा है-‘ ‘गरिमामयी भाषा प्रत्येक अवसर के अनुकूल नहीं,क्योंकि छोटी-छोटी बातों को भारी भरकम संज्ञा देना, किसी छोटे से बालक के मुख पर पूरे आकार वाला मुखाटा लगा देने के समान है।’’
इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए इन्होंने एक अन्य स्थान पर लिखा-‘‘ग्राम्य उक्ति कभी-कभी सुरुचिपूर्ण भाषा की अपेक्षा कहीं अधिक प्रभावशाली होती है ।’’ इस प्रकार स्पष्ट है कि लाँजाइनस ने काव्य में औदात्य के प्रसंगानुकूल सरल,स्वाभाविक परिष्कृत,ओजगुण युक्त और गरिमामयी भाषा (पदावली) के प्रयोग पर बल दिया है ।
5. गरिमामयी रचना विधान -
गरिमामयी रचना विधान का तात्पर्य शब्दों,विचारों और कार्यो आदि के समुचित प्रयोग अथवा समन्वय से है। इस संबंध में अपना मत स्पष्ट करते हुए लाँजाइनस ने लिखा-‘‘मेरा आशय एक विशिष्ट क्रम में शब्दों की योजना से है।’’
शैलीगत शरीर के विभिन्न अवयवों के अलग-अलग रहने पर कोई महत्त्च नहीं सब मिलकर ही वे एक समग्र और संपूर्ण शरीर की रचना करते हैं। इसी प्रकार उदात्त शैली के सभी तत्त्व जब एकान्वित कर दिए जाते,तभी उनके कारण कृति गरिमामयी बन पाती है। इससे स्पष्ट होता है कि इन्होंने औदात्य के लिये समन्वय पर विशेष जोर दिया।
सारांश यह कि लॉन्जाइनस का यह काव्य कला संबंधी विवेचन पूर्ण रूपेण मौलिक है।उन्होंने प्लेटों और अरस्तु के सिद्धांतों को पूर्णता प्रदान की तथा युगों से साहित्य के संबंध में चली आ रही बद्धमूल धारणाओं का परिष्कार और उन्नयन कर समीक्षा के क्षेत्र में क्रांति सी उत्पन्न कर दी थी।
लॉन्जाइनस ने उदात्त तत्त्व की व्याख्या का महत्त्व तब और भी अधिक बढ़ जाता है जब हम आधुनिक आलोचकों बै्रंडले, काण्ट आदि की विचारधारा तथा लॉन्जाइनस की धारणाओं में समानता पाते हैं।
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