Monday, 16 December 2019

घनानन्द


 घनानन्द
      परिचय:  घनानन्द रीतिमुक्त स्वच्छन्द धारा के सर्वश्रेष्ठ कवि थे। रीतिकाल में होते हुए भी इन्होंने रीत-परम्पराओं से मुक्त होकर अपनी रचनाएँ कीं। इनका जन्म बुलन्दशहर जिले से मिले हुए कस्बे में सं. 1746 के आस-पास हुआ। ये भटनागर कायस्थ थे। बचपन बिताकर ये दिल्ली गये और दिल्ली के समकालीन बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार में मीरमुंशी हो गये। ये अच्छे गायक, श्रेष्ठ कवि और प्रेमी जीव थे। ये अद्भुत कला पारखी भी थे। ये बादशाह के दरबार में रहने-वाली वैष्या सुजान पर अनुरक्त थे, क्योंकि वह भी गायन, वीणवादन एवं नृत्य में निपुण थी। एक बार इनके गायन की ख्याति सुनकर बादशाह ने इनसे गाने के लिए कहा, परन्तु इन्होंने टाल दिया। उस समय कुछ लोगों ने बादशाह से कहा कि ये सुजान के कहने से गायेंगे। दरबार में सुजान बुलायी गयी और उसके कहने पर उसकी ओर मुँह और बादशाह की ओर पीठ करके बहुत सुन्दर गाया। बादशाह इनके गाने से बहुत प्रसन्न हुआ। परन्तु इनकी बेअदबी से क्रुध हो दरबार से निकाल दिया। दरबार से जाते समय इन्होंने सुजान को साथ चलने के लिए कहा, किन्तु उसने इनकार कर दिया। सुजान की इस अस्वीकृति से इन्हें जो वेदना मिली, वही इनके काव्य सर्जन की मूल प्रेरणा बन गयी।
 इसके बाद ये वृन्दावन चले गये और वहाँ निमम्बार्क सम्प्रदाय में दीक्षित हो ‘सखि भाव’ से कृष्ण-भक्ति में तल्लीन रह कर अनेक ग्रंथों की रचना की। उन रचनाओं में ‘सुजान’ शब्द का बहुत अधिक प्रयोग हुआ है। जिससे स्पष्ट है कि ये अन्त तक ‘रसुजान’ को नहीं भूल सके और अन्ततोगत्वा इनका सुजान-प्रेम कृष्ण-प्रेम में परिणत हो गया।
 सं.1817 में अहमदशाह अब्दाली ने मथुरा पर आक्रमण किया। उस समय लोगों ने अब्दाली के सिपाहियों को बादशाह के मीरमुंशी के रूप में घनानन्द को बता दिया। जब उन सिपाहियों ने घनानन्द के पास पहुँचकर इनसे जर यानी धन माँगा, तब इन्होंने ‘रज-रज’ करते हुए मथुरा की दो-तीन मुट्ठी धूल उनकी और फेंक दी। इससे सिपाहियों ने क्रु ध होकर  इनका बध कर दिया।
 घनानन्द की कृतियों के सम्बन्ध में विभिन्न इतिहासकारों ने अलग-अलग नाम दर्शाये हैं, परन्तु अनेक वर्षों के श्रमपूर्ण अनुसन्धान के पश्चात् आचार्य पं.विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने प्रामाणिकता सिद्ध करते हुए ‘घन आनन्द-ग्रंथावली’ प्रकाशित की है, जिसमें 39 रचनाओं का नाम उल्लेख है।

पाठ्यक्रम में निर्धारित घनानन्द की रचनाएँ-

परकाजहि देह को धारि फिरौ परजन्य जथारथ ह्वै दरसौ।
निधि नीर सुधा के समान करौ सबही बिधि सज्जनता सरसौ।
घनआँनद जीवन दायक हौ कछु मेरियौ पीर हियें परसौ।
कबहूँ वा बिसासी सुजान के आँगन मो अँसुवानहिं लै बरसौ।।1।।

हीन भएं जल मीन अधीन कहा कछु मो अकुलानि समाने।
नीर सनेही कों लाय अलंक निरास ह्वै कायर त्यागत प्रानै।
प्रीति की रीति सु क्यों समुझै जड़ मीत के पानि परें कों प्रमानै।
या मन की जु दसा घनआँनद जीव की जीवनि जान ही जानै।। 2।।

घनआँनद जीवन मूल सुजान की कौंधनि हूँ न कहाँ दरसैं।
सु न जानिये धौं कित छाय रहे दृग चातक प्रान तपै तरसैं।
 बिन पावस तो इन्हें थ्यावस हो न सु क्यों करि ये अब सो परसैं।
बदरा बरसै रितु में घिरि कै नितहीं अँखियाँ उघरी बरसैं।।3।।

अंतर आँच उसास तचै अति, अंग उसीजे उदेग की आवस।
ज्यौं कहलाय मसोसनि ऊमस क्यों हँू कहूँ सुघरै नहीं ध्यावस।
नैननि धारि दिये बरसै घनआँनद छाई अनोखियै पावस।
जीवनि मूरति जान को आनन है बिन हेरै सदाई अमावस।। 4।।

अन्तर हौ किधौं अन्त रहौ, दृग फारि फिरौ कि अभागिनि भीरौं।
आगि जरौं अकि पानी परौं अब कैसी करौं हिय का बिधि धीरौं।
जौ घनआनँद ऐसी रुची, तौ कहा बस है अहा प्राननि पीरौं।
 पाऊँ कहाँ हरि हाय तुम्हैं, धरनी मैं धसों कि अकासहिं चीरौं।। 5।।

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