कुकुरमुत्ता
निराला
निराला
निराला छायावादी कविता के सुकुमार, लालित्यमय, संस्कृतनिष्ठ वासंती माहौल के बीच उपजे एक दुर्लभ कवि थे। यह वह युग था, जब साहित्य में कवि सम्मेलनों, संस्थानों व नई-नई पत्रिकाओं का बोलबाला था।
निराला जब आए तो कबीर के शब्दों में ' सबै भ्रम की टाटी उड़ाने वाली एक दुर्दांत आंधी बनकर' और देखते-देखते कवि तथा कविता की छुईमुई छवि को समाप्त कर दिया।
40 के दशक में इस विलक्षण कवि का कुकुरमुत्ता सरीखा अक्खड़ किंतु अद्भुत रूप से पठनीय काव्य संकलन छपा। यह संकलन युवाओं और युवा पाठक के लिए हिंदी साहित्य का एक बिलकुल नया द्वार खोलता था।
पुरानी कविता और रीतिकालीन कविता का तुकांत निर्मल संगीत और बोलियों का पिया, हिया भरा रीतिकालीन स्वर या फारसी का आभिजात्यपूर्ण सामंती आडंबर नए भारत के नए पाठक-लेखक को अब रिझाता कम खिझाता अधिक था।
उन युवाओं की तरह निराला खुद अकाल, दुष्काल, बमबारी और नीची आयुष्य वाले बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में गरीबी, सामाजिक जड़ता, प्रियजनों की अकाल मौत देख-जी चुके थे।
अपनी रचनाओं तथा पत्राचार के पन्ने में वे हमको चौंकाने वाली बेबाकी से बताते हैं कि दो महायुद्धों के बीच के अर्धसामंती, अर्धखेतिहर राज-समाज में बैसवाड़े के सामान्य ब्राह्मण परिवार की परंपराओं और गांधी की आंधी व सुधारवादी नएपन की चुनौतियों के बीच किशोरवय से ही उनका संवेदनशील मन किस तरह मथा जाता रहा था।
उनके लठ्ठ भांजने वाले तेवर ने जड़ीभूत राज-समाज को चुनौती देने वाले कुकुरमुत्ता के पहले संस्करण (4.6.42) की भूमिका में कवि को कोमल अशरीरी और भौतिकता से कतई दूर मानने वालों के विरुद्ध उनका बगावती तेवर साफ दिखाई देता है -
‘इसमें वही शरीक होंगे, जिन्हें न्योता नहीं भेजा गया, साथ ही जो कंगाल नहीं, न ऐसे बड़े आदमी, जो अपनी जगह गड़े रह गए। मतलब साफ है। हम दोनों मतलब के। न हम पैरों पड़ें, न वह। मिहनत की कमाई हम भी खाएं, वह भी।’
‘इसमें वही शरीक होंगे, जिन्हें न्योता नहीं भेजा गया, साथ ही जो कंगाल नहीं, न ऐसे बड़े आदमी, जो अपनी जगह गड़े रह गए। मतलब साफ है। हम दोनों मतलब के। न हम पैरों पड़ें, न वह। मिहनत की कमाई हम भी खाएं, वह भी।’
अपने उन साहित्यिक तथा राजनैतिक अग्रजों से, जो यथास्थिति के पक्ष में थे, निराला का छायावादी छंदबद्धता की थीसिस के साथ एंटीथीसिस का रिश्ता बना।
उनकी कविताओं में नियमानुशासन का बोध तो है, पर मृत हो चुके नियमों से ईमानदार चिढ़ व खीझ भी।
प्रकाशन जगत का बाजारवाद व भाषा व छंद के साथ नए प्रयोग लेखन की भीतरी जरूरत के साथ लेखक की नियमित आय व नए पाठकों की रुचि का वाहक भी होते हैं, यह बोध उनके पत्रों में साफ है।
गांधी का जादू अंत तक निराला को भी बांधे रहा। लेकिन गांधी के सत्य के जिन अनेक प्रयोगों से और गांधीवादियों की कुछ किस्मों से कई बार उनको विरक्ति महसूस होती रहती थी।
उन पर भी निराला ने (विचार पत्रिका के लिए) एक चर्चित कविता, बापू के प्रति लिखी :
"बापू, तुम मुर्गी खाते यदि, तो क्या भजते होते तुमको, ऐरे-गैरे नत्थूखैरे? सर के बल खड़े हुए होते हिंदी के इतने लेखक कवि? "
कवि ने इस कविता में अपने समय में सामाजिक वर्जनाओं और आमो-खास की भावनाओं का द्वैत ही नहीं, हिंदी के प्रतिष्ठान की जड़ता और दास्यभरी मानसिकता को भी क्या खूब लपेटा है।
कवि से उनकी नई रचना साग्रह मंगवाने वाले संपादक भगवतीचरण वर्मा ने यह रचना छापी तो, पर रचना के साथ इसे ऊलजलूल आदि कहते हुए अपना एक निंदापरक नोट भी चेंप दिया था। आज वह नोट बिसर-सा गया है, पर कविता अभी भी अपनी जगह अपना आंका-बांका सवाल लिए मुस्कराती है, उसी तरह जैसे नेहरूयुगीन भद्रलोक पर कटाक्ष करती रचना में किसी रईस के बागीचे का वह बेअदब कुकुरमुत्ता।
कुकुरमुत्ता
आया मौसिम खिला फारस का गुलाब,
बाग पर पड़ा था उसका रोबोदाब।
वहीं गंदे में उगा देता हुआ बुत्ता,
पहाड़ी से उठे सर ऐंठ कर बोला कुकुरमुत्ता।
अबे, सुन बे गुलाब!
एक थे नव्वाब
फ़ारस से मंगाए थे गुलाब।
बड़ी बाड़ी में लगाए
देशी पौधे भी उगाए
रखे माली, कई नौकर ।
गजनवी का बाग मनहर
लग रहा था। / एक सपना जग रहा था / सांस पर तहजबी की, / गोद पर तरतीब की। / क्यारियां सुन्दर बनी / चमन में फैली घनी। / फूलों के पौधे वहाँ /लग रहे थे खुशनुमा।
बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी, / जूही, नरगिस, रातरानी, कमलिनी, / चम्पा, गुलमेंहदी, गुलखैरू, गुलअब्बास, / गेंदा, गुलदाऊदी, निवाड़, गन्धराज, / और किरने फ़ूल, फ़व्वारे कई, / रंग अनेकों-सुर्ख, धनी, चम्पई, / आसमानी, सब्ज, फिऱोज सफ़ेद, / जर्द, बादामी, बसन्त, सभी भेद।
फ़लों के भी पेड़ थे, / आम, लीची, सन्तरे और फ़ालसे। / चटकती कलियां, निकलती मृदुल गन्ध,/ लगे लगकर हवा चलती मन्द-मन्द,।
चहकती बुलबुल, मचलती टहनियां, / बाग चिडिय़ों का बना था आशियाँ। / साफ़ राह, सरा दानों ओर, / दूर तक फैले हुए कुल छोर, / बीच में आरामगाह / दे रही थी बड़प्पन की थाह। कहीं झरने, कहीं छोटी-सी पहाड़ी, / कही सुथरा चमन, नकली कहीं झाड़ी।
आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब, / बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब; / वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता / पहाड़ी से उठे-सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता-
-‘अब, सुन बे, गुलाब, / भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब, / खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट, / डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट!
कितनों को तूने बनाया है गुलाम, / माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम, / हाथ जिसके तू लगा, / पैर सर रखकर वो पीछे को भागा / औरत की जानिब मैदान यह छोडक़र, / तबेले को टट्टू जैसे तोडक़र, / शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा / तभी साधारणों से तू रहा न्यारा।
वरना क्या तेरी हस्ती है, पोच तू / कांटों ही से भरा है यह सोच तू / कली जो चटकी अभी / सूखकर कांटा हुई होती कभी।
रोज पड़ता रहा पानी,/ तू हरामी खानदानी।/ चाहिए तुझको सदा मेहरून्निसा / जो निकाले इत्र, रू, ऐसी दिशा / बहाकर ले चले लोगो को, नहीं कोई किनारा / जहाँ अपना नहीं कोई भी सहारा / ख्वाब में डूबा चमकता हो सितारा ।
पेट में डंड पेले हों चूहे, जबां पर लफ्ज़ प्यारा। / देख मुझको, मैं बढ़ा / डेढ़ बालिश्त और ऊंचे पर चढ़ा / और अपने से उगा मैं / बिना दाने का चुगा मैं ।
कलम मेरा नही लगता / मेरा जीवन आप जगता / तू है नकली, मै हूँ मौलिक / तू है बकरा, मै हूँ कौलिक / तू रंगा और मैं धुला / पानी मैं, तू बुलबुला / तूने दुनिया को बिगाड़ा / मैंने गिरते से उभाड़ा ।
तूने रोटी छीन ली जनखा बनाकर / एक की दी तीन मैने गुन सुनाकर। / काम मुझ ही से सधा है/शेर भी मुझसे गधा है / चीन में मेरी नकल, छाता बना / छत्र भारत का वही, कैसा तना / सब जगह तू देख ले / आज का फिर रूप पैराशूट ले।
विष्णु का मैं ही सुदर्शनचक्र हूँ। / काम दुनिया मे पड़ा ज्यों, वक्र हूँ। / उलट दे, मैं ही जसोदा की मथानी / और लम्बी कहानी-/ सामने लाकर मुझे बेंड़ा / देख कैंडा / तीर से खींचा धनुष मैं राम का। / काम का-/ पड़ा कन्धे पर हूँ हल बलराम का।
सुबह का सूरज हूँ मैं ही / चांद मैं ही शाम का। / कलजुगी मैं ढाल / नाव का मैं तला नीचे और ऊपर पाल। / मैं ही डांड़ी से लगा पल्ला / सारी दुनिया तोलती गल्ला /।
मुझसे मूछें, मुझसे कल्ला / मेरे उल्लू, मेरे लल्ला / कहे रूपया या अधन्ना / हो बनारस या न्यवन्ना / रूप मेरा, मैं चमकता / गोला मेरा ही बमकता। / लगाता हूँ पार मैं ही / डुबाता मझधार मैं ही। / डब्बे का मैं ही नमूना / पान मैं ही, मैं ही चूना
..मैं कुकुरमुत्ता हूँ,।
..मैं कुकुरमुत्ता हूँ,।
पर बेन्जाइन (क्चद्गठ्ठद्दशद्बठ्ठ) वैसे /बने दर्शनशास्त्र जैसे। / ओमफ़लस (ह्रद्वश्चद्धड्डद्यशह्य) और ब्रहमावर्त / वैसे ही दुनिया के गोले और पर्त / जैसे सिकुडऩ और साड़ी,/ ज्यों सफ़ाई और माड़ी। / कास्मोपालिटन और मेट्रोपालिटन / जैसे फ्ऱायड और लीटन। / फ़ेलसी और फ़लसफ़ा / जरूरत और हो रफ़ा। /सरसता में फ्राड / केपिटल में जैसे लेनिनग्राड। / सच समझ जैसे रकीब / लेखकों में लण्ठ जैसे खुशनसीब।
..मैं डबल जब, बना डमरू / इकबगल, तब बना वीणा। / मन्द्र होकर कभी निकला / कभी बनकर ध्वनि छीणा।
मैं पुरुष और मैं ही अबला। / मै मृदंग और मैं ही तबला। / चुन्ने खां के हाथ का मैं ही सितार / दिगम्बर का तानपूरा, हसीना का सुरबहार।
मैं ही लायर, लिरिक मुझसे ही बने / संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, ग्रीक, लैटिन के जने / मन्त्र, गज़लें, गीत, मुझसे ही हुए शैदा / जीते है, फिर मरते है, फिर होते है पैदा।
वायलिन मुझसे बजा / बेन्जो मुझसे सजा। / घण्टा, घण्टी, ढोल, डफ़, घडिय़ाल, / शंख, तुरही, मजीरे, करताल, / करनेट, क्लेरीअनेट, ड्रम, फ़्लूट, गीटर, / बजानेवाले हसन खां, बुद्धू, पीटर, / मानते हैं सब मुझे ये बायें से, / जानते हैं दाये से।
..ताताधिन्ना चलती है जितनी तरह / देख, सब में लगी है मेरी गिरह / नाच में यह मेरा ही जीवन खुला / पैरों से मैं ही तुला। / कत्थक हो या कथकली या बालडान्स, / क्लियोपेट्रा, कमल-भौंरा, कोई रोमान्स ।
बहेलिया हो, मोर हो, मणिपुरी, गरबा, / पैर, माझा, हाथ, गरदन, भौंहें मटका / नाच अफ्ऱीकन हो या यूरोपीयन, / सब में मेरी ही गढऩ। / किसी भी तरह का हावभाव, / मेरा ही रहता है सबमें ताव।
मैने बदलें पैंतरे, / जहां भी शासक लड़े। / पर हैं प्रोलेटेरियन झगड़े जहां, / मियां-बीबी के, क्या कहना है वहां।
नाचता है सूदखोर जहां कहीं ब्याज डुचता, / नाच मेरा क्लाईमेक्स को पहुचंता। / नहीं मेरे हाड़, कांटे, / काठ कानहीं मेरा बदन आठोगांठ का। / रस-ही-रस मैं हो रहासफ़ेदी का जहन्नम रोकर रहा।
दुनिया में सबने मुझी से रस चुराया,रस में मैं डूबा-उतराया। मुझी में गोते लगाये वाल्मीकि-व्यास ने / मुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने। / टुकुर-टुकुर देखा किये मेरे ही किनारे खड़े / हाफिज़-रवीन्द्र जैसे विश्वकवि बड़े-बड़े।
कहीं का रोड़ा, कही का पत्थर / टी.एस. एलीयट ने जैसे दे मारा / पढऩेवाले ने भी जिगर पर रखकर / हाथ, कहां,’लिख दिया जहां सारा’।
ज्यादा देखने को आंख दबाकर / शाम को किसी ने जैसे देखा तारा। / जैसे प्रोग्रेसीव का कलम लेते ही / रोका नहीं रूकता जोश का पारा / यहीं से यह कुल हुआ/ जैसे अम्मा से बुआ। / मेरी सूरत के नमूने पीरामेड / मेरा चेला था यूक्लीड / रामेश्वर, मीनाछी, भुवनेश्वर,/ जगन्नाथ, जितने मन्दिर सुन्दर / मैं ही सबका जनक / जेवर जैसे कनक।
हो कुतुबमीनार,/ ताज, आगरा या फ़ोर्ट चुनार,/ विक्टोरिया मेमोरियल, कलकत्ता,/ मस्जिद, बगदाद, जुम्मा, अलबत्ता/सेन्ट पीटर्स गिरजा हो या घण्टाघर,/गुम्बदों में, गढऩ में मेरी मुहर।
एरियन हो, पर्शियन या गाथिक आर्च/पड़ती है मेरी ही टार्च।/पहले के हो, बीच के हो या आज के/चेहरे से पिद्दी के हों या बाज के।
चीन के फ़ारस के या जापान के/अमरिका के, रूस के, इटली के, इंगलिस्तान के।/ईंट के, पत्थर के हों या लकड़ी के/कहीं की भी मकड़ी के।
बुने जाले जैसे मकां कुल मेरे/छत्ते के हैं घेरे।/सर सभी का फ़ांसनेवाला हूं ट्रेप/टर्की टोपी, दुपलिया या किश्ती-केप।/और जितने, लगा जिनमें स्ट्रा या मेट,/ देख, मेरी नक्ल है अंगरेजी हेट।
घूमता हूं सर चढ़ा,/तू नहीं, मैं ही बड़ा।’
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