Monday, 16 December 2019

रीतिकाल : परिवेश एवं प्रवृत्तियाँ

 (2) रीतिकाल : परिवेश एवं प्रवृत्तियाँ
रीतिकालीन परिस्थितियाँ एवं पृष्ठभूमि- भाषा साहित्य के निर्माण में युगीन वातावरण का विशेष योग हुआ करता है। क्योंकि युगीन वातावरण राजनीति, समाज, संस्कृति, साहित्य और कला के मूल्यों द्वारा निर्मित होता है, अतएव युग विशेष के साहित्य के अध्ययन के लिए तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अवस्था का ज्ञान होना अपने आप में अनिवार्य हो जाता है। रीतिकालीन साहित्य के अध्ययन के प्रसंग में यह अनिवार्यता और अधिक बढ़ जाती है। कारण इस साहित्य के निर्माण की दो-ढाई सौ वर्ष की दीर्घ अवधि में देश की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अवस्था में अनेक उतार-चढ़ाव आये तथा वर्ग विशेष की अभिरूचि द्वारा नियमित होने के कारण साहित्य और कला ने विशिष्ट दिशा प्राप्त की।
(क) राजनीतिक पृष्ठभूमि- राजनीतिक दृष्टि से यह काल (सं.1700 से 1900 तक) सन् 1643 से 1843 तक मुगलों के शासन के वैभव के चरमोत्कर्ष और उसके बाद उत्तरोत्तर अपकर्ष और विनाश का युग कहा जा सकता है। शाहजहां के काल में मुगल-वैभव अपनी चरम सीमा पर रहा। जहांगीर ने अपने शासनकाल में राज्य का जो विस्तार किया था, शाहजहां ने उसकी वृद्धि इतनी की कि उत्तर-भारत के अतिरिक्त दक्षिण में अहमदनगर, बीजापुर और गोलकुंडा राज्य तथा उत्तर पश्चिम में सिंध के लहरी बंदरगाह से ले कर आसाम में सिलहट और अफगान प्रदेश के बिस्त के किले से ले कर दक्षिण के औसा तक साम्राज्य का विस्तार हो गया था। इसका अर्थ यहाँ केवल इतना ही लिया जाना उचित होगा कि हमारे देशी राजघरानों, रियासतों से उसने संधि कर ली थी। वस्तुत: यह एक शोध का विषय है कि संधि और कुछ शर्तों को राज्य का आधीन या गुलाम हो जाना कहना क्या उचित है ? वस्तुत: राजा तो राजपूत ही थे। भारत जब स्वतंत्र हुआ (अर्थात परकीयों तथा अपनों दोनों से युद्ध विराम हुआ) तब रियासतों का बिलीनीकरण हुआ। अर्थात भारत कभी न तो मुगलों के एक छत्र अधीन रहा और न अंग्रेजों के। इसके इतिहास में हजारों प्रमाण हैं। राजपूतों ने भी विश्वास पात्र एवं स्वामीभक्त सेवक हो कर दिल्ली शासन की संधि स्वीकार कर ली थी। देश में सामन्य रूप से शांति थी। राजकोष भरापूरा था। ताजमहल और मयूर-सिंहासन का भी निर्माण हो चुका था। किंतु इसके पश्चात शाहजहां के रुग्ण होने और उसकी मृत्यु की अफवाह फैलने के कारण 1658 ई. में उसके पुत्रों में सत्ता के लिए संघर्ष आरंभ होते ही यह वैभवशाली साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर हो गया। मुगलों में उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम नहीं था, दूसरा उसका ज्येष्ठ पुत्र दाराशिकोह अपनी धार्मिक सहिष्णुता एवं उदारता के लिए जितना लोकप्रिय था, उससे छोटा औरंगजेब नही था। किन्तु दारा कूटनीतिज्ञ नही था। जबकि औरंगजेब का व्यक्तित्व दृढ़ और कठोर था। वह कट्टर सुन्नी था। अत: दोनों में ही युद्ध हुआ और वह युद्ध मानों संस्कृति एवं राजनीति का युद्ध था। यही कारण था कि औरंगजेव ने ज्यों ही शासन की बागडोर संभाली त्यों ही जागीदारों, राजाओं और हिन्दुओं के धार्मिक उपद्रव आरंभ हो गये। सबसे विकट उपद्रव आगरा, अवध और इलाहाबाद के सूबों में हुए। आगरा प्रान्त में गोकुल के नेतृत्व में जाटों ने, अवध में बैस राजपूतों ने और इलाहाबाद में हरदी तथा अन्य जमींदारों ने शासन की अन्यायपूर्ण नीति के विरुद्ध विद्रोह किया। औरंगजेब ने यथासमय सभी को शांत करने का प्रयत्न करता रहा किन्तु प्रतिशोध के लिए मथुरा में केशवदास का मंदिर और काशी में विश्वनाथ का मंदिर विध्वंस करा दिया। उधर बुंदेलखंड के चम्पतराय और उनके पुत्र महाराज छत्रसाल आजीवन मुगलों का विरोध करते रहे। कविवर लाल ने अपने ग्रंथ ‘छत्र-प्रकाश’ में उनकी वीरता और बलिदान का ओजस्वी  वर्णन किया है-‘मारि तुरक कौ मुुँह मुरकायौ । रन में विजै बुँदेला पायौ।’
इधर मारवाड़ के उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर अशांति हुई। राजा जसवंत सिंह की मृत्यु के उपरांत औरंगजेब ने जयपुर पर अधिकार कर लिया जिसके कारण मारवाड़ और मेवाड़ मुगलों के विरुद्ध हो गए-उधर उन्होंने शाहजादा अकबर को भी अपनी ओर तोडक़र औरंगजेब को विषम परिस्थिति में डाल दिया। अन्त में हार तो राजपूतों की ही हुई फिर भी दुर्गादास अंत तक मुगलों का सामना करता रहा। इधर हिन्दू धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों में आत्मरक्षा हेतु जागृति आयी। नारलौल और मेवाड़ के प्रांतों में सतनामी मत के लोगों ने भयंकर धार्मिक विश्वास का परिचय दिया। उनके अद्भुत साहस को देखकर तो मुगल सैनिक अप्राकृतिक शक्तियों का संदेह करने लगे और स्वयं औरंगजेब को-जो मुसलमानों का ‘जिन्दा पीर’ समझा जाता था- को अपने हाथों से दुआएँ और आयतें लिख-लिख कर शाही झंडों में टाँकनी पड़ी। पंजाब में गुरु तेगबहादुर की हत्या और गुरु गोविन्द सिंह के बच्चों पर किए गए पाशविक अत्याचार ने उनको तिलमिला दिया था और सिख धर्म के नीचे एक सैनिक दल का निर्माण हुआ। दक्षिण में शिवाजी के नेतृत्व में अनेक युद्ध हुए और हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना हुई। समर्थ रामदास के प्रभाव ने दक्षिण में राष्ट्रीय पुनर्जागरण का काम किया।
परिणाम यह हुआ कि उसके शासन काल का अधिकांश इन उपद्रवों के दमन में ही व्यतीत हुआ। वह शासन को सशक्त एवं इतने विस्तृत साम्राज्य को सुगठित न कर सका। दूसरे, क्योंकि वह अहंवादी था तथा उसके हुक्म का उल्लंघन अपराध होता था, इसलिए उसके पुत्रों में किसी के भीतर प्रतिभा और व्यक्तित्व का ऐसा विकास न हो सका कि वह पुन: हिन्दुओं में विश्वास उत्पन्न कर साम्राज्य को एक सूत्र में बाँधता।
औरंगजेब के पश्चात 1707 ई. में उसके पुत्रों के बीच भी संघर्ष हुआ और उसका द्वितीय पुत्र मुअज्जम (शाह आलम प्रथम) गद्दी पर बैठा। वह यद्यपि कुछ उदार था, पर अधिक समय जीवित न रह सका। उसके बाद 1712 ई. से इस साम्राज्य का पतन आरम्भ होता है। लगभग 50 वर्ष तक शासन एक प्रकार से स्थिर न हो सका। राजगद्दी पर अल्पकाल के लिए ही लोग आते रहे जो कुछ अधिक समय के लिए आये, वे विलास में निमग्न रहने के कारण राज्य की देखभाल न कर सके। परिणामत: अव्यवस्था और अशांति इतनी बढ़ती गयी कि छोटे-छोटे जागीरदार भी अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर बैठे और धीरे-धीरे केन्द्र की पकड़ इतनी ढीली हो गयी कि साम्राज्य अब दिल्ली और आगरा के क्षेत्र तक ही सीमित रह गया। इसी बीच 1738 ई. में नादिरशाह का आक्रमण हुआ। उसने इस शासन की नीव प्राय: हिला डाली जो कुछ शेष रह गया था, उसकी कमी अहमदशाह अब्दाली के 1761 ई. के आक्रमण ने पूरा कर दिया। इधर विदेशी व्यापारियों, विशेषत: अंग्रेजों ने इस स्थिति का पूरा लाभ उठाया और वे भीतर-ही-भीतर शक्ति का संचय करते हुए इस अवस्था तक पहुँच गये कि 1803 ई. तक लगभग समस्त उत्तरी भारत पर उनका आधिपत्य हो गया और मुगल सम्राट नाम मात्र के लिए शासक रह गये तथा वास्तविक सत्ता अंग्रेजों के हाथों में चली गयी। 1857 ई. की देश व्यापी राज्यक्राति ने एक बार पुन: विलासी मुगलों को प्रतिष्ठित करना चाहा, किन्तु सब प्रयत्न असफल रहे। इस प्रकार दो-ढाई सौ वर्ष के विलास-वैभवपूर्ण संधि-साम्राज्य का कारुणिक अंत हुआ।
  रीतिकालीन काव्य प्रभावित क्षेत्र अवध, राजस्थान और बुंदेलखंड की कथा भी यही रही। अवध के विलासी नवावों का अंत मुगल साम्राज्य के समान ही हुआ। राजस्थान में बहुपत्नी प्रथा इतनी बढ़ गयी थी कि औरंगजेब के बाद राज पुरुष कुचक्रों, षड्यंत्रों और आंतरिक कलह के शिकार हो कर इतने निर्वीय होते गये कि पतनोन्मुख अव्यवस्थित मुगलों से अपने पुराने गौरव और राज्य को भी प्राप्त न कर सके। हाँ, बुंदेलों ने अवश्य ही मराठों के साथ लाभ उठाने का प्रयत्न किया परंतु वे भी राजपूती अंहकार और आपसी विद्वेष के कारण सफल नहीं हो सके। इस प्रकार हिन्दू शासक भी नही खड़े हो पाये।
संक्षेप में निष्कर्ष रहा कि-1. समस्त देश युद्ध और विप्लवों से आक्रांत रहा। देश में कोई भी केन्दीय शासन नही था। , 2. औरंगजेब असफल शासक रहा। अकबर और उसके सचिव भगवान दास, टोडरमल आदि की राजनीतिक योग्यता की इस युग में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।, 3. इस समय देश में भयानक बाह्य आक्रमण हुए-नादिरशाह और अहमद शाह अब्दाली के हमलों ने गिरती दीवार को धक्का देने का काम किया। शासन-विधान स्वेछाचारी राजतंत्र था।, 4. शाहजहां की धार्मिक असहिष्णुता औरंगजेब ने पूरी कर दी। हिन्दू मुसलमान दोनों आमने सामने थे। किन्तु दुर्भाग्य हिन्दू आपस में असंगठित थे तो मुसलमान विलासी-जर्जर।
(ख) सामाजिक स्थिति- सामाजिक दृष्टि से भी इस काल को आदि से अंत तक घोर अध:पतन का युग ही कहा जाना चाहिए। इस काल में सामंतवाद का बोल बाला था और सामंतशाही के जितने भी दोष हुआ करते हैं, उनका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रभाव जन सामान्य के जीवन पर पड़ रहा था। सामाजिक व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु बादशाह था और उसके अधीन थे मनसबदार अथवा अमीर-उमराव। इनके बाद ओहदों के अनुसार दूसरे कर्मचारी आते थे और सबका कर्तव्य-कर्म अपने से ऊपर वालों को प्रसन्न करना था, नीचे वालों को ये मात्र सम्पति समझते थे, उनका अस्तित्व केवल अपने लिए मानते थे। ऊपर से नीचे तक यह शासकों का वर्ग था। शासित वर्ग में एक ओर श्रमजीवी और कृषक आते थे दूसरी ओर सेठ-साहूकार, दूकानदार और व्यापारी। शासक वर्ग की आय दोनों अर्थात कृषकों और श्रमजीवी तथा साहूकारों से होती थी। इसके साथ ही सेनाओं के प्रयाणों,युद्धों, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि के कारण इस वर्ग की एक मात्र आय कृषि भी प्रभावित होती थी। श्रमजीवी वर्ग वेगार प्रथा से परेशान था। अमीर, अमीर होता जा रहा था और गरीब और भी गरीब। जनसामान्य के दवा, चिकित्सा, शिक्षा और जानमाल की सुरक्षा का कोई प्रबन्ध नही था। जनता भाग्यवादी और निराश थी। काम के बदले उत्कोच सामान्य बात थी। अधिकारी वर्ग की विलासिता का यही साधन था। समाज में नारी की स्थिति दयनीय थी। वह भोग की वस्तु थी। सुरा-सुंदरी का ऐसा प्रचलन था जो सामान्य जन को भी अछूता नही छोड़ रहा था। गरीब माता-पिता को अपनी बेटियों के विवाह की चिंता सताती थी और असुरक्षा का भाव कुछ इस कदर था कि बेटिया अल्प वयस्क अवस्था में ही विवाह दी जाती थीं। महलों और राजघरानों में अनेक पत्नियों, दासियों के साथ ही वेश्यावृत्ति बढ़ती ही जा रही थी। शाहजादों एवं राजकुमारों का शिकार खेलना, लड़कियों से छेड़छाड़ रोज का शौक था। यही कुछ हाल राजकुमारियों और शाहजादियों का था जिनके सम्बन्ध महलों में और हरमों में काम करने वाले कर्मचारियों से हो जाते थे।
डॉ.ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है,भारतीय इतिहास यहाँ के सम्राटों के जीवन और उनकी विजय-पराजय का इतिहास है, विदेशी यात्रियों के अतिरिक्त किसी भी देशी इतिहासकार ने भारतीय जनता के सामाजिक जीवन का विवरण नहीं दिया। वे लिखते हैं- ‘‘शाहजहां के समय में हिन्दुस्तान का समाज सामन्तीय आधार पर स्थित था। सम्राट इस सामाजिक व्यवस्था का केन्द्र था, उसके अधीन मनसबदार या अमीर थे जो ऊँचे-ऊँचे ओहदों पर थे। इनके बाद साधारण कर्मचारियों का वर्ग था, जो राज्य के छोटे-छोटे विभागों में काम करते थे। उस समय का मध्यवर्ग अधिकतर इन्हीं लोगों से निर्मित था। इनके अतिरिक्त, व्यापारी, साहूकार, दुकानदार आदि भी थे, परन्तु ये लोग आर्थिक दृष्टि से मध्यवर्ग की स्थिति में होते हुए भी शिक्षा, संस्कृति से हीन थे निम्न वर्ग में नौकरी-पेशालोगों और मजदूरों के अतिरिक्त भारत का बृह्त कृषक-समुदाय भी था, जो सोना पैदा करके मिट्टी पर गुजर कर रहा था।’’ समाज में नैतिक अवस्था कारुणिक थी। राजा सामंत सभी विलाशी थे। नैतिक बल के ह्स से लोग पूर्णत: भाग्यवादी हो गये थे। सभी वर्ग के लोगों की ज्योतिष में प्रगाढ़ आस्था थी। सम्राट् और अमीरों के साथ-साथ ज्योतिषियों का एक समुदाय चलता था। हिन्दू राजाओं का अंध- विश्वास या अंध-आस्था का यह हाल था कि उनके यहाँ बिना शकुन के पत्ता भी नहीं हिलता था। इस घोर भाग्यवाद का स्वाभाविक परिणाम था, नैराश्य। नैराश्य का प्रभाव रहा कि बाह्य परिस्थितियों से निराश राजा, नबाब अंत:पुर में रमणियों की गोद में त्राण पाते थे।
्र(ग) सांस्कृतिक स्थिति-सांस्कृतिक अवस्था सामाजिक स्थिति से ही प्रभावित थी। वस्तुत: जब राजा ही अनाचारी हो जाय, साहित्य-सेवी चाटुकार बन जाय, समाज के रक्षक जनता के माल और आवरु के भक्षक बन जाय तो निश्चित रूप से सांस्कृतिक विकास अवरुद्ध होता है। पिछले सात-आठ सौ वर्षंों से दो जीवन संस्कृतियाँ आपस में टकरा रहीं थी, वहीं तीसरी छल-छद्म से भरी ताकतवर व्यापारी बुद्धि की धनी शक्ति इन दोनों को रौंद रही थी। अकबर, जहांगीर और शाहजहां की उदारवादी नीति तथा संतों और सूफियों के उपदेशों के परिणामस्वरूप हिन्दू और इस्लाम संस्कृतियों के निकट आने का जो उपक्रम हुआ था, वह औरंगजेव की कट्टरता के कारण एक प्रकार से समाप्त हो चला था। किन्तु विलास-वैभव के खुले प्रदर्शन के कारण अपनी-अपनी धार्मिक आस्थाओं का दृढ़तापूर्वक पालन भी इनके लिए एक प्रकार से कठिन हो गया था। हिन्दी-भाषी क्षेत्रों में जिन वैष्णव संप्रदायों का प्रभाव था। उनके पीठाधीश लोभवश राजाओं और श्रीमानों की गुरु दक्षिणा लेने लगे थे, फलत: उनका सम्बन्ध तत्व चिंतन से छूट कर भौतिकता के साथ हो गया था। मंदिरों में भी अब ऐश्वर्य और विलास की लीला होने लगी थी। यह स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी कि हिन्दू अपने आराध्य राम-कृष्ण का अतिशय शृंगार ही नहीं करने लगे थे, उनकी लीलाओं में अपने विलासी जीवन की संगति खोजने लगे थे। अहिन्दी प्रांतों में ऐसे संतों का प्रभाव था जो इस धारा से अब भी दूर थे, किंतु इनका प्रभाव हिन्दी प्रांतों तक न आ सका। दूसरी ओर, इस्लाम धर्म पर इस विलास-वैभव का सीधा प्रभाव तो नहीं था, पर रूढि़वादिता के अत्यधिक बढ़ जाने के कारण यह जीवन की वास्तविकता से हट गया था। कुरान को हिफ्ज करने अथवा नमाज रोजा आदि के यथाविधि पालन को ही धर्म समझने के कारण वह आध्यात्मिक प्रभाव नहीं पड़ रहा था, जिससे व्यक्ति के संस्कारों में उदारता आती है। इस प्रकार हिन्दू और मुसलमान दोनों ही धर्म के मूलभूत सिद्धांतों से दूर पड़ गये थे। केवल बाह्याचरण ही धर्मपालन रह गया था। ऐसी दशा में धर्म के साथ नैतिकता का जो सम्बन्ध जुड़ा होना चाहिए था, उससे सम्पन्न वर्ग एकदम दूर हो गया था और वह खुले रूप में विलासिता में डूब गया था। इधर विलास और संसाधनों से हीन समाज अंधविश्वास में डूब रहा था। मुसलमान और हिन्दू दोनों मंदिर और पीर-दरगाहों के पास जा कर अपने मनोरथ की कामना कर रहे थे। जनता के इस अंध-विश्वास का लाभ पुजारी और मुल्ला उठा रहे थे। और ये धर्म और आराधना की जगह भ्रष्टाचार और अनाचार के अड्डे बन गये थे। साहित्य के क्षेत्र में भी भक्तिकाल की प्रारम्भिक अवस्था में ही किस प्रकार मुसलमानों के संसर्ग से कुछ फारसी के शब्द और चलन भाव मिलने लगे थे। नामदेव और कबीर आदि की तो बात ही क्या, तुलसीदास ने भी गनी, गरीब, साहब इताति, उमरदराज आदि बहुत से शब्दों का प्रयोग किया। सूर में ऐसे शब्द अवश्य कम मिलते हैं। फिर भी मुसलमानी राज्य की दृढ़ता के साथ-साथ इस प्रकार के शब्दों का व्यवहार ज्यों-ज्यों बढ़ता गया, त्यों-त्यों कवि लोग उन्हें अधिकाधिक स्थान देने लगे। राजा-महाराजाओं के दरबार में विदेशी शिष्टता और सभ्यता के व्यवहार का अनुकरण हुआ और फारसी के लच्छेदार शब्द वहाँ सुनाई देने लगे। अत: भाट या कवि लोग आयुष्मान और जय-जय कार तक ही अपने को कैसे रख सकते थे ? वे भी दरबार में खड़े होकर ‘उमरदराज महाराज तेरी चाहिए’ पुकारने लगे। ‘बखतबलंद’ आदि शब्द उनकी जबान पर भी नाचने लगे। यह तो हुइ व्यावहारिक भाषा की बात फारसी काव्य के शब्दों को भी थोड़ा-बहुत  कवियों ने अपनाना आरंभ किया। रीतिकाल में ऐसे शब्दों की संख्या कुछ और बढ़ी। कहीं-कहीं ‘खुसबोयन’ आदि उनके विकृत शब्दों को देखकर शिक्षितों को एक प्रकार की विरक्ति-सी होती है और उनकी कविता गँवारों की रचना-सी लगती है। शब्दों के साथ-साथ कुछ थोड़े से कवियों ने इश्क की शायरी की पूरी अलंकार सामग्री तक उठाकर रख ली है और उनके भाव भी बँध गये हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी कहते हैं कि- ‘‘यह उल्लेखनीय है कि रीतिकाल के कवियों के प्रिय छंद कवित्त और सवैये ही रहे। कवित्त तो शृंगार और वीर दोनों रसों के लिए समान रूप से उपयुक्त पाया जाता है। सवैया, शृंगार और करुण इन दो कोमल रसों के लिए बहुत उपयुक्त होता है, यद्यपि इन्हीं दो रसों की कविता इस काल में हुई। परंतु प्रधानता शृंगार की ही रहीं। इससे इस काल को रस की सीमा तक पहुँचा दिया था। इसका कारण जनता की रुचि इसमें थी जिसके कारण कर्मण्यता और वीरता का जीवन बहुत कम रह गया था। ’’ इस प्रकार उस काल का सांस्कृतिक वातावरण काव्य को पूरी तरह प्रभावित करता है।
(घ) साहित्य और कलाओं की स्थिति- साहित्य और कला की दृष्टि से यह युग पर्याप्त समृद्ध का माना जा सकता है। इस काल के कवि और कलाकार यद्यपि साधारण वर्ग के व्यक्ति हुआ करते थे तथापि अपने आश्रय दाता मुगल सम्राटों अथवा देशी राजा व नवाबों से उन्हेें इतना सम्मान मिलता था कि समाज के प्रतिष्ठित लोगों में उनकी गणना होती थी क्योंकि उचित सम्मान कवि अथवा कलाकार के सृजन व्यापार को प्रोत्साहित करने में सबसे अधिक सहायक हुआ करता है, अतएव यह स्वाभाविक ही था। इन लोगों ने अपनी-अपनी कला का गुण और परिमाण दोनों ही दृष्टि से अधिकाधिक विकास किया। किन्तु दुर्भाग्य की बात यह रही कि इन्हें वह स्वतंत्रता प्राप्त न हो सकी,जो सर्जन के लिए अनिवार्य है। इन्हें सामान्य रूप से आश्रयदाताओं की अभिरुचि का विशेष ध्यान रखना पड़ता था, जिसका परिणाम यह होता था कि प्रतिभावान होते हुए भी ये लोग अपने सर्जन का उत्तमोतम रूप प्रस्तुत करने में असमर्थ रहते थे। यह सब होते हुए भी इस युग के साहित्य और कला का अपना महत्व है और दोनों की ऐसी विशेषताएं हैं, जो सहज ही दूसरे युगों की तत्सम्बन्धी रचनाओं से पृथक देखी जा सकती हैं। फारसी के राजकीय भाषा होने के कारण उसकी अलंकार प्रधान शैली का प्रभाव सामान्यत: इस युग की प्रत्येक भाषा पर पड़ा। ब्रज भाषा जनजीवन के निकट होते हुए भी इस प्रभाव से न बच सकी। परिणामत: इस युग के अधिकांश राजाश्रित कवि अपने आश्रयदाताओं की प्रशस्तियाँ अतिरंजित शैैैली में लिखते रहे। विलासी आश्रय दाताओं की वासना को गुदगुदाने के लिए लिखी हुई शृंगारिक रचनाओं पर भी इस शैली का ऐसा ही प्रभाव स्पष्टत: देखा जा सकता है। परन्तु संयोग कुछ ऐसा रहा कि ये कवि चमत्कार के उपकारणों के लिए फारसी की ओर उन्मुख न हो कर संस्कृत की ओर उन्मुख हुए। संभवत: इसलिए कि भारतीय भाषा होने के कारण संस्कृत-काव्य शास्त्र में बताये गये सौन्दर्य के उपकरण इनके अधिक अनुकूल पड़ते थे। इतना ही नहीं, इन लोगों ने इन उपकारणों का निरूपण भी इतने मनोयोग से किया कि आज इस पद्धति अथवा रीति के कारण ही इस युग को ‘रीति काल’ संज्ञा दिया जाना अधिक उपयुक्त समझा जाता है। इस प्रकार के गं्रथों की रचना के मूल में इन कवियों के संभवत: दो उद्देश्य थे: 1-अपने सामथ्र्य का प्रदर्शन 2-उस युग के काव्य-रसिक समुदाय को इनका अनिवार्यत: ज्ञान कराना, जिससे कि वे काव्य-गोष्ठियों में शास्त्रीय सौंदर्य के उपकरणों पर दाद दे सकें। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस परम्परा के सहित्य की रचना शाहजहां के राजत्वकाल से लेकर आगामी दो-ढाई सौ वर्ष तक अविकल रूप से होती रही। औरंगजेब के रुक्ष स्वभाव के कारण यद्यपि मुगल दरबार से कवियों का सम्बन्ध कट गया था किन्तु इसका प्रभाव इसलिए विशेष रूप से न पड़ सका क्योंकि राजा और नवाब उन्हें आश्रय देते भी रहे। इधर जन समुदाय में ऐसे कवि भी विद्यमान थे जो स्वतंत्र रूप से काव्य की रचना कर रहे थे। चूंकि वे राजकीय वातावरण से सर्वथा मुक्त और सर्जन-व्यापार में स्वतंत्र थे, अतएव उनकी रचनाएँ काव्य शास्त्रीय उपकरणों के इस समावेश से सर्वथा अछूती रहीं। यही कारण है कि इनका काव्य उक्त कवियों के रचति काव्य की तुलना में अधिक प्रभावी है। कुल मिलाकर इस युग में राजाश्रित कवियों और जनकवियों द्वारा रचित साहित्य गुण और परिमाण दोनों की दृष्टि से इतना विशद है कि हिन्दी भाषा उस पर सहज ही गर्व कर सकती हैं।
जहाँ तक ललित कलाओं का सम्बन्ध है उनमें चित्र-कला काव्य के समान ही इस युग में प्रचलित और समृद्ध हुई जहांगीर का राजत्व काल गुण और परिमाण के कारण यद्यपि इस कला का स्वर्ण युग कहा जाता है तथापि उसके बाद भी इसकी समृद्धि में कमी न आयी। यहाँ तक कि औरंगजेब जैसे रुक्ष व्यक्ति ने भी अपने अनेक चित्र अंकित कराये। परन्तु दुर्भाग्य की बात यह रही कि सम्राटों की अभिरुचि का अत्यधिक प्रभावी होने के कारण इसकी स्वभाविकता और सजीवता में कमी आने से नूतनता की दृष्टि से इसमें एक प्रकार का ह्रास आता चला गया। शाहजहां की अलंकार प्रियता का परिणाम यह हुआ कि उसके विभिन्न राजकीय क्रिया-कलापों, विशेषत: राजकीय ठाटबाट के चित्रों में चमक-दमक का अधिक स्थान मिलने लगा, रंगों में सुनहरे पानी को इतना महत्व दिया जाने लगा कि उनमेें चित्रित व्यक्ति भी मूर्तिवत् जड़ प्रतीत होने लगे और उनमें सजीवता और गति के स्थान पर जड़ता आ गायी। व्यक्ति-चित्रों का भी उत्तरोतर अभाव होता चला गया। औरंगजेब के बाद भी परवर्ती मुगल शासकों के प्रश्रय में अलखित चित्र इसी शैली का अनुकरण मात्र रहे। यदि कोई वैशिष्ट्य आया तो यहाँ तक कि उनमें विलास और वैभव कुछ अधिक अंकित हुआ। हिन्दू रजवाड़ों विशेषत: राजस्थान और पर्वतीय क्षेत्रों में चित्रकला इससे भिन्न रूप से विकसित हुई। यह लोक जीवन के अधिक निकट थी तथा आश्रय दाताओं की अभिरुचि से प्रभावित होती हुई भी स्थानीय प्रभावों से असंपृक्त न थी। इन दोनों क्षेत्रों की चित्र-शैैलियाँ क्रमश: राजस्थानी और कांगड़ा-शैलियों के नाम से प्रसिद्ध है। राजस्थानी शैली के चित्रों का मुख्य विषय रागमाला था। इनमें ऋतुओं का आश्रय ले कर शब्द को रेखाओं और रंगों में बद्ध किया गया है। इसके अतिरिक्त इस शैली के चित्रों का विषय कृष्ण लीला, नायिका भेद और बारह मासा भी रहा है। इस युग के अनेक कवियों की रचनाओं में भी इसी प्रकार के चित्र व्यंजित हुए हैं। कांगड़ा-शैली के चित्रों का विषय महाभारत, श्रीमद्भागवत, दुर्गासप्त शती, पुराण इतिहास, लोक गाथाओं आदि के अतिरिक्त दैनिक जीवन से सम्बद्ध बातें रही हैं। इन चित्रों में भावत्मकता अधिक है तथा सामन्य रूप से इनका झुकाव रहस्यात्मकता की ओर है।
संक्षेप में इस युग की चित्रकला राजसी ठाटबाट तथा जनजीवन दोनों को सम्यक् रूप से ले कर चली है। इस युग के कवियों द्वारा रचित राज प्रशस्तियाँ तथा शृंगारिक रचनाएँ क्रमश: इन दोनों प्रवृत्तियों के चित्रों के समानांतर कही जा सकती हैं। काव्य और चित्रकला के अतिरिक्त इस युग में स्थापत्य-कला और संगीत कला का विशिष्ट स्थान रहा है। क्योंकि ये दोनों क्रमश: व्यय और अभ्यास-साध्य थीं, इस कारण जनजीवन से दूर हट गयीं और केवल राजाश्रयों तक सीमित रहीं। अकबर के राजत्व काल में इन दोनों कलाओं को लगभग बराबर का स्थान प्राप्त था, किन्तु शाहजहां के समय तक संगीत का प्रभाव कुछ कम होता गया। शाहजहां को यद्यपि संगीत का अच्छा ज्ञान था, तथापि उसकी रूचि स्थापत्य कला में अधिक रही। इसलिए यह कला अपने चरम ऐश्वर्य पर पहुँची। शाहजहां ने जितनी इमारतें बनवायी, उन सबमें सूक्ष्म सौंदर्य के समावेश की ओर अधिक ध्यान दिया गया और यही कारण है कि इनमें मूर्ति और चित्रकला का सामंजस्य करने का प्रयत्न दृष्टिगत होता है। आगरा का ताज और दिल्ली का दीवाने-खास इसके सबल उदाहरण है। औरंगजेव और उसके काफी बाद तक दोनों कलाओं की स्थिति काफी सोचनीय रही।
मुगल दरबार तथा अवध के नवाबों के अतिरिक्त इस काल में हिन्दू राजाओं के आश्रय में भी इन दोनों कलाओं को प्रश्रय मिला; किंतु गुण और परिणाम दोनों की दृष्टि से इनकी विशेष उन्नति नहीं हुई। जयपुर में सवाई जयसिंह के राजमहल, दीग में सूरजमल के महल तथा संग्रामसिंह, छत्रसाल आदि की छतरियों को मुख्य रूप से इस काल के हिन्दू राजाओं का स्थापत्य कला में योगदान कहा जा सकता है। संगीत के क्षेत्र में राजस्थान और ग्वालियर का योगदान रहा। 
इस काल में कवियों और कलाकारों को राजाश्रयों में यथोचित सम्मान प्राप्त होने के कारण साहित्य और कला की स्थिति कुल मिला कर अच्छी ही रही। डॉ. नगेन्द्र का मत है कि -‘‘अलंकरण और विलास की अभिव्यक्ति की ओर अधिक उन्मुख रहने की प्रवृति के कारण ये चारों स्पष्ट रूप् से एक-दूसरे के समानांतर दृष्टिगत होती हैं।’’

No comments:

Post a Comment