Tuesday, 17 December 2019

महर्षि अरविन्द के अध्यात्मिक अनुभव 4

महर्षि अरविन्द के अध्यात्मिक अनुभव (4)

 अब हम स्वयं श्री अरविन्द द्वारा वर्णन किये गये उस अनुभव को देखें जो उन्हें पहली बार एक अन्य योगी के समीप हुआ जिसका नाम भास्कर लेले था और जो उनके साथ तीन दिन रहे: 

सब मनुष्य जिनका मानसिक विकास हो गया हैजो सामान्य स्तर से ऊपर उठ गये हैंउन्हें किसी न किसी तरहकम से कम विशेष अवसरों पर और विशेष उद्देश्य सेमन के दोनों भागों को अलग-अलग करना ही पड़ता है : क्रियारत भाग जो विचारों का एक कारखाना हैऔर शान्त प्रभुता संपन्न भाग जो साथ-साथ साक्षी और संकल्प-शक्ति हैजो विचारों का निरीक्षण करता हैनिर्णय देता हैनिराकरणबहिष्कारग्रहण करता हैसंशोधन और परिवर्तन का निर्देश करने वाला हैमानस का गृह स्वामीस्वराट्सम्राट् है, योगी उससे भी आगे बढ़ता है - वह केवल वहाँ ही प्रभु नहीं बल्कि मन में रहते हुए भी एक तरह से उससे बाहर निकल जाता है और उसके ऊपर या बिल्कुल पीछे प्रतिष्ठत होकर स्वच्छन्द रहता है। उस पर विचारों के कारखाने की उपमा ठीक लागू नहीं होती क्योंकि वह देखता है कि विचार बाहर सेविश्व मानस से अथवा सार्वभौमिक प्रकृति से आते हैंकभी वे गठित और स्पष्ट होते हैंकभी अव्यवस्थित होते हैं और बाद में हमारे ही अन्दर कहीं उनका निर्माण होता है।

हमारे मन का मुख्य काम है या तो इन विचार-तरंगों को (प्राणिक तरंगों और सूक्ष्म भौतिक शक्ति तरंगों को भी) जवाब में ग्रहण करना अथवा त्याग देनाया हमारे चारों ओर की प्रकृति-शक्ति में से आये हुए विचार-द्रव्य को (अथवा प्राणिक प्रवृत्तियों को) एक व्यक्तिगत मानसिक रूप देना। मुझे यह दिखा देने के लिए मैं लेले का अति आभारी हूँ।

उसने कहा, ‘ध्यान में बैठ जाओपर विचार मत करोकेवल अपने मन को देखोतुम विचारों को उसके अन्दर प्रवेश करते हुए देखोगेउनके प्रवेश कर सकने से पहले ही उन्हें अपने मन से दूर फेंकते जाओ जब तक तुम्हारा मन पूर्ण नीरवता के समर्थ बन जाये।

बस मैं बैठ गया और उसे कर डाला। एक क्षण भर में मेरा मन ऊँचे पर्वत-शिखर के निर्वात वायुमंडल की तरह नीरव हो गया और तब मैंने एक विचार फिर दूसरा विचार स्थूल रूप मेंं बाहर से आता हुआ देखा। वे प्रवेश करके मस्तिष्क पर अधिकार जमा सकें इससे पहले ही मैंने उन्हें दूर फेंक दिया और तीन दिन में मैं विचारमुक्त हो गया।

उस समय से मेरा मन सिद्धान्तत: एक स्वच्छन्द प्रज्ञाएक सार्वभौमिक मानस बन गया जो विचारों के कारखाने के मजदूर की तरह व्यक्तिगत विचारों में संकीर्ण दायरे में सीमित न रह करसत्ता के समस्त प्रान्तों से ज्ञान प्राप्त करने वाला बन गया और इस विशाल दृश्य-जगत् तथा विचार-जगत् में से अपनी इच्छानुसार ग्रहण कर लेने की स्वतन्त्रता उसे प्राप्त हो गई। एक तरह के विचारशील घोंघे के समान अपने मानसिक खोल के अन्दर बीस तीस साल बंद रहने के बाद वह अब खुली हवा में साँस लेना शुरू करता है।

एक बार साधक ने अपने अन्दर नीरवता स्थापित कर ली और उसका काम ध्यान है। उसे यह आभास तक होगा कि ध्यान एक काम बन सकता हैचाहे वह नहाने-धोने में लगा होचाहे अपना व्यापार कर रहा होपराशक्ति उसमें प्रवाहित होती रहती है। मनस्तत्व भी शान्त हो गया हैइतना शान्त हो गया है कि कुछ भी उसे विक्षुब्ध नहीं करता।

यदि विचार आते हैं या काम-काज होता है... तो वे मन में से उसी तरह गुजर जाते हैं जैसे खग-समूह निष्पन्द वायु में आकाश से गुज़र जाता है। वह गुज़र जाता हैकोई हलचल करताकोई निशान नहीं छोड़ता। यदि सहस्र चित्र अथवा उग्रतम घटनाएँ भी उसके मन के अंदर से गुज़र जायें तब भी नीरवता बनी रहती है मानों मानस तन्तु तक एक शाश्वतअविनाशी शान्ति का तत्व हो। ऐसी शान्ति को प्राप्त हुआ मन कार्य करना शुरू कर सकता हैप्रचण्ड और प्रबल रूप से भीकिन्तु उसकी मूलभूत निश्चलता बनी रहेगी-कुछ भी अपने आप से प्रवर्तित न करकेऊपर से ग्रहण करके उसे मानसिक रूप देगाअपना कुछ भी उसमें जोड़ेगा नहींशाँन्त और निस्संग रहेगापर सत्य का आनन्द और उसके संचार का समृद्ध ओज और ज्योति उसके साथ विद्यमान रहेेंगे। 

  चेतना : श्री अरविन्द यह टिप्पणी कर सके थेमानसिक चेतना तो केवल मानवीय क्षेत्र है और चेतना की सारी संभव श्रेणियाँ उसमें उसी तरह समाप्त नहीं हो जातीं जैसे मनुष्य को दर्शनशक्ति के साथ पूरे रंगों के स्तर अथवा श्रवणशक्ति के साथ ध्वनि के स्तर निश्शेष नहीं हो जाते क्योंकि उसके ऊपर या नीचे बहुत कुछ है जिसे मनुष्य देख और सुन नहीं सकते। सो मानवीय परिसर से ऊपर और नीचे चेतना की श्रेणियाँ हैजिनके साथ सामान्य मनुष्य का कुछ भी संपर्क नहीं है और उसे वे अचेतन मालूम होती है -वे हैं अतिमानसिकअधिमानसिक और अवमानसिक स्तर। जिसे हम अचैतन्य’ कहते हैंवह केवल अन्य-चैतन्य है। ?....

जैसे अपने आस-पास की तथा अपने शरीर की सुध-बुध खोअन्दर ध्यानमग्न हो जाने परहम चेतना विहीन नहीं बन जातेउसी तरह सुप्तमूर्छितविष द्वारा प्रभावित या मृत’ अथवा अन्य किसी भी अवस्था में हम यथार्थत: चेतनाहीन नहीं होते। जिस किसी ने योगसाधना में थोड़ा भी मार्ग तय किया होउसके लिए यह एक बिल्कुल ही प्रारंभिक सत्य है। श्री अरविन्द आगे कहते हैंजैसे-जैसे हम प्रगति करते जाते हैं और अपने तथा सब वस्तुओं के अन्दर आत्मा के प्रति सचेत होने लगते हैंतो हम देखते कि पौधों मेंधातुओंपरमाणुओं और विद्युत मेंभौतिक प्रकृति से संबद्ध हरेक वस्तु में भी एक चेतना है। यहाँ तक कि वस्तुत: वह चेतना मानसिक चेतना-प्रकार की अपेक्षा सब बातों में निम्नतर या सीमित नहीं है। इसके विपरीत अनेक निर्जीव’ रूपों में वह अधिक तीव्रक्षिप्रप्रखर है यद्यपि बाह्य स्तर पर कम विकसित है। आधिपत्य का अगला कदम तानाशाही है।

इस प्रकार हमारे अन्दर स्पन्दन-ग्रन्थियों अथवा चैतन्य-केन्द्रों का पूर्णग्राम है जिनमें हरेक एक विशेष तरह के स्पन्दन पर पूर्णाधिकार रखता है। उन्हें हम अपनी नीरवता की कोटि और ग्रहणशक्ति की तीव्रता के अनुसार साफ पहचान और पकड़ सकते हैं।

 हम तो केवल इतना ही बता देते हैं कि ये केन्द्र (भारत में उन्हें चक्र कहते हैं) हमारे भौतिक शरीर में नहीं बल्कि एक अन्य आयाम में अवस्थित हैं यद्यपि किसी किसी समय उनका संकेन्द्रण इतना प्रखर हो सकता है कि मनुष्य को एकदम ऐसा लगे कि वे भौतिक शरीर में ही स्थित हैं। सब नहीं पर उनमें से कुछ सचमुच ही हमारी परिचित विविध स्नायु-ग्रन्थियों से बहुत मिलते-जुलते हैं। मोटे तौर पर चार क्षेत्रों में विभक्त सात केन्द्र दिखाई दे रहे हैं-

1. अतिचेतनजिसमें शीर्षाग्र से कुछ ऊपर एक केन्द्र है जो हमारे विचारशील मानस को शासित करता है और विभासितआत्मस्फूर्तअधिमानसिकइत्दिया मन के उच्चतर लोकों के साथ हमारा संपर्क स्थापित करता है।

 2. मानसजिसमें दो केन्द्र हैंएक भौंहों के बीच जो विचार के द्वारा कार्य करने की आवश्यकता होने पर हमारे समस्त मानसिक व्यापारों की संकल्पशक्ति और क्रियाशक्ति को शासित करता हैयही सूक्ष्मदृष्टि का केन्द्र अथवा तृतीय नेत्र’ भी है जिसका वर्णन कुछ परंपरागत सिद्धान्त करते हैंदूसरा कण्ठ के स्तर पर जो मानसिक अभिव्यक्ति के तमाम रूपों को शासित करता है।

3. प्राणजिसके तीन केन्द्र हैंपहला हृदय स्तर पर जो हमारी भावात्मक सत्ता (प्रेमघृणा इत्यादि) को चलाता हैदूसरा नाभि स्तर पर जो शासनअधिकारविजय की हमारी प्रवृत्तियाँहमारी महत्वकांक्षाओं आदि को संचालित करता हैऔर तीसरानाभि और योनिक के मध्यवर्ती निम्न प्राण जो अन्त्रयुजीय स्नायुजाल के स्तर पर है और निम्नतम स्पन्दनों पर अधिकार रखता है - जैसे ईष्याअसूयाकामनालोभक्रोध इत्यादि।

4. देह और अवचेतन जिनका केन्द्र मेरुदण्ड की जड़ में है और जो हमारी भौतिक सत्ता और काम पर अधिकार रखता है। यही केन्द्र हमें और भी नीचे अवचेतन के लोकों की तर$फ भी उद्धाटित करता है।

इस केन्द्र के खुलने पर जिस उज्ज्वल समृद्धि की प्रत्यक्षानुभूति होती है उसे प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त करने के लिये यह सहस्रदल’ कहलाता है और भारतीय परम्परा के अनुसार उसका स्थान सिर के शिखर पर है। श्री अरविन्द के अनुसार और अन्य अनेकों के अनुभवानुसारसिर के शिखर पर जो अनुभव होता हैवह केन्द्र नहीं बल्कि सिर के ऊपर स्थित एक सौर्य स्रोत का भास्वर प्रतिबिम्ब है।

श्री अरविन्द के योग में नीचे उतरती हुई पराशक्ति उन्हीं केन्द्रों को ऊपर से नीचे की ओर बहुत धीरे-धीरेकोमलता से खोलती है। यहाँ तक कि प्राय: निचले केन्द्र बहुत देर बाद ही पूरी तरह खुलते हैं। इस विधि की उपयोगिता मालूम हो जाती है जब हम यह समझ जाये कि प्रत्येक केन्द्र चेतना अथवा शक्ति की एक विश्वव्यापी विधि के अनुरूप है। यदि पग धरते ही हम प्राण और अवचेतन के निम्न केन्द्रों को खोल लें तो अपनी व्यक्तिगत छोटी-छोटी समस्याओं में नहीं बल्कि विश्व-कीचड़ के प्रचण्ड प्रवाह में हमारे डृूब जाने का डर हैसंसार के हंगामे और गंदगी के साथ स्वत: हमारा संबंध जुड़ जायेगा।

  यही कारण है कि परम्परागत योगपद्धतियों में संरक्षक गुरु की उपस्थिति एकदम अनिवार्य है। पराशक्ति के अवरोहण द्वारा हम इस संकट से बच जाते हैं और अपनी सत्ता को अधिमानसिक ऊर्ध्वप्रकाश में सुदृढ़ रूप से प्रतिष्ठित करने के बाद ही निम्न केन्द्रों से हमारा आमना-सामना होता है। अपने इन केन्द्रों पर एक बार कब्ज़ा जमा और साधक तभी सेलोगों और चीजों कोदुनिया और अपने आपको उनके असली रूप मेंजैसे कि वे हैंउन्हें पहचानने लग जाता है क्योंकि अब वह केवल बाह्य चिह्न नहींपकड़तासंदिग्ध शब्दमात्र एवं संकेत भी नहींन कैदी का नाटकऔर न ही वस्तुओं का रहस्यपूर्ण स्वरूपबल्कि वह विशुद्ध स्पन्दन को पकड़ता है जो प्रत्येक स्तर परप्रत्येक वस्तु मेंप्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान है और जिसको छिपाना असंभव है।

हमें यह भी पता चल जायेगा कि हम तो सिर से पैर तक उन तरंगों को ग्रहण करने वाला एक यन्त्र हैं। दरअसल न हम सोचते हैंन इच्छा करते हैंन कार्य में प्रवृत्त होते हैंबल्कि हमारे अन्दर विचार आता हैइच्छा आती हैसंवेग और कर्म भी आते हैं। यदि हम कहें, ‘मैं सोचता हूँ अत: मेरा अस्तित्व है’ अथवा मैं महसूस करता हूँ अत: मैं हूँ’ या मैं इच्छा करता हूँ अत: मेरा अस्तित्व है’, तो हम कुछ-कुछ उस बच्चे की तरह हो जाते हैं जो यह समझता है कि समाचार वाचक या आरकेस्ट्रा टेलिविजन के बाक्स में छुपा हुआ है और टेलिविजन एक विचारशील अंग है। क्योंकि ये सारे मैं’ न हम हैंन ही हमारे हैं और उनका संगीत सारे विश्व का राग है।

अग्रवर्ती पुरुष : मामूल होता है कि आदतों का यह समूह अन्त में जम कर एक व्यक्तित्व बन गया है जिसे हम अपना-आप कहते हैं। तो इन सब के बीच वास्तविक मैं’ किस क्षण फूट निकलता हैं?

श्री अरविन्द कहते हैंगतिविधिव्यक्तित्वचरित्र संबंधी कुछ आदतेंकुछ विशिष्ट क्षमताएँचित्तवृत्तियाँरुझानसार्वभौम प्रकृति हमारे अन्दर संचय करती रहती है और इसी को प्राय: हम अपना-आप कहते हैं। वह तो समान स्पन्दनों और रचनाओं की लगातार आवृत्ति और बार-बार घटित होना है जिससे स्थायित्व का आभास हुआ करता है। परन्तु वस्तुत: सब कुछ निरन्तर प्रवाह की स्थिति में रहता है और हमारे अपने मानस से अधिक विशाल मानसअर्थात् सार्वभौम मानसअपने प्राण से अधिक विशाल प्राण अर्थात् सार्वभौम प्राण से ही सब हमारे पास आया करता हैअथवा और भी नीचे स्थित अवचेतन लोकों से आता है या और भी ऊपर के अतिचेतन लोकों से। इस तरह इस क्षुद्र अग्रवतीं पुरुष को चारों ओर से घेरे हुए लोकों’ की एक पूरी श्रेणी है जो उस पर छाई हुई हैउसे सहारा देती हैउसमें व्याप्त है और उसे प्रोत्साहित करती है - जैसे प्राचीन ऋषियों का भी अनुभव था - ऋग्वेद कहता है, ‘प्रयत्न बिना हीसब लोक एक दूसरे में आते-जाते हैं।’ (2.24.5)

अथवा श्री अरविन्द के कथनानुसारवह चेतना-स्तरों का क्रम है जो शुद्ध आत्मतत्व से लेकर जड़तत्व तक लगातार ऊपर से नीचे सीढ़ी की तरह उतर रहे हैं और जिनका हमारे प्रत्येक केन्द्र के साथ सीधा संबंध है। पर हमें खाली ऊपर ऊपर की थोड़ी-सी बुलबुलाहट का ही पता है।

चेतना का वैयक्तीकरण : मानो एक नवीन तरुणावस्था होस्वच्छन्द अवस्था के लिए एक नई प्रेरणा हो। जैसे-जैसे उसके सक्रिय ध्यानों’, उसकी अभीप्सा द्वाराआवश्यकता द्वाराउसकी एकाग्रता बढ़ती जायेगीउसे महसूस होगा कि उसके अंदर की प्रेरणा जीवित होती जा रही है।

ऋग्वेद में कहा है, ‘वह विशाल बनकरजो जीवित है उसे बाहर निकाल लाती हैजो मृत था उसे पुन: जागृत करती है।‘ (1.113.8) वह उत्तरोत्तर व्यक्त पुष्टताअधिकाधिक ठोस बल और सर्वोपरि एक स्वच्छन्दता प्राप्त कर रही है मानो साधक के व्यक्तित्व के भीतर एक और शक्ति और व्यक्तित्व हो।

वह सब समय सर्वत्र साथ मौजूद है। वह हमें प्यार करती हैहमारे समीप है और सशक्त हैं। और अजीब बात यह है कि जब हम इसे जान लें तब सब जगहसब जीवों मेंसब वस्तुओं मेंवह एक ही चीज़ हैउससे सीधा सम्पर्क जोड़ा जा सकता है मानों वह सचमुच समान ही होदीवार कहीं है ही नहीं। तब हम एक ऐसी चीज़ अपने अन्दर स्पर्श कर गये जो सार्वभौमिक शक्तियों के साथ में खिलौना नहीं है, ‘मैं सोचता हूँ अत: मेरा अस्तित्व है’ ऐसी निरी क्षुद्र और रूक्ष धारणा भी नहीं हेबल्कि हमारी सत्ता का मूलभूत तथ्य हैहमसचमुच हमवह वास्तकि केन्द्र हैअनुराग और अस्तित्वचेतना और शक्ति है।

 श्री अरविन्द ने उसे चैत्य चक्र या चैत्य पुरुष नाम दिया है और दूसरे लोग इसे आत्मा कहते हैं। लोकलोकान्तरों में भ्रमण करने वालीचेतना-स्तरों की खोज करने वाली वही शक्ति हैंजब हमारी जानकारी और पथ-प्रदर्शन के लिए यह क्षुद्र बाहरी मानस विद्यमान नहीं रहता तब वह जागने से लेकर सोने और मरने तक सत्ता की विभिन्न अवस्थाओं को एक तार में पिरोती है।

चित्-शक्तिचित्-आनन्द : चेतना की खोज करते हुए हमें पता चला कि वह एक शक्ति है। और विचित्र बात यह है कि यह मालूम होने से भी पहले कि वह एक चेतना हैमनुष्य एक आन्तरिक प्रवाह अथवा आन्तरिक शक्ति महसूस करना शुरू करता है। चेतना एक शक्ति हैश्री अरविन्द ने उसे चित्-शक्ति कहा है क्योंकि सचमुच ये दोनों शब्द अलग नहीं किये जा सकते और उन्हें एक दूसरे में बदला जा सकता है। भारतवर्ष के प्राचीन ऋषि इस तथ्य को अच्छी तरह जानते थे और कभी चित् की बात नहीं करते थे जब तक उसके साथ अग्नि शब्द न जोड़ें - चित्-अग्नि (कहीं-कहीं उन्होंने तपस् शब्द का भी प्रयोग किया है जो कि अग्नि का पर्यायवाची है - चित्-तपस्)।

 विविधि आध्यात्मिक अथवा यौगिक अनुशासनों के लिए प्रयुक्त शब्द है तपस्याअर्थात् जो उष्णता या ऊर्जा को उत्पन्न करती हैस्पष्ट रूप से चिद्-उष्णता या चिद्-ऊर्जा। और यह अग्नि अथवा चिद्-अग्नि सब जगह समान है। हम अवरोहणात्मक अथवा अधिरोहणात्मक शक्ति की बात करते हैंहम आन्तरिक शक्तिमानसिकप्राणिकभौतिक शक्ति कहते हैंपर छत्तीस प्रकार की शक्ति नहीं होती - संसार में केवल एक ही शक्ति हैकेवल एक अनन्य धारा है जो हमारे अन्दर और सब वस्तुओं में प्र्रवाहित हो रही है और जिस स्तर पर कार्य कर रही होती है उसी के अनुरूप जामा पहन लेती है।

अतिचेतनमानसिकप्राणिकभौतिक स्फुरण-परन्तु सब को एक सूत्र में गूँथने वालीसब में प्राण फूँकने वाली वही शक्ति हैयही बह्माण्ड का मूलभूत सत्त्व हैचित्-शक्तिचिद्-अग्नि। यदि वह सत्य है कि चेतना एक शक्ति है तो इसका विलोम भी सत्य है कि शक्ति एक चेतना है और समस्त शक्तियाँ चेतनायुक्त है।

आइन्स्टाइन ने हमें सिखा दिया है कि जड़त्व और शक्ति को एक दूसरे में परस्पर बदला जा सकता है - श्व=द्वष् घनीभूत शक्ति ही जड़तत्व हैऔर यह सचमुच बड़ी खोज है। जब हम शक्ति के अन्दर चेतना को खोज लेंगे- तब भौतिक शक्तियों पर हमें सच्चा अधिकारसर्वथा सुस्पष्ट आधिपत्यप्राप्त हो जायेगा। पर हम केवल बहुत पुराने सत्यों को फिर से खोज रहे हैंचार हजार साल पहले ही उपनिषदों के ऋषि यह जानते थे कि जड़त्व घनीभूत शक्ति है बल्कि यों कहें कि घनीभूत चित्-शक्ति है।

अपनी चेतना की शक्ति सेबह्म घनीभूत हो गयाउसी से जड़तत्व की उपत्ति हुई और जड़तत्व सेजीवनमानस और लोक उत्पन्न हुए। (मुण्डक उपनिषद् 1.1.8) इस धरती पर सब चैतन्य ही है क्योंकि सब सत् अथवा परमात्मा है। सब चित् है क्योंकि सब अपनी निजी अभिव्यक्ति के विभिन्न स्तरों पर सत्-सत्-चित् - है। अन्तत: चेतन तत्व को उसके शक्ति तत्व से बाहर निकालने या मुक्त करने की क्षमता ही विकास की सारी प्रगति का माप है - इसी का हम चेतना का वैयक्तिकरण’ कहते हैं।

 श्री अरविन्द का कहना हैयदि मनुष्य अन्दर की चेतना से अवगत हो जायेतो उसके द्वारा बहुत कुछ कर सकता हैउसे शक्ति-प्रवाहवत् बाहर भेज सकता हैअपने चारों ओर चेतना का घेरा या दीवार बना सकता हैकिसी विचार के ऐसे लक्ष्य करके भेज सकता है कि वह अमरीका में स्थित किसी व्यक्तिविशेष के मस्तक में प्रवेश करेंइत्यादि।

वे आगे बताते हैंयह अदृश्य पराशक्ति अन्दर और बाहर प्रकट परिणाम उत्पन्न करेंयही तो यौगिक चेतना का सारा उद्देश्य है। ... यदि हमें हज़ारों बार ऐसे अनुभव न हो चुके होते जो यह सिद्ध कर चुके हैं कि मानस में परिवर्तन करनाउसकी क्षमताओं का विकास करनाउसे नई क्षमताएँ प्रदान करनाज्ञान के नए क्षेत्र खोलनाप्राण की चेष्टाओं को वश मेें लानाचरित्र में परिवर्तन करनामनुष्य और वस्तुओं पर प्रभाव डालनाशरीर की अवस्था और अंगों के कार्यनिष्पादन पर नियन्त्रण रखनाएक ठोस गतिशील महाशक्ति के रूप में विभिन्न शक्तियों पर कार्य करनाघटनाओं में परिवर्तन करनाइत्यादिआन्तरिक शक्ति के लिए संभव है तब हम उसके विषय में इस तरह बात न करते।

  यह पराशक्ति केवल अपने परिणाम में ही नहीं बल्कि अपनी गतिविधि में भी स्पष्ट और ठोस है। जब मैं शक्ति अथवा बल का अहसास होने की बात करता हूँ मेरा मतलब केवल धुँधला-सा कुछ उसका आभास होना नहीं बल्कि उसे मूर्त रूप में महसूस करना और परिणामत: उसको निर्देश देनेउसे काम में लगानेउसकी गतिविधि का निरीक्षण करनेउसकी मात्रा और तीव्रता का ध्यान रखने की योग्यता रखना है और ठीक उसी तरह जैसे अन्य विरोधी शक्तियों के विषय में।

एक अन्तिम सादृश्य है। चेतना केवल शक्ति ही नहींचेतना केवल सत्ता ही नहीं बल्कि चेतना आनन्द भी है। चित्-आनन्द। चैतन्ययुक्त होना ही है आनन्द। जब मनुष्य मानसिकप्राणिकशारीरिक उन हजारों स्पन्दनों में लीन चेतना को मुक्त कर लेता हैतब वह आनन्द को खोज पाता है। सारी सत्ता मानो सजीव शक्तिपुंज से भर जाती है (एक  सुगठित स्तम्भ सदृश्य’ ऋग्वेद में कहा है5.45.2) जो स्फटिक के समान स्वच्छनिस्पन्दनिरुद्देश्य है -शुद्ध चैतन्यशुद्ध शक्तिशुद्ध आनन्दक्योंकि वह एक ही चीज है -एक ठोस आनन्दएक विशालशान्त आनन्द-द्रव्य जिसका मालूम होता है न आदि हैन अन्तन ही है कोई हेतुमालूम होता है वह सभी जगह विद्यमान हैवस्तुओं मेंप्राणियों मेंउनका गुह्य आधार तथा विकास की गूढ़ आवश्यकता है।

चूँकि वह सर्वत्र विद्यमान है इसलिए कोई भी मनुष्य जीवन को छोडऩा नहीं चाहता। अपने अस्तित्व के लिए वह किसी पर निर्भर नहीं करतावह हैवह सब युगों मेंदिग्दिगन्तर सेचट्टान की तरहहर वस्तु के पीछे एक मुस्कान की तरहसब जगह है और उसका निराकरण संभव नहीं। बह्माण्ड की सारी पहेली यही हैअन्य कुछ नहीं। एक मन्द मुस्कानएक नाचीज़ जो सब कुछ है। और यह सब आनन्द है क्योंकि सब ब्रह्म हैजो आनन्दरूप हैसच्चिदानन्दशाश्वत् त्रिमूर्तिसंसार वही हैहम भी वही हैं - यह वह रहस्य है जिसे विकास की लम्बी यात्रा के दौरान खोज कर हमें जीवन में उतारना है, ‘आनन्द से इन सब जीवों की उत्पत्ति हैआनन्द से उनका अस्तित्व और वृद्धि हैआनन्द में उनकी निवृत्ति है।“ (तैत्तिरीय उपनिषद् 3.6)
हरि: ॐ तत्सत      हरि: ॐ तत्सत     हरि: ॐ तत्सत

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