आत्महुति की परम्परा श्री कृष्ण सरल
भारत एक परंपरावादी देश है। यहां हमारे ऋषि-मुनियों ने एक जीवन दर्शन विकसित किया है। इस भूमि से अपना पुत्रवत नाता जोड़ा है। इसका सुख-दुख अपना सुख-दुख माना है; भभत्यजदेकं कुलस्यार्थे ग्रमास्यार्थे कुलं तजेत, देशस्यार्थे त्यजे ग्रामं मोक्षस्यार्थे पृथ्वी त्यजेत।्य्य यह हमारी शाश्वत परंपरा है; हमने भतेन तक्तेन भुन्जिथा कहा।्य यह सब किसके लिये? सब के लिये, समाज के लिये, देश के लिए, संपूर्ण प्राणि मात्र के लिये; क्योंकि इन सब को हमने अपना माना; हमने सह-अस्तित्व की बात की। तुलसीदास ने कहा, भपरहित सरिस धरम नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।्य हमने अपने लिये किये कार्य को विकृति, समाज के लिए किए कार्य को प्रकृति और विश्व कल्याण के भाव से किये कार्य को संस्कृति कहा। संस्कृति में केवल देश कल्याण नहीं अपितु मानव कल्याण से भी आगें प्राणिमात्र का कल्याण समाहित है और यह संस्कृति परम्परा से ही विकसित होकर बनती है; परम्परा प्रवाहमान होती है। कालवाहझ्य चीजों को छोड़ते चलना, लोक कल्याण के लिये जो उपयोगी हो वह नवीन होते हुए भी ग्रहण करना अर्थात भनित्य नूतन चिर पुरातन्य का भाव ही परम्परा है।
अशोक नगर 1921 में गुना जिले में आता था। श्री कृष्ण सरल का जन्म 8 जून 1921 को अशोक नगर में हुआ। श्री कृष्ण जी स्वयं लिखते हैं कि उनका जन्म अत्यन्त प्रतिष्ठित परिवार में हुआ; पिता भगवती प्रसाद एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे; उनकी माता का नाम यमुना देवी था। माता पांच वर्ष की आयु में गुजर गई। मूल आगरा निवासी श्री भगवती प्रसाद ने जब पुत्र को काव्य लिखते देखा तो उनकी पहली प्रतिक्रिया थी कि काव्य में मा़त्रा की अशुद्वि से सरस्वती नाराज होगी; किन्तु सरल जी नहीं माने। काव्य या लेखन को सरल जी साधना मानते हैं। वे लिखते हैं, भप्रबन्ध लेखन के पूर्व काव्य लेखन मंे मेरा हाथ सध चुका था।्य यह सध चुकना शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। यह साधना की स्थिति को दर्शाता है। महर्षि पुरषोत्तम दास टण्डन आपके प्रेरणा श्रोत थे। सरल जी ने लिखा है कि भकवि और सैनिक्य की पाण्डुलिपि पढ़कर टण्डन जी ने कहा- भभसरल जी आप काव्य क्षेत्र की कई कृतियां प्रकाशित कर चुके हैं अब महाकाव्य लिखने का प्रयत्न करें।्य्य टण्डन जी ने कहा- भभआपकी कृति भकवि और सैनिक्य देखकर मुझे विश्वास है कि आप महाकाव्य लिख सकते हैं।्य्य सरल जी लिखते हैं, मैंने बड़े आदर से पूछा, भभविषय क्या चुना जाय।्य्य टंण्डन जी ने कहा, भभपौराणिक कथानकों पर बहुत से महाकाव्य लिखें गये हैं। मैं शहीद भगत सिंह को उचित पा़त्र मानता हंू।्य्य
वीर पुरूषों पर रचनाएं बीरगाथा काल में बहुत लिखी गई हैं किन्तु उन कवियों के प्रति बड़ा आदर रखते हुए भी मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि उस काल के कवियों ने अपने जीविकोपार्जन के लिये अपने आश्रयदाता के यश की कविताएं लिखीं। हिन्दी कवियों का यह कर्तव्य है कि उन लोगों पर लिखें जो दघीच कोटि के आते हैं। जिन्होनंे अपने प्राणों की बाजी तथा अपने परिवार का सुख, अपने आत्मीयों को संकट में डालकर हम लोगों को अभिशत्प एवं नारकीय यातना के जीवन से मुक्त किया। हमारे देश के बलिदानियों का मूल्याकंन नहंी किया गया तो उस कृत्घ्नता का मूल्य चुकाना होगा। इसके दुष्परिणाम भोगने होंगे।
आत्महुति की परम्परा की गाथा स्वय सरल जी माघ कवि के जीवन से बताते हैं। माघ की कहानी हम सब को मालुम है। माघ का जीवन अत्यन्त उदार होने से कालान्तर में कंगाल हो गये तथा घर छोड़ घूमते रहे। बाद में महाकवि राजा भोज की नगरी पहुंचे, जहां छद्म भेष में अपनी पत्नी को भोज के दरवार में काव्य पाठ हेतु भेजा। जिसे सुन राजा समझ गया कि यह रचना केवल माघ ही कर सकते हैं और राजा भी छिप कर वहां पहुंचे जहां माघ कवि अपनी पत्नी के साथ रहते थे और देखते ही राजा ने कवि को पहचान लिया। राजा के बहुत आग्रह करने पर भी कवि वहां नहीं रूके और दर-दर की ठोकर खा, पागल होकर अपना जीवन त्यागा। आगामी जीवन मंे माघ और उनकी पत्नी को बहुत कष्ट हुआ।
पत्नी हुई अनमनी- कुछ समय बाद सरल जी उज्जैन आ गये जहां महाविद्यालय में उन्हें एक नाटक में माघ के जीवन चरित्र का निर्वहन करना पड़ा, जिसमें भूख से पागल होकर मरते कवि को देख उनकी पत्नी व्याकुल हो गई। तभी शायद सरल को अपनी ये पक्तियां अवश्य याद आई होगीं-
सम्मान न पाता हर कोई ऐरा-गैरा
सम्मान त्याग से सदा कामाया जाता है
अपनी हस्ती जनता के लिये मिटाता जो
तो- सर आंखों पर वही बिठाया जाता है।
बाद में सरल जी के जीवन मंे भी कवि माघ के दुर्दिन देखने को मिले। जिसे सरल जी ने कुछ इस प्रकार प्रकट किया-
वह नाटक हो चुका मंच पर
अब नाटक होता जीवन में
वह नाटक था या यह नाटक
सोच रहा मैं अपने मन में।
भगत सिंह पर लिखने के पूर्व सरल जी भगत सिंह की माता से मिलने उनके गांव गये, वहां उनकी माता जी ने जो स्मरण सुनाय वह अत्यन्त प्रेरणास्पद है। भभभगत सिंह को जिस दिन फांसी होनी थी उसके एक दिन पूर्व उनकी सुखदेव और राजगुरू की माता इन लोगों से मिलने जेल गईं। जहां अन्य मिलने वालों को जेलर ने यह कहा कि - भभअभियुक्तों की माता के अलावा और कोई नहीं मिल सकता।्य्य यह सुन भगत सिंह ने कहा- यदि मैं अपने देशवासियों से नहीं मिल सकता तो फिर अपनी माता से भी नहीं मिलंूगा।्य्य
गहने बेच डाला- भगतसिंह की माता का आग्रह था कि भगत सिंह पर लिखा जानेवाला जीवन चरित्र आधारित काव्य जल्दी तैयार हो। काव्य लिखना प्रारम्भ हुआ। रात-दिन एक कर एक साल में महाकाव्य तैयार कर लिया गया। अब बारी आई प्रकाशकों के चक्क्र लगाने की, हर कोई यह कह लौटा देता कि भभहिंदी की पुस्तक कोई खरीदता नहीं। आप अपनी पाण्डुलिति छोड़ दें नम्बर आने पर छापूंगा।्य्य लेकिन धन्य है सरल जी का संकल्प और धन्य हैं उनकी पत्नी की देशभक्ति से भरी उदारता। आत्म त्याग की यह परम्परा यदि आज भी जीवित होती तो क्या देश का स्वरूप आज भी ऐसा ही होता जैसा देखने को मिल रहा है। निश्चित ही इसका उत्तर न में ही होता। सरल जी की पत्नी ने कहा, भभमेरे पास सोने के जितने आभूषण हैं वे सब आप बेंच दीजिये और अपनी यह कृति भगत सिंह को छपवाइयें।्य्य सरल जी ने कहा, भभयह गहने तो तुमने बेटे की शादी पर बहू को देने के लिए रख रखा है?्य्य पत्नी ने कहा भभतुम्हारी इस कृति से बढ़कर जीवन में कोई और मांगलिक अवसर नहीं है।्य्य और अन्त में यह निर्णय मान्य हुआ। घर के जेवर-गहने कीमती कपड़े बेचने पड़े। कैसा अद्वितीय त्याग? शहीदों के सम्मान में इससे अधिक और क्या ? याद आती है सरल जी की पंक्तियां-
जिस देश-धरा में है जीवन का सुमन खिला
उस देश-धरा के लिए समर्पित हो जाओ
तुम अगर चाहते हो दुनिया तुमको ढूंढे
तो कुर्वानी की राहों में जाकर खो जाओ।
पहले आजाद पर पुस्तक लिखो- पुस्तक के विमोचन के अवसर पर भगतसिंह की मां को बुलाया गया। यहां आत्महुती की परम्परा का अनूठा उदारहरण देखने को मिलता है। सारा नगर नई बधू की तरह सजाया गाया। भगत सिंह की मां पुस्तक के विमोचन के लिए मंच पर पधारी। जैसे ही भगत सिंह पर लिखा जीवन ग्रंथ विमोचन हेतु उन्हें सौपा जा रही था वे पीछे हट जाती हैं। सरल जी, भभक्या चन्दशेखर आजाद पर पुस्तक छप गई?्य्य प्रश्न अपेक्षा के बिपरीत था। भभसरल जी बादा करो, चन्द्रशेखर पर पुस्तक लिखोगे तभी मैं इस पुस्तक का विमोचन करूंगी।्य्य सरल जी की सहमति के बाद ही पुस्तक का विमोचन हो सका। वस्तुतः आत्महुति की यही परम्परा शहीदों की याद है। पुस्तक के विमोचन का अवसर उस समय अत्यन्त कारूणिक हो उठा जब भगत सिंह की मां ने कहा- भभआज जिसे लाहौर में खोया था उज्जैन में प्राप्त कर लिया।्य्य
सरल जी यहीं नहीं रूकते हैं। पुस्तक छपी। बड़ा प्रश्न खरीेदेगा कौन? बेंचेगा कौन ? सरल जी अपने बच्चों के साथ पुस्तकों को बेचना प्रारम्भ किया। जैसे कि हिन्दी के पाठकों मंे आज भी परम्परा है कि मानद, सप्रेम भेट की प्रति ही पढ़ते हैं; हिन्दी के पाठकों को लगता है कि यदि पुस्तक खीरद कर पढ़ी गई तो उसकी उपादेयता ही कम हो जावेगी या पाठक का महत्व काम हो जावेगा। इसी का परिणाम था कि सरल जी को ठेले पर पुस्तकों का स्टाल लगाना पड़ा। सरल जी अपने अनुभव में लिखते हैं कि- भभकुछ महानुभाव तो इतने ढीठ होते हैं कि पुस्तक का पहला पृष्ठ ही खोलकर रख देते हैं कि इसमें सप्रेम भेट लिख दें।्य्य यह पाठक की परम्परा न तो शहीदों की श्रद्धांजलि है और न ही आत्महुति की परम्परा का सम्मान। सरल जी की आर्थिक स्थिति कितनी खराब हो गई थी आप समझ सकते हैं जब वे लिखते हैं-
रहिमन दुर्दिन के परे, दुरथल जाए भाग।
जैसे जइयत घूर पर जब घर लागत आग।ं
न पुस्तक बचेने का अनुभव न प्रचार करने का। चादर बिछा पुस्तक दिन भर रख बैठे रहना, एक भी पुस्तक न बिकना, कितना असहनीय मनोव्यथा से गुजरना पड़ा होगा सरल जी को हम सब आज अन्दाज नहीं लगा सकते हैं। एक उठाईगीर अपनी जड़ी-बूटी की दुकान लगा दिन भर की कमाई गिन सरल जी को बताता है, भभसाहब! देखो आपने-हमने यहां दुकान लगाई। आप कुछ नहीं बेच पाये हमने कमाई कर ली। आपकी एक भी पुस्तक नहीं बिकी।्य्य दूसरे दिन उसकी सलाह पर माईक लगाया गया। सरल जी तो बोल नहीं पाये किन्तु माईकवाले ने आवाज लगाई-भभशहीदों की जासूसी किताबे खरीदिये। उनकी तिलिस्मी कहानियां। पढ़िये क्रान्तिकारी की प्रेम कथाएं।्य्य
कितनी वेदना का दौर होगा यह। पुस्तक बेचने के समय एक छात्र ने सरल जी को देख लिया और आगे बढ़ कर पैर छुआ। अपने दोस्तों से परिचय कराया। भभयह मेरे गुरू जी हैं। हमें बी.एड में पढ़ाते थे।्य्य उसने रूकने का पता लिया। दूसरे दिन सभी ने मिलकर सरल जी का अभिनन्दन किया और सरल जी कहते हैं- भभउसी दिन इस अभिनन्दन ने हमें यह शहर छोड़ने पर मजबूर कर दिया।्य्य किन्तु सरल जी न हारे न आस छोड़ी। उनका अनवरत प्रवास प्रारंभ हुआ। साथ ही शहीदों पर लेखन कार्य भी। चन्द्रशेखर आजाद, सुभाषचन्द्र बोस से लेकर असफाक तक। साथ ही प्रवास भी चला।
महगी पड़ी देशभक्ति- सरल जी हांगकांग में जिस होटल में रूके थे वहां के दुभाषिये से कहा -भभमुझे चीनी कवियों से मिला सको तो मिला दो।्य्य वह दो चीनी कवियों को बुला लाया। बातचीत में देशभक्ति से लबालव भरे सरल जी ने कहा- भभहमने भारत चीन युद्ध के समय चीन के बिरूद्ध कई कविताएं लिखीं हैं, आपने भी भारत के खिलाफ लिखीं होगीं ?्य्य वे बोले, भभआप ठहरे! हम बड़े कवियों को बुलाकर लाते हैं वे ही आप से चर्चा करेगें।्य्य और कुटिल मुस्कान के साथ वे सरल जी को प्रतीक्षारत छोड़कर चले गये। सरल जी लिखते हैं कि, भभएक आधा घंटे बाद होटल का मैेनेजर लगभग हाफता हुआ मेरे पास आया और बोला सरल जी आप तत्काल भारत चले जाय। आपकी जान को खतरा है। आपने जिन कवियों को बुलाया था वे कवि नहीं मवाली थे। चीन के विरूद्ध आप की कविता सुन वे आपको या तो बन्धक बना लेते या मार डालते। किसी तरह मैंनेजर के प्रभाव से टिकिट मिली और मैं भारत आया।्य्य यह संस्मरण सरल जी की बयानी है। क्या यह उत्कट देश भक्ति हमारे अन्दर है। अभी 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जिन अंग्रेजों की हत्या हुई उनके वंशज भारत में आकर श्रद्धांजलि दे रहे हैं। क्या यह हमारे देश का अपमान नहीं है ? यह उन शहीदों का अपमान नहीं है जिन्होंने इस देश के लिए अपना वलिदान दिया ? हम चुप क्यों ? क्या चीन में ऐसी श्रद्धांजलि हो सकती है। यह प्रश्न आत्महुति की परम्परा के विलुप्त होने के परिणाम हैं।
अपनी माटी की कद्र करो- भारत से रंगून पहुंचने पर सरल जी के सामने शर्त रखी गई, भभआप हमारा अनुशासन नहीं तोड़ेगें; आप कोई भी एक स्थान चुन लें।्य्य और सरल जी लिखते हैं, भभमैंने सुभाषचन्द बोस का मुख्याल चुना।्य्य सरल जी आगे का संस्मरण बताते हुए लिखते हैं, जैसे ही मैं वहां पहुंचकर वहां की मिट्टी को हाथ में उठाया, वैसे ही सिपाही ने डाट भरे शब्द में कहा, भभयह मिट्टी यहीं पर रख दीजिये।्य्य मैंने कुछ देर की तभी वह फिर से बोला, भभमिट्टी यही पर फेंक दीजिये।्य्य भभमैने प्रश्न भरी नजरों से उसकी ओर देखा तो सिपाही का उत्तर इतना करारा था कि मेरे गाल लाल हो गये, जैसे किसी ने जोर का थप्पड़ जड़ दिया हो।्य्य
उसका उत्तर था, भभ देश की मिट्टी को आप लोग मामूली चीज समझते है, हम लोग नहीं। जब आप अपने देश की मिट्टी की कद्र नहीं कर सकते तो हमारे देश की मिट्टी की कद्र क्या करेंगें।्य्य
सरल जी के शब्दों में इसका एक ही उत्तर है-
शीश पर धर देश की मिटटी करो प्रण आज
प्राण देकर भी रखेंगे हम धरा की लाज
सह न पायेंगे कभी हम देश का अपमान
देश का सम्मान है प्रत्येक का सम्मान।
रंगून में सुभाषचन्द्र बोस के साथ बिताए समय के संस्मरण काफी प्रेरणास्पद हैं जब सुभाषचन्द्र बोस कहते हैं - भभसरल जी यह पुस्तक लिखना छोड़ों इसमें भूखे मरोगे। शहीदों की पुस्तकों से पेट नहीं भरेगा।्य्य तब दृढ़ता के साथ मैंने ने कहा था- भभमैं आप की इस बात से सहमत नहीं हंू।।्य्य
भूख की प्रत्यक्ष वेदना सरल जी ने झेली है, वे लिखते हैं-
काई अभाव अपने में कष्ट नहीं देते
मन को कचोटता है एहसास अभावों का
तन के घावों के तो मरहम मिल जाता है
उपचार नहीं होता मन के घावों का
सेवा निवृत्ति के बाद सालभर में दस महीने बाहर प्रवास। अनवरत लेखन। चार-चार हृदयाघात। अन्तिम हृदयाघात के समय भी एक ही रटन थी-
क्रान्ति के जो देवता मेरे लिये आरध्य।
काव्य साधन मात्र उनकी वन्दना है साध्य।।
यह था सरल जी के जीवन का ध्येय। एक आत्मजयी पुरूषार्थ। आत्महुति परम्परा के उदात्त नायक। इस महानायक के याद में उसी की पंक्तियां सादर-
जो उठाए इस हमारी मातृ-भू पर आंख
रोष की ज्वाला बने हर फूल की हर पांख।
भूलकर भी जो छुए इस देश का सम्मान
कड़कड़ाती बिजली बने हर कली की मुस्कान।।
भारत एक परंपरावादी देश है। यहां हमारे ऋषि-मुनियों ने एक जीवन दर्शन विकसित किया है। इस भूमि से अपना पुत्रवत नाता जोड़ा है। इसका सुख-दुख अपना सुख-दुख माना है; भभत्यजदेकं कुलस्यार्थे ग्रमास्यार्थे कुलं तजेत, देशस्यार्थे त्यजे ग्रामं मोक्षस्यार्थे पृथ्वी त्यजेत।्य्य यह हमारी शाश्वत परंपरा है; हमने भतेन तक्तेन भुन्जिथा कहा।्य यह सब किसके लिये? सब के लिये, समाज के लिये, देश के लिए, संपूर्ण प्राणि मात्र के लिये; क्योंकि इन सब को हमने अपना माना; हमने सह-अस्तित्व की बात की। तुलसीदास ने कहा, भपरहित सरिस धरम नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।्य हमने अपने लिये किये कार्य को विकृति, समाज के लिए किए कार्य को प्रकृति और विश्व कल्याण के भाव से किये कार्य को संस्कृति कहा। संस्कृति में केवल देश कल्याण नहीं अपितु मानव कल्याण से भी आगें प्राणिमात्र का कल्याण समाहित है और यह संस्कृति परम्परा से ही विकसित होकर बनती है; परम्परा प्रवाहमान होती है। कालवाहझ्य चीजों को छोड़ते चलना, लोक कल्याण के लिये जो उपयोगी हो वह नवीन होते हुए भी ग्रहण करना अर्थात भनित्य नूतन चिर पुरातन्य का भाव ही परम्परा है।
अशोक नगर 1921 में गुना जिले में आता था। श्री कृष्ण सरल का जन्म 8 जून 1921 को अशोक नगर में हुआ। श्री कृष्ण जी स्वयं लिखते हैं कि उनका जन्म अत्यन्त प्रतिष्ठित परिवार में हुआ; पिता भगवती प्रसाद एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे; उनकी माता का नाम यमुना देवी था। माता पांच वर्ष की आयु में गुजर गई। मूल आगरा निवासी श्री भगवती प्रसाद ने जब पुत्र को काव्य लिखते देखा तो उनकी पहली प्रतिक्रिया थी कि काव्य में मा़त्रा की अशुद्वि से सरस्वती नाराज होगी; किन्तु सरल जी नहीं माने। काव्य या लेखन को सरल जी साधना मानते हैं। वे लिखते हैं, भप्रबन्ध लेखन के पूर्व काव्य लेखन मंे मेरा हाथ सध चुका था।्य यह सध चुकना शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। यह साधना की स्थिति को दर्शाता है। महर्षि पुरषोत्तम दास टण्डन आपके प्रेरणा श्रोत थे। सरल जी ने लिखा है कि भकवि और सैनिक्य की पाण्डुलिपि पढ़कर टण्डन जी ने कहा- भभसरल जी आप काव्य क्षेत्र की कई कृतियां प्रकाशित कर चुके हैं अब महाकाव्य लिखने का प्रयत्न करें।्य्य टण्डन जी ने कहा- भभआपकी कृति भकवि और सैनिक्य देखकर मुझे विश्वास है कि आप महाकाव्य लिख सकते हैं।्य्य सरल जी लिखते हैं, मैंने बड़े आदर से पूछा, भभविषय क्या चुना जाय।्य्य टंण्डन जी ने कहा, भभपौराणिक कथानकों पर बहुत से महाकाव्य लिखें गये हैं। मैं शहीद भगत सिंह को उचित पा़त्र मानता हंू।्य्य
वीर पुरूषों पर रचनाएं बीरगाथा काल में बहुत लिखी गई हैं किन्तु उन कवियों के प्रति बड़ा आदर रखते हुए भी मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि उस काल के कवियों ने अपने जीविकोपार्जन के लिये अपने आश्रयदाता के यश की कविताएं लिखीं। हिन्दी कवियों का यह कर्तव्य है कि उन लोगों पर लिखें जो दघीच कोटि के आते हैं। जिन्होनंे अपने प्राणों की बाजी तथा अपने परिवार का सुख, अपने आत्मीयों को संकट में डालकर हम लोगों को अभिशत्प एवं नारकीय यातना के जीवन से मुक्त किया। हमारे देश के बलिदानियों का मूल्याकंन नहंी किया गया तो उस कृत्घ्नता का मूल्य चुकाना होगा। इसके दुष्परिणाम भोगने होंगे।
आत्महुति की परम्परा की गाथा स्वय सरल जी माघ कवि के जीवन से बताते हैं। माघ की कहानी हम सब को मालुम है। माघ का जीवन अत्यन्त उदार होने से कालान्तर में कंगाल हो गये तथा घर छोड़ घूमते रहे। बाद में महाकवि राजा भोज की नगरी पहुंचे, जहां छद्म भेष में अपनी पत्नी को भोज के दरवार में काव्य पाठ हेतु भेजा। जिसे सुन राजा समझ गया कि यह रचना केवल माघ ही कर सकते हैं और राजा भी छिप कर वहां पहुंचे जहां माघ कवि अपनी पत्नी के साथ रहते थे और देखते ही राजा ने कवि को पहचान लिया। राजा के बहुत आग्रह करने पर भी कवि वहां नहीं रूके और दर-दर की ठोकर खा, पागल होकर अपना जीवन त्यागा। आगामी जीवन मंे माघ और उनकी पत्नी को बहुत कष्ट हुआ।
पत्नी हुई अनमनी- कुछ समय बाद सरल जी उज्जैन आ गये जहां महाविद्यालय में उन्हें एक नाटक में माघ के जीवन चरित्र का निर्वहन करना पड़ा, जिसमें भूख से पागल होकर मरते कवि को देख उनकी पत्नी व्याकुल हो गई। तभी शायद सरल को अपनी ये पक्तियां अवश्य याद आई होगीं-
सम्मान न पाता हर कोई ऐरा-गैरा
सम्मान त्याग से सदा कामाया जाता है
अपनी हस्ती जनता के लिये मिटाता जो
तो- सर आंखों पर वही बिठाया जाता है।
बाद में सरल जी के जीवन मंे भी कवि माघ के दुर्दिन देखने को मिले। जिसे सरल जी ने कुछ इस प्रकार प्रकट किया-
वह नाटक हो चुका मंच पर
अब नाटक होता जीवन में
वह नाटक था या यह नाटक
सोच रहा मैं अपने मन में।
भगत सिंह पर लिखने के पूर्व सरल जी भगत सिंह की माता से मिलने उनके गांव गये, वहां उनकी माता जी ने जो स्मरण सुनाय वह अत्यन्त प्रेरणास्पद है। भभभगत सिंह को जिस दिन फांसी होनी थी उसके एक दिन पूर्व उनकी सुखदेव और राजगुरू की माता इन लोगों से मिलने जेल गईं। जहां अन्य मिलने वालों को जेलर ने यह कहा कि - भभअभियुक्तों की माता के अलावा और कोई नहीं मिल सकता।्य्य यह सुन भगत सिंह ने कहा- यदि मैं अपने देशवासियों से नहीं मिल सकता तो फिर अपनी माता से भी नहीं मिलंूगा।्य्य
गहने बेच डाला- भगतसिंह की माता का आग्रह था कि भगत सिंह पर लिखा जानेवाला जीवन चरित्र आधारित काव्य जल्दी तैयार हो। काव्य लिखना प्रारम्भ हुआ। रात-दिन एक कर एक साल में महाकाव्य तैयार कर लिया गया। अब बारी आई प्रकाशकों के चक्क्र लगाने की, हर कोई यह कह लौटा देता कि भभहिंदी की पुस्तक कोई खरीदता नहीं। आप अपनी पाण्डुलिति छोड़ दें नम्बर आने पर छापूंगा।्य्य लेकिन धन्य है सरल जी का संकल्प और धन्य हैं उनकी पत्नी की देशभक्ति से भरी उदारता। आत्म त्याग की यह परम्परा यदि आज भी जीवित होती तो क्या देश का स्वरूप आज भी ऐसा ही होता जैसा देखने को मिल रहा है। निश्चित ही इसका उत्तर न में ही होता। सरल जी की पत्नी ने कहा, भभमेरे पास सोने के जितने आभूषण हैं वे सब आप बेंच दीजिये और अपनी यह कृति भगत सिंह को छपवाइयें।्य्य सरल जी ने कहा, भभयह गहने तो तुमने बेटे की शादी पर बहू को देने के लिए रख रखा है?्य्य पत्नी ने कहा भभतुम्हारी इस कृति से बढ़कर जीवन में कोई और मांगलिक अवसर नहीं है।्य्य और अन्त में यह निर्णय मान्य हुआ। घर के जेवर-गहने कीमती कपड़े बेचने पड़े। कैसा अद्वितीय त्याग? शहीदों के सम्मान में इससे अधिक और क्या ? याद आती है सरल जी की पंक्तियां-
जिस देश-धरा में है जीवन का सुमन खिला
उस देश-धरा के लिए समर्पित हो जाओ
तुम अगर चाहते हो दुनिया तुमको ढूंढे
तो कुर्वानी की राहों में जाकर खो जाओ।
पहले आजाद पर पुस्तक लिखो- पुस्तक के विमोचन के अवसर पर भगतसिंह की मां को बुलाया गया। यहां आत्महुती की परम्परा का अनूठा उदारहरण देखने को मिलता है। सारा नगर नई बधू की तरह सजाया गाया। भगत सिंह की मां पुस्तक के विमोचन के लिए मंच पर पधारी। जैसे ही भगत सिंह पर लिखा जीवन ग्रंथ विमोचन हेतु उन्हें सौपा जा रही था वे पीछे हट जाती हैं। सरल जी, भभक्या चन्दशेखर आजाद पर पुस्तक छप गई?्य्य प्रश्न अपेक्षा के बिपरीत था। भभसरल जी बादा करो, चन्द्रशेखर पर पुस्तक लिखोगे तभी मैं इस पुस्तक का विमोचन करूंगी।्य्य सरल जी की सहमति के बाद ही पुस्तक का विमोचन हो सका। वस्तुतः आत्महुति की यही परम्परा शहीदों की याद है। पुस्तक के विमोचन का अवसर उस समय अत्यन्त कारूणिक हो उठा जब भगत सिंह की मां ने कहा- भभआज जिसे लाहौर में खोया था उज्जैन में प्राप्त कर लिया।्य्य
सरल जी यहीं नहीं रूकते हैं। पुस्तक छपी। बड़ा प्रश्न खरीेदेगा कौन? बेंचेगा कौन ? सरल जी अपने बच्चों के साथ पुस्तकों को बेचना प्रारम्भ किया। जैसे कि हिन्दी के पाठकों मंे आज भी परम्परा है कि मानद, सप्रेम भेट की प्रति ही पढ़ते हैं; हिन्दी के पाठकों को लगता है कि यदि पुस्तक खीरद कर पढ़ी गई तो उसकी उपादेयता ही कम हो जावेगी या पाठक का महत्व काम हो जावेगा। इसी का परिणाम था कि सरल जी को ठेले पर पुस्तकों का स्टाल लगाना पड़ा। सरल जी अपने अनुभव में लिखते हैं कि- भभकुछ महानुभाव तो इतने ढीठ होते हैं कि पुस्तक का पहला पृष्ठ ही खोलकर रख देते हैं कि इसमें सप्रेम भेट लिख दें।्य्य यह पाठक की परम्परा न तो शहीदों की श्रद्धांजलि है और न ही आत्महुति की परम्परा का सम्मान। सरल जी की आर्थिक स्थिति कितनी खराब हो गई थी आप समझ सकते हैं जब वे लिखते हैं-
रहिमन दुर्दिन के परे, दुरथल जाए भाग।
जैसे जइयत घूर पर जब घर लागत आग।ं
न पुस्तक बचेने का अनुभव न प्रचार करने का। चादर बिछा पुस्तक दिन भर रख बैठे रहना, एक भी पुस्तक न बिकना, कितना असहनीय मनोव्यथा से गुजरना पड़ा होगा सरल जी को हम सब आज अन्दाज नहीं लगा सकते हैं। एक उठाईगीर अपनी जड़ी-बूटी की दुकान लगा दिन भर की कमाई गिन सरल जी को बताता है, भभसाहब! देखो आपने-हमने यहां दुकान लगाई। आप कुछ नहीं बेच पाये हमने कमाई कर ली। आपकी एक भी पुस्तक नहीं बिकी।्य्य दूसरे दिन उसकी सलाह पर माईक लगाया गया। सरल जी तो बोल नहीं पाये किन्तु माईकवाले ने आवाज लगाई-भभशहीदों की जासूसी किताबे खरीदिये। उनकी तिलिस्मी कहानियां। पढ़िये क्रान्तिकारी की प्रेम कथाएं।्य्य
कितनी वेदना का दौर होगा यह। पुस्तक बेचने के समय एक छात्र ने सरल जी को देख लिया और आगे बढ़ कर पैर छुआ। अपने दोस्तों से परिचय कराया। भभयह मेरे गुरू जी हैं। हमें बी.एड में पढ़ाते थे।्य्य उसने रूकने का पता लिया। दूसरे दिन सभी ने मिलकर सरल जी का अभिनन्दन किया और सरल जी कहते हैं- भभउसी दिन इस अभिनन्दन ने हमें यह शहर छोड़ने पर मजबूर कर दिया।्य्य किन्तु सरल जी न हारे न आस छोड़ी। उनका अनवरत प्रवास प्रारंभ हुआ। साथ ही शहीदों पर लेखन कार्य भी। चन्द्रशेखर आजाद, सुभाषचन्द्र बोस से लेकर असफाक तक। साथ ही प्रवास भी चला।
महगी पड़ी देशभक्ति- सरल जी हांगकांग में जिस होटल में रूके थे वहां के दुभाषिये से कहा -भभमुझे चीनी कवियों से मिला सको तो मिला दो।्य्य वह दो चीनी कवियों को बुला लाया। बातचीत में देशभक्ति से लबालव भरे सरल जी ने कहा- भभहमने भारत चीन युद्ध के समय चीन के बिरूद्ध कई कविताएं लिखीं हैं, आपने भी भारत के खिलाफ लिखीं होगीं ?्य्य वे बोले, भभआप ठहरे! हम बड़े कवियों को बुलाकर लाते हैं वे ही आप से चर्चा करेगें।्य्य और कुटिल मुस्कान के साथ वे सरल जी को प्रतीक्षारत छोड़कर चले गये। सरल जी लिखते हैं कि, भभएक आधा घंटे बाद होटल का मैेनेजर लगभग हाफता हुआ मेरे पास आया और बोला सरल जी आप तत्काल भारत चले जाय। आपकी जान को खतरा है। आपने जिन कवियों को बुलाया था वे कवि नहीं मवाली थे। चीन के विरूद्ध आप की कविता सुन वे आपको या तो बन्धक बना लेते या मार डालते। किसी तरह मैंनेजर के प्रभाव से टिकिट मिली और मैं भारत आया।्य्य यह संस्मरण सरल जी की बयानी है। क्या यह उत्कट देश भक्ति हमारे अन्दर है। अभी 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जिन अंग्रेजों की हत्या हुई उनके वंशज भारत में आकर श्रद्धांजलि दे रहे हैं। क्या यह हमारे देश का अपमान नहीं है ? यह उन शहीदों का अपमान नहीं है जिन्होंने इस देश के लिए अपना वलिदान दिया ? हम चुप क्यों ? क्या चीन में ऐसी श्रद्धांजलि हो सकती है। यह प्रश्न आत्महुति की परम्परा के विलुप्त होने के परिणाम हैं।
अपनी माटी की कद्र करो- भारत से रंगून पहुंचने पर सरल जी के सामने शर्त रखी गई, भभआप हमारा अनुशासन नहीं तोड़ेगें; आप कोई भी एक स्थान चुन लें।्य्य और सरल जी लिखते हैं, भभमैंने सुभाषचन्द बोस का मुख्याल चुना।्य्य सरल जी आगे का संस्मरण बताते हुए लिखते हैं, जैसे ही मैं वहां पहुंचकर वहां की मिट्टी को हाथ में उठाया, वैसे ही सिपाही ने डाट भरे शब्द में कहा, भभयह मिट्टी यहीं पर रख दीजिये।्य्य मैंने कुछ देर की तभी वह फिर से बोला, भभमिट्टी यही पर फेंक दीजिये।्य्य भभमैने प्रश्न भरी नजरों से उसकी ओर देखा तो सिपाही का उत्तर इतना करारा था कि मेरे गाल लाल हो गये, जैसे किसी ने जोर का थप्पड़ जड़ दिया हो।्य्य
उसका उत्तर था, भभ देश की मिट्टी को आप लोग मामूली चीज समझते है, हम लोग नहीं। जब आप अपने देश की मिट्टी की कद्र नहीं कर सकते तो हमारे देश की मिट्टी की कद्र क्या करेंगें।्य्य
सरल जी के शब्दों में इसका एक ही उत्तर है-
शीश पर धर देश की मिटटी करो प्रण आज
प्राण देकर भी रखेंगे हम धरा की लाज
सह न पायेंगे कभी हम देश का अपमान
देश का सम्मान है प्रत्येक का सम्मान।
रंगून में सुभाषचन्द्र बोस के साथ बिताए समय के संस्मरण काफी प्रेरणास्पद हैं जब सुभाषचन्द्र बोस कहते हैं - भभसरल जी यह पुस्तक लिखना छोड़ों इसमें भूखे मरोगे। शहीदों की पुस्तकों से पेट नहीं भरेगा।्य्य तब दृढ़ता के साथ मैंने ने कहा था- भभमैं आप की इस बात से सहमत नहीं हंू।।्य्य
भूख की प्रत्यक्ष वेदना सरल जी ने झेली है, वे लिखते हैं-
काई अभाव अपने में कष्ट नहीं देते
मन को कचोटता है एहसास अभावों का
तन के घावों के तो मरहम मिल जाता है
उपचार नहीं होता मन के घावों का
सेवा निवृत्ति के बाद सालभर में दस महीने बाहर प्रवास। अनवरत लेखन। चार-चार हृदयाघात। अन्तिम हृदयाघात के समय भी एक ही रटन थी-
क्रान्ति के जो देवता मेरे लिये आरध्य।
काव्य साधन मात्र उनकी वन्दना है साध्य।।
यह था सरल जी के जीवन का ध्येय। एक आत्मजयी पुरूषार्थ। आत्महुति परम्परा के उदात्त नायक। इस महानायक के याद में उसी की पंक्तियां सादर-
जो उठाए इस हमारी मातृ-भू पर आंख
रोष की ज्वाला बने हर फूल की हर पांख।
भूलकर भी जो छुए इस देश का सम्मान
कड़कड़ाती बिजली बने हर कली की मुस्कान।।
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