Monday, 16 December 2019

तुलसी की गुरु वन्दना

                                               तुलसी की गुरु वन्दना
भारतीय परम्परा में गुरु का महत्व है। भक्ति साहित्य के दोनों निगुर्ण और सगुणोंपासना में गुरु का स्थान है। तुलसी ने रामचरित मानस के प्रारंभ में गुरु वन्दना की। 
यथा-
                      भवानी   शक्करौ  वन्दे           श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
                      याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्त: स्थमीश्वरम्।।

श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वती जी और श्री शंकर जी की  मैं वन्दना करता हूँ जिनके बिना सिद्ध जन  अपने  अन्त:करण में स्थित  ईश्वर को नहीं देख सकते।

                       वन्दे      बोधमयं    नित्यं    गुरु    शंकर   रूपिणम्।
                       यमाश्रितो  हि   वक्रोऽपि     चन्द्र:      सर्वत  वन्द्यते।
ज्ञानमय, नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं बन्दना करता हँू, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है।

                       बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
                       महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर।।
मैं उन  गुरु महाराज के चरण कमल की वन्दना करता हँू, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्रीहरि ही हैं और जिनके वचन महामोहरूपी घने अन्धकार के नाश करने के लिये सूर्य- किरणों के समूह हैं।
                      बंदउँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।
                     अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू।
मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की  रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुन्दर स्वाद), सुगन्ध तथा अनुरागरूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी ) का  सुन्दर चूर्ण है जो सम्पूर्ण  भव-रोगों के परिवार को नाश करने वाला है।
                      सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती।।
                      जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुनगन बस करनी।।
वह रज सुकृती (पुण्यवान पुरुष) रूपी शिव जी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुन्दर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मनरूपी सुनदर दर्पण के मैल को  दूर करनेवाला और तिलक करने से गुणों के समूह  को वश में करने वाली है।
                      श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत  दिव्य दृष्टि हियँ होती।
                      दलन मोह तम  सो  सप्रकासू।  बड़े भाग उर  आवइ  जासू।।
श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञानरूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं।
                      उघरहि बिमल बिलोचन ही के। मिटहिँ दोष दुख भव रजनी के।।
                      सूझहि राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक।।
 उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दु:ख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि  और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में हैं, सब दिखायी पडऩे लगते हैं।
                    जथा सुंअन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
                    कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान।।
और जैसे सिद्ध जन को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों वनों और पृथ्वी के अंदर कौतुक से ही बहुत-सी  खानें देखते हैं।

                    गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष विभंजन।।
                    तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन।।
श्री गुरु महाराज के चरणों की रज  कोमल और सुन्दर नयनामृत-अञ्जन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसार रूपी बन्धन से छुड़ाने वाले श्रीराम चरित्र का वर्णन करता हँ।











 

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