संत तुकाराम
भारत संतों की भूमि है। इस देश में अनेक महर्षि, ऋषि, संत हुए हैं। इन सभी के जन्म का हेतु जनकल्याण और लोगमंगल रहा है। तुलसी ने संतो का परिचय देते हुए कहा है- ‘तुलसी संत सुअम्ब तरु, फूलि फलहि पर हेत। इतते ये पाहन हनत , उतते फल देत।’ तुकाराम जी को महाराष्ट्र के पाँच संतोंं में गिना जाता है। वे अपने कृतित्व से चार सौ वर्षौं तक जनमानस को प्रभावित करते रहे। महाराष्ट्र में संत परंपरा संत ज्ञानेश्वर से मानी जाती है। मराठी में कहा जात है कि -‘ज्ञानदेवे रचिला पाया, तुका झाला से कळस।’ अर्थात ज्ञानदेव यदि संत परम्परा के नीव हैं तो तुकाराम भक्ति के मंदिर के कलश हैं।
तुकाराम से संत तक की यात्रा के बीच में जाति, पंथ,परिवार सभी कुछ खड़ा है। भारतीय संत परम्परा के परिचय में पहले साधु आता है जिसे कहते हैं- ‘जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार की पड़ी रहन दो म्यान।’ बाबा तुलसीदास ने कहा ‘परहित द्रविय संत सुपनीता।’ अथवा ‘संत हृदय नवनीत समाना। कहहि कविन पय कहय न जाना।’ कथति सूद्रजाति में जन्मे तुकाराम तत्कालीन समाज को ही नहीं देखते, बल्कि उनकी पैनी नजर भूत को वर्तमान से जोड़ती है और वर्तमान में भविष्य का रेखाँकन कर देती है। यह बात है जो $ग्रहस्थ को संत बनाती है। हम तुकाराम को ज्ञानी भी कह सकते थे किन्तु समाज ने तुमकाराम को संत पुकारा। संत वह जो काल निरपेक्ष,पंथ निरपेक्ष हो जो काल का सीमोलंघन करता चलता है। जहाँ विराग होगा वहँ राग आधार है। जहाँ ज्ञान होगा वहाँ अज्ञान होगा। जहाँ साधु-स्वभाव होगा वहाँ असाधु भी होगा किन्तु संत जो सदा सत में रमण करता है वह गृहस्थ है, समाज में रहता है अथवा गृहस्थी से दूर है असत और दोनों से परे है। हथकड़ी सोन की हो या लोहे की क्या फर्क पड़ता है, है तो आखिर वह हतकड़ी । तभी तो कहा जाता है- ‘संतन को कँह सीकरी सो काम। आवत जात पनहिया टूटी बिसर गयो हरिनाम।’ साधुता, भक्ति दोनों ही जंजीरे हंै । जहाँ ज्ञान, साधुता, भक्ति, प्रेम, सगुण और निगुर्ण एकाकार हो सत्य में विलीन होते हैं वहाँ से संत की यात्रा प्रारंभ होती है।
सत्रहवीं शताब्दी के मराठी कवि संत तुकाराम का जन्म अनुमान के आधार पर 1608 में महाराष्ट्र के पुणे शहर से पैतीस किलोमीटर दूर इन्द्रायणी नदी के किनारे बसे देहू नाम गाँव में हुआ। इनके माता का नाम कनकबाई तथा पिता का नाम बोल्हाबा था।
तुकाराम का जन्म निम्न परिवार में हुआ जिसे मौर्य समुदाय के नाम से जाना जाता है। पंढरीनाथ वि_ल के उपासक विश्वंभर जी के आठवी पीढ़ी में संत तुकाराम का जन्म हुआ था। इनका सम्पूर्ण कार्यकाल 43वर्ष रहा। 1648 में इन्होंने इस संसार से विदा ली।
संत तुकाराम को शिवाजी महाराज का आध्यात्मिक गुरु माना जाता है। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के द्वारा उन्हें आज अन्तर्राष्ट्रीय संत कवि माना जाता है। विठोवा को समर्पित अभंग का अंग्रेजी में अनुवाद हो चुका है। इनके जीवन पर 1936 में बनी मराठी फिल्म को पेनिस फिल्म अवार्ड भी मिला है। विट्ठल भगवान को समर्पित संत तुकाराम भक्त संप्रदाय के नामदेव के समान थे। इनका कार्यक्षेत्र वारकरी महाराष्ट्र रहा है। माना जाता है महाराष्ट्र यदि मंदिर है तो संत तुकमाराम उस मन्दिर के कलश। इनके अभंग पढ़े-लिखें, अपढ़ ग्रामीण शहरी, देश-विदेश सभी को प्रभावित करते है।ं पेशवाओं के देखरेख में तुकाराम दर्शन ग्रंथ समाज के सामने आया। तुकाराम के अभंग मानव के दिन प्रतिदिन के जीवन के बारे में हैं। मुनष्य का व्यवहार कैसा हो सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक जीवन कैसा हो यह उनके अभंगों में प्राप्त होता है। तुकाराम ने अपने जीवन में समाज की पीड़ा को देखा था। कहते हैं कि एक बार वे खेती की मिर्ची बाजार में बेचकर आ रहे थे,रास्ते में किसी गरीब के यहाँ ठहरने पर वार्तालाप में ज्ञात हुआ कि उसके बेटी का व्याह होना है किन्तु उसके पास पैसा नहीं है,यह सुन तुकाराम मिर्ची के पैसे उसे देकर खाली हाथ घर आ गये। इसी तरह उनके जीवन की एक घटना और है जो नानक के जीवन से मिलती है। कहते हैं चिडिय़ों से तुकाराम को खेत की रखवाली के लिए रखा गया। तुकाराम भक्ति में लीन चिडय़ा भगवान के जीव हैं इन्हें खाने दो ,इस भाव देखते रहे और चिडिय़ों ने सारा खेत खा लिया। किन्तु जब किसान खेत में दाना लेने आया तो चमत्कार हुआ और उसको हर वर्ष की तुलना में काफी अनाज मिला।
तुकाराम की समानता मध्यकाल के उत्तर भारतीय संतों से मिलती है। काव्य रचना के मराठी के अपने विशेष छंद हैं। संत ज्ञानेश्वर को ओवी छंद का सिद्धहस्त माना जाता है तो संत तुकाराम को अभंग छंद का। तुकाराम ने हिन्दी में भी अपनी रचनाएँ की हैं किन्तु उनमें अरबी-फरसी ही ज्यादा है। हिन्दी में अपने छंदों की परम्परा है, यथा- दोहा, सोरठा,रोला, चौपाई आदि। संत तुकाराम के अभंग सामान्य शब्दार्थ में प्रारम्भ में बड़े सरल लगते हैं किन्तु उनके गूढ़ार्थ एक अलग भाव रखते हैं जो मनुष्य की आत्मा की खुराग कहे जाते हैं। यहाँ रचनाओं के उदाहरण के साथ देना समयोचित होगा जो भारतीय एकात्मता के अनुपम उदाहरण हैं-
(क) मनुष्य का जीवन कैसा हो-
मन शुद्ध तया काय करिसी माळा। मंडित सकळा भूषणांसी।।
हरिच्या गुणें गर्जताती सदा। आनंद तथा मानसीं ।। (तुकाराम)
माला फेरत जुग गया गया न मन का फेर।
करका मन का छोड़ के मनका मनका फेर। (कबीर)
गोविन्दा गुणा गाई रे, ताथै भाई पाईथे परम निधान
हरि जननी मैं बालक तोर (कबीर)
(ख) तीर्थ के पथ्य-
तीर्थ,वगत,नेम मोक्षाचें तीर्थ न लगे वाराणसी। येती तयामासीं अवधीं जने।
तीर्थांसी तीर्थ जला तो चि एक। मोक्ष तेणे दर्शनें ।। (तुकाराम)
मन मथुरा तन द्वारिका,काय कासी जान।
तीरथ चालै दोउ जन मन चंचल चित चोर
एकौ पाप न उतरया दस मन लायो और।
(ग) कर्म के आधार पर फल की प्राप्ति-
शुद्धबीजा पोटीं। पळें रसाळ गोमटी।। (तुकाराम)
बोवे पेड़ बबूल का आम कहाँ ते होय।
(घ) पर धन परनारी की धारणा-
पराविया नारी माउलसमान। मानिलिया धन काय वेचे।
न करितां परनिंदा द्रव्रू अभिलाष। काय तुमचें यास वेचे संागा।। (तुकाराम)
अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुन सठ कन्या सम ये चारी
धन पराय विष ते विष भारी। (तुलसी)
परनारी छूता फिरे ,चोरी बिढ़ता खाहि।
दिवस चारि ससरसा रहैं, अंत समूला जाहि। (कबीर)
(च) नवधा भक्ति-
भक्ति नवविध । पावली मुळची जनार्दननामची संख्या जाली
नवसें ओंव्या आदरें वाचितां। त्याच्या मनोरथा कार्यसि।ि।
सीमा न करवे आणीक ही सुखा। तुका म्हणे देखा पांडुरंग। (तुकाराम)
नवधा भक्ति करै जो कोई। त्रिविध ताप त्रासक तिगुहानी। राम स्वरूप सिंधु समुहानी। (तुलसी)
(छ) ईश्वर की समान धारणा-
चारी वेद ज्याची कीर्ती बाखाणिती। प्रत्यक्ष ये मूर्ति विठोवाची। (तुकाराम)
गिराअर्थ जल बीच सम कहियत भिन्न न भिन्न। (तुलसी)
कान्हा रे मनमोहल लाल। सब ही विसरू देखें गोपाल।
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई। (मीरा)
(ज) कलियुग में रामनाम महात्म्य-
कलियुगामाजी करावें कीर्तन। तेणें नारायण देईल भेटी । (तुकाराम)
राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखि विचारि त्याग मदमोहा।
आगम निगम पुरान,कहत कर लीेक। तुलसी रम नामकर ,सुमिरन नीक।
कलि केवल हरि नाम अधारा। (तुलसी)
ओ मन चंदल नेकु विचार,वहीं यहसार असार सरासर
भजौ रघुनन्दन पाप निकन्दन ,श्री जगबन्दन नित्य हियावर। (भानु)
(ज) माया ब्रह्म की कल्पना- संसार की नश्वरता:
माया ब्रह्म ऐसें म्हणती धर्मठक।। आपणासिरसे लोक नागविले।
विषयीँ लंपट शिकवी कुविद्या। मनामागें नाद्या होऊनि फिरे।
हो का पुत्र पत्नी बंधु। त्यांचा तोडावा संबंधु।
कळों आले खट्याळसें। शिवों नये लिंपों दोषें । (तुकाराम)
कबीर माया पापिणी,हरि सू करै हराम।
मुख कडिय़ाली कुमति की, कहण न देई राम।।
काकी मातु पितासु कहु काकी, कौन पुरुष की जोई।
ऐसे संत परम्परा की एक मलिका को शत शत नमन।
प्रो.उमेश कुमार सिंह
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