Monday, 16 December 2019

राष्ट्र चेतना के कीर्ति पुरुष विवेकानंद

 राष्ट्र चेतना के कीर्ति पुरुष - स्वामी विवेकानन्द-भारतीय-दर्शन एवं अध्यात्म की चैतन्य, साकार विश्व चेतना का साकार रूप स्वरूप स्वामी विवेकानंद थे, जिनकी वाणी में तेज, हृदय में जिज्ञासाओं का महासागर विद्यमान था। उनकी सत् साहित्य सादृश्य जीवन शैली में संजीवनी सा प्रभाव था। स्वामी जी के मानसिक वैचारिक गुणों के अमृत घट से भारत ही नहीं, अपितु संसार ने भी पाया ही पाया है। स्वामी जी ने देश व दुनियां के दिग्भ्रमित लोगों को नवजीवन, नई सोच, नई दिशा दी। सचमुच तेजस्वी जीवन के धनी गौरवशाली ज्ञान गरिमा के प्रेरक युवा युग पुरुष थे, स्वामी विवेकानंद। स्वामी जी ने भारत की रग-रग में स्वाभिमान व राष्ट्र-चेतना का संचार किया। समाज सुधारक, राष्ट्र चेतना के उन्नायक अध्येता-ज्ञाता-कीर्ति पुरुष स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व व ज्ञान आभा से देश ही नहीं सारा संसार आलोकित हुआ था। आज भी स्वामी विवेकानन्द जी की जीवन शैली व उपदेश प्रासंगिक हैं। प्रेरणा पुरुष स्वामी विवेकानंद जी को आज भी सारे संसार में जाना जाता है।
कहा जाता है कि लीक से हट के चलने वाला व्यक्ति प्रतिभाशाली होता है। इसी क्रम में बात, स्वामी विवेकानंद की। समाज सुधारक राष्ट्र चेतना के कीर्ति पुरुष स्वामी जी ने विदेशी सत्ता के रहते अथवा चलते पराधीन भारत में, जुल्म-शोषण, अन्याय से दुखी, भारतवासियों में एवं राष्ट्र की जख्मी आत्मा, घायल प्राणों में राष्ट्रीय चेतना स्पंदित की। वहीं अंधविश्वासी, रूढवादी समाज को नई दिशा दी। स्वामी जी ने अपने अध्यात्म ज्ञान व आत्मशक्ति से भारतवासियों में आत्मबल का संचार किया। विलक्षण व्यक्तित्व के धनी स्वामी विवेकानन्द का नाम व काम भारत ही नहीं, अपितु संसार में भी अमर है और रहेगा।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में, नरेन्द्र (यानी विवेकानंद जी) ‘‘ध्यानसिद्ध पुरुष थे।’’ साहित्य सदृश जीवन शैली के धनी स्वामी विवेकानन्द के जीवनवृत्त, आध्यात्मिकता व प्रतिभा को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता।

भारत में स्वामी विवेकानन्द ने रूढवादी विचारों, अंधविश्वासों को छोडने एवं पराधीनता को त्यागने का आह्वान किया, उनके विचारों से जनता में विश्वास भर गया, उन्होंने स्वतंर्त्ता के लिए देशवासियों में स्वाभिमान जगाया। स्वामी विवेकानन्द के समाज सुधार के वक्तव्यों ने समाज में अंधभक्तों की आँखें खोल दीं। इसी दौरान स्वामी जी को दुनियां के कई देशों के निमंर्त्ण मिले। वे फिर उन देशों में गए। अब तो विदेशों में भारतीय वेदान्त, दर्शन, आध्यात्मिकता के बजे डंके की गूँज जगह-जगह सुनाई देने लगी थी। वहाँ भी स्वामी जी ने पाश्चात्य भौतिकता की नकारात्मक सोच को उद्बोधित कर काफी कुछ बोला, कहा। बावजूद इसके स्वामी विवेकानन्द लोगों के चहेते विश्व में प्रिय आदर्शों के धनी, मुखरित महान् व्यक्तित्व के रूप में उन्मुखता से स्थापित हुए।
  उन्होंने यथार्थ दर्शाते हुए कहा, ‘‘भारत भूमि पवितर्् भूमि है, भारत मेरा तीर्थ है, भारत मेरा सर्वस्व है, भारत की पुण्य भूमि का अतीत गौरवमय है, यही वह भारतवर्ष है, जहाँ मानव प्रकृति एवं अन्तर्जगत् के रहस्यों की जिज्ञासाओं के अंकुर पनपे थे।’’ स्वामी जी कहा करते थे, ‘‘भारत वर्ष की आत्मा उसका अपना मानव धर्म है, सहस्रों शताब्दियों से विकसित चारिर्त््य है।’’ उन्होंने देशवासियों से कहा ‘‘चिन्तन मनन कर राष्ट्र चेतना जागृत करें तथा आध्यात्मिकता का आधार न छोडें़।’’ स्वामी जी ने तत्कालीन देश, काल वातावरण पर अपना मंतव्य इस प्रकार स्पष्ट किया। ‘‘सीखो, लेकिन अंधानुकरण मत करो। नयी और श्रेष्ठ चीजों के लिए जिज्ञासा लिए संघर्ष करो।’’ स्वामी जी का यह भी स्पष्ट मत था कि उनका (पाश्चात्य जग का) अमृत हमारे लिए विष हो सकता है। उन्होंने कहा था, दो प्रकार की सभ्यताएं हैं, एक का आधार मानव धर्म, दूसरी का सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति। इन्हीं संदर्भों में उनका यह भी कहना था कि समन्वय हो, किन्तु भारत यूरोप नहीं बन सकता, उनके मतानुसार प्रेम से असम्भव भी सम्भव हो सकता है। युवाओं से उनका सम्बोधन था, ‘‘ध्येय के प्रति पूर्ण संकल्प व समर्पण रखो।’’ उन्होंने कहा भारत के राष्ट्रीय आदर्श सेवा व त्याग हैं। देश को त्यागी व समाजसेवी चाहिए। पुनरुत्थान के संदर्भ में उनका कहना था, जिन्दा रहना है तो विस्तार करो, जीवन दान करोगे तो जीवन दान पाओगे। स्वामी जी ने स्पष्ट कहा, हमें पश्चिम से मुक्त होना है, पर उनसे बहुत कुछ सीखना है, सब जगह से अच्छी बात लो। स्वामी विवेकानन्द अक्सर कहते थे, ‘‘नैतिकता, तेजस्विता, कर्मण्यता का अभाव न हो। उपनिषद् ज्ञान के भण्डार हैं उनमें अद्भुत ज्ञान शक्ति है, उनका अनुसरण कर अपनी निज पहचान स्थापित करो।’’
स्वामी विवेकानन्द का अपना अनुभव, उन्होंने कहा ‘‘नासतः सत् जायते’!’’ निरस्तित्व में से अस्तित्व का जन्म नहीं हो सकता। जिसका अस्तित्व है, उसका आधार निरस्तित्व नहीं हो सकता। शून्य में से कुछ सम्भव नहीं। यह ‘कार्यकरण सिद्धान्त’ सर्वशक्तिमान है और देश कालातीत है। इस सिद्धान्त का ज्ञान उतना ही पुराना है, जितनी आर्य जाति। सर्वप्रथम आर्यजाति के पुरातन ऋषि कवियों ने इसका ज्ञान प्राप्त किया, दार्शनिकों ने इसका प्रतिपादन किया और उसे आधारशिला का रूप दिया जिसके ऊपर आज भी सम्पूर्ण सनातन जीवन का प्रासाद खडा होता है।’’ उनका चिंतन था, वेदों में एक सुगठित देव शार्स्त्, विस्तृत कर्मकाण्ड, विविध व्यवसायों की आवश्यकता की पूर्ति हेतु जन्म गत वर्षों पर आधारित समाज रचना एवं जीवन की अनेक आवश्यकताओं का और अनेक विलासिताओं का वर्णन है। उनका कहना था, यही वह पुरातन भूमि है जहाँ ज्ञान ने अन्य देशों में जाने से पूर्व अपनी आवास भूमि बनाई थी, यह वही भारतवर्ष है। इसी धरा से दर्शन के उच्चतम सिद्धान्तों ने अपने चरम स्पर्श किए। इसी भूमि से अध्यात्म एवं दर्शन की लहर पर लहर बार-बार उमडी और समस्त संसार पर छा गयी। वस्तुतः स्वामी विवेकानन्द जी का अपना चिंतन बहुत ही विस्तृत, महान् तथा प्रेरणायुक्त है।
स्वामी विवेकानन्द जी के समय देश की हालत बडी जर्जर थी, उन्होंने लिखा स्वधर्मी, विधर्मी लोगों के दमन चक्र में पिसकर लगभग चेतनाशून्य हो गए। उन्होंने पुनरुत्थान के संदर्भ दान का महत्त्व बताया, धर्मदान, विद्यादान, प्राणदान और अन्न जल दान और भी महत्त्वपूर्ण विचार उनके रहे। उन्होंने कहा ‘‘सत्य दो, असत्य स्वयं मिट जाएगा।’’ ग्रंथों में छिपे आध्यात्मिक ज्ञान को प्रकाश में लाएं। उनके अनुसार, आत्मविश्वास की अपनी अद्भुत शक्ति है। उनके मतानुसार निस्स्वार्थ कार्यकर्त्ता ही सबसे सुखी होता है, निष्काम कर्म ही सर्वोत्तम है, उनका चिंतन रहा, इच्छा, चाह ही प्रत्येक दुख की जननी है। श्रेष्ठ मनुष्यों का भी लोकैषणा पीछा नहीं छोडती। आज के संदर्भों में देखा जा सकता है, उनके विचारों की प्रासंगिकता कितनी सटीक थी और है, कोई व्यक्ति कर्म के लिए कर्म नहीं करता, कहीं न कहीं कोई कामना विद्यमान रहती ही है। धन, सत्ता, यश, लालसा, कोई न कोई आज समाज में, राजनीति में स्पष्ट देखी जा सकती है।
भारतीय और पाश्चात्य नारी संदर्भों में स्वामी जी ने न्यूयॉर्क में भाषण देते हुए कहा, भारतीय स्त्रियों की बौद्धिक प्रगति पर मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी, यह बात उन्होंने वहाँ की स्त्रियों की बौद्धिक प्रगति देखकर कही थी। ‘‘भारतीय स्त्रियां इतनी शिक्षा सम्पन्न नहीं, फिर भी उनका आचार विचार अधिक पवित्र होता है।’’ उनके मतानुसार स्वदेश भारत में प्रत्येक स्त्री को चाहिए कि वह अपने पति के अतिरिक्त सभी पुरुषों को पुर्त्वत् समझे व पुरुष को चाहिए, अन्य र्स्त्यिों को मातृवत् समझे। शिक्षा संदर्भों को स्वामी विवेकानन्द ने इस प्रकार स्पष्ट किया। उन्होंने कहा, वर्तमान शिक्षा निषेधात्मक एवं निर्जीव है, वस्तुतः शिक्षा में चरितर्् निर्माण के विचारों का सम्मिश्रण हो। शिक्षा का लौकिक परमार्थ हमारे हाथों में हो तथा हमारी आवश्यकता के अनुरूप हो। समाज सुधारक एवं प्रबल राष्ट्र चेतना के धनी स्वामी विवेकानन्द ने समाज सुधार एवं राष्ट्र उत्थान की अलख जगाकर कई महत्त्वपूर्ण बातें कहीं। उनका कहना था जिन खोजा तिन्ह पाइयां...निस्स्वार्थ सही दृष्टिकोण हो, आदर्श के लिए जियो, पूजागृह ही सब कुछ नहीं, मदान्ध मत बनो, कट्टरतावादी मत बनो, अंधविश्वास त्यागो, कठिनाइयों का निर्भीकता से सामना करो। वीर बनो, उदार बनो। आत्मनिरीक्षण करो, अपने में सच्चरित्र का निर्माण करो। उन्होंने कहा, अपने में क्षुद्र ‘मैं’ से मुक्ति पाओ।
उल्लेखनीय अध्यात्म ज्ञान-चेतना, दर्शन के मनीषी ज्ञाता, भारतीय संस्कृति के प्रखर, मुखरित प्रहरी, समाज सुधार एवं राष्ट्र चेतना जगाने वाले महान् कीर्ति पुरुष स्वामी विवेकानन्द 1892 में हिमालय से विभिन्न स्थलों पर होते हुए कन्याकुमारी पहुँचे थे, वहाँ तट पर स्थित दैवी शक्ति की वंदना कर समुद्र में तैरते हुए ढाई किलोमीटर दूर समुद्र में विशाल चट्टान पर पहुँचे, उसी चट्टान पर ध्यान लगा, चिंतन मनन में तन्मय हो गए। यहाँ स्वामी जी को दिशा बोध हुआ, ज्ञान व प्रेरणा मिली। स्वामी विवेकानन्द यहीं से जलयान द्वारा अमरीका (शिकागो) पहुँचे थे, जहाँ उन्होंने पाश्चात्य जगत् को भारतीय दर्शन अध्यात्म का ज्ञान देकर चकित किया था।
तेजस्वी स्वामी विवेकानन्द जी को कन्याकुमारी में जिस चट्टान पर ध्यान से ज्ञान, प्रेरणा व चेतना मिली, उस चट्टान पर कन्याकुमारी में स्वामी विवेकानन्द का स्मारक बना है। इस स्मारक का उद्घाटन 02 सितम्बर 1970 को पूर्व राष्ट्रपति श्री वी.वी. गिरी ने किया था। वस्तुतः स्वामी विवेकानन्द का स्मारक समाज सुधार, राष्ट्र चेतना जगाने वाले, युवा कीर्ति पुरुष का स्मारक है। स्वामी विवेकानन्द के समाज सुधारों एवं राष्ट्र चेतना की प्रासंगिकता आज भी अक्षुण्ण है। स्वामी विवेकानन्द देश व दुनियां में अमर हैं। उनके समाज सुधार के कार्य समाज की थाती है तथा उनके द्वारा जगाई राष्ट्र चेतना देश के इतिहास का अहम हिस्सा है। उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस ने उनके सम्बन्ध में भविष्यवाणी की थी, ‘‘तू संसार में महान् कार्य करेगा, तू मनुष्यों में आध्यात्मिक चेतना लाएगा और दीन दुखियों के दुःख दूर करेगा’’, विवेकानन्द ने यह भविष्यवाणी हमेशा याद रखी। निस्संदेह विवेकानन्द, भारत की अमर विभूतियों में हैं। उनकी राष्ट्रीयता, उनके क्रांतिकारी विचार वर्तमान युवा पीढी के मार्गदर्शक हैं। उनकी ओजस्वी वाणी, तेजस्वी व्यक्तित्व, चारिर्त्कि दृढता, आध्यात्मिकता स्तुत्य व अविस्मरणीय हैं।
विश्वधर्म-महासभा में स्वामी विवेकानन्द के ऐतिहासिक संबोधन का हिंदी पाठ -११ सितंबर १९८३ को शिकागो में आयोजित विश्वधर्म-महासभा में स्वामी विवेकानन्द के ऐतिहासिक संबोधन का 
अमेरिकावासी बहनो तथा भाइयों,
 आपने जिस सौहार्द्र और स्नेह के साथ हमलोगों का स्वागत किया है, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा है। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परंपरा की ओर से मैं आपको धन्यावाद देता हूंय धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूं और सभी संप्रदायों एवं मतों के कोटि-कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूं।
मैं इस मंच पर बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी ध्न्यवाद ज्ञापित करता हूं, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रसारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी है। हमलोग सभी धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं। मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में यहुदियों के विशुद्धत्तम अवशिष्ट अंश को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस दिन उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने महान जरथ्रुष्ट्र जाति के अवशेष अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अबतक कर रहा है। भाइयो, मैं आपलोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियां सुनाता हूं, जिसकी आवृत्ति मैं अपने बचपन से कर रहा हूं और जिसकी आवृत्ति मेरे देश में प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं रू
रुचिनां वैचिर्त्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव च॥
-“जैसे विभिन्न नदियां भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।”
यह सभा, जो अभीतक आयोजित सर्वश्रेष्ठ सम्मेलनों में से एक है, स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा है-
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तास्तंथैव भजाम्यहम।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥
-“जो कोई मेरी ओर आता है दृ चाहे किसी प्रकार से हो दृ मैं उसको प्राप्त होता हूं। लोग भिन्न-भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।”
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता, इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको बारंबार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी नहीं होतीं, तो मानव समाज आज की अवस्था से कही अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया है, और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूं कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टाध्वनि हुई है, वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाली सभी उत्पीड़नों का, तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारस्परिक कटुताओं का मृत्युनिनाद सिद्ध हो।

स्वामी विवेकानंदः भारत का कोहिनूर -  ओ मेरे बहादुरों इस सोच को अपने दिल से निकाल दो की तुम कमजोर हो. तुम्हारी आत्मा अमर, पवित्र और सनातन है. तुम केवल एक विषय नहीं हो, तुम केवल एक शरीर मात्र नहीं हो.
  स्वामी विवेकानंद लगातार काम  करने के चलते बीमार होते जा रहे थे.  उन्हें अनेक बीमारियों ने घेर लिया था. 04 जुलाई 1902 के दिन स्वामी विवेकानंद चिर समाधी में लीन हो गए. इस विश्व  को प्रकाश देकर अपना शरीर छोड़ देने के बाद वे स्थायी प्रकाशपुंज बन गए  जिससे पूरी दुनिया हमेशा प्रकाशित होती रहेगी.
 वर्तमान में स्वामी विवेकानन्द के विचारों की प्रासंगिकता -स्वामी रामकृष्ण परमहंस के “सप्तर्षि मण्डल के महर्षि” स्वामी विवेकानन्द, जो हमेशा कहा करते थे जब मनुष्य अपने पूर्वजों के बारे में लज्जित होने लगे तो सोच लो की उनका अन्त आ गया है। मैं हिन्दू हूँ, मुझे अपनी जाति पर गर्व है, अपने पूर्वजों पर गर्व है, हम सभी उन ऋषियों की संतान हैं जो संसार में अद्वितीय रहे । उन्होंने हमें संदेश दिया ”आत्मविश्वासी बनो, अपने पूर्वजों पर गर्व करो“ जब मनुष्य स्वयं से घृणा करने लगता है, तो समझना चाहिये कि मृत्यु उसके द्वार पर आ पहुँची।
स्वामीजी के विचार और कार्य व्यर्थ नहीं हुआ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. केशव बलिराम हेडगेवार ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया। आज हिन्दुत्व के प्रति स्वाभिमान का भाव सर्वत्र सर्वव्यापी बन रहा है जबकि दुर्भाग्य की बात यह है हिंदुस्तान में ही उच्चतम न्यायालय में हिन्दुत्व शब्द के प्रयोग को भी चुनौती दी जाती है । वह बात अलग है कि उच्चतम न्यायालय ने इस शब्द के प्रयोग को आपत्तिरहित बताने पर पूरे देश में खुशी की लहर दौड़ गई जबकि कथित धर्मनिरपेक्ष व्यक्तियों को यह फूटी आंख नहीं सुहाया। उच्चतम न्यायालय के इस मामले में निर्णय से स्वामी विवेकानन्द के शब्द अनायास स्मरण हो आते हैं, जब उन्होंने कहा था कि मैं भविष्य नहीं देखता पर दृश्य अपने मन के चक्षुओं से अवश्य देख रहा हूँ कि प्राचीन मातृभूमि एक बार पुनः जाग गई है । पहले से भी अधिक गौरव और वैभव से प्रदीप्त है। पश्चिमी अंधनुसरण पर चोट आज चहुंओर, पाश्चात्य के अंधानुकरण की होड़ मची हुई है फिर चाहे वह जीवन पद्धति हो अथवा विचार मींमासा । इस अंधे अनुकरण पर तीखा प्रहार करते हुए वे कहते हैं, भारत! यही तुम्हारे लिये सबसे भयंकर खतरा है। पश्चिम के अंधानुकरण का जादू तुम्हारे सिर पर इतनी बुरी तरह से सवार है कि क्या अच्छा क्या बुरा उसका निर्णय अब तर्क बुद्धि न्याय हिताहित, ज्ञान या शास्त्रों के आधार पर नहीं किया जा सकता । बल्कि जिन विचारों के पाश्चात्य लोग पसंद करें, वही अच्छा है या जिन बातों की वे निंदा करें वह बुरा है इससे बढ़कर मूर्खता का परिचय कोई क्या देगा। नया भारत कहता है कि पाश्चात्य भाषा, पाश्चात्य खानपान, पाश्चात्य आचार को अपनाकर ही हम शक्तिशाली हो सकेंगे। जबकि दूसरी ओर, पुराना भारत कहता है ‘हे मूर्ख, कहीं नकल करने से भी कोई दूसरों का भाव अपना हुआ ? बिना स्वयं कमाये कोई वस्तु अपनी नहीं होती क्या सिंह की खाल ओढ़कर गधा भी सिंह बन सकता है ?
आज तक वापमंथी और मैकाले के भक्त स्वामीजी पर हमेशा टीका टिप्पणी करते रहे, लेकिन अब वे भी विवेकानन्द को अपनी दृष्टि से समझने का प्रयत्न कर रहे हैं। यह सब करना उनकी मजबूरी बनती जा रही है। विवेकानन्द को पढ़ा लिखा बेरोजगार, परमहंस को मिर्गी का मरीज और वामपंथी सरकार के राज में पश्चिम बंगाल में विवेकानन्द के चित्र के स्थान पर जबरदस्ती लेनिन की प्रतिमा लगवाने वाले वामपंथी ही आज विवेकानन्द के विचारों को समझने का प्रयत्न कर रहे हैं। पर लगता नहीं कि ये अपनी कूपमंडूक दृष्टि और कालबाह्य हो चुके सिद्धान्तों से चिपके रहने के कारण विवेकानन्द को समझने में सफल होंगे । ऐसे में स्वामी विवेकानंद के कृतित्व से परिचित होना आवश्यक है। आर्यों के आगमन के सिद्धान्त पर कि आर्य लोग बाहर से आये, जब बताया जा रहा था तब स्वामीजी ने कहा था कि तुम्हारे यूरोपियों पंडितों का कहना है कि आर्य लोग किसी अन्य देश से आकर भारत पर झपट पड़े, निरी मूर्खतापूर्ण बेहूदी बात है। जबकि आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि कपिय भारतीय विद्वान भी इसी बात की माला जपते हैं, जिसमें वामपंथी बुद्विजीवी सबसे आगे हैं। विवेकानन्द दृढ़ता से कहते हैं कि किस वेद या सूक्त में, तुमने पढ़ा कि आर्य दूसरे देशों से भारत में आए ? आपकी इस बात का क्या प्रमाण है कि उन्होंने जंगली जातियों को मार-काट कर यहाँ निवास किया ? इस प्रकार की निरर्थक बातों से क्या लाभ। योरोप का उद्देश्य है-सर्वनाश करके स्वयं अपने को बचाये रखना जबकि आर्यों का उद्देश्य था सबको अपने समान करना या अपने से भी बड़ा करना। योरोप में केवल बलवान को ही जीने का हक है, दुर्बल के भाग्य में तो केवल मृत्यु का विधान है इसके विपरीत भारतवर्ष में प्रत्येक सामाजिक नियम दुर्बलों की रक्षा हेतु बनाया गया है। आज दुर्भाग्य से वामपंथी बुद्धिजीवी इस सिद्धान्त की आड़ में भारत को तोड़ने के भरसक प्रयास कर रहे हैं “भारत में धर्मान्तरण की दृष्टि से आनेवाले को चेतावनी” तुम लोगों को प्रशिक्षित करते हो, खाना कपड़ा और वेतन देते हो काहे के लिये? क्या इसलिए के हमारे देश में आकर पूर्वजों धर्म और सब पूर्वजों को गालियाँ दें और मेरी निंदा करें? वे मंदिर के निकट जाएं और कहें ”ओ मूर्ति पूजकों! तुम नरक में जाओगे ! किंतु ये भारत के मुसलमानों से ऐसा कहने का साहस नहीं कर पातें, क्योंकि तब तलवार निकल आयेगी ! किंतु हिन्दू बहुत सौम्य है, वह मुस्कुरा देता है यह कहकर टाल देता है, ”मूर्खों को बकने दो“ यही है उसका दृष्टिकोण । तुम स्वयं तो गालियाँ देने व आलोचना करने के लिए लोगों को शिक्षित करते हो यदि मैं बहुत अच्छा उद्देश्य लेकर तुम्हारी तनिक भी आलोचना करूँ, तो तुम उछल पड़ते हो और चिल्लाने लगते हो कि हम अमेरिकी हैं, हम सारी दुनिया की आलोचना करें, गालियाँ दें, चाहे जो करें हमें मत छेड़ो हम छूई-मुई के पेड़ हैं।” तुम्हारे मन में जो आए तुम कर सकते हो लेकिन हम जैसे भी जी रहे हैं, हम संतुष्ट हैं और हम एक अर्थ में अच्छे हैं। हम अपने बच्चों को कभी भयानक असत्य बोलना नहीं सिखाते और जब कभी तुम्हारे पादरी हमारी आलोचना करें, वे इस बात को न भूलें कि यदि संपूर्ण भारत खड़ा हो जाए हिंदू महादधि की तलहटी की समस्य कीचड़ को उठा कर पाश्चात्य देंशों के मुँह पर भी फेंक दे तो उस दुर्व्यवहार का लेश मात्रा भी न होगा जो तुम हमारे प्रति कर रहे हो। हमने किसी धर्म प्रचारक को किसी अन्य के धर्म परिवर्तन के लिये नहीं भेजा, हमारा तुमसे कहना है कि हमारा धर्म हमारे पास रहने दो। आज हिन्दू से मुसलमान और ईसाई बनने वाले अपने ही धर्मांन्तरित बंधुओं पर किसी प्रकार की अयोग्यता आरोपित करना अन्याय होगा। वह भी तब जब उनमें से अधिकतर तलवार के भय अथवा लोभ के कारण धर्मांतरित हुए हैं । ऐसे में ये सभी स्वेच्छा से परावर्तन करने के लिए स्वतंत्र है । इस बात को रेखांकित करते हुए विवेकानंद कहते हैं कि यदि हम अपने बंधुओं को वापस अपने धर्म में नहीं लेंगे तो हमारी संख्या घट जायेगी। जब मुसलमान पहले पहल यहाँ आये तो कहा जाता है, मैं समझता हूँ, प्राचीनतम इतिहास लेखक फरिश्ता के प्रमाण से, कि हिन्दुओं की संख्या साठ-करोड़ थी, अब हम लोग बीस करोड़ हैं फिर हिंदू धर्म में से जो एक व्यक्ति बाहर जाता है तो उससे हमारा एक व्यक्ति ही कम नहीं होता बल्कि एक शत्रु भी बढ़ जाता है। उदाहरण के लिए, आज के संदर्भ में स्वामीजी की बात बिलकुल सत्य लगती है। आज काश्मीर से लेकर
पूर्वांचल के राज्यों में सब कुछ गड़बड़ है और यदि हमने इस उभरते खतरे की चेतावनी को नहीं समझा तो और भी नुकसान उठाना पड़ सकता है। यह एक धु्रव सत्य है कि आज ईसाई और मुस्लिम दोनों ही हिंदू समाज के गरीब लोगों को लालच देकर येन प्रकारेण धर्मान्तरण में हुए हैं। विवेकानंद का कहना था कि भारत में एकता का सूत्र भाषा या जाति न होकर धर्म है। धर्म ही राष्ट्र का प्राण है। धर्म छोड़ने से हिंदू समाज का मेरूदंड ही टूट जाएगा। इसके लिए, आज वनवासी, गिरीवासी, झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले बन्धुओं के बीच जाना होगा और उन्हें सत्य से अवगत कराना होगा कि किस तरह सउदी अरब के पेट्रो डालर के बल पर उन्हें सहायता देने के नाम पर धर्मांतरण के प्रयास चल रहे हैं। स्वामीजी के अनुसार, तुम जो युगों तक भी धक्के खाकर अक्षय हो, इसका कारण
यही है कि धर्म के लिए तुमने बहुत प्रयत्न किया था। उसके लिए अन्य सब कुछ न्यौछावर कर दिया था, तुम्हारे पूर्वजों ने धर्म संस्थापना के लिए मृत्यु को गले लगाया था। विदेशी विजेताओं ने मंदिरों के बाद मंदिर तोड़े किंतु जैसे ही वह आँधी गुजरी, मंदिर का शिखर पुनः खड़ा हो गया। यदि सोमनाथ को देखोगे तो वह तुम्हें अक्षय दृष्टि प्रदान करेगा। इन मंदिरों पर सैकड़ों पुनरुत्थानों के चिन्ह किस तरह अंकित हैं, वे बार-बार नष्ट हुए खंडहरों से पुनः उठ खड़े हुए पहले की ही भाँति यही है राष्ट्रीय जीवन प्रवाह। आओ
इसका अनुसाण करें। आओ! प्रत्येक आत्मा का आह्वान करें उतिष्ठ, जागृत, उठो, जागो और जब तक लक्ष्य प्राप्त न कर लो कहीं मत ठहरो। दौर्बल्य के मोह जाल से निकलो। सभी शिक्षित युवकों में कार्य करते हुए उन्हें एकत्र कर लाओ जब हम संगठित हो जायेंगे, तो घास के तिनकों को जोड़कर जो रस्सी बनती है उससे एक उन्मत्तहाथी को भी बांध जा सकता है। “उसी प्रकार तुम संगठित होने पर पूरे विश्व को अपने विचारों से बांध सकोगे।” धर्म की गुत्थियां खोलीं स्वामी विवेकानंद ने
  अपनी ओजपूर्ण आवाज से लोगों के दिल को छू लेने वाले स्वामी विवेकानन्द निःसंदेह विश्व-गुरु थे। उनके सुलझे हुए विचारों के उजाले ने धर्म की डगर से भटक रही दुनिया को सही राह दिखाई। निर्विवाद रूप से विश्व में हिन्दुत्व के ध्वजवाहक रहे विवेकानन्द का बौद्धिक तथा आध्यात्मिक शक्ति से भरा व्यक्तित्व और कृतित्व विशेषकर युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
विवेकानन्द ने अपनी अल्प आयु में ही दुनिया को बहुत कुछ दिया। उन्होंने विश्व को वेदान्त के मर्म से रूबरू कराया। विवेकानन्द ने राष्ट्र निर्माण में युवाओं की भूमिका को बहुत महत्वपूर्ण माना। वह चाहते थे कि नौजवान पीढ़ी रूढ़िवाद से अछूती रहकर अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल देश की तरक्की के लिए करे। युवाओं के आदर्श विवेकानन्द के जन्मदिन को युवा दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। विवेकानन्द के जीवन में विचारों की क्रांति भरने वाले उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने एक बार कहा था कि विवेकानन्द एक दिन दुनिया को शिक्षा देंगे और बहुत जल्द अपनी बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्तियों से विश्व पर गहरी छाप छोड़ेंगे।
  विवेकानंद के भक्त स्वामी अदीश्वरानंद के एक लेख में विवेकानंद के व्यक्तित्व और विचारों का शिकागो में हुई धर्म संसद पर प्रभाव का जिक्र मिलता है। अदीश्वरानंद ने लिखा है कि विवेकानंद ने अपने विचारों से अमेरिकी लोगों के दिल को छुआ। उन्होंने अपनी जादुई भाषण शैली, रूहानी आवाज और क्रांतिकारी विचारों से अमेरिका के आध्यात्मिक विकास पर गहरी छाप छोड़ी। विवेकानंद ने अमेरिका और इंग्लैंड जैसी महाशक्तियों को अध्यात्म का पाठ पढ़ाकर विश्व-गुरु के रूप में अपनी पहचान बनाई और अपने गुरु परमहंस की भविष्यवाणी को सही साबित किया।
अदीश्वरानंद के मुताबिक विवेकानंद भारत के प्रतिनिधि के रूप में अमेरिका जाने वाले पहले हिन्दू भिक्षु थे। उनका संदेश वेदान्त का पैगाम था। उनका मानना था कि वेदांत ही भविष्य में मानवता का धर्म होगा। धार्मिक सौहार्द्र वेदान्त का सार है। उन्होंने लिखा है कि विवेकानंद ने सभी लोगों को अपने-अपने धर्म की डोर को मजबूती से थामने की शिक्षा दी।
लेख में वर्णित तथ्यों के मुताबिक विवेकानंद जिस समय शिकागो गए थे उस वक्त अमेरिका गृहयुद्ध जैसी स्थिति से जूझ रहा था और तथाकथित वैज्ञानिक प्रगति ने धार्मिक मान्यताओं की जड़ों को हिला दिया था। ऐसे में अमेरिकी लोग एक ऐसे दर्शन की प्रतीक्षा में थे जो उन्हें इस संकट से मुक्ति दिलाए। विवेकानंद ने अपने विचारों से उनकी इच्छा की पूर्ति के लिए आशा की किरण दिखाई।
 स्वामी विवेकानंद का मानवतावाद-स्वामी विवेकानंद भारतीय चेतना एवं चिंतन के आधार स्तंभ थे। उनका संपूर्ण जीवन मानव जाति के सेवार्थ में व्यतीत हुआ। लेकिन उन्होंने सेवा का यह संकल्प स्वामी रामकृष्ण के श्री चरणों में बैठकर प्राप्त किया था। स्वामी जी के मन में भारत का भूत, वर्तमान तथा भविष्य तो था ही, पर वे योग की तरफ बढ़ते जा रहे थे। स्वामी जी की उक्त प्रस्थान के तरफ रामकृष्ण परमहंस का ध्यान ज्यों हीं गया। उन्होंने कहा, नरेंद्र (विवेकानंद) एक वटवृक्ष बनेगा। जिसके नीचे हजारों पक्षी घोसलों का निर्माण करेंगे। विवेकानंद का व्यक्तित्व तथा कृतित्व मूलतरू आध्यात्मिक था तथा उस अध्यात्मिकता के माध्यम से जो कार्य उन्होंने किया वो सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षणिक के साथ-साथ पूर्ण रूपेण भारतीय जीवन-मूल्यों से आप्लवित था। दैवी भक्ति से प्रेरित होकर मानवजाति के हितार्थ जो कार्य उन्होंने किया वो अपने आप में मिसाल ही है। मुझे याद आ रही है जब मैं सर्वप्रथम स्वामी जी ‘समर नीति’ पुस्तक को पढ़ रहे थे। स्वामी विवेकानंद जी के संदर्भ में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था ”यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो स्वामी विवेकानंद का अध्ययन कीजिए। उनमें सबकुछ विधेयात्मक या भावात्मक कुछ भी नहीं ।” आज जब मैं 20 वर्षों के बाद स्वामी विवेकानंद, वर्तमान भारत पर विचार करती हूँ तो मुझे लगता है कि स्वामी जी एक अवतारी पुरुष थे। भारतीय संस्कृति तथा रामकृष्ण देव के संदेशों के प्रचारार्थ शून्य डिग्री तापमान पर भी विचलित नहीं हुए।
स्वामी जी की एक बात को हमें ध्यान रखने की जरूरत है कि जब उनको निम्न या नीच कहा गया तो उन्होंने कहा मैं ”यदि मैं अत्यंत नीच तथा चांडाल होता, तो मुझे और अधिक आनंद आता, क्योंकि मैं उस महापुरुष का शिष्य हूँ जिन्होंने सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण तथा सन्यासी होते हुए भी उस रात उस चांडाल का पैखाना हीं नही साफ किया, अपितु उसकी सेवा शुशुषा की। ताकि वे अपने को सबका दास बना सकें मैं उन्हीं महापुरुष के श्री चरणों को अपने मस्तक पर धारण किए हुए हूँ। वे ही मेरे आदर्श हैं। मैं उन्हीं आदर्श पुरुष के जीवन का अनुकरण करने की चेष्टा करूंगा। सबका सेवक बनकर ही एक हिंदू अपने को उन्नत करने की चेष्टा करता है।, स्वामी जी का यही मानवतावादी पक्ष है। जिसके बल पर संपूर्ण भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के दिलों पर वे राज कर रहे हैं।
भारत की संत परंपरा का एकमात्र लक्ष्य सामाजिक परिवर्तन एकाएक नहीं हो सकता। यह धीरे-धीरे ही संभव है। शंकराचार्य, रामानुजाचार्य तथा मध्वाचार्य से चलकर रामानंद की परंपरा तक यह आंदोलन चला। समाज एकाएक नहीं बदलता उसमें कुछ रूढ़ियां, कुछ परंपराएं तथा कुछ सामाजिक मूल्य एवं मानदंड जो सामाजिक परिवर्तन में बाधक होते हैं। समाज सुधारक एवं समाजसेवी निंदा में समय नहीं व्यतीत करते। वे यह नहीं कहते कि जो कुछ तुम्हारे पास है वो सभी फेंक दो तथा वह गलत है। स्वामी जी ने इन्हीं विचारों को आत्मसात किया था। स्वामी जी उस समय के जातिवादी व्यवस्था से सुपरिचित थे। आपका मानना था कि ब्राह्मण सात्विक प्रकृति के होते हैं। इसलिए वे आदर्श के पात्र हैं। वह आध्यात्मिक साधना में लिप्त एवं त्याग की मूर्ति होते हैं। ब्राह्मण के अंदर स्वार्थ नाम की कोई चीज नहीं होती। यदि हम राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के शब्दों में कहें -ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है, दया-धर्म जिसमें हो, वही पूज्य प्राणी है। क्षत्रिय भी वही, जिसमें भरी हो निर्भयता की आग सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।
स्वामी जी का भी यही मानना था कि मेरा आदेश है - चुपचाप बैठे रहने से काम न होगा। निरंतर उन्नति के लिए चेष्टा करते रहना होगा। ऊंची से ऊंची जाति से लेकर नीची से नीची जाति के लोगों को भी ब्राह्मण होने की चेष्टा करनी होगी।
आज जहां चारों तरफ नारी स्वतंत्रता की बात हो रही है वहां आज से 80-90 वर्षों पूर्व स्वामी जी ने नारी मुक्ति के मार्ग को प्रशस्त किया। स्वामी जी स्त्री शिक्षा के कट्टर समर्थक थे। आपका माना था कि गृहस्थी रूपी गाड़ी के नियमित सुव्यवस्थित तथा सुदृढ़ जीवन के लिए स्त्री-शिक्षा परमावश्यक है। इसमें शिल्प, विज्ञान, गृहकार्य, स्वास्थ्य के साथ सैन्य विज्ञान एवं राजनीति में शिक्षा के साथ प्रत्यक्ष कार्य के बिना संभव नहीं है। आपका मानना था कि स्त्री को इतनी शिक्षा दे दी जाए कि वो स्वयं अपने जीवन का निर्माण कर सकें। वस्तुतरू यह शिक्षा ही है जो आत्म-रक्षा और आत्मबल को उत्पन्न कर सकती है। स्वामी जी ने कहा दृ हम चाहते हैं कि भारतीय स्त्रियों को ऐसी शिक्षा दी जाए, जिससे वे निर्भय होकर भारत के प्रति अपने कर्तव्य को भलीभांति निभा सके और संघमित्रा, अहिल्याबाई और मीराबाई आदि भारत की महान देवियों द्वारा चलायी गयी परंपरा को आगे बढ़ा सकें एवं वीर प्रसू बन सकें।
कुल मिलाकर यदि यह कहा जाये कि स्वामी जी आधुनिक भारत के निर्माता थे, तो उसमें भी अतिशयोक्ति नहीं हो सकती। यह इसलिए कि स्वामी जी ने भारतीय स्वतंत्रता हेतु जो माहौल निर्माण किया उस पर अमिट छाप पड़ी। विचारों से ही प्रभावित होकर बंगाल के क्रांतिकारियों ने स्वतंत्रता का बिगुल फुंका तथा भारत माता स्वाधीन हुई। आज जब चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा है। ऐसे समय में स्वामी जी के मानवतावाद के रास्ते पर चलकर ही भारत एवं विश्व का कल्याण हो सकता है। वे बराबर युवाओं से कहा करते थे कि हमें ऐसे युवकों और युवतियों की जरूरत है जिनके अंदर ब्राह्मणों का तेज तथा क्षत्रियों का वीर्य हो। ऐसे पांच मिल जाये तो हम समाज को बदल डालें। युवा मित्रों! विवेकानंद को पढ़ने के साथ ही गुनने की जरूरत है। यह इसलिए कि वे हमें बुला रहे हैं कि आओ दृ आगे अपनी भारतमाता को देखो।
मध्यप्रदेश में हुआ था स्वामी विवेकानन्द के व्यक्तित्व का निर्माण- स्वामी विवेकानन्द के व्यक्तित्व के निमार्ण में मध्यप्रदेश का जो योगदान रहा है उसको आज स्मरण करने की आवश्यकता है। क्योंकि नई पीढ़ी को यह अवगत कराया जाना जरुरी है कि जिन स्वामी विवेकानन्द ने अपने तेज, ओज और ज्ञान से सारे विश्व को प्रभावित किया था उनके जीवन के कुछ महत्वपूर्ण वर्ष मध्यप्रदेश में व्यतीत हुये थे। परिव्राजक अवस्था में स्वामी जी ने खण्डवा, ओंकारेश्वर, इन्दौर तथा उज्जैन आदि स्थानों में भ्रमण करते हुये अपने जीवन की सर्वोत्कृष्ट स्मृतिंया संचित की थीं वह स्मृतिया विवेकानन्द साहित्य में यत्र-तत्र विखरी हुयीं हैं उन स्मृतियों की महक के आधार पर हमने यह जानने का प्रयास किया है कि स्वामी जी के जीवन में मध्यप्रदेश का क्या योगदान था।
समाधि का प्रथम अनुभव मध्यप्रदेश में - स्वामी विवेकानंद के गुरुभाई स्वामी सारदानन्द ने श्री रामकृष्णलीलाप्रसंग के तृतीय खण्ड में स्वामी विवेकानन्द की रायपुर (वर्तमान छत्तीसगढ़) यात्रा का वर्णन किया है। उसके आधार पर यह प्रतीत होता है कि नरेन्द्र नाथ दत्त सन् 1877 ई. जब 14 साल के थे तब रायपुर आये थे। उनके पिता वकालात के सिलसिले में रायपुर आये थे जब उन्हें लगा कि उनको रायपुर में काफी समय लगेगा तो उन्हौने अपने परिवार को भी रायपुर बुला लिया। नरेन्द्र अपने छोटे भाई महेन्द्र, बहिन जोगेन्द्रवाला तथा माता भुवनेश्वरी देवी के साथ कलकत्ते से रायपुर आये थे। उन दिनों रायपुर कलकत्ता से रेलमार्ग से जुड़ा हुआ नहीं था। रेलगाड़ी कलकत्ता से इलाहाबाद, जबलपुर, भुसावल होते हुये बम्बई जाती थी। तथा भुसावल नागपुर से जुड़ा हुआ था। तब नागपुर से इटारसी होकर दिल्ली जाने वाली रेललाइन भी नहीं बनी थी। अतरू बहुत संम्भव है, कि नरेन्द्र अपने परिवार के साथ जबलपुर उतर कर बैलगाड़ी से रायपुर गये हों। सत्येन्द्र नाथ मजूमदार सहित कई जीवनीकारों ने लिखा है कि नरेन्द्रनाथ नागपुर से बैलगाड़ी के द्वारा सपरिवार रायपुर गये थे, परन्तु इस यात्रा में नरेन्द्र को जो एक अलौकिक अनुभव हुआ था उससे यह सकेंत मिलता है कि वह लोग जबलपुर से ही बैलगाड़ी के द्वारा मण्डला, कवर्धा होकर रायपुर गये हों। स्वामी जी ने इस यात्रा का वर्णन करते हुये कहा है कि ” इस यात्रा में मुझे पन्द्रह दिनों से भी अधिक का समय लगा था। उस समय पथ की शोभा अत्यन्त मनोरम थी । रास्ते के दोनों किनारों पर पत्तों और फूलों से लदे हुये हरे-हरे सघन वनवृक्ष होते थे। इस यात्रा में कई कठिनाईया होते हुये भी यह अत्यन्त सुखकर थी। वनस्थली का अपूर्व सौन्दर्य देखकर यह क्लेश मुझे क्लेश ही नहीं प्रतीत होता था। अयाचित होकर भी जिन्हौनें पृथ्वी को इस अनुपम वेशभूषा से सजा रखा है, उनकी असीम शक्ति और अनन्त प्रेम का पहले-पहल साक्षात परिचय पाकर मेरा हृदय मुग्ध हो गया था। वनों के बीच से जाते हुये उस समय जो कुछ मैनें देखा या अनुभव किया, वह स्मृतिपटल पर सदैव के लिए दृढ़ रुप से अंकित हो गया है। विशेष रुप से एक दिन की बात उल्लेखनीय है। उस दिन हम उन्नत शिखर विन्ध्यपर्वत के निम्न भाग की राह से जा रहे थे। मार्ग के दोनों ओर बीहड़ पहाड़ की चोटियॉ आकाश को चूमतीं हुई खड़ी थीं। तरह-तरह की वृक्ष-लताएॅ, फल और फूलों के भार से लदी हुईं, पर्वतपृष्ठ को अपूर्व शोभा प्रदान कर रहीं थीं। अपनी मधुर कलरव से समस्त दिशाओं को गॅुंजाते हुये रंग-बिरंगे पक्षी कुंज-कुंज में घूम रहे थे, या फिर कभी-कभी आहार की खोज में भूमि पर उतर रहे थे। इन दृश्यों को देखते हुए मैं मन में अपूर्व शान्ति का अनुभव कर रहा था। धीर मन्थर गति से चलती हुई ये बैलगाड़ियां एक ऐसे स्थान पर आ पहुँचीं, जहां पहाड़ की दो चोटियां मानो प्रेमवश आकृष्ट हो आपस में स्पर्श कर रही हैं। उस समय उन श्रंगो का विशेष रुप से निरीक्षण करते हुए मैने देखा कि पासवाले एक पहाड़ में नीचे से लेकर चोटी तक एक बडा भारी सुराख है और उस रिक्त स्थान को पूर्ण कर मधुमक्खियों के युग-युगान्तर के परिश्रम के प्रमाणस्वरुप एक प्रकाण्ड मधुचक्र लटक रहा है। उस समय विस्मय में मग्न होकर उस मक्षिकाराज्य के आदि एवं अन्त की बातें सोचते सोचते मन तीनों जगत् के नियन्ता ईश्वर की अनन्त उपलब्धि में इस प्रकार डूब गया कि थोड़ी देर के लिये मेरा सम्पूर्ण बाह्य ज्ञान लुप्त हो गया। कितनी देर तक इस भाव में मग्न होकर मैं बैलगाड़ी में पड़ा रहा, याद नहीं। जब पुनरू होश आया, तो देखा कि उस स्थान को छोड़ काफी दूर आगे बढ़ गया हॅूं। बैलगाड़ी में मैं अकेला ही था, इसलिये यह बात और कोई न जान सका।” नरेन्द्रनाथ को भाव समाधि का प्रथम अनुभव मध्यप्रदेश यात्रा में ही हुआ था जिसने आगे जाकर निर्विकल्प समाधि के प्रति उनकी पिपासा को और बढ़ा दिया।
नचिकेता भाव का प्रथम उदघोष मध्यप्रदेश में - कठोपनिषद में बालक नचिकेता जिस भाव से आत्मश्रध्दा से उदघोषणा करता है, ” बहुत से लोगों में मैं प्रथम श्रेणी का हँ और बहुतों में मध्यम श्रेणी का पर मैं अधम कदापि नहीं हँ।” ऐसा ही उदघोषणा बालक नरेन्द्रनाथ ने रायपुर में अपने पिता के मित्रों के समक्ष किया था। नरेंन्द्र बालक होकर भी अपने आत्मसम्मान की रक्षा करना जानते थे। अगर कोई उनकी आयु को देखकर अवहेलना करना चाहता, तो वे सह नहीं सकते थे। बुध्दि की दृष्टि से वे जितने बड़े थे, वे स्वयं को उससे छोटा या बड़ा समझने का कोई कारण नहीं खोज पाते थे तथा दूसरों को इस प्रकार का कोई अवसर भी नहीं देना चाहते थे। एक बार जब उनके पिता के एक मित्र बिना कारण उनकी अवज्ञा करने लगे, तो नरेन्द्र सोचने लगे कि कैसा आश्चर्य है! मेरे पिता भी मुझे इतना तुच्छ नहीं समझते, और ये मुझे ऐसा कैसे समझते हैं।” अतएव आहत मणिधर के समान सीधा होकर उन्हौनें दृढ़ स्वरों में कहा, ”आपके समान ऐसे अनेक लोग हैं, जो यह सोचते हैं जो यह सोचते है कि लड़कों मे बुध्दि-विचार नहीं होता। किन्तु यह धारणा नितान्त गलत है।” जब उन सज्जन ने यह अनुभव किया नरेन्द्र अत्यन्त खिन्न हो उठे हैं और वे उनसे बात करने के लिये भी तैयार नहीं है, तब उन्हें अपनी त्रुटि स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा। इस घटना से यह अनुभव होता है कि स्वामी विवेकानन्द में नचिकेता के समान आत्मश्रध्दा के भाव मध्यप्रदेश में ही प्रकट हुये थे। इसी आत्मश्रध्दा की शक्ति से उन्हौने शिकागो व्याख्यान के माध्यम से सम्पूण विश्व को झकझोर दिया था।
विद्वता की प्रथम झलक मध्यप्रदेश में - रायपुर में अच्छा विद्यालय नही होने के कारण नरेन्द्र नाथ को उनके पिता ही पढ़ाया करते थे। विश्वनाथ दत्त ने नरेन्द्रनाथ को किताबी ज्ञान के अलावा व्यवहारिक तथा जीवनोपयोगी शिक्षा से अभिसिंचित किया था। पुत्र के बुध्दि विकाश के लिए वह अनेकों विषयों की चर्चा के अलावा तर्क भी करते थे। यहीं नहीं पुत्र से तर्क में हारने पर पिता की स्वाभाविक खुशी देखने लायक होती थी। उन दिनों विश्वनाथ बाबू के घर में अनेकों विद्वानों और बुध्दिमानों का समागम होता था। विविध सांस्कृतिक एंव साहित्यक विषयों पर चर्चाएॅ चला करती। नरेन्द्रनाथ बड़े ध्यान से चर्चा को सुनते और यथासमय अपना अभिमत भी व्यक्त करते थे। उनकी बुध्दिमत्ता तथा ज्ञान को देखकर बडे-बूढ़े भी चमत्कृत हो उठते थे। एक दिन चर्चा के दौरान नरेन्द्र ने बंगला के एक ख्यातनाम लेखक के गद्य-पद्य से अनेक उदाहरण देकर अपने पिता के एक विध्दान मित्र को इतना चमत्क्रृत कर दिया था कि उनके मुख से निकला ”बेटा, किसी न किसी दिन हम सब तुम्हारा नाम अवश्य सुनेगें।” स्वामी जी के जीवन में विद्वता की प्रथम झलक मध्यप्रदेश में ही दिखायी दी थी जिसने आगे जाकर दिगदिगन्त में स्वामी जी को प्रसिध्द कर दिया था।
 कालान्तर में स्वामी जी जब परिव्राजक अवस्था में खण्ड़वा आये थे तो वहां सिविल जज बाबू माधवचन्द्र बन्द्योपाध्याय के निवास पर बाबू पियारीलाल गांगुली ने हरिदास बाबू से कहा था कि ” स्वामी जी को देखने से ही ऐसा लगता है कि भविष्य में यह एक विश्वप्रसिध्द व्यक्ति बनेंगें।” स्वामी विवेकानन्द के विश्वविजयी विवेकानन्द बनने की यह मध्यप्रदेश में दूसरी भविष्यवाणी थी।
 पाकविद्या की प्रथम झलक मध्यप्रदेश में - स्वामी गम्भीरानन्द ने अपनी पुस्तक ‘युगनायक विवेकानन्द’ में लिखा है कि यद्वपि नरेन्द्र को पाकविद्या में रुचि तो पहले से ही थी परन्तु रायपुर में सारा समय परिवार के ही साथ में रहने से उनकी पाकविद्या में अभिरुचि सही अर्थो में इन्ही दिनों में दिखाई देती है। इस प्रकार हम देखतें है कि स्वामी विवेकानन्द के जीवन का एक और पहलू मध्यप्रदेश में प्रकट होता दिखायी देता है।
विविध विधाओं का ज्ञान भी मध्यप्रदेश में ही - नरेन्द्र नाथ ने शतरंज का ज्ञान भी रायपुर में रहते समय ही प्राप्त किया था। वह शतरंज में रायपुर के जाने माने खिलाड़ियों से होड़ लगा कर उन्हें पराजित कर देते थे। यही नहीं स्वामी विवेकानन्द को जिस मधुर संगीत के कारण रामकृष्ण परमहंस मिले थे उस मधुर संगीत का ज्ञान भी विश्वनाथ बाबू ने नरेन्द्रनाथ को रायपुर में ही दिया था। विश्वनाथबाबू स्वंय संगीत में पारंगत थे उन्हौनें नरेन की इस विषय में अभिरुचि को ताड़ लिया था और फिर स्वंय नरेन्द्र का कण्ठ बड़ा सुरीला था इस सबके मेल ने नरेन्द्रनाथ को एक सिध्दहस्त गायक बना दिया और उनके इस स्वरुप का विकास रायपुर में ही हुआ था।
पौरुष का प्रथम प्रकटीकरण भी मध्यप्रदेश में ही - नरेन्द्रनाथ ने रायपुर में ही एक दिन अपने पिता से अचानक पूछा कि ”आपने मेरे लिये क्या किया है” तक्काल ही पिता बोले ”जाओ दर्पण में अपना चेहरा देखो!” पुत्र ने तत्क्षण ही पिता के कथन का मर्म समझ लिया, वह जान गया कि उसके पिता मनुष्यों में राजा हैं। यही नरेन्द्र ने पौरुष का प्रथम पाठ सीखा था।
समदर्शी का ज्ञान भी मध्यप्रदेश में ही - एक अन्य अवसर पर नरेन्द्र ने अपने पिता से पूछा कि संसार में किस प्रकार रहना चाहिए, अच्छी वर्तनी का मापदण्ड क्या है? इस पर पिता ने उत्तर दिया था, ”कभी आश्चर्य व्यक्त मत करना!” आगे चल कर स्वामी जी के जीवन में जो समदर्शी का व्यक्तित्व दिखता है जिसने उनको राजाओं के राजप्रासादों में निर्धनों की कुटियाओं में समान गरिमा के साथ जाने के योग्य बनाया उसका सूत्रपात भी मध्यप्रदेश में ही दिखायी देता है।
परिव्राजक विवेकानन्द मध्यप्रदेश में - कालान्तर में नरेन्द्रनाथ संन्यास लेकर परिव्राजक रुप में देशाटन करते हुये जून 1892 में खण्ड़वा आये थे। संभवतः वह ओंकारेश्वर और उज्जैन के दर्शनों को भी गये होगें। खण्डवा में वह प्रतिष्ठित वकील बाबू हरिदास चर्टजी के यहां ठहरे थे। यद्यपि स्वामी जी की महेश्वर यात्रा का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। पर ऐसा अनुमान है कि स्वामी जी ने महेश्वर के दर्शन अवश्य किये होगे क्यों कि स्वामी जी भारत की महानतम शासक होल्कर राजवशं की रानी अहिल्याबाई के बारे में अत्यन्त श्रध्दा से उल्लेख करते थे, और महेश्वर के घाट रानी अहिल्या बाई के द्वारा बनवाये गये थे। शैलेन्द्रनाथ धर अपनी पुस्तक ” ए काम्प्रिहेंसिव बायोग्राफी ऑफ स्वामी विवेकानन्द में लिखते हैं कि इन्ही दिनों स्वामी जी मण्ड़लेश्वर, उज्जैन आदि तीर्थों के दर्शन करके इन्दौर पहुचें होगें।
दरिद्रनारायण के लिये करुणा फूटी मध्यप्रदेश में - इन्दौर से स्वामी जी पुनरू खण्ड़वा आये थे इसी बीच में उन्हौने कुछ समय एक भंगी-परिवार में बिताया था। यह पहला अवसर था जब वे समाज में अति निम्न माने जाने वाले लोगों के साथ रहे थे। स्वामी जी ने उनकी दयनीय अवस्था में रह रहे उन लोगो के विराट हृदय के दर्शन किये। वह नीच कहे जाने वाले लोगों के सौजन्य को देखकर अभिभूत हो गये। ऊंचें कहे जाने वाले लोगों के शोषण और अत्याचार के फलस्वरुप मनुष्य को जानवरों का सा जीवन व्यतीव करते हुये देख कर स्वामी जी का हृदय चीत्कार कर उठा उनकी आखों से अश्रुधारा फूट पड़ी। जब वह खण्ड़वा लौटे तो उनका हृदय समाज के इन तिरस्कृत लोगों के दुरूख से दुरूखी था। स्वामी जी ने 22 अगस्त 1892 को जूनागढ़ के दीवान साहब को जो पत्र लिखा था उसमें उनकी गरीबों के लिये वेदना प्रकट होती है। कालान्तर में स्वामी जी ने जो निर्धनों के लिये सेवा कार्य प्रांरभ किये थे उनकी नीव मध्यप्रदेश में ही पड़ी थी।
शिकागो धर्म सम्मेलन का संकल्प मध्यप्रदेश में - खण्ड़वा में ही स्वामी जी के मन में शिकागो में आयोजित होने वाले विश्व-धर्म-सम्मेलन में भाग लेने का संकल्प सुस्पष्ट हुआ था। हरिदास बाबू के धर्म महासभा मे जाने के प्रश्न पर उन्हौने कहा था कि यदि कोई उन्हें जाने का खर्चा दे तो मै चला जाऊंगा। इस सन्दर्भ में एक और घटना उल्लेखनीय है। जब स्वामी जी खण्डवा में थे तब उनसे मिलने अक्षय कुमार घोष नामक एक लडका आया था। वह नौकरी की तलाश में भटक रहा था। यह लडका स्वामी जी को बम्बई में फिर मिला था। वहां उन्होने उसे जूनागढ के दीवान साहब के नाम एक परिचयपत्र दे दिया । बाद में वह युवक लंदन चला गया और मिस हेनरीटा मूलर का कृपापात्र बन गया। मिस मूलर ने उसको गोद भी ले लिया। उसके माध्यम से मिस मूलर ने स्वामी विवेकानन्द की विध्दता के वारे में जाना, जो तब अमेरिका में थे। मिस मूलर की स्वामी जी में इतनी रुचि हो गयी कि उन्हौने स्वामी जी को इंगलैण्ड आने का और अपने निवास पर ठहरने का निमंत्रण भेजा। इस प्रकार स्वामी जी को इंगलैण्ड ले जाने का वह नियति के हाथों एक यंत्र बन गया था। और जिसका गवाह था मध्यप्रदेश।
मध्यप्रदेश और यहां के निवासियों ने विभिन्न प्रकार से स्वामी विवकानन्द के उपर अपना जो प्रभाव छोड़ा था उसकी झलक हम जीवन भर उनके व्यक्तित्व में देखते हैं।
भारतीय नवजागरण के अग्रदूत रू स्वामी विवेकानंद -भारतीय नवजागरण का अग्रदूत यदि स्वामी विवेकानेद को कहा जाय, तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। उन्होंने सदियों की गुलामी में जकड़े भारतवासी को मुक्ति का रास्ता सुझाया। जन-जन के मन में भारतीय होने के गर्व का बोध कराया। उन्होंने मानव समाज को अन्याय, शोषण और कुरीतियों के खिलाफ उठ खड़े होने का साहस प्रदान किया और पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध में दिशाभ्रमित भारतीय नौजवानों के मन-मस्तिष्क में स्वदेश-प्रेम एवं हिन्दुत्व-जीवन दर्शन के प्रति अगाध विश्वास पैदा किया। अपनी विद्वतापूर्ण एवं तर्क आधारित भाषण से दुनिया भर के बुध्दिजीवियों के बीच भारत के प्रति एक जिज्ञासा पैदा की। भारत की एक अनोखे ढंग से व्याख्या की। उन्होंने भारतीय बौध्दिक क्रांति का सूत्रपात किया। स्वामी विवेकानंद ने उद्धोष किया कि समस्त संसार हमारी मातृभूमि का ऋणी है। स्वामीजी ने अध्यात्म को अंधविश्वास एवं कालबाह्य हो चुके कर्मकांड से मुक्त कराया एवं हिन्दुत्व की युगानुकूल व्याख्या की तथा अध्यात्म को मानव के सर्वांगीण विकास का केन्द्र-बिन्दु बताया।
भारतवर्ष में ‘गुरू-शिष्य’ की अभिनव परंपरा रही है। हम सब जानते है कि छत्रपति शिवाजी, सम्राट चन्द्रगुप्त, प्रभु श्री रामचन्द्र जैसे कर्मशील एवं प्रतापी योध्दाओं के निर्माण और सफलता के पीछे समर्थ गुरू रामदास, चाणक्य, विश्वामित्र जैसे गुरूजनों का स्नेह और आशीर्वाद का अप्रतिम योगदान रहा है। ठीक इसी प्रकार कलकत्ता के दक्षिणेश्वर काली मंदिर के संत स्वामी रामकृष्ण परमहंस के स्नेहिल सान्निध्य और आशीर्वाद से स्वामी विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति एवं हिन्दू धर्म का प्रचार करके संसार का आध्यात्मिक मार्गदर्शन किया।
स्वामी विवेकानंद के जीवन में शिकागो धर्म सम्मेलन एक मील का पत्थर साबित हुआ। इस सत्रह दिन के धर्म सम्मेलन ने इस तीस वर्षीय हिन्दू संन्यासी को जगत में सुविख्यात कर दिया। 11 सितंबर, 1893 से प्रारंभ हुए इस सम्मेलन में उन्होंने अपनी ओजस्वी वाणी से सबको मंत्रमुग्ध कर दिय। स्वामीजी ने आगे कहा-’ मुझको ऐसे धमार्वलंबी होने का गौरव है, जिसने संसार को ‘सहिष्णुता’ तथा सब धर्मों को मान्यता प्रदान करने की शिक्षा दी है। मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी की समस्त पीड़ित और शरणागत जातियों तथा विभिन्न धर्मों के बहिष्कृत मतावलंबियों को आश्रय दिया। .सांप्रदायिकता, संकीर्णता और इनसे उत्पन्न भयंकर धार्मिक उन्माद हमारी इस पृथ्वी पर काफी समय तक राज कर चुके है। इनके घोर अत्याचार से पृथ्वी थक गई है। इस उन्माद ने अनेक बार मानव रक्त से पृथ्वी को सींचा है, सभ्यताएं नष्ट कर डाली है तथा समस्त जातियों को हताश कर डाला है। यदि यह सब न होता तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता, पर अब उनका भी समय आ गया है और मेरा दृढ़ विश्वास है कि जो घंटे आज इस सभा के सम्मान के लिए बजाए गए, वे समस्त कट्टरताओं, तलवार या लेखनी के बल पर किए जाने वाले समस्त अत्याचारों तथा मानवों की पारस्परिक कटुताओं के लिए मृत्युनाद सिध्द होंगे।’
स्वामीजी के लिए राष्ट्र सर्वोपरि था। वे स्वदेश-प्रेम को सबसे बड़ा धर्म मानते थे। इसलिए भारत की स्वाधीनता के लिए निरंतर युवा-वर्ग को अपने बौध्दिक आख्यायनों से जगाते रहे। उनकी रचनाओं को पढ़कर नवयुवकों में स्वाधीनता प्राप्त करने की तीव्र प्रेरणा जागृत हुई। क्रांतिकारियों के बीच वे सर्वमान्य आदर्श रहे। उनके जीवन कर्म से प्रभावित होकर अनेक क्रांतिकारी, अंग्रेजों के अत्याचार से क्रुध्द हो उनकी हत्या कर देते तथा हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लेते। स्वामीजी ने कहा-’आगामी पचास वर्षों के लिए हमारा केवल एक ही विचार-केन्द्र होगा और वह है हमारी महान मातृभूमि भारत। दूसरे सब व्यर्थ के देवताओं को कुछ समय तक के लिए हमारे मन से लुप्त हो जाने दो। हमारी जाति-स्वरूप केवल यही एक देवता है जो जाग रहा है। जिसके हर जगह हाथ है, हर जगह पैर है, हर जगह कान है, जो सब वस्तुओं में व्याप्त है। दूसरे सब देवता सो रहे है। हम क्यों इन व्यर्थ के देवताओं के पीछे दौड़े और उस देवता की, उस विराट की, पूजा क्यों न करे जिसे हम अपने चारों ओर देख रहे है। जब हम उसकी पूजा कर लेंगे तभी हम सभी देवताओं की पूजा करने योग्य बनेंगे।
आज समाज-जीवन में जो विकृतियां पनप रही है, उसके बारे में उन्होंने काफी पहले सावधान कर दिया था। आज यह सहज ही देखने को मिल रहा है कि विश्वविद्यालयों, कैम्पसों में ड्रग-ड्रिंक-डिस्को की कचरा संस्कृति में सराबोर आज का युवक स्व-विस्मृति के कगार पर है। उन्होंने पाश्चात्य जीवन शैली के अंधानुकरण को खतरनाक बताया। उन्होंने कहा था, ‘ऐ भारत! यही तेरे लिए एक भयानक खतरे की बात है-तुम्हें पाश्चात्य जातियों की नकल करने की इच्छा ऐसी प्रबल होती जा रही है कि भले-बुरे का निश्चय अब विचार-बुध्दि, शास्त्र या हिताहित ज्ञान से नहीं किया जाता। गोरे लोग जिस भाव और आचार की प्रशंसा करे या जिसे न चाहे, वही अच्छा है और वे जिसकी निंदा करे तथा जिसे न चाहे, वही बुरा! खेद है, इससे बढ़कर मूर्खता का परिचय भला और क्या होगा? यह कथन आज भी प्रासंगिक लगता है।
स्वामी विवेकानंद राष्ट्रीय स्तर की गतिविधियों पर अपना ध्यान तो रखते ही थे साथ ही साथ वैश्विक स्तर पर भी होने वाले सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों का अध्ययन और विचार करते थे। उन दिनों समाजवाद के विचार बड़ी तेजी से फैल रहे थे। उनका मानना था कि ‘भारत को समाजवाद-विषयक अथवा राजनीतिक विचारों से प्लावित करने से पहले यह आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाए। सर्वप्रथम हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो अपूर्व सत्य निहित है, उन्हें इन सब ग्रंथों के पृष्ठों के बाहर लाकर, मठोें की चहारदीवारियां भेदकर, वनों की नीरवता से दूर लाकर, कुछ संप्रदाय-विशेषों के हाथों से छीनकर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा, ताकि ये सत्य दावानल के समान सारे देश को चारों ओर से लपेट लें-उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक सब जगह फैल जाए- हिमालय से कन्याकुमारी और सिंधु से ब्रह्मपुत्र तक सर्वत्र वे धधक उठें।’
स्वामी विवेकानंद ने अपने भाषणों व रचनाओं से जन-जन में प्रबल इच्छाशक्ति व स्वाभिमान तो जगाया ही, लेकिन उन्हें अपने लक्ष्य को पाने में एक सुदृढ़ संगठन की आवश्यकता हुई। वे ‘संघे शक्ति कलौयुगे’ के सूत्र की महत्ता को भलीभांति जानते थे। वे चाहते थे कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के कार्य में आम जन भी हाथ बंटाये। 1 मई, 1897 के दिन उन्होंने स्वामी रामकृष्ण देव के कुछ शिष्यों के सम्मुख एक योजना रखी। उन्होंने कहा कि ‘विश्व के कई देशों का भ्रमण करके मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि हमें पवित्र धर्म एवं गुरूदेव के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक सुदृढ़ संगठन बनाना ही होगा।’ आज सर्वविदित है कि देश के कोने-कोने में ‘रामकृष्ण मिशन’ द्वारा संचालित सैकड़ों अस्पताल, विद्यालय व सेवाकार्य राष्ट्र के नवोन्मेष व परम वैभव प्राप्त करने की दृष्टि से अपनी प्रभावी भूमिका निभा रहे हैं।
  उनका जन्मदिन राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाए जाने का प्रमु्ख कारण उनका दर्शन, सिद्धांत, अलौकिक विचार और उनके आदर्श हैं, जिनका उन्होंने स्वयं पालन किया और भारत के साथ-साथ अन्य देशों में भी उन्हें स्थापित किया। उनके ये विचार और आदर्श युवाओं में नई शक्ति और ऊर्जा का संचार कर सकते हैं। उनके लिए प्रेरणा का एक उम्दा स्त्रोत साबित हो सकते हैं।
  सन् 1897 में मद्रास में युवाओं को संबोधित करते हुए कहा था श्जगत में बड़ी-बड़ी विजयी जातियां हो चुकी हैं। हम भी महान विजेता रह चुके हैं। हमारी विजय की गाथा को महान सम्राट अशोक ने धर्म और आध्यात्मिकता की ही विजयगाथा बताया है और अब समय आ गया है भारत फिर से विश्व पर विजय प्राप्त करे। यही मेरे जीवन का स्वप्न है और मैं चाहता हूं कि तुम में से प्रत्येक, जो कि मेरी बातें सुन रहा है, अपने-अपने मन में उसका पोषण करे और कार्यरूप में परिणत किए बिना न छोड़ें। हमारे सामने यही एक महान आदर्श है और हर एक को उसके लिए तैयार रहना चाहिए, वह आदर्श है भारत की विश्व पर विजय। इससे कम कोई लक्ष्य या आदर्श नहीं चलेगा, उठो भारत...तुम अपनी आध्यात्मिक शक्ति द्वारा विजय प्राप्त करो। इस कार्य को कौन संपन्न करेगा?श् स्वामीजी ने कहा श्मेरी आशाएं युवा वर्ग पर टिकी हुई हैं।
स्वामी जी को यु्वाओं से बड़ी उम्मीदें थीं। उन्होंने युवाओं की अहं की भावना को खत्म करने के उद्देश्य से कहा है श्यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खड़े हो जाओगे, तो तुम्हें सहायता देने के लिए कोई भी आगे न बढ़ेगा। यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले ‘अहं’ ही नाश कर डालो।श् उन्होंने युवाओं को धैर्य, व्यवहारों में शुद्धताच रखने, आपस में न लड़ने, पक्षपात न करने और हमेशा संघर्षरत् रहने का संदेश दिया।
आज भी स्वामी विवेकानंद को उनके विचारों और आदर्शों के कारण जाना जाता है। आज भी वे कई युवाओं के लिए प्रेरणा के स्त्रोत बने हुए हैं।
  अक्तूबर २०१२ मे कन्याकुमारी के विवेकान्द केंद्र मुख्यालय - विवेकानंदपुरम में  भारत जागो ! विश्व जगाओ !! महाशिबिर का आयोजन हुआ। इस शिबिर मे ६७६ युवा संमिलीत हुये. इस महाशिबीर मे दिये गये भाषानोंसे याह आलेख प्रस्तुत ही....
सम्पूर्ण भारत परिभ्रमण करके स्वामी विवेकानंद कन्याकुमारी आये। कन्याकुमारी में उन्होंने माँ पार्वती के चरणों में प्रार्थना की और अपने जीवन के उद्देश का साक्षात्कार कर लिया। माँ का कार्य याने भारत माता का कार्य इस बात को उन्होंने समझ लिया। सम्पूर्ण विश्व को जगाने के लिए उन्होंने माँ पार्वती से शक्ति प्राप्त की। उन्हें माँ पार्वती का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। उसी प्रेरणा से सागर में स्थित श्रीपाद शिलापर 3 दिन और 3 रात्रि तक अखंड ध्यान किया। अपने ध्यान में उन्होंने अखंड भारत देखा। देश की स्थिति समझ ली। भारतवासीयोंके उद्धार के लिए एक व्यापक योजना बनाई। स्वामीजी कहते है, भारत के पतन का कारण भारत का असंगठित जीवन है। विश्व के अन्य लोगोंकी तुलना में हम अत्यंत हीन जीवन व्यतीत कर रहे है। हम आलसी बन गए है। हम घोर तामस से ग्रस्त है। व्यर्थ विवादोंमे उलझ गये  है। इसी बात का फायदा विदेशियों ने उठाया। उन्होंने हमें गुलाम बनाकर बुरी तरह लुटा।
जननायको ने प्रेरणा ली ऐसे निराशाजनक स्थिति से भारतीय समाज को अध्यात्मिक चेतना से स्वामीजी ने जागृत किया। विश्व सम्मेलन से सफल होकर लौटने के बाद स्वामीजीने तुरंत राष्ट्र को संगठित करना प्रारंभ किया। युवकों को एकत्र करने के लिए कोलम्बो से अल्मोरा तक युवा शक्ति को मार्गदर्शन किया। 1905 में बंगाल के विभाजन के विरुद्ध लढने के लिए कई युवकों ने स्वामीजी से प्रेरणा ली। लो। तिलक, सुभाष बोस, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद ऐसे जननायको ने स्वामीजी से प्रेरणा ली।समर्पण की तयारी
इतिहास के इस बात को समझकर हमें निरूस्वार्थ भाव से देश के लिए काम करना होगा। समर्पित जीवन की प्रेरणा स्वामीजी के विचारोंसे लेनी होगी। आज देश के लिए युवा शक्ति की अत्यंत आवश्यकता है। इसलिए विवेकानंद केंद्र से जुड़कर हमें मनुष्य निर्माण व राष्ट्र निर्माण के लिए काम करना होगा। सेवाव्रती, शिक्षार्थी, जीवनव्रती के रूप में हमें समय दान देना होगा। यह समय की मांग है की विवेकानंद केंद्र से जुडो और अपना समय दो। हमें प्रत्येक घर में सनातन जीवन मूल्य पहुँचाना है। कार्यकर्ता निर्माण करना है। इसलिए भारतमाता की चरणों मे सम्पूर्ण समर्पण की तयारी रखिये।
  केवल भारत में ही नहीं विश्व के अन्य देश तथा व्यक्तियों ने भी स्वामी विवेकानंद से प्रेरणा ग्रहण की। जापान के प्रधान मंत्री भारत आये तो उन्होंने कहा हमने जो प्रगति की है उसके पीछे स्वामी विवेकानंद की ही प्रेरणा है। कारण जापान के द्रष्टा महापुरुष तेनसिन ओकेकुरा ने स्वामी विवेकानंद से प्रेरणा ली थी।
 त्याग और सेवा का अमर सन्देश स्वामी विवेकानंद ने भारत परिभ्रमण के दौरान धर्म की अवनति, टूटते जीवनमूल्य, गरीबी, निर्धनता, अज्ञान आदि बातें देखि। दूसरी ओर उन्होंने देखा की इन स्थितियों में भी भारत की धार्मिक और आध्यात्मिक धरोहर सशक्त है। सांस्कृतिक भावधारा अक्षुण्ण है। विश्व को परिवार समजने की भावना काफी प्रबल है। सम्पूर्ण विश्व में एकात्मता की भावना को जन्म देनेवाली यह संस्कृति महानतम है। इसी महानतम संस्कृति ने सदियों से विश्व को त्याग और सेवा का अमर सन्देश दिया। 11 सितम्बर 1893 के बाद स्वामी विवेकानंद अमरीका में  गणमान्य व्यक्ति बन गए। अमरिका में उन्होंने वैभव सम्पन्नता को देखा। सुख सुविधा होते हुए भी अपने देशवासियोंके स्मरणमात्र से वे रातभर रोते रहे। राष्ट्रप्रेम के कारण ही उन्होंने भारत में आकर युवकों का संघटन बनाया। युवको को प्रेरणा दी।अमर सन्देश भारत जागो विश्व जगाओ, यह स्वामी विवेकानंद का अमर सन्देश है। यह सन्देश याने उनके कार्य का निचोड़ है। आज भारत सोया हुआ है। तामस से पीड़ित है। जो विश्व को जगा सकता है, वही सो रहा है। इसलिए हमें स्वामी विवेकानन्द के विचारों को अच्छी तरह आत्मसात करना होगा। भोगवाद को नष्ट करने का तत्त्वज्ञान विश्व में आज केवल भारत के पास ही है। हमारा देश आज भी जीवित है क्यों की हमारे पूर्वजों ने हमारे समाज की व्यवस्था अद्वैत तत्वज्ञान पर खडी की है। आज हमें यह समझाना होगा की हमारे संस्कृति में ऐसा क्या है की जिसका हम त्याग कभी भी न करे और ऐसा क्या है की जिसमे हम समय के साथ परिवर्तन कर सकते है। यह सब छोड़कर आज प्रत्येक व्यक्ति श्क्रायींग बेबीजश् बन गए है। जब तक हम निर्दोष नहीं होंगे तब तक हमारे प्रगति का मार्ग प्रशस्त नहीं होगा। युवाओं की आवश्यकताइसलिए स्वामीजी कहते है, मुझे ऐसे युवाओं की आवश्यकता है जो अपने समाज पर प्रेम करे और अपने ह्रदय को विशाल तथा व्यापक बनाये। समाज की समस्त समस्याओं को समझते हुए अपना समय दान देगा। हमारे पूर्वजों ने अनेक आक्रमणों और कष्टों को सहकर इस पवित्र आध्यात्मिक संस्कृति का जतन किया। हमारे मन में अपने पवित्र संस्कृति के प्रति सन्मान और स्वाभिमान जागृत करे। इसलिए आओ, हम अपने धरोहर को समझते हुए स्वयं जगकर विश्व को जगाएं। सार्ध शती समारोह आज भारत अनेक गुप्त आक्रमणों का सामना कर रहा है। इस अवस्था में सभी स्थरो पर देश वासियों की नैतिकता गिरती जा रही है। आज हमें इन स्थितियों से उभरने के लिए अपने अंतर आत्मा को जागृत करते हुए सम्पूर्ण देश में भव्य दिव्य रूप में सार्ध शती समारोह के उपक्रमों को ले जाना है। इसलिए स्वार्थ त्याग कर राष्ट्र का पुनर्निमाण हमें करना है। इस हेतु गांव गांव, शहर शहर पहुँचाने के लिए पांच आयामों के माध्यम से हम कार्य करेंगे। देश के युवाओं को सही दिशा देने के लिए युवा शक्ति आयाम के माध्यम से हमें काम करना है। अग्रेंजों को देश से निकलने के लिए इस देश में यदि क्रांतिकारियों का निर्माण हो सकता है तो देश के नकारात्मकता व दुर्बलता को दूर करने के लिए निस्वार्थी युवा कार्यकर्ता क्यों नहीं।
  विवेकानंद जी एक क्रांतिकारी संत थे और उन्होंने अपने देश के युवकों का आह्वान  किया था-उठो,जागो और महान बनो. उन्होंने कहा है-नास्तिक वह व्यक्ति है जिसका अपने पर विश्वास नहीं है.विश्व का इतिहास उन गिने चुने व्यक्तियों का इतिहास है जिनको अपने ऊपर विश्वास एवं आस्था थी.इस महान शक्ति  के बल पर संसार का कोई भी कार्य किया जा सकता है .अपने ऊपर आस्था एवं विश्वास खोने पर किसी भी राष्ट्र का जीवन मृतप्राय हो जाता है.कभी अपने को असहाय असमर्थ मत समझो .तुम्हारी शक्ति असीम है ,संसार में कोई भी कार्य करना तुम्हारे सामर्थ्य में है.
स्वामी विवेकानंद ने युवकों से स्पष्ट कहा था-”धनी कहलाने वाले लोगों का विश्वास मत करो.”दुखीजनों से सहानुभूति रख कर प्रभु से सहायता मांगो अवश्य मिलेगी.उनका लक्ष्य युवजनों के हृदयों में दरिद्रों,अज्ञानियों  एवं दलितों के लिये सहानुभूति एवं संघर्षशील वृति  उत्त्पन्न करना था स्वामी विवेकानंद युवकों से कहते हैं-”अपनी दुर्बलताओं पर बार-बार मत सोचो,शक्ति का ध्यान करो,शक्ति की साधना करो, समस्त वेदों एवं वेदान्त का सार यही है-अभयम-शक्ति,सामर्थ्य,.मेरे युवा मित्रों ! शक्तिवान बनो. यही मेरा तुम्हें परामर्श है.फुटबाल के खेल द्वारा बलवान हो कर तुम प्रभु के निकट शीघ्र आ सकते हो-निर्बल रह कर गीता अध्ययन से तुम्हें ब्रह्म की प्राप्ति नहीं हो सकेगी.यह मैं तुमसे पूरी निष्ठां से कह रहा हूँ क्योंकि मेरा तुम पर स्नेह है.मुझे तुम्हारी तीव्र जिज्ञासा का ज्ञान है.शारीरिक बल ,सामर्थ्य एवं शक्ति क़े द्वारा गीता का ज्ञान सरल,सुलभ एवं सहज हो जाता है.”
“समझ लो ,सत्य की साधना ही शक्ति देती है और शक्ति ही संसार के सब रोगों-क्लेशों की दवा है.यह एक महान तथ्य है कि,शक्ति ही जीवन हैयशक्तिहीनता ही मृत्यु.शक्ति के द्वारा ही सुख,समृद्धि एवं जीवन की अमरता प्राप्त होती है.दुर्बलता से अशान्ति,कष्ट,क्लेश जन्म लेते हैं.यह दुर्बलता ही तो मृत्यु है.”
“चारों ओर से पुकार है ‘मनुष्य चाहिये मनुष्य’, फिर सब कुछ प्राप्त हो जायेगा.पर कैसे मनुष्य?ऐसे मनुष्य जो दृढ संकल्प -शक्ति के धनी हों-गहरी अटूट आस्था वाले हों-ऐसे मनुष्य केवल एक सौ भी हों तो सारे विश्व में क्रांति की लहर दौड़ जायेगी.” उन्होंने वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था केे सम्बन्ध में कहा है कि,इसके परिणामस्वरूप हमारी संकल्प शक्ति, पीढ़ी दर पीढ़ी हुएतीव्र आक्रमणों के कारण,आज बिलकुल निर्जीव एवं मृतप्राय हो गई है. जिसके कारण नये विचार ही नहीं वरन पुराने विचार भी लुप्त होते जा रहे हैं.कठोर ब्रहमचर्य  की साधना से समस्त ज्ञान को ग्रहण करना थोड़े समय में ही सम्भव हो जायेगा.केवल एक बार का सुना हुआ और ग्रहण किया हुआ ज्ञान सर्वदा स्मृति में बना रहता है. इस ब्रह्मचर्य  के व्रत की साधना के अभाव में सारा देश नष्ट-भ्रष्ट हो रहा है.
स्वामी जी का प्रश्न है-शरीर में शक्ति नहीं ,ह्रदय में उत्साह नहीं ,मस्तिष्क में कोई मौलिकता नहीं.फिर ऐसे मट्टी के लौंदे मानव क्या कर पायेंगे ? संख्या बल प्रभावी नहीं होता,न संपत्ति, न दरिद्रता यमुट्ठी भर लोग  सारे संसार को उखाड़ फेंक सकते है यदि  वे लोग मनसा -वाचा-कर्मणा संगठित हों -इस निश्चित विश्वास को कभी मत भूलो जितना ही अधिक विरोध होगा, उतना ही अच्छा है.क्या बाधाओं को पार किये बिना सरिता वेग ग्रहण कर सकती है ? जितनी नवीन और उत्तम एक वस्तु होगी उतना ही प्रारम्भ में उसे अधिक विरोध सहना होगा.विरोध के आधार पर ही तो सफलता की भविष्यवाणी होती है.समाज को ही सत्य की उपासना करनी होगी अथवा यह समाप्त हो जायेगा.वह समाज श्रेष्ठतम है जहाँ उच्चतम सत्य व्यवहार में प्रकट होते हैं.और यदि समाज उच्चतम सत्य को ग्रहण करने को तत्पर नहीं है तो हमें उसे इसके लिये उद्यत करना होगा और यह कार्य जितना जल्दी हो जाये उतना ही अच्छा है.निकृष्टत्तम वस्तु का भी सुधार सम्भव है.जीवन का सम्पूर्ण रहस्य समन्वय है । इसी समन्वय के द्वारा जीवन का सम्पूर्ण विकास होता है.दमनकारी वाह्य शक्तियों केे विरुद्ध स्वंय के संघर्ष का परिणाम ही समन्वय है. यह समन्वय जितना प्रभावशाली होगा,जीवन उतना ही दीर्घायु हो जायेगा.
नरेंद्र के पिता ने उनसे विवाह कर लेने का अनुरोध किया और शीघ्र ही ऐसा एक संयोग भी आ उपस्थित हुआ। एक धनाढ्यम सज्जन ने प्रस्ताव रखा कि उनकी पुत्री का पाणिग्रहण कर लेने पर वे नरेंद्र के इंग्लैंड जाकर उनकी भारतीय राजकीय सेवा की उच्चशिक्षा का पूरा व्ययभार वहन करेंगे। नरेंद्र ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया तथा इसी तरह अन्य कई प्रस्ताव भी अस्वीकृत हुए। संभवतरू गृहस्थ का जीवन बिताना उनकी नियति को मंजूर न था।
बचपन से ही नरेंद्रनाथ को पवित्रता की धुन लगी रहती थी। जब कभी उनका युवकोचित स्वभाव अवांछनीय कर्म की ओर आकृष्ट होता तो कोई अदृश्य शक्ति उन्हें नियंत्रित कर देती। उनकी माताजी ने उन्हें पवित्रता का महत्व समझाया था तथा ब्रह्मचर्य पालन का उपदेश दिया था। नरेंद्र की दृष्टि में पवित्रता एक नकारात्मक गुण अर्थात दैहिक सुखों का वर्जन मात्र न था, बल्कि उनके लिए पवित्रता से तात्पर्य था ऐसी आध्याकत्मिक शक्ति का संचनय करना, जो भावी जीवन में उदात्त इच्छाओं के माध्यम से अभिव्यक्त होगी। उन्होंने अपने समक्ष हिन्दू परंपरा के ऐसे ब्रह्मचारी विद्यार्थी का आदर्श रखा था, जो कठोर परिश्रम करता था, संयममय जीवन को महत्व देता था, पवित्र चीजों के प्रति श्रद्धा का भाव रखता था और मनसा-वाचा-कर्मणा शुद्ध जीवन बिताया करता था। हिन्दू शास्त्रग्रंथों ने ब्रह्मचर्य को सर्वश्रेष्ठ गुण माना है। इसी की सहायता से मानव सूक्ष्मतम आध्या त्मिक तत्वों की अनुभूति कर सकता है। नरेंद्र की गहन एकाग्रता, तीव्र स्मरण शक्ति, उनकी अंतर्दष्टि, अदम्य मानसिक क्षमता एवं शारीरिक बल का यही रहस्य है।
नरेंद्र की युवावस्था में प्रतिदिन रात को सोने के पूर्व उनके सम्मुख दो परस्परविरोधी कल्पनाएँ व्यक्त हो उठती थीं। इनमें से एक में वे देखते कि वे एक संसारी व्यक्ति के समान अपने बाल-बच्चों के साथ धन, मान प्रतिष्ठा एवं ऐश्वर्यमुक्त जीवन बिता रहे हैं और दूसरी कल्पना में देखते कि वे एक सर्वत्यागी अकिंचन संन्यासी होकर ईश्वर के ध्यान में तन्मय होकर काल यापन कर रहे हैं। स्वामी विवेकानंद ने एक सभा में व्याख्यान देते हुए सार्वजनिक घोषणा की थी कि- बल ही जीवन है, बल ही जीवन को आनंदप्रद बनाता है। बलहीन जीवन मृत्यु और नर्क के समान है।
शक्ति को सुख की जननी माना गया है। निर्बलता ही समस्त दुखों का मूल कारण है। शक्ति यानि कि बल की महानता एवं उपयोगिता को हम सभी अपने जीवन में अनुभव करके ही रहते हैं। किंतु बल का मतलब मात्र शारीरिक बल से ही नहीं है। शारीरिक बल ही सर्वश्रेष्ठ होता तो हाथी-घोड़े आज इंसानों पर राज कर रहे होते, जबकि ऐसा नहीं है। बल या शक्ति उस समग्र और सम्मिलित क्षमता को कहते हैं जिसमें तीनों बल यानि धन, ज्ञान और बाहु बल शामिल हो। दुनिया में सर्वाधिक शक्तिशाली वही है जो जिसके पास तीनों बलों का पर्याप्त संचय यानि कि संग्रह हो। मूर्ख धनवान, दरिद्र ज्ञानी तथा हट्टा-कट्टा मूर्ख मजदूर कभी भी वास्तविक सुख शांति प्राप्त नहीं कर पाते।

वर्तमान में एक ओर स्वामीजी की भविष्यवाणी सत्य होने के लक्षण दिखाई दे रहे है। देश की युवाशक्ति अनेक क्षेत्रों में नये नये कीर्तिमान गढ़ रही  है। ज्ञान-विज्ञान, आर्थिक विकास, अंतरिक्ष तकनिक, संगणक, व्यापार आदि सब में भारतीय युवा पुनः अपने खोये गौरव को प्राप्त कर विश्व नेतृत्व की ओर अग्रेसर है। भारत विश्व का सर्वाधिक युवा जनसंख्या वाला देश बन गया है। इतना ही नहीं विश्व के सर्वाधिक अभियंता व चिकित्सक निर्माण करने का श्रेय भी हमें ही है। इसके साथ ही इतनी बड़ी कुशल व अकुशल श्रामिक संख्या भी और किसी देश के पास नहीं है। जनसंख्या में चीन भले ही हमसे आगे हो किंतु उसकी औसत आयु प्रौढ़ता की ओर है और 3 वर्षों में वहाँ कार्यबल इतना कम हो जायेगा कि वर्तमान उत्पादकता बनाये रखने के लिये भी उसे अन्य आशियाई देशों की सहायता लेनी होगी। आध्यात्मिक क्षेत्र में तो भारत का वर्चस्व सदा से ही रहा है। किन्तु दूसरी ओर एक राष्ट्र के रुप में भारत की स्थिति बड़ी विकट है। देश चारों ओर से चुनौतियों से घिरा हुआ है। चीन व पाकिस्तान का आपसी गठजोड़ सामरिक रूप से भारत को चारों ओर से घेर रहा है। इसी समय हमारी प्रशासकीय व्यवस्था पूर्णतः चरमराई हुई दिखाई पड़ रही है। समाज में मूल्यों के ह्रास का संकट है। शासन द्वारा अल्पसंख्यकों के नाम पर चल रहा तुष्टीकरण का खेल फिर से विभाजन जैसे हालात पैदा कर रहा है। अर्थात चारों ओर चुनौती ही चुनौती है।
  अवसर व चुनौती के एकसाथ सामने है ऐसे समय देश के युवाशक्ति को सन्नध होना होगा। अपनी तरुणाई को ललकार कर शक्ति को जागृत करना होगा। युवा की परिभाषा ही बल से है। स्वामी विवेकानन्द युवाओं से आवाहन किया करते थे, ‘‘मुझे चाहिये लोहे की मांसपेशियाँ, फौलाद का स्नायुतन्त्र व वज्र का सा हृदय।’’ शारीरिक बल, मानसिक बल व आत्मबल तीनों से युक्त युवा ही स्वामीजी का कार्य कर सकता है। स्थान स्थान पर फिर आखाड़े लगें। बलोपासना को पुनः जगाने का प्रसंग है। जागों युवा साथियों अपनी कमर कस कर खड़े हो जाओ। माँ की सेवा के लिये सामर्थ्य जुटाओं! तरुणाई का आह्वान है तो साहस तो चाहिये ही। स्वामीजी के शब्दों में, ‘‘समुद्र को पी जाने का साहस, सागर तल की गहराई से माती चुन लाने का साहस, मृत्यु का सामना कर सके ऐसा साहस।’’ साहस की जागृति होती हे वीरव्रत के धारण करने से। युवा के जीवन में व्रत हो। व्रत के बिना जीवन व्यर्थ है। व्रत अर्थात संकल्प के साथ चुनौती धारण कर किया पूर्ण नियोजित कार्य। जागो भारती के पुत्रों वीरेश्वर विवेकानन्द के समान वीरव्रती बनों।
राष्ट्रीय चुनौतियों का प्रतिसाद भी राष्ट्रीय होना होगा। अतः सामर्थ्य व साहस से सम्पन्न युवाओं को संगठित होना होगा। स्वामी जी ने भारत को संगठन का मन्त्र देकर सामूहिक साधना की वैदिक परम्परा का पुनर्जागरण किया। उनकी प्रेरणा व विचार से ही देश में सकारात्मक कार्य करनेवाले सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक तथा वैचारिक संवा संगठनों का महाप्रवाह प्रारम्भ हुआ। वीर पूत्रों अपनी स्वार्थी तमनिद्रा को त्याग संगठित हो जाओ। सदियों की मानसिक दासता से उत्पन्न इर्ष्या का त्याग कर साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करनें को तत्पर हो जाओ। जहाँ जहाँ हो वही संगठित होकर देशसेवा में लग जाओ। स्वामीजी का आश्वासन हमारे साथ है, ‘‘मेरे बच्चों यदि तुम मेरी योजना पर कार्य करना प्रारम्भ कर दो तो मै सदा तुम्हारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करुंगा। इसके लिये मुझे बार बार ही क्यों ना जन्म लेना पड़े?’’
  जागृत, सामर्थ्यशाली, वीर व संगठित तरुणाई को समर्पित भी होना होगा। समर्पण के बिना, आहुती के बिना तो सारा  प्रयास ही अधुरा रह जाता है। स्वामीजी कहते है, ‘‘उठो! काम में लग जाओं! अपने आप को झोंक दो। कोई व्यक्तिगगत चिंता ना करों भगवति सब चिंता करेगी। मेरे बच्चों मै तुमसे अपार प्रेम करता हूँ। इसीलिये चाहता हूँ कि देश का काम करते करते तुम हँस कर मृत्यु का वरण करों!’’ कितना अद्भूत प्रेम! क्या हम इस अनल प्रेम का प्राशन करने के अधिकारी है? क्या इतना समर्पण है कि अपने आप को मिटाकर माँ भारती की सेवा में लग जाये?



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