Monday, 16 December 2019

अरस्तु विरेचन सिद्वांत

 विरेचन सिद्वांत
प्लेटो का मत था कि कविता अनुकरण का अनुकरण है, सत्य से दुगनी दूरी पर है, अतः त्याज्य है। अपनी पुस्तक द रिपब्लिक में कविता पर आक्षेप करते हुए उन्होंने लिखा है कि कविता हमारी वासनाओं का दमन करने के स्थान पर उनका पोषण और सिंचन करती हैं, क्योंकि वह तर्क या बुद्धि को प्रभावित करने के बजाय हृदय या भावनाओं को प्रभावित करती है। इसके विपरीत अरस्तु का कला-सम्बन्धी मत सौन्दर्य-शास्त्र पर आधारित था। अतः उन्होंने प्लेटो के सिद्धांत का विरोध करते हुए भावों के विरेचन की बात कहीं। अपने समय में प्रचलित चिकित्सा-पद्धति के शब्द से संकेत ग्रहण कर उन्होंने उस शब्द के लाक्षणिक प्रयोग द्वारा प्लेटो के आक्षेप का उत्तर दिया।

 अरस्तू द्वारा प्रयुक्त मूल शब्द का हिंदी अनुवाद रेचन, विरेचन तथा परिष्करण शब्दों द्वारा किया गया है,पर विरेचन शब्द सर्वाधिक प्रचलित है। जिस प्रकार यह शब्द यूनानी चिकित्सा-पद्धति से सम्बद्ध माना जाता है, उसी प्रकार विरेचन शब्द भारतीय आयुर्वेेदिक-शास्त्र से सम्बन्धित है। 

चिकित्सा-शास्त्र में इसका अर्थ है-रेचक औषधियों द्वारा शरीर के मल या अनावश्यक एवं अस्वास्थ्यकर पदार्थ का निकालना। चिकित्सक के पुत्र होने के कारण अरस्तू ने यह शब्द वैद्यक-शास्त्र से ग्रहण किया और काव्यशास्त्र में उसका लाक्षणिक प्रयोग किया। जैसे होम्योपेथी में किसी संवेग की चिकित्सा समान के संवेग द्वारा की जाती है, सर्वसम के द्वारा नहीं, अम्ल के लिये अम्लता का और लवण-द्रव्य को दूर करने के लिये लवण का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार अरस्तू का मत है कि त्रासदी करुणा तथा त्रास के कृत्रिम उद्रेक द्वारा मानव के वास्तविक जीवन की करुणा और त्रास भावनाओं का निष्कासन करती है।


अरस्तु के परवर्ती व्याख्याकारों ने लक्षण के आधार पर विरेचन के तीन अर्थ किये हैं- धर्म-परक,नीति-परक,कला-परक

धर्मपरकः- यूनान में भी भारत की तरह नाटक का आरम्भ धार्मिक उत्सवों से ही हुआ। प्रो. मरे का मत है कि वर्षारंभ पर दिओन्यसस नामक यूनानी देवता से सम्बद्ध उत्सव मनाया जाता था। इस उत्सव में देवता से विनती की जाती थी कि वह उपासकों को विगत वर्ष के पापों, कुकर्माे तथा कलुष से मुक्त कर दें तथा आगामी वर्ष में उन्हें इतना विवेकपूर्ण तथा शुद्ध-हृदय बना दें कि वे पाप, कलुष, मृत्यु आदि से बचे रहें। इस प्रकार यह उत्सव एक प्रकार से शुद्धि का प्रतीक था। 

अपने ग्रन्थ राजनीति में अरस्तु ने लिखा है कि हाल की स्थिति से उत्पन्न आवेश के शमन के लिये भी यूनान में उद्दाम संगीत का उपयोग किया जाता था। अतः स्पष्ट है कि यूनान की धार्मिक संस्थाओं में बाह्य विकारों के द्वारा आन्तरिक विकारों  की शान्ति और उनके शमन का यह उपाय अरस्तु को ज्ञात था और सम्भव है वहाँ से भी  उन्हें सिद्धान्त की प्रेरणा मिली हो। सारांश यह है कि विरेचन का धर्म-परक-अर्थ स्वीकार करने वाले विद्वानों का मत है कि अरस्तु ने विरेचन का लाक्षणिक प्रयोग धार्मिक आधार पर किया और उसका अर्थ था-बाह्य उत्तेजना और अन्त में उसके शमन द्वारा आत्मिक शुद्धि और शान्ति।

नीतिपरक अर्थ- विरेचन सिद्धान्त के नीति-परक अर्थ की व्याख्या एक जर्मन विद्वान् बारनेज ने की। उनके अनुसार मानव-मन में अनेक मनोविकार वासना रूप में स्थित रहते हैं। इनमें करुणा और त्रास नामक मनोवेग मूलतः दिखाने होते हैं। 

त्रासदी रंगमंच पर ऐसे दृश्य प्रस्तुत करती है जिनमें ये मनोवेग अतिरंजित रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं, उसमें ऐसी परिस्थितियाँ उपस्थित की जाती है जो त्रास और करुणा से भरी होती है। प्रेक्षक जब उन दृश्यों को देखता है यह उन परिस्थतियों के बीच मानसिक रूप से गुजरता है तो उसके मन में भी त्रास और करुणा के भाव अपार वेग से उद्वेलित होते हैं और तत्पश्चात् उपशमित हो जाते हैं।

 प्रेक्षक त्रासदी को देखकर मानसिक शान्ति का सुखद अनुभव करता है क्योंकि उसके मन में वासना रूप से स्थित करुण तथा त्रास आदि मनोवेगों का दंश समाप्त हो जाता है।

कलापरक अर्थः- अरस्तू के विरेचन-सिद्धांत के कलापरक अर्थ का संकेत तो गेटे तथा अंग्रेजी के स्वछन्दतावादी कवि-आलोचकों ने भी दिया था, परन्तु उसका सर्वाधिक आग्रह के साथ प्रतिपादन करने वाले है प्रो. बूचर हैं। उनका कथन है कि अरस्तु का विरेचन शब्द केवल मनोविज्ञान अथवा चिकित्सा-शास्त्र से ही सम्बन्धित नहीं है,कला सिद्धांत का भी अभिव्यंजक है।

यह विरेचन केवल मनोविज्ञान अथवा निदान-शास्त्र के एक तथ्य-विशेष का वाचक न होकर, एक कला-सिद्धांत का अभिव्यंजक है....त्रासदी का कर्तव्य कर्म केवल करुणा या त्रास के लिए अभिव्यक्ति का माध्यम प्रस्तुत करना नहीं है,किन्तु इन्हें एक सुनिश्चित कलात्मक परितोष प्रदान करना है, इनको कला के माध्यम में ढ़ालकर परिष्कृत तथा स्पष्ट करना है। 

प्रो. बूचर विरेचन के चिकित्सा-शास्त्रीय अर्थ को ही अरस्तू का एकमात्र आशय नहीं मानते। उनके अनुसार विरेचन का कला-परक अर्थ है-पहले मानसिक संतुलन और बाद में कलात्मक परिष्कार।

कुछ व्याख्याकारों ने अरस्तु के विरेचन सिद्धांत में अभिप्रेत से अधिक अर्थ भरने का प्रयास किया है। उदाहरण के लिये प्रो. मरे ने यूनान की प्राचीन प्रथा के साथ विरेचन सिद्धांत का सीधा सम्बन्ध स्थापित किया है। यद्यपि यह सत्य है कि अरस्तु अपने युग की परिस्थितियों से अवश्य प्रभावित हुए होंगे और विरेचन-सिद्धांत की उनकी परिकल्पना पर भी युगीन धार्मिक प्रथा का प्रभाव पड़ा हो,पर यह प्रभाव अप्रत्यक्ष ही रहा होगा। 

विरेचन के धर्म-परक अर्थ का तात्पर्य है कि धार्मिक संगीत श्रोता के भावों को उत्तेजित  कर फिर शान्त करता है।परन्तु काव्य घनात्मक होता है,नकारात्मक नहीं। काव्य का उद्देश्य केवल अस्वास्थ्यकर भावनाओं या रूग्ण मनोवृत्तियों का निवारण नहीं है,स्वास्थ्यकर भावनाओं का अभिवर्धन करना भी होता है।अस्वास्थ्य की अनुपस्थिति स्वास्थ्य की उपस्थिति नहीं हो सकती।मस्तक की शूल-पीड़ा का अभाव चित्त के  आवसाद का प्रमाण नहीं। कविता भावनाओं का केवल शिक्षण ही नहीं प्रशिक्षण भी करती है।

जहाँ तक विरेचन के नीतिपरक अर्थ का सम्बन्ध है, आधुनिक मनोविश्लेषण-शास्त्र भी उसकी पुष्टि करता है। आधुनिक मनोविज्ञान में फ्रायड, एडलर, युंग आदि यह स्वीकार करते हैं कि हमारी वासनाएँ जब परितृप्त नहीं हो पाती तो हमारे मनोवेग कुण्ठित हो जाते हैं और वासनाएँ अवचेतन मन में जाकर जड़ हो जाती हैं। यदि उनकी उचित परितुष्टि न हो, तो वे मानसिक रूग्णता का रूप ग्रहण कर लेती हैं। अभुक्त मनोवेग या कुण्ठा मनोग्रन्थि में परिणत हो जाती है ऐसा कुण्ठा-ग्रस्त व्यक्ति तभी मानसिक स्वास्थ्य-लाभ कर पाता है, जब उसका वह मनोवेग या अतृप्त-कामना उचित रीति से परितृप्त हो जाय। इसी के लिए मनोविज्ञान-चिकित्सकों ने मुक्त-आसंग शब्द-सहस्मृति-परीक्षण बाधकता विश्लेषण आदि उपायों का सुझाव दिया हैं। 

अतः कह सकते हैं कि यद्यपि अरस्तु मनो-विश्लेषण-शास्त्र की आधुनिक प्रणालियों से अपरिचित थे,तथापि वह मनोविज्ञान के आधारभूत सिद्धांत के जानकार थे। जिस प्रकार आधुनिक मनोविश्लेषण मनसिक रोगों का उपचार मनोवेगों की उचित अभिव्यक्ति द्वारा मानता है, उसी प्रकार अरस्तु का मत था कि विरेचन-प्रक्रिया द्वारा प्रेक्षक के मन की ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं, विरेचन से अरस्तु का तात्पर्य भावों का दमन या निष्कासन नहीं, वरन् उनका सन्तुलन था। मानसिक स्वास्थ्य के लिये भावातिरेक निश्चय ही अनिष्टकर है। इसके कारण मनुष्य अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठता है। 

अरस्तू का अभिप्राय यही था कि त्रासदी करुणा तथा त्रास के अवांछित अंश को उभारकर निकाल देती है, फलतः मनोभावों में सामंजस्य स्थापित होता है जो मानसिक स्वास्थ्य के लिए हितकर है। उदाहरण के लिये यद्यपि ताप शरीर का आवश्यक गुण है तथापि जब वह साधारण तापमान से बढ़ जाता है, तो रोग को, और कम होने पर दुर्बलता को जन्म देता है इसी प्रकार भावातिरेक के कारण यदि मानव अपना मानसिक सन्तुलन खो देता है तो भावों के नितान्त अभाव में वह मानव ही नहीं रह जाता। दोनों स्थितियाँ अति की द्योतक हैं, उनसे बचना ही कल्याणकर है। काव्य  यहीं दोनों स्थितियाँ में सन्तुलन स्थापित करता है।

 काव्य एक ओर दमित भावनाओं को उत्तेजित करता है तथा दूसरी ओर अमर्यादित भावों को मर्यादित करता है। अतः विरेचन का अर्थ हुआ भावगत सन्तुलन।

प्रो. बूचर के अनुसार विरेचन के दो पक्ष हैं-एक अभावात्मक और दूसरा भावात्मक। उसका अभावात्मक पक्ष तो यह है कि वह पहले मनोवेगों को  उत्तेजित करे और तदुपरान्त उनका शमन कर मनःशान्ति प्रदान करे। उसका भावात्मक पक्ष है कलात्म परितोष। 

प्रो. बूचर द्वारा प्रस्तुत विरेचन का भावात्मक पक्ष अरस्तु के शब्दों की परिधि से बाहर है। अरस्तु का अभीष्ट केवल मन का सामजस्य, तद्जन्य विशदता और भावनाओं की शुद्धि था। कला-जन्य आस्वाद अरस्तु के विरेचन की परिधि से बाहर की बात है।

 इस प्रकार अरस्तु का विरेचन-सिद्धान्त अपने ढंग से त्रासदी के आस्वाद की समस्या का समाधन करता हैं उनके अनुसार त्रास और करुणा दोनों ही कटु भाव है। त्रासदी में मानसिक विरेचन की प्रक्रिया द्वारा यह कटुता नष्ट हो जाती है और प्रेक्षक मनःशान्ति का उपभोग करता है। मन की यह स्थिति सुखद होती है। 

अरस्तु को विरेचन से इतना ही अभिप्रेत था। प्रो. बूचर ने त्रास और करुणा के साधारणीकृत रूप में उपस्थित होने तथा अव्यवस्था में व्यवस्था की स्थापना द्वारा कलात्मक प्रक्रिया की बात कही है। डा. नगेन्द्र इसे अरस्तु के विरेचन-सिद्धान्त में अन्तर्भूत नहीं मानते और विरेचन सिद्धान्त की यह सीमा बताते हैं कि उस प्रक्रिया द्वारा प्रेक्षक मनःशान्ति का अनुभव करता है पर आनन्द का उपभोग नहीं कर पाता। भातीय दर्शन के अनुसार यह स्थिति आनन्द की भूमिका-मात्र है, आनन्द नहीं।

अनेक आलोचकों ने विरेचन-सिद्धान्त पर आक्षेप किए हैं। उनका मत है कि वास्तविक अनुभव में विरेचन होता ही नहीं। त्रासदी को देखकर करुणा, भय आदि मनोवेग तो जागृत हो जाते हैं, परन्तु उनके रेचन से मनःशान्ति सदा नहीं होती। उनका तो यहाँ तक कहना है कि बहुत से नाटक तो केवल प्रेक्षक के भावों को क्षुब्ध करके रह जाते है। 

डा. नगेन्द इस आक्षेप को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि सफल त्रासदी का चमत्कार मूलतः रागात्मक है, वह विरेचन-प्रक्रिया द्वारा भावों को उद्बुद्ध करती है, उनका समंजन करती है और इस प्रकार आनन्द की भूमिका प्रस्तुत करती है। यही विरेचन सिद्धान्त की महत्वपूर्ण देन है।यदि ऐसा न होता, त्रासदी केवल भावों को विक्षुब्ध कर छोड़ देती, तो प्रेक्षक समय और धन कर खर्च त्रासदी देखने क्यों जाते ? 

दूसरा आक्षेप यह लगाया गया है कि त्रासदी में प्रदिर्शित भाव अवास्तविक होते हैं अतः वे हमारे भावों को उत्तेजित नहीं कर पाते, विरेचन की तो बात ही नहीं। नाटक में हम केवल कला का (अभिनय, रंग-सज्जा, संगीत आदि) ही आस्वादन करते हैं। हमें आनन्दोपलब्धि होती है, हम नाटक के दुःखद प्रसंगों को देखकर रो पड़ते हैं। यह भावोद्रेक निश्चय ही कला-चमत्कार का प्रतिफल नहीं, रागात्मक प्रभाव की परिणित है। विरेचन सिद्धान्त का मनोवैज्ञानिक आधार भी अत्यन्त पुष्ट है।

       विरेचन और आनन्द, त्रास और करुणा दोनों ही कटु भाव हैं। अरस्तू की अपनी परिभाषा के अनुसार भी दोनों ही दुःखद अनुभूति के भेद हैं। त्रास में किसी आसन्न,घातक,अनिष्ट से उत्पन्न कटु अनुभूति होती है, तो करुणा उस समय उत्पन्न होती है,जब हम किसी निर्दोष व्यक्ति को अनिष्ट में पड़ा देखते है। अरस्तू का मत है कि मानसिक विरेचन के द्वारा यह कटुता अथवा दंश नष्ट हो जाता है,उत्तेजना  समाप्त हो जाती है,मन सर्वथा विशद हो जाता है और यह मनःस्थिति निश्चय ही सुखद होती है। 

प्रो. बूचर ने दुःख से सुख के प्रतीयमान विरोध की शान्ति के लिये दो कारण और भी दिये हैं-1.स्व की क्षुद्रता से मुक्ति और 2.कलात्मक प्रक्रिया।
उनका कथन है कि प्रत्यक्ष जीवन में त्रास और करुणा दुःखद अनुभूतियाँ हैं, पर त्रासदी में वे वैयक्तिक दंश से मुक्त हो साधारणीकृत रूप में उपस्थित की जाती हैं। संकुचित ‘स्व’ क्षुद्र और कटु है। स्व विशाल और सुखद होता है। हैमलेट का दुःख हमारा अपना संकुचित दुःख नहीं है, उसके दुख को देख हमारा हृदय विस्तीर्ण हो उठता है। हमें अपने दुःख क्षुद्र प्रतीत होने लगते हैं। हमें विश्वास होने लगता है कि भय या त्रास से भी अधिक श्रेष्ठ जीवन-मूल्य हैं, हम अपने स्व को भूलने लगते हैं,स्व का पाश टूट जाता है और आत्मविकास होने लगता है। प्रो. बूचर का दूसरा तर्क है कि त्रासदी कलात्मक सृजन है जो सुखद होता है। कलात्मक प्रक्रिया में पड़कर त्रास और करुणा का दंश नष्ट हो जाता है, दुःख सुख में बदल जाता है। डा. नगेन्द्र का मत है कि प्रो. बूचर द्वारा प्रस्तुत दोनों कारण विरेचन-प्रक्रिया से सम्बद्ध तो हैं,पर उसके अंगभूत नहीं। डाक्टर नगेन्द्र का कहना है कि यदि अरस्तु को इन दोनों तत्वों को विरेचन-सिद्धान्त में अंगभूत करना होता, तो वह उनका विवेचन सिद्धान्त के ही अन्तर्गत करते पर उन्होंने इन दोनों तत्वों से अवगत होते हुए भी ऐसा नहीं किया है। अतःस्पष्ट है कि उन्हें यह अभीष्ट न था। अतः डा. नगेन्द्र के अनुसार विरेचन आनन्द की भूमिका है, आनन्द नहीं। क्योंकि उसमें, जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है,सुख का केवल अभावात्मक रूप रहता है अर्थात् मनःशान्ति और विशदता।

संगीत का अध्ययन एक नही, वरन अनेक उद्देश्यों की सिद्धि के लिए होना चाहिए अर्थात 1. शिक्षा के लिए  2. विरेचन (शुद्धि) के लिये (यहाँ हम ‘विरेचन’ शब्द का प्रयोग बिना व्याख्या के कर रहे हैं, किन्तु काव्य का विवेचन करते समय हमने इस विषय का यर्थाथ प्रतिपादन किया है।) 3. संगीत से बौद्धिक आनन्द की भी उपलब्धि होती है, इससे परिश्रम के उपरान्त मनोविनोद होता है अतः यह स्पष्ट है कि हमें सभी रागों का प्रयोग करना चाहिए। किन्तु सभी की विधि एक होनी चाहिए। शिक्षा के लिए सर्वाधिक नैतिक रागों को प्राथमिकता देनी चाहिए। किन्तु दूसरों का संगीत सुनने के समय (अर्थात संगीत भाषाओं में या रंगमच पर) हम कार्य (उत्साह) और आवेग को अभिव्यक्त करने वाले रागों का भी आनन्द ले सकते है, क्योंकि करुणा और त्रास अथवा आवेश कुछ व्यक्तियों में बड़े प्रवल होते है, और उनका न्यूनाधिक प्रभाव तो प्रायः सभी पर रहता है। कुछ व्यक्ति हाल की दशा में आ जाते है किन्तु हम देखते है कि धार्मिक रागों के प्रभाव से (ऐसे रागों के प्रभाव)ेजो रहस्यात्मक आवेश को उद्बुद्ध करते हैं-वे शान्त हो जाते हैं,मानो उनके आवेगों का समन और विरेचन हो गया हो। करूणा और त्रास से आविष्ट व्यक्ति तथा प्रत्येक भावुक व्यक्ति-इस प्रकार का अनुभव करता है, और दूसरा भी, अपनी अपनी संवेदन शक्ति के अनुसार प्रायः सभी, इस विधि से एक प्रकार की शुद्धि का अनुभव करते है। उसकी आत्मा विसद और प्रसन्न हो जाती है। इस प्रकार विरेचन राग मानव को निर्दाेश आनन्द प्रदान करता है। 

              विरेचन और करुण रस: समानता आसमानता-अरस्तु प्रतिपादित त्रासद- प्रभाव तथा भारतीय काव्य-शास्त्र के करुण रस के आस्वाद वाले सिद्धान्त में प्रर्याप्त साम्य भी है और वैषम्य भी।दोनों के आधार दुःखद मनोवेग हैं।एक में, अर्थात,त्रासदी में,करुणा और त्रास है, तो दूसरे, अर्थात् करुण रस में,शोक है। करुणा और त्रास में पीड़ा की अनुभूति का प्राधान्य है, उधर करुण रस में भी स्थायी भाव शोक है।फिर शोक के अन्तर्गत करुणा का प्राधान्य तो है ही, बन्धन,वध आदि के कारण त्रास भी हो सकता है।शोक के जो लक्षण नाट्य-शास्त्र,साहित्य-दर्पण,दशरूपक आदि में दिये गए हैं,उनसे भी यही सिद्ध होता है कि करुण रस में त्रास और करुणा दोनों समाविष्ट होते हैं।

        यहां तक तो अरस्तु के त्रासद-प्रभाव तथा भारतीय काव्य-शास्त्र के करुण रस में समानता है, पर उनमें वैषम्य भी कुछ कम नहीं हैं।प्रथम अंतर तो यह है कि अरस्तु ने करुणा तथा त्रास को सदैव युग्म के रूप में स्वीकार किया है, परन्तु भारतीय मत के अनुसार करुणा एवं भयानक रस मित्र रसों के रूप में स्वीकार किये जाकर भी भिन्न-भिन्न रस माने गये हैं। त्रासदी का प्रभाव मित्र भाव होता है,तो शोक अमित्र भाव है। करुण रस में शोक के जो कारण गिनाये गए हैं, उनमें से अनेक ऐसे भी हैं जो त्रास उत्पन्न नहीं करते। करुणा के लिए वध अनिवार्य नहीं है, केवल मृत्यु अनिवार्य है जो बिना त्रास के भी घटित हो सकती है। विरेचन सिद्धान्त तथा करुण रस के आस्वाद का सिद्धान्त अतिशय उŸोजना द्वारा मनोवेगों के शमन तथा तज्जन्य मनःशान्ति तक तो समानान्तर है,पर विरेचन सिद्धान्त की सीमा तो यहाँ तक है ।जबकि करुण रस उद्वेग का शमन मात्र न होकर उसका भोग भी हैं। भारतीय दर्शन के अनुसार आनन्द दुःख का अभाव मात्र नहीं है, वह शुद्ध-बुद्ध आत्मा का आत्मभोग है।डॉ. नगेन्द्र ने इसी अन्तर को बताते हुए कहा है,अरस्तु प्रतिपादित विरेचन जन्य प्रभाव तथा भट्ट नायक-अभिनवगुप्त के रस में यही अन्तर है और यह अंतर साधारण नहीं है-क्षतिपूर्ति और लाभ का अन्तर है।

विरेचन सिद्धान्त पाश्चात्य काव्य-शास्त्र में अरस्तु की एक महत्वपूर्ण देन है अपने ग्रथोें में विरेचन शब्द का प्रयोग कर अरस्तु ने प्लेटो के आक्षेप का उत्तर दिया, काव्य की महत्ता स्तथापित की, त्रासदी के प्रभाव को गौरवपूर्ण बनाया तथा फ्रायड आदि मनोवैज्ञानिकों के लिए आधारभूत सिद्धान्त स्थापित किया। इस प्रकार अरस्तु द्वारा अनेक परवर्ती एवं आधुनिक पाश्चात्य एवं पौर्वात्य आलोचकोें-आई.ए.रिचर्ड्स के अन्तर्वृŸिायों के सामंजस्य और शुक्ल जी द्वारा प्रतिपादित हृदय की मुक्तावस्था में कोई भेद नहीं है।अतः विरेचन सिद्धान्त अरस्तु की और उसके साथ ही पाश्चात्य काव्य-शास्त्र की स्थायी उपलब्धि कहा जा सकता है।त्रासदी के मुख्य पात्र को दुर्घर्ष परिस्थितियों के साथ साहसपूर्वक संघर्ष करते हुए देखकर भी पाठक उत्साह,सहिष्णुता, साहस,गरिमा आदि भावोें से अनुप्रेरित होता है,मानव की महानता और मानवता की विजय में उसका विश्वास दृढ़ होता है। सच्यी त्रासदी श्रेष्ठ जीवन-मूल्यों से भी पाठक को परिचित कराती है, उसके मन में असहायता का भाव उत्पन्न नहीं होते देती, बल्कि उसे सबल बनाती है। वह उसमें जीवन से पलायन करने की प्रवृŸिा को जन्म नहीं देती, दारुण दुःखों का सामना करने का सन्देश देती है, हमारा मनोविकास करती है, अरस्तु के शब्दों में, कैथारसिस उत्पन्न करती है। अरस्तु ने अपने ग्रन्थ पोइटिक्स में जहाँ त्रासदी की परिभाषा तथा उसका स्वरूप निश्चित करते हुए कहा है कि त्रासदी किसी गम्भीर,स्वतःपूर्ण तथा निश्चित आयाम से युक्त कार्य की अनुकृति का नाम है, जिसका माध्यम नाटक के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न रूप से प्रयुक्त सभी प्रकार के आभरणों से अलंकृत भाषा होती है,जो समाख्यान रूप में न होकर कार्य-व्यापार रूप में होती है और जिसमें करुणा तथा त्रास के उद्रेक द्वारा इन मनोविकारों का उचित विरेचन किया जाता है।   

   विरेचन-सिद्धांत पर विचार करते समय यह ध्यान रखना होगा की अरस्तु ने उसकी व्याख्या स्वयं कहीं नही की। उसने ‘कैथार्सिस’ शब्द का जिस रूप में प्रयोग किया है, उसी से आधुनिक विद्वान उसे समझने-समझाने का प्रयत्न करते हैं। त्रासदी में नायक को रोते-कलपते देखकर जब हम उससे सहानुभूति प्रदान करते हैं तो उसका रोना-कलपना संक्रमण रोग की भांति हमें भी प्रभावित किये बिना नही रहता है। इसे हम यर्थाथ जीवन मे पसंद नहीं करते फिर भी इसके साथ दुख, भय, करूणा, त्रास आदि के विचित्र भाव मिश्रण से हमारी भाव-समष्टि भी दुर्बल बनती है। ऐसी स्थिति में हमारे आचरण का नियत्रंण बुद्धि द्वारा न होकर हृदय द्वारा होता है। प्लेटो इसे ट्रैजडी का दोष मानता है किन्तु अरस्तु इसे (ह्दय पक्ष) सफलता मानता है क्योंकि इससेे ट्रैजडी में भय और करुणा पैदा होती है। वह यह भी मानता है कि भय और करुणा अच्छी बात नही है तथा इसके अतिरिक्त मनुष्य के जीवन में अन्य भावों का भी अस्तित्व है, इस तथ्य के प्रति वह सज्ञान था। फिर भी वह कहता कि भय और करूणा के उŸोजित होने से मानसिक रेचन और परिमार्जन होने की बात थी- स्वयं भय और करुणा नहीं।
अब प्रश्न यह है कि भय और करुणा द्वारा मानसिक रेचन और परिमर्जन किस प्रकार होता है। इसे समझने के लिये सर्वप्रथम ‘कैथार्सिस’ का अर्थ समझ लेना चाहिये। प्रो0 ऐबर क्रोम्बी ने बताया कि इस शब्द का प्रयोग या तो धर्म के सम्बन्ध में होता है या चिकित्सा के क्षेत्र में। धर्म के क्षेत्र में इसका अर्थ ‘परिमार्जन’ उचित होगा किन्तु चिकित्सा के क्षेत्र में ‘रेचन’ अर्थ अधिक तर्क संगत है। साहित्य के क्षेत्र में प्राचीन ग्रीक चिकित्सा का अनुसरण किया गया है जिसमें माना जाता है कि जिस प्रकार अतिशयता से शारीरिक विकार दूर किया जाता है, उसी प्रकार त्रासदी भी भय और करुणा के द्वारा मनुष्य के कष्टों का परिमार्जन करती है। अरस्तु ने अपनी बात समझाने को संगीत का उदाहरण दिया। टेªजडी भय और करुणा द्वारा भय एवं करूणा का समन कर भय एवं करुणा दूर करती है। वास्वत मंे ‘कैथार्सिस’ शब्द का प्रतीकात्मक अर्थ ग्रहण करना चाहिये। विरेचन सिद्धांत का प्रतिपादन करते समय अरस्तू का ध्यान समाज कल्याण की ओर ही था। जीवन की संकटापन्न एवं दुःखदूर्ण परिस्थियों का चित्रण कर टैªजडी उनमें ये भाव उŸोजित करती है और होम्पोंपैथी प्रणाली की भांति ह्दय मंे उनके विकारों का शमन कर उनकी कुरूपता दूर कर मनुष्य का जीवन निरापद विभीषिकाहीन,शांत, गंम्भीर और संतुलित बनाती है। उदाहरण स्वरूप जिस प्रकार दाल में उफान आने से उसकीर गंदगी निकल जाती है, वह शुद्ध हो जाती है उसी प्रकार टैªजडी मनुष्य के ह्ृदय में भय और करुणा नामक भावों का उफान पैदा कर विकार दूर करती है और चित का परिमार्जन करती है।


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