कबीर की कविता और आज का समय
यह सत्य है कि रचनाकार एक निश्चित परिवेश में जीता है। उसके जीवन का निर्माण उसके राष्ट्र और उसकी संस्कृति-परंपरा, रीति-रिवाज आदि पर निर्भर करती है किन्तु यह भी सत्य है कि रचनाकर का व्यक्तित्व उसे राष्ट्र और उसकी सीमाओं, काल और उसके युग से खींचकर विश्व स्तरीय बना देती हैं जो मानवीय संवेदनाओं को निरन्तर काल के साथ परिस्कृत और संवर्धित करती हैं यही रचनाकार की सार्थकता होती है। उसकी रचना कालजयी बनती है।
कबीर के समय भारतवर्ष पर इस्लामी देशों के अनेक आक्रमण हो चुके थे, और मुहम्मद गोरी के पश्चात हिन्दू राज-सत्ता छिन्न-भिन्न हो गई थी। हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के सामने युद्ध रत खड़े रहते थे। डॉ पीताम्बर दास बड़थ्वाल ने लिखा है- ‘‘15वी शताब्दी में भारत आध्यात्मिकता की धारा निर्गुण सम्प्रदाय में होकर प्रवाहित हुई। आध्यात्म चिन्तन धारा को यह गहन एवं नवीन स्वरूप प्रदान करने के मूल में राजनीतिक सामाजिक, धार्मिक तथा अन्य कारण थे। इस प्रकार कबीर, नानक, दादू, प्राणनाथ, मलूकदास, पलटू, साहिब आदि सन्तों द्वारा प्रवर्तित निर्गुण सम्प्रदाय द्वारा तत्कलीन युग की आवश्यकाओं की पूर्ति हुई।’’
कबीर कहते हंै- ‘झीनी-झीनी-बीनी चदरिया।’ आप स्वीकार करेंगे कि यह बात कबीर ही कह सकते हैं। कारण स्पष्ट है रचनाकर जब अपने कर्म के साथ एकात्म होता है तब सृजन की प्रक्रिया दिखाई देती है। कबीर प्रत्येक लौकिक और अलौकिक वस्तु को जुलाहे के साथ देखते हैं। उनके लिए ईश्वर भी एक बुनकर है। उनके अनुभवों का ताना भक्ति का बाना बन कर सामने आता है।
हरि मोर रहटा में रतन पियरिया।
हरि को नाम ले कातल बहुरिया
छ: मास ताग बरस दिन कुकरी
लोग बोले भल कातल बपुरी
कहे कबीर सूत भल काता
रहट न होय मुक्ति कर दाता।।
कबीरदास हिन्दी के सर्वश्रेठ कवियों में हैं वह तत्व की बात कहने वाले कवि माने जाते हैं । कबीर का काव्य हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि है। कबीर कहते हैं- ‘तू बाम्हन मैं कासी का जुलहा,बुझउ मोर गियाना।’ इसी तरह अन्य स्थान पर कहा- कहत कबीर कर गह तोरी,सूतहि सूत मिलाए कोरी।। अथवा जाति जुलाहा नाम कबीरा। बन बन फिरौं उदासी।।
चरखा कबीर का जीवनयापन का साधन है और पूजा की वस्तु भी। उनकी दृष्टि में जीवन के कर्म से धर्म अलग नहीं है। उनके कवि-कर्म और जीवन-धर्म में अद्भुत साम्य है। कारीगर कबीर के जीवन की कला ही उनकी कविता बन गई।
स्पष्ट है कि रचनाकार समाज में रहता हुआ युग की धारा को उसी तरह अनुभव करता है जिस तहर अन्य लोग। जितना बड़ा रचनाकर होगा उसका अपने रचना पर उतना ही प्रभाव दिखाई देगा। वह समाज का प्रतिनिधित्व करने के साथ-साथ समाज को दिशा-निर्देश करते हुए अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वाह करता है।
साहित्यकार की रचना में उसके समय की आत्मा बोलती है, उसकी आस्था व उसके विश्वास परिलक्षित होते हैं और वह रचना उस काल का सच्चा दर्पण होती है। और यही दर्पण आज का समय बन कर देखने वाले को अपना चेहरा दिखाता है। देखने वाला व्यक्ति हो, राष्ट्र हो या विश्व।
कबीर के अनुसार समाज में व्यक्ति का स्वरूप वीभत्स हो गया था। घमण्ड, मिथ्याभिमान, दुराचार, पाखण्ड, पारस्परिक अविश्वास, विषयवासना आदि के कारण सब दु:खी थे। निर्धन वर्ग सर्वथा उपक्षित था।-
निर्धन आदर कोई न देई। लाख जतन करै ओहिचित न घरेई।
जो निरधन सरधन कै जाई। आगे बैठा पीठ फिराई।
गरीबों का जीवन दूभर हो गया था- नित उठि कोरी गागरिया लै लीपत जनम गयो- इत्यादि।
डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है - ‘‘सामन्ती व्यवस्था में धरती पर सामन्तों का अधिकार था तो धर्म पर उन्हीें के समर्थक पुरोहितों का। संतों ने धर्म पर से पुरोहितों का इजारा तोड़ा। खास तौर से जुलाहों, कारीगरों, गरीब किसानों और अछूतों को सांस लेने का मौका मिला, यह विश्वास मिला कि पुरोहितों और शास्त्रों के बिना भी उनका काम चल सकता है।’’2
मनुष्य आज सब प्रकार के भौतिक सुख साधनों से सम्पन्न है, फिर भी वह दु:खी दिखता है, आखिर क्यों? पुरातन काल के मानवों की घटना पढऩे-सुनने पर लगता है कि वे जंगलों में रहकर कंद मूल खाकर जिन्दगी भर, आभाग्रस्तता की जिन्दगी बिताकर भी संतुष्ट और सुखी रहते थे। इस रहस्य को समझना हो तो उस तह तक जाना होगा जहाँ मनुष्य की विचार शक्ति और उसके चिन्तन वैभव का वास होता है।
हम जिस युग में जी रहे हैं वह वैज्ञानिक प्रगति के अतिंम सोपान का युग है। किन्तु मनुष्य बावजूद इसके सब प्रकार से क्लांत, अशांति, दु:ख, उदिग्रता से भरा है। आज के मनुष्य की दशा का चित्रण इलियट के इस कथन से होता है।
अंग्रेजी कवि इलियट अपने प्रत्येक जन्म दिन पर काले व भद्दे कपड़े पहनकर शोक मनाय करते थे और कहते थे- ‘‘अच्छा होता यह जीवन मुझे न मिलता, मैं दुनिया में न आता।’’
किन्तु कबीर इसके समर्थक नहीं वे तो इसके विपरीत अन्धे कवि मिल्टन के इस कथन से सहमत हैं जिसमें वे कहते थे-‘‘भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि उसने मुझे जीने का अमूल्य वरदान दिया।’’
भक्ति काव्य हिन्दी भाषा के काव्यत्व का उत्कर्ष है। कुछ लोगों का मानना है कि आज कि समकालीन हिन्दी आलोचना ने कबीर को आध्यात्म प्रेमी विदेशियों तथा उनके देशी सहयोगियों को सौंप दिया है। किन्तु क्या यह सत्य है? क्या भारतीय जीवन दर्शन को आध्यात्म से अलग कर देखा जा सकता है।
वर्तमान में जब हम कबीर की उपादेयता पर विचार करते हैं तो हमारे सामने उनके काव्य की उत्कृष्ट उपादेयता अध्यात्म ही सामने आती है। उन्हें वाह्याडम्बर का विरोधी कहा जाता है। वस्तुत: धर्म आज झगड़े का, हिंसा का कारण बन गया है। युग ने न तो धर्म का सही अर्थ समझा और न ही अध्यात्म का। यही कारण है कि हम आज कबीर को यह कह कर नकारने का प्रयत्न करते हैं कि कबीर अध्यात्म तक सीमित हैं। क्या बिना अध्यात्म के हम जीवन का विचार कर सकते हैं? धर्म का अर्थ भौतिक कर्मकाण्ड नहीं। हम जिसे धर्म समझते हैं वास्तव में तो वह संप्रदाय की आचार संहिता है। आचार संहिता जब आचारण को प्रभावित करने लगे तो वह निरर्थक हो जाती है और क्लेष का कारण बनती है। धर्म ज्ञानेन्द्रियों का विषय है। इसीलिए जब हम मनुष्यता की बात करते हैं तो वह धर्म की बात होती है। जब हम विश्व के प्राणी मात्र की एकात्मता की बात करते हैं तो वह आध्यात्म की बात होती है। जहाँ धर्म समाप्त होता है वहीं से आध्यात्म का प्रारंभ होता है। कबीर का बाह्याडम्बर भी धर्म का विरोध नहीं संप्रदायिक कर्म-काण्ड का विरोध है। इसीलिए सही मायने में जब कबीर को हम देखते हैं तो वह प्राणी मात्र की चिन्ता करते हैं।
कबीर शास्त्रीय धर्म की बार-बार आलोचना करते हैं, वह चाहे वेद-पुराण के सहारे चलने वाला हो या कुरान के सहारे; उस पर पंडितों- पुरोहितों का प्रभुत्व हो या मुल्लाओं-मौलवियों का कब्जा। लेकिन कबीर यह भी जानते हैं कि समाज मेेें लोकधर्म के नाम पर वह भ्रमजाल भी फैला होता है जिसे लोकाचार कहा जाता है। वह कई बार शास्त्रोक्त व्यवहार होता है। इसीलिए कबीर लोकाचार की भी आलोचना करत हैं-
ताथैं कहिये लोकोचार,
वेद कतेब कधैं व्यौहार।।
वे आँख मूँदकर सामन्यजन में प्रचलित विश्वासों को स्वीकार नहीं करते, उन्हें सजग आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हैं। कबीर के सामने यह लोकविश्वास था कि जो काशी में मरेगा वह मोक्ष पाएगा और मगहर में मरने वाला अगले जन्म में गदहा होगा। इस लोकविश्वास को मानने का अर्थ था भक्ति का निरादार।
लोकमति को भोरा रे।
जो कासी तन जतै कबीरा, तो रामहि कहा निहोरा रे।।
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कहैं कबीर सुनहु रे संतों भ्रमि परे जिमि कोई।
जस कासी तस मगहर ऊसर हिरदै राम सति होई।।
कबीर यह नहीं मानते कि जो लोकधर्म के नाम पर चल रहा है वह सब सत्य है। इसीलिए कहते हैं -‘लोका जानि न भूलो भाई।’ कबीर शास्त्रीय ज्ञान के बोझ से मुक्त हैं। कबीर जिस लोकधर्म का विकास कर रहे थे उसका मुख्य लक्ष्य है मनुष्य सत्य या मनुष्यत्व का विकास। कबीर कहते हैं-
‘पुष्पे ब्रह्मा पाती विष्णु, फूल महादेवा।
भूली मालिन पाती तोड़े करती किसकी सेवा।।’
यह अध्यात्म का चरम ही नहीं आज के पर्यावरण का भी सत्य है तो जीव मात्र के प्रति संवेदना का उदाहरण भी। तभी तो आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि-‘कबीर ने मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्र श्रेणी की जनता में आत्मगौरव का भाव जगाया।’
कबीर का काव्य प्रश्रावली है। कबीर की प्रश्र करने की प्रवृत्ति अपने काल के कवियों में सर्वश्रेष्ठ थी। कबीर के प्रश्र जितने सरल और बेलाग हैं उतने ही तीखे और तिलमिला देने वाले। वे कभी-कभी सुकरात की तरह अज्ञानी बनकर प्रश्र करते हैं और ज्ञानियों की पोल खोल देते हैं। प्रश्र की प्रवृत्ति ही कबीर की कविता में व्यंग्य को विशिष्ट सामाजिक कला बनाती है। वही प्रवृत्ति पाठकों को प्रश्र पूछने की प्रेरणा और निर्भीक दृष्टि भी देती है। क बीर केवल प्रश्र नहीं करते। यदि वे ऐसा करते तो आज के कवियों की भांति केवल विरोध और असहमति के कवि रह जाते। यही कारण है कि कबीर आज भी प्रासंगिक हैं। कबीर की सामाजिक सजगता असहमति और विरोध से आगे बढक़र समाज में मनुष्यत्व की भावना को विकसित करने और मनुष्य सत्य की प्रतिष्ठा करने के लक्ष्य को सामने रखती है। समाज में मानवीय भावों और मानवोचित गुणों के प्रसार के लिए मनुष्य विरोधी भावों को हटाना आवश्यक होता है इसीलिए कबीर ईष्र्या, क्रूरता, कामुकता, कपट, अहंकार, पाखंड आदि की आलोचना करते हैं और प्रेम करुणा, दया,उदारता,अहिंसा समात आदि मानवीय भावों और गुणों को लोकधर्म बनाने पर जोर देते हैं। वे बुद्ध की भाँति ‘अप्प दीपो भव’ की बात करते हैं। आज वस्तुत: अप्प दीपो भव की आवश्यकता है।
कबीर के लोकधर्म में व्यक्ति के आध्यामितक उत्कर्ष को अधिक महत्व मिलता है क्योंकि कबीर जानते हैं कि सच्ची मनुष्यता का उद्भव केन्द्र आध्यात्मिकता है। वे जब अपने लिए-धूत, अवधूत, रजपूत और जुलाहा की बात करते हैं तब उनका लोक और धर्म दूसरे कवियों की तुलना में भिन्न है और वह आध्यात्म के रूप में प्रकट होता है।
कबीर की भाषा अद्भुत है। हजारी प्रसाद जब उन्हें बाणी का डिक्टेटर कहते हैं तो सामन्य बात नहीं कहते। कबीर स्वयं भाषा के प्रति कितने सजग थे कि वे कहते हैं- ‘संस्कीरत है कूप-जल भाषा बहता नीर।’ साधो, संतों, पण्डितों, आदि शब्दों का पूरा भाव संसार लेकर वे चलते हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल मानते हैं कि ‘‘कबीर की साधना भक्ति की साधना है। कबीर ज्ञानी भक्त हैं। उनका सहजयोग और कुछ नहीं राम नाम की ही साधना है।’’ कबीर सभी मतों के सार तत्व को ग्रहण करते हैं। वे कहते हैं- साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय । सार सार को गहि रहे थोथा देय उड़ाय।।
कबीर हिन्दू और मुसलमान दोनों के बीच कोई भेद नहीं मानते इसलिए दोनों के बीच फैले बाह्याडम्बर का उन्होंने विरोध किय। वे कहते हैं-‘जो तू बाह्मन ब्राह्मनि जाया,आन राह ह्वै क्यों नहीं आया।’ आगे कहते हैं- ‘एक जोति से सब जब उतपना, का बामन का सूद्रा।’ मुसलमानो पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं- ‘दिन में रोजा रखत है रात हनत हैं गाय। यह तो खून वह बन्दगी कैसे खुषी खुदाय।’’ अजान और हज, काबा, रोजा, नमाज, अजान, सुनीति, मसीति आदि की ओर तर्क पूर्ण व्यवहार करने की बात कहीं। ‘‘कंकड़ पत्थर जोरि कर मस्जिद लई बनाय। ता चढि़ मुल्ल बाँग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।
कबीर निर्गण भक्ति हैं। उन्होंने पुराण पोषित अवतारवाद का विरोध किया-‘दसरथ सुत तिहु लोक बखाना। राम नाम को मरम है आना।’
कबीर दास योगियों का विरोध करते हैं किनतु गोरख नाथ को आदर के साथ याद करते हैं- ‘साथो गोरखनाथ ज्यां अमर भये कलिमाँह।’
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भक्तिकाव्य को लोकधर्म की अभिव्यक्ति मानते ळें और रमाविलास शर्मा उसे लोकजागरण का काव्य कहते ळं । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी भी लोकधर्म को भकित आंदोलन की जन्मभूमि मानते हें, लेकिन उनकी लोकधर्मकी धारणा शुक्ल जी से भिन्न है। आचार्य द्विवेदी लोकधर्म के मूल में कबीरदास की सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि मानते हैंं।
वर्तमान समय में कबीर की कविता इसलिए महत्वपूर्ण है क्यों कि कविता का संदेश है कि -1. करणी और कथनी की एकता पर विशेष बल । 2. चित्त और मन की शुद्धता। 3. साधकों को सारग्राही होना चाहिए। 4. ‘मध्यमार्ग’ की प्रतिष्ठा । द्वैत और अद्वैत, लोकमार्ग और पण्डित मार्ग,हिन्दू और मुसलामान,सुख और दुख के बीच सामंजस्य का मार्ग खोजा। 5. समस्त बाह्याचार व्यर्थ हैं, इनका आंतरिक साधना से कोई सम्बन्ध नहीं है। 6. ईष्वर पर पूरा समर्पण। 7. कामिनी कंचन का त्याग। 8. कबीर ज्ञानी भक्त थे उन्होंने ईश्वर की अनन्य भक्ति का उपदेश दिया है। इनके ‘मतवाद’ से शुद्ध स्नेह या भक्ति की प्राप्ति ही जीवन का चरम फल होना चाहिए। 9. कबीर को अवतार की भावना स्वीकार नहीं किन्तु राम-नाम की महिमा पर सर्वाधिक जोर दिया है। 10. गुरु का महत्व, यथा- जाके मन विष्वास है,सदा गुरु है संग। कोटि काल झकझोरहीं, तऊ न हो चित भंग।
अंत में - भक्ती द्राविड़ ऊपजी लाए रामानन्द।
परगट किया कबीर ने,सप्त दीप-नवखण्ड।
सन्दर्भ- हिन्दी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
कबीर -हजारी प्रसाद द्विवेदी
कबीर- डॉ. पीताम्बर दास बड़थ्वाल
यह सत्य है कि रचनाकार एक निश्चित परिवेश में जीता है। उसके जीवन का निर्माण उसके राष्ट्र और उसकी संस्कृति-परंपरा, रीति-रिवाज आदि पर निर्भर करती है किन्तु यह भी सत्य है कि रचनाकर का व्यक्तित्व उसे राष्ट्र और उसकी सीमाओं, काल और उसके युग से खींचकर विश्व स्तरीय बना देती हैं जो मानवीय संवेदनाओं को निरन्तर काल के साथ परिस्कृत और संवर्धित करती हैं यही रचनाकार की सार्थकता होती है। उसकी रचना कालजयी बनती है।
कबीर के समय भारतवर्ष पर इस्लामी देशों के अनेक आक्रमण हो चुके थे, और मुहम्मद गोरी के पश्चात हिन्दू राज-सत्ता छिन्न-भिन्न हो गई थी। हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के सामने युद्ध रत खड़े रहते थे। डॉ पीताम्बर दास बड़थ्वाल ने लिखा है- ‘‘15वी शताब्दी में भारत आध्यात्मिकता की धारा निर्गुण सम्प्रदाय में होकर प्रवाहित हुई। आध्यात्म चिन्तन धारा को यह गहन एवं नवीन स्वरूप प्रदान करने के मूल में राजनीतिक सामाजिक, धार्मिक तथा अन्य कारण थे। इस प्रकार कबीर, नानक, दादू, प्राणनाथ, मलूकदास, पलटू, साहिब आदि सन्तों द्वारा प्रवर्तित निर्गुण सम्प्रदाय द्वारा तत्कलीन युग की आवश्यकाओं की पूर्ति हुई।’’
कबीर कहते हंै- ‘झीनी-झीनी-बीनी चदरिया।’ आप स्वीकार करेंगे कि यह बात कबीर ही कह सकते हैं। कारण स्पष्ट है रचनाकर जब अपने कर्म के साथ एकात्म होता है तब सृजन की प्रक्रिया दिखाई देती है। कबीर प्रत्येक लौकिक और अलौकिक वस्तु को जुलाहे के साथ देखते हैं। उनके लिए ईश्वर भी एक बुनकर है। उनके अनुभवों का ताना भक्ति का बाना बन कर सामने आता है।
हरि मोर रहटा में रतन पियरिया।
हरि को नाम ले कातल बहुरिया
छ: मास ताग बरस दिन कुकरी
लोग बोले भल कातल बपुरी
कहे कबीर सूत भल काता
रहट न होय मुक्ति कर दाता।।
कबीरदास हिन्दी के सर्वश्रेठ कवियों में हैं वह तत्व की बात कहने वाले कवि माने जाते हैं । कबीर का काव्य हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि है। कबीर कहते हैं- ‘तू बाम्हन मैं कासी का जुलहा,बुझउ मोर गियाना।’ इसी तरह अन्य स्थान पर कहा- कहत कबीर कर गह तोरी,सूतहि सूत मिलाए कोरी।। अथवा जाति जुलाहा नाम कबीरा। बन बन फिरौं उदासी।।
चरखा कबीर का जीवनयापन का साधन है और पूजा की वस्तु भी। उनकी दृष्टि में जीवन के कर्म से धर्म अलग नहीं है। उनके कवि-कर्म और जीवन-धर्म में अद्भुत साम्य है। कारीगर कबीर के जीवन की कला ही उनकी कविता बन गई।
स्पष्ट है कि रचनाकार समाज में रहता हुआ युग की धारा को उसी तरह अनुभव करता है जिस तहर अन्य लोग। जितना बड़ा रचनाकर होगा उसका अपने रचना पर उतना ही प्रभाव दिखाई देगा। वह समाज का प्रतिनिधित्व करने के साथ-साथ समाज को दिशा-निर्देश करते हुए अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वाह करता है।
साहित्यकार की रचना में उसके समय की आत्मा बोलती है, उसकी आस्था व उसके विश्वास परिलक्षित होते हैं और वह रचना उस काल का सच्चा दर्पण होती है। और यही दर्पण आज का समय बन कर देखने वाले को अपना चेहरा दिखाता है। देखने वाला व्यक्ति हो, राष्ट्र हो या विश्व।
कबीर के अनुसार समाज में व्यक्ति का स्वरूप वीभत्स हो गया था। घमण्ड, मिथ्याभिमान, दुराचार, पाखण्ड, पारस्परिक अविश्वास, विषयवासना आदि के कारण सब दु:खी थे। निर्धन वर्ग सर्वथा उपक्षित था।-
निर्धन आदर कोई न देई। लाख जतन करै ओहिचित न घरेई।
जो निरधन सरधन कै जाई। आगे बैठा पीठ फिराई।
गरीबों का जीवन दूभर हो गया था- नित उठि कोरी गागरिया लै लीपत जनम गयो- इत्यादि।
डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है - ‘‘सामन्ती व्यवस्था में धरती पर सामन्तों का अधिकार था तो धर्म पर उन्हीें के समर्थक पुरोहितों का। संतों ने धर्म पर से पुरोहितों का इजारा तोड़ा। खास तौर से जुलाहों, कारीगरों, गरीब किसानों और अछूतों को सांस लेने का मौका मिला, यह विश्वास मिला कि पुरोहितों और शास्त्रों के बिना भी उनका काम चल सकता है।’’2
मनुष्य आज सब प्रकार के भौतिक सुख साधनों से सम्पन्न है, फिर भी वह दु:खी दिखता है, आखिर क्यों? पुरातन काल के मानवों की घटना पढऩे-सुनने पर लगता है कि वे जंगलों में रहकर कंद मूल खाकर जिन्दगी भर, आभाग्रस्तता की जिन्दगी बिताकर भी संतुष्ट और सुखी रहते थे। इस रहस्य को समझना हो तो उस तह तक जाना होगा जहाँ मनुष्य की विचार शक्ति और उसके चिन्तन वैभव का वास होता है।
हम जिस युग में जी रहे हैं वह वैज्ञानिक प्रगति के अतिंम सोपान का युग है। किन्तु मनुष्य बावजूद इसके सब प्रकार से क्लांत, अशांति, दु:ख, उदिग्रता से भरा है। आज के मनुष्य की दशा का चित्रण इलियट के इस कथन से होता है।
अंग्रेजी कवि इलियट अपने प्रत्येक जन्म दिन पर काले व भद्दे कपड़े पहनकर शोक मनाय करते थे और कहते थे- ‘‘अच्छा होता यह जीवन मुझे न मिलता, मैं दुनिया में न आता।’’
किन्तु कबीर इसके समर्थक नहीं वे तो इसके विपरीत अन्धे कवि मिल्टन के इस कथन से सहमत हैं जिसमें वे कहते थे-‘‘भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि उसने मुझे जीने का अमूल्य वरदान दिया।’’
भक्ति काव्य हिन्दी भाषा के काव्यत्व का उत्कर्ष है। कुछ लोगों का मानना है कि आज कि समकालीन हिन्दी आलोचना ने कबीर को आध्यात्म प्रेमी विदेशियों तथा उनके देशी सहयोगियों को सौंप दिया है। किन्तु क्या यह सत्य है? क्या भारतीय जीवन दर्शन को आध्यात्म से अलग कर देखा जा सकता है।
वर्तमान में जब हम कबीर की उपादेयता पर विचार करते हैं तो हमारे सामने उनके काव्य की उत्कृष्ट उपादेयता अध्यात्म ही सामने आती है। उन्हें वाह्याडम्बर का विरोधी कहा जाता है। वस्तुत: धर्म आज झगड़े का, हिंसा का कारण बन गया है। युग ने न तो धर्म का सही अर्थ समझा और न ही अध्यात्म का। यही कारण है कि हम आज कबीर को यह कह कर नकारने का प्रयत्न करते हैं कि कबीर अध्यात्म तक सीमित हैं। क्या बिना अध्यात्म के हम जीवन का विचार कर सकते हैं? धर्म का अर्थ भौतिक कर्मकाण्ड नहीं। हम जिसे धर्म समझते हैं वास्तव में तो वह संप्रदाय की आचार संहिता है। आचार संहिता जब आचारण को प्रभावित करने लगे तो वह निरर्थक हो जाती है और क्लेष का कारण बनती है। धर्म ज्ञानेन्द्रियों का विषय है। इसीलिए जब हम मनुष्यता की बात करते हैं तो वह धर्म की बात होती है। जब हम विश्व के प्राणी मात्र की एकात्मता की बात करते हैं तो वह आध्यात्म की बात होती है। जहाँ धर्म समाप्त होता है वहीं से आध्यात्म का प्रारंभ होता है। कबीर का बाह्याडम्बर भी धर्म का विरोध नहीं संप्रदायिक कर्म-काण्ड का विरोध है। इसीलिए सही मायने में जब कबीर को हम देखते हैं तो वह प्राणी मात्र की चिन्ता करते हैं।
कबीर शास्त्रीय धर्म की बार-बार आलोचना करते हैं, वह चाहे वेद-पुराण के सहारे चलने वाला हो या कुरान के सहारे; उस पर पंडितों- पुरोहितों का प्रभुत्व हो या मुल्लाओं-मौलवियों का कब्जा। लेकिन कबीर यह भी जानते हैं कि समाज मेेें लोकधर्म के नाम पर वह भ्रमजाल भी फैला होता है जिसे लोकाचार कहा जाता है। वह कई बार शास्त्रोक्त व्यवहार होता है। इसीलिए कबीर लोकाचार की भी आलोचना करत हैं-
ताथैं कहिये लोकोचार,
वेद कतेब कधैं व्यौहार।।
वे आँख मूँदकर सामन्यजन में प्रचलित विश्वासों को स्वीकार नहीं करते, उन्हें सजग आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हैं। कबीर के सामने यह लोकविश्वास था कि जो काशी में मरेगा वह मोक्ष पाएगा और मगहर में मरने वाला अगले जन्म में गदहा होगा। इस लोकविश्वास को मानने का अर्थ था भक्ति का निरादार।
लोकमति को भोरा रे।
जो कासी तन जतै कबीरा, तो रामहि कहा निहोरा रे।।
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कहैं कबीर सुनहु रे संतों भ्रमि परे जिमि कोई।
जस कासी तस मगहर ऊसर हिरदै राम सति होई।।
कबीर यह नहीं मानते कि जो लोकधर्म के नाम पर चल रहा है वह सब सत्य है। इसीलिए कहते हैं -‘लोका जानि न भूलो भाई।’ कबीर शास्त्रीय ज्ञान के बोझ से मुक्त हैं। कबीर जिस लोकधर्म का विकास कर रहे थे उसका मुख्य लक्ष्य है मनुष्य सत्य या मनुष्यत्व का विकास। कबीर कहते हैं-
‘पुष्पे ब्रह्मा पाती विष्णु, फूल महादेवा।
भूली मालिन पाती तोड़े करती किसकी सेवा।।’
यह अध्यात्म का चरम ही नहीं आज के पर्यावरण का भी सत्य है तो जीव मात्र के प्रति संवेदना का उदाहरण भी। तभी तो आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि-‘कबीर ने मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्र श्रेणी की जनता में आत्मगौरव का भाव जगाया।’
कबीर का काव्य प्रश्रावली है। कबीर की प्रश्र करने की प्रवृत्ति अपने काल के कवियों में सर्वश्रेष्ठ थी। कबीर के प्रश्र जितने सरल और बेलाग हैं उतने ही तीखे और तिलमिला देने वाले। वे कभी-कभी सुकरात की तरह अज्ञानी बनकर प्रश्र करते हैं और ज्ञानियों की पोल खोल देते हैं। प्रश्र की प्रवृत्ति ही कबीर की कविता में व्यंग्य को विशिष्ट सामाजिक कला बनाती है। वही प्रवृत्ति पाठकों को प्रश्र पूछने की प्रेरणा और निर्भीक दृष्टि भी देती है। क बीर केवल प्रश्र नहीं करते। यदि वे ऐसा करते तो आज के कवियों की भांति केवल विरोध और असहमति के कवि रह जाते। यही कारण है कि कबीर आज भी प्रासंगिक हैं। कबीर की सामाजिक सजगता असहमति और विरोध से आगे बढक़र समाज में मनुष्यत्व की भावना को विकसित करने और मनुष्य सत्य की प्रतिष्ठा करने के लक्ष्य को सामने रखती है। समाज में मानवीय भावों और मानवोचित गुणों के प्रसार के लिए मनुष्य विरोधी भावों को हटाना आवश्यक होता है इसीलिए कबीर ईष्र्या, क्रूरता, कामुकता, कपट, अहंकार, पाखंड आदि की आलोचना करते हैं और प्रेम करुणा, दया,उदारता,अहिंसा समात आदि मानवीय भावों और गुणों को लोकधर्म बनाने पर जोर देते हैं। वे बुद्ध की भाँति ‘अप्प दीपो भव’ की बात करते हैं। आज वस्तुत: अप्प दीपो भव की आवश्यकता है।
कबीर के लोकधर्म में व्यक्ति के आध्यामितक उत्कर्ष को अधिक महत्व मिलता है क्योंकि कबीर जानते हैं कि सच्ची मनुष्यता का उद्भव केन्द्र आध्यात्मिकता है। वे जब अपने लिए-धूत, अवधूत, रजपूत और जुलाहा की बात करते हैं तब उनका लोक और धर्म दूसरे कवियों की तुलना में भिन्न है और वह आध्यात्म के रूप में प्रकट होता है।
कबीर की भाषा अद्भुत है। हजारी प्रसाद जब उन्हें बाणी का डिक्टेटर कहते हैं तो सामन्य बात नहीं कहते। कबीर स्वयं भाषा के प्रति कितने सजग थे कि वे कहते हैं- ‘संस्कीरत है कूप-जल भाषा बहता नीर।’ साधो, संतों, पण्डितों, आदि शब्दों का पूरा भाव संसार लेकर वे चलते हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल मानते हैं कि ‘‘कबीर की साधना भक्ति की साधना है। कबीर ज्ञानी भक्त हैं। उनका सहजयोग और कुछ नहीं राम नाम की ही साधना है।’’ कबीर सभी मतों के सार तत्व को ग्रहण करते हैं। वे कहते हैं- साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय । सार सार को गहि रहे थोथा देय उड़ाय।।
कबीर हिन्दू और मुसलमान दोनों के बीच कोई भेद नहीं मानते इसलिए दोनों के बीच फैले बाह्याडम्बर का उन्होंने विरोध किय। वे कहते हैं-‘जो तू बाह्मन ब्राह्मनि जाया,आन राह ह्वै क्यों नहीं आया।’ आगे कहते हैं- ‘एक जोति से सब जब उतपना, का बामन का सूद्रा।’ मुसलमानो पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं- ‘दिन में रोजा रखत है रात हनत हैं गाय। यह तो खून वह बन्दगी कैसे खुषी खुदाय।’’ अजान और हज, काबा, रोजा, नमाज, अजान, सुनीति, मसीति आदि की ओर तर्क पूर्ण व्यवहार करने की बात कहीं। ‘‘कंकड़ पत्थर जोरि कर मस्जिद लई बनाय। ता चढि़ मुल्ल बाँग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।
कबीर निर्गण भक्ति हैं। उन्होंने पुराण पोषित अवतारवाद का विरोध किया-‘दसरथ सुत तिहु लोक बखाना। राम नाम को मरम है आना।’
कबीर दास योगियों का विरोध करते हैं किनतु गोरख नाथ को आदर के साथ याद करते हैं- ‘साथो गोरखनाथ ज्यां अमर भये कलिमाँह।’
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भक्तिकाव्य को लोकधर्म की अभिव्यक्ति मानते ळें और रमाविलास शर्मा उसे लोकजागरण का काव्य कहते ळं । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी भी लोकधर्म को भकित आंदोलन की जन्मभूमि मानते हें, लेकिन उनकी लोकधर्मकी धारणा शुक्ल जी से भिन्न है। आचार्य द्विवेदी लोकधर्म के मूल में कबीरदास की सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि मानते हैंं।
वर्तमान समय में कबीर की कविता इसलिए महत्वपूर्ण है क्यों कि कविता का संदेश है कि -1. करणी और कथनी की एकता पर विशेष बल । 2. चित्त और मन की शुद्धता। 3. साधकों को सारग्राही होना चाहिए। 4. ‘मध्यमार्ग’ की प्रतिष्ठा । द्वैत और अद्वैत, लोकमार्ग और पण्डित मार्ग,हिन्दू और मुसलामान,सुख और दुख के बीच सामंजस्य का मार्ग खोजा। 5. समस्त बाह्याचार व्यर्थ हैं, इनका आंतरिक साधना से कोई सम्बन्ध नहीं है। 6. ईष्वर पर पूरा समर्पण। 7. कामिनी कंचन का त्याग। 8. कबीर ज्ञानी भक्त थे उन्होंने ईश्वर की अनन्य भक्ति का उपदेश दिया है। इनके ‘मतवाद’ से शुद्ध स्नेह या भक्ति की प्राप्ति ही जीवन का चरम फल होना चाहिए। 9. कबीर को अवतार की भावना स्वीकार नहीं किन्तु राम-नाम की महिमा पर सर्वाधिक जोर दिया है। 10. गुरु का महत्व, यथा- जाके मन विष्वास है,सदा गुरु है संग। कोटि काल झकझोरहीं, तऊ न हो चित भंग।
अंत में - भक्ती द्राविड़ ऊपजी लाए रामानन्द।
परगट किया कबीर ने,सप्त दीप-नवखण्ड।
सन्दर्भ- हिन्दी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
कबीर -हजारी प्रसाद द्विवेदी
कबीर- डॉ. पीताम्बर दास बड़थ्वाल
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