Monday, 16 December 2019

बिहारी

 बिहारी
कविवर बिहारी लाल- हिन्दी के शृंगारी कवियों में सर्वाधिक ख्याति प्राप्त करने वाले कवि बिहारी हैं। बिहारी रीति काल के ऐसे कवि हैं जिनकी प्रशंसा न केवल भारतीय करते हैं, बल्कि अभारतीय विद्वान भी इनके काव्य के उतने ही प्रशंसक हैं। इनकी प्रसिद्धि का एक मात्र कारण इनकी ‘सतसई’ है। ‘रामचरितमानस’ के बाद यह एक ऐसी रचना है जिसका सर्वाधिक अनुवाद हुआ है। इसके संस्कृत अनुवाद को देखकर कई बार लोग भ्रमित हो जाते हैं कि यह संस्कृत की रचना है। कविवर बिहारी स्वयं कहते हैं- ‘‘किसी कवि का यश उसकी रचनाओं के परिमाण के हिसाब से नहीं होता, गुण के हिसाब से होता है।’’ बिहारी सतसई के सम्बन्ध में प्रसिद्ध है- ‘‘सतसैया के दोहरे ज्यौ नाविक के तीर,देखन में छोटे लगें, घाव करैं  गंभीर।।’’ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने बिहारी का जन्म सं.1660 माना है। बिहारी सतसई इनकी प्रौढ़ काल की रचना है। इसका रचना काल सं.1719 माना जाता है। बिहारी के जन्म के सम्बन्ध में अनेक विवाद होने के बावजूद अब यह मान लिया गया है कि इनका जन्म ग्वालियर में ही हुआ है। हाँ इनका जीवन मथुरा, आगरा, बुंन्देल खण्ड तथा जयपुर में बीता। बिहारी का आचार्य केशवदास से सम्बन्ध लगभग आठ वर्ष की उम्र में ही हो गया था। इन्होंने के शव दास के अन्य ग्रंथों के अलावा ‘कवि प्रिया’ और ‘रसिक प्रिया’ का सम्यक अध्ययन किया। बिहारी ने संस्कृत नरहरि दास से सीखी। बिहारी को अपने साथ ले जाने की आज्ञा शाहजहां ने इन्हीं नरहरिदास से प्राप्त की थी। शाहजहां के दरबार में बिहारी का सम्पर्क आचार्य पंडितराज जगन्नाथ से काफी घनिष्ट हो गया। शाहजहां के यहाँ ही बिहारी का सम्बन्ध अब्दुर्रहीम खानखना से हुआ। खानखाना बिहारी की काव्य-प्रतिभा से अत्यधिक प्रसन्न हुए थे और उन्हें पुरस्कृत भी किया था, किन्तु बिहारी बहुत समय तक शाहजहां के दरबार में नहीं रह सके और सं.1692 वि. में वे महाराजा मिर्जा राजा जय सिंह के पास जयपुर पहुँचे। किंतु राजा अपनी नव परिणीता के साथ पत्नी प्रेम में इतने मगन थे कि राजकाज के लिए दरबार आने की सुधि भी उन्हें न रहती थी। ऐसे में बिहारी ने अपने एक सतसई से राजा का मानस पलट दिया।
‘नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल।
अली कली ही साके बंध्यो, आगे कौन हवाल।।’
कहते हैं मिर्जा राजा जय सिंह यह दोहा पढक़र उसका आशय हृदयंगम कर दरबार में आए और बिहारी की काव्य-प्रतिभा से प्रभावित होकर बिहारी को बहुत सारा धन दिया। और आगे प्रत्येक दोहे पर एक अशरफी देने का वचन दिया। इस पर बिहारी ने सतसई की रचना की जिसके बारे में स्वयं बिहारी लिखते हैं-
                                    ‘हुकुम पाइ जय सिंह कौ, हरि राधिका प्रसाद।
                                    करी बिहारी सतसई, भरी अनेक संवाद।’
बिहारी का जय सिंह को एक दोहा लिखकर भेजने की घटना अत्यन्त महत्व की है जिसमें यह सिद्ध होता है कि उन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा के बल पर एक कर्तव्यच्युत राजा को राजकाज की सीख दी। इसमें आचार्य मम्मट की यह पंक्ति ध्वनित होती है- ‘‘काव्यं...कान्तासम्मतयोपुदेशयुजे।’’ बिहारी की जीवनानुभूति अत्यन्त गहन थीं, उनमें  मानव स्वभाव परखने की अद्भुत क्षमता थी। नागरिक संस्कृति से उनका लगाव था। प्रकृति के विभिन्न व्यापारों में उन्होंने मानवीय मनोदशा का आरोपण किया था और नर-नारी के पारस्परिक सम्बन्ध-ज्ञान को उन्होंने अपने दोहों में समाविष्ट किया था। विभिन्न विद्धानों के सम्पर्क में आने तथा अनेक भाषाविद् होने के कारण बिहारी के काव्य तथा उनकी भाषा पर इसका प्रभाव दिखता है। राजनीति की दुरभि सन्धि को भी विभिन्न हिन्दू-मुसलमान राज दरवारों में बिहारी ने देख लिया था। तत्कालीन राजा और सरदार किस प्रकार सत्ता के लिए अपने सगे भाइयों को मार देते थे और हिन्दू सम्राट अपने स्वार्थ के कारण किस प्रकार मुगल संम्राटों से अपने ही सजातीय राजाओं का विरोध करते थे। मिर्जा राजा जय सिंह को बिहारी ने संभवत: ऐसे कुकृत्यों से बचाने के लिए ही यह दोहा लिखा होगा-
‘स्वारथ सुकृत न श्रम बृथा देखि बिहंग बिचारि।
                                      बाज पराये पानि पर तू पच्छीन न मारि।।’
बिहारी अपने दोहों के माध्यम से राज दरवारों की अनुचित नियुक्तियों, प्रोत्साहनों पर भी उंगली उठाते थे, यथा-
‘दिन दस आदर पाइ कै, करि लै आपु बखान।
जौ लगि काग सराध परबु, तौ लग तौ सनमान।’
                                                              तथा
‘मरतु प्यात पिंजरा परयो, सुआ समय कै फेर।
आदर दै दै बोलियत, बायसु बलि की बेर।।’
उक्त दोहे यह सिद्ध करते हैं कि बिहारी अपने समय की राजनीतिक स्थिति से कितनी बारीकी से परिचित थे। बिहारी का समाज बड़े-बड़े सरदारों, राजाओं और उनके मुसाहिबों का समाज था। इसीलिए बिहारी का ग्राम्य जीवन से ज्यादा सम्बन्ध नहीं रहा। निम्न दोहा इसकी व्यथा कथा बखान कर रहे हैं-
‘वे न इहां नागर बढ़ी जिन आदतो आब।
फूलो अनफूल्यों भयौ, गवंई गांव गुलाब।।
चल्यो जाइ, ह्यां को करै, हाथिन के व्यापार।
नहिं जानतु, इहिं पुरबसै, धोबी और कुंभार।।’
बिहारी ग्राम-बधुओं का यत्र-तत्र स्वाभाविक शृंगार भी किया है किंतु वहाँ भी उन्होंने उन ग्रामीण स्त्रियों को ‘गांवारि’ शब्द से ही सम्बोधित किया है-
‘गोरी गदकरी परैं, हँसत कपोलन गाड़।
कैसी लसति गँवारि यह, सुनकरि वाकी आड़।।
गदराने तन गोरटी, ऐपन आड़ लिलार।
हूठयौ दै इठलाय दृग, करैं गँवारि सुमार।।’
कहा जा चुका है कि ‘रीतिसिद्ध’ कवि अपने पूर्ववर्ती संस्कृत के शृंगारी मुक्तक कवियों की परंपरा में आते हैं। ‘बिहारी’ हिन्दी के शृंगार मुक्तक कवि-माला के तो ‘सुमेरु’ हैं। आचार्य पद्य सिंह शर्मा ने बिहारी के ऐसे दोहों का अध्ययन किया है जिसमें संस्कृत ग्रंथों का प्रभाव देखा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर यहाँ निम्न दोहों को देखना प्रासंगिक होगा, यथा-
‘अज्यौं न आये सहज रंग, बिरह दूबरे गात।
अब ही कहा चलाइयत, ललन चलन की बात।’’
तुलना देखिए-
‘अब्वो दुक्करआरअ पुणो वि तन्ति करेसि गमण्स्स।
अज्ज विण होन्ति सरला वेणीअ तरंगिणी चिउरा।।’
गाथा के अनुसार नायिका नायक से कह रही है कि तुम्हारे विदेश प्रवास के वियोग के कारण हमने कभी शृंगार नहीं किया जिसके कारण हमारे बाल अभी तक उलझे हैं, अभी तुम्हारे आने पर भी मैं उन्हे सुलझा नहीं पाई और प्रियतम तुम फिर जाने की बात कह रहे हो। गाथाकर ने प्रस्तुत दोहे में मार्मिक चमत्कार भरा है। इसी तरह बिहारी की नायिक इतनी दुबली हो गई है कि उसके पूर्व की चमक दमक  अभी तक नहीं लौटी।
इसी तरह इसे देखें-
‘‘स्वारथ सुकृत न श्रम बृथा, देखि बिहंग बिचारि।
 बज पराये पानि पर,तू पंछीहि न मारि।।
‘आयास: परहिंसा वैतंसिक सारमेव! तब सार।
 त्वामपसार्य विभाज्य: कुरंग एषोऽधुनैवान्यै::।।’
आचार्य गोर्वधन ने अपने श्लोक में कुत्ते की अन्योक्ति से जो बात कहलानी चाही है उसे ‘बिहारी’ ने ‘बाज’ पक्षी के द्वारा कहला दी है। दोनों का उद्देश्य एक ही है तथापि कुत्ता पराश्रयी है। वह अपने स्वामी की आज्ञा का पालन विवश होकर भी करेगा ही पर बाज पराश्रयी नहीं है। अतएव उसका इस प्रकार से दूसरे के कहने पर अपनों की अथवा निर्दोश की हत्या उचित नहीं है। अत: तुलनात्मक ढंग से देखें तो बिहारी की उक्ति अधिक औचित्य पूर्ण है। जिस समय रीति कालीन कवि अपनी रचना सवैया, घनाक्षरी छंदों में कर रहे थे, बिहारी ने अपने लिए अत्यंत छोटा छंद दोहा को चुना। अपनी काव्य प्रतिभा को प्रदर्शित करने का इससे सार्थक माध्यम और क्या हो सकता था। बिहारी के दोहे का एक एक शब्द सार्थक और चमत्कार पूर्ण भाव से भरे हुए हैं। शृंगार, प्रेम, नीति, वैराग्य तथा प्रकृति निरूपण सभी कुछ इन दोहों में मिलता है। वास्तव में अब्दुर्रहीम खानखाना की यह युक्ति बिहारी के दोहों पर ही चरितार्थ होती है-
‘‘दीरघ दोहा अर्थ के, आखर थोरे आहि।
ज्यों रहीम नट कुंण्डली, समिटि कूदि कढि़ जाहिं।।’
बिहारी की एक और विशेषता है कि बिहारी ने काव्य शास्त्रीय विधान से नख शिख वर्णन नहीं किया है किन्तु उनका दोहे में वर्णित नायिका का शृंगार चमत्कारिक है:-
‘पग पग मन अगमन परति, चरन अरुन दुति झूलि।
ठौर ठौर ललियत उठे, दुपहरिया से फू ल।।
नायिका का पारदर्शी सौन्दंर्य देखें-
‘खरी लसत गोरी गरे, घंसति पान की पीक।
मनो गुलूबन्द लालकी, लाल-लाल दुति लीक।।’
बिहारी ने शृंगार वर्णन के प्रसंग में संयोग और वियोग दोनों पक्षों का वर्णन किया है, किंतु संयोग-वर्णन में उनकी वृत्ति जैसी रमी है, वह वियोग में नहीं दिखई देती है। वियोग वर्णन के मुख्यत: चार प्रकार बतलाये गए हैं- (1) पूर्वाराग (2) मान (3) प्रवास (4) करुण। प्रथम तीनों के  उदाहरण ‘बिहारी सतसई’ में मिल जाते हैं। करुण रस का उदाहरण बिहारी की सतसई में नहीं हैं। मान के भी दो भेद बताए गये हैं। जिनमें बिहारी ने खंडिता नायिका के प्रसंग में ईष्र्यामान चित्रित किया है, किंतु इस चित्रण में बिहारी ने न केवल नायक के शरीर पर लगे हुए रति-चिन्हों का ही उल्लेख किया है। उन्होंने नायिका के व्यंग्य वचनों से उत्पन्न नायक की मानसिक प्रतिक्रिया का चित्रण नहीं किया। अतएव यह वर्णन चमत्कार प्रधान हो गया-
‘प्रान प्रिया हिय में बसे नख-रेखा ससि-भाल।
भलो दिखायो आन यह हरिहर-रूप रसाल।
ससि बदनी मीकों कहत हौं समझी निजु बात।
नैन-नलिन प्यो रावरे न्याय निरखि नय जात।।’
बिहारी अपनी बहुज्ञता के लिए भी प्रसिद्ध हैं। बिहारी ने भक्ति तथा दर्शन सम्बन्धी दोहों की भी रचना की है जिनमें बिहारी का दैन्य, सख्य तथा उपालम्भ भाव भी देखा जा सकता है। बिहारी ने ज्योतिष, वैद्यक, गणित तथा संगीत सम्बन्धी अपनी जानकारी भी सतसई में दी है। अत: लक्षण ग्रंथ न होने पर भी सतसई को काव्य-शिक्षा का प्रमुख ग्रंथ माना गया है। इसके अतिरिक्त बिहारी ने भले ही शास्त्रीय रचना न की हो किंतु उन्हे रस, ध्वनि, अलंकार, वक्रोक्ति आदि का पूरा ज्ञान था। इसके अतिरिक्त इनके दोहों में सभी वृत्तियों का प्रयोग हुआ है। प्रसाद और माधुर्य की इसमें अधिकता दिखाई देती है। इससे सिद्ध होता है कि बिहारी एक सिद्ध हस्त कवि थे। बिहारी अपने समाहार-शक्ति के लिए जाने जाते हैं। बिहारी ने लिखा है- ‘वह चितवनि औरै कछू, जेहि बस होत सुजान’’।
दोहे व्याख्या सहित

1. मेरी भवबाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
      जा तन की झाँई परे स्याम हरित दुति होय।
 प्रसंग- इस दोहे में कवि ने मंगलाचरण करतेहुए राधा और कृष्ण  का स्मरण किया है। ओर साथ ही अपने काव्य के नायक और नायिका की झलक भी दे दी है- शब्दार्थ: - भवबाधा= संसार में रहने का कष्ट। झांई= छाया, नागरि=नगर की रहनेवाली, सुस्कृत।
अर्थ- वह नगर-बाला राधा मेरे इस संसार के कष्टों को दूर करें, जिनके शरीर की छाया पड़ते ही श्याम अर्थात् कृष्ण प्रसन्न हो उठते हैं। श्याम का अर्थ नीला होता है; इस दृष्टि से श£ेष अलंकार के कारण इस दोहे का  अर्थ  यह भी होगा कि वह राधा मेरे दु:ख दूर करें, जिनके शरीर की छाया पडऩे से नीला रंग हरा पड़ जाता है। नीले रंगमें पीला रंग लिने से हरा बनता है। इससे यह व्यंजना होती है कि नायिाक राधा का रंग कुन्दन के समान पीला है।
अलंकार- श£ेष।
2. तजि तीरथ हरि-राधिका-तनु -दुति करि अनुराग।
जिहि ब्रज केलि निकुंज मग पग-पग होत प्रयाग।।
 शब्दार्थ: तनु-दुति= शरीर सौन्दर्य। केलि = प्रेम लीला। मग= मार्ग।
अर्थ: तीर्थ यात्रा को छोडक़र राधा और कृश्ण की रूप छटा से प्रेम करो। ब्रज भूमि में जिनकी प्रेम लीला के निकुंजों के मार्ग में पग-पग पर प्रयाग बने हुए हैं, अर्थात जहां राधा-कृष्ण  ने ब्रज मंडल में प्रेम लीलाएँ की थंी, वहाँ की भूमि का प्रत्येक खंड प्रयाग के समान पवित्र है।
प्रयाग में गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम होने के कारण उसे बहुत पवित्र माना जाता है।
अलंकार- तद्गुण।
3.       सीस मुकुट,कटि काछनी, कर मुरली, उर माल।
यहि बानिक मो मन बसो सदा बिहारीलाल।।
शब्दार्थ: काछनी =धोती। बानिक = रूप।
अर्थ: सिर पर मुकुट सजा है, कमर में धेती बंधी है, हाथ में बाँसुरी है और वक्षस्थल पर माला पड़ी हुई है। हे कृष्ण! तुम इसी रूप में मेरे मन मे निवास करते रहो।
इस दोहे में शंृगार रस के नायक का रूप व्यंजित किया गया है। कुकुट गौरव का चिन्ह है, धोती सुसंस्कार का, मुरली कला-प्रेम का और माला विलास का।
4.  या अनुरागी चित्त की , गति समुझै नहि कोंय।
ज्यों ज्यों बूडै़ श्याम रंग, त्यौं त्यौं उज्ज्वल होय।।
शब्दार्थ: अनुरागी= प्रेम। गति=चालढाल। बूड़ै= डूबै। श्याम रंग= काला रंग या कृष्ण का प्रेम।
अर्थ: हे सखी , मेरे इस प्रेमी चित्त की दशा ऐसी अद्भुत है कि उसे कोई समझ नहीं पाता। ज्यों-ज्यौ वह काले रंग (श£ेष से कृष्ण के प्रेम में) डूबता है, त्यों-त्यों उजला होता है।
शान्तरस परक अर्थ- मेरे इस अनुरागी चित्त की दशा को कोई समझा नहीं पाता। ज्यों-ज्यों यह भगवान के प्रेम में डूबता है, त्यों-त्यों  निर्मल होता जाता है।
   5.  करौ कुबत जग, कुटिलता, तजौं न दीनदयाल।
               दुखी होहुगे सरल चित, बसत  त्रिभंगी लाल।
शब्दार्थ: कुबत= निन्दा। कुटिलता= टेढ़ापन=,दुष्टता। सरल=सीधा,भोलाभाला। त्रिभंगी= तीन जगह से टेढ़े। कृष्ण= की बाँसुरी बजाते समय की मुद्रा त्रिभंगी कही जाती है,क्योंकि उसमें उनका शरीर तीन जगह से टेढ़ा मुड़ा रहता है।
अर्थ: हे दीन दयालु कृ ष्ण,चाहे लोग मेरी कितनी ही निन्दा क्यों  न करे, परन्तु मैं अपनी कुटिलता अर्थात् टेढ़ापन छोड़ूूंगा नहीं । क्योंकि यदि मैं कुटिलता  अर्थात् टेढ़ापन  छोडक़र  सीधा-सादा अर्थात् सरल बन जाऊँ तो मेरे चित्त में निवास करने में तुम्हें अपनी त्रिभंगी मुद्रा के कारण कष्ट होगा।
 भाव यह कि यदि मन सीध हआ और उसमें भगवान की टेढ़ी मूर्ति को रहना पड़ा तो वह मूर्ति कष्ट पायेगी, इसलिए भक्त सरल न बनकर कुटिल बने रहना चाहता है।
अलंकार-सम

6. मोहनि मूरति स्याम की अति अद्भुत गति जोय।
बसति सुचित अन्तर तऊ प्रतिबिम्बित जग होय।।
शब्दार्थ: जोय= देखिये। सुचित= सज्जन व्यक्ति का चित्त। अन्तर =अंदर।
अर्थ: देखिये, कृष्ण की मन मोहिनी मूर्ति का अजीब ही हाल है।यद्यपि वह सज्जन व्यक्तियेां के मन में भ्ीतर निवास करती है, फिर भी उसका प्रतिबिम्ब  सारे संसार मे दिखाई पड़ता  रहता है।
इसमें ध्वनि यह है कि जिस व्यक्तिके मन में भगवान् का ध्यान बना रहता है, उसेसारे संसार में भगवान् का रूप दिखाई पड़ता  रहता है।
7.    दीरघ साँस न लेहि दुख, सुख साईं नहिं भूलि।
 दई दई क्यों करत है, दई दई सु कबूल।।
शब्दार्थ: दीरघ साँस= लम्बी गहरी साँस। दई दई= दैव-दैव अर्थात भाग्य-भाग्य। दई दई=भगवान ने जो दिया है।
अर्थ- दु:ख आ पडऩे  पर तू लम्बे और गहरे साँस मत ले ( अर्थात् दुखी मत हो) और सुख प्राप्त होने पर साई अर्थात् भगवान  को भूल मत। तू भाग्य की रट क्यों लगाता है? भग्य ने या भगवान ने जो कुछ दिया है उसी को स्वीकार कर।
8.  चिरजीवो जोरी जुरै क्यों न सनेह गम्भीर।
को घटि, ये बृषभानुजा, वे हलधर के वीर।।
शब्दार्थ: वृषभानुजा= वृषभानु की बेटी या वृषभ की अनुजा अथा बैल की बहन। हलधर के वीर= हलधर, बलराम के भाई या हलधर, बैल के भाई।
अर्थ यह जोड़ी चिरजीवी हो। राधा और कृष्ण में क्येां न खूब गहरा  प्रेम हो, क्येांकि इन दोनों मे से कम कौन है!  ये वृषभानु की बैटी हैं ,तो वे बनराम के भाई हैं। परन्तु श£ेष से अर्थ हे कि ये बैल की बहिन हैं और वे बैल के भाई  हैं।
9.   अजौं तर्यौना ही रह्यौ, श्रुति सेवक इक अंग।
      नाक बास बेसर लह्यो, बसि मुकुतन के संग।।
शब्दार्थ- अजौं= आज भी। तर्यौना= 1. कर्णफूल, 2. तरा नहीं, पार नहीं पहुंचा। श्रुति=1. कान,2. वेद। इक अंग= अनन्य भाव से। नाक=1. नासिक,2. स्वर्ग। बेसर=1. नाक का आभूषण,2. तुच्छ, या क्षुद्र। मुकुतन=1. मोती,2 जीवन मुक्त या पुण्यात्मा।
 अर्थ: (अभूषण के पक्ष में) अनन्य भाव से कान का सेवन करने वाला यह आभूषण अब भी तर्यौना  कहलाता है जबकि मोतियों के संग निवास करके बेसर ने नासिका मे अपना निवास स्थन बना लिया है। (अभूषण के पक्ष में) अनन्य भाव से वेदों का सेवन करने वाला व्यक्ति अब तक भी तर नहीं पाया, जबकि जीवन मुक्तों अर्थात् धर्मात्माओं के साथ रहने वाले क्षुद्र व्यक्ति को भी स्वर्ग का निवास प्राप्त हो गया। यहाँ पर वेदाध्ययन की अपेक्षा सत्संग की उत्कृष्टता बतायी गई है।
यहाँ प्रस्तु अर्थ तो आभूषणों का वर्णन ही है , परनतु श£ेष से दूसरा अप्रस्तुत अर्थ भी रोचक बन गया है।
अलंकार- श£ेष का चमत्कार है।
10. जो न जुगुति पिय मिलन की, धूरि मुकुति मुख दीन।
     जो लहिये सँग सजन तौ, धरक नरक हूँ कीन।।
शब्दार्थ: युक्ति, उपाय। धूरि मुख दीन= मुँह में धूल डाल दी, अर्थात उसको  ठुकरा दिया । सजन =प्रियतम के साथ्र रहना मिले तो हमें नरक का भी भय नहीं है।
अर्थ: यदि प्रियतम के  साथ रहने का अवसर नहीं मिलता तो लाख सुख भी मुँह में धूल डाल देना जैसे है किन्तु यदि प्रियतम साथ हो तो नर्क भी स्वर्ग के समान लगता है। नरक का कोई भय नहीं लगता।
अलंकार- अनुप्रास।

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