अरविन्द एक्रोयड घोष से श्री अरविन्द की यात्रा
प्रो उमेश कुमार सिंह
कलकत्ता में एक
सम्भ्रांत परिवार था जिसके मुखिया थे श्रीकृष्णधन घोष। पत्नी स्वर्णलता देवी।
सम्पन्न परिवार की तीसरी संतान के रूप में
श्री अरविन्द का जन्म 15 अगस्त, 1947 को हुआ था। श्रीकृष्णधन घोष ने अपनी चिकित्सा
शिक्षा इंग्लैण्ड में पूरी कर कलकत्ता में सिविल सर्जन हुए। भारत आने के बाद भी
उनके ऊपर अंग्रेजियत का कितना अधिक प्रभाव था कि उन्होंने अपने बच्चों को ऐसे
शिक्षण संस्थाओं में रखा जहाँ भारतीय बच्चों की छाया उनके पुत्रों पर न पड़े। इतना
ही नहीं पुत्र का नाम भी अरविन्द एक्रोयड घोष रखा। पहले तीनों बच्चों की शिक्षा दीक्षा की व्यवस्था भारत के दार्जिलिंग में जहाँ प्राय: अंग्रेजी बच्चे पढ़ते थे, प्रबंधन से इस शर्त के साथ रखी की उनके बच्चों पर किसी भारतीय की छाया न पड़े। और
दो साल बाद 1879 में अपने बच्चों को मैनचेस्टर- (इग्लैण्ड) की स्कूल में भर्ती करा
दिया। मेधावी अरविन्द ने वहाँ अंग्रेजी, लैटिन
और फ्रेंच भाषाएँ सीखीं तथा गणित, इतिहास, भूगोल आदि सभी विषयों में अब्बल रहे।
वहाँ के प्रमुख कवियों की कविताएँ पढऩे के साथ ही वे बचपन से ही अंग्रेजी में कविताएँ लिखने लगे थे जो ‘फाक्स’ मैगजीन में छपा करती थीं। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर शिक्षक भी उनमें विशेष रूचि लेने लगे और व्यक्तिगत स्तर पर भी उन्हें पढ़ाने लगे। उन्हें इतिहास और साहित्य विषयों में पुरस्कार भी मिले। विद्यालय की अंतिम परीक्षा में प्रावीण्य सूची में आने पर उन्हें महाविद्यालय में छात्रवृत्ति दी गई। उन्होंने कैम्ब्रिज के किंग्स कालेज में प्रवेश लेकर स्नातक की पढ़ाई की। उनके प्रिय विषय थे, यूरोप का इतिहास तथा जर्मन, इटालियन और स्पेनिश भाषायें। ग्रीक भाषा भी उन्होंने सीखी। उन्हें ग्रीक और लैटिन कविताओं में भी पुरस्कार प्राप्त हुए।
वहाँ के प्रमुख कवियों की कविताएँ पढऩे के साथ ही वे बचपन से ही अंग्रेजी में कविताएँ लिखने लगे थे जो ‘फाक्स’ मैगजीन में छपा करती थीं। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर शिक्षक भी उनमें विशेष रूचि लेने लगे और व्यक्तिगत स्तर पर भी उन्हें पढ़ाने लगे। उन्हें इतिहास और साहित्य विषयों में पुरस्कार भी मिले। विद्यालय की अंतिम परीक्षा में प्रावीण्य सूची में आने पर उन्हें महाविद्यालय में छात्रवृत्ति दी गई। उन्होंने कैम्ब्रिज के किंग्स कालेज में प्रवेश लेकर स्नातक की पढ़ाई की। उनके प्रिय विषय थे, यूरोप का इतिहास तथा जर्मन, इटालियन और स्पेनिश भाषायें। ग्रीक भाषा भी उन्होंने सीखी। उन्हें ग्रीक और लैटिन कविताओं में भी पुरस्कार प्राप्त हुए।
अरविन्द और उनके दो भाइयों को जब इंग्लैंड में पढऩे भेजा था
तो उनके पिता उन्हें पर्याप्त धन भेज देते थे जिससे उन्हें असुविधा न हो। परन्तु
बाद में घर से पैसे आने कम हो गए जिससे उन्हें वहाँ आर्थिक तंगी में रहकर अध्ययन
करना पड़ा। अरविन्द वहाँ पर भारत से जाने वाले समाचार पत्रों को पढ़ते थे। विश्व
इतिहास पढऩे पर उन्हें अंग्रेजों की धूर्तता का ज्ञान हुआ। उन्हें देश की दासता से
बेचैनी होने लगी तथा उनके मन में भी देश के लिए कुछ करने की इच्छा प्रबल जागृत हो
उठी। अत: वे वहीं पर ‘कमल
और कटार’ तथा ‘इंडियन मजलिस’ से जुड़ गए। उनके पिता की इच्छा थी कि वे सिविल
परीक्षा उत्तीर्ण करके भारत लौटें और यहाँ वरिष्ठ अधिकारी बनें। उन्होंने
आई.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली परन्तु जानबूझकर घुड़सवारी की परीक्षा में
सम्मिलित नहीं हुए, जिससे वे उसे उत्तीर्ण न कर सके। अंग्रेजों की सेवा करके भारत
को गुलाम बनाए रखने में सहयोग देने के लिए वे कतई तैयार न थे।
भारत आगमन : 1893 में वे जिस जलपोत से भारत आ रहे थे, अफवाह फैली कि वह डूब गया है। इस सदमें से
हृदयाघात होने से उनके पिता का निधन हो गया। घर में आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया।
उनकी माता उनकी बहन एवं छोटे भाई के साथ अपने मायके देवघर आ गईं। 13-14 वर्ष बाद
अरविन्द वहीं देवघर में अपनी माता, बहन, भाई और अन्य सम्बन्धियों से मिले। वहाँ के
प्राकृतिक दृश्यों में अरविन्द को बहुत आनंद आता था। अरविन्द घोष का विवाह 1909
में बंगाल के एक अधिकारी की 14 वर्षीय पुत्री मृणालिनी से हुआ था, परन्तु वह उनके
साथ रहने का अवसर नहीं प्राप्त कर पाई।
लन्दन में उनका परिचय बड़ौदा के महाराजा गायकवाड़ से हो गया
था। बड़ौदा के महाराजा देश की प्रतिभाओं को सहयोग देने के लिए तत्पर रहते थे।
इंग्लैंड से लौटते समय ही उन्हें बड़ौदा महाराजा ने 200 रुपए प्रतिमाह माह पर
नियुक्त कर लिया। वहाँ वे भूमि एवं राजस्व विभाग देखने के साथ ही महाराजा के लिए
भाषण भी लिखने लगे। महाराजा उनसे बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने उनका वेतन 750
रुपए कर दिया। अरविन्द घोष महाराजा बड़ौदा की सेवा में होने के कारण राजनीति में
प्रत्यक्ष भाग नहीं ले सकते थे। अत: वे गुप्त रूप से अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध
सक्रिय रहते थे। अरविन्द ने उन्हें तीन सूत्री कार्यक्रम दिए-
1. सारे देश में गुप्त क्रांति चलाना ताकि सशस्त्र विद्रोह
किया जा सके।
2. स्वतंत्रता प्राप्ति की अलख जगाना ताकि लोग किसी भी दमन
के सामने न झुकें।
3. जनता का ऐसा संगठन बनाना जो संगठित रूप से विदेशी सत्ता
का विरोध करे। क्रांतिकारी विचारों के होने के बावजूद वे किसी की हत्या के पक्ष
में नहीं थे।
अब उन्हें लगने लगा कि गुप्त रूप से कार्य करते हुए वे
प्रभावशाली क्रांति को प्रसारित नहीं कर सकते। अत: उन्होंने देश के लिए जून,1907
में बड़ौदा सरकार की नौकरी छोड़ दी और कलकत्ता आकर एक नेशनल कालेज में प्राचार्य
बन गए जिसमें उन्हें यहाँ मात्र 75 रुपए वेतन मिलता था, जहाँ वे फ्रेंच एवं अंग्रेजी साहित्य भी पढ़ाते
थे। वहीं रहकर उन्होंने मराठी, गुजराती
एवं बाद में बंगला भाषा भी सीखी। अब उनके परिवार का खर्च तथा निस्तार अच्छी प्रकार
चल रहा था; साथ ही उन्हें अपनी क्रांतिकारी योजनाओं को क्रियान्वित करने का अवसर
प्राप्त हो रहा था। वे प्रात: आराम से उठते तथा चाय पीने के बाद कविता लिखते और
समाचार पत्र पढ़ते। रात्रि में देर तक अध्ययन करते और चिन्तन-मनन करते। उन्होंने
भारतीय साहित्य, दर्शन, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत, कालिदास साहित्य आदि का गहन अध्ययन किया और उन
पर आलेख भी लिखे। वे सावित्री से सर्वाधिक प्रभावित थे, जिसने अपने पति सत्यवान को
मरने के बाद जीवित कर दिया था। अपने जीवन के अंतिम समय तक वे उसी अमरत्व की खोज
में लगे रहे।
क्रांतिकारी अरविन्द : उनके कैम्ब्रिज के मित्र थे, देशपांडे। उनके आग्रह पर वे बम्बई से निकलने वाली पत्रिका ‘इन्द्रप्रकाश’ में लेख लिखने लगे। इस समय तक उनके अंदर
राष्ट्र-प्रेम अपनी जड़ें जमा चुका था। वे अपने लेखों में अंग्रेजी सरकार के
अन्याय एवं कांग्रेस की अकर्मण्यता पर जम कर लिखते। तत्कालीन कांग्रेस नेता महादेव
गोविन्द रानाडे ने दबाव डालकर उनके लेख छपने बंद करवा दिए। अरविन्द अपने भाषणों
द्वारा लोगों में राष्ट्रीय भावना भरने लगे, वे
कांग्रेस में भी जाने लगे। अपनी विद्वता एवं क्रांतिकारी विचारों के कारण वहाँ वे बाल गंगाधर तिलक, विपिनचन्द्र पाल एवं लाला लाजपतराय (बाल-पाल-लाल) के निकट आए और उनके सहयोगी हो गए।
1905 में जब बंग-भंग कानून पास हो गया तो कांग्रेस के अधिकांश नेता नरम पड़ गए, परन्तु गरमपंथी सदस्य आन्दोलन में कूद पड़े।
उनके भाई
बारीन्द्र घोष ने ‘युगांतर’ पत्रिका प्रारम्भ की। अरविन्द उन्हें सलाह और
लेख दोनों देते। उनके लेखों के कारण दोनों पर मुकदमा चलाया गया परन्तु उस समय उसका
सारा दोष स्वामी विवेकानन्द के भाई ने अपने ऊपर ले लिया और जेल चले गए। ये दोनों
भाई बच गए। 1907 में ‘वन्देमातरम’ समाचार-पत्र निकला। उसमें भी उनके लेख छपने लगे।
अरविन्द ने लिखा, ‘भारत
का अंत नहीं हो सकता, हमारी
जाति मर नहीं सकती, मानव
जाति में भारत का भाग्य सबसे ऊँचा है।’ उनका
एक पत्र छपा, ‘भारतीयों
की राजनीति’।
उनकी टिप्पणियों और लेखों से उनकी प्रतिष्ठा तो सारे देश में छा गई, परन्तु
अंग्रेजी सरकार विचलित हो गई। उन्हें पकड़ा गया, परन्तु थाने से ही उन्हें जमानत
मिल गई। बाद में मुकदमें में भी निर्दोष पाए गए और छूट गए। उन्होंने बंगला के एक
अन्य पत्र ‘धर्म’ का भी सम्पादन किया।
उसी वर्ष 1907 में सूरत में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन में गरम दल लाला लाजपत राय को और नरम पंथी रास बिहारी बोस को कांग्रेस अध्यक्ष बनाना चाहते थे। मंच पर जब तिलक बोलने के खड़े हुए तो स्वयं को नरम पंथी मानने वाले सदस्यों ने न केवल उनका माइक छीना अपितु मारपीट भी करने लगे, विरोधियों पर कुर्सियाँ और जूते फेंकने लगे। अरविन्द यह सब चुपचाप देखते रहे और नेताओं की पद, प्रतिष्ठा और नाम लोलुपता को समझते रहे। नरम पंथी अंग्रेजों के लिए नरम होने के कारण गरम पंथियों के विरोधी थे और उन्हें आगे नहीं आने देना चाहते थे। वे सुविधा भोगी राजनीति कर रहे थे। कांग्रेस के आपसी संघर्ष का यह प्रभाव हुआ कि अंग्रेजी सरकार को गरमपंथियों से निपटने में आसानी हो गई। वे समझ गए कि यदि सरकार गरम पंथियों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही करेगी तो कांग्रेस उसे मौन समर्थन देगी और उन्होंने दिया।
उसी वर्ष 1907 में सूरत में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन में गरम दल लाला लाजपत राय को और नरम पंथी रास बिहारी बोस को कांग्रेस अध्यक्ष बनाना चाहते थे। मंच पर जब तिलक बोलने के खड़े हुए तो स्वयं को नरम पंथी मानने वाले सदस्यों ने न केवल उनका माइक छीना अपितु मारपीट भी करने लगे, विरोधियों पर कुर्सियाँ और जूते फेंकने लगे। अरविन्द यह सब चुपचाप देखते रहे और नेताओं की पद, प्रतिष्ठा और नाम लोलुपता को समझते रहे। नरम पंथी अंग्रेजों के लिए नरम होने के कारण गरम पंथियों के विरोधी थे और उन्हें आगे नहीं आने देना चाहते थे। वे सुविधा भोगी राजनीति कर रहे थे। कांग्रेस के आपसी संघर्ष का यह प्रभाव हुआ कि अंग्रेजी सरकार को गरमपंथियों से निपटने में आसानी हो गई। वे समझ गए कि यदि सरकार गरम पंथियों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही करेगी तो कांग्रेस उसे मौन समर्थन देगी और उन्होंने दिया।
अब अंग्रेजी सरकार ने गरम पंथियों के विरुद्ध अभियान चलाया।
‘वन्देमातरम’ में छपी अरविन्द की लेखमाला ‘मृत्यु या जीवन’ के आधार पर उन्हें 5 मई, 1908 को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें अलीपुर
की कालकोठरी में एक वर्ष रखा गया। काल कोठरी का अर्थ ही है, नर्क के समान यातनाएं
देना। एकांत में अरविन्द का झुकाव अध्यात्म, प्राणायाम, योग आदि की ओर होने लगा। एकांत में अवसर मिलने
पर वे समाधि लगाने लगे। उधर तिलक को बर्मा में मांडले जेल भेज दिया गया। एक वर्ष
बाद अरविन्द छोड़ दिए गए। कुछ समय बाद कलकत्ते में एक बम बनाने की फैक्ट्री पकड़ी
गई। इसके लिए अरविन्द, उनके
भाई बारीन्द्र घोष समेत 36 लोग पकड़े गए। इस प्रकरण में अरविन्द घोष निर्दोष पाए
गए और छूट गए परन्तु उनके भाई बारीन्द्र घोष को काला पानी तथा अन्य लोगों को सख्त
सजाएं हुईं। अरविन्द के छूटने का अंग्रेजों को बहुत मलाल हुआ। लार्ड मिन्टो ने कहा, ‘यह सबसे खतरनाक आदमी है। इसका ध्यान हमें रखना
है।’ छूटने के बाद अरविन्द घोष ने अंग्रेजी
में ‘कर्मयोगी’ और बंगला में ‘धर्म’ नामक
कांन्तिकारी पत्र निकाले। वे काँटे को काँटे से निकालने में विश्वास रखते थे।
उसमें छपे लेखों के कारण सरकार उन्हें भी निपटाना चाहती थी और उनकी तलाश कर रही
थी।
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