शिवमंगल सिंह सुमन: मेरा युगधर्म और जीवन गान
प्रो उमेश कुमार सिंह
‘मैं शिप्रा-सा ही तरल सरल बहता हूँ, मैं कालिदास की शेष कथा कहता हूँ।
मुझको न मौत भी भय दिखला सकती है,मैं महाकाल की नगरी में रहता हूँ।’
सुमन जी जब अपना परिचय देते हुए अन्तर्मन से किल्लोल करती शिप्रा की तंरगों के साथ तरंगित हो उठते हैं, तब दर्शक, श्रोता और पाठक का झूमना सहज हैं। उस झण महसूस होता है कि सुमन जी का यह अन्त:राग केवल उनका राग नहीं, बल्कि सम्पूर्ण समष्टि का राग है। मुझे स्मरण आ रहा है, ‘न शिवेन बिना शक्ति न शक्तिरहित: शिव:। उमाशंकरयोरैक्यं य: पश्यति स पश्यति।।’ महाकाल और शिप्रा और कोई नहीं तो उस अर्धनारीश्वर की साक्षात अनुभूति है जिसमें कहा गया है कि शिव बिना शक्ति नहीं रहती और शक्ति बिना शिव नहीं रहते।
आखिर सुमन जी व्यास की कथा क्यों नहीं कहते, तुलसी की कथा क्यों नहीं कहते, वे केवल कालिदास की कथा और वह भी शेष कथा। वह कथा जो अभी शायद अधूरी है। अधूरी स्थूल और सूक्ष्म स्तर पर नहीं, बोध के स्तर पर। सुमन जी उसी बोध की ओर इसारा करते हुए कालिदास की शेष कथा कहने को आतुर हैं। इसके दो कारण समझ में आते हैं- एक, तुलसी और व्यास शिप्रा और उज्जयनी से उतने सीधे नहीं जुड़े हैं, जितना कालिदास। दूसरा, कालिदास एक व्यक्ति, एक सर्जक ही नहीं, व्यास और तुलसी की ही तरह भारतीय सनातन परम्परा से जुड़े हैं। सुमन जी मानते हैं कि एक व्यक्ति या एक सर्जक चाहे वह कितना ही बड़ा और प्रतिभाशाली क्यों न हो, अपने सम्पूर्ण समय को शब्द दे नहीं पाता है। विपुल और सारे महत्वपूर्ण लेखन के बाद भी बहुत कुछ छूट ही जाता है। उस छूटे हुए को अगली पीढ़ी को स्थालान्तरित करने की कोशिश सुमन जी करते हैं। वे परम्परा की बात करते हुए कहते हैं, ‘‘मैं भी कालिदास की ही परम्परा की एक कड़ी हूँ। मैंने अपनी सम्पूर्ण रचनात्मकता में बनारस, बैसवाड़ा, लखनऊ और मालवा को बार-बार और भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में व्यक्त किया। कालिदास ने जहाँ संकेत भर दिये हैं तथा कालिदास के बाद मालवा में जो कालगत परिवर्तन आये हैं, उन्हें जब-जब मैं अपने शब्दों में समेटता हूँ तो लगता है कि कुछ गेप्स मैं भी भर रहा हूँ। मसलन, मालवा के अफीम के खेतों का सौंन्दर्य तो अदभुत है। मैं सोचता रहा कि दशपुर का वर्णन करते हुए महाकवि की सौन्दर्य पारखी आँखें अफीम के खेतों के रंगोत्सव को देखने से कैसे वंचित रह गयी! क्या तब मालवा में अफीम की खेती नहीं होती थी। मैंने अपनी एक कविता ‘नशीली रंगीनी’ में इसी सौन्दर्य को व्यक्त किया है। इसी तरह उज्जैन की सडक़ों, गलियों, मालवा के खेत, गाँव, नदी-नालों यहाँ के लोगों को जब-जब भी अपने शब्दों में व्यक्त किया है। मुझे लगा है कि मैं कालिदास की शेष कथा ही कह रहा हूँ।’’
सुमन जी एक बड़ी बात कहते हुए हमारे सामने एक आदर्श रखते हैं, मुझको इस युग का नमक अदा करना है: सुमन जी क्षत्रियों में परिहार वंशीय हैं। अपना कुल परिचय कुछ इस प्रकार देते हैं, ‘‘निम्न मध्यवर्ग के किसान / जमींदार के घर झगरपुर-उत्तर प्रदेश, उन्नाव (बैसवाड़े) में जन्म पाया। रक्त परिहारों का था अत: कुल में सैन्य परम्परा बनी रही। प्रपितामह ठाकुर चन्द्रिका बख्श सिंह अंग्रेजों की फौज में रिसालदार थे। सन्् १८५७ के प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम में लखनऊ के बेरीगारद घेरे में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते हुए उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दी। इस तरह उनके कुल में शौर्य की ही नहीं, स्वातंत्र्य प्रेम की परम्परा भी रही है। प्रपितामह का घोड़ा अपने स्वामी के गिरने पर लहुलुहान अकेला घर पहुँचा तो घर में रोना-धोना मच गया। बिना सवार के घोड़े के लौटने का अर्थ ही उत्सर्ग होता था। वह घोड़ा निराहार अपने स्वामी की याद में थान में खड़ा-खड़ा आँसू बहाता रहा और तीसरे दिन वहीं गिरकर उसने दम तोड़ दिया। इतिहास में इतिहास-पुरुषों का ही नहीं, कुछ घोड़ों का उल्लेख भी है उनमें प्रपितामह का वह स्वामिभक्त घोड़ा इतिहास के प्रसिद्ध घोड़ों की श्रेणी में ही आ सकता है। मेरे प्रपितामह की तलवार, उस घोड़े की रकाब और उसका दहाना अपने कुल की अमूल्य धरोहर के रूप में सुरक्षित है।
पितामह ठाकुर बलराज सिंह ने रीवा स्टेट में एक साधारण सैनिक के रूप में कार्य प्रारम्भ किया। तब किसी को अनुमान भी नहीं होगा कि झगरपुर, रीवा राज्य के इतिहास के इतिहास में कुछ पृष्ठ जोड़ेगा। बाबा अश्वारोही सैनिक से प्रगति करते हुए कर्नल के पद पर पहुँच गये। पिता ठाकुर साहब बख्श सिंह ने ग्वालियर की ओर रुख किया पर चाचा प्रताप सिंह अपने पिता के पास रीवा में ही टिके रहे। बाद में पिता भी रीवा आ गये। ग्वालियर में साधारण सैनिक के रूप में कार्यारम्भ करने वाले पिता रीवा की फौज के जनरल बन गये। चाचा रीवा नरेश के ए.डी.सी.। झगरपुर में एक हल की खेती वाले ज़मींदार का यह उत्कर्ष था। उस समय रीवा के राजा थे। व्यंकटरमण सिंह जूदेव। इनके पिता स्व. रघुराज सिंह-रीवा नरेश का उल्लेख तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने-‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में विस्तार से किया है।’’
सुमन जी का रीवा (मध्यप्रदेश)से सम्बन्ध कैसे बनता है उन्हीें के शब्दों में : वे बताते हैं, ‘‘एक दिन महाराज व्यंकटरमण सिंह सरदारों के साथ इंग्लैण्ड से आये हथियारों को रुचि से देख रहे थे। पास ही में ड्यूटी पर चाचा खड़े थे। पता नहीं, कैसे एक रिवाल्वर लोडेड था। ट्रिगर दबा और गोली लगी हमारे चाचा को। वे लहूलुहान, बचने के कोई आसार नहीं थे। महाराज ने पूछा- ‘आपकी कोई इच्छा हो तो बतलाइए।’ डूबती साँसों में अपनी भतीजी अर्थात्् मेरी बड़ी बहन कीर्ति कुमारी का चेहरा झिलमिलाया। उसका ‘हाथ पीले’ होना बाकी है- कहकर रुक गए। महाराज ने भरे गले से कहा उसकी चिंता मत करो। जीवन शेष था इसलिए वे मौत के मुँह से लौट आये शायद उसी खुशी में महाराज ने मेरी बहन से ही ब्याह करने का प्रस्ताव रख दिया। मेरे बाबा घबराए कि ज़मीन, गाय-बैल और बरतन तक बेच दें तो भी एक राजा की बारात की खातिर करने की हमारी हैसियत नहीं। उनकी दुविधा देखकर महाराज ने कहा कि उसकी चिन्ता न कीजिए दोनों ओर का प्रबंध मेरी ही ओर से रहेगा। इस तरह स्वामी और सेवक का रिश्ता अटूट पारिवारिकता में बदल गया। झगरपुर की एक कन्या रीवा की राजरानी बन गयी। आज भी झगरपुर की नयी बाग के नाम से विख्यात आम की बगिया में बीचोबीच ईंटों का एक लम्बा चौड़ा चबूतरा इस अनहोनी के घटित होने का साक्षी है। मैं झगरपुर में अधिक नहीं रहा। पाँच वर्ष की आयु में पिता के पास रीवा आ गया। माँ झगरपुर में ही रहीं। रीवा से ही चौथी कक्षा मार्तण्ड स्कूल में तथा छठी कक्षा तक दरबार हाईस्कूल में पढ़ाई की। वहीं तैरना, घुड़सवारी और निशानेबाजी का प्रशिक्षण मिला।
प्रथम विश्वयुद्ध में एन्फ्लुएंजा की महामारी में महाराज व्यंकटरमण सिंह का असामयिक निधन हो गया। बहन १७ वर्ष की उम्र में विधवा हो गयी। महाराज के दो पुत्र थे, बड़े गुलाब सिंह जो बड़ी रानी से थे और छोटे रामानुज प्रताप सिंह की माँ मेरी बहन थीं। बाद में बहन पर आरोप लगाया कि गुलाब सिंह को मरवाने के लिए वे कोई ‘मारण’ अनुष्ठान करवा रही हैं, जिससे रामानुज प्रताप सिंह को रीवा की गद्दी मिल जाए। बहन को किले की चारदीवारी तक सीमित कर दिया गया। हमारा उनसे मिलना जुलना तक बन्द कर दिया गया। पिताजी बिना पेंशन के तत्काल रिटायर कर दिये गये। चाचा की जागीर भी छिनने को थी पर तत्कालीन ए.जी.पी. मेजर काल्विन की कृपा से किसी तरह बच गयी, पर महाराज गुलाब सिंह की शह पर साहूकार दशरथ बजाज ने पिता के जमा पचास हजार रुपये हजम कर लिए। हमारा खानदान अचानक आकाश से जमीन पर आ गया। रीवा छूटा और सब झगरपुर आ गये। पर मैं अपने चाचा केप्टन प्रताप सिंह के पास रीवा ही रहा। इस प्रकार हमारी किशोरावस्था रीवा में ही बीती। चाचा के बड़े पुत्र मेजर शिवप्रसाद सिंह उनसे कनिष्ठ शिव चरण सिंह और मैं रीवा की अमहिया कोठी में रहते थे। गरमी की छुट्टियों में कभी इक्के पर कभी अपने सुंदरगज नामक हाथी पर अमरपाटन (प्रतापगढ़) आया करते थे। फिर एक साथ ही तीनों भाई रीवा से बाहर पढऩे भेजे गए। मेरे दोनों बड़े चचेरे भाई इलाहाबाद पढऩे चले गए और मैं ग्वालियर।’’
ग्वालयिर में दीक्षित भी हुए और ग्वालियर में शिक्षित भी किया: ‘‘उन दिनों बड़े-भाई हरदत्त सिंह ग्वालियर में स्काउट इन्सपेक्टर थे तो मैं अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए उनके पास ग्वालियर चला गया। सातवीं कक्षा में वहाँ के विक्टोरिया कालिजिएट हाईस्कूल में मैंने प्रवेश लिया..। मैं तो सैनिक नहीं हो सका पर मेरे बड़े चचेरे भाई शिवप्रसाद सिंह सेना में मेजर और दूसरे चचेरे भाई शिवमोहन सिंह सी.आर.पी.एफ.में डी.जी. रहे। मेरा पुत्र अरुण कुमार सिंह भी इसी परम्परा में सी.आर.पी.एफ. में डी.आई.जी. हैं। इसी सैन्य परम्परा को आगे बढ़ाते हुए मेरे एक पौत्र हर्षवर्धन सिंह ने भी लेफ्टिनेंट के रूप में भारतीय सेना में प्रवेश लेकर कमाण्डारों की कठिन ट्रेनिंग पूरी की है। श्री अटल बिहारी वाजपेयी के पिता श्री कृष्णबिहारी वाजपेयी मेरे हिन्दी के अध्यापक थे। उनका पढ़ावा ‘शिव पार्वती विवाह प्रसंग’ आज भी भुलाये नहीं भूलता। यह संयोग ही है कि बाद में श्री अटल बिहारी वाजपेयी मेरे विद्यार्थी हुए पर यह तो काफी बाद की बात है।
साहित्य और सुमन जी: ‘‘मालूम पड़ता है कि मेरे पिता के रक्त या जीन्स में कहीं कविता के संस्कार समाहित थे। मेरे बड़े भाई रामसिंह ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे। वे गाते बहुत अच्छा थे। तुलसी और ‘रामचरितमानस’ ने भी मुझे सँवारा। हिन्दी का संस्कार देने के लिए तब पिताजी मेरे लिए रीवा की छावनी से ही ‘प्रताप’ मँगवाने लगे थे। जिसमें गणेश शंकर विद्यार्थी के अग्रलेख धूम मचा देते थे। उस समय ‘आज’, ‘कर्मवीर’ और ‘प्रताप’ केवल राजनीतिक पत्र ही नहीं थे, प्रमुख कवियों की कविताएँ भी उनमें प्रकाशित होती थीं। थोड़ी समझ बढ़ी और ग्वालियर से अपनी बहन के पास जाता तो उनकी रचनाओं का असर भी मन पर गहरा पड़ता था। तब तक हिन्दी की कवयित्रियों में उनकी गणना होने लगी थी। इसका प्रमाण यही है कि स्व. ज्योति प्रसाद ‘निर्मल’ के द्वारा सम्पादित ‘हिन्दी साहित्य की कोकिलाएँ’ में मेरी बहन स्व. कीर्ति कुमारी जी की कविताएँ संकलित हैं और उनकी डेढ़ दर्जन से अधिक रचनाओं पर रीवा विश्वविद्यालय से शोधार्थी पी.एच-डी. कर चुके हैं। प्रारंभ में मैं कविता का महत्त्व नहीं समझता था, केवल तुकबंदी में माहिर था अतएव स्काउट््स में अपने साथियों से लड़ाई-झगड़ा होने पर तुकबन्दी में ही उत्तर प्रत्युत्तर दिया करता था, यथा-‘तू ने मुझको क्या समझा है, मैं तुझको मज़ा चखाऊँगा। दो ... चार थप्पड़ों से ही मैं तेरी हेकड़ी भुलाऊँगा।’ यह तो कविता नहीं ही हुई। सन् १९३० का वह ज़माना समस्या पूर्ति का था। समस्या दी जाती थी और कवि का सारा कौतुक समस्यापूर्ति में व्यक्त होता था। ग्वालियर के विक्टोरिया कालिजिएट में मैं विद्यार्थी था पर मेरी गिनती नटखट और खिलाड़ी लडक़ों में थी। हेडमास्टर थे व्यंकट गणेश दानी, बड़े कडक़ माने जाते थे। स्नेह सम्मेलन में आयोजित कवि सम्मेलन के लिए समस्या थी ‘छतिया धरकै’ दोस्तों ने मेरा नाम भी लिखवा दिया। तब शृंगार रस का भावबोध तो था नहीं अतएव वह समस्या अनजाने में ही हास्य व्यंग्य में ढल गयी। मैंने सुना दिया - ‘जब घण्टी बजे हाईस्कूल की जियरा धरकै अँखियाँ फरकैं। कहूँ दानी साहब जो मिल जाएँ तो लरिकन की छतियाँ धरकै।’
मंच पहला प्रवेश : ‘‘इंटरमीडिएट प्रथम वर्ष का विद्यार्थी था तब हरिऔध जी के ‘प्रिय प्रवास’ और मैथिलीशरण गुप्त के ‘जयद्रथ वध’ ने अभिभूत किया। उस समय तक हायर सेकण्डरी का स्वरूप नहीं विकसित हुआ था। मेट्रिक के बाद इंटरमीडिएट दो वर्ष का और उसके बाद बी.ए. दो वर्ष। सर्वप्रथम १९३२ में मैंने यह कविता लिखी थी- उसका प्रारंभिक अंश था - ‘‘उपवन की वह हरियाली, पावन समीर का चलना / विकसित कुसुमों की लाली, डाली-डाली का हिलना / ऊषा के मधु नीरव में, सरिता का कल-कल करना / बस हृदय हिला देता था, अधखिली कली का खिलना।’’ यह मेरी पहली कविता है। कालेज की वार्षिक पत्रिका में यह रचना प्रथम पर प्रकाशित हुई। इंटर प्रथम वर्ष के विद्यार्थी की हिम्मत बढ़ाने के लिए इसका कम महत्व नहीं माना जा सकता।’’
वैचारिक पृष्ठभूमि में पहला कदम: ‘‘ मैं तो शुरु से प्रगतिशील रहा हूँ। तब भी था और आज भी हूँ पर ‘सर्वहारा वर्ग की तानाशाही’ का विचार मुझे कभी नहीं जमा। तानाशाही तो फासिस्ट शब्द है। तानाशाही कैसी भी क्यों न हो- विरोध तो होगा ही। यह परिवर्तन भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की अनिवार्य प्रक्रिया है। हाँ, आज का आतंकवाद तो फैनेटिज्म है। इसके विरुद्ध अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सर्जकों और संस्कृति-कर्मियों को एकजुट होना पड़ेगा। अपने समय की चुनौतियों से सर्जक बच नहीं सकता। हमें सांस्कृतिक स्तर पर ही इस चुनौती का मुकाबला करना पड़ेगा।’’
क्या सुमन जी वास्तव में प्रगतिशील अर्थात् माक्र्सवादी थे : क्या कोई धार्मिक व्यक्ति माक्र्सवादी हो सकता है? और सुमन जी किस धर्म की बात करते हैं, विचारीय और प्रासंगिक है, ‘‘रूढ़ अर्थ में न तो मैं धार्मिक व्यक्ति हूँ और न ही मैं कभी धार्मिक व्यक्ति रहा हूँ। धर्म का या किसी भी धर्म का आरंभिक स्वरूप चाहे कितना ही उदार और समाज सापेक्ष रहा हो, उसकी परिणति अन्तत: जड़ किस्म की संकीर्ण सांप्रदायिकता में ही हुई है। बुद्ध ने कहा था - जैसे नाव नदी पार करने के लिए होती है। सिर पर उठाकर बोझ ढोने के लिए नहीं। धर्म का बोझ निरन्तर ढोना या ढोते रहना बुद्धिमानी नहीं हैं।’’ यहाँ सुमन जी के धर्म को हम ‘मजहब’ के अर्थ में ही ग्रहण करेंगे तो उनकी बात समझ में आयेगी, अन्यथा धुरअंध साम्यवादी उन्हें धर्मविरोधी सिद्ध करने लगेंगे क्योंकि उन्हें परिवर्तन में विश्वास नहीं है। वे यह मानने को तब तक तैयार नहीं होते कि किसी व्यक्ति में काल के आधार पर चिन्तिन में परिवर्तन आता है और चाहे अनचाहे वह भारतीय परम्परा से ही अपना नाता रखना स्वस्थ और चिरन्तर विचार का वाहक मानता है, यथा- प्रेमचन्द हों या रामविलास शर्मा , जब तक या तो वे उसको अपनी जमात से न निकाल दें या वह स्वयं ही न निकल जाये। इसीलिए सुमन जी तत्काल भारत की उस चिति की ओर संकेत करते हुए कहते हैं, ‘‘हाँ तुम मुझे आध्यात्मिक व्यक्ति मान सकते हो। अगर मुझे धर्म की व्याख्या करनी ही है तो मैं इतना ही कहूँगा कि मानवीय गरिमा और मनुष्य के सहअस्तित्व को स्वीकार करने वाला मानवीय आधार ही मेरे लिए धर्म है। बुद्ध ने ही कहा था- मनुष्य को अधर्म का त्याग तो करना ही चाहिए पर जिसे तुमने धर्म (रिलीजन/मजहब) समझा उसमें भी दोष दिखायी पड़े तो उस धर्म (रिलीजन/मजहब) को छोडऩे में भी संकोच नहीं करना चाहिए।’ मेरा मानना है सुमन जी को भी उसी निरन्तरता में उन्हें समझा जाये। क्योंकि वे आगे स्पष्ट करते हुए कहते हैं, ‘‘पूजा मेरे लिए कोई धार्मिक (रिलीजियस/मजहबी) कर्मकाण्ड नहीं है। नियम से पढऩा ही मेरी पूजा है। सारी व्यस्तताओं में से अपने पढऩे के लिए मैंने इसी तरह समय निकाला है ‘गीता’ और ‘रामचरित मानस’ दो स्थायी पुस्तकें हैं, शेष पूरी होने पर बदलती रहती है। .. हाँ एक नियम अखण्ड चल रहा है मेरे पिता शिव-भक्त थे। उनकी अन्तिम इच्छा थी कि मैं ‘महिम्न स्तोत्र’ का पाठ करता रहूँ। मैंने वह नियम कभी भंग होने नहीं दिया। बिना आडम्बर के कैसी स्थिति में कहीं भी मैं ‘महिम्न पाठ’ कर लेता हूँ।’’ क्या अब भी आप उन्हें रूढ़ अर्थी साम्यवादी/ रूढ़ प्रगतिशील कहेंगे?
सुमन जी की सुदृढ़ता : ‘‘काशी विद्यापीठ और बनारस शहर की अपनी-अपनी परम्पराएँ थीं। बनारस का अपना साहित्यिक सांस्कृतिक महत्त्व था। इनका मिला-जुला प्रभाव अभिभूत करता था। विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद से बाबू श्यामसुन्दर दास सेवामुक्त हुए, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया था। यह मेरा सौभाग्य है कि मैं शुक्ल जी का विद्यार्थी हूँ। आचार्य केशव प्रसाद मिश्र भी मेरे गुरु रहे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हमें ‘गुंजन’ ‘लहर’ और ‘आँसू’ पढ़ाते थे और केशव मिश्र - ‘कामयनी’ तथा भाषाविज्ञान। कल्पना नहीं कर सकते कि क्या वातावरण था, तब कक्षाओं में...। काशी विद्यापीठ में राजनीतिक चेतना प्रखर थी। आचार्य नरेन्द्र देव, श्री प्रकाश जी, सम्पूर्णानन्द आदि काशी विद्यापीठ के प्राध्यापकों में से थे।’’
शिवमंगल सिंह से शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ : यों तो मैं ग्वालियर में ही शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ हो गया था पर परिष्कार बनारस में हुआ। ग्वालियर जाना पहचाना था फिर भी बनारस छोड़ते हुए दु:ख हो रहा था। बनारस के मित्रगण भी यही चाहते थे कि मैं बनारस न छोडूँ। भारी मन से ही यहाँ आया था। एक सौ पचास रुपया मासिक वेतन था जो उन दिनों के हिसाब से काफी था। तब व्याख्याता की यही ग्रेड थी। यहाँ मन लग गया। अटल बिहारी वाजपेयी, रामकुमार चतुर्वेदी ‘चंचल’, देवेन्द्र नाथ वर्मा, वीरेन्द्र मिश्र मेरे विद्यार्थी थे। निराला जी ग्वालियर आये तो मेरे पास ही रुके। अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन ग्वालियर में आयोजित कवि सम्मेलन में तो पन्त जी को पहली बार काव्य पाठ करते सुना। उन्हें देखकर मैं मुग्ध हो गया। सुभद्रा कुमारी चौहान ने इसी कवि सम्मेलन में - ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।’ सुनायी थी। पन्त जी द्वारा सुकुमार संवेदनपूर्ण स्वरों में ‘सुख-दुख के मधुर मिलन से, ये जीवन हो परिपूरन’ का सस्वर पाठ सुनकर श्रोता भाव विभोर हो उठे थे। राहुल जी ग्वालियर आये तो एक दिन मेरे पास रुके कुल मिलाकर वे दिन स्मरणीय थे। तत्कालीन ग्वालियर नरेश से भी निकटता हुई। क्लब में आयोजित कवि सम्मेलन में ‘बंगाल का अकाल’ जैसी कविता पढ़ी तो उस पर भी वे प्रसन्न हुए। अपूर्व उत्साह था मुझमे। वहीं वीर दुर्गादास का मंचन भी करवाया जिसमें जोधपुर नरेश अजीत सिंह का पार्ट मैंने किया। बाद में कॉलेज में भी धु्रवस्वामिनी का मंचन कराया जिसमें चन्द्रगुप्त मैं बना, धु्रवस्वामिनी का पार्ट रामकुमार चतुर्वेदी ‘चंचल’ ने किया, उस समय मंच पर लड़कियों की उपलब्धि दुर्लभ थी। मेरे सामने राहें थीं, मंजिलें थीं और प्रगतिशीलता के दौर का जोश खरोश था। ‘कलकत्ते का अकाल’ उसी काल की रचना है।’’
किन्तु व्यापक पहचान भी बनारस में ही बनी। वे लिखते हैं, ‘‘तब तक मैं मैथिलीशरण गुप्त से प्रभावित था। विशेषकर उनके खण्ड काव्य ‘जयद्रथ वध’ से। इसके अतिरिक्त एक ओर तो श्री रामनरेश त्रिपाठी के खण्ड काव्य ‘पथिक’ और दूसरी ओर प्रसिद्ध क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल के ‘बन्दी जीवन’, काकोरी के शहीद रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ की जीवनी पढऩे का चस्का लग गया था। इंटर में हरिऔध जी का ‘प्रियप्रवास’ और प्रेमी जी की ‘आँखों’ से अभिभूत हुआ। बनारस आया तो छायावादी काव्य के युगान्तरकारी संक्रमण से प्रथम जीवन्त सम्पर्क का सुयोग सुलभ हुआ। उन दिनों प्रसाद के ‘आँसू’ का युवकों में बड़ा प्रचार था। विशेषकर रोमेन्टिक युवकों का तो यह कण्ठहार बन गया था। चार आने की यह पतली सी किताब का जादू सिर चढक़र बोलता था। मैंने भी रात-रात भर जागकर ‘आँसू’ का पारायण किया है। इस प्रकार छायावादी संस्कारों से एक प्रकार की आत्मीयता का विकास हुआ।’’
सुमन जी बताते हैं, ‘‘सन्् ४७ में शान्तिनिकेतन गया था। सन् ४३ में भी एक सप्ताह के लिए केवल शान्तिनिकेतन देखने के लिए चला गया था। गुरुदेव का निधन हो चुका था, पर वहाँ की हवा, पानी धूप-चाँदनी में उनका प्रतिबिम्ब महसूस किया जा सकता था। ऋतुओं के स्वागत में उत्सव आयोजित होते थे। आम्रवीथी, शालवीथी, गुरुपल्ली आदि में घूमने फिरने का आनन्द ही निराला था। संथाली युवतियों में रवीन्द्र नाथ टैगोर के गीतों की प्रतिध्वनि लोकगीतों की तरह छाई हुई थी। एक सर्जक की अपने समाज में इतनी गहरी पैठ देखकर मैं सचमुच अभिभूत हो गया था। आचार्य क्षितिमोहन सेन के प्रवचन असर करते थे। कड़ा अनुशासन था। गुरूदेव का जन्मदिन उत्साह से बनाया जा रहा था। उनके पुत्र रथी बाबू और अनेक अध्यापक वैदिक मंत्रोच्चार के साथ पाँच वृक्ष उस दिन रोपते थे। आचार्य क्षितिमोहन सेन पृथ्वीसूक्त के मंत्रों से उनका आह्वान करते थे कि - ‘हम तुम्हें यहाँ स्थापित करते हैं, हमारी पूजा स्वीकार करो। अंकुर बनो। सिंचन से पौधे बनो। फल-फूल से भर जाओ। पथिकों को छाया देते रहो और स्वयं धूप-वर्षा झेलते रहो।’ वह मंत्रात्मकता मुझे रोमांचित कर गयी। उस समय शांति निकेतन में कोई पदत्राण नहीं पहनता था। छात्र-छात्राएँ, आचार्यगण सभी, नंगे पैरों से संक्रमण किया करते थे। लाल मिट््टी होने से पैर भी गंदे नहीं दिखते थे। प्रत्युत लालिमा से परिपूर्ण रहते थे।’’
वे आगे बताते हैं कि, ‘‘शांतिनिकेतन में बांगला गीत परम्परा के ही नहीं, छायावाद के मर्म को समझने के लिए भी बांग्ला भाषा सीखना जरूरी लगा। मैंने आचार्य केशव प्रसाद मिश्र से बांग्ला भाषा शिक्षा की आरम्भिक पुस्तकें प्राप्त कीं और विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों की सहायता से अभ्यास शुरू किया। अज्ञेय ने बड़ी सहायता की। लिखने-पढऩे और बोलने का अभ्यास बनारस में ही हो गया था। ‘गीतांजलि’ मूल बाँग्ला में पढ़ चुका था। हाँ, शांतिनिकेतन में और निखार आ गया। शांति निकेतन में तीन महीने का समय अधिक नहीं होता है फिर भी हजारीबाबू वहाँ थे ही, उनसे सम्बन्ध प्रगाढ़ हुए। गोस्वामी जी वहाँ दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक थे। आचार्य क्षितिमोहन सेन, काल-पुरुष आचार्य नन्दलाल बोस का स्नेह-आशीष मिला। मूर्तिकार रामकिंकर की सरलता और भोलापन देखते ही बनता था। एक दिन प्रात: नन्दलाल बोस टहलते-टहलते मेरे कमरे में आए और सुन्दर पुष्पित गुलाब को दिखाकर बोले कि - ‘देखुन तो, ऐदिके भालो छंद।’ मैं समझ नहीं पाया क्योंकि छंद तो काव्य का गुण है। केवल ‘बेश भालो दा’ कहकर रह गया। बाद में हजारी प्रसाद द्विवेदी से उनके वाक्य का मर्म समझकर मुग्ध हुआ। गीत परम्परा के ही नहीं, छायावाद के मर्म को समझने के लिए भी बांग्ला भाषा सीखना जरूरी लगा। मैंने आचार्य केशव प्रसाद मिश्र से बांग्ला भाषा शिक्षा की आरम्भिक पुस्तकें प्राप्त कीं और विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों की सहायता से अभ्यास शुरू किया। अज्ञेय ने बड़ी सहायता की। लिखने-पढऩे और बोलने का अभ्यास बनारस में ही हो गया था। ‘गीतांजलि’ मूल बाँग्ला में पढ़ चुका था। हाँ, शांतिनिकेतन में और निखार आ गया।
सुमन जी का युगधर्म : ‘‘मैं समाज के बारे में विचार करता हूँ तो मैं सोचता हूँ कि मेरा समाज तो सर्जक ही है। इसलिए मेरी सारी चिन्ता अपने-अपने इस समाज को लेकर ही है। आज इनके सामने बड़े-बड़े आकर्षण और प्रलोभन हैं। सर्जक आज कई-कई युक्तियों से ‘सब कुछ’ पा लेना चाहता है। सर्जकों में मतभेद हो सकते हैं। मतभेद तो पहले भी कम नहीं रह,े निराला और पन्त के वैचारिक मतभेद तो जगजाहिर है। पर तब भी उनमें सहिष्णुता थी। तमाम असहमतियों के बीच भी संवाद था। आज लेखकों के सामने चौतरफा संकट है। शब्द बेअसर हो रहे हैं। ऐसे में मेरा सर्जक ईमानदारी से अपने मूल्यों पर दृढ़ रहा और वह किसी तरह के समझौते और प्रलोभन से बच गया तो मैं पूरे समाज को अनुकूल दिशा में मोड़ लूँगा। सर्जक ही मेरा माध्यम है। इसी माध्यम को मैं समाज के निर्माण और व्यवस्था के परिवर्तन में सक्रिय होते देखना चाहता हूँ। मेरी सारी अपेक्षाएँ सर्जक से ही हैं।’’ वस्तुत: सुमन जी का पूरा युगबोध नयी पीढ़ी को संकेत करता है, वे नयी पीढ़ी को हतोत्साहित, भटका हुआ नहीं मानते। आशा और आस्थावाद अभी नयी पढ़ी को आगे ले जायेगा ऐसा उनकी मान्यता है, ‘‘नयी पीढ़ी से मुझे बड़ी आशा है। हमारे जमाने में जो कुछ स्वप्नत्व था, आज उनके लिए वास्तविकता है। हमारी अपेक्षा इस पीढ़ी के पास ज्ञान और सूचनाएँ अधिक हैं। साधन ज्यादा हैं, सम्पर्क बढ़े हैं। यह सब तो है पर इस पीढ़ी के सामने खतरे भी कम नहीं है। जन-संचार माध्यमों का विस्तार और आज भी उपभोक्ता संस्कृति ने हमारे उन आदर्शों पर हमला बोला है, जो हमारे लिए मूल्य थे। नयी पीढ़ी को रूढिय़ों, कुसंस्कारों और हर तरह की संकीर्णताओं से तो लडऩा ही है, अपने जीवन और व्यवहार में उसे उदारता भी विकसित करनी है। परम्परा उसे समृद्ध तो करें पर उसकी चेतना रुद्ध नहीं होनी चाहिए। सृजन किसी भी क्षेत्र में हो, वह मेरी दृष्टि में प्रकारान्तर से काव्य-सृजन ही है। नयी पीढ़ी को सृजनधर्मा होना चाहिए। जब मैं नयी पीढ़ी की बात करता हूँ तो मेरी नयी पीढ़ी सर्जकों की पीढ़ी ही होगी।’’
जीवन को देखने उनकी दृष्टि : वे आशावादी हैं। ‘‘ऐसा कोई एक भी व्यक्ति बतला सकते हो जो आज तक कभी निराश ही न हुआ हो? आशा निराशा जो जीवन का क्रम है। कोई अधिक निराश अनुभव करता है तो कोई कम। किसी-किसी का निराश रहना स्वभाव ही बन जाता है और कोई अपनी निराशा पर तत्काल विजय पा लेता है। मैं भी जीवन में निराश हुआ हूँ और कई बार निराश हुआ हूँ। यह शायद ही किसी को ज्ञात हो कि मैं कभी विधि-शास्त्र का विद्यार्थी भी रहा और विधि की परीक्षा में असफल भी हुुआ। तब मैंने एक कविता लिखी थी- ‘मेरा अन्त बुरा होना था ../ आज मैं असफल हुआ।’ जैसी कविताएँ जीवन के निराश क्षणों की ही उपज हैं, पर मैंने तत्काल अपनी निराशा पर काबू पा दूने उत्साह से अपने कर्म में जुट गया। तब मैंने लिखा - ‘वरदान माँगूगा नहीं।’ आशावादिता तो मेरे स्वभाव का सहज अंग है। बड़ी चुनौतियों को स्वीकार करने में मुझे आज भी सुख मिलता है। कभी मैंने लिखा था- ‘मिट्टी के मानव पुतले ने कभी न मानी हार। तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार। रचनात्मक दृष्टि से ‘पर आँखे नहीं भरी’ और विन्ध्य-हिमालय’ से मेरी रचना यात्रा का एक वृत्त बनता है। यहाँ तक पहुँच कर मुझे लगने लगा था कि अब मुझे गंभीरतापूर्वक रचनाकर्म में जुटना है।’’
लेखन और विभिन्न प्रशासनिक दायित्व: तमामा प्रशासनिक दायित्वों के बाद भी वे अपने को लेखन कर्म से च्युत नहीं पाते, ‘‘ नेपाल प्रवास के समय मन में काफी द्वन्द्व था। तुलसी सदा मेरे मार्गदर्शक रहे हैं। उन्होंने ही मुझे मार्ग दिखाया ‘तात किये प्रिय प्रेम प्रमादू, जसु जग जाइ होई अपवादू।’ ये पंक्तियाँ मेरे लिए मंत्र बन गयी। फिर निरर्थक तो कुछ भी नहीं होता है। लेखन और लेखन से इतर कार्य करते हुए भी मैंने माना है- ‘सार्थक है यहाँ पर समय का हर साज। थी जरूरत इसलिए ही मैं यहाँ पर आज।..’ नेपाल से जब मैं लौटा, रचनात्मक दृष्टि से मैं भरपूर ऊर्जा से भरा हुआ था। बड़े लेखन की सारी तैयारी थी। यहाँ आया तो माधव महाविद्यालय, उज्जैन का प्राचार्य बना दिया गया। एक नयी तरह की व्यवस्था शुरू हो गयी। फाइल वर्क प्रशासनिक दायित्व, महाविद्यालय का सतत्् विस्तार प्रतिदिन की कॉलेज की समस्याएँ। एक वृत्त से निकला तो दूसरे वृत्त में घिर गया। फिर विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलपति का दायित्व। यहाँ महाविद्यालय की समस्याओं से बड़ी समस्याएँ थीं। यात्राएँ बढ़ गयीं, मीटिंग, फाइल, सचिवालय के चक्कर में दिन बीत रहे थे। रोज नये अनुभव, हड़ताल-घेराव, जिंदाबाद-मुर्दाबाद, यही रुटीन बन गया था। इसी बीच लेखन भी चलता रहा। ‘मिट्टि की बारात’, ‘जरा मशाल जलाओ।’ जैसी लम्बी कविताएँ इसी दौर की हैं। सच मानो, मेरी कविता तो कर्ण के बाण की तरह है। अगर इतने दायित्व, इतने बोझ, इतनी व्यवस्तताएँ नहीं होती तो मेरा लेखन कहीं ज्यादा और अधिक प्रभावशाली ही होता। रचनात्मक दृष्टि से नेपाल से लौटना मेरे लेखन के लिए महत्वपूर्ण मोड़ हो सकता था। अब जो, जैसा और जितना भी इस भागदौड़ में लिख सका हूँ सबके सामने हैं। पर यह भी सही है कि इन तमाम व्यवस्तताओं ने मुझे अनुभव सम्पन्न बनाया है और इन्हीं से मैंने बहुत कुछ सीखा भी है। ...रही उपलब्धि की बात तो ‘निराला’ महादेवी का सानिध्य, शान्ति निकेतन का परिवेश, मालवा के लोग-तमाम परिचित और अपरिचित। इनका अगाध स्नेह मेरे जीवन की मूल्यवान उपलब्धि है। इन्हीं ने मुझे ‘सुमन’ बनाया है इन सभी से उऋण होना संभव नहीं है। कम से कम इस जीवन में तो नहीं ही।’’
लेखन-धर्म की कठोरता: ‘‘लेखक ने अपनी प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता स्वयं समाप्त की है। पाठक या श्रोता लेखक के शब्द और आचरण में विपर्यय पाता है तो उसका विश्वास लेखक के शब्दों पर कैसे दृढ़ होगा? लेखकों-कवियों के लिए शब्द आज सीढ़ी हो गये हैं, जिनका उपयोग करके वे अपने-अपने लक्ष्य पर पहुँचना चाहते हैं। कई तो बड़ी कुशलता से पहुँच भी गये हैं। लेखन के लिए वातावरण की नहीं बल्कि मानसिकता प्रमुख होती है। सृजन के क्षणों में यह होश भी नहीं रहता है कि वातावरण अनुकूल है या प्रतिकूल। ऐसा कभी नहीं हुआ और शायद किसी लेखक के साथ होता भी नहीं है कि वह लेखकीय अनुकूलता निर्मित करके लेखन शुरू करें। रचना तो वह क्षण, वह मानसिकता है, जिसे पकडऩा और बाँधना है। वह क्षण ठीक से पकड़ में आ गया तो रचना हो गयी। यदि हम अनुकूल स्थितियों की प्रतीक्षा में रहे तो लेखन हो ही नहीं पाएगा। मैंने तो अपनी कई कविताएँ और लम्बी-लम्बी कविताएँ अपनी व्यस्तताओं बल्कि अलेखकीय किस्म की व्यवस्तताओं और यात्राओं में लिखी हैं। वे रचनागत कमजोरियों को कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं, ‘आह अरणि में तप्त तूल कण कोई रगड़ गया। सबने साध लिए ज्योतिर्कण मैं ही पिछड़ गया।’ मुझे अपनी काव्यगत सीमाएँ भी अच्छी तरह मालूम है। मैं जानता हूँ कि कवि होना तो बहुत बड़ी बात है पर कवि होने का प्रयास करते रहना भी कम बड़ी बात नहीं हैं। मैं आज भी कवि होने के प्रयास में ही हूँ। ’’ चुनौतियाँ बड़ी हैं इसलिए लेखक के दायित्व भी बढ़ गये हंैं। मैंने भी लिखा है- ‘मैं कब तक बैठू कलम सम्हाले/ मुझको इस युग का नमक अदा करना है।’
रचना प्रक्रिया और सुमन जी: ‘‘ कविता की रचना, कविता ही क्यों हर सृजन ही चुनौतीपूर्ण होता है। एक बच्चे को जन्म देने के लिए माँ क्या कम संघर्ष करती हैं? जन्म देते हुए स्त्री हर बार मरणान्तक अनुभव से गुजरती है, पर जन्म देकर वह अगले ही क्षण सारे संघर्ष भूलकर चरम सुख में प्रवेश कर जाती है। रचना-संघर्ष भी ऐसा चुनौतियों से भरा होता है। उस प्रक्रिया से गुजर जाने पर सब कुछ सहज और आसान लगने लगता है। यों लम्बी कविताओं को लेकर फॉर्म की तलाश, उस फार्म का निर्वाह। बड़े कैनवास पर व्यक्त करने का समयगत धैर्य, संतुलन और भराव की चुनौतियाँ तो होती ही है। कविता में निर्मित प्रभाव का सतत, निर्वाह, सम्प्रेषण के लिए भाषागत समस्या, यदि कोई मिथक है तो प्रासंगिकता के सवाल और उसकी ऐतिहासिकता की रक्षा जैसी एक साथ कई चुनौतियाँ खड़ी हो जाती हैं। ‘जल रहे हैं दीप जलती है जवानी’ ऐसी ही कविता है और ‘मिट्टी की बारात भी’ इन कविताओं को लिखते हुए मुझे ऐसी कितनी ही चुनौतियों से जूझना पड़ा है। यदि बड़ी चुनौतियाँ स्वीकारी हैं तो उतना ही सुख और उतनी ही बड़ी तृप्ति भी मुझे मिली है। इन या ऐसी कविताओं के रचने के बाद में। ‘वरदान माँगूगा नहीं’, ‘आह अराणि में तप्त तूल सा कोई रगड़ गया।’, ‘माँ गयी’ ऐसी कुछ कविताएँ हैं जिनको लिखते हुए मैं पूरी तरह रम गया था। जो कविता मुझे भीतर से समबोध देती है उसी को लिखकर मुझे तृप्ति मिलती है। कविता के छोटे या बड़ा होने, फार्म, कन्टेंट और डिक्शन की बातें तो बाद की बातें हैं। वियतनाम / वियतनाम / कर दिया तमाम काम / वाह रे आवाम! यह छोटी सी कविता आज भी मुझे तृप्ति देती है। इसमें भी जो कुछ है। वह मेरा उत्साह हो अथवा इस कविता का। कविता वह तो- ‘वाह रे आवाम’ में ही निहित है।’’
‘सुमन’ जी और गीत : ‘‘अब भी मानता हूँ कि गीत में शक्ति है। अगर मैं इधर कुछ वर्षों से गीत नहीं लिख रहा हूँ तो मानना चाहिए कि भीतर का उल्लास कुछ कम हुआ है। अभ्यासवश तो मैं गीत अब भी लिख लूँगा पर संगीत की भाषा में जिसे ‘स्वरमय होना’ कहते हैं, वैसा इस उम्र में सम्भव नहीं हो पा रहा है। कई हैं,जो प्रतिज्ञापूर्वक एक ही शैली में निरन्तर लिख रहे हैं पर यह भी सही हैं कि अपने शिल्प की ताज़गी के लिए भी अपने फॉर्म से थोड़ा अवकाश लेना चाहिए। बड़े-बड़े लेखकों ने ऐसा किया है। शैली के प्रति मोह लेखन को क्षति ही पहुँचाता है। मैं यह नहीं कहता कि मैं अब गीत नहीं ही लिखूँगा पर मैं जब भी गीत रचना करूँगा तो वह मेरे भीतर की माँग ही होगी।’’
‘‘श्रव्य परम्परा के हृास से हिन्दी कविता की बड़ी हानि हुई है। कवि अपनी ध्वनि-क्षमता से ही आज अपरिचित हो गया है। ध्वनि की क्षमता और उसके व्यापक प्रभाव का परीक्षण कविता की श्रव्य परम्परा में ही सम्भव है। प्रभावशाली काव्य-पाठ से कविता के सारे बिम्ब मूर्त हो जाते हैं। कविता भी एक सीमा तक हो प्रयोग-परक माध्यम है ही। इस इसका यह दोष भी है कि प्रभावशाली पाठ में शिथिल मुहावरा भी खप जाता है। कविता को केवल श्रव्य मान लेने से ही मंच पर कविता का हृास हुआ है। वास्तव में कविता का पूरा अर्थ तो कविता को पढऩे से ही खुलता है, सुनने मात्र से नहीं। हाँ आज की कविता में समप्रेषण का जो अभाव पाया जाता है उसका कारण भी यही है कवियों ने अपनी रचनाओं को श्रोताओं से वंचित कर लिया है। इससे ‘कुकविता’ को मंच पर अवसर मिल गया। ये दोनों स्थितियाँ हैं। जिनके धनात्मक पक्ष भी हैं और ऋणात्मक पक्ष भी। ’’
रचना की श्रेष्ठता और लघुता पर उनके विचार , ‘‘जीवन के अलग-अलग काल-खण्डों में कवि और उसके श्रोताओं कवि की रचनाओं में अपना समय ही नहीं, तात्कालिकता भी पाना चाहते हैं। कवि भी अपनी पूरी क्षमता के साथ हर बार अपने समय और उनसे जुड़े अनुभव के साथ उपस्थित होता है। अत: सर्वकालिकता में अपनी और श्रोताओं की पसन्द खोजना ठीक नहीं है। .. ..अपने पाँच दशक से अधिक के लेखन में से किसी एक रचना को श्रेष्ठ मानना और बतलाना सम्भव नहीं है। हाँ, कुछ कविताओं का उल्लेख किया जा सकता है। - ‘पथ भूल न जाना पथिक कही’ ऐसी ही एक रचना है जिसे हर स्तर के श्रोताओं की खूब दाद मिली है। यही नहीं, जो मेरे सोच-मेरी विचारधार से भी असहमत हैं उन्होंने भी इस रचना को खूब गाया है। ‘देखों मालिन मुझे न तोड़ो’ ‘हम पंछी उन्मुक्त गगन के’ और ‘तूफानों की और घुमा दो नाविक निज पतवार’ को लिखकर मुझे तृप्ति भी मिली और श्रोताओं की सराहना भी। ’’
जीवन के रहस्य : ‘लखनऊ-प्रवास’ है। यह मेरी पिछली लम्बी कविताओं से भिन्न पैराये की रचना है। एक उम्र के बाद व्यक्ति अपने आगे ही नहीं, अपने अतीत में देखना शुरू कर देता है। यह लम्बी कविता भी कुछ ऐसी ही है। उम्र के इस पड़ाव पर अपने जिये हुए को दुबारा जीने और जो जी रहा हूँ उसे संजो लेने की ललक ही इस कविता में अधिक व्यक्त हुई है। इतिवृत्तात्मकता, नामावली, स्थान और समय के प्रति आसक्ति इस कविता के प्रेरक तत्व रहे हैं। जैसी है, यह एक लम्बी कविता इधर आयी ही है।’’ वे सम्मरण कराते हैं, ‘‘शुरू-शुरू में अच्छा वक्ता नहीं था। बहुत तेजी से बोलता था। इस तीव्रता में शब्द बलबलाहट बनकर रह जाते थे। अक्सर। पर जब पं. मदनमोहन मालवीय जी का भाषण सुना तो प्रभावित हुआ। बनारस में ही पण्डित सुन्दरलाल (भारत में अंग्रेजी राज) के यशस्वी लेखक को सुना और मंत्रमुग्ध हुआ। इसके बाद माखनलाल चतुर्वेदी जी के भाषण से भाव विभोर हो गया तथा मेरी बहुचर्चित भाषण कला को इन्हीं महापुरुषों की जूठन समझो। निश्चित रूप से निराला जी से। सर्जक के रूप में निराला जी से तो बराबरी हो ही नहीं सकती थी तो निराला जी की शैली कुछ लेखन में और कुछ काव्य-पाठ में अपनाने की कोशिश की। उस समय माइक्रोफोन, लाउडस्पीकर प्रचलन में नहीं आये थे। सस्वर काव्य-पाठ का प्रचलन था ऐसी स्थिति में निराला जी का अनुकरण ही मुझे रास आया। इसके अतिरिक्त नवीन जी के काव्यपाठ ने भी मुझे विमोहित किया।’’
आलोचक की भूमिका : ‘‘मूल्यांकन करना और सही-सही मूल्यांकन करना सचमुच कठिन कार्य है। अपना मूल्यांकन करना तो और भी कठिन होता है। रचना आत्मपरक होकर लिखी जाती है पर आलोचक की दृष्टि वस्तुपरक होती है। आत्मपरक दृष्टि को जरूरत पडऩे पर वस्तुपरक दृष्टि में ढाल लेना आसान नहीं होता। यह भी सही है कि आज आलोचक के पास वस्तुपरक दृष्टि विरल हो गयी है फिर भी में यह मानता हूँ कि अपना मूल्यांकन आलोचकों पर छोडक़र मुझे केवल रचना के क्षेत्र में ही रहना चाहिए।’’ वे कहते हैं, ‘‘आदर्श शिक्षक का विवेक मुझे शुक्ल जी से मिला। शुक्ल जी से मैंने काव्य विवेक ग्रहण किया। वे बहुत धीरे-धीरे पढ़ाते थे। उनके अध्यापन में गाम्भीर्य था और शब्द-शब्द जैसे तौला हुआ हो। और केशव जी धारा प्रवाह पढ़ते थे अपने वैदुष्य में वे बहाकर ले जाते थे। अध्यापक के रूप में मैंने दोनों की अध्यापन शैली से अपनी शैली विकसित की। शुक्ल जी से मैंने काव्य विवेक और विश्लेषण की युक्ति को ग्रहण किया और केशव जी से भावात्मक बोधगम्यता। शुक्ल जी से समालोचना केशव जी भाषा विज्ञान भी पढ़ाते थे और वहीं हिन्दी के प्रथम डी.लिट. डॉ. पीताम्बरदत्त वाड़थ्वाल से ‘कबीर’ को पढऩे का सौभाग्य मिला था।’’
जीवन का शेष कैसा हो : ‘‘मैं अपने बिखराव को समेटना चाहता हूँ। मुझे अपने बारे में कोई भ्रम-कोई मुगालते नहीं हैं। मुझसे ज्यादा अपनी कमजोरियों को दूसरा कोई नहीं जानता है। मुझे अपनी सीमाओं का भी पूरा अहसास है। इसलिए उम्र के इस पड़ाव पर मैं अपने बिखराव को समेट सका तो यही मेरे लिए बड़ा काम होगा। ... हाँ, मैं आराम तो एक क्षण के लिए भी करना नहीं चाहता कबीर ने कहा था- ‘साधू संग्राम है रैन - दिन जूझना। देह परजंत का काम है भाई।’ अपनी अन्तिम साँस तक मैं कुछ न कुछ करता रहूँ। यही मेरी इच्छा है।’’
यह वह सुमन जी हैं, जिन्हें साम्यवादी मानकर उनकी एक दो उन प्रारंभिक कविताओं का उदाहरण दे कर साम्यवादी कह दिया जाता है, जिसका जिक्र वे पूरे साक्षात्कार में कहीं नहीं करते। साम्यवादी कहकर सुमन जी की भारतीयता को नकारने वालों के सामने एक प्रश्र क्यों नहीं आता कि वे जब युवा थे उनके सामने स्वतंत्रता आन्दोलन का गरम दल था, रूस की क्रांति से देश की राजनैतिक धारा पूरी तरह प्रभावित थी उस समय यदि एक युवक कुछ दूर तक धारा में प्रवाहित हो गया तो उसे पूरी परम्परा का विरोधी मानकर उपेक्षित कर दिया जाये? जो व्यक्ति तुलसी को अपना पथप्रदर्शक मानता हो, रामचरित मानस, गीता और महिम्र स्त्रोत को रोज पाठ करता हो, जिसके सामने धर्म की पूरी स्पष्टता हो, जिसके आदर्श शिक्षक, अविभूत कर देने वाले श्री कृष्ण बिहारी वाजपेयी, आचार्य क्षितिमोहन सेन, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य नन्दलाल बोस रहे हों, जिन्हें मूर्तिकार रामकिंकर, हजारी प्रसाद द्विवेदी, केशव प्रसाद मिश्र और जिसे शांतिनिकेतन की धरोहर मिली हो, जो गीतांजलि और भारतीय चेतना का अन्त:वासी हो, जिसके आदर्श निराला, पंत, माखनलाल चुतर्वेदी रहे हों, उसे साम्यवादी कह कर वर्षों में मध्यप्रदेश की धरती पर ही उपेक्षित रखा जाना न केवल उनकी प्रतिभा से युवाओं को परिचय देने से वंचित किया जाना है, बल्कि हर उस साहित्यकार को पाप का भागीदार बनना होगा जो आज रामविलास शर्मा को तो अपेक्षित मानने लगा है किन्तु सुमन जी अभी भी अपनी कर्मभूमि पर उपेक्षित हैं।
विचारों, विचारधाराओं का खेमा बनाकर जिस तरह साम्यवादियों ने घोर पाप किया है उसी तरह विपरीत ध्रुव स्थापित कर केवल हमारी ही तूती बजती रहें, तथाकथित अन्य पंथियों ने भी उतना ही पाप किया है। मेरा मत है कि भारतीय रचनाकारों का पुन: समग्र मूल्यांकन होना चाहिए, उनकी चेतना की पड़ताल भारतीय नजरिये से की जानी चाहिए। आवश्यकता है जिन्हें साम्यवादियों ने अपने कब्जे में ले रखा है अथवा असाम्यवादियों ने उन्हें अपने हित सरंक्षण में दूसरे पाले में जानबूझ कर ठकेलने का अपुनीत कार्य किया है, उन पर कार्य होना चाहिए। आलेख पढक़र निर्णय पाठक स्वयं करें।
यह सम्पूर्ण आलेख ‘साक्षात्कार’ में छपे सुमन जी के १७-१८ साल पुराने साक्षात्कार के आधार पर है। एक लेखक के नाते साक्षात्कार पत्रिका के साक्षात्कार लेनेवाले तथा ‘साक्षात्कार’ पत्रिका, साहित्य अकादमी का आभारी हूँ।
७३८९८१४०७१
प्रो उमेश कुमार सिंह
‘मैं शिप्रा-सा ही तरल सरल बहता हूँ, मैं कालिदास की शेष कथा कहता हूँ।
मुझको न मौत भी भय दिखला सकती है,मैं महाकाल की नगरी में रहता हूँ।’
सुमन जी जब अपना परिचय देते हुए अन्तर्मन से किल्लोल करती शिप्रा की तंरगों के साथ तरंगित हो उठते हैं, तब दर्शक, श्रोता और पाठक का झूमना सहज हैं। उस झण महसूस होता है कि सुमन जी का यह अन्त:राग केवल उनका राग नहीं, बल्कि सम्पूर्ण समष्टि का राग है। मुझे स्मरण आ रहा है, ‘न शिवेन बिना शक्ति न शक्तिरहित: शिव:। उमाशंकरयोरैक्यं य: पश्यति स पश्यति।।’ महाकाल और शिप्रा और कोई नहीं तो उस अर्धनारीश्वर की साक्षात अनुभूति है जिसमें कहा गया है कि शिव बिना शक्ति नहीं रहती और शक्ति बिना शिव नहीं रहते।
आखिर सुमन जी व्यास की कथा क्यों नहीं कहते, तुलसी की कथा क्यों नहीं कहते, वे केवल कालिदास की कथा और वह भी शेष कथा। वह कथा जो अभी शायद अधूरी है। अधूरी स्थूल और सूक्ष्म स्तर पर नहीं, बोध के स्तर पर। सुमन जी उसी बोध की ओर इसारा करते हुए कालिदास की शेष कथा कहने को आतुर हैं। इसके दो कारण समझ में आते हैं- एक, तुलसी और व्यास शिप्रा और उज्जयनी से उतने सीधे नहीं जुड़े हैं, जितना कालिदास। दूसरा, कालिदास एक व्यक्ति, एक सर्जक ही नहीं, व्यास और तुलसी की ही तरह भारतीय सनातन परम्परा से जुड़े हैं। सुमन जी मानते हैं कि एक व्यक्ति या एक सर्जक चाहे वह कितना ही बड़ा और प्रतिभाशाली क्यों न हो, अपने सम्पूर्ण समय को शब्द दे नहीं पाता है। विपुल और सारे महत्वपूर्ण लेखन के बाद भी बहुत कुछ छूट ही जाता है। उस छूटे हुए को अगली पीढ़ी को स्थालान्तरित करने की कोशिश सुमन जी करते हैं। वे परम्परा की बात करते हुए कहते हैं, ‘‘मैं भी कालिदास की ही परम्परा की एक कड़ी हूँ। मैंने अपनी सम्पूर्ण रचनात्मकता में बनारस, बैसवाड़ा, लखनऊ और मालवा को बार-बार और भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में व्यक्त किया। कालिदास ने जहाँ संकेत भर दिये हैं तथा कालिदास के बाद मालवा में जो कालगत परिवर्तन आये हैं, उन्हें जब-जब मैं अपने शब्दों में समेटता हूँ तो लगता है कि कुछ गेप्स मैं भी भर रहा हूँ। मसलन, मालवा के अफीम के खेतों का सौंन्दर्य तो अदभुत है। मैं सोचता रहा कि दशपुर का वर्णन करते हुए महाकवि की सौन्दर्य पारखी आँखें अफीम के खेतों के रंगोत्सव को देखने से कैसे वंचित रह गयी! क्या तब मालवा में अफीम की खेती नहीं होती थी। मैंने अपनी एक कविता ‘नशीली रंगीनी’ में इसी सौन्दर्य को व्यक्त किया है। इसी तरह उज्जैन की सडक़ों, गलियों, मालवा के खेत, गाँव, नदी-नालों यहाँ के लोगों को जब-जब भी अपने शब्दों में व्यक्त किया है। मुझे लगा है कि मैं कालिदास की शेष कथा ही कह रहा हूँ।’’
सुमन जी एक बड़ी बात कहते हुए हमारे सामने एक आदर्श रखते हैं, मुझको इस युग का नमक अदा करना है: सुमन जी क्षत्रियों में परिहार वंशीय हैं। अपना कुल परिचय कुछ इस प्रकार देते हैं, ‘‘निम्न मध्यवर्ग के किसान / जमींदार के घर झगरपुर-उत्तर प्रदेश, उन्नाव (बैसवाड़े) में जन्म पाया। रक्त परिहारों का था अत: कुल में सैन्य परम्परा बनी रही। प्रपितामह ठाकुर चन्द्रिका बख्श सिंह अंग्रेजों की फौज में रिसालदार थे। सन्् १८५७ के प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम में लखनऊ के बेरीगारद घेरे में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते हुए उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दी। इस तरह उनके कुल में शौर्य की ही नहीं, स्वातंत्र्य प्रेम की परम्परा भी रही है। प्रपितामह का घोड़ा अपने स्वामी के गिरने पर लहुलुहान अकेला घर पहुँचा तो घर में रोना-धोना मच गया। बिना सवार के घोड़े के लौटने का अर्थ ही उत्सर्ग होता था। वह घोड़ा निराहार अपने स्वामी की याद में थान में खड़ा-खड़ा आँसू बहाता रहा और तीसरे दिन वहीं गिरकर उसने दम तोड़ दिया। इतिहास में इतिहास-पुरुषों का ही नहीं, कुछ घोड़ों का उल्लेख भी है उनमें प्रपितामह का वह स्वामिभक्त घोड़ा इतिहास के प्रसिद्ध घोड़ों की श्रेणी में ही आ सकता है। मेरे प्रपितामह की तलवार, उस घोड़े की रकाब और उसका दहाना अपने कुल की अमूल्य धरोहर के रूप में सुरक्षित है।
पितामह ठाकुर बलराज सिंह ने रीवा स्टेट में एक साधारण सैनिक के रूप में कार्य प्रारम्भ किया। तब किसी को अनुमान भी नहीं होगा कि झगरपुर, रीवा राज्य के इतिहास के इतिहास में कुछ पृष्ठ जोड़ेगा। बाबा अश्वारोही सैनिक से प्रगति करते हुए कर्नल के पद पर पहुँच गये। पिता ठाकुर साहब बख्श सिंह ने ग्वालियर की ओर रुख किया पर चाचा प्रताप सिंह अपने पिता के पास रीवा में ही टिके रहे। बाद में पिता भी रीवा आ गये। ग्वालियर में साधारण सैनिक के रूप में कार्यारम्भ करने वाले पिता रीवा की फौज के जनरल बन गये। चाचा रीवा नरेश के ए.डी.सी.। झगरपुर में एक हल की खेती वाले ज़मींदार का यह उत्कर्ष था। उस समय रीवा के राजा थे। व्यंकटरमण सिंह जूदेव। इनके पिता स्व. रघुराज सिंह-रीवा नरेश का उल्लेख तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने-‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में विस्तार से किया है।’’
सुमन जी का रीवा (मध्यप्रदेश)से सम्बन्ध कैसे बनता है उन्हीें के शब्दों में : वे बताते हैं, ‘‘एक दिन महाराज व्यंकटरमण सिंह सरदारों के साथ इंग्लैण्ड से आये हथियारों को रुचि से देख रहे थे। पास ही में ड्यूटी पर चाचा खड़े थे। पता नहीं, कैसे एक रिवाल्वर लोडेड था। ट्रिगर दबा और गोली लगी हमारे चाचा को। वे लहूलुहान, बचने के कोई आसार नहीं थे। महाराज ने पूछा- ‘आपकी कोई इच्छा हो तो बतलाइए।’ डूबती साँसों में अपनी भतीजी अर्थात्् मेरी बड़ी बहन कीर्ति कुमारी का चेहरा झिलमिलाया। उसका ‘हाथ पीले’ होना बाकी है- कहकर रुक गए। महाराज ने भरे गले से कहा उसकी चिंता मत करो। जीवन शेष था इसलिए वे मौत के मुँह से लौट आये शायद उसी खुशी में महाराज ने मेरी बहन से ही ब्याह करने का प्रस्ताव रख दिया। मेरे बाबा घबराए कि ज़मीन, गाय-बैल और बरतन तक बेच दें तो भी एक राजा की बारात की खातिर करने की हमारी हैसियत नहीं। उनकी दुविधा देखकर महाराज ने कहा कि उसकी चिन्ता न कीजिए दोनों ओर का प्रबंध मेरी ही ओर से रहेगा। इस तरह स्वामी और सेवक का रिश्ता अटूट पारिवारिकता में बदल गया। झगरपुर की एक कन्या रीवा की राजरानी बन गयी। आज भी झगरपुर की नयी बाग के नाम से विख्यात आम की बगिया में बीचोबीच ईंटों का एक लम्बा चौड़ा चबूतरा इस अनहोनी के घटित होने का साक्षी है। मैं झगरपुर में अधिक नहीं रहा। पाँच वर्ष की आयु में पिता के पास रीवा आ गया। माँ झगरपुर में ही रहीं। रीवा से ही चौथी कक्षा मार्तण्ड स्कूल में तथा छठी कक्षा तक दरबार हाईस्कूल में पढ़ाई की। वहीं तैरना, घुड़सवारी और निशानेबाजी का प्रशिक्षण मिला।
प्रथम विश्वयुद्ध में एन्फ्लुएंजा की महामारी में महाराज व्यंकटरमण सिंह का असामयिक निधन हो गया। बहन १७ वर्ष की उम्र में विधवा हो गयी। महाराज के दो पुत्र थे, बड़े गुलाब सिंह जो बड़ी रानी से थे और छोटे रामानुज प्रताप सिंह की माँ मेरी बहन थीं। बाद में बहन पर आरोप लगाया कि गुलाब सिंह को मरवाने के लिए वे कोई ‘मारण’ अनुष्ठान करवा रही हैं, जिससे रामानुज प्रताप सिंह को रीवा की गद्दी मिल जाए। बहन को किले की चारदीवारी तक सीमित कर दिया गया। हमारा उनसे मिलना जुलना तक बन्द कर दिया गया। पिताजी बिना पेंशन के तत्काल रिटायर कर दिये गये। चाचा की जागीर भी छिनने को थी पर तत्कालीन ए.जी.पी. मेजर काल्विन की कृपा से किसी तरह बच गयी, पर महाराज गुलाब सिंह की शह पर साहूकार दशरथ बजाज ने पिता के जमा पचास हजार रुपये हजम कर लिए। हमारा खानदान अचानक आकाश से जमीन पर आ गया। रीवा छूटा और सब झगरपुर आ गये। पर मैं अपने चाचा केप्टन प्रताप सिंह के पास रीवा ही रहा। इस प्रकार हमारी किशोरावस्था रीवा में ही बीती। चाचा के बड़े पुत्र मेजर शिवप्रसाद सिंह उनसे कनिष्ठ शिव चरण सिंह और मैं रीवा की अमहिया कोठी में रहते थे। गरमी की छुट्टियों में कभी इक्के पर कभी अपने सुंदरगज नामक हाथी पर अमरपाटन (प्रतापगढ़) आया करते थे। फिर एक साथ ही तीनों भाई रीवा से बाहर पढऩे भेजे गए। मेरे दोनों बड़े चचेरे भाई इलाहाबाद पढऩे चले गए और मैं ग्वालियर।’’
ग्वालयिर में दीक्षित भी हुए और ग्वालियर में शिक्षित भी किया: ‘‘उन दिनों बड़े-भाई हरदत्त सिंह ग्वालियर में स्काउट इन्सपेक्टर थे तो मैं अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए उनके पास ग्वालियर चला गया। सातवीं कक्षा में वहाँ के विक्टोरिया कालिजिएट हाईस्कूल में मैंने प्रवेश लिया..। मैं तो सैनिक नहीं हो सका पर मेरे बड़े चचेरे भाई शिवप्रसाद सिंह सेना में मेजर और दूसरे चचेरे भाई शिवमोहन सिंह सी.आर.पी.एफ.में डी.जी. रहे। मेरा पुत्र अरुण कुमार सिंह भी इसी परम्परा में सी.आर.पी.एफ. में डी.आई.जी. हैं। इसी सैन्य परम्परा को आगे बढ़ाते हुए मेरे एक पौत्र हर्षवर्धन सिंह ने भी लेफ्टिनेंट के रूप में भारतीय सेना में प्रवेश लेकर कमाण्डारों की कठिन ट्रेनिंग पूरी की है। श्री अटल बिहारी वाजपेयी के पिता श्री कृष्णबिहारी वाजपेयी मेरे हिन्दी के अध्यापक थे। उनका पढ़ावा ‘शिव पार्वती विवाह प्रसंग’ आज भी भुलाये नहीं भूलता। यह संयोग ही है कि बाद में श्री अटल बिहारी वाजपेयी मेरे विद्यार्थी हुए पर यह तो काफी बाद की बात है।
साहित्य और सुमन जी: ‘‘मालूम पड़ता है कि मेरे पिता के रक्त या जीन्स में कहीं कविता के संस्कार समाहित थे। मेरे बड़े भाई रामसिंह ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे। वे गाते बहुत अच्छा थे। तुलसी और ‘रामचरितमानस’ ने भी मुझे सँवारा। हिन्दी का संस्कार देने के लिए तब पिताजी मेरे लिए रीवा की छावनी से ही ‘प्रताप’ मँगवाने लगे थे। जिसमें गणेश शंकर विद्यार्थी के अग्रलेख धूम मचा देते थे। उस समय ‘आज’, ‘कर्मवीर’ और ‘प्रताप’ केवल राजनीतिक पत्र ही नहीं थे, प्रमुख कवियों की कविताएँ भी उनमें प्रकाशित होती थीं। थोड़ी समझ बढ़ी और ग्वालियर से अपनी बहन के पास जाता तो उनकी रचनाओं का असर भी मन पर गहरा पड़ता था। तब तक हिन्दी की कवयित्रियों में उनकी गणना होने लगी थी। इसका प्रमाण यही है कि स्व. ज्योति प्रसाद ‘निर्मल’ के द्वारा सम्पादित ‘हिन्दी साहित्य की कोकिलाएँ’ में मेरी बहन स्व. कीर्ति कुमारी जी की कविताएँ संकलित हैं और उनकी डेढ़ दर्जन से अधिक रचनाओं पर रीवा विश्वविद्यालय से शोधार्थी पी.एच-डी. कर चुके हैं। प्रारंभ में मैं कविता का महत्त्व नहीं समझता था, केवल तुकबंदी में माहिर था अतएव स्काउट््स में अपने साथियों से लड़ाई-झगड़ा होने पर तुकबन्दी में ही उत्तर प्रत्युत्तर दिया करता था, यथा-‘तू ने मुझको क्या समझा है, मैं तुझको मज़ा चखाऊँगा। दो ... चार थप्पड़ों से ही मैं तेरी हेकड़ी भुलाऊँगा।’ यह तो कविता नहीं ही हुई। सन् १९३० का वह ज़माना समस्या पूर्ति का था। समस्या दी जाती थी और कवि का सारा कौतुक समस्यापूर्ति में व्यक्त होता था। ग्वालियर के विक्टोरिया कालिजिएट में मैं विद्यार्थी था पर मेरी गिनती नटखट और खिलाड़ी लडक़ों में थी। हेडमास्टर थे व्यंकट गणेश दानी, बड़े कडक़ माने जाते थे। स्नेह सम्मेलन में आयोजित कवि सम्मेलन के लिए समस्या थी ‘छतिया धरकै’ दोस्तों ने मेरा नाम भी लिखवा दिया। तब शृंगार रस का भावबोध तो था नहीं अतएव वह समस्या अनजाने में ही हास्य व्यंग्य में ढल गयी। मैंने सुना दिया - ‘जब घण्टी बजे हाईस्कूल की जियरा धरकै अँखियाँ फरकैं। कहूँ दानी साहब जो मिल जाएँ तो लरिकन की छतियाँ धरकै।’
मंच पहला प्रवेश : ‘‘इंटरमीडिएट प्रथम वर्ष का विद्यार्थी था तब हरिऔध जी के ‘प्रिय प्रवास’ और मैथिलीशरण गुप्त के ‘जयद्रथ वध’ ने अभिभूत किया। उस समय तक हायर सेकण्डरी का स्वरूप नहीं विकसित हुआ था। मेट्रिक के बाद इंटरमीडिएट दो वर्ष का और उसके बाद बी.ए. दो वर्ष। सर्वप्रथम १९३२ में मैंने यह कविता लिखी थी- उसका प्रारंभिक अंश था - ‘‘उपवन की वह हरियाली, पावन समीर का चलना / विकसित कुसुमों की लाली, डाली-डाली का हिलना / ऊषा के मधु नीरव में, सरिता का कल-कल करना / बस हृदय हिला देता था, अधखिली कली का खिलना।’’ यह मेरी पहली कविता है। कालेज की वार्षिक पत्रिका में यह रचना प्रथम पर प्रकाशित हुई। इंटर प्रथम वर्ष के विद्यार्थी की हिम्मत बढ़ाने के लिए इसका कम महत्व नहीं माना जा सकता।’’
वैचारिक पृष्ठभूमि में पहला कदम: ‘‘ मैं तो शुरु से प्रगतिशील रहा हूँ। तब भी था और आज भी हूँ पर ‘सर्वहारा वर्ग की तानाशाही’ का विचार मुझे कभी नहीं जमा। तानाशाही तो फासिस्ट शब्द है। तानाशाही कैसी भी क्यों न हो- विरोध तो होगा ही। यह परिवर्तन भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की अनिवार्य प्रक्रिया है। हाँ, आज का आतंकवाद तो फैनेटिज्म है। इसके विरुद्ध अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सर्जकों और संस्कृति-कर्मियों को एकजुट होना पड़ेगा। अपने समय की चुनौतियों से सर्जक बच नहीं सकता। हमें सांस्कृतिक स्तर पर ही इस चुनौती का मुकाबला करना पड़ेगा।’’
क्या सुमन जी वास्तव में प्रगतिशील अर्थात् माक्र्सवादी थे : क्या कोई धार्मिक व्यक्ति माक्र्सवादी हो सकता है? और सुमन जी किस धर्म की बात करते हैं, विचारीय और प्रासंगिक है, ‘‘रूढ़ अर्थ में न तो मैं धार्मिक व्यक्ति हूँ और न ही मैं कभी धार्मिक व्यक्ति रहा हूँ। धर्म का या किसी भी धर्म का आरंभिक स्वरूप चाहे कितना ही उदार और समाज सापेक्ष रहा हो, उसकी परिणति अन्तत: जड़ किस्म की संकीर्ण सांप्रदायिकता में ही हुई है। बुद्ध ने कहा था - जैसे नाव नदी पार करने के लिए होती है। सिर पर उठाकर बोझ ढोने के लिए नहीं। धर्म का बोझ निरन्तर ढोना या ढोते रहना बुद्धिमानी नहीं हैं।’’ यहाँ सुमन जी के धर्म को हम ‘मजहब’ के अर्थ में ही ग्रहण करेंगे तो उनकी बात समझ में आयेगी, अन्यथा धुरअंध साम्यवादी उन्हें धर्मविरोधी सिद्ध करने लगेंगे क्योंकि उन्हें परिवर्तन में विश्वास नहीं है। वे यह मानने को तब तक तैयार नहीं होते कि किसी व्यक्ति में काल के आधार पर चिन्तिन में परिवर्तन आता है और चाहे अनचाहे वह भारतीय परम्परा से ही अपना नाता रखना स्वस्थ और चिरन्तर विचार का वाहक मानता है, यथा- प्रेमचन्द हों या रामविलास शर्मा , जब तक या तो वे उसको अपनी जमात से न निकाल दें या वह स्वयं ही न निकल जाये। इसीलिए सुमन जी तत्काल भारत की उस चिति की ओर संकेत करते हुए कहते हैं, ‘‘हाँ तुम मुझे आध्यात्मिक व्यक्ति मान सकते हो। अगर मुझे धर्म की व्याख्या करनी ही है तो मैं इतना ही कहूँगा कि मानवीय गरिमा और मनुष्य के सहअस्तित्व को स्वीकार करने वाला मानवीय आधार ही मेरे लिए धर्म है। बुद्ध ने ही कहा था- मनुष्य को अधर्म का त्याग तो करना ही चाहिए पर जिसे तुमने धर्म (रिलीजन/मजहब) समझा उसमें भी दोष दिखायी पड़े तो उस धर्म (रिलीजन/मजहब) को छोडऩे में भी संकोच नहीं करना चाहिए।’ मेरा मानना है सुमन जी को भी उसी निरन्तरता में उन्हें समझा जाये। क्योंकि वे आगे स्पष्ट करते हुए कहते हैं, ‘‘पूजा मेरे लिए कोई धार्मिक (रिलीजियस/मजहबी) कर्मकाण्ड नहीं है। नियम से पढऩा ही मेरी पूजा है। सारी व्यस्तताओं में से अपने पढऩे के लिए मैंने इसी तरह समय निकाला है ‘गीता’ और ‘रामचरित मानस’ दो स्थायी पुस्तकें हैं, शेष पूरी होने पर बदलती रहती है। .. हाँ एक नियम अखण्ड चल रहा है मेरे पिता शिव-भक्त थे। उनकी अन्तिम इच्छा थी कि मैं ‘महिम्न स्तोत्र’ का पाठ करता रहूँ। मैंने वह नियम कभी भंग होने नहीं दिया। बिना आडम्बर के कैसी स्थिति में कहीं भी मैं ‘महिम्न पाठ’ कर लेता हूँ।’’ क्या अब भी आप उन्हें रूढ़ अर्थी साम्यवादी/ रूढ़ प्रगतिशील कहेंगे?
सुमन जी की सुदृढ़ता : ‘‘काशी विद्यापीठ और बनारस शहर की अपनी-अपनी परम्पराएँ थीं। बनारस का अपना साहित्यिक सांस्कृतिक महत्त्व था। इनका मिला-जुला प्रभाव अभिभूत करता था। विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद से बाबू श्यामसुन्दर दास सेवामुक्त हुए, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया था। यह मेरा सौभाग्य है कि मैं शुक्ल जी का विद्यार्थी हूँ। आचार्य केशव प्रसाद मिश्र भी मेरे गुरु रहे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हमें ‘गुंजन’ ‘लहर’ और ‘आँसू’ पढ़ाते थे और केशव मिश्र - ‘कामयनी’ तथा भाषाविज्ञान। कल्पना नहीं कर सकते कि क्या वातावरण था, तब कक्षाओं में...। काशी विद्यापीठ में राजनीतिक चेतना प्रखर थी। आचार्य नरेन्द्र देव, श्री प्रकाश जी, सम्पूर्णानन्द आदि काशी विद्यापीठ के प्राध्यापकों में से थे।’’
शिवमंगल सिंह से शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ : यों तो मैं ग्वालियर में ही शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ हो गया था पर परिष्कार बनारस में हुआ। ग्वालियर जाना पहचाना था फिर भी बनारस छोड़ते हुए दु:ख हो रहा था। बनारस के मित्रगण भी यही चाहते थे कि मैं बनारस न छोडूँ। भारी मन से ही यहाँ आया था। एक सौ पचास रुपया मासिक वेतन था जो उन दिनों के हिसाब से काफी था। तब व्याख्याता की यही ग्रेड थी। यहाँ मन लग गया। अटल बिहारी वाजपेयी, रामकुमार चतुर्वेदी ‘चंचल’, देवेन्द्र नाथ वर्मा, वीरेन्द्र मिश्र मेरे विद्यार्थी थे। निराला जी ग्वालियर आये तो मेरे पास ही रुके। अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन ग्वालियर में आयोजित कवि सम्मेलन में तो पन्त जी को पहली बार काव्य पाठ करते सुना। उन्हें देखकर मैं मुग्ध हो गया। सुभद्रा कुमारी चौहान ने इसी कवि सम्मेलन में - ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।’ सुनायी थी। पन्त जी द्वारा सुकुमार संवेदनपूर्ण स्वरों में ‘सुख-दुख के मधुर मिलन से, ये जीवन हो परिपूरन’ का सस्वर पाठ सुनकर श्रोता भाव विभोर हो उठे थे। राहुल जी ग्वालियर आये तो एक दिन मेरे पास रुके कुल मिलाकर वे दिन स्मरणीय थे। तत्कालीन ग्वालियर नरेश से भी निकटता हुई। क्लब में आयोजित कवि सम्मेलन में ‘बंगाल का अकाल’ जैसी कविता पढ़ी तो उस पर भी वे प्रसन्न हुए। अपूर्व उत्साह था मुझमे। वहीं वीर दुर्गादास का मंचन भी करवाया जिसमें जोधपुर नरेश अजीत सिंह का पार्ट मैंने किया। बाद में कॉलेज में भी धु्रवस्वामिनी का मंचन कराया जिसमें चन्द्रगुप्त मैं बना, धु्रवस्वामिनी का पार्ट रामकुमार चतुर्वेदी ‘चंचल’ ने किया, उस समय मंच पर लड़कियों की उपलब्धि दुर्लभ थी। मेरे सामने राहें थीं, मंजिलें थीं और प्रगतिशीलता के दौर का जोश खरोश था। ‘कलकत्ते का अकाल’ उसी काल की रचना है।’’
किन्तु व्यापक पहचान भी बनारस में ही बनी। वे लिखते हैं, ‘‘तब तक मैं मैथिलीशरण गुप्त से प्रभावित था। विशेषकर उनके खण्ड काव्य ‘जयद्रथ वध’ से। इसके अतिरिक्त एक ओर तो श्री रामनरेश त्रिपाठी के खण्ड काव्य ‘पथिक’ और दूसरी ओर प्रसिद्ध क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल के ‘बन्दी जीवन’, काकोरी के शहीद रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ की जीवनी पढऩे का चस्का लग गया था। इंटर में हरिऔध जी का ‘प्रियप्रवास’ और प्रेमी जी की ‘आँखों’ से अभिभूत हुआ। बनारस आया तो छायावादी काव्य के युगान्तरकारी संक्रमण से प्रथम जीवन्त सम्पर्क का सुयोग सुलभ हुआ। उन दिनों प्रसाद के ‘आँसू’ का युवकों में बड़ा प्रचार था। विशेषकर रोमेन्टिक युवकों का तो यह कण्ठहार बन गया था। चार आने की यह पतली सी किताब का जादू सिर चढक़र बोलता था। मैंने भी रात-रात भर जागकर ‘आँसू’ का पारायण किया है। इस प्रकार छायावादी संस्कारों से एक प्रकार की आत्मीयता का विकास हुआ।’’
सुमन जी बताते हैं, ‘‘सन्् ४७ में शान्तिनिकेतन गया था। सन् ४३ में भी एक सप्ताह के लिए केवल शान्तिनिकेतन देखने के लिए चला गया था। गुरुदेव का निधन हो चुका था, पर वहाँ की हवा, पानी धूप-चाँदनी में उनका प्रतिबिम्ब महसूस किया जा सकता था। ऋतुओं के स्वागत में उत्सव आयोजित होते थे। आम्रवीथी, शालवीथी, गुरुपल्ली आदि में घूमने फिरने का आनन्द ही निराला था। संथाली युवतियों में रवीन्द्र नाथ टैगोर के गीतों की प्रतिध्वनि लोकगीतों की तरह छाई हुई थी। एक सर्जक की अपने समाज में इतनी गहरी पैठ देखकर मैं सचमुच अभिभूत हो गया था। आचार्य क्षितिमोहन सेन के प्रवचन असर करते थे। कड़ा अनुशासन था। गुरूदेव का जन्मदिन उत्साह से बनाया जा रहा था। उनके पुत्र रथी बाबू और अनेक अध्यापक वैदिक मंत्रोच्चार के साथ पाँच वृक्ष उस दिन रोपते थे। आचार्य क्षितिमोहन सेन पृथ्वीसूक्त के मंत्रों से उनका आह्वान करते थे कि - ‘हम तुम्हें यहाँ स्थापित करते हैं, हमारी पूजा स्वीकार करो। अंकुर बनो। सिंचन से पौधे बनो। फल-फूल से भर जाओ। पथिकों को छाया देते रहो और स्वयं धूप-वर्षा झेलते रहो।’ वह मंत्रात्मकता मुझे रोमांचित कर गयी। उस समय शांति निकेतन में कोई पदत्राण नहीं पहनता था। छात्र-छात्राएँ, आचार्यगण सभी, नंगे पैरों से संक्रमण किया करते थे। लाल मिट््टी होने से पैर भी गंदे नहीं दिखते थे। प्रत्युत लालिमा से परिपूर्ण रहते थे।’’
वे आगे बताते हैं कि, ‘‘शांतिनिकेतन में बांगला गीत परम्परा के ही नहीं, छायावाद के मर्म को समझने के लिए भी बांग्ला भाषा सीखना जरूरी लगा। मैंने आचार्य केशव प्रसाद मिश्र से बांग्ला भाषा शिक्षा की आरम्भिक पुस्तकें प्राप्त कीं और विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों की सहायता से अभ्यास शुरू किया। अज्ञेय ने बड़ी सहायता की। लिखने-पढऩे और बोलने का अभ्यास बनारस में ही हो गया था। ‘गीतांजलि’ मूल बाँग्ला में पढ़ चुका था। हाँ, शांतिनिकेतन में और निखार आ गया। शांति निकेतन में तीन महीने का समय अधिक नहीं होता है फिर भी हजारीबाबू वहाँ थे ही, उनसे सम्बन्ध प्रगाढ़ हुए। गोस्वामी जी वहाँ दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक थे। आचार्य क्षितिमोहन सेन, काल-पुरुष आचार्य नन्दलाल बोस का स्नेह-आशीष मिला। मूर्तिकार रामकिंकर की सरलता और भोलापन देखते ही बनता था। एक दिन प्रात: नन्दलाल बोस टहलते-टहलते मेरे कमरे में आए और सुन्दर पुष्पित गुलाब को दिखाकर बोले कि - ‘देखुन तो, ऐदिके भालो छंद।’ मैं समझ नहीं पाया क्योंकि छंद तो काव्य का गुण है। केवल ‘बेश भालो दा’ कहकर रह गया। बाद में हजारी प्रसाद द्विवेदी से उनके वाक्य का मर्म समझकर मुग्ध हुआ। गीत परम्परा के ही नहीं, छायावाद के मर्म को समझने के लिए भी बांग्ला भाषा सीखना जरूरी लगा। मैंने आचार्य केशव प्रसाद मिश्र से बांग्ला भाषा शिक्षा की आरम्भिक पुस्तकें प्राप्त कीं और विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों की सहायता से अभ्यास शुरू किया। अज्ञेय ने बड़ी सहायता की। लिखने-पढऩे और बोलने का अभ्यास बनारस में ही हो गया था। ‘गीतांजलि’ मूल बाँग्ला में पढ़ चुका था। हाँ, शांतिनिकेतन में और निखार आ गया।
सुमन जी का युगधर्म : ‘‘मैं समाज के बारे में विचार करता हूँ तो मैं सोचता हूँ कि मेरा समाज तो सर्जक ही है। इसलिए मेरी सारी चिन्ता अपने-अपने इस समाज को लेकर ही है। आज इनके सामने बड़े-बड़े आकर्षण और प्रलोभन हैं। सर्जक आज कई-कई युक्तियों से ‘सब कुछ’ पा लेना चाहता है। सर्जकों में मतभेद हो सकते हैं। मतभेद तो पहले भी कम नहीं रह,े निराला और पन्त के वैचारिक मतभेद तो जगजाहिर है। पर तब भी उनमें सहिष्णुता थी। तमाम असहमतियों के बीच भी संवाद था। आज लेखकों के सामने चौतरफा संकट है। शब्द बेअसर हो रहे हैं। ऐसे में मेरा सर्जक ईमानदारी से अपने मूल्यों पर दृढ़ रहा और वह किसी तरह के समझौते और प्रलोभन से बच गया तो मैं पूरे समाज को अनुकूल दिशा में मोड़ लूँगा। सर्जक ही मेरा माध्यम है। इसी माध्यम को मैं समाज के निर्माण और व्यवस्था के परिवर्तन में सक्रिय होते देखना चाहता हूँ। मेरी सारी अपेक्षाएँ सर्जक से ही हैं।’’ वस्तुत: सुमन जी का पूरा युगबोध नयी पीढ़ी को संकेत करता है, वे नयी पीढ़ी को हतोत्साहित, भटका हुआ नहीं मानते। आशा और आस्थावाद अभी नयी पढ़ी को आगे ले जायेगा ऐसा उनकी मान्यता है, ‘‘नयी पीढ़ी से मुझे बड़ी आशा है। हमारे जमाने में जो कुछ स्वप्नत्व था, आज उनके लिए वास्तविकता है। हमारी अपेक्षा इस पीढ़ी के पास ज्ञान और सूचनाएँ अधिक हैं। साधन ज्यादा हैं, सम्पर्क बढ़े हैं। यह सब तो है पर इस पीढ़ी के सामने खतरे भी कम नहीं है। जन-संचार माध्यमों का विस्तार और आज भी उपभोक्ता संस्कृति ने हमारे उन आदर्शों पर हमला बोला है, जो हमारे लिए मूल्य थे। नयी पीढ़ी को रूढिय़ों, कुसंस्कारों और हर तरह की संकीर्णताओं से तो लडऩा ही है, अपने जीवन और व्यवहार में उसे उदारता भी विकसित करनी है। परम्परा उसे समृद्ध तो करें पर उसकी चेतना रुद्ध नहीं होनी चाहिए। सृजन किसी भी क्षेत्र में हो, वह मेरी दृष्टि में प्रकारान्तर से काव्य-सृजन ही है। नयी पीढ़ी को सृजनधर्मा होना चाहिए। जब मैं नयी पीढ़ी की बात करता हूँ तो मेरी नयी पीढ़ी सर्जकों की पीढ़ी ही होगी।’’
जीवन को देखने उनकी दृष्टि : वे आशावादी हैं। ‘‘ऐसा कोई एक भी व्यक्ति बतला सकते हो जो आज तक कभी निराश ही न हुआ हो? आशा निराशा जो जीवन का क्रम है। कोई अधिक निराश अनुभव करता है तो कोई कम। किसी-किसी का निराश रहना स्वभाव ही बन जाता है और कोई अपनी निराशा पर तत्काल विजय पा लेता है। मैं भी जीवन में निराश हुआ हूँ और कई बार निराश हुआ हूँ। यह शायद ही किसी को ज्ञात हो कि मैं कभी विधि-शास्त्र का विद्यार्थी भी रहा और विधि की परीक्षा में असफल भी हुुआ। तब मैंने एक कविता लिखी थी- ‘मेरा अन्त बुरा होना था ../ आज मैं असफल हुआ।’ जैसी कविताएँ जीवन के निराश क्षणों की ही उपज हैं, पर मैंने तत्काल अपनी निराशा पर काबू पा दूने उत्साह से अपने कर्म में जुट गया। तब मैंने लिखा - ‘वरदान माँगूगा नहीं।’ आशावादिता तो मेरे स्वभाव का सहज अंग है। बड़ी चुनौतियों को स्वीकार करने में मुझे आज भी सुख मिलता है। कभी मैंने लिखा था- ‘मिट्टी के मानव पुतले ने कभी न मानी हार। तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार। रचनात्मक दृष्टि से ‘पर आँखे नहीं भरी’ और विन्ध्य-हिमालय’ से मेरी रचना यात्रा का एक वृत्त बनता है। यहाँ तक पहुँच कर मुझे लगने लगा था कि अब मुझे गंभीरतापूर्वक रचनाकर्म में जुटना है।’’
लेखन और विभिन्न प्रशासनिक दायित्व: तमामा प्रशासनिक दायित्वों के बाद भी वे अपने को लेखन कर्म से च्युत नहीं पाते, ‘‘ नेपाल प्रवास के समय मन में काफी द्वन्द्व था। तुलसी सदा मेरे मार्गदर्शक रहे हैं। उन्होंने ही मुझे मार्ग दिखाया ‘तात किये प्रिय प्रेम प्रमादू, जसु जग जाइ होई अपवादू।’ ये पंक्तियाँ मेरे लिए मंत्र बन गयी। फिर निरर्थक तो कुछ भी नहीं होता है। लेखन और लेखन से इतर कार्य करते हुए भी मैंने माना है- ‘सार्थक है यहाँ पर समय का हर साज। थी जरूरत इसलिए ही मैं यहाँ पर आज।..’ नेपाल से जब मैं लौटा, रचनात्मक दृष्टि से मैं भरपूर ऊर्जा से भरा हुआ था। बड़े लेखन की सारी तैयारी थी। यहाँ आया तो माधव महाविद्यालय, उज्जैन का प्राचार्य बना दिया गया। एक नयी तरह की व्यवस्था शुरू हो गयी। फाइल वर्क प्रशासनिक दायित्व, महाविद्यालय का सतत्् विस्तार प्रतिदिन की कॉलेज की समस्याएँ। एक वृत्त से निकला तो दूसरे वृत्त में घिर गया। फिर विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलपति का दायित्व। यहाँ महाविद्यालय की समस्याओं से बड़ी समस्याएँ थीं। यात्राएँ बढ़ गयीं, मीटिंग, फाइल, सचिवालय के चक्कर में दिन बीत रहे थे। रोज नये अनुभव, हड़ताल-घेराव, जिंदाबाद-मुर्दाबाद, यही रुटीन बन गया था। इसी बीच लेखन भी चलता रहा। ‘मिट्टि की बारात’, ‘जरा मशाल जलाओ।’ जैसी लम्बी कविताएँ इसी दौर की हैं। सच मानो, मेरी कविता तो कर्ण के बाण की तरह है। अगर इतने दायित्व, इतने बोझ, इतनी व्यवस्तताएँ नहीं होती तो मेरा लेखन कहीं ज्यादा और अधिक प्रभावशाली ही होता। रचनात्मक दृष्टि से नेपाल से लौटना मेरे लेखन के लिए महत्वपूर्ण मोड़ हो सकता था। अब जो, जैसा और जितना भी इस भागदौड़ में लिख सका हूँ सबके सामने हैं। पर यह भी सही है कि इन तमाम व्यवस्तताओं ने मुझे अनुभव सम्पन्न बनाया है और इन्हीं से मैंने बहुत कुछ सीखा भी है। ...रही उपलब्धि की बात तो ‘निराला’ महादेवी का सानिध्य, शान्ति निकेतन का परिवेश, मालवा के लोग-तमाम परिचित और अपरिचित। इनका अगाध स्नेह मेरे जीवन की मूल्यवान उपलब्धि है। इन्हीं ने मुझे ‘सुमन’ बनाया है इन सभी से उऋण होना संभव नहीं है। कम से कम इस जीवन में तो नहीं ही।’’
लेखन-धर्म की कठोरता: ‘‘लेखक ने अपनी प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता स्वयं समाप्त की है। पाठक या श्रोता लेखक के शब्द और आचरण में विपर्यय पाता है तो उसका विश्वास लेखक के शब्दों पर कैसे दृढ़ होगा? लेखकों-कवियों के लिए शब्द आज सीढ़ी हो गये हैं, जिनका उपयोग करके वे अपने-अपने लक्ष्य पर पहुँचना चाहते हैं। कई तो बड़ी कुशलता से पहुँच भी गये हैं। लेखन के लिए वातावरण की नहीं बल्कि मानसिकता प्रमुख होती है। सृजन के क्षणों में यह होश भी नहीं रहता है कि वातावरण अनुकूल है या प्रतिकूल। ऐसा कभी नहीं हुआ और शायद किसी लेखक के साथ होता भी नहीं है कि वह लेखकीय अनुकूलता निर्मित करके लेखन शुरू करें। रचना तो वह क्षण, वह मानसिकता है, जिसे पकडऩा और बाँधना है। वह क्षण ठीक से पकड़ में आ गया तो रचना हो गयी। यदि हम अनुकूल स्थितियों की प्रतीक्षा में रहे तो लेखन हो ही नहीं पाएगा। मैंने तो अपनी कई कविताएँ और लम्बी-लम्बी कविताएँ अपनी व्यस्तताओं बल्कि अलेखकीय किस्म की व्यवस्तताओं और यात्राओं में लिखी हैं। वे रचनागत कमजोरियों को कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं, ‘आह अरणि में तप्त तूल कण कोई रगड़ गया। सबने साध लिए ज्योतिर्कण मैं ही पिछड़ गया।’ मुझे अपनी काव्यगत सीमाएँ भी अच्छी तरह मालूम है। मैं जानता हूँ कि कवि होना तो बहुत बड़ी बात है पर कवि होने का प्रयास करते रहना भी कम बड़ी बात नहीं हैं। मैं आज भी कवि होने के प्रयास में ही हूँ। ’’ चुनौतियाँ बड़ी हैं इसलिए लेखक के दायित्व भी बढ़ गये हंैं। मैंने भी लिखा है- ‘मैं कब तक बैठू कलम सम्हाले/ मुझको इस युग का नमक अदा करना है।’
रचना प्रक्रिया और सुमन जी: ‘‘ कविता की रचना, कविता ही क्यों हर सृजन ही चुनौतीपूर्ण होता है। एक बच्चे को जन्म देने के लिए माँ क्या कम संघर्ष करती हैं? जन्म देते हुए स्त्री हर बार मरणान्तक अनुभव से गुजरती है, पर जन्म देकर वह अगले ही क्षण सारे संघर्ष भूलकर चरम सुख में प्रवेश कर जाती है। रचना-संघर्ष भी ऐसा चुनौतियों से भरा होता है। उस प्रक्रिया से गुजर जाने पर सब कुछ सहज और आसान लगने लगता है। यों लम्बी कविताओं को लेकर फॉर्म की तलाश, उस फार्म का निर्वाह। बड़े कैनवास पर व्यक्त करने का समयगत धैर्य, संतुलन और भराव की चुनौतियाँ तो होती ही है। कविता में निर्मित प्रभाव का सतत, निर्वाह, सम्प्रेषण के लिए भाषागत समस्या, यदि कोई मिथक है तो प्रासंगिकता के सवाल और उसकी ऐतिहासिकता की रक्षा जैसी एक साथ कई चुनौतियाँ खड़ी हो जाती हैं। ‘जल रहे हैं दीप जलती है जवानी’ ऐसी ही कविता है और ‘मिट्टी की बारात भी’ इन कविताओं को लिखते हुए मुझे ऐसी कितनी ही चुनौतियों से जूझना पड़ा है। यदि बड़ी चुनौतियाँ स्वीकारी हैं तो उतना ही सुख और उतनी ही बड़ी तृप्ति भी मुझे मिली है। इन या ऐसी कविताओं के रचने के बाद में। ‘वरदान माँगूगा नहीं’, ‘आह अराणि में तप्त तूल सा कोई रगड़ गया।’, ‘माँ गयी’ ऐसी कुछ कविताएँ हैं जिनको लिखते हुए मैं पूरी तरह रम गया था। जो कविता मुझे भीतर से समबोध देती है उसी को लिखकर मुझे तृप्ति मिलती है। कविता के छोटे या बड़ा होने, फार्म, कन्टेंट और डिक्शन की बातें तो बाद की बातें हैं। वियतनाम / वियतनाम / कर दिया तमाम काम / वाह रे आवाम! यह छोटी सी कविता आज भी मुझे तृप्ति देती है। इसमें भी जो कुछ है। वह मेरा उत्साह हो अथवा इस कविता का। कविता वह तो- ‘वाह रे आवाम’ में ही निहित है।’’
‘सुमन’ जी और गीत : ‘‘अब भी मानता हूँ कि गीत में शक्ति है। अगर मैं इधर कुछ वर्षों से गीत नहीं लिख रहा हूँ तो मानना चाहिए कि भीतर का उल्लास कुछ कम हुआ है। अभ्यासवश तो मैं गीत अब भी लिख लूँगा पर संगीत की भाषा में जिसे ‘स्वरमय होना’ कहते हैं, वैसा इस उम्र में सम्भव नहीं हो पा रहा है। कई हैं,जो प्रतिज्ञापूर्वक एक ही शैली में निरन्तर लिख रहे हैं पर यह भी सही हैं कि अपने शिल्प की ताज़गी के लिए भी अपने फॉर्म से थोड़ा अवकाश लेना चाहिए। बड़े-बड़े लेखकों ने ऐसा किया है। शैली के प्रति मोह लेखन को क्षति ही पहुँचाता है। मैं यह नहीं कहता कि मैं अब गीत नहीं ही लिखूँगा पर मैं जब भी गीत रचना करूँगा तो वह मेरे भीतर की माँग ही होगी।’’
‘‘श्रव्य परम्परा के हृास से हिन्दी कविता की बड़ी हानि हुई है। कवि अपनी ध्वनि-क्षमता से ही आज अपरिचित हो गया है। ध्वनि की क्षमता और उसके व्यापक प्रभाव का परीक्षण कविता की श्रव्य परम्परा में ही सम्भव है। प्रभावशाली काव्य-पाठ से कविता के सारे बिम्ब मूर्त हो जाते हैं। कविता भी एक सीमा तक हो प्रयोग-परक माध्यम है ही। इस इसका यह दोष भी है कि प्रभावशाली पाठ में शिथिल मुहावरा भी खप जाता है। कविता को केवल श्रव्य मान लेने से ही मंच पर कविता का हृास हुआ है। वास्तव में कविता का पूरा अर्थ तो कविता को पढऩे से ही खुलता है, सुनने मात्र से नहीं। हाँ आज की कविता में समप्रेषण का जो अभाव पाया जाता है उसका कारण भी यही है कवियों ने अपनी रचनाओं को श्रोताओं से वंचित कर लिया है। इससे ‘कुकविता’ को मंच पर अवसर मिल गया। ये दोनों स्थितियाँ हैं। जिनके धनात्मक पक्ष भी हैं और ऋणात्मक पक्ष भी। ’’
रचना की श्रेष्ठता और लघुता पर उनके विचार , ‘‘जीवन के अलग-अलग काल-खण्डों में कवि और उसके श्रोताओं कवि की रचनाओं में अपना समय ही नहीं, तात्कालिकता भी पाना चाहते हैं। कवि भी अपनी पूरी क्षमता के साथ हर बार अपने समय और उनसे जुड़े अनुभव के साथ उपस्थित होता है। अत: सर्वकालिकता में अपनी और श्रोताओं की पसन्द खोजना ठीक नहीं है। .. ..अपने पाँच दशक से अधिक के लेखन में से किसी एक रचना को श्रेष्ठ मानना और बतलाना सम्भव नहीं है। हाँ, कुछ कविताओं का उल्लेख किया जा सकता है। - ‘पथ भूल न जाना पथिक कही’ ऐसी ही एक रचना है जिसे हर स्तर के श्रोताओं की खूब दाद मिली है। यही नहीं, जो मेरे सोच-मेरी विचारधार से भी असहमत हैं उन्होंने भी इस रचना को खूब गाया है। ‘देखों मालिन मुझे न तोड़ो’ ‘हम पंछी उन्मुक्त गगन के’ और ‘तूफानों की और घुमा दो नाविक निज पतवार’ को लिखकर मुझे तृप्ति भी मिली और श्रोताओं की सराहना भी। ’’
जीवन के रहस्य : ‘लखनऊ-प्रवास’ है। यह मेरी पिछली लम्बी कविताओं से भिन्न पैराये की रचना है। एक उम्र के बाद व्यक्ति अपने आगे ही नहीं, अपने अतीत में देखना शुरू कर देता है। यह लम्बी कविता भी कुछ ऐसी ही है। उम्र के इस पड़ाव पर अपने जिये हुए को दुबारा जीने और जो जी रहा हूँ उसे संजो लेने की ललक ही इस कविता में अधिक व्यक्त हुई है। इतिवृत्तात्मकता, नामावली, स्थान और समय के प्रति आसक्ति इस कविता के प्रेरक तत्व रहे हैं। जैसी है, यह एक लम्बी कविता इधर आयी ही है।’’ वे सम्मरण कराते हैं, ‘‘शुरू-शुरू में अच्छा वक्ता नहीं था। बहुत तेजी से बोलता था। इस तीव्रता में शब्द बलबलाहट बनकर रह जाते थे। अक्सर। पर जब पं. मदनमोहन मालवीय जी का भाषण सुना तो प्रभावित हुआ। बनारस में ही पण्डित सुन्दरलाल (भारत में अंग्रेजी राज) के यशस्वी लेखक को सुना और मंत्रमुग्ध हुआ। इसके बाद माखनलाल चतुर्वेदी जी के भाषण से भाव विभोर हो गया तथा मेरी बहुचर्चित भाषण कला को इन्हीं महापुरुषों की जूठन समझो। निश्चित रूप से निराला जी से। सर्जक के रूप में निराला जी से तो बराबरी हो ही नहीं सकती थी तो निराला जी की शैली कुछ लेखन में और कुछ काव्य-पाठ में अपनाने की कोशिश की। उस समय माइक्रोफोन, लाउडस्पीकर प्रचलन में नहीं आये थे। सस्वर काव्य-पाठ का प्रचलन था ऐसी स्थिति में निराला जी का अनुकरण ही मुझे रास आया। इसके अतिरिक्त नवीन जी के काव्यपाठ ने भी मुझे विमोहित किया।’’
आलोचक की भूमिका : ‘‘मूल्यांकन करना और सही-सही मूल्यांकन करना सचमुच कठिन कार्य है। अपना मूल्यांकन करना तो और भी कठिन होता है। रचना आत्मपरक होकर लिखी जाती है पर आलोचक की दृष्टि वस्तुपरक होती है। आत्मपरक दृष्टि को जरूरत पडऩे पर वस्तुपरक दृष्टि में ढाल लेना आसान नहीं होता। यह भी सही है कि आज आलोचक के पास वस्तुपरक दृष्टि विरल हो गयी है फिर भी में यह मानता हूँ कि अपना मूल्यांकन आलोचकों पर छोडक़र मुझे केवल रचना के क्षेत्र में ही रहना चाहिए।’’ वे कहते हैं, ‘‘आदर्श शिक्षक का विवेक मुझे शुक्ल जी से मिला। शुक्ल जी से मैंने काव्य विवेक ग्रहण किया। वे बहुत धीरे-धीरे पढ़ाते थे। उनके अध्यापन में गाम्भीर्य था और शब्द-शब्द जैसे तौला हुआ हो। और केशव जी धारा प्रवाह पढ़ते थे अपने वैदुष्य में वे बहाकर ले जाते थे। अध्यापक के रूप में मैंने दोनों की अध्यापन शैली से अपनी शैली विकसित की। शुक्ल जी से मैंने काव्य विवेक और विश्लेषण की युक्ति को ग्रहण किया और केशव जी से भावात्मक बोधगम्यता। शुक्ल जी से समालोचना केशव जी भाषा विज्ञान भी पढ़ाते थे और वहीं हिन्दी के प्रथम डी.लिट. डॉ. पीताम्बरदत्त वाड़थ्वाल से ‘कबीर’ को पढऩे का सौभाग्य मिला था।’’
जीवन का शेष कैसा हो : ‘‘मैं अपने बिखराव को समेटना चाहता हूँ। मुझे अपने बारे में कोई भ्रम-कोई मुगालते नहीं हैं। मुझसे ज्यादा अपनी कमजोरियों को दूसरा कोई नहीं जानता है। मुझे अपनी सीमाओं का भी पूरा अहसास है। इसलिए उम्र के इस पड़ाव पर मैं अपने बिखराव को समेट सका तो यही मेरे लिए बड़ा काम होगा। ... हाँ, मैं आराम तो एक क्षण के लिए भी करना नहीं चाहता कबीर ने कहा था- ‘साधू संग्राम है रैन - दिन जूझना। देह परजंत का काम है भाई।’ अपनी अन्तिम साँस तक मैं कुछ न कुछ करता रहूँ। यही मेरी इच्छा है।’’
यह वह सुमन जी हैं, जिन्हें साम्यवादी मानकर उनकी एक दो उन प्रारंभिक कविताओं का उदाहरण दे कर साम्यवादी कह दिया जाता है, जिसका जिक्र वे पूरे साक्षात्कार में कहीं नहीं करते। साम्यवादी कहकर सुमन जी की भारतीयता को नकारने वालों के सामने एक प्रश्र क्यों नहीं आता कि वे जब युवा थे उनके सामने स्वतंत्रता आन्दोलन का गरम दल था, रूस की क्रांति से देश की राजनैतिक धारा पूरी तरह प्रभावित थी उस समय यदि एक युवक कुछ दूर तक धारा में प्रवाहित हो गया तो उसे पूरी परम्परा का विरोधी मानकर उपेक्षित कर दिया जाये? जो व्यक्ति तुलसी को अपना पथप्रदर्शक मानता हो, रामचरित मानस, गीता और महिम्र स्त्रोत को रोज पाठ करता हो, जिसके सामने धर्म की पूरी स्पष्टता हो, जिसके आदर्श शिक्षक, अविभूत कर देने वाले श्री कृष्ण बिहारी वाजपेयी, आचार्य क्षितिमोहन सेन, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य नन्दलाल बोस रहे हों, जिन्हें मूर्तिकार रामकिंकर, हजारी प्रसाद द्विवेदी, केशव प्रसाद मिश्र और जिसे शांतिनिकेतन की धरोहर मिली हो, जो गीतांजलि और भारतीय चेतना का अन्त:वासी हो, जिसके आदर्श निराला, पंत, माखनलाल चुतर्वेदी रहे हों, उसे साम्यवादी कह कर वर्षों में मध्यप्रदेश की धरती पर ही उपेक्षित रखा जाना न केवल उनकी प्रतिभा से युवाओं को परिचय देने से वंचित किया जाना है, बल्कि हर उस साहित्यकार को पाप का भागीदार बनना होगा जो आज रामविलास शर्मा को तो अपेक्षित मानने लगा है किन्तु सुमन जी अभी भी अपनी कर्मभूमि पर उपेक्षित हैं।
विचारों, विचारधाराओं का खेमा बनाकर जिस तरह साम्यवादियों ने घोर पाप किया है उसी तरह विपरीत ध्रुव स्थापित कर केवल हमारी ही तूती बजती रहें, तथाकथित अन्य पंथियों ने भी उतना ही पाप किया है। मेरा मत है कि भारतीय रचनाकारों का पुन: समग्र मूल्यांकन होना चाहिए, उनकी चेतना की पड़ताल भारतीय नजरिये से की जानी चाहिए। आवश्यकता है जिन्हें साम्यवादियों ने अपने कब्जे में ले रखा है अथवा असाम्यवादियों ने उन्हें अपने हित सरंक्षण में दूसरे पाले में जानबूझ कर ठकेलने का अपुनीत कार्य किया है, उन पर कार्य होना चाहिए। आलेख पढक़र निर्णय पाठक स्वयं करें।
यह सम्पूर्ण आलेख ‘साक्षात्कार’ में छपे सुमन जी के १७-१८ साल पुराने साक्षात्कार के आधार पर है। एक लेखक के नाते साक्षात्कार पत्रिका के साक्षात्कार लेनेवाले तथा ‘साक्षात्कार’ पत्रिका, साहित्य अकादमी का आभारी हूँ।
७३८९८१४०७१
No comments:
Post a Comment