स्वामी विवेकानन्द एवं वर्तमान सन्दर्भ
स्वामी विवेकानन्द जी का एक कथन है कि- ‘‘दुनिया में जब भी भारत का मूल्यांकन किया जायेगा तब उसे निर्विवाद रूप से ज्ञात होगा कि भारत धर्म के साथ-साथ संगीत, साहित्य, विज्ञान और ललित कलाओं में भी दुनिया का गुरू रहा है। ’’ दुनिया में हिंदू धर्म और भारत की प्रतिष्ठा स्थापित करने वाले स्वामी विवेकानंद अपने आध्यात्मिक जीवन और नवीन एवं जीवंत विचारों के कारण आज भी दुनिया भर के युवाओं के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं।
स्वामी विवेकानंद भगवान वीरेश्वर के वरदान स्वरूप इस दुनिया में आये थे। माता भुवनेश्वरी देवी ने अपने पुत्र को शिव जी का प्रसाद माना और उसे वीरेश्वर नाम दिया। परिवार का यही दुलारा नरेन नरेन्द्र से होता हुआ विवेकानन्द बना और परिवार की संतान से विश्व का धरोहर बन गया। माना जाता है कि नरेन्द्र के पितामह दुर्गादास के सारे आध्यात्मिक जीवन फल विवेकानन्द के प्रारब्ध बन कर उभरे। नरेन्द्र को पगड़ी, कोड़े तथा भड़कील पोशाक में सजे अपने परिवार के संन्यासी का व्यक्तित्व बड़ा लुभावना लगता था। वे प्रायः बड़े होकर वैसा ही बनने की आकांक्षा व्यक्त करता थे। भारतीय संस्कार परंपरा का जीवन्त उदाहरण है विवेकानन्द का जीवन।
1886 में रामकृष्ण के निधन के बाद स्वामी विवेकानंद ने जीवन एवं कार्यों को एक नया मोड़ दिया। 25 वर्ष का गेरुआ धारी पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की, दरिद्र ही नारायण है उन्हें विश्वास हुआ। जब उनके आश्रम में एक अनुयायी ने उनसे पूछा कि व्यावहारिक सेवा के लिए रामकृष्ण मिशन की स्थापना का उनका प्रस्ताव संन्यासी परंपरा का निर्वहन कैसे कर पाएगा ? तो उन्होंने जवाब दिया-‘‘ आपकी भक्ति और मुक्ति की कौन परवाह करता है ? धार्मिक ग्रंथों में लिखे की किसे चिंता है ? अगर मैं अपने देशवासियों को उनके पैरों पर खड़ा कर सका और उन्हें कर्मयोग के लिए प्रेरित कर सका तो मैं हजार नर्क भी भोगने के लिए तैयार हूं। मैं मात्र रामकृष्ण परमहंस या किसी अन्य का अनुयायी नहीं हूं। मैं तो उनका अनुयायी हूं, जो भक्ति और मुक्ति की परवाह किए बिना अनवरत दूसरों की सेवा और सहायता में जुटे रहते हैं।’’
स्वामी जी का मत है कि ”तुम सबसे पहले दरवाजे-खिड़कियाँ खोल दो और अपनी खुली आँखों से बाहर की दुनिया देखो। तुम्हें सैकड़ों गरीब-असहाय लोग दिखाई देंगे। तुम उनकी सेवा करो। इससे तुम्हें मानसिक शांति मिलेगी। वे गरीबों की सेवा करने के लिए सबको प्रेरित करते थे। भूखे को खाना खिलाना, बीमार को दवाई देना और जो अनपढ़ हैं उन्हें ज्ञान देना। यही है सच्चा अध्यात्म। इसी से मिलती है मन की शांति।”
उन्हाने विदेश में प्रवचन देते हुए कहा था, कि ”हमें मानवता को वहाँ ले जाना चाहते हैं, जहाँ न वेद है, न बाइबिल है और न कुरान। लेकिन यह काम वेद,बाइबिल और कुरान के समन्वय द्वारा किया जाना है। मानवता को सीख देनी है कि सभी धर्म उस अद्वितीय धर्म की ही विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं, जो एकत्व है। सभी को छूट है कि वे जो मार्ग अनुकूल लगे उसको चुन लें।” स्वामी जी की सबसे बड़ी विशेषता यही है, कि वे ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं।
वे कहते हैं-“जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत् की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है। अंत में उनकी शक्ति के फलस्वरूप ऐसा कोई शक्ति सम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो संसार को शिक्षा प्रदान करता है।”
स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि भौतिक उन्नति तथा प्रगति अवश्य ही वांछनीय है, परंतु देश जिस अतीत से भविष्य की ओर अग्रसर हो रहा है, उस अतीत को अस्वीकार करना निश्चय ही निर्बुद्धिता का द्योतक है। अतीत की नींव पर ही राष्ट्र का निर्माण करना होगा। युवा वर्ग में यदि अपने विगत इतिहास के प्रति कोई चेतना न हो, तो उनकी दशा प्रवाह में पड़े एक लंगरहीन नाव के समान होगी। ऐसी नाव कभी अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँचती। इस महत्वपूर्ण बात को सदैव स्मरण रखना होगा।
मान लो कि हम लोग आगे बढ़ते जा रहे हैं, पर यदि हम किसी निर्दिष्ट लक्ष्य की ओर नहीं जा रहे हैं, तो हमारी प्रगति निष्फल रहेगी। आधुनिकता कभी-कभी हमारे समक्ष चुनौती के रूप में आ खड़ी होती है। इसलिए भी यह बात हमें विशेष रूप से याद रखनी होगी। इसी उपाय से आधुनिकता के प्रति वर्तमान झुकाव को देश के भविष्य के लिए उपयोगी एक लक्ष्य की ओर सुपरिचालित किया जा सकता है। मैं कह रहा था कि आधुनिकता कभी-कभी हमारे सामने चुनौती के रूप में आ खड़ी होती है। इसका तात्पर्य यह है कि आधुनिक समाज राष्ट्रहित के लिए उसकी शक्ति का उपयोग करने के प्रयास में अंधकार में भटकता रहता है। आधुनिकता की इस शक्ति को सुनियोजित महान लक्ष्य की ओर परिचालित करना होगा। इसी कारण स्वामीजी ने कहा है कि युवा वर्ग के सम्मुख एक लक्ष्य स्थापित करना होगा और इस ओर ध्यान देना होगा कि युवकगण उत्साह तथा प्रेरणा के साथ अपनी क्षमता का सदुपयोग कर सकें।
स्वामी विवेकानंद का कहना है कि बहती हुई नदी की धारा ही स्वच्छ, निर्मल तथा स्वास्थ्यप्रद रहती है। उसकी गति अवरुद्ध हो जाने पर उसका जल दूषित व अस्वास्थ्यकर हो जाता है। नदी यदि समुद्र की ओर चलते-चलते बीच में ही अपनी गति खो बैठे, तो वह वहीं पर आबद्ध हो जाती है। प्रकृति के समान ही मानव समाज में भी एक सुनिश्चित लक्ष्य के अभाव में राष्ट्र की प्रगति रुक जाती है और सामने यदि स्थिर लक्ष्य हो, तो आगे बढ़ने का प्रयास सफल तथा सार्थक होता है। हमारे आज के जीवन के हर क्षेत्र में यह बात स्मरणीय है।
स्वामीजी ने बताया है कि उन्नति की प्रथम सीढ़ी स्वाधीनता है। स्वाधीनता के अभाव में हम बद्ध हो जाते हैं और इससे क्रमशः हमारा विनाश अवश्यंभावी हो जाता है। इसीलिए युवकों को पूर्ण स्वाधीनता देनी होगी, उनके पथ निर्धारण में सहायता भी करनी होगी।
स्वामी ने बारंबार कहा है कि अतीत की नींव के बिना सुदृढ़ भविष्य का निर्माण नहीं हो सकता। अतीत से जीवन शक्ति ग्रहण करके ही भविष्य जीवित रहता है। जिस आदर्श को लेकर राष्ट्र अब तक बचा हुआ है, उसी आदर्श की ओर वर्तमान युवा पीढ़ी को परिचालित करना होगा, ताकि वे देश के महान अतीत के साथ सामंजस्य बनाकर लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकें।
युवाशक्ति के भीतर जो सक्रियता एवं उद्दाम भावावेग देखने में आता है, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। वे कुछ करने को उत्सुक हैं और यह उसी का लक्षण है। उनके नेतृत्व का भार जिनके ऊपर है, उन वयस्क लोगों को इस विषय में सोचना होगा। युवकों को केवल विधि-निषेध की सीमा में आबद्ध न रखकर, उन्हें स्पष्ट मार्ग दिखाना होगा। प्रायः देखने में आता है कि वयस्क लोगों को युवा वर्ग के केवल दोष ही दिखाई देते हैं।
वयस्कों की गलती यह है कि वे यह जानने का प्रयास नहीं करते कि युवक-युवतियाँ क्या सोचते हैं तथा क्या करना चाहते हैं। इसी कारण वयस्कगण युवा वर्ग की आलोचना करते हैं और इसके फलस्वरूप युवा समाज भी बड़ों की उपेक्षा करता है, उनकी परवाह नहीं करता। तब मामला आग से खेलने जैसा हो जाता है। जो आग घर में दीपक बनकर प्रकाश फैलाती है, वही सब कुछ जलाकर राख भी कर सकती है। यौवन के भीतर जो शक्ति है, वह भली भीनहीं है और बुरी भी नहीं है, ठीक उपयोग करने पर वह कल्याणकारी होगी तथा दुरुपयोग करने पर विध्वंसक।
इसीलिए तरुणों के प्रति स्वामीजी का आह्वान है- अपनी शक्ति को व्यर्थ बरबाद न होने देना। अतीत की ओर देखो, जिस अतीत ने तुम्हें अनंत जीवन रस प्रदान किया है, उससे पुष्ट हो। यदि अतीत की परंपरा का सदुपयोग कर सको, उसके लिए गौरव का बोध कर सको, तो फिर उसका अनुसरण कर अपना पथ निर्धारित करो। वह परंपरा तुम्हें दृढ़ नींव पर प्रतिष्ठित करेगी और इसके फलस्वरूप तुम देखोगे कि देश सामंजस्यपूर्ण समृद्धि की दिशा में अग्रसर हो रहा है।
स्वामी विवेकानंद ने तब जबरदस्त प्रतिबद्धता का परिचय दिया, जब एक अन्य अवसर पर उन्होंने ईसाई श्रोताओं के सामने कहा- ‘‘तमाम डींगों और शेखी बखारने के बावजूद तलवार के बिना ईसाईयत कहां कामयाब हुई? जो ईसा मसीह की बात करते हैं वे अमीरों के अलावा किसकी परवाह करते हैं! ईसा को एक भी ऐसा पत्थर नहीं मिलेगा, जिस पर सिर रखकर वह आप लोगों के बीच स्थान तलाश सके..आप ईसाई नहीं हैं। आप लोग फिर से ईसा के पास जाएं। एक अन्य अवसर पर उन्होंने यह मुद्दा उठाया- आप ईसाई लोग गैरईसाइयों की आत्मा की मुक्ति के लिए मिशनरियों को भेजते हैं।’’
स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा था कि “ युवकों को गीता पढ़ने के बजाय फुटबाल खेलना चाहिए। विवेकानंद कहते थे कि युवाओं की स्नायु फौलादी होनी चाहिए क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है। ओ मेरे बहादुरों इस सोच को अपने दिल से निकाल दो की तुम कमजोर हो । तुम्हारी आत्मा अमर, पवित्र और सनातन है । तुम केवल एक विषय नहीं हो, तुम केवल एक शरीर मात्र नहीं हो”।
स्कॉटिश चर्च कॉलेज के प्राचार्य डॉ॰ विलियम हस्टी ने उनके बारे में लिखा है- मैंने काफी भ्रमण किया है लेकिन दर्शन शास्त्रों के छात्रों में ऐसा मेधावी और संभावनाओं से पूर्ण छात्र कहीं नहीं दिखाए यहां तक कि जर्मन विश्वविद्यालयों में भी नहीं देखा।
दुनिया में लाखों-करोड़ों लोग उनसे प्रभावित हुए और आज भी उनसे प्रेरणा प्राप्त कर रहे हैं। सी. राजगोपालाचारी के अनुसार “स्वामी विवेकानंद ने हिन्दू धर्म और भारत की रक्षा की”। सुभाष चन्द्र बोस के कहा “विवेकानंद आधुनिक भारत के निर्माता हैं”. महात्मा गाँधी मानते थे कि विवेकानंद ने उनके देशप्रेम को हजार गुना कर दिया। स्वामी विवेकानंद ने खुद को एक भारत के लिए कीमती और चमकता हीरा साबित किया है । उनके योगदान के लिए उन्हें युगों और पीढियों तक याद किया जायेगा.
स्वामी जी युवकों से कहते थे, कि ”अपने पुट्ठे मजबूत करने में जुट जाओ। वैराग्य-वृत्ति वालों के लिए त्याग-तपस्या उचित है लेकिन कर्मयोग के सेनानियों को चाहिए-विकसित शरीर, लौह मांस-पेशियाँ और इस्पात के स्नायु।”
शिकागों में व्याख्यान देते हुए उन्होंने कहा था, कि ”मैं अभी तक के सभी धर्मों को स्वीकार करता हूँ। और उन सबकी पूजा करता हूँ। मैं उनमें से ऐसे प्रत्येक व्यक्ति के साथ ईश्वर की उपासना करता हूँ। वे स्वयं चाहे किसी रूप में उपासना करते हों। मैं मुसलमानों के मस्जिद जाऊँगा। मैं ईसाइयों के गिरजा में क्रास के सामने घुटने टेक कर प्रार्थना करूँगा, मैं बौद्ध मंदिरों में जा कर बुद्ध और उनकी शिक्षा की शरण लूँगा। मैं वन में जा कर हिंदुओं के साथ ध्यान करूँगा जो हृदयस्थ ज्योतिस्वरूप परमात्मा को प्रत्यक्ष करने में लगे हुए हैं।” हिन्दुओं के बारे में उनका मत था कि ”भूल कर भी किसी को हीन मत मानो। चाहे वह कितना ही अज्ञानी, निर्धन अथवा अशिक्षित क्यों न हो और उसकी वृत्ति भंगी की ही क्यों न हो क्योंकि हमारी-तुम्हारी तरह वे सब भी हाड़-माँस के पुतले हैं और हमारे बंधु-बांधव हैं।”
उन्होंने एक बार कहीं कहा था, कि ”ओ माँ, जब मेरी मातृभूमि गरीबी में डूब रही हो तो मुझे नाम और यश की चिंता क्यों हो? हम निर्धन भारतीयों के लिए यह कितने दुरूख की बात है, कि जहाँ लाखों लोग मुट्ठी भर चावल के अभाव में मर रहे हों, वहाँ हम अपने सुख-साधनों के लिए लाखों रुपये खर्च कर रहे हैं। भारतीय जनता का उद्धार कौन करेगा? कौन उनके लिए अन्न जुटाएगा? मुझे राह दिखाओ माँ, कि मैं कैसे उनकी सहायता करूँ?” स्वामी विवेकानंद आज अगर सशरीर मौजूद होते तो वे अपनी यही वेदना फिर दुहराते हुए यही बात फिर कहते। आज भी देश में लाखों लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। अशिक्षा, अज्ञानता से ग्रस्त लोगों की संख्या भी करोड़ों में है। धर्म-अध्यात्म अब भरपेट लोगों का शगल बन गया है। एक पाखंड चारों तरफ पसरा हुआ है कि लोग बड़े धार्मिक हैं। दरिद्रनारायण के उन्नयन पर कोई खर्च नहीं करना चाहता लेकिन धर्मस्थल या अपनी जाति या समाज के भवन बनाने में लोगों की बड़ी दिलचस्पी देखी जा रही है। ऐसे समय में निर्धन वर्ग से नैतिकता या धर्म-कर्म की बातें करना बेईमानी है। छल है।
स्वामी विवेकानंद जी ने गरीबी के मर्म को समझा था, इसीलिए वे कहते थे, ”पहले रोटी, फिर धर्म। जब लोग भूखों मर रहे हों, तब उनमें धर्म की खोज करना व्यर्थ है। भूख की ज्वाला किसी भी मतवाद से शांत नहीं हो सकती। जब तक तुम्हारे पास संवेदनशील हृदय नही, जब तक तुम गरीबों के लिए तड़प नहीं सकते, जब तक तुम उन्हें अपने शरीर का अंग नहीं समझते, जब तक तुम अनुभव नहीं करते कि तुम और सब दरिद्र और धनी, संत और पापी-उसी एक असीम पूर्ण के -जिसे तुम ब्रह्म कहते हो, अंश हैं, तब तक तुम्हारी धर्म-चर्चा व्यर्थ है।”
उन्होंने यथार्थ दर्शाते हुए कहा, ‘‘भारत भूमि पवितर्् भूमि है, भारत मेरा तीर्थ है, भारत मेरा सर्वस्व है, भारत की पुण्य भूमि का अतीत गौरवमय है, यही वह भारतवर्ष है, जहाँ मानव प्रकृति एवं अन्तर्जगत् के रहस्यों की जिज्ञासाओं के अंकुर पनपे थे।’’ स्वामी जी कहा करते थे, ‘‘भारत वर्ष की आत्मा उसका अपना मानव धर्म है, सहस्रों शताब्दियों से विकसित चारिर्त््य है।’’ उन्होंने देशवासियों से कहा ‘‘चिन्तन मनन कर राष्ट्र चेतना जागृत करें तथा आध्यात्मिकता का आधार न छोडें़।’’ स्वामी जी ने तत्कालीन देश, काल वातावरण पर अपना मंतव्य इस प्रकार स्पष्ट किया। ‘‘सीखो, लेकिन अंधानुकरण मत करो। नयी और श्रेष्ठ चीजों के लिए जिज्ञासा लिए संघर्ष करो।’’ स्वामी जी का यह भी स्पष्ट मत था कि उनका (पाश्चात्य जग का) अमृत हमारे लिए विष हो सकता है। उन्होंने कहा था, दो प्रकार की सभ्यताएं हैं, एक का आधार मानव धर्म, दूसरी का सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति। इन्हीं संदर्भों में उनका यह भी कहना था कि समन्वय हो, किन्तु भारत यूरोप नहीं बन सकता, उनके मतानुसार प्रेम से असम्भव भी सम्भव हो सकता है। युवाओं से उनका सम्बोधन था, ‘‘ध्येय के प्रति पूर्ण संकल्प व समर्पण रखो।’’ उन्होंने कहा भारत के राष्ट्रीय आदर्श सेवा व त्याग हैं। देश को त्यागी व समाजसेवी चाहिए। पुनरुत्थान के संदर्भ में उनका कहना था, जिन्दा रहना है तो विस्तार करो, जीवन दान करोगे तो जीवन दान पाओगे। स्वामी जी ने स्पष्ट कहा, हमें पश्चिम से मुक्त होना है, पर उनसे बहुत कुछ सीखना है, सब जगह से अच्छी बात लो। स्वामी विवेकानन्द अक्सर कहते थे, ‘‘नैतिकता, तेजस्विता, कर्मण्यता का अभाव न हो। उपनिषद् ज्ञान के भण्डार हैं उनमें अद्भुत ज्ञान शक्ति है, उनका अनुसरण कर अपनी निज पहचान स्थापित करो।’’
स्वामी विवेकानन्द का अपना अनुभव, उन्होंने कहा ‘‘नासतः सत् जायते’!’’ निरस्तित्व में से अस्तित्व का जन्म नहीं हो सकता। जिसका अस्तित्व है, उसका आधार निरस्तित्व नहीं हो सकता।
भारतीय और पाश्चात्य नारी संदर्भों में स्वामी जी ने न्यूयॉर्क में भाषण देते हुए कहा, भारतीय स्त्रियों की बौद्धिक प्रगति पर मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी, यह बात उन्होंने वहाँ की स्त्रियों की बौद्धिक प्रगति देखकर कही थी। ‘‘भारतीय स्त्रियां इतनी शिक्षा सम्पन्न नहीं, फिर भी उनका आचार विचार अधिक पवित्र होता है।’’ उनके मतानुसार स्वदेश भारत में प्रत्येक स्त्री को चाहिए कि वह अपने पति के अतिरिक्त सभी पुरुषों को पुर्त्वत् समझे व पुरुष को चाहिए, अन्य र्स्त्यिों को मातृवत् समझे।
शिक्षा संदर्भों को स्वामी विवेकानन्द ने इस प्रकार स्पष्ट किया। उन्होंने कहा, वर्तमान शिक्षा निषेधात्मक एवं निर्जीव है, वस्तुतः शिक्षा में चरितर्् निर्माण के विचारों का सम्मिश्रण हो। शिक्षा का लौकिक परमार्थ हमारे हाथों में हो तथा हमारी आवश्यकता के अनुरूप हो। समाज सुधारक एवं प्रबल राष्ट्र चेतना के धनी स्वामी विवेकानन्द ने समाज सुधार एवं राष्ट्र उत्थान की अलख जगाकर कई महत्त्वपूर्ण बातें कहीं। उनका कहना था जिन खोजा तिन्ह पाइयां...निस्स्वार्थ सही दृष्टिकोण हो, आदर्श के लिए जियो, पूजागृह ही सब कुछ नहीं, मदान्ध मत बनो, कट्टरतावादी मत बनो, अंधविश्वास त्यागो, कठिनाइयों का निर्भीकता से सामना करो। वीर बनो, उदार बनो। आत्मनिरीक्षण करो, अपने में सच्चरित्र का निर्माण करो। उन्होंने कहा, अपने में क्षुद्र ‘मैं’ से मुक्ति पाओ।
उल्लेखनीय अध्यात्म ज्ञान-चेतना, दर्शन के मनीषी ज्ञाता, भारतीय संस्कृति के प्रखर, मुखरित प्रहरी, समाज सुधार एवं राष्ट्र चेतना जगाने वाले महान् कीर्ति पुरुष स्वामी विवेकानन्द 1892 में हिमालय से विभिन्न स्थलों पर होते हुए कन्याकुमारी पहुँचे थे, वहाँ तट पर स्थित दैवी शक्ति की वंदना कर समुद्र में तैरते हुए ढाई किलोमीटर दूर समुद्र में विशाल चट्टान पर पहुँचे, उसी चट्टान पर ध्यान लगा, चिंतन मनन में तन्मय हो गए। यहाँ स्वामी जी को दिशा बोध हुआ, ज्ञान व प्रेरणा मिली। स्वामी विवेकानन्द यहीं से जलयान द्वारा अमरीका (शिकागो) पहुँचे थे, जहाँ उन्होंने पाश्चात्य जगत् को भारतीय दर्शन अध्यात्म का ज्ञान देकर चकित किया था।
तेजस्वी स्वामी विवेकानन्द जी को कन्याकुमारी में जिस चट्टान पर ध्यान से ज्ञान, प्रेरणा व चेतना मिली, उस चट्टान पर कन्याकुमारी में स्वामी विवेकानन्द का स्मारक बना है। उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस ने उनके सम्बन्ध में भविष्यवाणी की थी, ‘‘तू संसार में महान् कार्य करेगा, तू मनुष्यों में आध्यात्मिक चेतना लाएगा और दीन दुखियों के दुःख दूर करेगा’’, विवेकानन्द ने यह भविष्यवाणी हमेशा याद रखी। निस्संदेह विवेकानन्द, भारत की अमर विभूतियों में हैं। उनकी राष्ट्रीयता, उनके क्रांतिकारी विचार वर्तमान युवा पीढी के मार्गदर्शक हैं। उनकी ओजस्वी वाणी, तेजस्वी व्यक्तित्व, चारिर्त्कि दृढता, आध्यात्मिकता स्तुत्य व अविस्मरणीय हैं।
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