युवाओं के दिलों में अमिट छाप छोड़ी विवेकानंद ने - दिल्ली रामकृष्ण आश्रम के सचिव स्वामी शांतमात्मानंद का कहना है कि स्वामी विवेकानंद को देश और युवाओं से काफी प्यार था और उन्होंने युवकों को प्रेरित करने के लिए काफी कुछ कहा। विवेकानंद का मानना था कि विश्व मंच पर भारत की पुनप्रर्तिष्ठा में युवाओं की बहुत बड़ी भूमिका है। दरअसल स्वामी विवेकानंद में मेधा, तर्कशीलता, युवाओं के लिए प्रासंगिक उपदेश जैसी कुछ ऐसी बातें हैं जिससे युवा उनसे प्रेरणा लेते हैं। स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा था कि युवकों को गीता पढ़ने के बजाय फुटबाल खेलना चाहिए। विवेकानंद कहते थे कि युवाओं की स्नायु फौलादी होनी चाहिए क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है। शांतमात्मानंद का हालांकि यह भी कहना है कि आजकल युवाओं को स्वामी विवेकानंद के सिद्धांत भाते जरूर हैं परंतु उनके जीवन में इन सिद्धांतों का कोई खास असर नहीं दिख रहा हैए लेकिन उन्हें उम्मीद है कि स्थिति धीरे.धीरे बदलेगी।
स्कॉटिश चर्च कॉलेज के प्राचार्य डॉ॰ विलियम हस्टी ने उनके बारे में लिखा है- मैंने काफी भ्रमण किया है लेकिन दर्शन शास्त्रों के छात्रों में ऐसा मेधावी और संभावनाओं से पूर्ण छात्र कहीं नहीं दिखाए यहां तक कि जर्मन विश्वविद्यालयों में भी नहीं देखा।
स्वामी विवेकानंद ने धर्मग्रंथों के अलावा विविध साहित्यों का भी गहन अध्ययन किया। वह ब्रह्म समाज से जुड़े लेकिन वहां उनका मन नहीं रमा। एक दिन वह अपने मित्रों के साथ स्वामी रामकृष्ण परमहंस के यहां गए। जब नरेंद्रनाथ ने भजन गाया तब परमहंस बहुत प्रसन्न हुए। कर्मशील नरेंद्रनाथ ने परमहंस से पूछा- क्या आप ईश्वर में विश्वास करते हैं। क्या आप उन्हें दिखा सकते हैं। परमहंस ने उनके सवालों का श्हांश् में जवाब दिया। हालांकि विवेकानंद ने प्रारंभ में परमहंस को अपना गुरु नहीं माना लेकिन काफी समय तक उनके संपर्क में रहकर वह उनके प्रिय शिष्य बन गए। स्वामी शांतमात्मानंद कहते हैं कि परमहंस के आध्यात्मिक सपंर्क से उनके मन की अशांति जाती रही। बताया जाता है कि दुनियाभर में स्वामी रामकृष्ण को स्वामी विवेकानंद के चलते ही ख्याति मिली। वर्ष 1893 में विश्वधर्म संसद में उनके ओजपूर्ण भाषण से ही विश्वमंच पर न केवल हिंदू धर्म बल्कि भारत की भी प्रतिष्ठा स्थापित हुई। ग्यारह सितंबर 1893 को इस संसद में जब उन्होंने अपना संबोधन अमेरिका के भाइयों और बहनों से प्रांरभ किया तब काफी देर तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही। उनके तर्कपूर्ण भाषण से लोग अभिभूत हो गए। उन्हें निमंत्रणों का तांता लग गया। स्वामी विवेकानंद ने देश और दुनिया का काफी भ्रमण किया। वह नर सेवा को ही नारायण सेवा मानते थे। उन्होंने रामकृष्ण के नाम पर रामकृष्ण मिशन और मठ की स्थापना की। चार जुलाई 1902 को उन्होंने बेल्लूर मठ में अपने गुरुभाई स्वामी प्रेमानंद को मठ के भविष्य के बारे में निर्देश देने के बाद महासमाधि ले ली।
स्वामी विवेकानंद वर्तमान में प्रासंगिकता- स्वामी विवेकानंद के जीवन की शुरुआत देखें तो अद्भुत रोमांच होता है। कैसे एक संघर्षशील नवयुवक धीरे-धीरे महागाथा में तब्दील होता चला जाता है। उनका जीवन हम सबके लिए प्रेरणास्पद है। अपनी महान मेधा के बल पर दुनिया में भारत की आध्यात्मिक पहचान बनाने में सफल हुए स्वामी विवेकानंद ने जो चमत्कार कर दिखाया, वह आज दुर्लभ है। यह ठीक है कि तकनीकी या आर्थिक क्षेत्र में कुछ उपलब्धियाँ अर्जित करके कुछ लोगों ने यश और धन अर्जित किया है, मगर वह उनका व्यक्तिगत लाभ है, लेकिन स्वामी विवेकानंद ने व्यक्तिगत लाभ अर्जित नहीं किया, वरन देश की साख बनाने में अपना योगदान किया। उनके कारण पूरी दुनिया भारत की ओर निहारने लगी। वेद-पुराणों के हवाले से उन्होंने पूरी दुनिया में भारतीय चिंतन की नूतन व्याख्या की। ‘लेडीज एंड जेंटलमेन’ कहने की परम्परा वाले देश को उन्होंने यह ज्ञान पहली बार दिया कि बहनों और भाइयों जैसा आत्मीय संबोधन भी दिया जा सकता है। उन्होंने दुनिया को मनुष्य या परिवार का एक सदस्य समझने का संस्कार दिया क्योंकि स्वामी विवेकानंद को यही ज्ञान मिला था। यानी वसुधैव कुटुम्बकम का ज्ञान । “ओ मेरे बहादुरों इस सोच को अपने दिल से निकाल दो की तुम कमजोर हो । तुम्हारी आत्मा अमर, पवित्र और सनातन है । तुम केवल एक विषय नहीं हो, तुम केवल एक शरीर मात्र नहीं हो” ।
स्वामी विवेकानंद रामकृष्ण मिशन के संस्थापक थे । उन्होंने वेदांत और योग जैसे भारतीय तत्वज्ञान को यूरोप और अमेरिका में फैलाया । विवेकानंद को आधुनिक भारत में हिन्दू धर्म के उद्धार के लिए एक बड़ी शक्ति के रूप में जाना जाता है। जवाहर लाल नेहरु ने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में लिखा है- “विवेकानंद दबे हुए और उत्साहहीन हिन्दू मानस में एक टानिक बनकर आये और उसके भूतकाल में से उसे आत्मसम्मान व अपनी जड़ों का बोध कराया” ।
विवेकानन्द ने अपनी अल्प आयु में ही दुनिया को बहुत कुछ दिया। उन्होंने विश्व को वेदान्त के मर्म से रूबरू कराया। विवेकानन्द ने राष्ट्र निर्माण में युवाओं की भूमिका को बहुत महत्वपूर्ण माना। वह चाहते थे कि नौजवान पीढ़ी रूढ़िवाद से अछूती रहकर अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल देश की तरक्की के लिए करे। युवाओं के आदर्श विवेकानन्द के जन्मदिन को युवा दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। विवेकानन्द के जीवन में विचारों की क्रांति भरने वाले उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने एक बार कहा था कि विवेकानन्द एक दिन दुनिया को शिक्षा देंगे और बहुत जल्द अपनी बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्तियों से विश्व पर गहरी छाप छोड़ेंगे।
शुरुआती शिक्षा घर में प्राप्त करने के बाद उन्होंने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर संस्थान तथा स्कॉटिश चर्च कालेज में तालीम हासिल की। शिक्षार्जन के दौरान नरेन्द्रनाथ ने विशेष रूप से दर्शन और इतिहास का गहराई से अध्ययन किया। अध्यात्म के प्रति उनका झुकाव बचपन से ही था और छात्र जीवन में उन्होंने पूर्वी और पश्चिमी देशों की धर्म तथा दर्शन से जुड़ी पद्धतियों का गहराई से अध्ययन किया।
नरेन्द्र का परिवार 1877 में दो वर्ष के लिए रायपुर आ गया । यहाँ वे अक्सर अपने पिता से धार्मिक विषयों पर चर्चा करते थे । इन दो वर्षों में ही उनके मन में भगवान को जानने की इच्छा भी तीव्र हुई । ये वर्ष उनके जीवन के बदलाव के वर्ष साबित हुए। रायपुर को विवेकानंद की धार्मिक जन्मभूमि भी कहा जाता है। 1884 में उन्होंने बी.ए. की डिग्री हासिल की। वे 5 वर्षों तक रामकृष्ण परमहंस के साथ रहे उन्होंने नरेन्द्र को अशांत, व्याकुल और अधीर व्यक्ति से एक शांत और आनंद मूर्ति में बदल दिया । जिसे ईश्वर के सत्य रूप का ज्ञान हो । 1886 में रामकृष्ण की मृत्यु(महासमाधि) हो गई ।
1888 से 1892 तक स्वामी विवेकानंद भारत के अलग-अलग भागों में घूमते रहे और 31 मई 1893 में शिकागो के लिए रवाना हो गए। जापानियों को उन्होंने दुनिया का सबसे साफ सुथरा व्यक्ति बताया। 11 सितम्बर को शिकागो के कला केंद्र में धर्म संसद प्रारंभ हुई। जब विवेकानंद की बोलने की बारी आई तो उन्होंने माँ सरस्वती का स्मरण करते हुए अपना भाषण शुरू किया। उन्होंने भाषण की शुरुआत ‘अमेरिका के भाइयों और बहनों’ के संबोधन शुरू की । ये शब्द बोलते ही 2 मिनट तक 7 हजार लोग उनके लिए तालियाँ बजाते रहे। पूरा सभागार करतल ध्वनि से गुंजायमान हो गया था । विवेकानंद ने कहा- मुझे उस धर्म से सम्बंधित होने का गर्व है जिसने विश्व को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकार्यता का पाठ पढाया। उन्होंने भगवद्गीता की कुछ पंक्तियाँ पढ़ते हुआ कहा- भाइयों मैं आपके सामने कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसको मैं अपने बचपन से दोहराता आया हूँ और जिसे करोड़ों भारतीय प्रतिदिन दोहराते हैं जैसे विभिन्न स्रोतों से उद्भूत विभिन्न धाराएँ अपना जल सागर में विलीन कर देती हैं वैसे ही हे ईश्वर! विभिन्न प्रवित्तियों के चलते जो भिन्न मार्ग मनुष्य अपनाते हैं, वे भिन्न प्रतीत होने पर भी सीधे या अन्यथा तुझ तक ही जाते हैं । उनके छोटे से भाषण ने ही संसद की आत्मा को हिला दिया। चारों तरफ विवेकानंद की प्रशंसा होने लगी। अमेरिकी अखबारों ने विवेकानंद को “धर्म संसद” की सबसे बड़ी हस्ती के रूप में सबसे प्रसिद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति बताया। उन्होंने संसद में कई बार हिन्दू धर्म और बौध मत पर व्याख्यान दिया । 27 सितम्बर 1893 को संसद समाप्त हो गई. इसके बाद वे दो वर्षों तक पूर्वी और मध्य अमेरिका, बोस्टन, शिकागो, न्यूयार्क, आदि जगहों पर उपदेश देते रहे. 1895 और 1896 में उन्होंने अमेरिका और इंग्लैंड में उपदेश दिए ।
विवेकानंद ने अपने जीवन के आखिरी दिन बेलूरू स्थित रामकृष्ण मठ में बिताए। लगातार यात्राओं से उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और वह शारीरिक रूप से दिन ब दिन कमजोर होते गए। बताया जाता है कि उन्होंने अपने निर्वाण से पहले यह कह दिया था कि वह 40 वर्ष की उम्र तक जिंदा नहीं रह पाएंगे। उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई और इस आध्यात्मिक गुरु ने अपने विचारों से विश्व को जाज्वल्यमान् करने के बाद 04 जुलाई 1902 को दुनिया को अलविदा कह दिया।
दुनिया में लाखों-करोड़ों लोग उनसे प्रभावित हुए और आज भी उनसे प्रेरणा प्राप्त कर रहे हैं। सी. राजगोपालाचारी के अनुसार “स्वामी विवेकानंद ने हिन्दू धर्म और भारत की रक्षा की”। सुभाष चन्द्र बोस के कहा “विवेकानंद आधुनिक भारत के निर्माता हैं”. महात्मा गाँधी मानते थे कि विवेकानंद ने उनके देशप्रेम को हजार गुना कर दिया। स्वामी विवेकानंद ने खुद को एक भारत के लिए कीमती और चमकता हीरा साबित किया है । उनके योगदान के लिए उन्हें युगों और पीढियों तक याद किया जायेगा.
कालजयी महानायक स्वामी विवेकानंद-
स्वामी विवेकानंद की जीवन-यात्रा की शुरुआत देखें तो उनका जीवन भी मध्यमवर्गीय परेशानियों से भरा रहा। पढ़ाई में वे मेधावी थे तो खेल-कूद में भी माहिर थे। कुश्ती में निपुण थे। कुशल तैराक थे। तलवार चलाने में माहिर थे। नाटक और संगीत कला में रुचि थी। इसीलिए उन्होंने एक नाटक कम्पनी भी बनाई थी। उनका शरीर भी सुगठित था। किशोरावस्था में ही उन्होंने एक व्यायाम शाला बनाई थी। इसलिए आज जब हम युवा पीढ़ी के सामने कोई आदर्श प्रस्तुत करने की बात हो तो सबसे पहले कम से कम मुझे तो स्वामी विवेकानंद का नाम ही याद आता है। दुर्भाग्य से नई पीढ़ी के सामने नायक के रूप में फिल्मी कलाकार ही आ कर खड़े हो जाते हैं। इन कलाकारों में ज्यादातर का जीवन अनेक लंपटताओं से भरा रहता है। उनकी हरकतें देख कर युवक समझते हैं कि यही सब हमें ग्रहण करना है। फटी चिथड़ी जींस फुलपैंट भी अब फैशन है. यह विवेकहीनता का चरम है. आज समाज में जो पतन नजर आता है, उसका असली कारण सिनेमा और टीवी के अश्लील कार्यक्रम भी है। इसलिए नई पीढ़ी का ध्यान इन सबसे हटाने के लिए कुछ न कुछ जतन करना जरूरी है। सिनेमा के नकली नायक हमारे आदर्श बिल्कुल नहीं हो सकते। हमारे सामने महान नायकों की लम्बी फेहरिश्त मौजूद है। इनमें स्वामी विवेकानंद अग्रिम पंक्ति में हैं। उन्होंने किसी पटकथा के सहारे अभिनय नहीं किया और न संवाद बोले। उन्होंने तो अपने महान ग्रंथों का अवगाहन करके जीवन जीने की नई वैज्ञानिक-आध्यात्मिक-दृष्टि अर्जित की।
स्वामी जी युवकों से कहते थे, कि ”अपने पुट्ठे मजबूत करने में जुट जाओ। वैराग्य-वृत्ति वालों के लिए त्याग-तपस्या उचित है लेकिन कर्मयोग के सेनानियों को चाहिए-विकसित शरीर, लौह मांस-पेशियाँ और इस्पात के स्नायु।” तरुण मित्रों को संबोधित करते हुए उन्होंने हमेशा यही संदेश दिया कि ”शक्तिशाली बनो। मेरी तुम्हें यही सलाह है। तुम गीता के अध्ययन की अपेक्षा फुटबाल द्वारा ही स्वर्ग के अधिक समीप पहुँच सकोगे। तुम्हारे स्नायु और माँसपेशियाँ अधिक मजबूत होने पर तुम गीता अच्छी तरह समझ सकोगे। तुम अपने शरीर में शक्तिशाली रक्त प्रवाहित होने पर श्रीकृष्ण के तेजस्वी गुणों और उनकी अपार शक्ति को हृदयंगम कर पाओगे।”
स्वामी जी ने मुसकराते हुए कहा था, कि ”तुम सबसे पहले दरवाजे-खिड़कियाँ खोल दो और अपनी खुली आँखों से बाहर की दुनिया देखो। तुम्हें सैकड़ों गरीब-असहाय लोग दिखाई देंगे। तुम उनकी सेवा करो। इससे तुम्हें मानसिक शांति मिलेगी। वे गरीबों की सेवा करने के लिए सबको प्रेरित करते थे। भूखे को खाना खिलाना, बीमार को दवाई देना और जो अनपढ़ हैं उन्हें ज्ञान देना। यही है सच्चा अध्यात्म। इसी से मिलती है मन की शांति।”
स्वामी विवेकानंद का सौभाग्य था, कि उन्हें अपने माता-पिता से अच्छे संस्कार मिले। सत्य निष्ठा की सीख मिली। बेहतर गुरू मिले। रामकृष्ण परमहंस जैसे सच्चे मार्गदर्शक मिले। पिता विश्वनाथदत्त जी के असामयिक निधन के बाद घर चलाने के लिए नरेंद्र नाथ को नौकरी भी करनी पड़ी। यानी उनके जीवन में सघर्ष का यह दौर भी आया लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपने जीवन को कर्मयोग के साथ-साथ आध्यात्मिकता से भी अनुप्राणित करते रहे। और एक समय आया जब वे विदेश जाने से पहले स्वामी विवेकानंद में रूपांतरित हुए और पूरी दुनिया में भारतीय संस्कृति की पहचान के रूप में आलोकित हो गए। स्वामी जी के जीवन एवं विचारों को पढ़ते हुए मैंने यह महसूस किया कि उन्होंने कहीं भी साम्प्रदायिकता को या नफरत को बढ़ाने वाले संकुचित विचारों का प्रचार-प्रसार नहीं किया। उन्हाने विदेश में प्रवचन देते हुए कहा था, कि ”हमें मानवता को वहाँ ले जाना चाहते हैं, जहाँ न वेद है, न बाइबिल है और न कुरान। लेकिन यह काम वेद, बाइबिल और कुरान के समन्वय द्वारा किया जाना है। मानवता को सीख देनी है कि सभी धर्म उस अद्वितीय धर्म की ही विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं, जो एकत्व है। सभी को छूट है कि वे जो मार्ग अनुकूल लगे उसको चुन लें।” स्वामी जी की सबसे बड़ी विशेषता यही है, कि वे ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं। शिकागों में व्याख्यान देते हुए उन्होंने कहा था, कि ”मैं अभी तक के सभी धर्मों को स्वीकार करता हूँ। और उन सबकी पूजा करता हूँ। मैं उनमें से ऐसे प्रत्येक व्यक्ति के साथ ईश्वर की उपासना करता हूँ। वे स्वयं चाहे किसी रूप में उपासना करते हों। मैं मुसलमानों के मस्जिद जाऊँगा। मैं ईसाइयों के गिरजा में क्रास के सामने घुटने टेक कर प्रार्थना करूँगा, मैं बौद्ध मंदिरों में जा कर बुद्ध और उनकी शिक्षा की शरण लूँगा। मैं वन में जा कर हिंदुओं के साथ ध्यान करूँगा जो हृदयस्थ ज्योतिस्वरूप परमात्मा को प्रत्यक्ष करने में लगे हुए हैं।” स्वामी जी का समूचा जीवन-दर्शन देखें तो वे कहीं भी यह नहीं कहते कि हिंदुओं, तुम अपनी ताकत पहचानो और जो विधर्मी हैं, उनका नाश कर दो। या फिर यह भी नहीं कहते कि यह देश केवल तुम्हारा है। जो गैर हिंदू हैं उन्हें यहाँ रहने का हक नहीं है। उल्टे स्वामी जी समूची उदारता के साथ बार-बार यही कहते हैं, कि च्मैं भारतीय हूँ और प्रत्येक भारतीय मेरा भाई है।..मनुष्य। केवल मनुष्य ही हमें चाहिए। समाज में व्याप्त छुआछूत की भावना को देख कर वे आहत होते थे इसीलिए उन्होंने कहा था, ”भूल कर भी किसी को हीन मत मानो। चाहे वह कितना ही अज्ञानी, निर्धन अथवा अशिक्षित क्यों न हो और उसकी वृत्ति भंगी की ही क्यों न हो क्योंकि हमारी-तुम्हारी तरह वे सब भी हाड़-माँस के पुतले हैं और हमारे बंधु-बांधव हैं।”
आश्चर्य होता है,कि सौ साल पहले स्वामी विवेकानंद ने जैसा भारत देखा था, आज अनेक मोर्चो पर भारत की वैसी की वैसी हालत बनी हुई है। इसलिए लगता है, कि विवेकानंद के सपने को पूरा करने का दायित्व हम सब का है। युवा पीढ़ी का है। उन्होंने एक बार कहीं कहा था, कि ”ओ माँ, जब मेरी मातृभूमि गरीबी में डूब रही हो तो मुझे नाम और यश की चिंता क्यों हो? हम निर्धन भारतीयों के लिए यह कितने दुरूख की बात है, कि जहाँ लाखों लोग मुट्ठी भर चावल के अभाव में मर रहे हों, वहाँ हम अपने सुख-साधनों के लिए लाखों रुपये खर्च कर रहे हैं। भारतीय जनता का उद्धार कौन करेगा? कौन उनके लिए अन्न जुटाएगा? मुझे राह दिखाओ माँ, कि मैं कैसे उनकी सहायता करूँ?” स्वामी विवेकानंद आज अगर सशरीर मौजूद होते तो वे अपनी यही वेदना फिर दुहराते हुए यही बात फिर कहते। आज भी देश में लाखों लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। अशिक्षा, अज्ञानता से ग्रस्त लोगों की संख्या भी करोड़ों में है। धर्म-अध्यात्म अब भरपेट लोगों का शगल बन गया है। एक पाखंड चारों तरफ पसरा हुआ है कि लोग बड़े धार्मिक हैं। दरिद्रनारायण के उन्नयन पर कोई खर्च नहीं करना चाहता लेकिन धर्मस्थल या अपनी जाति या समाज के भवन बनाने में लोगों की बड़ी दिलचस्पी देखी जा रही है। ऐसे समय में निर्धन वर्ग से नैतिकता या धर्म-कर्म की बातें करना बेईमानी है। छल है। स्वामी विवेकानंद जी ने गरीबी के मर्म को समझा था, इसीलिए वे कहते थे, ”पहले रोटी, फिर धर्म। जब लोग भूखों मर रहे हों, तब उनमें धर्म की खोज करना व्यर्थ है। भूख की ज्वाला किसी भी मतवाद से शांत नहीं हो सकती। जब तक तुम्हारे पास संवेदनशील हृदय नही, जब तक तुम गरीबों के लिए तड़प नहीं सकते, जब तक तुम उन्हें अपने शरीर का अंग नहीं समझते, जब तक तुम अनुभव नहीं करते कि तुम और सब दरिद्र और धनी, संत और पापी-उसी एक असीम पूर्ण के -जिसे तुम ब्रह्म कहते हो, अंश हैं, तब तक तुम्हारी धर्म-चर्चा व्यर्थ है।” आज इस दौर में बदहाली में कोई कमी नहीं आई है। ये और बात है कि हमारा समाज इंटरनेट के युग में प्रविष्ट कर चुका है, गरीब से गरीब व्यक्ति के पास भी मोबाइल हो सकता है, लेकिन उसकी बदहाली कम नहीं हुई है। बेरोजगारी, भूख, वर्गभेद, छुआछूत, अशिक्षा, अंधविश्वास, सामंती मनोवृत्ति, राष्ट्रविरोधी प्रवृत्ति आदि अनेक बुराइयों से ग्रस्त भारतीय समाजको एक बार फिर स्वामी विवेकानंद के चिंतनों से रूबरू कराने का समय आ गया है। आज की अधिकांश तरुणाई फिल्मी हीरो-हीराइनों को अपना रोल मॉडल बनाने की कोशिश कर रही है। जबकि हमारे रोल मॉडल स्वामी विवेकानंद समेत अनेक युवा क्रांतिकारी, विचारक ही युग प्रवर्तक हो सकते हैं इसलिए हमें अतीत की ओर निहारते हुए ही भविष्य का सफर तय करना होगा।
स्कॉटिश चर्च कॉलेज के प्राचार्य डॉ॰ विलियम हस्टी ने उनके बारे में लिखा है- मैंने काफी भ्रमण किया है लेकिन दर्शन शास्त्रों के छात्रों में ऐसा मेधावी और संभावनाओं से पूर्ण छात्र कहीं नहीं दिखाए यहां तक कि जर्मन विश्वविद्यालयों में भी नहीं देखा।
स्वामी विवेकानंद ने धर्मग्रंथों के अलावा विविध साहित्यों का भी गहन अध्ययन किया। वह ब्रह्म समाज से जुड़े लेकिन वहां उनका मन नहीं रमा। एक दिन वह अपने मित्रों के साथ स्वामी रामकृष्ण परमहंस के यहां गए। जब नरेंद्रनाथ ने भजन गाया तब परमहंस बहुत प्रसन्न हुए। कर्मशील नरेंद्रनाथ ने परमहंस से पूछा- क्या आप ईश्वर में विश्वास करते हैं। क्या आप उन्हें दिखा सकते हैं। परमहंस ने उनके सवालों का श्हांश् में जवाब दिया। हालांकि विवेकानंद ने प्रारंभ में परमहंस को अपना गुरु नहीं माना लेकिन काफी समय तक उनके संपर्क में रहकर वह उनके प्रिय शिष्य बन गए। स्वामी शांतमात्मानंद कहते हैं कि परमहंस के आध्यात्मिक सपंर्क से उनके मन की अशांति जाती रही। बताया जाता है कि दुनियाभर में स्वामी रामकृष्ण को स्वामी विवेकानंद के चलते ही ख्याति मिली। वर्ष 1893 में विश्वधर्म संसद में उनके ओजपूर्ण भाषण से ही विश्वमंच पर न केवल हिंदू धर्म बल्कि भारत की भी प्रतिष्ठा स्थापित हुई। ग्यारह सितंबर 1893 को इस संसद में जब उन्होंने अपना संबोधन अमेरिका के भाइयों और बहनों से प्रांरभ किया तब काफी देर तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही। उनके तर्कपूर्ण भाषण से लोग अभिभूत हो गए। उन्हें निमंत्रणों का तांता लग गया। स्वामी विवेकानंद ने देश और दुनिया का काफी भ्रमण किया। वह नर सेवा को ही नारायण सेवा मानते थे। उन्होंने रामकृष्ण के नाम पर रामकृष्ण मिशन और मठ की स्थापना की। चार जुलाई 1902 को उन्होंने बेल्लूर मठ में अपने गुरुभाई स्वामी प्रेमानंद को मठ के भविष्य के बारे में निर्देश देने के बाद महासमाधि ले ली।
स्वामी विवेकानंद वर्तमान में प्रासंगिकता- स्वामी विवेकानंद के जीवन की शुरुआत देखें तो अद्भुत रोमांच होता है। कैसे एक संघर्षशील नवयुवक धीरे-धीरे महागाथा में तब्दील होता चला जाता है। उनका जीवन हम सबके लिए प्रेरणास्पद है। अपनी महान मेधा के बल पर दुनिया में भारत की आध्यात्मिक पहचान बनाने में सफल हुए स्वामी विवेकानंद ने जो चमत्कार कर दिखाया, वह आज दुर्लभ है। यह ठीक है कि तकनीकी या आर्थिक क्षेत्र में कुछ उपलब्धियाँ अर्जित करके कुछ लोगों ने यश और धन अर्जित किया है, मगर वह उनका व्यक्तिगत लाभ है, लेकिन स्वामी विवेकानंद ने व्यक्तिगत लाभ अर्जित नहीं किया, वरन देश की साख बनाने में अपना योगदान किया। उनके कारण पूरी दुनिया भारत की ओर निहारने लगी। वेद-पुराणों के हवाले से उन्होंने पूरी दुनिया में भारतीय चिंतन की नूतन व्याख्या की। ‘लेडीज एंड जेंटलमेन’ कहने की परम्परा वाले देश को उन्होंने यह ज्ञान पहली बार दिया कि बहनों और भाइयों जैसा आत्मीय संबोधन भी दिया जा सकता है। उन्होंने दुनिया को मनुष्य या परिवार का एक सदस्य समझने का संस्कार दिया क्योंकि स्वामी विवेकानंद को यही ज्ञान मिला था। यानी वसुधैव कुटुम्बकम का ज्ञान । “ओ मेरे बहादुरों इस सोच को अपने दिल से निकाल दो की तुम कमजोर हो । तुम्हारी आत्मा अमर, पवित्र और सनातन है । तुम केवल एक विषय नहीं हो, तुम केवल एक शरीर मात्र नहीं हो” ।
स्वामी विवेकानंद रामकृष्ण मिशन के संस्थापक थे । उन्होंने वेदांत और योग जैसे भारतीय तत्वज्ञान को यूरोप और अमेरिका में फैलाया । विवेकानंद को आधुनिक भारत में हिन्दू धर्म के उद्धार के लिए एक बड़ी शक्ति के रूप में जाना जाता है। जवाहर लाल नेहरु ने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में लिखा है- “विवेकानंद दबे हुए और उत्साहहीन हिन्दू मानस में एक टानिक बनकर आये और उसके भूतकाल में से उसे आत्मसम्मान व अपनी जड़ों का बोध कराया” ।
विवेकानन्द ने अपनी अल्प आयु में ही दुनिया को बहुत कुछ दिया। उन्होंने विश्व को वेदान्त के मर्म से रूबरू कराया। विवेकानन्द ने राष्ट्र निर्माण में युवाओं की भूमिका को बहुत महत्वपूर्ण माना। वह चाहते थे कि नौजवान पीढ़ी रूढ़िवाद से अछूती रहकर अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल देश की तरक्की के लिए करे। युवाओं के आदर्श विवेकानन्द के जन्मदिन को युवा दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। विवेकानन्द के जीवन में विचारों की क्रांति भरने वाले उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने एक बार कहा था कि विवेकानन्द एक दिन दुनिया को शिक्षा देंगे और बहुत जल्द अपनी बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्तियों से विश्व पर गहरी छाप छोड़ेंगे।
शुरुआती शिक्षा घर में प्राप्त करने के बाद उन्होंने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर संस्थान तथा स्कॉटिश चर्च कालेज में तालीम हासिल की। शिक्षार्जन के दौरान नरेन्द्रनाथ ने विशेष रूप से दर्शन और इतिहास का गहराई से अध्ययन किया। अध्यात्म के प्रति उनका झुकाव बचपन से ही था और छात्र जीवन में उन्होंने पूर्वी और पश्चिमी देशों की धर्म तथा दर्शन से जुड़ी पद्धतियों का गहराई से अध्ययन किया।
नरेन्द्र का परिवार 1877 में दो वर्ष के लिए रायपुर आ गया । यहाँ वे अक्सर अपने पिता से धार्मिक विषयों पर चर्चा करते थे । इन दो वर्षों में ही उनके मन में भगवान को जानने की इच्छा भी तीव्र हुई । ये वर्ष उनके जीवन के बदलाव के वर्ष साबित हुए। रायपुर को विवेकानंद की धार्मिक जन्मभूमि भी कहा जाता है। 1884 में उन्होंने बी.ए. की डिग्री हासिल की। वे 5 वर्षों तक रामकृष्ण परमहंस के साथ रहे उन्होंने नरेन्द्र को अशांत, व्याकुल और अधीर व्यक्ति से एक शांत और आनंद मूर्ति में बदल दिया । जिसे ईश्वर के सत्य रूप का ज्ञान हो । 1886 में रामकृष्ण की मृत्यु(महासमाधि) हो गई ।
1888 से 1892 तक स्वामी विवेकानंद भारत के अलग-अलग भागों में घूमते रहे और 31 मई 1893 में शिकागो के लिए रवाना हो गए। जापानियों को उन्होंने दुनिया का सबसे साफ सुथरा व्यक्ति बताया। 11 सितम्बर को शिकागो के कला केंद्र में धर्म संसद प्रारंभ हुई। जब विवेकानंद की बोलने की बारी आई तो उन्होंने माँ सरस्वती का स्मरण करते हुए अपना भाषण शुरू किया। उन्होंने भाषण की शुरुआत ‘अमेरिका के भाइयों और बहनों’ के संबोधन शुरू की । ये शब्द बोलते ही 2 मिनट तक 7 हजार लोग उनके लिए तालियाँ बजाते रहे। पूरा सभागार करतल ध्वनि से गुंजायमान हो गया था । विवेकानंद ने कहा- मुझे उस धर्म से सम्बंधित होने का गर्व है जिसने विश्व को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकार्यता का पाठ पढाया। उन्होंने भगवद्गीता की कुछ पंक्तियाँ पढ़ते हुआ कहा- भाइयों मैं आपके सामने कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसको मैं अपने बचपन से दोहराता आया हूँ और जिसे करोड़ों भारतीय प्रतिदिन दोहराते हैं जैसे विभिन्न स्रोतों से उद्भूत विभिन्न धाराएँ अपना जल सागर में विलीन कर देती हैं वैसे ही हे ईश्वर! विभिन्न प्रवित्तियों के चलते जो भिन्न मार्ग मनुष्य अपनाते हैं, वे भिन्न प्रतीत होने पर भी सीधे या अन्यथा तुझ तक ही जाते हैं । उनके छोटे से भाषण ने ही संसद की आत्मा को हिला दिया। चारों तरफ विवेकानंद की प्रशंसा होने लगी। अमेरिकी अखबारों ने विवेकानंद को “धर्म संसद” की सबसे बड़ी हस्ती के रूप में सबसे प्रसिद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति बताया। उन्होंने संसद में कई बार हिन्दू धर्म और बौध मत पर व्याख्यान दिया । 27 सितम्बर 1893 को संसद समाप्त हो गई. इसके बाद वे दो वर्षों तक पूर्वी और मध्य अमेरिका, बोस्टन, शिकागो, न्यूयार्क, आदि जगहों पर उपदेश देते रहे. 1895 और 1896 में उन्होंने अमेरिका और इंग्लैंड में उपदेश दिए ।
विवेकानंद ने अपने जीवन के आखिरी दिन बेलूरू स्थित रामकृष्ण मठ में बिताए। लगातार यात्राओं से उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और वह शारीरिक रूप से दिन ब दिन कमजोर होते गए। बताया जाता है कि उन्होंने अपने निर्वाण से पहले यह कह दिया था कि वह 40 वर्ष की उम्र तक जिंदा नहीं रह पाएंगे। उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई और इस आध्यात्मिक गुरु ने अपने विचारों से विश्व को जाज्वल्यमान् करने के बाद 04 जुलाई 1902 को दुनिया को अलविदा कह दिया।
दुनिया में लाखों-करोड़ों लोग उनसे प्रभावित हुए और आज भी उनसे प्रेरणा प्राप्त कर रहे हैं। सी. राजगोपालाचारी के अनुसार “स्वामी विवेकानंद ने हिन्दू धर्म और भारत की रक्षा की”। सुभाष चन्द्र बोस के कहा “विवेकानंद आधुनिक भारत के निर्माता हैं”. महात्मा गाँधी मानते थे कि विवेकानंद ने उनके देशप्रेम को हजार गुना कर दिया। स्वामी विवेकानंद ने खुद को एक भारत के लिए कीमती और चमकता हीरा साबित किया है । उनके योगदान के लिए उन्हें युगों और पीढियों तक याद किया जायेगा.
कालजयी महानायक स्वामी विवेकानंद-
स्वामी विवेकानंद की जीवन-यात्रा की शुरुआत देखें तो उनका जीवन भी मध्यमवर्गीय परेशानियों से भरा रहा। पढ़ाई में वे मेधावी थे तो खेल-कूद में भी माहिर थे। कुश्ती में निपुण थे। कुशल तैराक थे। तलवार चलाने में माहिर थे। नाटक और संगीत कला में रुचि थी। इसीलिए उन्होंने एक नाटक कम्पनी भी बनाई थी। उनका शरीर भी सुगठित था। किशोरावस्था में ही उन्होंने एक व्यायाम शाला बनाई थी। इसलिए आज जब हम युवा पीढ़ी के सामने कोई आदर्श प्रस्तुत करने की बात हो तो सबसे पहले कम से कम मुझे तो स्वामी विवेकानंद का नाम ही याद आता है। दुर्भाग्य से नई पीढ़ी के सामने नायक के रूप में फिल्मी कलाकार ही आ कर खड़े हो जाते हैं। इन कलाकारों में ज्यादातर का जीवन अनेक लंपटताओं से भरा रहता है। उनकी हरकतें देख कर युवक समझते हैं कि यही सब हमें ग्रहण करना है। फटी चिथड़ी जींस फुलपैंट भी अब फैशन है. यह विवेकहीनता का चरम है. आज समाज में जो पतन नजर आता है, उसका असली कारण सिनेमा और टीवी के अश्लील कार्यक्रम भी है। इसलिए नई पीढ़ी का ध्यान इन सबसे हटाने के लिए कुछ न कुछ जतन करना जरूरी है। सिनेमा के नकली नायक हमारे आदर्श बिल्कुल नहीं हो सकते। हमारे सामने महान नायकों की लम्बी फेहरिश्त मौजूद है। इनमें स्वामी विवेकानंद अग्रिम पंक्ति में हैं। उन्होंने किसी पटकथा के सहारे अभिनय नहीं किया और न संवाद बोले। उन्होंने तो अपने महान ग्रंथों का अवगाहन करके जीवन जीने की नई वैज्ञानिक-आध्यात्मिक-दृष्टि अर्जित की।
स्वामी जी युवकों से कहते थे, कि ”अपने पुट्ठे मजबूत करने में जुट जाओ। वैराग्य-वृत्ति वालों के लिए त्याग-तपस्या उचित है लेकिन कर्मयोग के सेनानियों को चाहिए-विकसित शरीर, लौह मांस-पेशियाँ और इस्पात के स्नायु।” तरुण मित्रों को संबोधित करते हुए उन्होंने हमेशा यही संदेश दिया कि ”शक्तिशाली बनो। मेरी तुम्हें यही सलाह है। तुम गीता के अध्ययन की अपेक्षा फुटबाल द्वारा ही स्वर्ग के अधिक समीप पहुँच सकोगे। तुम्हारे स्नायु और माँसपेशियाँ अधिक मजबूत होने पर तुम गीता अच्छी तरह समझ सकोगे। तुम अपने शरीर में शक्तिशाली रक्त प्रवाहित होने पर श्रीकृष्ण के तेजस्वी गुणों और उनकी अपार शक्ति को हृदयंगम कर पाओगे।”
स्वामी जी ने मुसकराते हुए कहा था, कि ”तुम सबसे पहले दरवाजे-खिड़कियाँ खोल दो और अपनी खुली आँखों से बाहर की दुनिया देखो। तुम्हें सैकड़ों गरीब-असहाय लोग दिखाई देंगे। तुम उनकी सेवा करो। इससे तुम्हें मानसिक शांति मिलेगी। वे गरीबों की सेवा करने के लिए सबको प्रेरित करते थे। भूखे को खाना खिलाना, बीमार को दवाई देना और जो अनपढ़ हैं उन्हें ज्ञान देना। यही है सच्चा अध्यात्म। इसी से मिलती है मन की शांति।”
स्वामी विवेकानंद का सौभाग्य था, कि उन्हें अपने माता-पिता से अच्छे संस्कार मिले। सत्य निष्ठा की सीख मिली। बेहतर गुरू मिले। रामकृष्ण परमहंस जैसे सच्चे मार्गदर्शक मिले। पिता विश्वनाथदत्त जी के असामयिक निधन के बाद घर चलाने के लिए नरेंद्र नाथ को नौकरी भी करनी पड़ी। यानी उनके जीवन में सघर्ष का यह दौर भी आया लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपने जीवन को कर्मयोग के साथ-साथ आध्यात्मिकता से भी अनुप्राणित करते रहे। और एक समय आया जब वे विदेश जाने से पहले स्वामी विवेकानंद में रूपांतरित हुए और पूरी दुनिया में भारतीय संस्कृति की पहचान के रूप में आलोकित हो गए। स्वामी जी के जीवन एवं विचारों को पढ़ते हुए मैंने यह महसूस किया कि उन्होंने कहीं भी साम्प्रदायिकता को या नफरत को बढ़ाने वाले संकुचित विचारों का प्रचार-प्रसार नहीं किया। उन्हाने विदेश में प्रवचन देते हुए कहा था, कि ”हमें मानवता को वहाँ ले जाना चाहते हैं, जहाँ न वेद है, न बाइबिल है और न कुरान। लेकिन यह काम वेद, बाइबिल और कुरान के समन्वय द्वारा किया जाना है। मानवता को सीख देनी है कि सभी धर्म उस अद्वितीय धर्म की ही विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं, जो एकत्व है। सभी को छूट है कि वे जो मार्ग अनुकूल लगे उसको चुन लें।” स्वामी जी की सबसे बड़ी विशेषता यही है, कि वे ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं। शिकागों में व्याख्यान देते हुए उन्होंने कहा था, कि ”मैं अभी तक के सभी धर्मों को स्वीकार करता हूँ। और उन सबकी पूजा करता हूँ। मैं उनमें से ऐसे प्रत्येक व्यक्ति के साथ ईश्वर की उपासना करता हूँ। वे स्वयं चाहे किसी रूप में उपासना करते हों। मैं मुसलमानों के मस्जिद जाऊँगा। मैं ईसाइयों के गिरजा में क्रास के सामने घुटने टेक कर प्रार्थना करूँगा, मैं बौद्ध मंदिरों में जा कर बुद्ध और उनकी शिक्षा की शरण लूँगा। मैं वन में जा कर हिंदुओं के साथ ध्यान करूँगा जो हृदयस्थ ज्योतिस्वरूप परमात्मा को प्रत्यक्ष करने में लगे हुए हैं।” स्वामी जी का समूचा जीवन-दर्शन देखें तो वे कहीं भी यह नहीं कहते कि हिंदुओं, तुम अपनी ताकत पहचानो और जो विधर्मी हैं, उनका नाश कर दो। या फिर यह भी नहीं कहते कि यह देश केवल तुम्हारा है। जो गैर हिंदू हैं उन्हें यहाँ रहने का हक नहीं है। उल्टे स्वामी जी समूची उदारता के साथ बार-बार यही कहते हैं, कि च्मैं भारतीय हूँ और प्रत्येक भारतीय मेरा भाई है।..मनुष्य। केवल मनुष्य ही हमें चाहिए। समाज में व्याप्त छुआछूत की भावना को देख कर वे आहत होते थे इसीलिए उन्होंने कहा था, ”भूल कर भी किसी को हीन मत मानो। चाहे वह कितना ही अज्ञानी, निर्धन अथवा अशिक्षित क्यों न हो और उसकी वृत्ति भंगी की ही क्यों न हो क्योंकि हमारी-तुम्हारी तरह वे सब भी हाड़-माँस के पुतले हैं और हमारे बंधु-बांधव हैं।”
आश्चर्य होता है,कि सौ साल पहले स्वामी विवेकानंद ने जैसा भारत देखा था, आज अनेक मोर्चो पर भारत की वैसी की वैसी हालत बनी हुई है। इसलिए लगता है, कि विवेकानंद के सपने को पूरा करने का दायित्व हम सब का है। युवा पीढ़ी का है। उन्होंने एक बार कहीं कहा था, कि ”ओ माँ, जब मेरी मातृभूमि गरीबी में डूब रही हो तो मुझे नाम और यश की चिंता क्यों हो? हम निर्धन भारतीयों के लिए यह कितने दुरूख की बात है, कि जहाँ लाखों लोग मुट्ठी भर चावल के अभाव में मर रहे हों, वहाँ हम अपने सुख-साधनों के लिए लाखों रुपये खर्च कर रहे हैं। भारतीय जनता का उद्धार कौन करेगा? कौन उनके लिए अन्न जुटाएगा? मुझे राह दिखाओ माँ, कि मैं कैसे उनकी सहायता करूँ?” स्वामी विवेकानंद आज अगर सशरीर मौजूद होते तो वे अपनी यही वेदना फिर दुहराते हुए यही बात फिर कहते। आज भी देश में लाखों लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। अशिक्षा, अज्ञानता से ग्रस्त लोगों की संख्या भी करोड़ों में है। धर्म-अध्यात्म अब भरपेट लोगों का शगल बन गया है। एक पाखंड चारों तरफ पसरा हुआ है कि लोग बड़े धार्मिक हैं। दरिद्रनारायण के उन्नयन पर कोई खर्च नहीं करना चाहता लेकिन धर्मस्थल या अपनी जाति या समाज के भवन बनाने में लोगों की बड़ी दिलचस्पी देखी जा रही है। ऐसे समय में निर्धन वर्ग से नैतिकता या धर्म-कर्म की बातें करना बेईमानी है। छल है। स्वामी विवेकानंद जी ने गरीबी के मर्म को समझा था, इसीलिए वे कहते थे, ”पहले रोटी, फिर धर्म। जब लोग भूखों मर रहे हों, तब उनमें धर्म की खोज करना व्यर्थ है। भूख की ज्वाला किसी भी मतवाद से शांत नहीं हो सकती। जब तक तुम्हारे पास संवेदनशील हृदय नही, जब तक तुम गरीबों के लिए तड़प नहीं सकते, जब तक तुम उन्हें अपने शरीर का अंग नहीं समझते, जब तक तुम अनुभव नहीं करते कि तुम और सब दरिद्र और धनी, संत और पापी-उसी एक असीम पूर्ण के -जिसे तुम ब्रह्म कहते हो, अंश हैं, तब तक तुम्हारी धर्म-चर्चा व्यर्थ है।” आज इस दौर में बदहाली में कोई कमी नहीं आई है। ये और बात है कि हमारा समाज इंटरनेट के युग में प्रविष्ट कर चुका है, गरीब से गरीब व्यक्ति के पास भी मोबाइल हो सकता है, लेकिन उसकी बदहाली कम नहीं हुई है। बेरोजगारी, भूख, वर्गभेद, छुआछूत, अशिक्षा, अंधविश्वास, सामंती मनोवृत्ति, राष्ट्रविरोधी प्रवृत्ति आदि अनेक बुराइयों से ग्रस्त भारतीय समाजको एक बार फिर स्वामी विवेकानंद के चिंतनों से रूबरू कराने का समय आ गया है। आज की अधिकांश तरुणाई फिल्मी हीरो-हीराइनों को अपना रोल मॉडल बनाने की कोशिश कर रही है। जबकि हमारे रोल मॉडल स्वामी विवेकानंद समेत अनेक युवा क्रांतिकारी, विचारक ही युग प्रवर्तक हो सकते हैं इसलिए हमें अतीत की ओर निहारते हुए ही भविष्य का सफर तय करना होगा।
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