असाध्य वीणा का सारांश
राजा के दरवार में प्रियंवद का प्रवेश। राजा का स्वागत करना
और विश्वास दिलाना की अब हमारी इच्छा (साध) पूरी होगी। (पहली जिज्ञाषा,रजा की कौन सी
साध )
‘आ गये प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफा-गेह ! \ राजा ने आसन दिया।
कहा \ ‘कृतकृत्य हुआ मैं तात ! \ पधारे आप। \ भरोसा है अब मुझ
को \ साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी !’
राजा की आज्ञा पा कर दरवार में
वीणा ला कर रख दी जाती है। तभी उस वीणा का परिचय प्रारंभ होता है।
‘..यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रान्तर से \ ..घने वनों में जहाँ
व्रत करते हैं व्रतचारी..\ बहुत समय पहले आयी थी। \ पूरा तो इतिहास न
जान सके हम,\ किन्तु सुना है \ वज्रकीर्ति
ने मंत्रपूत \ जिस \ अति प्राचीन
किरीटी-तरु से इसे गढा़ था..’
उस वीणा को उत्तर के गहन वन प्रांतर से किरीटी तरू की लकड़ी
से किसी बज्रकांत नामक तपस्वी ने अपनी जीवन भर की साधना उसे बनाया था।
‘वज्रकीर्ति ! \ प्राचीन
किरीटी-तरु ! \ अभिमन्त्रित वीणा ! \ ध्यान-मात्र इनका
तो गदगद कर देने वाला है।‘
उस किरीटी तरु का परिचय देते हुए बताया जाता है कि वह विराट
किरीट तरु जिसमें केहरि अपनी देह रगड़ते-खुजलाते, जो तरु वर्षा से
पूरे वन को सुरक्षित रखता। भालू जिसके कोटर में बसेरा करते, आदि-आदि। तात्पर्य यह
कि उस विशाल वृक्ष की कल्पना भी अत्यन्त विशाल थी। वह वज्रकीर्ति के जीवन भर की
तपस्या / साधना का परिणाम थी।
केश कम्बली अपना कम्बल बिछा वीणा को उठा कर अपने गोद में रख
लेता है और कहता है, राजन मैं तो केवल
एक साधक हूँ। और वह उस पर अपना सिर रख मौन हो जाता है। ‘चुप हो गया प्रियंवद। \..सभा भी मौन हो
रही।‘
सभी व्याकुल है, अब क्या होगा ? क्या केश कम्बली
सो गया। किन्तु ऐसा नहीं था। केश कम्बली वास्तव में उस किरीटी वृक्ष की आराधना में
अपने को समाधिस्थ कर देता है। देखने में तो वीणा उसके गोद में है, किन्तु
वास्तविकता यह है कि साधक वीणा की गोद में चला जाता है। “
मुझे स्मरण है \ ..पर
मुझको मैं भूल गया हूँ,\ सुनता हूँ मैं..\ पर
मैं मुझसे परे, शब्द में लीयमान। \ ‘मैं नहीं, नहीं ! मैं कहीं
नहीं ! \ ओ रे तरु ! ओ वन ! \ ओ स्वर-सँभार ! \ नाद-मय संसृति ! \..ओ रस-प्लावन ! \ मुझे
क्षमा कर -- भूल अकिंचनता को मेरी ..\ मुझे ओट दे .. ढँक ले .. छा ले ..\ ओ शरण्य
! \ मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले ! \ आ, मुझे भला, \ तू उतर बीन के
तारों में \ अपने से गा \ अपने को गा ..\ अपने खग-कुल को मुखरित कर \ अपनी छाया
में पले मृगों की चौकडिय़ों को ताल बाँध, अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की
लय पर.
उसी सामाधिस्थ अवस्था में केशकम्बली उस किरीटी वृक्ष के माध्यम
से प्रकृति, मानव के सारे व्यापारों का स्मरण करता है। उस किरीटी तरु की प्राचीनता और उसकी
व्यापकता स्मरण कर, वह उसे सब कुछ समर्पण कर; उससे अपने आप, स्वत: अन्त: से
गाने का आह्वान करता है।
‘अपने जीवन-संचय को कर छंदयुक्त, \ अपनी प्रज्ञा को
वाणी दे ! \ तू गा, तू गा --\ तू सन्निधि पा.. तू गा \ तू आ तू हो .. तू गा ! तू गा !’
उसकी साधना और
समर्पण तथा आह्वान इतना गहरा है कि अचानक राजा देखता है समाधिस्त संगीतकार का हाथ
सहसा ऊपर उठा, उसकी ऊगलियाँ काँपी उनमें हलचल हुई। ऐसा लगा मानों
उसके अन्दर छिपा शिशु किलकारी मार उठा हो।
‘समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था..\ काँपी थी उँगलियाँ। \
अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा,\ किलक उठे थे
स्वर-शिशु। \ नीरव पद रखता जालिक मायावी \ सधे करों से धीरे धीरे धीरे \ डाल रहा
था जाल हेम तारों-का । \ सहसा वीणा झनझना उठी ..\ संगीतकार की आँखों में ठंडी
पिघली ज्वाला-सी झलक गयी \ रोमांच एक बिजली-सा सबके तन में दौड़ गया । \..अवतरित हुआ संगीत \ स्वयम्भू \ जिसमें सीत है अखंड \ ब्रह्मा का
मौन \ अशेष प्रभामय । \ डूब गये सब एक साथ । \ सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे ।‘
उस नीरवता में जैसे
जालिक मायावी अपने सधें करों से हेम तारों का जाल बिछा रहा हो, और सहसा वीणा
झनझना उठी। संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला की एक झलक दिखी। ठंडी पिघली
ज्वाला पर ध्यान दें तो समझ में आयेगा की साधना की लम्बी अनथक ठंडी यात्रा अपने
अन्दर कितनी आग छिपाए रहती है। सभाग्रह में विराजे सभी के अन्दर रोमांच सा हुआ और
तन में बिजली सी दौड़ी और संगीत का उदय हो गया। यह संगीत किसी ने उदय किया नहीं यह
स्वयंभू है। क्योंकि उदय स्वयंभू होता है, उसे कोई करता नहीं। उदित स्वयंभू संगीत
अखंड है। वह ब्रह्मा का मौन है, अशेष है। उसके अन्दर
अब कुछ भी घटित होना शेष नहीं। परिणाम सब उस संगीत में डूब गये
किन्तु एकाकी, और सभी ने जीवन का पुरुषार्थ प्राप्त किया।
कविता का सौन्दर्य अद्भुत, अप्रतिम है। संगीत
का प्रभाव सबके ऊपर अलग-अलग होता है। राजा को सुनाई देता है-
‘राजा ने अलग सुना ! \ ‘ जय देवी यश:काय \ वरमाल लिये \ गाती थी मंगल-गीत,\ दुन्दुभी दूर
कहीं बजती थी, \ राज-मुकुट सहसा हलका हो आया था, \ मानो हो फल
सिरिस का \ ईष्या, महदाकांक्षा, द्वेष, चाटुता \ सभी
पुराने लुगड़े-से झड़ गये, \ निखर आया था जीवन-कांचन \ धर्म-भाव से जिसे
निछावर वह कर देगा ।’
मानो जय साक्षात
कीर्ति की वरमाला लिये मंगलगीत के साथ आह्वान कर रही हो। यह दुंदुभी दूर बजती
सुनाई देती है। किन्तु प्रभाव अहंकार को उत्पन्न नहीं करता। मादकता नहीं भरता।
दर्प को चूर करता है। परिणामत: राजमुकुट हल्का हो आया। जीवन की सारी ईर्ष्या, महत्वाकांक्षा, द्वेष, कटुता सभी पुराने
चिथडे जीवन से उतर गये और एक-एक का तप्त कांचन जीवन निखरा, जिसे यह धर्म के लिए
न्योक्षवर कर देगा।
रानी के ऊपर क्या प्रभाव पड़ता है- \..रानी ने अलग सुना
: \ छँटती बदली में एक कौंध कह गयी ..\ तुम्हारे ये मणि-माणिक, कंठहार, पट-वस्त्र, मेखला किंकिणि : \
सब अंधकार के कण हैं ये ! आलोक एक है \ प्यार अनन्य ! उसी की \ विद्युल्लता घेरती
रहती है रस-भार मेघ को, \ थिरक उसी की छाती पर उसमें छिपकर सो जाती है \आश्वस्त, सहज विश्वास भरी ।
\ रानी \ उस एक प्यार को साधेगी । ‘
उसे लगता जैसे छटती बदली से बिजली कौंधी और एक दिव्य
संन्देश सुनाई दिया। रानी ! ये तुम्हारे मणि-मेखल, कंठहार, पट-वस्त्र, मेंखला किंकिणि सब
अंधकार के अर्थात् अज्ञान के कारण तुम्हें दिव्य प्रतीत होते हैं। जीवन में केवल
एक ही प्रकाश है और वह है प्यार। यह प्यार उस बिजली के समान है जो रसभरे मेघों के
बीच चमकती और उसी में आनन्द और निश्चिंत भाव से सो जाती है। रानी का संकल्प उस
प्यार को साधने का जरिया बना।
सभा में उपस्थित सभी जनों ने उस संगीत से अलग-अलग संदेश
सुने । यहाँ ध्यान देने की बात है कि संगीत का स्वर सब के लिए एक ही संदेश लाया
है। किन्तु यह सब की मन:स्थिति के आधार पर उसे सुनाई देता है और समझ आता है। यहाँ
कवि ने समाज के लगभग उन सभी लोगों और उनकी समस्याओं को लिया है जो वर्षों-वर्षों
से हमारे साथ चलती आ रही हैं। भक्त के लिए वह प्रभु की कृपा थी। आकाश से पीडि़त
(भयाक्रांत) के लिए मुक्ति का आश्वासन। (लोभी) के लिए सोना अर्थात् धन की खनक।
(भूखे) के लिए , बटुली में पकते अन्न की सुगंध। अर्थात् पेट की भूख
मिटाने का आश्वासन। (अविवाहित) को नवबधू के आगमन की सहमी पायल ध्वनि। दाम्पत्य सुख
की कामना। (बन्ध्या) को शिशु की कलिकारी। (जीवन के बन्ध से बंधे) को, जाल में फँसी मछली
के समान उससे छूटने की मुक्ति की कामना। मंडप। (मुक्त) के लिए, मुक्तता महसूस
करने वाले को खुले आकाश में उड़ान भरती चिडिय़ा। (व्यापारी-मजदूर) के लिए, मंडी की ठेलमठेल, ग्रहकों की भीड़
और स्पर्धा, कोलाहल। (पुजारी-भक्त) के लिए, मंदिर की
ताल-युक्त घंटा-ध्वनि। (लुहार) के लिए, लोहे के सधे
हथौड़े की बराबर पड़ती चोटें। (नाविक) के लिए, अथाह समुद्र में
लंगर डाले नाविक को उसके नाव पर बारम्बार थपेड़े मारती लहरों का आभास। (सातवें) को
चमरौधें की रुँधी तो आठवें को वर्षा के कारण कटती मेड़ से निकलता छुल-छुल जल। तो
अन्य को नटनी के घुँघुरू की मदमस्तक करते स्वर, इधर युद्ध की ढाल।
चरवाहे किसान को गोधूली में घर लौटते पशुओं की छोटी घँट्टियों की टुन-टुन। तो
दूसरे को प्रलय का डमररू-नाद। एक को जीवन की पहली झलक-अँगड़ाई, मस्ती तो दूसरे को
विकाराल काल का महाजाल, मृत्यु का कराल दृश्य।
तात्पर्य यह कि अपनी-अपनी सोच और मानसिकता के आधार पर कोई
तो आनन्द के सागर में डूबा, कोई सांसार सागर को पार कर गया, कोई भय से छिपता
रहा, कोई जीवन के सोये पल से जाग गया। कोई स्तब्ध है तो अन्य अपनी-अपनी मानसिकता के
अनुसार उसे ग्रहण कर रहे हैं। अन्तत: सब के जीवन में कुछ न कुछ हलचल करती वीणा
नि:शबद हो गई।
सभी ओर से साधु ! साधु ! की पुकारें सुनाई देने लगीं। राजा
आसन से उतर कर नीचे आया, रानी ने अपनी सबसे प्रिय चीज निछावर कर दी अर्थात्
उसका सांसारिक मोह भंग हो गया। दोनों एक साथ प्रिंयवद को धन्यवाद दे रहे हैं। आभार, कृतार्थता व्यक्त
कर रहे हैं। प्रियंवद ने वीणा को धीरे से ऐसे रखा मानों गोदी में सोया शिशु कहीं
जग न जाये। इसलिए धीरे से बिना हलचल किए उसे मुग्धा माँ जिस तरह अपने बेटे को
देखती दूर खड़ी हो जाती है, उसी तरह उस वीणा को
देखता केशकम्बली दूर खड़ा हो गया।
.. सब डूबे, तिरे, झिपे, जागे ..\ ओ रहे
वशंवद, स्तब्ध: \ इयत्ता सबकी अलग-अलग जागी, \ संगीत हुई, \ पा गयी विलय । \
वीणा फिर मूक हो गयी । \ साधु ! साधु !’\ उसने \ राजा सिंहासन से उतरे --\ ‘रानी ने अर्पित की
सतलड़ी माल, \ हे स्वरजित ! धन्य ! धन्य !’
सभा की कृतार्थता को समझ प्रियंवद तत्काल अपना श्रेय उस
ततथा को (यहाँ ततथा का अर्थ समझ लेना आवश्यक है- तत यह संस्कृत का शब्द है जिसका
अर्थ है- वह। था याने कृपा। अर्थात उसकी कृपा। अर्थात परमपिता परमेश्वर को अपनी सम्पूर्ण
साधना के फल को समर्पित कर) अर्पित करता हुआ कहता है, ‘..
‘ संगीतकार \ वीणा को धीरे से नीचे रख, ढँक--मानो \ गोदी में सोये शिशु को पालने डाल कर मुग्धा
माँ \ हट जाय, दीठ से दुलारती --\ उठ खड़ा हुआ । \ बढ़ते राजा का
हाथ उठा करता आवर्जन,\ ..बोला : \
‘श्रेय नहीं कुछ मेरा : \ मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में \ वीणा के माध्यम
से अपने को मैंने \ सब कुछ को सौंप दिया था .. \ सुना आपने जो वह मेरा नहीं, \ न वीणा का था -\
वह तो सब कुछ की तथता थी \ महाशून्य \ वह महामौन \ अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय \ जो
शब्दहीन \ सबमें गाता है ।‘
वीणा तो माध्यम थी मेरे लिए उस परमात्मा को सब कुछ सौंप
देने का। इसलिए आप ने जो सुना वह मेरा नहीं, वीणा का नहीं सब
कुछ उसी परमपिता का है। वह उसी ततथा की कृपा थी जो महाशून्य है, महामौन है, अविभाज्य है, अनाप्त है, अद्रवित और
अप्रमेय है। जो शब्दहीन होते हुए भी सब के अन्दर गाता है। तेरा तुझको अर्पण क्या
लागे मेरा का भाव लिए प्रियंवद सभी को नमस्कार करता हुआ अपने कम्बल को लिए फिर से
गेह-गुफा को चला गया।
.”.नमस्कार कर मुड़ा
प्रियंवद केशकम्बली। \ लेकर कम्बल गेह-गुफा को चला गया ।
उठ गयी सभा । \ सब अपने-अपने काम लगे । युग पलट गया ।\ प्रिय
पाठक ! यों मेरी वाणी भी हो गई मौन।”
सभी अपने-अपने काम में लगे । सभा समाप्त हो गई। युग बदल गया
और कवि कहता है, मेरी वीणा भी मौन हो गई। कभी आपने सोचा प्रियंवद की वीणा तो मौन
हुई कवि की वीणा क्यों मौन हुई। इसका अर्थ क्या है ? कविता एक भाव
धरातल पर लिखी जाती है और वह भाव धरातल अब लुप्त हो गया है। कहा जाता है की महाभारत
के युद्ध के बाद एकवार अर्जुन ने फुर्सत में कहा, हे कृष्ण ! आप मुझे कुरुक्षेत्र की
गीता फिर सुनाइए ? कृष्ण ने वही बात कही थी जो कवि यहाँ कह रहा है, अर्जुन महाभारत
में हमने गीता एक विशिष्ट भाव भूमि में सुने थी, अब वह संभव नहीं । राजा के प्रश्न
का उत्तर उसे मिल गया और उसका जीवन सफल गया । अर्थात जीवन का श्रेय भोग में नहीं त्याग
और साधना में है. वही असली सत्ता है ।
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