जॉन ड्राइडन सन् 1639 से 1700 ई.। ड्राइडन का जन्म नॉर्थम्पटन शापर मंे हुआ था। उसने ट्रिनटी कालेज, कैम्ब्रिज में उच्च शिक्षा प्राप्त की। सन् 1658 मंे क्रॉमवेल की मृत्यु पर उसने अपने प्रसिद्ध ‘हीरोइक स्टेंजास’ लिखे थे। उसके प्रारम्भिक नाटकों मंे ‘द वाइल्ड गैलेट’(सन् 1663) तथा ‘द राइचल लेडीज’(सन् 1664) उल्लेखनीय है। 1665 मंे ‘द इण्डियन इस्पेरर’ नामक नाटक विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस तरह उनकी अनेक गद्य एवं नाटकों की रचनाएँ है।
ड्राइडेन का काव्य सिद्धान्त
जॉन ड्राइडेन का अस्तित्व सन् 1639 से 1700 ई. तक माना जाता है। ड्राइडन का जन्म नॉर्थम्पटन शापर मंे हुआ था। उसने ट्रिनटी कालेज, कैम्ब्रिज में उच्च शिक्षा प्राप्त की। सन् 1658 मंे क्रॉमवेल की मृत्यु पर उसने अपने प्रसिद्ध ‘हीरोइक स्टेंजास’ लिखे थे। उसके प्रारम्भिक नाटकों मंे ‘द वाइल्ड गैलेट’(सन् 1663) तथा ‘द राइचल लेडीज’(सन् 1664) उल्लेखनीय है। 1665 मंे ‘द इण्डियन इस्पेरर’ नामक नाटक विशेष रूप से उल्लेख नीव है। इस तरह उनके अनेक गद्य एवं नाटकों की रचनाएँ है।ड्राइडन के काव्य सिद्धांत युगीन समीक्षाओं के लिए अत्यन्त महत्व के हैं। वे असाधारण काव्य प्रतिमा के धनी नही थे किन्तु अपने काव्य की गहनता एवं तीव्रता के कारण उन्हे अच्छी मान्यता मिली। उनके काव्य में सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि थी जो पाठकों को आकर्षित करती है। अपने मनोवैज्ञानिक शैली के साथ उन्होने कवियों के व्यक्तित्व निर्माण में (आलोचना के द्वारा) योगदान दिया। उनके समीक्षा दृष्टि में समन्ववात्मक पक्ष आश्चर्यजनक रूप से पाया जाता है। ड्राइडेन का विचार था कि प्रत्येक जाति,युग,देश तथा मनुष्य की अपनी निजी प्रतिभा होती है। काव्य मंे अनुकरणात्मकता के विषय मंे वह पूर्ववर्ती विचारकों से सहमत है, परन्तु काव्य की प्रभावात्मकता के लिए मात्र अनुकरण को अपर्याप्त मानते हैं। वह कलात्मक अनुकरण के समर्थक हैं। ड्रायडेन काव्य का प्रयोजन आनन्दात्मकता को ही मानते हैं।
ड्राइडेन काव्य और समीक्षा के सम्बन्ध में विचार व्यक्त करते हुए कहता है- वे कवि जो काव्य रचना में असफल हो जाते है, काव्य विरोधी हो जाते है तथा समीक्षक बन जाते है। वह शाóीय और ऐतिहासिक समीक्षा का समर्थक था। उसे लैटिन और ग्रीक साहित्य का पूर्ण ज्ञान था। काव्य में वह उपयुक्त शब्दावली का समर्थक था। कविता में नवपदी का विरोधी था, इस कारण वह स्पेंसर का विरोध करता था। वह ‘ंफेयरी-क्वीन’ काव्य का प्रशंसक था। मिल्टन के ‘पैराडाइज लास्ट’ में ‘डेविल’ को नायक मानता है क्योंकि वह आदम को पराजित कर देता है।
ड्रॉयडेन,काव्य में लयात्मकता और कल्पना का समर्थक है। उसका मानना है कि कल्पना मानव-हृदय की अनुभूतियों को पूर्णता से अभिव्यक्त कर सकती है। वह कल्पना तत्व को काव्य में कलात्मकता हेतु आवश्यक मानता है। किन्तु कल्पना को सर्वाेच्च मानसिक शक्ति नही मानता। वह मानता है कि कवि जितनी हार्दिक तन्मयता से काव्य रचना करेगा, उसके लिए उतनी ही सरलता से अभिव्यक्ति सम्भव होगी। वह मानता है कि लय से काव्य अलंकृत होता है। लय तत्व श्रेष्ट काव्य-रचना की सम्भावनाओं को भी जन्म देता है। ‘डिफेंस ऑफ द ऐसे’ में वह काव्य और महाकाव्य के सम्बध में विचार व्यक्त करते हुए लिखता है कि काव्य का मुख्य प्रयोजन आनन्दानुभूति तथा उपदेशात्मकता ही है। छन्द प्रयोग को वह काव्य का अनिवार्य अंग मानता है। महाकाव्य में मानवेन्तर गुणों से युक्त पात्र और उत्कृष्ट शैली होती है। नाटक-रचना के लिए उसने पद्यात्मक भाषा का अनुमोदन किया। ड्राइडेन का यह विचार था कि नाटक रचना के क्षेत्र में शाóीय नियमों के पूर्ण रूप से पालन की आवश्यकता है।
जैसा कि हम जानते हैं, डॅªायडेन एक ऐसा समीक्षक था जिसे पूर्ववर्ती विशिष्ट साहित्यिक परम्पराओं विशेषतः ग्रीक और लैटिन का विस्तृत ज्ञान था। वह अंग्रेजी भाषा का भी अच्छा ज्ञाता है। वह एक कवि और समीक्षक भी था। उसकी समीक्षा दृष्टि अत्यन्त सूक्ष्म तथा तर्कशक्ति, विवेकशक्ति, निर्णय शक्ति भी उत्कृष्ट थी। ड्राइडेन ने अपने समय के फ्रांसीसी तथा इटैलियन सिद्धांतों को अपनाया और स्पेन के आलोचकों के मतों का भी मनन किया।
ड्रायडन मानता है कि तुकान्त(काव्य) मंे अस्वाभाविकता तभी आती है जब कवि शब्दों का सदोष चयन करता है। अथवा तुक के लिये उनका ऐसा अस्वाभाविक विन्यास करता है।
कविता आनन्दानुभूति के सहारे ही शिक्षा दे सकती है। कविता चित्रकारी की तरह है। वह प्रश्न करता है कि कवि का कार्य क्या है? कविता का सौन्दर्य क्या है? वह कहता है कि सामान्यतः कवि का कार्य किसी बन्दूक बनाने वाले या घड़ी साज की तरह होता है। वह मानता है कि पुनरावृति की बहुलता से अभिव्यक्ति की शिथिलता आती है।
ड्राइडेन का काव्य सिद्धान्त
जॉन ड्राइडेन का अस्तित्व सन् 1639 से 1700 ई. तक माना जाता है। ड्राइडन का जन्म नॉर्थम्पटन शापर मंे हुआ था। उसने ट्रिनटी कालेज, कैम्ब्रिज में उच्च शिक्षा प्राप्त की। सन् 1658 मंे क्रॉमवेल की मृत्यु पर उसने अपने प्रसिद्ध ‘हीरोइक स्टेंजास’ लिखे थे। उसके प्रारम्भिक नाटकों मंे ‘द वाइल्ड गैलेट’(सन् 1663) तथा ‘द राइचल लेडीज’(सन् 1664) उल्लेखनीय है। 1665 मंे ‘द इण्डियन इस्पेरर’ नामक नाटक विशेष रूप से उल्लेख नीव है। इस तरह उनके अनेक गद्य एवं नाटकों की रचनाएँ है।ड्राइडन के काव्य सिद्धांत युगीन समीक्षाओं के लिए अत्यन्त महत्व के हैं। वे असाधारण काव्य प्रतिमा के धनी नही थे किन्तु अपने काव्य की गहनता एवं तीव्रता के कारण उन्हे अच्छी मान्यता मिली। उनके काव्य में सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि थी जो पाठकों को आकर्षित करती है। अपने मनोवैज्ञानिक शैली के साथ उन्होने कवियों के व्यक्तित्व निर्माण में (आलोचना के द्वारा) योगदान दिया। उनके समीक्षा दृष्टि में समन्ववात्मक पक्ष आश्चर्यजनक रूप से पाया जाता है। ड्राइडेन का विचार था कि प्रत्येक जाति,युग,देश तथा मनुष्य की अपनी निजी प्रतिभा होती है। काव्य मंे अनुकरणात्मकता के विषय मंे वह पूर्ववर्ती विचारकों से सहमत है, परन्तु काव्य की प्रभावात्मकता के लिए मात्र अनुकरण को अपर्याप्त मानते हैं। वह कलात्मक अनुकरण के समर्थक हैं। ड्रायडेन काव्य का प्रयोजन आनन्दात्मकता को ही मानते हैं।
ड्राइडेन काव्य और समीक्षा के सम्बन्ध में विचार व्यक्त करते हुए कहता है- वे कवि जो काव्य रचना में असफल हो जाते है, काव्य विरोधी हो जाते है तथा समीक्षक बन जाते है। वह शाóीय और ऐतिहासिक समीक्षा का समर्थक था। उसे लैटिन और ग्रीक साहित्य का पूर्ण ज्ञान था। काव्य में वह उपयुक्त शब्दावली का समर्थक था। कविता में नवपदी का विरोधी था, इस कारण वह स्पेंसर का विरोध करता था। वह ‘ंफेयरी-क्वीन’ काव्य का प्रशंसक था। मिल्टन के ‘पैराडाइज लास्ट’ में ‘डेविल’ को नायक मानता है क्योंकि वह आदम को पराजित कर देता है।
ड्रॉयडेन,काव्य में लयात्मकता और कल्पना का समर्थक है। उसका मानना है कि कल्पना मानव-हृदय की अनुभूतियों को पूर्णता से अभिव्यक्त कर सकती है। वह कल्पना तत्व को काव्य में कलात्मकता हेतु आवश्यक मानता है। किन्तु कल्पना को सर्वाेच्च मानसिक शक्ति नही मानता। वह मानता है कि कवि जितनी हार्दिक तन्मयता से काव्य रचना करेगा, उसके लिए उतनी ही सरलता से अभिव्यक्ति सम्भव होगी। वह मानता है कि लय से काव्य अलंकृत होता है। लय तत्व श्रेष्ट काव्य-रचना की सम्भावनाओं को भी जन्म देता है। ‘डिफेंस ऑफ द ऐसे’ में वह काव्य और महाकाव्य के सम्बध में विचार व्यक्त करते हुए लिखता है कि काव्य का मुख्य प्रयोजन आनन्दानुभूति तथा उपदेशात्मकता ही है। छन्द प्रयोग को वह काव्य का अनिवार्य अंग मानता है। महाकाव्य में मानवेन्तर गुणों से युक्त पात्र और उत्कृष्ट शैली होती है। नाटक-रचना के लिए उसने पद्यात्मक भाषा का अनुमोदन किया। ड्राइडेन का यह विचार था कि नाटक रचना के क्षेत्र में शाóीय नियमों के पूर्ण रूप से पालन की आवश्यकता है।
जैसा कि हम जानते हैं, डॅªायडेन एक ऐसा समीक्षक था जिसे पूर्ववर्ती विशिष्ट साहित्यिक परम्पराओं विशेषतः ग्रीक और लैटिन का विस्तृत ज्ञान था। वह अंग्रेजी भाषा का भी अच्छा ज्ञाता है। वह एक कवि और समीक्षक भी था। उसकी समीक्षा दृष्टि अत्यन्त सूक्ष्म तथा तर्कशक्ति, विवेकशक्ति, निर्णय शक्ति भी उत्कृष्ट थी। ड्राइडेन ने अपने समय के फ्रांसीसी तथा इटैलियन सिद्धांतों को अपनाया और स्पेन के आलोचकों के मतों का भी मनन किया।
ड्रायडन मानता है कि तुकान्त(काव्य) मंे अस्वाभाविकता तभी आती है जब कवि शब्दों का सदोष चयन करता है। अथवा तुक के लिये उनका ऐसा अस्वाभाविक विन्यास करता है।
कविता आनन्दानुभूति के सहारे ही शिक्षा दे सकती है। कविता चित्रकारी की तरह है। वह प्रश्न करता है कि कवि का कार्य क्या है? कविता का सौन्दर्य क्या है? वह कहता है कि सामान्यतः कवि का कार्य किसी बन्दूक बनाने वाले या घड़ी साज की तरह होता है। वह मानता है कि पुनरावृति की बहुलता से अभिव्यक्ति की शिथिलता आती है।
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