Monday, 16 December 2019

कवि भूषण

  कवि भूषण
परिचय: भूषण कानपुर के समीपवर्ती तिकवांपुर नामक स्थान के निवासी रत्नाकर त्रिपाठी के पुत्र थे। इनका जन्मकाल संवत् 1670 माना जाता है। भूषण छत्रपति शिवाजी और उनके पौत्र शाहू जी, छत्रसाल बुन्देला आदि अनेक राजाओं के आश्रय में रहे थे। कहते हैं कि चित्रकूट के राजा रुद्रशाह सोलंकी ने इन्हें ‘भूषण’ की उपाधि से सम्मानित किया और इस उपनाम से ये इतने प्रसिद्ध हुए कि आज इनका वास्तविक नाम ही शोध का विषय बन गया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी लिखते हैं कि- इनके असल् नाम का अतापता नहीं है। ये कई राजाओं के यहाँ रहे अंत में इनके मन के अनुकूल आश्रयदाता जो इनके वीरकाव्य के नायक हुए, छत्रपति शिवाजी मिले। शिवाजी के आश्रय में इन्होंने ‘शिवराजभूषण-1673’ में लिखी। ‘शिववावनी’ तथा अनेक स्फुट छंदों की भी रचना की। ऐसा प्रसिद्ध है कि इनके एक-एक छन्द पर शिवाजी ने लाखों रुपये, हाथी तथा कई गांव भी दिये। इनके  ‘शिवराजभूषण’, ‘शिवावावनी’, ‘छत्रसालदशक’ प्रमुख ग्रंथ हैं। इसके अतिरिक्त तीन ग्रंथ और कहे जाते हैं-  ‘भूषणउल्लास’, ‘दूषणउल्लास’, और ‘भूषण हजारा’।
 पन्ना के महाराज छत्रसाल के यहाँ भी इनका बड़ा मान हुआ। कहते हैं महाराज छत्रसाल ने इनकी पालकी में अपना कंधा लगाया था, जिस पर इन्होंने कहा था- ‘सिवा को बखानौं कि बखानौं छत्रसाल को।’ छत्रसाल की प्रशस्ति में ‘छत्रसालदशक’ की रचना की। एक जनश्रुति के आधार पर कतिपय विद्वान अब तक इन्हें चिन्तामणि, मतिराम ओर नीलकंठ नामक प्रसिद्ध कवियों के सहोदर के रूप में स्वीकार करते आ रहे हैं। इनका परलोक काल संवत् 1772 माना जाता है।
शिवराज भूषण में 105 अलंकारों का निरूपण हुआ है। जिनमें 99 अर्थालंकार, चार शब्दालंकार तथा शेष दो चित्र और संकर नामक अलंकार हैं। आचार्य कर्म में भूषण जितने असफल रहे हैं, कवि कर्म में उतने ही अधिक सफल कहे जा सकते हैं। रीतिकाल में शंृगार रस की प्रधानता रही। किन्तु प्रशस्तिपरक काव्य की रचना करने के कारण शंृगारिक कवियों के समान इन्हें कल्पना की ऊँची उड़ान भरने का अवकाश न मिलने से इनकी रचनाओं में एकदम नये बिंबों का यद्यपि किसी सीमा तक अभाव रहा है, तथापि विषय के अनुरूप जिस ओजपूर्ण वाणी की अपेक्षा होती है वह इनमें सर्वत्र दृष्टिगत होता है। पर भूषण ने जिन दो नायकों की कृति को अपने वीरकाव्य का विषय  बनाया वे अन्याय दमन में तत्पर, हिंदू धर्म के संरक्षक, दो इतिहास प्रसिद्ध वीर थे। उनके प्रति भक्ति और सम्मान की प्रतिष्ठा हिन्दू जनता के हृदय में उस समय भी और आगे भी बराबर बनी रही या बढ़ती गई। इसी से भूषण के वीरस के उद्गार सारी जनता के हृदय की संपत्ति हुए। भूषण की कविता कविकीर्ति संबंधी ऐ अविचल सत्य का दृष्टांत है। जिसकी रचना को जनता का हृदय स्वीकृति करेगा उस कवि की कीर्ति तब तक बराबर बनी रहेगी जब तक स्वीकृति बनी रहेगी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी लिखते हैं-‘‘क्या संस्कृत साहित्य में, क्या हिन्दी साहित्य में सहस्त्रों कवियों ने अपने आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा में ग्रंथ रचे जिनका आज पता तक नहीं है। पुरानी वस्तु खोजने वालों को ही कभी-कभी किसी राजा के पुस्तकालय में, कहीं किसी घर के कोने मेें उनमें से दो चार इधर उधर मिल जाते हैं। जिस भोज ने दान दे देकर अपनी इतनी तारीफ कराई उसके चरित काव्य भी कवियों ने लिखे होंगे। पर उन्हें आज कौन जानता है?’’
शिवाजी और छत्रसाल की वीरता के वर्णनों को कोई कवियों की झूठी खुशामद नहीं कह सकता। वे आश्रयदाताओं की प्रशंसा की प्रथा के अुनसरण मात्र नहीं हैं। इन दो वीरों का जिस उत्साह के साथ सारी हिन्दू जनता स्मरण करती है उसी की व्यंजना भूषण ने की है। वे हिन्दू जाति के प्रतिनिधि कवि हैं। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि शिवाजी के दरवार में पहुँचने के पहले वे कई राजाओं के दरवार में गए थे और निश्चित रूप से उनकी प्रशस्ति में भी लिखा होगा किन्तु उनका कहीं अता पता नहीं।
भूषण की भाषा में ओज की मात्रा तो पूरी है पर वह अधिकतर अव्यवस्थित है। व्याकरण उल्लंघन प्राय: है और वाक्य रचना भी कहीं-कहीं गड़बड़ है। इसके अतिरिक्त शब्दों के रूप भी बहुत बिगड़े हैं। पर जो कवित्त इन दोषों से मुक्त हैं वे बड़े प्रभावशाली और सशक्त हैं। इसके निर्वाह में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, अरबी, फरसी तथा ब्रजभाषा और क्षेत्रीय बोलियों के ओजपूर्ण शब्दों की योजना ही इन्होंने नहीं की बल्कि यथावश्यकता शब्दावली को तोड़-मरोड़ करने में भी इन्होंने संकोच नहीं किया। इनकी वाणी का ओज अपने आप में ऐसा है कि सहृदय पाठक आनंद विभोर हो कर वीर रस जनित स्फूर्ति का अनुभव करता है।
पाठ्यक्रम आधारित पद-
शिवाजी के ऊपर लिखे गए छंद-
1. साजि चतुरंग-सैन अंग मैं उमंग धारि सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है।
                         भूषन भनत नाद-बिहद नगारन के नदीनद मद गैवरन के रलत है।
ऐलफै ल खैलभैल खलक में गैलगैल गजन की ठैलपैल सैल उसलत है।
तारा सो तरनि धूरिधारा में लगत जिमि थारा पर पारा पारावार यों हलत है।
शब्दार्थ: चतुरंग-जिस सेना में हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल चारों अंग हों। बिहद-बेहद, अत्यधिक। नद-बड़ी नदी जैसे सिंधुनद। गैवर-गजवर, श्रेष्ठहाथी। रलत है- वह चलता है। ऐल-समूह, सेना। फैल-फैलने से, खैलभैल-खलभल,खलबली। खलक-संसार। गैल-मार्ग। ठैलपैल-धक्मधक्का। सेल-शैल,पहाड़। उसलत है-स्थानभ्रष्ट हो जाते हैं। धूरि-उड़ी हुई धूल का समूह। थारा-थाल। पारावार-समुद्र।
सन्दर्भ- प्रस्तुत छंद में कवि भूषण ने शिवाजी की सेना की प्रशस्ति की है।
भावार्थ:  शिवजी की चतुरंगिनी सेना जिस समय दुश्मन से युद्ध जीतने को निकलती है तब उनके बड़े-बड़े नगारों की आवाज से, हाथी-घोड़ों तथा पैदल सेना से चारों ओर खलबली मच जाती है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे नदी-नद अपनी पूरी उफान में हहराते हुए निकल पड़े हों। आकाश से लेकर धरती तक चारों ओर धूल ही धूल दिखाई देती है।
विशेष- अर्थालंकार, अनुप्रास। कवि को अपने राजा भूषण पर इतना विश्वास है कि वह पहली पंक्ति में ही जीतन शब्द का प्रयोग करता है। वह यह नहीं लिखता कि शिवाजी युद्ध करने जा रहे हैं बल्कि कहता है ‘जंग जीतन चलत है।’
2.
इन्द्र जिमि जंभ पर बाड़व ज्यौं अंभ पर रावन सदंभ पर रघुकुलराज है।
पौन बारिबाह पर संभु रतिनाह पर ज्यौं सहस्त्रबाहु पर राम द्विजराज है।
                          दावा द्रुमदंड पर चीता मृगझुंड पर भूषन बितुंड पर जैसे मृगराज है।
                         तेज तम-अंग पर कान्ह जिम कंस पर यौं मलेच्छ-बंस पर सेर सिवराज है।
शब्दार्थ: जंभ-महिषासुर का पिता जिसको इन्द्र ने मारा था। अंभ-जल। सदंभ-दंभी। रघुकुल-श्रीरामचन्द्र। बारिवाह-बारि अर्थात जल को बहन करने वाला, ढोने वाल अर्थात बादल। रतिनाह-रतिनाथ अर्थात कामदेव। राम-परशुराम। दावा- दावाग्रि। द्रुमदंड-पेड़ की शाखा। वितुंड-हाथी। मृगराज-सिंह। तेज-प्रकाश। तम-अंधकार का भाग। मलेच्छ-मुसलमान।
सन्दर्भ: शिवाजी के शौर्य की तुलना भारतीय इतिहास और पुराणों में वर्णित कतिपय उन चरित्रों से की जाती है, जिन्होंने अपने रिपुओं को नष्ट किया।
व्याख्या:  कवि छंद में ग्यारह प्रकार के उन व्यक्तित्वों के शौर्य का वर्णन करता है जिन्होंने अपने शत्रुओं को नष्ट किया फिर शिवाजी की तुलना उसी तरह अपने शत्रुओं के नष्ट करने की बात से समाप्त करता है। कवि विभिन्न उदाहरणों का जिक्र करते हुए कहता है, जैसे इन्द्र ने महिषासुर के पिता को मारा, जैसे वड़वाग्रि समुद्र को नष्ट करती है। जैसे दंभी रावण को श्री राम नष्ट करते हैं, जैसे वायु बादलों को उड़ा देती है, जैसे शिव जी कामदेव को नष्ट कर देते हैं, जैसे परशुराम आतातायी सहस्त्रवाहु को नष्ट करते हैं, जैसे जंगल की आग जंगल को नष्ट कर देती है, जैसे चीत मृग झुण्डों को नष्ट कर देता है,जैसे हाथी से शेर डर भाग जाता है वैस ही शत्रुओं की सेना शिवराज की सेना को देख कर भाग खड़ी होती है या शिवाजी उसे नष्ट कर देते हैं।

छत्रसाल के ऊपर लिखे गये छंद-
3.  राजत अखंड तेज छाजत सुजस बड़ो गाजत गयंद दिग्गजन हिय साल को।
       जाहि के प्रताप सों मलीन आफताब होत ताप तजि दुजन करत बहु ख्याल को।
साज सजि गज तुरी पैदर कतार दीन्हें भूषन भनत ऐसो दीनप्रतिपाल को।
     आन रावराजा एक मन में न लाऊँ अब साहू को सराहौं के सराहौं छत्रसाल को।
शब्दार्थ: छाजत -शोभा पता है। गाजत-गरजते हैं। गयंद -गजेन्द।
सन्दर्भ: पन्ना नरेश छत्रसाल के जनता के प्रति व्यवहार और उनके शौर्य का वर्णन।
भावार्थ: अखण्ड तेज से विभूषित, जिनकी कीर्ति चारो ओर फैली है, जिनकी सेना और उसके हाथियों की चित्कार से दिशा-दिशा के राजाओं के हृदय में भय भर जाता है। जिसके प्रताप को सुनकर विधर्मियों के चेहरों की रौनक गायब हो जाती है। ऐसा राजा जो ब्राह्मणों अर्थात सज्जनों के ताप यानी कष्ट को हर कर उनकी पूरी चिन्ता करता है। जो सदैव अपनी सुसज्जित सेना, पैदल सिपाहियों के साथ राज्य की रक्षा के लिए सन्नद्ध रहता है। ऐसे छत्रसाल को छोडक़र भला भूषण अपने मन में किस राजा के लिए सम्मान देख सकता है। भूषण कहते हैं, मेरा मन तो कभी-कभी भ्रम में पड़ जाता है कि साहू (शिवाजी के पौत्र) को सराहूँ या छत्रसाल को। दोनों में तुलना नहीं की जा सकती । अर्थात दोनों अपने-अपने क्षेत्र में अप्रतिम हैं।
विशेष: अनुप्रास।
4.  निकसत म्यान तें मयूखैं प्रलैभानु कैसी फारैं तमतोम से गयंदन के जाल कों।
       लागति लपकि कंठ बैरिन के नागिन सी रुद्रहि रिझावै दै दै मुंडन की माल कों।
     लाल छितिपाल छत्रसाल महाबाहु बली कहाँ लों बखान करौं तेरी करवाल कों।
          प्रयिभट कटक कटीले केते काटि काटि कालिका सी किलकि कलेऊ देति कालकों।
शब्दार्थ: निकसत-निकलते ही। मयूखै-किरणें। प्रलैभानु-प्रलयकाल के सूर्य। कैसी-समान। मततोम-अंधकार का समूह। गयंद-बड़े-बड़े हाथी। जाल-समूह। लागति-लगती है। मुंडन की-कपालों की माला अर्थात महादेव रणभूमि में मरे वीरों के कपालों की माला पहनते हैं। छितपाल-राजा। प्रतिभट-प्रतिपक्षी वीर। कटीले-अच्छी काट करनेवाले, तलवार चलाने में सिद्ध हस्त। किलकि- हर्ष से किलकारी मारकार। कलुँ-जलपान।
सन्दर्भ:  छत्रसाल के सौर्य उनकी युद्ध कला और तलवार के तेज का वर्णन।
भावार्थ:  भूषण पन्ना नरेश छत्रसाल की युद्ध कला का वर्णन करते हुए कहते हैं कि-जब छत्रसाल के म्यान से उनकी तलवार निकलती है तो कहर ढा देती है। बड़ी-बड़ी सुसज्जित सेनाओं को चीर डालती है। वह इतनी विकाराल दिखती है मानों वह महाकाली की भूखी तलवार मुण्डमालाओं का रसास्वाद करती हो। वह ऐसी दिखाई देती है मानो साक्षात महादेव अपने गले में मुण्डों की माला पहने विराजे हों। दुश्मनों को ललकारती तलवार काल के भाल पर तिलक लगाने, उसे ललकारने को तैयार हो।
विशेष- अनुप्रास, अतिशयोक्ति।
5. भुज-भुजकेस की बैसंगिनी भुजंगिनी सी खेदि खेदि खाती दीह दारुन दलन के।
बखतर पाखरन बीच धँसि जाति मीन पैंरि पार जात परबाह ज्यों जलन के।
रैंयाराव चंपति के छत्रसाल महाराज भूषन सकै करि बखान कौ बलन के।
पच्छी पर छीने ऐसे परे परछीने बीर तेरी बरछी ने बर छीने हैं खलन के।
शब्दार्थ: भुजेगस-शेषनाग। बैसंगिनी-आयु भर साथ देनेवाली। खेदि- खदेडक़र। खाना- डँसना। दीह-दीर्घ, बड़े। पाखर-लोहे की झूल। मनी-मछली। परवाह-प्रवाह,धारा।
सन्दर्भ:  छत्रसाल के सौर्य उनकी युद्ध कला और तलवार के तेज का वर्णन।
भावार्थ: जैसे भुजंग अपने भुजंगिनियों की संतति को खा जाते हैं उसी प्रकार छत्रसाल की तलवार अपने दुश्मनों की पीढ़ी दर पीढ़ी को खदेड़-खदेड़ कर खा जाती है। जैसे कीचड़ से भरे जल को मीन अपने कुशलता से ऊपर ही ऊपर तैर कर पार कर लेती है उसी प्रकार छत्रसाल की सेना दुश्मनों की बीच धसकर उनको पराजित करती हुई बाहर निकल जाती है। अपनी प्रजा के कुशल पालक चंपत राय के पुत्र छत्रसाल की योग्यता, कुशलता, वीरता, शौर्य का बखान कहाँ तक करूँ। उनसे लडऩे वाली सेना का हस्र उनकी बरछी ऐसा करती है कि दुश्मन  पर कटे छत-विछत पछियों के झुण्ड से धरती पर लोटते दिखाई देते हैं। अर्थात जैसा तलवार की धार से परकटे पछियों के झुण्ड धरती पर तड़पते हैं वैसे ही छत्रसाल के दुश्मनों का हाल उनकी बरछी-भाला से होता है।
विशेष: अतिशयोक्ति, अनुप्रास

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