Saturday, 21 December 2019

चन्द्रगुप्त (नाटक) जयशंकर प्रसाद जयशंकर प्रसाद

                                                         चन्द्रगुप्त (नाटक)
                                                                                                          जयशंकर प्रसाद

चन्द्रगुप्त नाटक के पात्र :
पुरुष पात्र
चाणक्य (विष्णुगुप्त) : मौर्य सामाज्य्र का निर्माता
चन्द्रगुप्त : मौर्यसम्राट
नन्द : मगध सम्राट
राक्षस: मगध का अमात्य
वररुचि (कात्यायन)  :  मगध का अमात्य
शकटार : मगघ का मंत्री
आम्भीक : तक्षशिला का राजकुमार
सिंहरण : मालव गणमुख्य का कुमार
पर्वतेश्वर :  पंचनद का राजा पोरस
सिकन्दर : सिकन्दर (मकदूनिया) का क्षत्रप
मौर्य : चन्द्रगुप्त का पिता, सेनापति
एनीसाक्रीटीज : सिकन्दर का सहचर
दूवबल, नागदत्त, : मालव गणतंत्र के पदाधिकारी
साइबटिंयस, मेगास्थनीज : यवन दूत
गांधार नरेश : आम्भीक के पिता
सिल्युकस : सिकन्दर का सेनापति
दाण्डायन: एक तपस्वी
स्त्री पात्र
अलका : तक्षशिला की राजकुमारी
सुवासिनी : शकटार की कन्या
कल्याणी: मगघ की राजकुमारी
लीला,नीला, : कल्याणी की सहेलियाँ
 मालिवा: सिन्धु -देश की राजकुमारी
 कार्नेलिया : सिल्यूकस की कन्या
मौर्य-पत्नी : चन्द्रगुप्त की माता
एलिन: कार्नेलिया की सहेली

प्रसाद के नाटकों का विभाजन दो प्रकार से किया जा सकता है-
एक: कथानक की दृष्टि से-  1. धार्मिक, 2. ऐतिहासिक, 3. पौराणिक , 4. आध्यात्मिक, 5. नैतिक, 6. लौकिक प्रेम-सम्बन्धी
दो: वस्तु-विभाग की दृष्टि से- 1. एकांकी , 2. दो अधिकार के नाटक, 3. दो से अधिक खण्डों के नाटक, 4. मुख्यत: पाठ्यरास।

प्रसाद का यह नाटक चन्द्रगुप्त ऐतिहासिक पृष्ठिभूमि पर आध्यात्मिक तत्वों के साथ हमारे सामने आता है। 

प्रसाद जी बाल्यकाल से ही हरिश्चन्द के यश-गौरव से परिचित हो गये थे। उस समय  मौलिक नाटक कहीं विरल ही दिखाई पड़ते थे। अन्यथा बंगला नाटकों के अनुवाद का साम्राज्य था। माइकेल मधुसूदनदत्त, गिरीश्चन्द्र घोष, दीनबन्धु मित्र, द्विजेन्द्रलाल राय के नाटकों का बड़े धूमधाम से उत्तर भारत में मंचन और अभिनय हो रहा था। 

भारतेन्दु-मण्डल द्वारा जो नाटक की धारा प्रवाहित हुई थी वह भी धीरे-धीरे मंद पड़ रही थी। शेक्सपीयर के नाटकों से हिन्दी नाटकों में भावुकता का संचार हो रहा था। अंतर्द्वन्द्व और क्लाइमेक्स को रस-प्रतिपादन से अधिक महत्त्व मिल रहा था।

प्रसाद जी ने समन्वयात्मक शैली का अनुगमन किया। उन्होंने भारतीय रस-विधान और पाश्चात्य शील-वैचित्र्य के समन्वय का रास्ता चुना। प्रसाद जी ने पहली बार भारतेन्दु  की नाट्य परम्परा में महाभारत की कथा को लेकर नान्दी-सूत्राधार को ‘सज्जन’ नामक नाटक में स्थान दिया। 

प्रसाद जी का दूसरा एकांकी रूपक ‘प्रायश्चित’ आया। इसमें न नन्दीपाठ है, न सूत्रधार, न प्रस्तावना और न ही भरतवाक्य। हाँ इसमें दो नवीनताएँ आईं, एक : आकाशभाषित, और दो : पात्रों की भाषा में सामाजिक स्थिति के अनुकूल परिवर्तन।

प्रायश्चित से एक वर्ष पूर्व प्रसाद जी ने ‘कल्याणी परिचय’ नामक एकांकी नाटक की रचना की थी। प्रसाद जी का सबसे प्रौढ़ नाटक ‘चन्द्रगुप्त’ इसी का विकसित रूप है। 

बाबू गुलाबराय जी कहते मानते हैं कि , ‘प्रसाद की कृपा से हमारे भंडार में उच्चकोटि के साहित्यिक नाटक हैं किन्तु कोई विशिष्ट रंगमंच उनके अनुरूप हमारे पास नहीं। ’


चन्द्रगुप्त (विक्रमी संवत 1988) 
प्रसाद जी की चिंतन परम्परा का सबसे प्रौढ़ नाटक चन्द्रगुप्त है। इसमें प्रसाद जी की शोध दृष्टि और काव्य-प्रतिभा दोनों अपने चरम पर हैं। 

इसके कथानक को पहले ही उन्होंने ‘कल्याणी परिणय’ नाटिका में संकलित कर लिया था तथापि समझना होगा कि कल्याणी-परिणय से चन्द्रगुप्त सर्वथा पृथक है। चन्द्रगुप्त में प्रसाद जी की सबसे बड़ी देन चाणक्य है।

 माना जाता है कि यह चाणक्य वह ब्राह्मण है जिसकी भविष्यवाणी व्यास जी ने ‘जनमेजय के नागयज्ञ’ में कुछ इस प्राकर की थी- ‘‘महात्मा ब्राह्मणों की विशुद्ध ज्ञानधारा से यह पृथ्वी अनन्तकाल तक सिंचित होगी,लोगों को परमात्मा की उपलब्धि होगी, लोक में कल्याण और शान्ति का प्रचार होगा।’’

चन्द्रगुप्त नाटक में हम पाते हैं कि लोक कल्याणकारी चाणक्य अत्याचारी नन्द तथा विदेशी यूनानियों के अत्याचार के विरुद्ध न केवल खड़ा होता है, अपितु उसे चन्द्रगुप्त के माध्यम से जड़-मूल से उखाड़ फेंकता है। 

लोक-मंगल की कामना वह अपने त्याग और तप के बल से इस प्रकार व्यक्त करता है-
‘‘(आँख खोलता हुआ) कितना गौरवमय आज का अरुणोद है! भगवान् सविता! तुम्हारा आलोक जगत् का मंगल करे। मैं आज जैसे निष्काम हो रहा हूँ। आज मुझे अपने अन्तर्निहित ब्राह्मणत्व की उपलब्धि हो रही है। चैतन्य सागर निस्तरंग है और ज्ञान ज्योति निर्मल है।’’


प्रसाद जी का चाणक्य केवल एक जगह अनुरक्त दिखाई देता है, जब सुवासिनी को कहना पड़ता है-
‘‘यह क्या विष्णुगुप्त, तुम संसार को अपने वश में करने का संकल्प रखते हो, फिर अपने को नहीं। देखो दर्पण लेकर, तुम्हारी आँखों में तुम्हारा यह कौन-सा नवीन चित्र है।’’ 


चन्द्रगुप्त में सात कथासूत्र इस प्रकार हैं- (एक) चन्द्रगुप्त और कल्याणी, (दो) चन्द्रगुप्त  और कार्नेलिया, (तीन) चन्द्रगुप्त और मालविका, (चार)राक्षस और सुवासिनी, (पाँच): सिंहरण और अलका, (छह) शकटार और नन्द, (सात) पर्वतेश्वर और कल्याणी। 


यहाँ एक बात स्पष्ट है कि कथानक के चुनाव में प्रसाद जी ने जहाँ पुरुष पात्रों को इतिहास से चुना है, वहीं स्त्री पात्रों के चयन में कल्पना से काम लिया है। कुछ स्त्री पात्र तो गुणानुसार हैं जैसे- कल्याणी, विजया और श्यामा आदि।


प्रसाद जी के सम्पूर्ण पुरुषों को समीक्षक तीन भागों में बाँटते हैं- देवता, दानव और मानव। इसके साथ ही प्रसाद के प्रत्येक नाटक में एक-एक साधु, महात्मा, ब्राह्मण और बौद्धभिक्षु अवश्य मिलेंगे। चन्द्रगुप्त में दाण्डायन महात्मा और देवता की कोटि में आते हैं। दावन वर्ग में कतिपय ऐसे पात्र हैं, जो पतित  और असंस्कृत हैं। 


नाटक के मूल तत्वों में विविध उपकरणों में कथोपकथन का प्रसाद जी ने बहुत ध्यान रखा है। उनके संवादों में तत्व-चिन्तन, आत्मचिन्तन, प्राकृतिक वर्णन, तत्व-निरूपण, कर्तव्य-पालन आदि सर्वत्र दिखाई देते हैं। साथ ही स्वागतोक्ति और नृत्यगीत भी हैं। 


चन्द्रगुप्त में तेरह गीत हैं। इनमें से ग्यारह गीत स्त्रियों द्वारा गाये गये हैं। एक नेपथ्य से सुनाई पड़ता है और एकगीत राक्षस गाता है। स्त्रियों के ग्यारह गीतों में तीन सुवासिनी, तीन अलका, तीन मालविका, एक कल्याणी और एक कार्नेलिया गाती है। भाव की दृष्टि से दो राष्ट्रीय गान है, और एक अतीत की स्मृति का। शेष आठ श्रृंगार और प्रेम-सौन्दर्य के हैं। नाटक में मंच पर जब पात्र मौन हो जाता है तो प्रसाद जी नेपथ्य से गीत प्रारंभ करा देते हैं।


चन्द्रगुप्त  में  प्रसाद जी ने दासता के विरुद्ध संघर्ष को अंकित करते हुए जातीय स्मृतियों को जगाने की कोशिश की है। इसी परिप्रेक्ष्य में नाटक का संघर्ष राजनैतिक संघर्ष तक सीमित न रहकर राजसत्ता से पनपी मानसिकता के विरुद्ध भी हो गया है। इस तरह यह नाटक मौर्यकालीन इतिहास को आधार बनाता हुआ अपने समय की राजनैतिक उथल-पुथल की प्रक्रिया को विस्तार देता है।


 इसमें एक ओर, देश के आंतरिक गठन एवं सुरक्षा के लिए संघर्षशील  शक्तियों के संगठित होने का अंकन है,तो दूसरी ओर राष्ट्रीय अखंडता को खंडित ही नहीं, समूचे राष्ट्र को गुलाम बनानेवाली प्रतिगामी शक्तियों का चित्रण भी मिलता है। ये प्रतिगामी शक्तियाँ विदेशी आक्रमाणकारियों की चालों से बेखबर ही नहीं, उनका सामना करने में भी असमर्थ थीं।  

उनकी संकीर्ण प्रांतीयता, जाति-भेद के झूठे अहं और वैयक्तिक द्वेष-भावना के कारण राष्ट्र में अस्थिरता पैदा करनेवाली राजनैतिक सोच का लाभ विदेशी उठा रहे थे।

चन्द्रगुप्त नाटक में कुल चार अंक हैं। 
 प्रथम अंक में कुल ग्यारह दृष्य हैं। दूसरे अंक में नौ,तीसरे में सात और चौथे में चौदह।

प्रथम अंक

यह अंक चाणक्य की चंद्रगुप्त और सिंहरण की वार्ता से प्रारंभ होता है।
 ‘भयानक विस्फोट’ का संकेत मिलता है ,यथा-सिंहरण चाणक्य से कह रहा है, ‘आर्यावर्त  का भविष्य लिखने के लिए कुचक्र और प्रतारणा की लेखनी और मसि प्रस्तुत हो रही है। उत्तरापथ  के खण्ड-राज्य द्वेष से जर्जर हैं। शीघ्र भयानक विस्फोट होगा।’

 वह अपने में अकेला नहीं है। उसके साथ ये सारे संदर्भ जुडे हुए हैं, जिनकी दिशाएँ जानने की कोशिश में नाटक के प्रमुख पात्र चाणक्य के उद्देश्य से परिचय होता है।

 प्रसाद जी चाण्क्य का परिचय कुछ इस प्रकार पहले ही दृश्य में करा देते हैं। वह तक्षशिला के राजकुमार के दम्भ को तोड़ता हुआ कहता है-
 ‘ब्राह्मण न किसी राज्य में रहता है और न किसी के अन्न से पलता है: स्वराज्य में विचरता है और अमृत होकर जीता है। यह तुम्हारा मिथ्या गर्व है। ब्राह्मण  सब कुछ सामथ्र्य रखने पर भी, स्वेच्छा से इन माया-स्तूपो को ठुकरा देता है, प्रकृति के कल्याण के लिए अपने ज्ञान का दान देता है।’


कारण की तलाश स्पष्ट थी, विदेशी सिकंदर भारत पर आक्रमण करके विजय प्राप्त करना चाह रहा है। अत: इससे बचने के लिए तीन कार्य करने होंगे- स्वतंत्र राज्यों एवं गणतंत्र राज्यों में एकसूत्रता लाना, विदेशी आक्रमणकारियों का सामना कर देश को निष्कंटक बनाना तथा शक्तिशाली एवं व्यवस्थित केन्द्रीय सत्ता की स्थापना करना। इसी के आधार पर ‘समग्र आर्यावर्त’ की भावना और एकराष्ट्र की चाणक्य की कल्पना सामने आती है। वह कहता है- 
‘तुम मालव हो और यह मागध, यही तुमहारे मान का अवसान है न? परन्तु आत्म-सम्मान इतने ही से सन्तुष्ट नहीं होगा। मालव और मागध को भूलकर जब तुम आयावत्र्त का नाम लोगे, तभी वह मिलेगा। क्या तुम नहीं देखते हो कि आगामी दिवसोंमें, आर्यावत्र्त के सबस्वतंत्र राष्ट्र एकके अनन्तर दूसरे विदेशी विजेता से पददलित होंगे?’
 प्रथम अंक में चाणक्य और चन्द्रगुप्त की दिशा तय होती है। यहाँ बिना किसी भूमिका के दो विरोधी शक्तियाँ मागध और मालव को आमने सामने रखकर नाटक के मूल संघर्ष से दर्शकों को साक्षात्कार कराया जाता है। यहाँ आम्भीक चाणक्य,चन्द्रगुप्त और सिंहरण के विरोधी के रूप में सामने आता है। तो अलका सिंहरण के परिचय में आती है। दूसरे दृश्य में मगध सम्राट का विलासी स्वरूप प्रस्तुत होता है और यहीं नन्द, सुवासिनी और राक्षस का परिचय सामने आता है। इस दृश्य में दो गीत सामने आते हैं, पहला - तुम कनक किरण केअनतराल में, लुक छिप कर चलते हो क्यों।’ सुवासिनी द्वारा तथा दूसरा राक्षस द्वारा- ‘निकल मत बाहर दुर्बल आह, लगेगा तुम्हें हँसी का शीत।’ तीसरे दृश्य में चाणक्य का अपने गाँव पहुँच कर पिता की तलाश करता है और अतीत में खो जाता है-
‘पिता का पता नहीं, झोंपड़ी भी नहीं रह गयी। सुवासिनी अभिनेत्री होगयी सम्भवत: पेट की ज्वाला से। एक साथ दो-दो कुटुम्बों का सर्वनाश और कुसुमपुर फूलों की सेज में ऊँघ रहा है ! क्या इसीलिए राष्ट्र की शीतल छाया का संगठन मनुष्य ने किया था! मगध ! सावधान ! इतना अत्याचार! सहना असम्भव है। तुझे उलट दूँगा! नया बनाऊँगा, नहीं तो नाश ही करूँगा! (ठहरकर) एक बार चलूँ , नन्द ेस कहूँ। नहीं, परन्तु मेरी भूमि, मेरी वृत्ति, वहीं मिल जाय, मैं शास्त्र -व्यवसायी न रहूँगा, मैं कृषक बनूँगा। मुझे राष्ट्र की भलाई-बुराई से क्या? तो चलूँ। (देखकर) यह एक लकड़ी का स्तम्ी अभी उसी झोपड़ी का खड़ा है, इसके साथ मेरे बाल्रूकाल की सहस्त्रों भाँवरियाँ लिपटी हुई हैं, जिन पर मेरी धवल मधुर हँसी का आवरण चढ़ा रहता था! शैशव की स्निग्ध स्मृति! विलीन होजा!’
चौथे दृश्य में प्रसाद जी धीरे से राक्षस और सुवासिनी के संवाद से बौद्ध मत का परिचय करा देते हैं ‘मैं वैसा हूँ कि नहीं, यह पीछे मालूम होगा। परन्तु सुवासिनी, मैं स्वयं हृदय से बौद्ध मत का समर्थक हूँ, केवल उसकी दार्शनिक सीमा तक इतना ही कि संसार दु:खमय है।’
इसी चौथे दृश्य में कल्याणी और दो ब्रहृचारियों के द्वारा प्रसाद जी पूरे मगध की स्थिति ओर उसकी दुर्दशा का संकेत करा देते हैं। कल्याणी का संवाद- ‘मुझे इसका बड़ा दुख है। देखती हूँ किसमस्त प्रजा उनसे त्रस्त और भयभीत रहती है, प्रचण्ड शासन के कारण उनका बड़ा दुर्नाम है।’
आगे ब्रह्चाचारियों के संवाद- ‘धर्मपालित, मगध का उन्माद हो गया है। वह जनसाधारण के अधिकार अल्याचारियों के हाथ में देकर विलासिता का स्व्प्र देख रहा है। ..’
यह है सम्पूर्ण चाणक्य का आधार और चाणक्य के कठोर व्यक्तित्व के परिणाम का मूल।
अंक के अंतिम दृश्य में  दांडायन के आश्रम में विरोधी  पक्ष सिकंदर एवं सिल्यूकस के रूप में आते हैं। इस तरह पहले दृश्य में देश के प्रति जागरूकता, दूसरे में शासक का विलासी रूप,तीसरे में राजनैतिक-सामाजिक स्थिति के प्रति उत्तेजना, चौथे दृश्य में इस उत्तेजना को ठोस आधार देना तथा अन्य दृश्यों में समस्या के दूसरे पक्षों को स्व देता है और मुख्य संघर्ष को आगे ले जाता है।  (क्रमशः)

Friday, 20 December 2019

कुकुरमुत्ता निराला जी की कविता

कुकुरमुत्ता 
निराला 

निराला छायावादी कविता के सुकुमार, लालित्यमय, संस्कृतनिष्ठ वासंती माहौल के बीच उपजे एक दुर्लभ कवि थे। यह वह युग था, जब साहित्य में  कवि सम्मेलनों, संस्थानों व नई-नई पत्रिकाओं का बोलबाला था। 

निराला जब आए तो कबीर के शब्दों में ' सबै भ्रम की टाटी उड़ाने वाली एक दुर्दांत आंधी बनकर'  और देखते-देखते कवि तथा कविता की छुईमुई छवि को समाप्त कर दिया।

 40 के दशक में इस विलक्षण कवि का कुकुरमुत्ता सरीखा अक्खड़ किंतु अद्भुत रूप से पठनीय काव्य संकलन छपा। यह संकलन युवाओं और युवा पाठक  के लिए  हिंदी साहित्य का एक बिलकुल नया द्वार  खोलता था। 

पुरानी कविता और रीतिकालीन कविता का तुकांत निर्मल संगीत और बोलियों का पिया, हिया भरा रीतिकालीन स्वर या फारसी का आभिजात्यपूर्ण सामंती आडंबर नए भारत के नए पाठक-लेखक को अब रिझाता कम खिझाता अधिक था। 

उन युवाओं की तरह निराला खुद अकाल, दुष्काल, बमबारी और नीची आयुष्य वाले बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में गरीबी, सामाजिक जड़ता, प्रियजनों की अकाल मौत देख-जी चुके थे।

 अपनी रचनाओं तथा पत्राचार के पन्ने में वे हमको चौंकाने वाली बेबाकी से बताते हैं कि दो महायुद्धों के बीच के अर्धसामंती, अर्धखेतिहर राज-समाज में बैसवाड़े के सामान्य ब्राह्मण परिवार की परंपराओं और गांधी की आंधी व सुधारवादी नएपन की चुनौतियों के बीच किशोरवय से ही उनका संवेदनशील मन किस तरह मथा जाता रहा था। 

उनके  लठ्ठ भांजने वाले तेवर ने जड़ीभूत राज-समाज को चुनौती देने वाले कुकुरमुत्ता के पहले संस्करण (4.6.42) की भूमिका में कवि को कोमल अशरीरी और भौतिकता से कतई दूर मानने वालों के विरुद्ध उनका बगावती तेवर साफ दिखाई देता है -
‘इसमें वही शरीक होंगे, जिन्हें न्योता नहीं भेजा गया, साथ ही जो कंगाल नहीं, न ऐसे बड़े आदमी, जो अपनी जगह गड़े रह गए। मतलब साफ है। हम दोनों मतलब के। न हम पैरों पड़ें, न वह। मिहनत की कमाई हम भी खाएं, वह भी।’ 

अपने उन साहित्यिक तथा राजनैतिक अग्रजों से, जो यथास्थिति के पक्ष में थे, निराला का छायावादी छंदबद्धता की थीसिस के साथ एंटीथीसिस का रिश्ता बना। 

उनकी कविताओं में नियमानुशासन का बोध तो है, पर मृत हो चुके नियमों से ईमानदार चिढ़ व खीझ भी।

 प्रकाशन जगत का बाजारवाद व भाषा व छंद के साथ नए प्रयोग लेखन की भीतरी जरूरत के साथ लेखक की नियमित आय व नए पाठकों की रुचि का वाहक भी होते हैं, यह बोध उनके पत्रों में साफ है।

गांधी का जादू अंत तक निराला को भी बांधे रहा। लेकिन गांधी के सत्य के जिन अनेक प्रयोगों से और गांधीवादियों की कुछ किस्मों से कई बार उनको विरक्ति महसूस होती रहती थी।

उन पर भी निराला ने (विचार पत्रिका के लिए) एक चर्चित कविता, बापू के प्रति लिखी : 

"बापू, तुम मुर्गी खाते यदि, तो क्या भजते होते तुमको, ऐरे-गैरे नत्थूखैरे? सर के बल खड़े हुए होते हिंदी के इतने लेखक कवि? "

कवि ने इस कविता में अपने समय में सामाजिक वर्जनाओं और आमो-खास की भावनाओं का द्वैत ही नहीं, हिंदी के प्रतिष्ठान की जड़ता और दास्यभरी मानसिकता को भी क्या खूब लपेटा है। 
कवि से उनकी नई रचना साग्रह मंगवाने वाले संपादक भगवतीचरण वर्मा ने यह रचना छापी तो, पर रचना के साथ इसे ऊलजलूल आदि कहते हुए अपना एक निंदापरक नोट भी चेंप दिया था। आज वह नोट बिसर-सा गया है, पर कविता अभी भी अपनी जगह अपना आंका-बांका सवाल लिए मुस्कराती है, उसी तरह जैसे नेहरूयुगीन भद्रलोक पर कटाक्ष करती रचना में किसी रईस के बागीचे का वह बेअदब कुकुरमुत्ता।

                                                                  कुकुरमुत्ता
 
आया मौसिम खिला फारस का गुलाब, 
 बाग पर पड़ा था उसका रोबोदाब। 
 वहीं गंदे में उगा देता हुआ बुत्ता, 
पहाड़ी से उठे सर ऐंठ कर बोला कुकुरमुत्ता। 

अबे, सुन बे गुलाब! 
एक थे नव्वाब
फ़ारस से मंगाए थे गुलाब। 
 बड़ी बाड़ी में लगाए 
 देशी पौधे भी उगाए 
रखे माली, कई नौकर ।

 गजनवी का बाग मनहर 
 लग रहा था। / एक सपना जग रहा था / सांस पर तहजबी की, / गोद पर तरतीब की। / क्यारियां सुन्दर बनी / चमन में फैली घनी। / फूलों के पौधे वहाँ  /लग रहे थे खुशनुमा। 

 बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी, / जूही, नरगिस, रातरानी, कमलिनी, / चम्पा, गुलमेंहदी, गुलखैरू, गुलअब्बास, / गेंदा, गुलदाऊदी, निवाड़, गन्धराज, / और किरने फ़ूल, फ़व्वारे कई, / रंग अनेकों-सुर्ख, धनी, चम्पई, / आसमानी, सब्ज, फिऱोज सफ़ेद, / जर्द, बादामी, बसन्त, सभी भेद। 

 फ़लों के भी पेड़ थे, / आम, लीची, सन्तरे और फ़ालसे। / चटकती कलियां, निकलती मृदुल गन्ध,/ लगे लगकर हवा चलती मन्द-मन्द,।

चहकती बुलबुल, मचलती टहनियां, / बाग चिडिय़ों का बना था आशियाँ। / साफ़ राह, सरा दानों ओर, / दूर तक फैले हुए कुल छोर, / बीच में आरामगाह / दे रही थी बड़प्पन की थाह।  कहीं झरने, कहीं छोटी-सी पहाड़ी, / कही सुथरा चमन, नकली कहीं झाड़ी। 

आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब, / बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब; / वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता / पहाड़ी से उठे-सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता-

 -‘अब, सुन बे, गुलाब, / भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब, / खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट, / डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट! 

कितनों को तूने बनाया है गुलाम, / माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम, / हाथ जिसके तू लगा, / पैर सर रखकर वो पीछे को भागा / औरत की जानिब मैदान यह छोडक़र, / तबेले को टट्टू जैसे तोडक़र, / शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा / तभी साधारणों से तू रहा न्यारा। 

 वरना क्या तेरी हस्ती है, पोच तू / कांटों ही से भरा है यह सोच तू / कली जो चटकी अभी / सूखकर कांटा हुई होती कभी। 

रोज पड़ता रहा पानी,/ तू हरामी खानदानी।/ चाहिए तुझको सदा मेहरून्निसा / जो निकाले इत्र, रू, ऐसी दिशा / बहाकर ले चले लोगो को, नहीं कोई किनारा / जहाँ अपना नहीं कोई भी सहारा / ख्वाब में डूबा चमकता हो सितारा ।

 पेट में डंड पेले हों चूहे, जबां पर लफ्ज़ प्यारा। / देख मुझको, मैं बढ़ा / डेढ़ बालिश्त और ऊंचे पर चढ़ा / और अपने से उगा मैं / बिना दाने का चुगा मैं ।

कलम मेरा नही लगता / मेरा जीवन आप जगता / तू है नकली, मै हूँ मौलिक / तू है बकरा, मै हूँ कौलिक / तू रंगा और मैं धुला / पानी मैं, तू बुलबुला / तूने दुनिया को बिगाड़ा / मैंने गिरते से उभाड़ा ।

 तूने रोटी छीन ली जनखा बनाकर / एक की दी तीन मैने गुन सुनाकर। / काम मुझ ही से सधा है/शेर भी मुझसे गधा है / चीन में मेरी नकल, छाता बना / छत्र भारत का वही, कैसा तना / सब जगह तू देख ले / आज का फिर रूप पैराशूट ले।

 विष्णु का मैं ही सुदर्शनचक्र हूँ। / काम दुनिया मे पड़ा ज्यों, वक्र हूँ। / उलट दे, मैं ही जसोदा की मथानी / और लम्बी कहानी-/ सामने लाकर मुझे बेंड़ा / देख कैंडा / तीर से खींचा धनुष मैं राम का। / काम का-/ पड़ा कन्धे पर हूँ हल बलराम का। 

सुबह का सूरज हूँ मैं ही / चांद मैं ही शाम का। / कलजुगी मैं ढाल / नाव का मैं तला नीचे और ऊपर पाल। / मैं ही डांड़ी से लगा पल्ला / सारी दुनिया तोलती गल्ला /।

मुझसे मूछें, मुझसे कल्ला / मेरे उल्लू, मेरे लल्ला / कहे रूपया या अधन्ना / हो बनारस या न्यवन्ना / रूप मेरा, मैं चमकता / गोला मेरा ही बमकता। / लगाता हूँ पार मैं ही / डुबाता मझधार मैं ही। / डब्बे का मैं ही नमूना / पान मैं ही, मैं ही चूना
..मैं कुकुरमुत्ता हूँ,।

 पर बेन्जाइन (क्चद्गठ्ठद्दशद्बठ्ठ) वैसे /बने दर्शनशास्त्र जैसे। / ओमफ़लस (ह्रद्वश्चद्धड्डद्यशह्य) और ब्रहमावर्त / वैसे ही दुनिया के गोले और पर्त / जैसे सिकुडऩ और साड़ी,/ ज्यों सफ़ाई और माड़ी। / कास्मोपालिटन और मेट्रोपालिटन / जैसे फ्ऱायड और लीटन। / फ़ेलसी और फ़लसफ़ा / जरूरत और हो रफ़ा। /सरसता में फ्राड / केपिटल में जैसे लेनिनग्राड। / सच समझ जैसे रकीब / लेखकों में लण्ठ जैसे खुशनसीब।


..मैं डबल जब, बना डमरू / इकबगल, तब बना वीणा। / मन्द्र होकर कभी निकला / कभी बनकर ध्वनि छीणा। 

मैं पुरुष और मैं ही अबला। / मै मृदंग और मैं ही तबला। / चुन्ने खां के हाथ का मैं ही सितार / दिगम्बर का तानपूरा, हसीना का सुरबहार। 

मैं ही लायर, लिरिक मुझसे ही बने / संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, ग्रीक, लैटिन के जने / मन्त्र, गज़लें, गीत, मुझसे ही हुए शैदा / जीते है, फिर मरते है, फिर होते है पैदा। 

 वायलिन मुझसे बजा / बेन्जो मुझसे सजा। / घण्टा, घण्टी, ढोल, डफ़, घडिय़ाल, / शंख, तुरही, मजीरे, करताल, / करनेट, क्लेरीअनेट, ड्रम, फ़्लूट, गीटर, / बजानेवाले हसन खां, बुद्धू, पीटर, / मानते हैं सब मुझे ये बायें से, / जानते हैं दाये से।

..ताताधिन्ना चलती है जितनी तरह / देख, सब में लगी है मेरी गिरह / नाच में यह मेरा ही जीवन खुला / पैरों से मैं ही तुला। / कत्थक हो या कथकली या बालडान्स, / क्लियोपेट्रा, कमल-भौंरा, कोई रोमान्स ।

बहेलिया हो, मोर हो, मणिपुरी, गरबा, / पैर, माझा, हाथ, गरदन, भौंहें मटका / नाच अफ्ऱीकन हो या यूरोपीयन, / सब में मेरी ही गढऩ। / किसी भी तरह का हावभाव, / मेरा ही रहता है सबमें ताव। 

मैने बदलें पैंतरे, / जहां भी शासक लड़े। / पर हैं प्रोलेटेरियन झगड़े जहां, / मियां-बीबी के, क्या कहना है वहां। 

 नाचता है सूदखोर जहां कहीं ब्याज डुचता, / नाच मेरा क्लाईमेक्स को पहुचंता। / नहीं मेरे हाड़, कांटे, / काठ कानहीं मेरा बदन आठोगांठ का। / रस-ही-रस मैं हो रहासफ़ेदी का जहन्नम रोकर रहा। 

दुनिया में सबने मुझी से रस चुराया,रस में मैं डूबा-उतराया। मुझी में गोते लगाये वाल्मीकि-व्यास ने / मुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने। / टुकुर-टुकुर देखा किये मेरे ही किनारे खड़े / हाफिज़-रवीन्द्र जैसे विश्वकवि बड़े-बड़े। 

कहीं का रोड़ा, कही का पत्थर / टी.एस. एलीयट ने जैसे दे मारा / पढऩेवाले ने भी जिगर पर रखकर / हाथ, कहां,’लिख दिया जहां सारा’। 

ज्यादा देखने को आंख दबाकर / शाम को किसी ने जैसे देखा तारा। / जैसे प्रोग्रेसीव का कलम लेते ही / रोका नहीं रूकता जोश का पारा / यहीं से यह कुल हुआ/ जैसे अम्मा से बुआ। / मेरी सूरत के नमूने पीरामेड / मेरा चेला था यूक्लीड / रामेश्वर, मीनाछी, भुवनेश्वर,/ जगन्नाथ, जितने मन्दिर सुन्दर / मैं ही सबका जनक / जेवर जैसे कनक। 

 हो कुतुबमीनार,/ ताज, आगरा या फ़ोर्ट चुनार,/ विक्टोरिया मेमोरियल, कलकत्ता,/ मस्जिद, बगदाद, जुम्मा, अलबत्ता/सेन्ट पीटर्स गिरजा हो या घण्टाघर,/गुम्बदों में, गढऩ में मेरी मुहर।

एरियन हो, पर्शियन या गाथिक आर्च/पड़ती है मेरी ही टार्च।/पहले के हो, बीच के हो या आज के/चेहरे से पिद्दी के हों या बाज के।

चीन के फ़ारस के या जापान के/अमरिका के, रूस के, इटली के, इंगलिस्तान के।/ईंट के, पत्थर के हों या लकड़ी के/कहीं की भी मकड़ी के।

बुने जाले जैसे मकां कुल मेरे/छत्ते के हैं घेरे।/सर सभी का फ़ांसनेवाला हूं ट्रेप/टर्की टोपी, दुपलिया या किश्ती-केप।/और जितने, लगा जिनमें स्ट्रा या मेट,/ देख, मेरी नक्ल है अंगरेजी हेट। 

 घूमता हूं सर चढ़ा,/तू नहीं, मैं ही बड़ा।’


 
 



असाध्य वीणा


असाध्य वीणा

आ गये प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफा-गेह !
राजा ने आसन दिया। कहा
कृतकृत्य हुआ मैं तात !
पधारे आप।
भरोसा है अब मुझ को
साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी !
लघु संकेत समझ राजा का
गण दौड़े ! लाये असाध्य वीणा,
साधक के आगे रख उसको,
 हट गये।
सभा की उत्सुक आँखें
एक बार वीणा को लख,
टिक गयीं 
प्रियंवद के चेहरे पर।   
..यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रान्तर से
--घने वनों में जहाँ व्रत करते हैं व्रतचारी --
बहुत समय पहले आयी थी।
पूरा तो इतिहास न जान सके हम ,
किन्तु सुना है
वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत
जिस
अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढा़ था --
 यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रान्तर से
--घने वनों में जहाँ व्रत करते हैं व्रतचारी --
बहुत समय पहले आयी थी।
पूरा तो इतिहास न जान सके हम
किन्तु सुना है
.. वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस
अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढा़ था --
उसके कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,
कंधों पर बादल सोते थे,
उसकी करि-शुंडों सी डालें
हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण,
कोटर में भालू बसते थे,
केहरि उसके वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे।
और --सुना है-- जड़ उसकी जा पँहुची थी पाताल-लोक,
उसकी गंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था।
उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने
सारा जीवन इसे गढा़ ,
हठ-साधना यही थी उस साधक की --
वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।
.. राजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले -
मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी।
पर मेरा अब भी है विश्वास
कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी।
इसे जब सच्चा स्वर-सिद्ध गोद में लेगा।
तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे
वज्रकीर्ति की वीणा,
यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह ,
सब उदग्र, पर्युत्सुक,
जन मात्र प्रतीक्षमाण !
..केश-कम्बली गुफा-गेह ने खोला कम्बल।
धरती पर चुपचाप बिछाया।
वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर प्राण खींच,
करके प्रणाम,
अस्पर्श छुअन से छुए तार।
धीरे बोला, राजन! पर मैं तो
कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ--
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।
वज्रकीर्ति!
प्राचीन किरीटी-तरु!
अभिमन्त्रित वीणा!
ध्यान-मात्र इनका तो गदगद कर देने वाला है।
चुप हो गया प्रियंवद।
..सभा भी मौन हो रही।
वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।
धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।
सभा चकित थी -- अरे, प्रियंवद क्या सोता है?
केशकम्बली अथवा होकर पराभूत
झुक गया तार पर?वीणा सचमुच क्या है असाध्य?
..पर उस स्पन्दित सन्नाटे में
मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा--
नहीं, अपने को शोध रहा था।
सघन निविड़ में वह अपने को
सौंप रहा था उसी किरीटी-तरु को
कौन प्रियंवद है कि दंभ कर
इस अभिमन्त्रित कारुवाद्य के सम्मुख आवे?
कौन बजावे
यह वीणा जो स्वंय एक जीवन-भर की साधना रही?
भूल गया था केश-कम्बली राज-सभा को,
..कम्बल पर अभिमन्त्रित एक अकेलेपन में डूब गया था
जिसमें साक्षी के आगे था
जीवित रही किरीटी-तरु
जिसकी जड़ वासुकि के फण पर थी आधारित,
जिसके कन्धों पर बादल सोते थे
और कान में जिसके हिमगिरी कहते थे अपने रहस्य।
सम्बोधित कर उस तरु को, करता था
नीरव एकालाप प्रियंवद।
ओ विशाल तरु!
शत सहस्र पल्लवन-पतझरों ने जिसका नित रूप सँवारा,
कितनी बरसातों कितने खद्योतों ने आरती उतारी,
दिन भौंरे कर गये गुंजरित,
रातों में झिल्ली ने
अनथक मंगल-गान सुनाये,
साँझ सवेरे अनगिन
अनचीन्हे खग-कुल की मोद-भरी क्रीड़ा काकलि
डाली-डाली को कँपा गयी--
..ओ दीर्घकाय!
ओ पूरे झारखंड के अग्रज,
तात, सखा, गुरु, आश्रय,
त्राता महच्छाय,
 ओ व्याकुल मुखरित वन-ध्वनियों के
 वृन्दगान के मूर्त रूप,
 मैं तुझे सुनूँ,
देखूँ, ध्याऊँ
अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक
कहाँ साहस पाऊँ
छू सकूँ तुझे !
 तेरी काया को छेद, बाँध कर रची गयी वीणा को
 किस स्पर्धा से
 हाथ करें आघात
छीनने को तारों से
एक चोट में वह संचित संगीत जिसे रचने में
स्वंय न जाने कितनों के स्पन्दित प्राण रचे गये।
 नहीं, नहीं ! वीणा यह मेरी गोद रही है, रहे,
किन्तु मैं ही तो
तेरी गोदी बैठा मोद-भरा बालक हूँ,
तो तरु-तात ! सँभाल मुझे,
मेरी हर किलक
पुलक में डूब जाय
मैं सुनूँ, गुनूँ,
विस्मय से भर आँकू
 तेरे अनुभव का एक-एक अन्त:स्वर
तेरे दोलन की लोरी पर झूमूँ मैं तन्मय-- गा तू !
 तेरी लय पर मेरी साँसें
 भरें, पुरें, रीतें, विश्रान्ति पायें।
 गा तू !
यह वीणा रखी है , तेरा अंग -- अपंग।
 किन्तु अंगी, तू अक्षत, आत्म-भरित,
 रस-विद,  तू गा !
 मेरे अंधियारे अंतस में आलोक जगा स्मृति का
श्रुति का -
 तू गा, तू गा, तू गा, तू गा!
..‘ हाँ मुझे स्मरण है ,
 बदली -- कौंध -- पत्तियों पर वर्षा बूँदों की पटापट।
घनी रात में महुए का चुपचाप टपकना।
 चौंके खग-शावक की चिहुँक
 शिलाओं को दुलारते वन-झरने के
 द्रुत लहरीले जल का कल-निनाद।
 कुहरें में छन कर आती
 पर्वती गाँव के उत्सव-ढोलक की थाप।
 गड़रिये की अनमनी बाँसुरी।
 कठफोड़े का ठेका।
 फुलसुँघनी की आतुर फुरकन ,
 ओस-बूँद की ढरकन-इतनी कोमल, तरल, कि झरते-झरते
 मानो हरसिंगार का फूल बन गयी।
 भरे शरद के ताल, लहरियों की सरसर-ध्वनि।
 कूँजो की क्रेंकार। काँद लम्बी टिट्टिभ की।
 पंख-युक्त सायक-सी हंस-बलाका।
 चीड़-वनो में गन्ध-अन्ध उन्मद मतंग की जहाँ-तहाँ टकराहट
 जल-प्रपात का प्लुत एकस्वर।
 झिल्ली-दादुर, कोकिल-चातक की झंकार पुकारों की यति में
 संसृति की साँय-साँय।
 ..‘हाँ मुझे स्मरण है ,
दूर पहाड़ों-से काले मेघों की बाढ़
 हाथियों का मानों चिंघाड़ रहा हो यूथ।
 घरघराहट चढ़ती बहिया की।
 रेतीले कगार का गिरना छ्प-छपाड़।
 झंझा की फुफकार, तप्त,
 पेड़ों का अररा कर टूट-टूट कर गिरना।
 ओले की कर्री चपत।
 जमे पाले-ले तनी कटारी-सी सूखी घासों की टूटन।
ऐंठी मिट्टी का स्निग्ध घास में धीरे-धीरे रिसना।
 हिम-तुषार के फाहे धरती के घावों को सहलाते चुपचाप।
घाटियों में भरती
 गिरती चट्टानों की गूंज --
 काँपती मन्द्र -- अनुगूँज -- साँस खोयी-सी,
 धीरे-धीरे नीरव।
.‘मुझे स्मरण है
 हरी तलहटी में, छोटे पेड़ों की ओट ताल पर
 बँधे समय वन-पशुओं की नानाबिध आतुर-तृप्त पुकारें ,
 गर्जन, घुर्घुर, चीख, भूख, हुक्का, चिचियाहट।
कमल-कुमुद-पत्रों पर चोर-पैर द्रुत धावित
जल-पंछी की चाप।
थाप दादुर की चकित छलांगों की।
पन्थी के घोड़े की टाप धीर।
अचंचल धीर थाप भैंसो के भारी खुर की।
..‘मुझे स्मरण है
उझक क्षितिज से
 किरण भोर की पहली
 जब तकती है ओस-बूँद को
उस क्षण की सहसा चौंकी-सी सिहरन।
और दुपहरी में जब
 घास-फूल अनदेखे खिल जाते हैं
मौमाखियाँ असंख्य झूमती करती हैं गुंजार --
उस लम्बे विलमे क्षण का तन्द्रालस ठहराव।
और साँझ को / जब तारों की तरल कँपकँपी
 स्पर्शहीन झरती है --
 मानो नभ में तरल नयन ठिठकी
 नि:संख्य सवत्सा युवती माताओं के आशिर्वाद --
उस सन्धि-निमिष की पुलकन लीयमान।
..मुझे स्मरण है
 और चित्र प्रत्येक
स्तब्ध, विजडि़त करता है मुझको।
 सुनता हूँ मैं
पर हर स्वर-कम्पन लेता है मुझको मुझसे सोख --
वायु-सा नाद-भरा मैं उड़ जाता हूँ। ...
मुझे स्मरण है --
पर मुझको मैं भूल गया हूँ ,
सुनता हूँ मैं --
पर मैं मुझसे परे, शब्द में लीयमान।
 मैं नहीं, नहीं ! मैं कहीं नहीं !
 ओ रे तरु ! ओ वन !
ओ स्वर-सँभार !
नाद-मय संसृति !
..ओ रस-प्लावन !
 मुझे क्षमा कर -- भूल अकिंचनता को मेरी --
 मुझे ओट दे -- ढँक ले -- छा ले --
 ओ शरण्य !
 मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले !
, मुझे भला,
 तू उतर बीन के तारों में
 अपने से गा
अपने को गा --
अपने खग-कुल को मुखरित कर
अपनी छाया में पले मृगों की चौकडिय़ों को ताल बाँध, अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर
 अपने जीवन-संचय को कर छंदयुक्त,
 अपनी प्रज्ञा को वाणी दे !
 तू गा, तू गा --
तू सन्निधि पा -- तू गा  तू आ -- तू हो -- तू गा ! तू गा !
..राजा आगे
समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था --
 काँपी थी उँगलियाँ।
 अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा ,
 किलक उठे थे स्वर-शिशु।
 नीरव पद रखता जालिक मायावी
सधे करों से धीरे धीरे धीरे
डाल रहा था जाल हेम तारों-का ।
सहसा वीणा झनझना उठी --
 संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गयी
रोमांच एक बिजली-सा सबके तन में दौड़ गया ।
..अवतरित हुआ संगीत
 स्वयम्भू
 जिसमें सीत है अखंड
ब्रह्मा का मौन
 अशेष प्रभामय ।
डूब गये सब एक साथ ।
सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे ।
..राजा ने अलग सुना !
 जय देवी यश:काय
 वरमाल लिये
 गाती थी मंगल-गीत,
दुन्दुभी दूर कहीं बजती थी,
राज-मुकुट सहसा हलका हो आया था,
मानो हो फल सिरिस का
ईष्या, महदाकांक्षा, द्वेष, चाटुता
 सभी पुराने लुगड़े-से झड़ गये,
 निखर आया था जीवन-कांचन
धर्म-भाव से जिसे निछावर वह कर देगा ।
..रानी ने अलग सुना :
 छँटती बदली में एक कौंध कह गयी --
 तुम्हारे ये मणि-माणिक, कंठहार, पट-वस्त्र, मेखला किंकिणि :
सब अंधकार के कण हैं ये ! आलोक एक है
प्यार अनन्य ! उसी की
विद्युल्लता घेरती रहती है रस-भार मेघ को,
थिरक उसी की छाती पर उसमें छिपकर सो जाती है
आश्वस्त, सहज विश्वास भरी ।
रानी
उस एक प्यार को साधेगी ।
..सबने भी अलग-अलग संगीत सुना ।
इसको
 वह कृपा-वाक्य था प्रभुओं का --उसकी
वह भरी तिजोरी में सोने की खनक --उसे
किसी एक को नयी वधू की सहमी-सी पायल-ध्वनि ।
 किसी दूसरे को शिशु की किलकारी ।
एक किसी को जाल-फँसी मछली की तड़पन,
 चौथे को मन्दिर में ताल-युक्त घंटा-ध्वनि ।
और पाँचवें को लोहे पर सधे हथौड़े की सम चोटें
और छठें को लंगर पर कसमसा रही
 नौका पर लहरों की अविराम थपक ।
 बटिया पर चमरौधे की रूँधी चाप सातवें के लिये -
और आठवें को कुलिया की कटी मेंड़ से बहते जल की छुल-छुल
 इसे गमक नट्टिन की एड़ी के घुँघरू की
उसे युद्ध का ढाल :
 इसे सझा-गोधूली की लघु टुन-टुन --
 उसे प्रलय का डमरू-नाद ।
इसको जीवन की पहली अँगड़ाई
पर उसको महाजृम्भ विकराल काल !
.. सब डूबे, तिरे, झिपे, जागे --
ओ रहे वशंवद, स्तब्ध:
इयत्ता सबकी अलग-अलग जागी,
 संगीत हुई,
 पा गयी विलय ।
वीणा फिर मूक हो गयी ।
 साधु ! साधु !’
 उसने
 राजा सिंहासन से उतरे --
रानी ने अर्पित की सतलड़ी माल,
हे स्वरजित ! धन्य ! धन्य !’
..संगीतकार
वीणा को धीरे से नीचे रख, ढँक -- मानो
 गोदी में सोये शिशु को पालने डाल कर मुग्धा माँ
 हट जाय, दीठ से दुलारती --
उठ खड़ा हुआ ।
बढ़ते राजा का हाथ उठा करता आवर्जन,
..बोला :
 श्रेय नहीं कुछ मेरा :
 मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में
 वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
 सब कुछ को सौंप दिया था ..
सुना आपने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का था -
 वह तो सब कुछ की तथता थी
महाशून्य
वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन
सबमें गाता है ।
..नमस्कार कर मुड़ा प्रियंवद केशकम्बली। लेकर कम्बल गेह-गुफा को  चला गया ।
उठ गयी सभा ।
सब अपने-अपने काम लगे । युग पलट गया ।
प्रिय पाठक ! यों मेरी वाणी भी हो गई मौन।