चन्द्रगुप्त (नाटक)
जयशंकर प्रसाद
चन्द्रगुप्त नाटक के पात्र :
पुरुष पात्र
चाणक्य (विष्णुगुप्त) : मौर्य सामाज्य्र का निर्माता
चन्द्रगुप्त : मौर्यसम्राट
नन्द : मगध सम्राट
राक्षस: मगध का अमात्य
वररुचि (कात्यायन) : मगध का अमात्य
शकटार : मगघ का मंत्री
आम्भीक : तक्षशिला का राजकुमार
सिंहरण : मालव गणमुख्य का कुमार
पर्वतेश्वर : पंचनद का राजा पोरस
सिकन्दर : सिकन्दर (मकदूनिया) का क्षत्रप
मौर्य : चन्द्रगुप्त का पिता, सेनापति
एनीसाक्रीटीज : सिकन्दर का सहचर
दूवबल, नागदत्त, : मालव गणतंत्र के पदाधिकारी
साइबटिंयस, मेगास्थनीज : यवन दूत
गांधार नरेश : आम्भीक के पिता
सिल्युकस : सिकन्दर का सेनापति
दाण्डायन: एक तपस्वी
स्त्री पात्र
अलका : तक्षशिला की राजकुमारी
सुवासिनी : शकटार की कन्या
कल्याणी: मगघ की राजकुमारी
लीला,नीला, : कल्याणी की सहेलियाँ
मालिवा: सिन्धु -देश की राजकुमारी
कार्नेलिया : सिल्यूकस की कन्या
मौर्य-पत्नी : चन्द्रगुप्त की माता
एलिन: कार्नेलिया की सहेली
प्रसाद के नाटकों का विभाजन दो प्रकार से किया जा सकता है-
एक: कथानक की दृष्टि से- 1. धार्मिक, 2. ऐतिहासिक, 3. पौराणिक , 4. आध्यात्मिक, 5. नैतिक, 6. लौकिक प्रेम-सम्बन्धी
दो: वस्तु-विभाग की दृष्टि से- 1. एकांकी , 2. दो अधिकार के नाटक, 3. दो से अधिक खण्डों के नाटक, 4. मुख्यत: पाठ्यरास।
प्रसाद का यह नाटक चन्द्रगुप्त ऐतिहासिक पृष्ठिभूमि पर आध्यात्मिक तत्वों के साथ हमारे सामने आता है।
चन्द्रगुप्त (विक्रमी संवत 1988)
यह है सम्पूर्ण चाणक्य का आधार और चाणक्य के कठोर व्यक्तित्व के परिणाम का मूल।
अंक के अंतिम दृश्य में दांडायन के आश्रम में विरोधी पक्ष सिकंदर एवं सिल्यूकस के रूप में आते हैं। इस तरह पहले दृश्य में देश के प्रति जागरूकता, दूसरे में शासक का विलासी रूप,तीसरे में राजनैतिक-सामाजिक स्थिति के प्रति उत्तेजना, चौथे दृश्य में इस उत्तेजना को ठोस आधार देना तथा अन्य दृश्यों में समस्या के दूसरे पक्षों को स्व देता है और मुख्य संघर्ष को आगे ले जाता है। (क्रमशः)
जयशंकर प्रसाद
चन्द्रगुप्त नाटक के पात्र :
पुरुष पात्र
चाणक्य (विष्णुगुप्त) : मौर्य सामाज्य्र का निर्माता
चन्द्रगुप्त : मौर्यसम्राट
नन्द : मगध सम्राट
राक्षस: मगध का अमात्य
वररुचि (कात्यायन) : मगध का अमात्य
शकटार : मगघ का मंत्री
आम्भीक : तक्षशिला का राजकुमार
सिंहरण : मालव गणमुख्य का कुमार
पर्वतेश्वर : पंचनद का राजा पोरस
सिकन्दर : सिकन्दर (मकदूनिया) का क्षत्रप
मौर्य : चन्द्रगुप्त का पिता, सेनापति
एनीसाक्रीटीज : सिकन्दर का सहचर
दूवबल, नागदत्त, : मालव गणतंत्र के पदाधिकारी
साइबटिंयस, मेगास्थनीज : यवन दूत
गांधार नरेश : आम्भीक के पिता
सिल्युकस : सिकन्दर का सेनापति
दाण्डायन: एक तपस्वी
स्त्री पात्र
अलका : तक्षशिला की राजकुमारी
सुवासिनी : शकटार की कन्या
कल्याणी: मगघ की राजकुमारी
लीला,नीला, : कल्याणी की सहेलियाँ
मालिवा: सिन्धु -देश की राजकुमारी
कार्नेलिया : सिल्यूकस की कन्या
मौर्य-पत्नी : चन्द्रगुप्त की माता
एलिन: कार्नेलिया की सहेली
प्रसाद के नाटकों का विभाजन दो प्रकार से किया जा सकता है-
एक: कथानक की दृष्टि से- 1. धार्मिक, 2. ऐतिहासिक, 3. पौराणिक , 4. आध्यात्मिक, 5. नैतिक, 6. लौकिक प्रेम-सम्बन्धी
दो: वस्तु-विभाग की दृष्टि से- 1. एकांकी , 2. दो अधिकार के नाटक, 3. दो से अधिक खण्डों के नाटक, 4. मुख्यत: पाठ्यरास।
प्रसाद का यह नाटक चन्द्रगुप्त ऐतिहासिक पृष्ठिभूमि पर आध्यात्मिक तत्वों के साथ हमारे सामने आता है।
प्रसाद जी बाल्यकाल से ही हरिश्चन्द के यश-गौरव से परिचित हो गये थे। उस समय मौलिक नाटक कहीं विरल ही दिखाई पड़ते थे। अन्यथा बंगला नाटकों के अनुवाद का साम्राज्य था। माइकेल मधुसूदनदत्त, गिरीश्चन्द्र घोष, दीनबन्धु मित्र, द्विजेन्द्रलाल राय के नाटकों का बड़े धूमधाम से उत्तर भारत में मंचन और अभिनय हो रहा था।
भारतेन्दु-मण्डल द्वारा जो नाटक की धारा प्रवाहित हुई थी वह भी धीरे-धीरे मंद पड़ रही थी। शेक्सपीयर के नाटकों से हिन्दी नाटकों में भावुकता का संचार हो रहा था। अंतर्द्वन्द्व और क्लाइमेक्स को रस-प्रतिपादन से अधिक महत्त्व मिल रहा था।
प्रसाद जी ने समन्वयात्मक शैली का अनुगमन किया। उन्होंने भारतीय रस-विधान और पाश्चात्य शील-वैचित्र्य के समन्वय का रास्ता चुना। प्रसाद जी ने पहली बार भारतेन्दु की नाट्य परम्परा में महाभारत की कथा को लेकर नान्दी-सूत्राधार को ‘सज्जन’ नामक नाटक में स्थान दिया।
प्रसाद जी का दूसरा एकांकी रूपक ‘प्रायश्चित’ आया। इसमें न नन्दीपाठ है, न सूत्रधार, न प्रस्तावना और न ही भरतवाक्य। हाँ इसमें दो नवीनताएँ आईं, एक : आकाशभाषित, और दो : पात्रों की भाषा में सामाजिक स्थिति के अनुकूल परिवर्तन।
प्रायश्चित से एक वर्ष पूर्व प्रसाद जी ने ‘कल्याणी परिचय’ नामक एकांकी नाटक की रचना की थी। प्रसाद जी का सबसे प्रौढ़ नाटक ‘चन्द्रगुप्त’ इसी का विकसित रूप है।
बाबू गुलाबराय जी कहते मानते हैं कि , ‘प्रसाद की कृपा से हमारे भंडार में उच्चकोटि के साहित्यिक नाटक हैं किन्तु कोई विशिष्ट रंगमंच उनके अनुरूप हमारे पास नहीं। ’
प्रसाद जी की चिंतन परम्परा का सबसे प्रौढ़ नाटक चन्द्रगुप्त है। इसमें प्रसाद जी की शोध दृष्टि और काव्य-प्रतिभा दोनों अपने चरम पर हैं।
इसके कथानक को पहले ही उन्होंने ‘कल्याणी परिणय’ नाटिका में संकलित कर लिया था तथापि समझना होगा कि कल्याणी-परिणय से चन्द्रगुप्त सर्वथा पृथक है। चन्द्रगुप्त में प्रसाद जी की सबसे बड़ी देन चाणक्य है।
माना जाता है कि यह चाणक्य वह ब्राह्मण है जिसकी भविष्यवाणी व्यास जी ने ‘जनमेजय के नागयज्ञ’ में कुछ इस प्राकर की थी- ‘‘महात्मा ब्राह्मणों की विशुद्ध ज्ञानधारा से यह पृथ्वी अनन्तकाल तक सिंचित होगी,लोगों को परमात्मा की उपलब्धि होगी, लोक में कल्याण और शान्ति का प्रचार होगा।’’
चन्द्रगुप्त नाटक में हम पाते हैं कि लोक कल्याणकारी चाणक्य अत्याचारी नन्द तथा विदेशी यूनानियों के अत्याचार के विरुद्ध न केवल खड़ा होता है, अपितु उसे चन्द्रगुप्त के माध्यम से जड़-मूल से उखाड़ फेंकता है।
लोक-मंगल की कामना वह अपने त्याग और तप के बल से इस प्रकार व्यक्त करता है-
‘‘(आँख खोलता हुआ) कितना गौरवमय आज का अरुणोद है! भगवान् सविता! तुम्हारा आलोक जगत् का मंगल करे। मैं आज जैसे निष्काम हो रहा हूँ। आज मुझे अपने अन्तर्निहित ब्राह्मणत्व की उपलब्धि हो रही है। चैतन्य सागर निस्तरंग है और ज्ञान ज्योति निर्मल है।’’
प्रसाद जी का चाणक्य केवल एक जगह अनुरक्त दिखाई देता है, जब सुवासिनी को कहना पड़ता है-
‘‘यह क्या विष्णुगुप्त, तुम संसार को अपने वश में करने का संकल्प रखते हो, फिर अपने को नहीं। देखो दर्पण लेकर, तुम्हारी आँखों में तुम्हारा यह कौन-सा नवीन चित्र है।’’
चन्द्रगुप्त में सात कथासूत्र इस प्रकार हैं- (एक) चन्द्रगुप्त और कल्याणी, (दो) चन्द्रगुप्त और कार्नेलिया, (तीन) चन्द्रगुप्त और मालविका, (चार)राक्षस और सुवासिनी, (पाँच): सिंहरण और अलका, (छह) शकटार और नन्द, (सात) पर्वतेश्वर और कल्याणी।
यहाँ एक बात स्पष्ट है कि कथानक के चुनाव में प्रसाद जी ने जहाँ पुरुष पात्रों को इतिहास से चुना है, वहीं स्त्री पात्रों के चयन में कल्पना से काम लिया है। कुछ स्त्री पात्र तो गुणानुसार हैं जैसे- कल्याणी, विजया और श्यामा आदि।
प्रसाद जी के सम्पूर्ण पुरुषों को समीक्षक तीन भागों में बाँटते हैं- देवता, दानव और मानव। इसके साथ ही प्रसाद के प्रत्येक नाटक में एक-एक साधु, महात्मा, ब्राह्मण और बौद्धभिक्षु अवश्य मिलेंगे। चन्द्रगुप्त में दाण्डायन महात्मा और देवता की कोटि में आते हैं। दावन वर्ग में कतिपय ऐसे पात्र हैं, जो पतित और असंस्कृत हैं।
नाटक के मूल तत्वों में विविध उपकरणों में कथोपकथन का प्रसाद जी ने बहुत ध्यान रखा है। उनके संवादों में तत्व-चिन्तन, आत्मचिन्तन, प्राकृतिक वर्णन, तत्व-निरूपण, कर्तव्य-पालन आदि सर्वत्र दिखाई देते हैं। साथ ही स्वागतोक्ति और नृत्यगीत भी हैं।
चन्द्रगुप्त में तेरह गीत हैं। इनमें से ग्यारह गीत स्त्रियों द्वारा गाये गये हैं। एक नेपथ्य से सुनाई पड़ता है और एकगीत राक्षस गाता है। स्त्रियों के ग्यारह गीतों में तीन सुवासिनी, तीन अलका, तीन मालविका, एक कल्याणी और एक कार्नेलिया गाती है। भाव की दृष्टि से दो राष्ट्रीय गान है, और एक अतीत की स्मृति का। शेष आठ श्रृंगार और प्रेम-सौन्दर्य के हैं। नाटक में मंच पर जब पात्र मौन हो जाता है तो प्रसाद जी नेपथ्य से गीत प्रारंभ करा देते हैं।
चन्द्रगुप्त में प्रसाद जी ने दासता के विरुद्ध संघर्ष को अंकित करते हुए जातीय स्मृतियों को जगाने की कोशिश की है। इसी परिप्रेक्ष्य में नाटक का संघर्ष राजनैतिक संघर्ष तक सीमित न रहकर राजसत्ता से पनपी मानसिकता के विरुद्ध भी हो गया है। इस तरह यह नाटक मौर्यकालीन इतिहास को आधार बनाता हुआ अपने समय की राजनैतिक उथल-पुथल की प्रक्रिया को विस्तार देता है।
इसमें एक ओर, देश के आंतरिक गठन एवं सुरक्षा के लिए संघर्षशील शक्तियों के संगठित होने का अंकन है,तो दूसरी ओर राष्ट्रीय अखंडता को खंडित ही नहीं, समूचे राष्ट्र को गुलाम बनानेवाली प्रतिगामी शक्तियों का चित्रण भी मिलता है। ये प्रतिगामी शक्तियाँ विदेशी आक्रमाणकारियों की चालों से बेखबर ही नहीं, उनका सामना करने में भी असमर्थ थीं।
उनकी संकीर्ण प्रांतीयता, जाति-भेद के झूठे अहं और वैयक्तिक द्वेष-भावना के कारण राष्ट्र में अस्थिरता पैदा करनेवाली राजनैतिक सोच का लाभ विदेशी उठा रहे थे।
चन्द्रगुप्त नाटक में कुल चार अंक हैं।
प्रथम अंक में कुल ग्यारह दृष्य हैं। दूसरे अंक में नौ,तीसरे में सात और चौथे में चौदह।
प्रथम अंक
यह अंक चाणक्य की चंद्रगुप्त और सिंहरण की वार्ता से प्रारंभ होता है।
‘भयानक विस्फोट’ का संकेत मिलता है ,यथा-सिंहरण चाणक्य से कह रहा है, ‘आर्यावर्त का भविष्य लिखने के लिए कुचक्र और प्रतारणा की लेखनी और मसि प्रस्तुत हो रही है। उत्तरापथ के खण्ड-राज्य द्वेष से जर्जर हैं। शीघ्र भयानक विस्फोट होगा।’
वह अपने में अकेला नहीं है। उसके साथ ये सारे संदर्भ जुडे हुए हैं, जिनकी दिशाएँ जानने की कोशिश में नाटक के प्रमुख पात्र चाणक्य के उद्देश्य से परिचय होता है।
प्रसाद जी चाण्क्य का परिचय कुछ इस प्रकार पहले ही दृश्य में करा देते हैं। वह तक्षशिला के राजकुमार के दम्भ को तोड़ता हुआ कहता है-
‘ब्राह्मण न किसी राज्य में रहता है और न किसी के अन्न से पलता है: स्वराज्य में विचरता है और अमृत होकर जीता है। यह तुम्हारा मिथ्या गर्व है। ब्राह्मण सब कुछ सामथ्र्य रखने पर भी, स्वेच्छा से इन माया-स्तूपो को ठुकरा देता है, प्रकृति के कल्याण के लिए अपने ज्ञान का दान देता है।’
कारण की तलाश स्पष्ट थी, विदेशी सिकंदर भारत पर आक्रमण करके विजय प्राप्त करना चाह रहा है। अत: इससे बचने के लिए तीन कार्य करने होंगे- स्वतंत्र राज्यों एवं गणतंत्र राज्यों में एकसूत्रता लाना, विदेशी आक्रमणकारियों का सामना कर देश को निष्कंटक बनाना तथा शक्तिशाली एवं व्यवस्थित केन्द्रीय सत्ता की स्थापना करना। इसी के आधार पर ‘समग्र आर्यावर्त’ की भावना और एकराष्ट्र की चाणक्य की कल्पना सामने आती है। वह कहता है-
‘तुम मालव हो और यह मागध, यही तुमहारे मान का अवसान है न? परन्तु आत्म-सम्मान इतने ही से सन्तुष्ट नहीं होगा। मालव और मागध को भूलकर जब तुम आयावत्र्त का नाम लोगे, तभी वह मिलेगा। क्या तुम नहीं देखते हो कि आगामी दिवसोंमें, आर्यावत्र्त के सबस्वतंत्र राष्ट्र एकके अनन्तर दूसरे विदेशी विजेता से पददलित होंगे?’
प्रथम अंक में चाणक्य और चन्द्रगुप्त की दिशा तय होती है। यहाँ बिना किसी भूमिका के दो विरोधी शक्तियाँ मागध और मालव को आमने सामने रखकर नाटक के मूल संघर्ष से दर्शकों को साक्षात्कार कराया जाता है। यहाँ आम्भीक चाणक्य,चन्द्रगुप्त और सिंहरण के विरोधी के रूप में सामने आता है। तो अलका सिंहरण के परिचय में आती है। दूसरे दृश्य में मगध सम्राट का विलासी स्वरूप प्रस्तुत होता है और यहीं नन्द, सुवासिनी और राक्षस का परिचय सामने आता है। इस दृश्य में दो गीत सामने आते हैं, पहला - तुम कनक किरण केअनतराल में, लुक छिप कर चलते हो क्यों।’ सुवासिनी द्वारा तथा दूसरा राक्षस द्वारा- ‘निकल मत बाहर दुर्बल आह, लगेगा तुम्हें हँसी का शीत।’ तीसरे दृश्य में चाणक्य का अपने गाँव पहुँच कर पिता की तलाश करता है और अतीत में खो जाता है-
‘पिता का पता नहीं, झोंपड़ी भी नहीं रह गयी। सुवासिनी अभिनेत्री होगयी सम्भवत: पेट की ज्वाला से। एक साथ दो-दो कुटुम्बों का सर्वनाश और कुसुमपुर फूलों की सेज में ऊँघ रहा है ! क्या इसीलिए राष्ट्र की शीतल छाया का संगठन मनुष्य ने किया था! मगध ! सावधान ! इतना अत्याचार! सहना असम्भव है। तुझे उलट दूँगा! नया बनाऊँगा, नहीं तो नाश ही करूँगा! (ठहरकर) एक बार चलूँ , नन्द ेस कहूँ। नहीं, परन्तु मेरी भूमि, मेरी वृत्ति, वहीं मिल जाय, मैं शास्त्र -व्यवसायी न रहूँगा, मैं कृषक बनूँगा। मुझे राष्ट्र की भलाई-बुराई से क्या? तो चलूँ। (देखकर) यह एक लकड़ी का स्तम्ी अभी उसी झोपड़ी का खड़ा है, इसके साथ मेरे बाल्रूकाल की सहस्त्रों भाँवरियाँ लिपटी हुई हैं, जिन पर मेरी धवल मधुर हँसी का आवरण चढ़ा रहता था! शैशव की स्निग्ध स्मृति! विलीन होजा!’
चौथे दृश्य में प्रसाद जी धीरे से राक्षस और सुवासिनी के संवाद से बौद्ध मत का परिचय करा देते हैं ‘मैं वैसा हूँ कि नहीं, यह पीछे मालूम होगा। परन्तु सुवासिनी, मैं स्वयं हृदय से बौद्ध मत का समर्थक हूँ, केवल उसकी दार्शनिक सीमा तक इतना ही कि संसार दु:खमय है।’
इसी चौथे दृश्य में कल्याणी और दो ब्रहृचारियों के द्वारा प्रसाद जी पूरे मगध की स्थिति ओर उसकी दुर्दशा का संकेत करा देते हैं। कल्याणी का संवाद- ‘मुझे इसका बड़ा दुख है। देखती हूँ किसमस्त प्रजा उनसे त्रस्त और भयभीत रहती है, प्रचण्ड शासन के कारण उनका बड़ा दुर्नाम है।’
आगे ब्रह्चाचारियों के संवाद- ‘धर्मपालित, मगध का उन्माद हो गया है। वह जनसाधारण के अधिकार अल्याचारियों के हाथ में देकर विलासिता का स्व्प्र देख रहा है। ..’यह है सम्पूर्ण चाणक्य का आधार और चाणक्य के कठोर व्यक्तित्व के परिणाम का मूल।
अंक के अंतिम दृश्य में दांडायन के आश्रम में विरोधी पक्ष सिकंदर एवं सिल्यूकस के रूप में आते हैं। इस तरह पहले दृश्य में देश के प्रति जागरूकता, दूसरे में शासक का विलासी रूप,तीसरे में राजनैतिक-सामाजिक स्थिति के प्रति उत्तेजना, चौथे दृश्य में इस उत्तेजना को ठोस आधार देना तथा अन्य दृश्यों में समस्या के दूसरे पक्षों को स्व देता है और मुख्य संघर्ष को आगे ले जाता है। (क्रमशः)