Friday, 30 October 2020

बिन

भारत का केन्द्रीय भाव धर्म की स्थापना है। धर्म को व्यवहार में पंथ और मत उतारते हैं। मत और पंथ प्रत्येक देश के अलग होते हैं। इससे यह तो साफ है कि इस युग का  आंठवा न तो मार्क्स था न सामी पंथों के प्रर्वतक।   

आंठवा स्वत्व और मूल्य की बात करता है तो सर्वजन हिताय की भी। साधुता की रक्षा भी तो दुष्टवृत्तियों का विनाश भी। किन्तु साथ में वह परोपकार को पुण्य और पाप को ही पीड़ा कहता है। हां शर्त अद्भुत है ’धर्मसंस्थापनार्थाय’ सब कुछ जायज है। 

लेकिन यह उस काल की बात है जब सामी पंथ तो थे किन्तु आज के सामी पंथों से भिन्न। त्रेता पुरुष के जाने के बाद जैन की अंहिसा और बुद्ध की करुणा इनको आप्लावित नहीं कर सकी। शंकर का ’ब्रह्म सत्यम् जग्न्मिथ्या जीवे ब्रहमेति नापर।’ भी पयाप्त नहीं हो सका।

 तो क्या धर्म की स्थापना के मापदण्ड बदलने पड़ेंगे ? क्या सभी धर्मों को छोड़कर मेरे शरण में आ की परिभाषा को बदलना पड़ेगा? 

क्या सत्ता नहीं लोक के गौरव की बात को फिर सामने लानी पडे़गी। मानवता में जाति, वर्ण, पूजा-पंथ, लोक हितैषी मान्यताओं को छति पहुंचाए बिना मानवता की सेवा को उद्यत होना पडे़गा।

 भारत-संघ यह कार्य अपनी पूरी क्षमता और दूरदृष्टि के साथ कर भी रहा है। बस परिवर्तन को सकारात्मक भाव से तथा नायक के विश्वास के साथ देखना होगा। जन मन को बदलना होगा। सहिष्णुता कायरता न बन जाये,सजग और चौकन्ना रहना होगा।

आने वाला 2025 बहुत महत्वपूर्ण है। उसमें हमें परिवर्तन की आभा उसी तरह स्पष्ट दिख रही है जैसे भगवान भास्कर के आने के पूर्व भगवामय आकाश। 

आज उसी भगवा को फिर से लहरा कर 
त्रेता के धनुष और द्वापर के चक्र को आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश के माध्यम से
लोकव्यापी बनाना है। तभी भविष्य की भूमिका साकार होगी।

 बिना भगवा बोध के शिशिर का मार्तण्ड भी ऊष्मा नहीं दे पायेगा। आइये आज भगवामय होंने का पूरा प्रयत्न करें। 
 



 
 

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