राष्ट्रीय तत्वज्ञान और वेदव्यास
महाभारत हमारा राष्ट्रीय ग्रंन्थ है। यह मात्र कौरवों-पाण्डवों का इतिहास नहीं अपितु इस भारत भूमि में जन्मा कोई भी व्यक्ति और समूह न होगा जिस पर इस ग्रंथ में प्रतिपादित विचार, तत्त्वज्ञान धार्मिक मत एवं कथाओं के संस्कार न हुए हों। यह अद्वितीय राष्ट्रीय ग्रंथ है। महाभारत के शांति एवं भीष्म पर्व सहस्त्रों वर्षों से मानव जीवन की समस्याओं का समाधान करते आये हैं। इस ग्रंथ का धार्मिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक महत्व है। भारतीय संस्कृति का विशुद्ध रूप इसी ग्रंथ में उपलब्ध है। भारतीय तत्त्वज्ञान को आचरण में उतारे बिना संस्कृति की रक्षा सम्भव नहीं। श्रीकृष्ण इस पूरे गं्रथ के प्राण श्रीमद्भगद्गीता में इसी विषय का प्रतिपादन करते हैं। वेदव्यास महाभारत के न केवल प्रणेता है बल्कि पूरे काल के साक्षी भी है। त्रिकालदर्शी हैं। इस पूरे ग्रंथ में दो ही ऐसे पात्र हैं, श्रीकृष्ण और वेदव्यास जो भूत और भविष्य को जानने का सामथ्र्य रखते है। उन्हीं के सामथ्र्य से आर्विभूत यह ग्रंथ अपने कलेवर और ऐतिहासिकता के लिए लाख विवादों, तर्कों के उपरांत भी न केवल भारतीय जीवन और राष्ट्र का अपितु विश्व का मार्गदर्शक ग्रंथ कहा जायेगा।
विश्व की वर्तमान विचारधारा मानव केन्द्रित है। अर्थात् जीवन के प्रत्येक अनुष्ठान का मध्यवर्ती बिन्दु मनुष्य है। साधारण मनुष्य और साहित्य की भाषा में ‘लोक’। विश्व के प्रत्येक राष्ट्र की महानता और उसका भविष्य इस सामान्य जन के चरित्र और उसकी सक्रियता पर ही निर्भर होता है। भारत की सम्पूर्ण आवादी का 65 प्रतिशत हिस्सा दुनिया के सबसे युवा की श्रेणी में माना जाता है। अर्थात् आगे आने वाले दुनिया का भविष्य भारत के इन्हीं युवाओं पर निर्भर है। अत: आवश्यक है कि इन्हें भारतीय तत्त्वज्ञान का बोध हो और वह उसके सहारे दुनिया की चुनौती का न केवल सामना करें बल्कि एक सनातन राष्ट्र के नाते उनका मार्गदर्शन करते हुए अपने ऋ षियों के उस बोधवाक्य को चरितार्थ करे जिसमें कहा गया है- ‘स्वं स्वं चरित्रेण षिक्षेरण पृथव्या: सर्व मानवा:।’ महाभारत इस बोध की कुंजी है।
वस्तुत: महाभारत इतिहास भी है और काव्य भी। इस ग्रंथ पर कुछ भी लिखने के पहले मैं रामधारी सिंह दिनकर की दृष्टि यहाँ रखना चाहता हूँ-‘‘अनुसंन्धानी विद्वान सत्य को तर्क से पकड़ता है और समझता है कि सत्य, सचमुच, उसकी गिरफ्त में है। मगर, इतिहास का सत्य क्या है ? घटनाएं मरने के साथ फ ोसिल बनने लगती हैं, पत्थर बनने लगती हैं, दन्तकथा और पुराण बनने लगती हैं। बीती घटनाओं पर इतिहास अपनी झिलमिली डाल देता है, जिससे वे साफ -साफ दिखायी न पड़ें, जिससे बुद्धि की ऊँगली उन्हें छूने से दूर रहे। यह झिलमिली बुद्धि को कुंठित और कल्पना को तीव्र बनाती है, उत्सुकता में प्रेरणा भरती और स्वप्नों की गाँठ खोलती है। घटनाओं के स्थूल रूप को कोई भी देख सकता है, लेकिन, उनका अर्थ वही पकड़ता है, जिसकी कल्पना सजीव है। इसीलिए, इतिहासकार का सत्य नये अनुसंधानों से खंडित हो जाता है, लेकिन, कल्पना से प्रस्तुत चित्र कभी भी खंडित नहीं होते।’’1 महाभारत को दिनकर जी की इसी दृष्टि से समझा जा सकता है जिसका आधार आस्था और विश्वास है।
मानव जीवन का मूलाधार है, संस्कृति। यदि संस्कृति नहीं तो जीवन का अर्थ ही व्यर्थ है। भारतीय संस्कृति के चार नियामक अंग हैं- अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष। भारतीय संस्कृति को व्याख्या देने वाले दो विशाल ग्रंथ हुए- एक रामायण और दूसरा महाभारत। महाभारत के बारे में सामान्यत: लोग कहते हैं जो महाभारत में नहीं वह कहीं नहीं अर्थात् महाभारत में सब कुछ है। ध्यान रखने की बात है कि यह श्लोक इसकी विशालता के कारण आया है साथ ही इससे भारतीय संस्कृति के उन चारो अंगों का सम्बन्ध है जिसे हम- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष कहते है- ‘‘धर्मेंह्यर्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ। यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित।। ‘‘2
‘‘महाभारत में रामायण की भाँति एक भी व्यक्ति का संबद्ध चरित नहीं है। उसमें कौरवों और पांडवों का संघर्ष तो मुख्य है, किन्तु उसके सहारे अनेक आख्यान, उपाख्यान (जैसे शाकुंतलोपाख्यान, सावित्री-उपाख्यान, नलोपाख्यान आदि) और नीतियाँ (जैसे विदुरनीति), उपदेशात्मक प्रवचन (जैसे भीष्म पितामह द्वारा धर्म की व्याख्या) आ गए हैं- प्रसिद्ध दार्शनिक और नैतिक ग्रंथ श्रीमद्भगद्गीता इसी का एक अंग है।’’ 3
‘‘महाभारत की रचना रामायण के बाद हुई। कुछ यूरोपियन विद्वानों ने इसकी रचना वाल्मीकि रामायण से पहले बतलाई। यह धारणा सर्वथा भ्राँत है। महाभारत लिखा गया था। वाल्मीकि रामायण लव और कुश को मौखिक रूप से याद कराई गई थी।’’ 4
महाभारत रामायण की तुलना में नीति का उतना ऊँचा आदर्श नहीं लिए है किन्तु महाभारत का आदर्श व्यवहारिक है-‘आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत।’ अर्थात् जो अपने लिए प्रतिकूल है, उसको दूसरे के प्रति भी नहीं करना चाहिए। महाभारत विरोधाभाषी ग्रंथ दिखता है किन्तु उसका लक्ष्य स्पष्ट है। महाभारत में घोर युद्ध अवश्य है किन्तु अन्त में शांति का वातावरण उपस्थित है। श्रीमद्भवतगीता इसी भीष्मपर्व का अंग है। मनुष्य के सात्विक आदर्शों का ग्रंथ है।
निष्काम कर्म मनुष्य को बंधन में नहीं डालता और समाज भी उसके लोकोपकारी कार्यों से वंचित नहीं होता। भगवान ने कर्म के जिस फ ल का त्याग बताया वह त्याग केवल गीता का कथन नहीं रह गया बल्कि वह रवीन्द्रनाथ और राष्ट्रकवि मैथिलीशरण से होता हुआ समाज और साहित्य जगत तक पहुँचा। ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ को रवीन्द्रनाथ कहते हैं- ‘‘वैराग्य साधने जे मुक्ति से आमार नय। असंख्य बंधन हे मांझेहे आनंदमय! लभिव मुक्तिस्र्वाद।।’’5
आगे मैथिलीषारण गुप्त साकेत में कहते हैं, (सीता रामचन्द्र संवाद)-
सीता- देखो कैसा स्वच्छंद यहाँ लघु नद है, इसको भी पुर में लोग बाँध लेते है।
राम- हाँ ! वे इसका उपयोग बढ़ा देते हैं।
सीता- पर इससे नद का नहीं, उन्हीं का हित है, पर बंधन भी क्या स्वार्थ हेतु समुचित है ?
राम- मैं तो नद का परमार्थ उसे मानूँगा ?, हित उसका उससे अधिक कौन जानूँगा ? 6
कविवर पंत जी ने भी कहा है- ‘तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन।’ 7
महाभारत में श्रीमद्भावत् के अतिरिक्त और जिन्हें इसका रत्न माना जाता है वे हैं मनुस्मृति, गजेन्द्रमोक्ष, भीष्म स्तपराज और विष्णु सहस्रनाम। महाभारत लेखन की प्रसिद्ध कथा-‘‘गणेश जी ने व्यासदेव से कहा, विद्वन! मैं लेखन का कार्य अपने ऊपर लेने को तैयार हूँ पर एक शर्त है। यदि आप इस शर्त को पूरा करें, तो मैं कार्य-भार संभाल सकता हूँ।’’ व्यासदेव ने पूछा, ‘‘आपकी षर्त क्या है ?’’ गणेश जी बोले, ‘‘मेरी लेखनी कहीं पर रुकनी नहीं चाहिए। आप मुझे इस प्रकार लिखाते रहें कि तनिक देर के लिए भी मेरी लेखनी को विराम न प्राप्त हो। यदि यह शर्त स्वीकार हो तो मैं यह कार्य सम्पादित करूँगा। ’’ 8
और कहा जाता है कि व्यासदेव ने उनकी बात इस शर्त के साथ मान ली कि बिना अर्थ या भाव समझे आप नहीं लिखेंगे। और कुछ ऐसे कठिन श्लोक बीच-बीच में डाले जिसे समझने में गणेश जी को समय लगता। इन्हीं श्लोकों को महाभारत में कूट श्लोक कहा जाता है। यह बात अलग है कि आज तक कोई बता नहीं सका कि ये कूट श्लोक कौन से हैं, क्योंकि व्यास जी स्वयं कहते हैं- ‘‘ ये जो महाभारत के कूट श्लोक हैं उन्हें मैं जानता हूँ, और मेरा पुत्र शुकदेव जानता है। संजय जानता है, इसमें सन्देह है। - ‘संजयो वेत्ति वा न वा।’ 9 ‘‘महाभारत का युद्ध ईसा से 3101 वर्ष पूर्व हुआ था। उस समय भगवान वेदव्यास ने ‘जय’ नामक ग्रंथ का प्रणयन किया। इस ग्रंथ में केवल भारतीय युद्ध का ही वर्णन है। तदुपरान्त उनके शिष्य वैषाम्पायन ने सम्भवत: उनके मार्गदर्शन में उस ‘जय’ नामक गं्रथ में समूचे भारत-कुल का इतिहास समाविष्ट कर उसकी श्लोक संख्या 24000 तक वृद्धिगत की तथा उसे ‘भारत’ नाम से विभूषित कया। पश्चात लगभग 2500 वर्षों के उपरान्त अर्थात् ईसा के 250 वर्ष पूर्व श्री लोमहर्षण नामक महापण्डित ने तत्कालीन तत्वज्ञान से प्रभावित अनेक पंथ, धर्मपंथ, नीति, तत्व तथा महापुरुषों की कथाओं के रूप में लगभग 75000 श्लोक उसमें और जोड़ कर उसका वर्तमान स्वरूप ‘महाभारत’ नामकरण किया।’’10
‘‘महाभारत की वर्तमान में संख्या एक लाख श्लोक की मानी जाने के कारण इसे ‘शत साहस्त्री संहिता’ नाम प्राप्त है। 445 ई. के एक शिलालेख मे उल्लेख है: ‘शत साहस्त्र्यां संहितायां वेदव्यासेनोक्तम’। जिससे स्पष्ट है कि इससे कम से कम 200 वर्ष पूर्व इस ग्रंथ का अस्तित्व अवश्य होगा। ग्रंथ के विकास क्रम के तीन सोपान हैं- जय, भारत तथा महाभारत। महाभारत में अठारह खण्ड या पर्व हैं- आदि, सभा, वन, विराट, उद्योग, भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक, स्त्री, शान्ति, अनुशासन, अश्वमेध, आश्रमवासी, मौसल, महाप्रस्थानिक एवं स्वर्गारोहण।’’11
महाभारत का (राष्ट्रीय) तत्त्वज्ञान अर्थात् राष्ट्र एक जीवमान संज्ञा है। सम्बन्धित राष्ट्र के अमूलाग्र चिन्तकों द्वारा निर्धारित सिद्धांत, उनका समर्थन और उनकी मीमांसा को उस राष्ट्र का तत्त्वज्ञान कहा जाता है। उदाहरण के लिए हिटलर कालीन जर्मनी में मानवी पराक्रम का आधार ‘रक्त’ था और नार्डिक रक्त को वे सर्वश्रेष्ठ मानते थे। अत: रक्त मिश्रण के विवाह उस काल में वर्जित थे। वे लोकतंत्रीय प्रणाली को राष्ट्रहित में नहीं मानते थे। यही उनका तत्त्वज्ञान था।
रूस का आधार भिन्न है वहाँ अर्थनिर्मित के साधन ही समाज की संस्कृति का नियमन करते हैं। वे वर्गहीन समाज की स्थापना में मानव की प्रगति मानते हैं। रूस कहता था विश्व में मानव के दो ही वर्ग हैं- एक पूँजीपतियों का दूसरा मजदूरों का। इसीलिए वहाँ फ्रांस या जर्मनी की तरह रक्त के आधार पर राष्ट्रीयता का विचार नहीं होता। रूस का यही तत्त्वज्ञान है।
फ्रांस में राज्यक्रान्ति के पूर्व राजाशाही और जन्म से प्राप्त ऊँच-नीच समाजिक स्थिति का विचार था किन्तु राज्यक्रान्ति में स्थिति बदल गई। समता, बन्धुता और स्वतंत्रता के सिद्धांतों का घोष हुआ और तब से वही फ ्रांस का तत्वज्ञान है।
सारांश यह कि प्रत्येक राष्ट्र के तत्वज्ञान की एक निश्चित दिशा हुआ करती है। तदानुसार वह समाज में आचरणशील हुआ करता है। तात्पर्य यह कि बिना आचरण के तत्वज्ञान व्यर्थ होता है। तत्वज्ञान के इस गंभीर महत्व को समझ कर हम अपने राष्ट्र का विचार करें कि इस भारतभूमि का तत्वज्ञान क्या है। क्या विगत हजार वर्षों की दुरावस्था का कारण तत्वज्ञान का आचरण में न उतरना ही था? क्या महाभारत का तत्वज्ञान समाजोन्नति का सर्वथा पोषाक, उदार, पराक्रमी और विजिगीषु वृत्ति का वद्र्धक था। क्या वह सचमुच देश को यश, वैभव, कीर्ति प्रदान करने वाला था ?
‘‘महाभारत में शांति और अनुशासन पर्व इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। प्रथम में भीष्म का युधिष्ठिर के प्रति मोक्ष धर्म का उपदेश है तो दूसरे पर्व में धर्म तथा नीति की कथाएं हैं जो भारत राष्ट्र के धर्म, संस्कृति और तत्त्वज्ञान को प्रकाशित करती हैं। किन्तु अन्तत: तत्वज्ञान की दृष्टि से वे ही मत मान्य होते हैं जो भारतीय कहलाने लायक हैं, जिनमें श्रीकृष्ण की राजमुद्रा अंकित है।’’12 महाभारत में इसके कर्ता वेदव्यास स्वयं इसके प्रमुख पात्र रहे हैं। युद्ध वर्णन के माध्यम से वे भौतिक जीवन की निस्सारता दिखा कर मोक्ष का द्वार खोलते हैं। महाभारत का मुख्य रस शांत है। वीर उसका अंगीभूत है। इसमें एक साथ अर्थ, धर्म और काम शास्त्र है। आचार्य बलदेव उपाध्याय लिखते हैं- ‘‘महर्षि वेदव्यास ने भारतीय अर्थ नीति, राजनीति तथा अध्यात्म शास्त्र के सिद्धान्तों का सारांश इतनी सुन्दरता से इस ग्रंथ रत्न में प्रस्तुत किया है कि यह वास्वत में भारत के धर्म तथा तत्व ज्ञान का विश्वकोष है।’’13
वनवास के कठिन कष्ट को झेलते युधिष्ठिर के चारों भाइयों और पत्नी के मन में शंका पैदा होती है कि सत्यनिष्ठ, पुण्यशील, सदाचारी, धर्मराज को अरण्यवास और कहाँ कपटी, अधर्मी दुर्योधन को सुखपूर्ण राज्यलक्ष्मी! भयंकर विरोधाभास! वे सबके सब चाहते हैं कि इस वनवासी जीवन को छोडक़र अपना राज्य प्राप्त करना चाहिए। किन्तु धर्मराज को यह मत किंचित भी नहीं भाता। वे कहते हैं, ‘‘ मैं अपनी प्रतिज्ञा से कभी विचलित नहीं होऊँगा, यह निश्चित है। मोक्ष अथवा प्रत्यक्ष जीवन का भी त्याग करना पड़े तो भी मैं सत्यरूप-धर्म ही स्वीकार करूँगा। कारण, राज्य, पुत्र, कीर्ति अथवा द्रव्य का स्थान सत्य के एक षोडस अल्पांश की तुलना में भी कुछ नहीं।’’ 14
पाण्डवों की यह स्थिति देखकर बलराम श्रीकृष्ण से कहते हैं, ‘‘हे कृष्ण आज यही कहना पड़ रहा है कि प्राणिमात्र के अभ्युदय का कारण धर्माचरण और अपकर्ष का कारण अधर्माचरण नहीं है। क्योंकि धर्म के अनुसार चलने वाले महात्मा युधिष्ठिर को जटाजूटधारी बनकर, वल्कल पहिनकर, वन में निवास करते हुए अनेक कष्ट भोगना पड़ रहा है और दुर्योधन पृथ्वी का राज्य कर रह है तब भी उसके अधर्माचरण के कारण पृथ्वी फ टकर उसे निगल नहीं ले रही। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि मंद बुद्धिवाले मनुष्य को धर्म के बजाय अधर्म आचरण करना ही श्रेयस्कर प्रतीत होता है। दुर्योधन को सच भोगते हुए और धर्मी धर्मराज को दु:ख झेलते देखकर लोगों के मन में यह शंंका निर्माण हुई है कि धर्म और अधर्म में से आखिर आचरण किसका करना चाहिए ?’’ 15
निष्कर्ष: भारतीय राष्ट्र सनातन है। इसका निर्माण कोई अमरीका, चीन, या यूरोपीय देशों की भांति न होकर निरन्तर ऋ षियों के चिन्तन स्वरूप हुआ है। बाल्मीकि और वेदव्यास इसके आधार हैं। इस देश में संतों की अपनी एक परंपरा है। जिनके खोजी सिद्धांत व्यवहारिक प्रयोगों पर आधारित हैं। नित्यनूतन चिर पुरातन यह राष्ट्र अपने नश-नश में अपने संतों के दार्शनिक चिन्तन रक्त को लेकर निरन्तर विकासशील है।
सन्दर्भ: १. संस्कृति के चार अघ्याय, लोकभारती प्रकाशन, २००८-भूमिका।, २. महाभारत आदिपर्व।, ३.भारतीय संस्कृति की रूपरेखा: बाबू गुलाबराय , गंगा बाजार, दिल्ली,२००८।, ४. वही पृ. ४८, ५. वही पृ. ५१, ६. वही पृ. ५१, ७. वही पृ. ५१, ८. गीता रहस्य भाग-एक, स्वामी आत्मानन्द, अद्वैत आश्रम, मायावती चम्पावत, हिमालय, कलकत्ता प्रकाशन विभाग,२०००, ९. वही पृ. ६९, १० महाभारत कालीन राष्ट्रीय तत्त्वज्ञान: डॉ. पु.ग. सहस्त्रबुद्धे, लोकहित प्रकाशन, संस्कृृति भवन, राजेन्द्र नगर, लखनऊ, २००३। , ११. भारतीय चेतना एवं चिन्तन, प्रो मोहन मैत्रेय, कल्पना प्रकाशन, बी-१७७०, जहांगीरपुरी, दिल्ली प्रकाशन-२००९, पृ. ७८, १२. महाभारत कालीन राष्ट्रीय तत्त्वज्ञान: डॉ. पु.ग. सहस्त्रबुद्धे, लोकहित प्रकाशन, संस्कृृति भवन, राजेन्द्र नगर, लखनऊ, पृ. १०, १३. भारतीय चेतना एवं चिन्तन, प्रो मोहन मैत्रेय, कल्पना प्रकाशन, बी-१७७०, जहांगीरपुरी, दिल्ली प्रकाशन-२००९, पृ. ७८, १४. महाभारत वनपर्व, अ.३४, १५. वहीं, अ.११९
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