Tuesday, 13 October 2020

स्वाधीनता प्राप्त (सम्पादकीय) 1

  (क) 

स्वाधीनता प्राप्त करते ही अगर हमने अपनी संस्कृति को पहचान करते हुये उसको आत्मसात कर कुछ आधारभूत काम प्रारंभ किया होता, अपनी कुछ जानी-मानी बुराइयों यथा- अतिउदारता, जातीयहीनता बोध, स्वाभिमान की कमी, राष्ट्रप्रेम की लिजलिजी दृष्टि को एक झटके में खत्म कर दिया होता तो आज देश की स्थिति अलग होती। विश्व में तीसरी शक्ति के रूप में खड़े होने की भूमिका के साथ यदि कुछ प्राणवान जोड़ा होता, कुछ प्राणहीन छोड़ा होता तो हम आज न तो चीन के सामने लघु दिखते और न पाकिस्तान के आतंकियों को गुर्राने का अवसर देते। मगर शायद इस राष्ट्र की भवितव्यता राजनीति बन गई, राष्ट्रीय एकात्मता की जगह जिस राष्ट्रीय एकता की पैरोकारी की वह उस राष्ट्रीय एकता को एकात्मता से न जोड़ पाने के कारण केवल भौगोलिक चीज बन कर रह गई। परिणामत: हमने उन सूक्ष्म तत्वों की ओर पीठ दे दी जो संस्कृति और आध्यात्मिकता में निहित हैं। हमने धर्म की अवज्ञा की। धर्म-निरपेक्ष के चक्कर में ऐसे भ्रमित हुए कि पंथ निरपेक्ष और धर्म निरपेक्ष को आज सत्तर साल बाद भी अपनी पीढ़ी को समझाने में नाकामयाब दिख रहे हैं। हमने स्वतंत्रता मिचमिचाती आँखों को खोलकर देखा और तब भी हमें यह संज्ञान नहीं रहा कि हमें अपने चेहरे को सप्त सिंधुओं के पानी में धोना है या मत-पंथीय विषाक्त कुंडों में।    

तभी तो गाँधी कह रहे हैं, ‘‘हमने जिस संघर्षशील संस्था का पल्ला थामा था, वह अब समाप्त कर दी जानी चाहिए। हम सेवक हैं, शासन का संचालन लोगों पर छोड़ें, हम तो सेवा करें और शक्यता इस बात की निर्मित करें कि देश का अंतिम आदमी राहत महसूस करे, ऐसा दिन आये कि समानता का अर्थ केवल आर्थिक क्षेत्र में समानता न बची रहे। सबको लगभग समान भौतिक सुविधाओं के साथ-साथ एक-सी मानसिक, बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक समानता की ओर ले जाने की या सब में उस ओर जाने की स्थितियों के अंकुर जमें, फूलें और फलें।’’ मगर समाजसेवा कि तो बात छोड़ दें, समाज पर राजनीति पूरी तरह हावी होती चली गई।   

तब प्रतिपक्ष की भूमिका में खड़े होकर जनवादी कवि, लेखक एक प्रश्न उठाते हैं कि क्या साहित्य ‘सुरसरि सम सब कर हित होई’ की भूमिका में है? यह अलग बात है कि वे सदा सत्ता के पीठ पर बैठ कर न केवल सत्ता सुख ही भोगते रहे बल्कि बहुसंख्यक समाज की इच्छा-आकांक्षाओं को भी रौंदते रहे। उनकी यह विपक्ष की भूमिका कितनी भयानक और विघटनकारी मानवीय संकटों की जड़ बनी, यह आज जहाँ-जहाँ धर्म निरपेक्ष (पंथ सापेक्ष), जनवादी विचारों की सत्ताएँ हैं, देखा जा सकता है। वाम विचारों का साहित्यिक संगठन न केवल नक्सलवाद की पैरोकारी करता है बल्कि धीरे-धीरे वह गाँव से पलायन हुये वर्तमान शहरीजनों की बुद्धि को अपहृत कर शहरी नक्सलवाद को जन्म दे रहा है। साथ ही छद्म बुद्धिवादी संस्कृतकर्मी के रूप में लोकतांत्रिक मूल्यों एवं संविधान का भी अपक्षरण कर रहा हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी प्रतिपक्षी लेखन की भूमिका अंतरविरोधों, साजिशों, लिजलिजे सवालों, हथियारबंद अत्याचारों और बौद्धिक अकादमियों के माध्यम से राष्ट्र को क्षतिग्रस्त करने पर ही उतारू है। 

दुर्भाग्य देखिए कि स्वतंत्रता के बाद की जिस सत्ता पर वामपंथी आरूढ़ होकर अपने आयातित मन्तव्य को पूर्ण कर रहे थे वहीं आज दीर्घकालिक सत्तारूढ़ नेतृत्व वामपंथियों की पीठ पर सवारी कर उन शहरी नक्सलवादियों की राग में राग मिलाकर पीठ थपथपा रहे हैं। वे भी तमाम वर्जनाओं एवं मूल्य आधारित प्रतिबन्धों को रूढि़वादी कह कर भूमण्डलीकरण और साम्राज्यवादी पश्चिमी शब्दों के हथियार से कायरों की तरह राष्ट्रीय चेतना के महायज्ञ को विध्वंस करने के लिये समय के सड़ांध प्रश्नों के साथ अंधेरगर्दी के प्रतिरोध का ऐसा छद्म मिला जुला प्रतिपक्ष खड़ा कर रहे हंै जो व्यवस्था के विद्रोह के नाम पर प्रतिरोध की हिंसक परम्परा में उतारू दिखाई देता है। 

उन्हें सुरसरि की तलाश है, किन्तु महाकाल की आराधना में अभी भी उल्टा हाथ ही उठता है। उन्हें शिव से सत्ताधीश होने का आशीर्वाद तो चाहिए किन्तु ‘शिव’ अर्थात् समष्टि कल्याण की चाह नहीं। यह संकुचित गिरोह जातिवादी सवालों, स्त्री के अस्तित्व, अल्पसंख्यकों की परिभाषाओं से बचता हुआ कहीं गंगा-जमुनी संस्कृति की बात करता है, तो कहीं तथाकथित साम्यवादी इतिहास बोध और लेनिन-स्टालिन की परम्परा को बचाने के लिये सुगठित थोथी तार्किकता के साथ ‘फाँसीवादी शक्तियों’ जैसे शब्दों का स्वयंभू निर्माण कर साहित्य के लोकपक्ष को, परम्परा को, जनचेतना को संकट बताता है। उसके पास अभिव्यक्ति के लिये एक ओर देह विमर्श है तो दूसरी ओर सर्वहारा, जनवादी जैसे शब्द। इन्हीं के माध्यम से वह कविता की वैचारिकता में मूल्य स्थापित करने की थोथी बात करता है। 

वह वनांचलों को तबाह करता है, गाँव से लेकर शहर तक को नक्सलवाद में बदलता है किन्तु कविता में गाँव को तलाशता है। इनका संकट यह है कि वे गीत तो देह के गाते हैं, रचना में अश्लील शब्दों को ढालते हैं तथा गाँव में रोमेंटिज्म ढूँढ़ते हैं किन्तु सार्वजनिक मंचों पर नैतिक मूल्यों की तलाश का नारा लगाते हैं। शहरों में बैठकर जीवन-मूल्य जैसे शब्दों को पिकनिक के स्वादिष्ट व्यंजन मानकर लोकधर्मिता का निर्वहन करते हैं। 

लोक और जन शब्द तो उनके लिये प्रिय हैं लेकिन लोक-परलोक, त्रयलोक्य उन्हें स्वीकार्य नहीं। उनकी दूसरी विडम्बना यह है कि उनका द्वन्द्व सनातन और सांस्कृतिक मूल्यों के साथ है। बात तो वे वर्ग सत्ता और सम्पत्ति से रहित मानव मूल्य की करते हैं किन्तु वास्तव में वे सत्ता-सम्पत्ति दोनों के स्वामी होते हैं। धर्म को अफीम मानते हैं और गैरहिन्दू मत-पंथों को धर्म कहते हुए उसके लिए हाय तोबा मचाते हैं? उनके तरकश के कुछ तीर देखें तो अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक, आभिजात्य-सर्वहारा, भद्रलोक-दलित हैं। 

 फिर भी भारतीय चेतना को समझने वाले यह जानते है और यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि भारतीय दृष्टि को खण्ड-खण्ड कर समग्रता की उनकी महती इच्छा आकाश कुसुम को पाने जैसी ही है क्योंकि भारतीय दृष्टि अखण्डमंडलाकार है न कि खण्ड-खण्ड। 

(ख) 

आप मेरी बात का विरोध भी कर सकते हैं और खिल्ली भी उड़ा सकते हैं। जेन ऑस्टिन ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘प्राइड एण्ड प्रिजुडिस’ की नायिका एलिजाबेथ से कहलवाया है कि, ‘दुनिया में कोई व्यक्ति या वस्तु ऐसी नहीं, जिसका मजाक न उड़ाया जा सके।’ कीट्स को वर्ड्स्वर्थ की उपदेशात्मकता से चिढ़ थी और वह इस चिढ़ को व्यक्त करने में चूका भी नहीं : ‘वी हेट पोएट्री दैट हैज ए डिजाइन अपॉन अस’...। टी.एस. एलियट को मैथ्यू आर्नोल्ड की कविता कुछ खास नहीं प्रतीत हुई ‘आर्नोल्ड इज़ एन एकेडमिक पोएट इन दि बेस्ट सेंस आव दि टर्म।’ (‘डैम विद फेंट पे्रज़ ऐसण्ट विद सिविल लीयर / ऐण्ड विदाउट स्नीयरिंग टीच दि रेस्ट टु स्नीयर’)।  

यह केवल पश्चिम की विडम्बना ही नहीं हमारे यहाँ की भी है। अज्ञेय को जयशंकर प्रसाद की कविता बहुत पसंद नहीं थी- वे एक जगह लिखते हैं, ‘प्रसाद पढ़ाये जायेंगे, निराला पढ़े जायेंगे और पंत से सीखा जाएगा।’ क्या अज्ञेय यहाँ प्रसाद को निराला और पंत दोनों से नीचे नहीं रख रहे हैं? आखिर पढ़ाये तो निराला और पंत भी जाते ही हैं। क्या यह भारतीय दृष्टि है, नहीं। तो क्या यह वही दृष्टि है जो एलियट शायद मैथ्यू आर्नोल्ड के लिए कहता है। फिर सर्वांग दृृष्टि कौन सी है, तो अब जरा तुलसीबाबा की सुरसरि को समझें-

 ‘‘जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषा जिन्ह हरि चरित बखाने।। 

  भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउ सबहि कपट सब त्यागें।।’’ 

अभी-अभी छठ उत्सव सम्पन्न हुआ। मध्यप्रदेश में भी भोजपुरी संख्या अधिक होने से यह उत्सव अधिक धूम-धाम से मनाया जाता है। सरकार ने भोपाल में जगह-जगह इसके लिए व्यवस्था भी की है, हालाँकि वह पर्याप्त नहीं है। यहाँ भी कई जगह केवल कर्मकाण्ड की तरह इसे अब छोटे से सूखे तालाब के किनारे या कुएँ के आसपास मना रहे हैं, फिर भी यहाँ स्थिति ठीक-ठाक कही जा सकती है। 

दिल्ली में छठ उत्सव लोगों ने बड़े कल कारखानों, सीवेज लाइन से निकले जहरीले झागदार कालिन्दी के काले पानी में नहा कर सूर्य को अर्घ दिया। यह वही यमुना है जहाँ राम लंका विजय के बाद आते समय सीता को दर्शन कराते हैं, ‘बहुरि राम जानकिहि देखाई। जमुना कलि मल हरनि सुहाई।’ यह यमुना कौन है तो कलियुग में पापों का हरण करने वाली है। जरा कृष्ण को सुनें- ‘‘बृंदाबन मोकों अति भावत। ....इहिं बृंदाबन, इहिं जमुना-तट, ये सुरभी अति सुखद चरावत॥’ और आगे- ‘जमुना के तीर बन्सरी बजावे कानो/ बन्सी के नाद थभ्यो जमुना को नीर खग मृग। /धेनु मोहि कोकिला अनें किर।।’’ कृष्ण ने कालिया नाग का मर्दन कर सारे वृन्दावन वासियों को राहत पहुँचाई। सूर ने कभी सोचा भी नहीं होगा की जिस कालिन्दी को वे कालिया के जहर से काला कह रहे हैं वह सौ दो सौ वर्ष के अन्दर ही मानवीय कालिया प्रवृत्ति के काले अमानुषिक जहर से काली हो जायेगी। 

श्रद्धावानों का भी यह धर्म बनता था कि वे अपने पुरुषार्थ से यमुना के कुछ घाटों को साफ कर उसमें सूर्य की उपासना करें। शायद सब कुछ सरकार करेगी यही मानवीय कमजोरी उसके शरीर में खुजली का कारण है। बात इसलिए भी अखरती है कि देश भर में फैले भोजपुरी बोलने वाले भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में ले जाने को हर कुतर्क कर रहे हैं किन्तु जिस श्रद्धा के कारण भोजपुरी का अस्तित्व है उसके लिए सरकार की राह देखते हैं ? 

एक और कोने की तलाश की जाये। कुछ उत्साही नौजवान सामने आ रहे हैं जो कह रहे हैं कि वर्तमान युग में ‘भोजपुरी’ शब्द के स्थान पर इस भाषा के लिये ‘पूर्वांचली भाषा’ शब्द रखा जाये। इस विषय में यह आवश्यक है कि पहले भोजपुरी नामकरण के आधार की क्षमता पर गहराई से विचार किया जाये। यह सर्वविदित है कि भोजपुरी नामकरण का आधार बिहार राज्य में स्थित भोजपुर नाम के कस्बे से है। वर्तमान में इस नाम का एक जनपद भी बन गया है जिसका केन्द्र भोजपुर ही है। इतिहास में दृष्टिपात करने पर यह सिद्ध हो जाता है कि भोजपुर का नामकरण राजा भोज के नाम के आधार पर किया गया। इसका तात्पर्य यह है कि भोजपुर एवं भोजपुरी- इन दोनों से राजा भोज का नाम जुड़ा हुआ है। यह एक गरिमापूर्ण प्रसंग है जो भारतवासियों, भोजपुरी भाषियों के साथ भोपाल के लिये भी गर्व का विषय है।  

परकीय सत्ता के काल में इस देश के सर्वाधिक गाँवों, नगरों, सडक़ों, मंदिरों, शहरों के नाम बदले गये। स्वातंत्र्य प्राप्ति के बाद कुछ शहरों एवं प्रदेशों तथा जनपदों के नामों में भाषा के आधार पर परिवर्तन किया गया। यह एक अच्छी पहल प्रयागराज और अयोध्या के साथ हुई है। देश के अनेक विश्वविद्यालय, गाँव, नगर, सडक़ आदि अपने पुराने नामों को प्राप्त करने को लालायित हैं। कुछ आश्वस्त भी हो रहे हैं तो कुछ उत्साही भी हैं। भोपाल भी उसी कतार में खड़ा भोजपाल होने की प्रतीक्षा में है ? जब प्रान्तों अथवा राज्यों का नामकरण महापुरुषों और भाषाओं के नाम पर होता था तो क्या अब स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद शहरों के नाम भी राज्यों की गरिमा के आधार पर नहीं रखे जाने चाहिए? किन्तु हमारे प्रतिबद्ध साहित्य विरोधी मंच इस पर भी हाय तोबा मचा रहे हैं कि जैसे उर्दू हमारी साहित्य की सबसे प्रिय भाषा है और उसी तरह बाबर और अकबर भी हमारे पुरखे हैं फिर भला राम छाया में रहे या छतरी में उनको कौन सा फर्क पड़ता है? वह अयोध्या रहे या फैजाबाद। 

किन्तु फर्क पड़ता है भैया! अवश्य पड़ता है। हमें यदि ध्यान में नहीं आता तो थोड़ा सा विश्व की ओर नज़र दौड़ाएँ- आज़ादी प्राप्त करते ही कई देशों ने अपने पुराने परतंत्रता काल के नाम बदल डाले-  क्चद्गष्द्धह्वड्डठ्ठड्डद्यड्डठ्ठस्र को क्चशह्लह्य2ड्डठ्ठड्ड, क्रद्धशस्रद्गह्यद्बड्ड र्को ंद्बद्वड्ढड्डड्ढ2द्ग, हृ4ड्डह्यड्डद्यड्डठ्ठस्र को रूड्डद्यड्ड2द्ब, स्शह्वह्लद्ध ङ्खद्गह्यह्ल ्रद्घह्म्द्बष्ड्ड को हृड्डद्वद्बड्ढद्बड्ड, श्चश्चद्गह्म् ङ्कशद्यह्लड्ड को क्चह्वह्म्द्मद्बठ्ठश स्नड्डह्यश कर दिया गया। हमारे वामपंथ की धडक़न जिस चीन को लेकर जिन्दा रहती है जरा उसका हाल जानें उन्होंने क्या किया। उन्होंने पीकिंग को क्चद्गद्बद्भद्बठ्ठद्द, ष्टड्डठ्ठह्लशठ्ठ को त्रह्वड्डठ्ठद्द5द्धशह्व, हृड्डठ्ठद्मद्बठ्ठद्द को हृड्डठ्ठद्भद्बठ्ठद्द, स्द्बड्डठ्ठ को ङ्गद्ब'ड्डठ्ठ, ञ्जद्बद्गठ्ठह्लह्यद्बठ्ठ को ञ्जद्बड्डठ्ठद्भद्बठ्ठ, ष्टद्धह्वठ्ठद्दद्मद्बठ्ठद्द को ष्टद्धशठ्ठद्दह्नद्बठ्ठद्द, ष्टद्धद्गठ्ठद्दह्लह्व को ष्टद्धद्गठ्ठद्दस्रह्व, स्द्बठ्ठद्मद्बड्डठ्ठद्द को ङ्गद्बठ्ठद्भद्बड्डठ्ठद्द कर दिया है। वह अपने यहाँ एक भी यूरोपियन नाम की इमारत नहीं देखना चाहता। फिर क्या भारत का ही चिन्तक इतना गिरा गुजरा हो गया है कि उसे अपनी अस्मिता पर हुए आक्रमण नहीं समझ में आ रहे हैं। मैं फिर वहीं बात दोहराना चाहूँगा कि यदि हमने सप्त सिंन्धव: में मुँह धोया होता तो हमारी चेतना की यह दुर्दशा नहीं होती। फिर भी देर आये दुरुस्त आये। प्रयागराज और अयोध्या का विरोध करने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों और कट्टरपंथियों, सत्ताप्रेमियों को यह समझने का अवसर आ गया है कि जिन्होंने हमारे पुरुखों के अनगिनत मस्तकों का बलिदान लिया उन परकीय शासकों के नाम पर रखे शहर, भवन, रोड का नाम बदलने और मिटाने में हिचक क्यों?

ॠ (ग)

प्रतिपक्ष की एक नई भूमिका को भी समझना बहुत आवश्यक है। वह है च्च्रूद्ग ह्लशशज्ज्। उस पर लिखना दुधारी तलवार पकडऩा ही नहीं है, भँवर के छत्ते पर हाथ डालना है। लेकिन ‘दिल है कि मानता नहीं।’ रूद्ग ह्लशश अपनी सम्पूर्ण सत्ता के साथ वर्षों के कूड़े-कचड़े को पचाकर ऐसा नाइट्रोजन खाद बन कर आया है जिसे लग रहा है कि स्त्री की पूरी चेतना की सम्पूर्ण भूमण्डल में नई फसल पैदा कर देगी जो नारी सशक्तिकरण का अचूक परिणाम होगा। होगा की नहीं यह तो पाठक तय करेंगे। 

मुझे इस समय कुछ वर्ष पुरानी एक घटना अमरीकी राष्ट्रपति और उनकी सहयोगी की स्मरण हो रही है सम्भवत: आपको भी स्मरण होगी। विश्व के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति के ऊपर सम्भवत: वह पहली कोशिश थी जिसने व्यक्ति की कामेक्षा को आक्रामक रूप में दुनिया के सामने लाया था। उसके पीछे भी सत्ता का मद और ‘समरथ को नहिं दोष गुसाई’ की अतिरेकी मानसिकता तो थी ही नारी को भोग की वस्तु मानने की वृत्त भी थी। वह समय था जब एक बड़ा मौलिक प्रश्र उठा था कि व्यक्ति का चरित्र क्या राष्ट्रीय चरित्र के आड़े नहीं आता? क्या केवल राष्ट्रीय चरित्र ही पर्याप्त है? क्या केवल राष्ट्रीय ही होने से काम चल सकता है या व्यक्तिगत चरित्र की सुरक्षा भी आवश्यक है।

तब भारत में दोनों चरित्र एक दूसरे के पूरक हैं माननेवालों की एक धारा थी तो दूसरी वही धारा जो व्यक्ति के चरित्र को तवज्जो देने के पक्ष में नहीं थी। और वह धारा और कोई नहीं वही धारा थी जो पश्चिम से प्रेरित हो कर स्त्री को भोग की वस्तु मानती रही। स्त्री को व्यक्तिगत सम्पति मानती रही। देश की तत्कालीन सत्ता की पीठ पर आरूढ़ तथाकथित विचारक, साहित्यकार उसकी न केवल पैरवी कर रहे थे बल्कि उसका उपभोग नैतिक मानते थे। इसमें दुनिया के राजनेता ही नहीं तो सबसे बड़े प्रगतिशील बुद्धिजीवी पत्रकार, साहित्यकार, कलाकार, प्राध्यापक, व्यवसायी, चिकित्सक, प्रशासक और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मुख्य कार्यपालक भी शामिल थे।

जो मदमस्त उस समय तंदूर पर नारी की बलि देते थे, कला के नाम पर देह का शोषण करते थे तो आज पिस्टल दिखा कर उन्हीं की संतानें खुलेआम इसे दैहिक सुख और सब कुछ प्राप्ति की आकांक्षा पाले चल रही हैं। 

जरा इसे भी समझें। जिस देश में ब्रह्मचर्य का पालन जीवन का एक अंग माना जाता था वहीं पर सुरक्षित यौन सम्बन्धों और यौन जागरुकता के नाम पर किशोरमन को खुले यौन सम्बन्धों की शिक्षा उच्चतर विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक में दी जा रही है। सुरक्षित यौन सम्बन्धों के साधन उपलब्ध कराये जा रहे हैं, क्यों? एक सुनियोजित प्रयोग सा प्रारंभ हुआ। भारतीय संस्कृति और जीवनदृष्टि को ध्वस्त करने की एक दिशाहीन आँधी आई जिसमें दरख्त तो टूटने ही थे। 

 ‘मी टू’ और ‘मी टू शक्ति’ दोनों दो दृष्टियों की परिचायक हैं। ‘मी टू’ में भोगवाद है, एक दूसरे का शोषण है तो ‘मी टू शक्ति’ में ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा:’ है, अपनी पहचान है, मनुष्यता है, ‘मातृवत पर दारेषु’ है। इस दृष्टि को शोपनहॉवर ने उपनिषदों में मन की शांति के सन्दर्भ में तो पाइफेड्रिक शेजेल ने अपने चित्त की एकाग्रता के लिए भारत से जोड़ा और एथेन्स और रोम की जली धरती को हरा करने की इसके माध्यम से संभावना देखी। मैक्समूलर ने वेदान्त की आत्मस्थ नीति में सृष्टि मात्र को गतिशील बनाने के प्रमाण पाये (यह बात अलग है कि संस्कृत की मूल व्याक रणिक नासमझी और एक विशेष दृष्टि के कारण वह वैदिक ऋचाओं की आत्मा को नहीं पकड़ पाता, फिर भी वह आज के तथाकथित भारतीय एकेडिमिया से अधिक चेष्टा करता रहा।) झ्यूसन ने कहा कि प्लेटो, कांट और गेल प्रकारान्तर से शंकराचार्य की बात कहते हैं। इमर्सन, थोरो, हुम बोल्ट और बीटैस्की जैसे अनेक विचारक भी भगवद्गीता और वेदांत विचार से प्रभावित हुए भगवान बुद्ध के विचारों ने तो आधे जगत को नया प्रकाश दिया। 

फिर ऐसा इस देश में अचानक क्या हो गया की सारी तथाकथित नारी प्रतिभाएँ अचानक ‘मी टू’ की हुंकार करने लगीं। अपराध और स्त्री का शोषण जब भी आये उसे उठाना ही चाहिए। बौद्धकाल में तो पूरा इसका लेखा-जोखा मिलता है। किन्तु जब वह लामबन्द हो कर कुनियोजित ढंग से खाद बता कर छिडक़ा जाये और पश्चिम से लेकर भारत तक एक साथ स्वर उठे और उसमें एक विशेष शक्ल-सूरत को उभारा जाये तो कुछ तो षड्यंत्र की बू आती है।  

समझना चाहिए कि स्वतंत्रता की वैचारिकी के लिए जिन्होंने भोगवाद की उच्छृंखल धरती को उर्वरा बताया वे कैसे मौन हैं? जिन्होंने स्त्री जाति को भोग का मार्ग सिखाया है क्या ऐसे साहित्यकारों, प्रशासकों के उन काले चिठ्ठों को भी उजागर किया जायेगा जो ‘हंस’ की बौद्धिक परम्परा को लिए ही आगे बढ़ती रही है। 

तथाकथित जनवादी जिस मुक्ति और शोषण की अवधारणा को अभिप्रायों के साथ निहितार्थ भाव से समाज के सामने खींचकर खड़ा कर देना चाहते हैं, वे स्त्री और पुरुष को एक-दूसरे के पूरक क्यों नहीं देखते? क्यों पति और पत्नी और भारतीय परिवार की संकल्पना उनके बौद्धिक समझ से बाहर हैं? कारण स्पष्ट है कि उनकी मूल अवधारणा ही स्त्री और पुरुष को आपस में चूसे जाने के लिए है, जितना ले सकते हैं लेते जायें। उनके दर्शन में प्रतिभा का उपयोग शोषण के साधन ढूँढऩे में है। विजयी प्रतिभा वही है जो अधिकाधिक शोषण पर विश्वास करती है। इसीलिए यह तथाकथित शोषित प्रतिभाएँ अब मान्य समस्त मान्यताओं का दम तोड़ डालने के लिए एक जुट होकर अपने अव्यर्थ बाण का प्रयोग करने की धुन में हैं। 

यह स्थिति क्यों आयी? मैं मानता हूँ कि उसकी जड़ में वर्तमान अनियंत्रित भोगवृत्ति और चकाचौंध तथा वैश्विक दिखने की हमारी तथाकथित दीक्षा है। अन्यथा हमारे पास देश ही को नहीं तो पूरे संसार को इस स्थिति से बचाने की कीमिया ‘परिवार’ नाम की इकाई है। हम अपने इस इकाई का, विचार का विनियोग नहीं करने का निश्चय करते हुए दिखाई देते हैं। आखिर यह देश अचानक समलैंगिकता, स्त्री विमर्श, थर्ड जेंडर से मी टू तक कैसे आ गया? क्या यह इलीट वर्ग का दर्द है? क्या इसकी छाया तीनों पालिकाओं को भी ग्रस रही हैं? क्या इसके पीछे भारतीय जीवन दृष्टि, भारतीय शिक्षा की उपेक्षा और कान्वेंट शिक्षा की नासमझी पैरोकारी नहीं है? 

तुलसी बाबा को स्मरण किए बिना बात पूरी नहीं होती। ‘‘स्याम सुरभि पय विसद अति गुनद करहिं सब पान। गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान।। अर्थात् श्यामा गाय काली होने पर भी उसका दूध उज्ज्वल और गुणकारी होता है। यही समझ कर लोग उसे पान करते हैं। इसी तरह गँवारू भाषा में होने पर भी श्री सीता-राम जी के यश (उपेक्षित भारतीय संस्कृति और जीवनदृष्टि) को बुद्धिमान लोग बड़े चाव से गाते और सुनते हैं।’’ 

यदि हम अभी भी अपनी जीवन दृष्टि और परम्परा के प्रति जागरुक नहीं हुए, सावधान नहीं हुए तो परिणाम भुगतने को तैयार रहना होगा। केवल संचार माध्यमों की बड़ी बहँसों और डिजिटल दुनिया से इसका समाधान खोजना आत्मघाती होगा। 

 (घ)

हमें अपनी उस आध्यात्मिक सत्ता की आवाज को सुनना ही होगा जो हमारा आह्वान करती हुई कहती है, ‘शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा:’, ‘‘हे अमृत के वर पुत्र स्नेह के दुलारे वत्सगण! क्यों कहीं-आर्त दीन दु:स्वप्र पीडि़त मिथ्या-अज्ञान के गंभीर कोहिरे से आच्छन्न हो रहे हो! चञ्चलता के घोर आवर्तन से मथित दलित छिन्नमर्म होकर, हताश की उष्ण दीर्घ नि:श्वास छोड़ रहे हो! आओ, दौडक़र आओ, पुत्र! सन्तान! यह देखो तुम्हारे लिये मैंने अपना विशाल वक्षस्थल खोल दिया है। अनन्त बाहु प्रसारित करके, तुम्हारे पीछे-पीछे दौड़ती फिरती हूँ। तुम माँ कह कर पुकारो, तुम्हारे कमनीय शिशुकण्ठ से निकले हुये, सुधामय मातृ आह्वान को सुनकर मैं अपने को भूल जाऊँगी। तुम्हारे त्रिताप दग्ध हृदय में अमृत सिञ्चन करूँगी। इसी कारण मुक्त कण्ठ से आह्वान करती हूँ- आओ वत्स! आओ पुत्र! एक बार नेत्र खोल दो। अब आँखें बन्द करके कब तक कङ्गाल बने रहोगे!  

सुनो! सत्य की विजय झंकार उठी है, सत्यलोक की शुभ्र ज्योति ने दिग्मण्डल को उद्भाषित किया है, मधुमय मातृ-आह्वान से व्योम-मण्डल मुखरित हो रहा है, वसुन्धरा ने प्राण-मय सत्य के आह्वान से जड़त्व परित्याग किया है, सलिल राशि सत्यनाद से उद्वेलित हो रहा है, वायु सत्य ध्वनि की अभिघात से तरङ्गायित हो रही है, अन्तरिक्ष सत्य की पवित्र प्रणव-नाद से परिपूरित हो रहा है; क्या अभी तक तुम सोतेे रहोगे! क्या अभी तक मिथ्या की कालिमा मुख मेें मल कर दीनता के दु:स्वप्र से उत्पीडि़त होओगे ? वत्स, और नहीं! एक बार आओ, एक बार फिर खड़े हो जाओ, एक बार मुख फेरो, मैं तुम लोगों का मुख देखकर बहु युग युगान्तर से, अपेक्षा में बैठी हूँ। आओ माता की गोद में बैठे हुये मातृहीन शिशु अमृत की संजीवनी धारा से अभिसक्त हो जाओ। शान्ति के-आनन्द के विमल सलिल (जल) में अवगाह्न करो। माँ की गोद में नित्य अवस्थान वा ब्राह्मी स्थिति की उपलब्धि करके अमर हो जाओ।’’ (देवी महात्म्य)


No comments:

Post a Comment