सम्पादकीय
(क)
१० सितम्बर, १८६३ को एक वैदिक ऋषि ने संसार के सामने खड़े होकर तूर्य स्वर में घोषणा करते हुए कहा, ‘‘हे अमृत के पुत्रो! सुनो, हे दिव्यधामवासी देवगण!! कैसा मधुर और आशाजनक संम्बोधन है यह। बंधुओ इसी मधुर नाम-अमृत के अधिकारी शब्द से आपको सम्बोधित करूँ, आप इसकी आज्ञा मुझे दें। निश्चय ही हिन्दू आपको पापी कहना अस्वीकार करता है। आप तो ईश्वर की संतान हैं, अमर आनंद के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। आप इस मत्र्यभूमि पर देवता हैं। आप भला पापी? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, वह मानवस्वरूप पर घोर लांछन है।’’
स्वामी विवेकानन्द की बात से सहमत ही नहीं दो कदम आगे बढ़ते हुए मैथिलीशरण जी कहते हैं, ‘किन्तु मनुज को पशु कहना कभी नहीं सह सकता हूँ।’ बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ लिखते हैं, ‘सरद जुन्हाई अब कहां -कहां बसंत उछाह/ जीवन में अब बीच रह्यो चिर निदाघ कौ दाह। / हम बिषपायी जनम के सहैं अबोल-कुबोल / मानत नैंकु न अनख हम जानत अपनो मोल।’ नवीनजी का विश्वास देखिए- ‘इस धरती पर लाना है / हमें खींचकर स्वर्ग, कहीं यदि उसका और ठिकाना है।’ वह स्वर्ग कहाँ है तो अध्योध्या सिंह उपाध्याय इस समाचार, अनाचार, दुराचार, अत्याचार, पापाचार जैसे कितने चार हैं जो भारतीय राजनीति और समाज को दूषित कर रहे हैं। उन सभी चारों को आचार में बदलने की कला की कला को स्वर्ग की सम्भावना मानते हैंं।
जनता जनार्दन है। जनता भगवान है। हम जनता के सेवक है। भगवान राम केवट की नाव से पार उतर गये। देने लगे मुद्रिका तो उसने कहा, ‘अब कछु नाथ न चाहिए मोरे। दीन दयाल अनुग्रह तोरे।’ अनुग्रह बड़ी बात है केवट के लिए। उसके अन्दर सब प्रकार की भलाई, शुभेक्षा है। यहाँ दाता की झोली खाली है। दीन का पेट ही नहीं भर रहा। कहीं न कहीं सन्तुलन बनाना होगा। याचक की याचना और निदान होना चाहिए किन्तु खुस करने के लिए बाँटते रहना अंकिच नता की ओर ढकेलना होगा।
भारती जी लिखते हैं, ‘ताकि रेगिस्ता / गुलाबों की क्यारी बन जाय / शब्द का कहा जाना अनिवार्य था। / आदम की पसलियों के घाव से / इवा के मुक्त अस्तित्व की प्रतिष्ठा के लिए।’ एक सत्संग में किसी एक महिला ने स्वामी विवेकानन्द जी से संशय व्यक्त किया था, ‘‘स्वामी जी, क्या आदम ने आज्ञा-भंग का पाप नहीं किया था?’’ स्वामी जी ने कहा, ‘‘बहनजी, याद करो, ईश्वर ने जब आदम को बनाया वह निष्पाप निरंजन था न? हिन्दू संस्क् ृति महिला को पाप का स्रोत नहीं मानती, वह ‘सर्व मंगल मांगल्या’ है।’’ यही बात सम्पूर्ण विश्व को देखने की भारतीय दृष्टि को उजागर करती है जिसे हम वहाँ स्वामी जी को कहते हुए पाते हैं। चिन्तन इस बात का करना है कि क्या आज भी हम उसी भारतीय दृष्टि के वाहक हैं?
(ख)
शब्द वेधी वाण पृथ्वीराज चौहान ने चलाया और मुहम्मद गोरी धरासायी हो गया। आज वाणवेधी शब्द चल रहे हैं जो मारना तो दूर किसी को चोटिल भी नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में धर्मवीर भारती का स्मरण होना स्वाभाविक है, ‘शब्द को कहा जाना था / चूँकि सत्य सदा सत्य है / आज भी अनिवार्य है / अत: आज के लिए भी शब्द है / और उसे कहा जाना अनिवार्य है।’ शब्द ब्रह्म है। शब्द सत्य है। शब्द अभिव्यक्ति की अनिवार्यता है। शब्द सृजन का आधार है। शब्द युग की सीमा से परे है। शब्द का सातत्य है। भारती जी कहते हैं, इसलिये शब्द का कहा जाना अनिवार्य है। शब्द की अनिवार्यता इसलिये भी है कि आरम्भ में केवल शब्द था। किन्तु शब्द के लिये दो चाहिए। ’एकोऽहम बहुष्यामं’ यह श्रुति की आवश्यकता है। बिना उसके शब्द की सार्थकता सिद्ध नहीं हो सकती। शब्द मौन तोडऩे के लिये आवश्यक है। वे लिखते हैं-‘आरम्भ में केवल शब्द था / किन्तु उसकी सार्थकता थी श्रुति बनने में / कि वह किसी से कहा जाय / मौन को टूटना अनिवार्य था।’
भगवती चरण वर्मा जी लिखते हैं, ‘साहित्य अथवा कला को प्राणवान् और सफ ल साहित्य में साहित्यकार का व्यक्तित्व मूर्त होता है। साहित्यकार का व्यक्तित्व उसके जीवन का अभिन्न अंग होने के नाते उसके कृतित्व का भी अभिन्न अंग हाता है। भारती जी भी लिखते हैं, ‘ ताकि प्रलय का अराजक तिमिर / व्यवस्थित उजियाले में / रूपान्तरित हो।’ क्या आज की राजनैतिक, सामाजिक परिस्थिति में यह यह सम्भावना तलाशी जा सकती है कि हम मंचों की जगह शब्दों का उपयोग आपस में साथ बैठ कर कर लें?
‘तुम्हारे चरण /ये शरद के चाँद-से उजले धुले-से पाँव,/मेरी गोद में ! / ये लहर पर नाचते ताज़े कमल की छाँव,/ मेरी गोद में !/ दो बड़े मासूम बादल, देवताओं से लगाते दाँव,/ मेरी गोद में !/ रसमसाती धूप का ढलता पहर,/ ये हवाएँ शाम की, झुक-झूमकर बरसा गईं / रोशनी के फूल हरसिंगार-से,/ प्यार घायल साँप-सा लेता लहर,/ अर्चना की धूप-सी तुम गोद में लहरा गईं / ज्यों झरे केसर तितलियों के परों की मार से,/ सोनजूही की पँखुरियों से गुँथे, ये दो मदन के बान,/ मेरी गोद में / हो गये बेहोश दो नाजुक, मृदुल तूफ़ान,/ मेरी गोद में !/ ज्यों प्रणय की लोरियों की बाँह में,/ झिलमिलाकर औ’ जलाकर तन, शमाएँ दो,/ अब शलभ की गोद में आराम से सोयी हुईं/या फ़रिश्तों के परों की छाँह में/दुबकी हुई, सहमी हुई, हों पूर्णिमाएँ दो,/देवताओं के नयन के अश्रु से धोई हुईं ।/चुम्बनों की पाँखुरी के दो जवान गुलाब,/मेरी गोद में !/सात रंगों की महावर से रचे महताब,/मेरी गोद में !/ये बड़े सुकुमार, इनसे प्यार क्या ?/ये महज आराधना के वास्ते,/जिस तरह भटकी सुबह को रास्ते/हरदम बताये हैं रुपहरे शुक्र के नभ-फूल ने,/ये चरण मुझको न दें अपनी दिशाएँ भूलने !/ये खँडहरों में सिसकते, स्वर्ग के दो गान, मेरी गोद में !/रश्मि-पंखों पर अभी उतरे हुए वरदान, मेरी गोद में !’’
दुख तो उन्हें इस बात का है कि आज ’जनतंत्र’ में ’तंत्र’ शक्तिशाली लोगों के हाथों में चला गया है और ’जन’ की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है। अपनी रचनाओं के माध्यम से इसी ’जन’ की आशाओं,आकांक्षाओं, विवशताओं, कष्टों को अभिव्यक्ति देने का प्रयास उन्होंने किया है। वे मूल्यहीनता के विरोधी हैं और इतने दृढ़ है कि कोई भी प्रलोभन उन्हें डिगा नहीं सकता। परंपरागत ज्ञान और भारतीयता का उपनिषदकालीन ज्ञान उन्हें सदा सहारा प्रतीत होता है।
प्रात सद्य:स्नात कन्धों पर बिखेरे केश/आँसुओं में ज्यों धुला वैराग्य का सन्देश/चूमती रह-रह बदन को अर्चना की धूप/यह सरल निष्काम पूजा-सा तुम्हारा रूप/जी सकूँगा सौ जनम अँधियारियों में,/यदि मुझे मिलती रहे/काले तमस की छाँह में/ज्योति की यह एक अति पावन घड़ी!/प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी!/चरण वे जो लक्ष्य तक चलने नहीं पाये/वे समर्पण जो न होठों तक कभी आये/कामनाएँ वे नहीं जो हो सकीं पूरी-/घुटन, अकुलाहट, विवशता, दर्द, मजबूरी-/जन्म-जन्मों की अधूरी साधना,/पूर्ण होती है किसी मधु-देवता की बाँह में!/जि़न्दगी में जो सदा झूठी पड़ी-/प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी! उनकी ‘एक वाक्य’ कविता उस महान चिंतक के जीवन का ऐसा अद्भुत संदेश है, जो आज के राजनीतिक प्रदूषित वातावरण में हर व्यक्ति के लिये अनुकरणीय और प्रेरणादायी है- ‘चेक बुक हो पीली या लाल,/दाम सिक्के हों या शोहरत /-कह दो उनसे / जो खऱीदने आये हों तुम्हें /हर भूखा आदमी बिकाऊ नहीं होगा है !
‘धर्म और पाप’ निबंध में आचार्य चतुरसेन शास्त्री कहते हैं, ‘भारत धर्म-प्रधान देश है और मनुष्य पाप का चोर है, इसलिए धर्म और पाप की बिना सहायता लिए मैं मानने वाला आदमी नहीं हूँ। मैं अपनी अंतरात्मा में भली भाँति जानता हूँ कि पाप और धर्म दोनों खातों से भरपूर धन है और उसका कुछ सदुपयोग नहीं हो रहा है। धर्म की परिभाषा देते हुए कहते है, ‘सर्व-साधारण संप्रदायों को धर्म के नाम से पुकारते हैं। भारत धर्म-प्रधान देश है। चिरकाल से यहाँ धर्म का आदर होता आया है-बड़ी-से-बड़ी शक्तियाँ भी धर्म के आगे सिर झुकाती चली आई हैं। यह एक साधारण बात है कि जिस वस्तु की ज्यादा खपत होती है उसकी दुकानें भी बहुत-सी खुल जाती हैं और यह भी स्वाभाविक है कि नकली चीजें बहुत बनने लगती हैं। भारत में धर्म की भी वही दशा है। मंदिरों में, सडक़ों पर टके सेर धर्म मिलता है। घर के धनी महाशय जब भोजन नाक तक डाट चुकते हैं और थाली में जो जूठन दाल-भात बचा रहता है, तब कहा जाता है कि यह किसी भूखे को दे दो, धर्म होगा। कपड़े पहनते-पहनते जब नौकरों के भी काम के नहीं रहते तब कहा जाता है किसी नंगे को दे दो, धर्म होगा। इसी भारत के जब दिन थे और भारत में बड़प्पन था तब इसी धर्म के नाम पर राजाओं ने राज्य त्यागकर चांडाल की सेवा की थी, अपना माँस काटकर गिद्ध को खिलाया था, अपने पुत्र के सिर पर आरा चलाया था। वही महादुर्लभ और दुर्धर्ष धर्म इस कलयुग में इतना सस्ता हो गया कि जूठे टुकड़ों और फटे चिथड़ों के एवज चाहे जो उसे मोल ले सकता है। इससे अधिक उपहास और लज्जा की बात क्या होगी?
श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं ‘धर्म क्या है और क्या नहीं है इस विषय में अच्छों-अच्छों की अकल चकरा जाती है।’ भूखों को अन्न, प्यासों को जल, नंगों को वस्त्र, रोगी को औषध, असहाय को सहायता देना - यह हमारे मनुष्य-योनि का साधारण कर्तव्य है, यह हम पर सामाजिक कृपा है और उसे अपनी शक्ति भर पालन करके हम किसी पर कुछ अहसान नहीं कर रहे हैं, न वह धर्म ही है। तब धर्म क्या है? मनुस्मृति कहती है कि धैर्य, क्षमा, दया, अस्तेय, शौच, इंद्रियनिग्रह, बुद्धि, विद्या, अक्रोध, सत्य ये दस धर्म के लक्षण हैं। मैं कहूँगा कि ये भी धर्म के लक्षण नहीं हैं। ये मनुष्यत्व के चिह्न हैं अथवा इन्हें धर्म की ओर ले जाने वाले मार्ग कह सकते हैं - यह वास्तव में धर्म की सच्ची व्याख्या नहीं हुई। धर्म किसे कह सकते हैं। ये भी सोचना चाहिए। इसका उत्तर दर्शन शास्त्रों में है। गौतम ऋषि कहते हैं - ‘यतो अभ्युदयनिश्रेयस सिद्धि: स धर्म।’ जिस काम के करने से अभ्युदय और निश्रेयस की सिद्धि हो वह धर्म है। अब यह देखना है कि अभ्युदय और निश्रेयस के क्या अर्थ हैं।
ॠ (ग)
भीष्म को क्षमा नहीं किया गया में हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं, मेरे एक मित्र हैं, बड़े विद्वान, स्पाष्टजवादी और नीतिमान। वह इस राज्य के बहुत प्रतिष्ठित नागरिक हैं। उनसे मिलने से सदा नई स्फूर्ति मिलती है। यद्यपि वह अवस्था में मुझसे छोटे हैं, तथापि मुझे सदा सम्मान देते हैं। इस देश में यह एक अच्छी बात है कि सब प्रकार से हीन होकर भी यदि कोई उम्र में बड़ा हो, तो थोड़ा-सा आदर पा ही जाता है। मैं भी पा जाता हूँ। मेरे इस मित्र की शिकायत थी कि देश की दुर्दशा देखते हुए भी मैं कुछ कह नहीं रहा हूँ, अर्थात इस दुर्दशा के लिए जो लोग जिम्मेदार हैं उनकी भर्त्सना नहीं कर रहा हूँ। यह एक भयंकर अपराध है। कौरवों की सभा में भीष्म ने द्रौपदी का भयंकर अपमान देखकर भी जिस प्रकार मौन धारण किया था, वैसे ही कुछ मैं और मेरे जैसे कुछ अन्य साहित्यिकार चुप्पीे साधे हैं। भविष्य इसे उसी तरह क्षमा नहीं करेगा जिस प्रकार भीष्म पितामह को क्षमा नहीं किया गया। मैं थोड़ी देर तक अभिभूत होकर सुनता रहा और मन में पापबोध का भी अहसास हुआ। सोचता रहा, कुछ करना चाहिए, नहीं तो भविष्य क्षमा नहीं करेगा। वर्तमान ही कौन क्षमा कर रहा है? काफी देर तक मैं परेशान रहा-चुप रहना ठीक नहीं है, कंबख्त भविष्य कभी माफ नहीं करेगा। उसकी सीमा भी तो कोई नहीं है। पाँच हजार वर्ष बीत गए और अब तक विचारे भीष्म पितामह को क्षमा नहीं किया गया। भविष्य विकट असहिष्णुभ है। काफी देर बाद भ्रम दूर हुआ। मैं भीष्म नहीं हूँ। अगर हिंदी में लिखनेवाला कोई भीष्म हो जाता हो, तो भी मुझे कौन पूछता है? बहुत ज्ञानी गुणी भरे पड़े हैं। मुझसे अवस्था में, ज्ञान में, प्रतिभा में बहुत आगे। मुझे कोई डर नहीं है। ‘भविष्य’ नामक महादुरंत अज्ञात मुझे किसी गिनती में लेनेवाला नहीं है। डरना हो तो वे ही लोग डरें, जिनकी गिनती हो सकती है। तुम क्यों घबराते हो, मनसाराम, तुम तो न तीन में, न तेरह में। बड़ी राहत मिली इस यथार्थबोध से।
मगर यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि थोड़ा देर के लिए ही सही, भीष्म मुझ पर छाये रहे। प्राचीनकाल में भीष्म जैसा धर्मज्ञ और ज्ञानी खोजना कठिन है। महाभारत का शांतिपर्व इसका गवाह है। कोई समस्याम तो भले आदमी ने छोड़ी नहीं। प्राचीन काल के ज्ञानियों में भीष्म मुझे सबसे अधिक प्रभावित करते हैं, अपने अगाध इतिहासबोध के कारण। युधिष्ठिर के हर प्रश्न के उत्तर में वह प्राय: यह कहकर शुरू करते हैं - ‘अत्राप्यु दाहरन्ती मितिहासं पुरातनम।
किस प्रकार पुराने इतिहास से वह वर्तमान समस्या के सही स्वरूप का उद्घाटन करते हैं और उसका विकासक्रम समझा देते है, वह चकित कर देता है। हर प्रश्ना के तह में जाने की उनकी पद्धति आधुनिक युग में भी उपयोगी है। ज्ञान और धर्म के सच्चे रूप को पहचानने में उन्हें कमाल की सफलता मिली थी। यह कहना गलत होगा कि भीष्म के प्रति भारतवर्ष ने कृतज्ञता नहीं दिखाई। आज भी श्रद्धावान लोग भीष्माष्टमी को अपनी श्रद्धा उनके प्रति निवेदन करते ही हैं, परंतु जिस समय मेरे मित्र अत्यंत प्रभावशाली शैली में भीष्मे को मेरे ऊपर आरोपित कर रहे थे, उस समय थोड़ी देर के लिए भीष्म का आवेश सचमुच मेरे ऊपर आ गया था। प्रभावशाली भाषा में जादुई शक्ति होती है। उसी से कवि पाठक को अभिभूत करता है, वक्ताह उसी के बल पर श्रोता पर छा जाता है। मैं भी कुछ आविष्टा हुआ। भीष्म, की ही शैली में बोलने की प्रेरणा जाग्रत हुई थी... ‘‘अत्राप्यु। दाहरन्तीकमितिहासं पुरातनम’’।
एक पुराना इतिहास मुझे भी स्मरण ही आया था। वह इतिहास यह है। बात सन् 35-36 की है। उन दिनों मैं शांतिनिकेतन में था। एक दिन प्रात: भ्रमण के लिए निकला था। मैं साधारणत: प्रात: भ्रमण के लिए तभी निकलता हूँ, जब किसी ऐसे उत्साणही घुमक्केड़ से, जो श्रद्धेय कोटि के होते हैं, प्रेरणा मिलती है। उन दिनों श्रद्धेय आचार्य क्षितिमोहन सेन की प्रेरणा से प्रात: भ्रमण के लिए निकलता था। सही बात तो यह है कि निकलते वह थे, मैं पीछे हो लेता था। तो उस दिन भी मैं उनके साथ ही निकला। भाग्य उस दिन प्रसन्नप था। देखा, गुरुदेव धीरे-धीरे अपने बगीचे में टहल रहे थे। कुछ गंभीर मुद्रा में थे। आचार्य सेन ने कहा, ‘चलो प्रणाम कर लें’। वह आगे चले, मैं पीछे पीछे। धीरे-धीरे दबे पाँव हम लोग उनके पास पहुँच गए। चरण छूकर प्रणाम निवेदन किया। उनका ध्याबन भंग हुआ। देखकर प्रसन्न। हुए। उन्होंने उस दिन मुझे संबोधित करके कहा - तुमने कभी सोचा है कि भीष्म को अवतार क्यों नहीं माना गया और श्रीकृष्ण को ही क्यों अवताररूप में सम्मान दिया गया ?
मैंने कभी ऐसा सोचा ही नहीं था। क्या जवाब देता? मैं मन ही मन अपने सोचने की शक्ति की दरिद्रता पर लज्जित हो रहा था। आचार्य सेन ने रक्षा की। गुरुदेव ने हँसते हुए कहा ‘आपने तो कुछ सोचा ही होगा। मगर मैं इस पंडित को ही छेडऩा चाहता था। अभी नौजवान है, नया खून, है, मार खाने की अभी शक्ति है, मेरी पीठ तो जर्जर हो चुकी है।’ कहकर गुरुदेव खूब प्रसन्न भाव से हँसे। मैंने विनीत भाव से कहा - ‘ऐसा प्रश्न तो मेरे मन में कभी उठा ही नहीं, परंतु आप कहते हैं तो सोचूँगा। परंतु क्यार सोचूँ, यह बता दें। गुरुदेव के शब्द याद नहीं हैं, पर उनके कथन की मेरे मन पर जो छाप रह गई है, वह यह है कि शर-शय्या पर पड़े भीष्म ने जब भयंकर नरसंहार देखा होगा, उनके जैसे- ज्ञानी के मन में अपनी प्रतिज्ञा, उसके परवर्ती परिणाम आदि बातें क्यों उठी नहीं होंगी ? मैंने सोचना शुरू किया था। कई प्रतिभाशाली मित्रों से भी सोचने को कहा था, पर सोचता ही रह गया। जिन्होंने सोचने के लिए उकसाया था, वह चले गए। आज मेरे मित्र ने कहा कि भीष्म को क्षमा नहीं किया गया तो बात फिर उमडक़र नए रूप में मानसपटल पर हहरा उठी। लहराई तो क्या होगी।
भीष्म शर-शय्या पर सोए उपयुक्त। काल की प्रतीक्षा कर रहे थे - मरने के लिए। जैसे-तैसे, जब-तब, जहाँ-तहाँ मरना भी ठीक नहीं होता। उचित मुहूर्त् में मरना चाहिए। साधारण मनुष्य। मुहूर्त् का विचार किए बिना ही मर जाते हैं। भीष्म ऐसे नहीं थे। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। जब तक उत्तम मुहूर्त न आ जाए तब तक वह मृत्यु नहीं चाहते थे। इसका फायदा उठाया युधिष्ठिर ने। सारी शंकाएँ उनसे कह डालीं और उत्तर भी वसूल कर लिए। मेरे एक आदि गुरु ने शर-शय्यावाली कहानी सुनाई थी। उनके कहने का मतलब था कि भीष्म पितामह अनेक बाणों की नोक पर सोए हुए थे। उनका तकिया भी बाणों की नोक का ही बना था। मेरा बालक मन बहुत व्याकुल हो गया था। वह हजार ब्रह्मचारी रहे हों, उन्हें बाणों की नोक तो चुभती ही होगी। बिचारे वृद्ध करवट भी नहीं बदल पाते होंगे। जब बदलते होंगे तब बाण बुरी तरह चुभ जाते होंगे। और उसी में युधिष्ठिर प्रश्नों की बौछार कर रहे होंगे। यद्यपि वह (युधिष्ठिर) तो दयालु थे, तथापि उस समय थोड़ी और दया दिखाते, तो क्या बिगड़ जाता? मैं जब उस दृश्य की कल्पना करता था, तब मुझे बड़ी पीड़ा होती थी, पर दूसरे बच्चे ब्रह्मचर्य की महिमा का अनुभव करते थे और प्रसन्न होते थे। उनकी दृष्टि में ब्रह्मचारी के लिए यह कोई कष्ट की बात ही नहीं थी। मैं भी उसकी महिमा तो समझता था, पर न जाने क्यों मेरा मन दुखी हो उठता था। बाद में मेरे एक विद्वान बुजुर्ग ने बताया कि ‘शर’ सरकंडे को कहते थे। उसी से बाण बनते थे, इसलिए ‘शर’ का अर्थ बाण हो गया। भीष्मन वस्तुत: बाणों की नोक पर नहीं, सरकंडों की चटाई पर लेटे थे। वह व्याख्या ठीक है या नहीं, पर मेरे बालक मन को इससे बड़ी राहत मिली थी। सो, भीष्मा शर-शय्या पर थे अर्थात सरकंडों की चटाई पर लेटे हुए थे। वैसे, जर्जर बृद्ध के लिए यह भी कम कठोर शय्या नहीं थी, पर चुभनेवाली नहीं होगी। समर्थ पौत्रों ने उसे कुछ तो तरीके से बनवाया ही होगा। युधिष्ठिर ने अच्छा् ही किया जो उनका मन बातचीत में उलझाए रखा, परंतु जब युधिष्ठिर और अन्य लोग उन्हें विश्राम करने के लिए छोडक़र चले जाते होंगे, तब एकांत में इस बूढ़े के मन में क्या चिंता रहती होगी? कुछ तो सोचते ही होंगे। श्रद्धालु लोग तो कहेंगे कि वह तुरंत ब्राह्मी स्थिति में चले जाते होंगे। भगवान श्रीकृष्ण ने तो कहा ही है कि ब्राह्मी स्थिति प्राप्त हो जाने पर कोई मोह होता ही नहीं। पर जिन्हें् श्रद्धा का इतना संबल प्राप्त नहीं है, वे क्या करें? उन्हें लगता है कि भीष्म जैसा ज्ञानी भी कुछ सोचता जरूर होगा।
(घ)
गुरुदेव पूछते हैं कि भीष्म को अवतार क्यों नहीं माना गया, मेरे यह मित्र कहते हैं कि भीष्म को क्षमा नहीं किया गया। क्या दोनों बातों का अर्थ एक ही है ? शायद भीष्मक को क्षमा नहीं किया गया, इसीलिए उन्हें अवतार नहीं माना गया। कुछ बात है अवश्य। भारतवर्ष किसी बात पर मौन भी रह जाता है, तो उसका कुछ अर्थ होता है। किसी ने नहीं कहा कि भीष्म को अमुक अमुक कारणों से अवतार नहीं माना गया और श्रीकृष्ण को अमुक-अमुक कारणों से अवतार माना गया। एक को विष्णु का अवतार नहीं कहा गया, क्योंकि वह नहीं थे, एक को मान लिया गया क्योंकि वस्तुत: थे। हमारे मनीषियों ने इसी ढंग से सोचा है।
दिनकर जी महामना और उदार कवि थे। उनसे क्षमा मिल जाने की आशा से इतना तो कहा ही जा सकता है कि भीष्म अपने बम-भोलानाथ गुरु परशुराम से अधिक संतुलित, विचारवान और ज्ञानी थे। पुराने रिकार्ड कुछ ऐसा सोचने को मजबूर करते हैं। फिर भी परशुराम को दस अवतारों में गिन लिया गया और बिचारे भीष्म को ऐसा कोई गौरव नहीं दिया गया। क्या कारण हो सकता है?
एकांत में भीष्म सरकंडों की चटाई पर लेटे-लेटे क्या अपने बारे में सोचते नहीं होंगे ? मेरा मन कहता है कि जरूर सोचते होंगे। भीष्म ने कभी बचपन में पिता की गलत आकांक्षाओं की तृप्ति के लिए भीषण प्रतिज्ञा की थी - वह आजीवन विवाह नहीं करेंगे। अर्थात् इस संभावना को ही नष्ट कर देंगे कि उनके पुत्र होगा और वह या उसकी संतान कुरुवंश के सिंहासन पर दावा करेगी। प्रतिज्ञा सचमुच भीषण थी। कहते हैं कि इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही वह देवदत्त से ‘भीष्म’ बने। यद्यपि चित्रवीर्य और विचित्रवीर्य तक तो ‘कौरव रक्त रह गया था। तथापि बाद में वास्तविक कौरव रक्त समाप्त’ हो गया, केवल कानूनी कौरव वंश चलता रहा। जीवन के अंतिम दिनों में इतिहास मर्मज्ञ भीष्म को यह बात क्यार खली नहीं होगी?
भीष्म को अगर यह बात नहीं खली तो और भी बुरा हुआ। परशुराम चाहे ज्ञान-विज्ञान की जानकारी का बोझ ढोने में भीष्म के समकक्ष न रहे हों, पर सीधी बात को सीधे समझने में निश्चय ही वह उनसे बहुत आगे थे। वह भी ब्रह्मचारी थे- बालब्रह्मचारी। पर भीष्म जब अपने निर्वीर्य भाइयों के लिए कन्याहरण कर लाए और एक कन्या को, अविवाहित रहने को बाध्य, किया, तब उन्हों्ने भीष्म के इस अशोभन कार्य को क्षमा नहीं किया। समझाने बुझाने तक ही नहीं रुके, लड़ाई भी की। पर भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के शब्दों से चिपटे ही रहे। वह भविष्य नहीं देख सके, वह लोककल्यााण को नहीं समझ सके। फलत: अपहृता अपमानित कन्या जल मरी।
नारदजी भी ब्रह्मचारी थे। उन्होंने सत्य के बारे में शब्दों पर चिपटने को नहीं, सबके हित या कल्याण को अधिक जरूरी समझा था - ‘सत्यस्य वचनं श्रेय: सत्या दपि हितं वदेत।’
भीष्म ने दूसरे पक्ष की उपेक्षा की थी। वह ‘सत्यस्यं वचनम’ को ‘हित’ से अधिक महत्व दे गए। श्रीकृष्ण ने ठीक इससे उलटा आचरण किया। प्रतिज्ञा में ‘सत्यम वचनम’ की अपेक्षा ‘हितम’ को अधिक महत्व दिया। क्याि भारतीय सामूहिक चित्त ने भी उन्हें पूर्वावतार मानकर इसी पक्ष को अपना मौन समर्थन दिया है? एक बार गलत-सही जो कह दिया, उसी से चिपट जाना ‘भीषण’ हो सकता है, हितकर नहीं। भीष्म ने ‘भीषण’ को ही चुना था।
भीष्म और द्रोण भी, द्रोपदी का अपमान देखकर भी क्यों चुप रह गए ? द्रोण गरीब अध्यापक थे, बाल बच्चेंवाले थे। गरीब ऐसे कि गाय भी नहीं पाल सकते थे। विचारी ब्राह्मणी को चावल का पानी देकर दूध माँगनेवाले बच्चे को फुसलाना पड़ा था। उसी अवस्थार में फिर लौट जाने का साहस कम लोगों में होता है, पर भीष्म तो पितामह थे। उन्हें बाल-बच्चे की फिक्र भी नहीं थी, भीष्म को क्यों परवा थी। एक कल्पना यह की जा सकती है कि महाभारत की कहानी जिस रूप में प्राप्त है, वह उसका बाद का परिवर्तित रूप है। शायद पूरी कहानी जैसी थी, वैसी नहीं मिली है। लेकिन आजकल के लोगों को आप जो चाहे कह लें, पुराने इतिहासकार इतना गिरे हुए नहीं होंगे कि पूरा इतिहास ही उलट दें। सो, इस कल्पाना से भी भीष्म की चुप्पी समझ में नहीं आती। इतना सच जान पड़ता है कि भीष्म में कर्तव्य-अकर्तव्य के निर्णय में कहीं कोई कमजोरी थी। वह उचित अवसर पर उचित निर्णय नहीं ले पाते थे। यद्यपि वह जानते बहुत थे, तथापि कुछ निर्णय नहीं ले पाते थे। उन्हें अवतार न मानना ठीक ही हुआ। आजकल भी ऐसे विद्वान मिल जाएँगे, जो जानते बहुत हैं, करते कुछ भी नहीं। करने वाला इतिहास निर्माता होता है, सिर्फ सोचते रहने वाला इतिहास के भयंकर रथचक्र के नीचे पिस जाता है। इतिहास का रथ वह हाँकता है, जो सोचता है और सोचे को करता भी है।
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