कबीर
निगुर्ण मार्ग में कबीर कीे सबसे महत्वपूर्ण देन है- भक्ति का प्रेम मूलत: भक्तियोग है। कबीरदास हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवियों में हैं वह तत्व की बात कहने वाले कवि माने जाते हैं। कबीर का काव्य हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि है। ‘कबीर चरित्र बोध’ का निम्नलिखित दोहा कबीर पंथियों में विषेष प्रचलित है-
चौदह सौ पचपन साल गए,चन्द्रकार एक ठाट ठए।
जेठ सुदी बरसाइत को, पूरनमासी प्रकट भए।।
घन गरजे दामिनि दकमे,बूंँदे बरसें झर लाग गए।
लहर तालाब में कमल खिलिहैं तहँ कबीर भानु परकास भए।
इसी दोहे के आधार पर अधिकांष विद्वान कबीर का जन्म जेष्ठ मास संवत् 1455 मानतेे हैं। इसी तरह मृत्युकाल के संबंध में भी एक दोहा मान्य है-
संवत् पन्द्रह सौ पछत्तर,किए मगहर को गौन।
माघ सुदी एकादसी,रलो पौन में पौन।।
कबीर की जाति जुलाहा है। नीमा और नीरू ने उनका पालन पोषण किया था। कबीर कहते हैं- ‘तू बाम्हन मैं कासी का जुलहा,बुझउ मोर गियाना।’ इसी तरह अन्य स्थान पर कहा- कहत कबीर कर गह तोरी,सूतहि सूत मिलाए कोरी।। अथवा जाति जुलाहा नाम कबीरा। बन बन फिरौं उदासी।। कबीर की पत्नी का नाम ‘लोई था। कबीर का पुत्र कमाल था। उसे सांसारिकता में डूबे देख कबीर निराष हैं -
बूड़ा बंस कबीर का,उपजियो पूत कमाल।
हरि का सुमिरन छांडि़ के,भरि लै आया माल।
उनकी पुत्री का नाम कमली था। कबीर के गुरु रामानन्द थे। कबीर की षिक्षा के संबंध में उन्हीं का कथन है- मसि कागद छुओ नहिं, कलम धरी नहिं हाथ।’ किन्तु षिक्षा देष-विदेष में पर्यटन एवं सत्संगों द्वारा प्राप्त,वह बहुश्रुत थे।
कबीर के समय भारतवर्ष पर इस्लामी देषों के अनेक आक्रमण हो चुके थे, और मुहम्मद गोरी के पष्चात हिन्दू राज-सत्ता छिन्न-भिन्न हो गई थी। हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के सामने युद्ध रत खड़े रहते थे। डॉ पीताम्बर दास बड़थ्वाल ने लिखा है- ‘‘15वी षताब्दी में भारत आध्यात्मिकता की धारा निर्गुण सम्प्रदाय में होकर प्रवाहित हुई। आध्यात्म चिन्तन धारा को यह गहन एवं नवीन स्वरूप प्रदान करने के मूल में राजनीतिक सामाजिक,धार्मिक तथा अन्य कारण थे। इस प्रकार कबीर,नानक,दादू,प्राणनाथ,मलूकदास,पलटू,साहिब आदि सन्तों द्वारा प्रवर्तित निर्गुण सम्प्रदाय द्वारा तत्कलीन युग की आवष्यकाओं की पूर्ति हुई।’’
कबीर के अनुसार समाज में व्यक्ति का स्वरूप वीभत्स हो गया था। घमण्ड, मिथ्याभिमान,दुराचार,पाखण्ड,पारस्परिक अविष्वास,विषयवासना आदि के कारण सब दु:खी थे। निर्धन वर्ग सर्वथा उपक्षित था।-
निर्धन आदर कोई न देई। लाख जतन करै ओहिचित न घरेई।
जो निरधन सरधन कै जाई। आगे बैठा पीठ फिराई।
गरीबों का जीवन दूभर हो गया था- नित उठि कोरी गागरिया लै लीपत जनम गयो- इत्यादि।
कबीर के समय प्रमुख रूप से निम्न विचार धाराएँ चल रही थी-1. मुसलमानी एकेष्वरवाद धारा जिसको षासन का सहयोग और राज्य का आश्रय प्राप्त था।
2. सूफी प्रेमानुयायी धारा 3.नाथों की हठयोगी-धारा 4. सहजयोगी निर्गुण मत की ज्ञानाश्रयी धारा 5. वैष्णव भक्ति की धारा 6. षैव और षाक्तों के तंत्राचार की धारा।
कबीर के ऊपर लगभग सभी तत्कालीन विचार धाराओं का प्रभाव रहा।
’’कबीर का ज्ञान पक्ष तो रहस्य और ग्राह्य की भावना से विकृत मिलेगा पर सूफियों से जो प्रेम तत्व उन्होंने लिया,वह सूफियों के यहाँ चाहे कामवासना ग्रस्त हो,पर निर्गुण पंथ में अविकृत रहा’’ - आचार्य रामचन्द्र षुक्ल।
डॉ हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि,‘‘कबीरदास का अवधूत नाथपंथी सिद्ध योगी है।.....कबीर दास के मत से ‘नाथ’ ...परब्रह्म है। नाथ पंथी द्वैताद्वैत विलक्षणतम तत्ववाद का समर्थन करते हैं। कबीर का इनसे सीधा सम्बन्ध है।’’
‘‘कबीर की साधना भक्ति की साधना है। कबीर ज्ञानी भक्त हैं। उनका सहजयोग और कुछ नहीं राम नाम की ही साधना है।’’ -आचार्य रामचन्द्र षुक्ल।
कबीर सभी मतों के सार तत्व को ग्रहण करते हैं। वे कहते हैं-
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय ।
सार सार को गहि रहे थोथा देय उड़ाय।।
कबीर हिन्दू और मुसलमान दोनों के बीच कोई भेद नहीं मानते इसलिए दोनों के बीच फैले बाह्याडम्बर का उन्होंने विरोध किय। वे कहते हैं-‘जो तू बाह्मन ब्राह्मनि जाया,आन राह ह्वै क्यों नहीं आया।’ आगे कहते हैं-’एक जोति से सब जब उतपना,का बामन का सूद्रा।’ मुसलमानों पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं- ’दिन में रोजा रखत है रात हनत हैं गाय। यह तो खून वह बन्दगी कैसे खुषी खुदाय।’’ अजान और हज,काबा,रोजा,नमाज,अजान,सुनीति,मसीति आदि की ओर तर्क पूर्ण व्यवहार करने की बात कहीं। ‘‘कंकड़ पत्थर जोरि कर मस्जिद लई बनाय। ता चढि़ मुल्ल बाँग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।
सूफीमत और कबीर- सूफियों के प्रेमवाद की मुख्य विषेषताएंँ इस प्रकार हैं- 1.इनकी भक्ति भावना का स्वरूप भारतीय माधुर्य प्रधान भक्ति-भावना के समान है। सूफी मत में साधक स्वयं को पुरुष और परमात्मा को नारी मानकर चलता है,जबकि भारतीय पद्धति इसके विपरीत है। कबीर ने भारतीय पद्धति का आलम्बन किया है पर सूफी प्रेम पद्धति को अपनाया। भारतीय प्रेम पद्धति में व्यक्ति विषेष की आराधना वर्जित है,जबकि सूफी इसे (इष्के मिजाजी) परमात्मा के प्रति प्रेम (इष्के हकीकी) का प्रथम सोपान मानते हैं। भारतीय पद्धति में प्रेम में श्रद्धा का समावेष आवष्यक है वह ‘भक्ति’ की कोटि तक पहुँच जाता है। सूफी प्रकृति में अपने प्रियतम की झलक देखते हैं। कबीर ने भी ऐसा किया है।
सूफियों के नियोग में उग्रभागों की प्रधानता रहती है, वहाँ तड़प और हाहाकार का प्राधान्य रहता है। कबीर भारतीय पद्धति के अनुसार षांँत एवं स्थिर बने रहते हैं। फिर भी सूफियों के प्रेमवाद का कबीर पर प्रभाव है- ‘‘कबीर बादल प्रेम का,हम पर बरसा आइ। अन्तर भीगी आत्मा,हरी भई बनराइ।’’
यद्यपि सुफियों की पारिभाषिक षब्दावली का जो प्रयोग कबीर ने किया है उससे कोई गम्भीर निष्कर्ष निकालना एक कठिन कार्य है।
कबीर का मतवाद- 1. करणी और कथनी की एकता पर विषेष बल। 2. चित्त और मन की षुद्धता। 3. साधका को सारग्राही होना चाहिए। 4.कबीर ने ‘मध्यमार्ग’ की प्रतिष्ठा की। कबीर ने द्वैत और अद्वैत, लोकमार्ग और पण्डित मार्ग,हिन्दू और मुसलामान,सुख और दुख के बीच का मार्ग खोजा। 5. समस्त बाह्याचार व्यर्थ हैं,इनका आतरिक साधना से कोई सम्बन्ध नहीं है। 6.ईष्वर पर पूरा समर्पण। 7.कामिनी कंचन का त्याग। 8.कबीर ज्ञानी भक्त थे उन्होंने ईष्वर की अनन्य भक्ति का उपदेष दिया है। इनके ‘मतवाद’ से षुद्ध स्नेह या भक्ति की प्राप्ति ही जीवन का चरम फल होना चाहिए। 9.कबीर को अवतार की भावना स्वीकार नहीं किन्तु राम-नाम की महिमा पर सर्वाधिक जोर दिया है। 10.गुरु का महत्व, यथा- जाके मन विष्वास है,सदा गुरु है संग। कोटि काल झकझोरहीं,तऊ न हो चित भंग।
कबीर का ब्रह्म निगुर्ण है-इस भावना के अनुरूप उनका ब्रह्म ‘गुनप्रतीत’, ‘गुणबिहून’,‘निरगुन’,‘निराकार’ है- ‘अलख निरंजन लखै न कोई। निरभै निराकार है सोई।। सुनि अस्थूल रूप नहिं रेखा। दृष्टि अदृष्टि छिप्यो नहिं रेखा। कबीर ने जिस ब्रह्म का निरूपन किया वह वेदान्त का ब्रह्म है। उनकी राम भावना भारतीय ब्रह्म भावना के निकट है। वे कहते हैं- राम गुन न्यारो न्यारे। अबुझा लोग कहाँ ते बूझै,बूझनहार बिचारो।
कुल मिलाकर कबीर की साधना निर्गुण है जिसमें निम्न तत्व पाये जाते हैं - ईष्वर को निर्गुण माना। समाज में आपसी भाई-चारे की बात की। बाह्याडम्बर का विरोध किया। गुरु की महिमा का प्रतिपादन। ईष्वर के प्रति माधुर्य भाव की व्यंजना। विरह की मार्मिक अनुभूति। वैष्णवी अहिंसा का प्रभाव। लौकिक प्रेम की अपेक्षा पारलौकिक प्रेम पर जोर।
भक्ती द्राविड़ ऊपजी लाए रामानन्द।
परगट किया कबीर ने,सप्त दीप-नवखण्ड।
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