14 सितम्बर को हिन्दी दिवस क्यों मनाते हैं?
हिन्दी दिवस एक बार फिर हमारे सम्मुख है। हम हिन्दी दिवस मनाने की बात करते हैं, क्यों? हिन्दी तो एक शाश्वत भाषा है। उसका कोई जन्म दिन कैसे हो सकता है? परन्तु 14 सितम्बर यह याद दिलाता है कि स्वतंत्रता के बाद हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिलाने के लिए संविधान सभा में जमकर बहस हुई थी और मजे की बात यह थी कि हिन्दी के पक्षधर भी अपने तर्क अंग्रेजी में दे रहे थे।
संविधान सभा में हिन्दी को लेकर 12 सितम्बर,1949 को 4 बजे सायं से बहस शुरु हुई और 14 सितम्बर, 1949 को समाप्त हुई। बहस प्रारंभ होने के पहले संविधान सभा के अध्यक्ष और देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अंग्रेजी में एक संक्षिप्त भाषण दिया जिसमें उन्होंने कहा भाषा को लेकर संविधान सभा के निर्णय को सभी को मान्य करना चाहिए। भाषा संबंधी अनुच्छेदों पर उन्हें लगभग तीन सौ या उससे अधिक संशोधन मिले। 14सितम्बर सायं बहस के बाद संविधान का तत्कालीन भाग 14 (क) और वर्तमान भाग 17 संविधान का भाग बन गया। तब राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने कहा, अंग्रेजी के स्थान पर हमने एक भारतीय भाषा को अपनाया है। इससे हमारे संबंध घनिष्ट होंगे क्योंकि हमारी परंपराएँ, सभ्यताएं और संस्कृति एक हैं। यदि हम इस भाषा को स्वीकार नहीं करते तो इस देश में बहुत सी भाषाओं का प्रयोग होता और वे प्रांत पृथक हो जाते और वे फिर किसी एक भाषा को स्वीकार नहीं करते।’
इस प्रकार 14 सितम्बर भारतीय इतिहास में हिन्दी दिवस के रूप में दर्ज हो गया। संवैधानिक दृष्टि से भारत की राजभाषा हिन्दी और सह राजभाषा अंग्रेजी है किन्तु व्यवहार में हिन्दी की स्थिति विचारणीय है।
13 सितम्बर 1949 को प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भाषा संबंधी बहस में भाग लेते हुए कहा था,- किसी विदेशी भाषा से राष्ट्र महान नहीं बन सकता। क्योंकि कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं बन सकती। भारत के हित में, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, एक ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्मविश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिन्दी को अपनाना चाहिए।
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बहस में भाग लेते हुए हिन्दी भाषा और देवनागरी को राजभाषा के रूप में सर्मथन किया और भारतीय अंकों के अन्तर्राष्ट्रीय अंकों को मान्यता देने के लिए अपील की। उन्होंने निर्णय को एतिहासिक बताते हुए कहा-‘‘इस अवसर के अनुरूप निर्णय करंे और अपनी मातृभूमि में राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में वास्तविक योग दें।’’ उन्होंने कहा कि अनेकता में एकता ही भारतीय जीवन की विशेषता रही है। उन्होंने कहा कि हम हिन्दी को इसलिए स्वीकार कर रहे हैं कि इस भाषा के बोलनेवालों की संख्या अन्य किसी भाषा के बोलने बालों की संख्या से अधिक है- उस समय लगभग 32 करोड़ में से 14 करोड़ (सन् 1949 में) लोग हिन्दी भाषा-भाषी थे। उन्होंने अपने भाषण में बल दिया कि अंग्रेजी को हमें ‘उत्तरोत्तर हटाते जाना होगा’। उन्होंने कहा,-‘‘स्वतंत्र भारत के लोगों के प्रतिनिधियों का कर्तव्य होगा कि वे इस संबंध में निर्णय करें कि हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को उत्तरोत्तर किस प्रकार प्रयोग में लाया जाय और अंग्रेजी को किस प्रकार त्यागा जाए।’’
हिन्दी की बिडंबना है कि हिन्दी तो केवल उन लोगों की कार्यभाषा है जिनको या तो अंग्रेजी आती नहीं या फिर कुछ पढ़े लिखे लोग जिनको हिन्दी से कुछ ज्यादा ही मोह है और ऐसे लोगों को सिरफिरे,पिछड़े या बेवकूफ की संज्ञा से सम्मानित कर दिया जाता है। आज कुछ सरकारी या पूरा गैर सरकारी काम अंग्रेजी में ही होता है। दुकानों वगैरह की नाम पट्टिका, होटलों-रेस्टारेन्टों को तो हमने उनके मीनू (सामनों की सूची) के साथ यथावत स्वीकार कर लिया है। न्यायालय के निर्णय से लेकर अनेक महत्वपूर्ण संसद की बहसे अंग्रेजी में होती हैं जिसे देश का आम नागरिक देख-सुन सकता है पर समझ नहीं सकता। जब कि दुनिया के सभी विकसित राष्ट्रों का काम उनकी अपनी राष्ट्रभाषा में होता है।
बी.बी.सी. के पूर्व संवाददाता मार्कटेली कहते हैं- भारत में अंग्रेजी बनाम हिन्दी का दृश्य है। वे लिखते हैं- दिल्ली में जहाँ मैं रहता हूँ उसके आस-पास अंग्रेजी पुस्तकों की तो दर्जनों दुकाने हैं, हिन्दी की एक भी नहीं। हकीकत तो यह है कि दिल्ली में मुश्किल से ही हिन्दी पुस्तकों की कोई दुकान मिलेगी। टाइम्स आफ इण्डिया समूह के समाचार पत्र नवभारत टाइम्स की प्रसार संख्या कही ज्यादा होने के बावजूद भी विज्ञापन दरें अंग्रेजी अखबारों के मुकाबले अत्यंत कम हैं। वे लिखते हैं कि इसके उल्लेख का कारण है कि हिन्दी दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने बाली पाँच भाषाओं में से एक है। जबकि भारत में बमुश्किल दो या तीन प्रतिशत लोग अंग्रेजी समझते हैं। यही दो-तीन प्रतिशत बाकी भाषा-भाषियों पर अपना प्रभुत्व जमाए हुए है। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी के इस दबदबे का कारण गुलाम मानसिकता तो ही है। साथ ही ज्यादा भारतीय विचार को लगातार दबाना और चंद कुलीनों के आधिपत्य को बरकरार रखना है। अपने अनुभव को लिखते हुए वे कहते हैं कि - इगलैण्ड में मुझसे अक्सर संदेह भरी नजरों से यह सवाल पूछा जाता है कि तुम क्यों भारतीयों को अंग्रेजी के इस वरदान से वंचित करना चाहते हो जो इस समय विज्ञान, कंप्यूटर, प्रकाशन और व्यापार की अन्तर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है? तुम क्यों दंभी-देहाती (स्नाँव नेटिव) बनते जा रहे हो? इन तर्कों के अलावा जो बात मुझे अखरती है वह है, ‘भारतीय भाषाओं के ऊपर अंग्रेजी का विराजमान होना। क्योंकि मेरा यकीन है कि बिना भारतीय भाषाओं के भारतीय संस्कृति जिंदा नहीं रह सकती।’
मार्कटेली कहते हैं,जरा आइये प्रारंभ से विचार करें- सन् 1813 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बीस साल चार्टर का नवीनकरण करते समय साहित्य को पुनर्जीवित करने, यहाँ की जनता के ज्ञान को बढ़ावा देने और विज्ञान को प्रोत्साहन देने के लिए एक निश्चित धनराशि उपलब्ध कराई गई। अंग्रेजी का सम्भवत: सबसे खतरनाक पहलू है अंग्रेजी वालों में कुलीनता या विशिष्टता का दंभ। कोढ़ में खाज का काम अंग्रेजी पढ़ाने का ढंग भी है। पुराना पारंपरिक अंग्रेजी साहित्य अभी भी पढ़ाया जाता है। मेरे भारतीय लेखक मुझे अंग्रेजी साहित्य के ज्ञान से हमें शर्मिंदा कर देते हैं। एन.कृष्णस्वामी और टी.श्रीरामन ने ठीक ही लिखा है कि जो अंग्रेजी जानते हैं उन्हें भारतीय साहित्य की जानकारी नहीं और जो भारतीय साहित्य के पंण्डित है वे अपनी बात अंग्रेजी में नहीं कह सकते। वे कहते हैं कि यदि अंग्रेजी को अपने देश में पढ़ाना ही है तो उसे भारतीय साहित्य समेत विश्व के बाकी साहित्य के साथ जोड़ कर पढऩा चाहिए न कि ब्रिटिश संस्कृति के इकहरे द्वीप से। वे लिखते हैं कि यदि अंग्रेजी भारत में इसी तरह पढ़ाई जाती रही तो भविष्य में पीढिय़ों के हाथ से उनकी भाषा और संस्कृति जबरन छीनना होगा। निश्चित रूप से भारतीय राष्ट्र की इमारत किसी विदेशी भाषा की नींव पर नहीं खड़ी हो सकती। भारत अमरीका और आस्ट्रेलिया की तरह महज भाषाई समूह नहीं है। यह उन भाषाओं की सभ्यता है जिसकी जड़े इतनी गहरी है कि उन्हें सदियों की औपनिवेशिक गुलामी भी नहीं हिला पाई।
डॉ लक्ष्मी मल्ल सिंघवी लिखते हैं-संास्कृतिक दृष्टि से भारत एक पुरातन देश है किन्तु राजनीतिक दृष्टि से एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में भारत का विकास एक नए सिरे से ब्रिटेन के शासनकाल में, स्वतंत्रता-संग्राम के साहचर्य में और राष्ट्रीय स्वाभिमान के नवोन्मेष के सोपान में हुआ। हिन्दी भाषा एवं अन्य प्रादेशिक भारतीय भाषाओं ने राष्ट्रीय स्वाभिमान और स्वतंत्रता-संग्राम के चैतन्य का शंखनाद घर-घर तक पहुँचाया, स्वदेश प्रेम और स्वदेशी भाव की मानसिकता को सांस्कृतिक और राजनीतिक आयाम दिया, नवयुग के नवजागरण को राष्ट्रीय अस्मिता, राष्ट्रीय अभिव्यक्ति और राष्ट्रीय स्वशासन के साथ अंतरंग और अविच्छिन्न रूप से जोड़ दिया।
संघ की भाषा हिन्दी- संविधान सभा की भाषा विषयक बहस लगभग 278 पृष्ठों में मुद्रित हुई है। भाषा विषयक समझौते की बातचीम में डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और श्री गोपाल स्वामी आयंगार की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही। अंग्रेजी को 15 वर्ष या उससे अधिक अवधि तक प्रयोग करते रहने के बारे में बड़ी लंबी-चौड़ी गरमा-गरम बहस हुई अंत में आंयगर-मुंशी फार्मूला भारी बहुमत से स्वीकार हुआ। वास्तव में अंकों को छोडक़र संघ की राजभाषा के प्रश्र पर अधिकांश सदस्य सहमत हो गए। अंकों के बारे में सभी का तर्क था कि अंक भारतीय अंकों का ही एक अन्तर्राष्ट्रीय नया संस्करण है।
पन्द्रह वर्ष 1966 में समाप्त होने वाला था उससे पूर्व ही संसद में उसे अनिश्चित काल तक बढ़ाने का प्रस्ताव पेश हुआ। स्व. लालबहादुर शास्त्री और पंण्डित नेहरू को यह कार्य सौपा गया। कुछ सदस्य बहिष्कार कर गये। बाद में शास्त्री जी ने कहा- ‘आप सब की बात मैं समझता हूँ, सहमत भी हूँ किन्तु लाचारी है, आप इस लाचारी को भी तो समझिये।’ और उस लाचारी का परिणाम है कि हिन्दी नाम की राजभाषा है वास्तविक राजभाषा अंग्रेजी बन कर बैठ चुकी है। वस्तुत: यह हमारी कमजोरी रही है। आयंगार जी ने उसी समय कह दिया था कि लंबे समय तक उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियाँ, अंग्रेजी भाषा में होंगी, अध्यादेशों, विधेयकों तथा अधिनियमों के प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी भाषा में ही होंगे।
यद्यपि इधर हिन्दी में संसद में भाषण देने वालों की संख्या बढ़ी है, कुछ निर्णय भी हिन्दी में न्यायालयों में आने लगे हैं तथापि स्थिति अच्छी नहीं है। जब संविधान पारित हुआ तब आशा जगी कि हिन्दी सम्पर्क भाषा के रूप को प्राप्त करेगी और धीरे-धीरे राष्ट्रभाषा बनेगी। संविधान के अनुच्छेद 350 में निर्दिष्ट है कि किसी शिकायत के निवारण के लिए प्रत्येक व्यक्ति संघ या राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को संघ में या राज्य में प्रयोग होनेवाली किसी भी भाषा में प्रतिवेदन देने का अधिकार होगा। 1956 में अनुच्छेद 350 (क) संविधान में यह व्यवस्था दी गई कि प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था किया जाय। अनुच्छेद 344 में राजभाषा के संबंध में आयोग और संसद की समिति गठित करने का निर्देश दिया गया जिसका प्रयोजन था कि संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी अधिकाधिक प्रयोग हो, राजभाषा का प्रयोग बढ़े। अनुच्छेद 351 में दिया गया है कि-संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके एवं उसका शब्द भंडार समृद्ध और संवर्धित हो।
हिन्दी के विषय में लगता है कि संविधान के संकल्पों का निष्कर्ष कहीं खो गया है। प्रश्र उठता है कि हमने संविधान के सपने को साकार करने के लिए क्या किया? अंग्रेजी भाषा की मानसिकता हम और हमारी युवा-किशोर पीढिय़ों पर इतनी हावी हो चुकी है कि हमारी अपनी भाषाओं की अस्मिता और भविष्य संकट में है? शिक्षा, व्यापार, व्यवहार, संसदीय, प्रशासकीय, न्यायायिक प्रक्रियाओं में हिन्दी गायब होती जा रही है। 1949 से लेकर आज तक में हमने राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की यह घोषणा साकार नहीं कर पाए-
है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी भरी।
हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी।।
भारतेन्दु ने कहा- ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।।’
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा- ‘‘ जिस हिन्दी भाषा के खेत में ऐसी सुनहरी फसल फली है, वह भाषा भले ही कुछ दिन यों ही पड़ी रहे, तो भी उसकी स्वाभाविक उर्वरता नहीं मर सकती, वहाँ फिर खेती के सुदिन आएँगे और पौष मास में नवान्न उत्सव होगा।’’
कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने कहा था- ‘‘हिन्दी ही हमारे राष्ट्रीय एकीकरण का सबसे शक्तिशाली और प्रधान माध्यम है। यह किसी प्रदेश या क्षेत्र की भाषा नहीं, बल्कि समस्त भारत की भारती के रूप में ग्रहण की जानी चाहिए।’’
नेता जी सुभाषचन्द्र बोस ने यहा घोषणा की थी कि ‘‘हिन्दी के विरोध का कोई भी आंदोलन राष्ट्र की प्रगति में बाधक है।’’
भागलपुर में महामना पंडित मदनमोहन मालवीय का हिन्दी भाषण सुन कर गांघी जी ने कहा था- ‘पडित जी का अंग्रेजी भाषण चाँदी की तरह चमकता हुआ कहा जा सकता है, किन्तु उनका हिन्दी भाषण इस तरह चमका है कि जैसे मानसरोवर से निकलती हुई गंगा का प्रवाह सूर्य की किरणों से सोने की तरह चमकता है।’
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जिन्होंने राजभाषा के रूप में हिन्दी का एक समय विरोध किया था सन् 1956-57 में यह माना कि हिन्दी भारत के बहुमत की भाषा है और राष्ट्रीय भाषा होने का दावा कर सकती है और भविष्य में हिन्दी का राष्ट्रभाषा होना निश्चित है।
कविवर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जिनका 14 सितम्बर जन्म दिन भी है, गंगाशरण सिंह, शंकरदयाल सिंह आदि का हिन्दी के प्रति योगदान अविस्मरणीय है।
खुसरों ने कहा था- ‘‘ मैं हिन्दी की तूती हँू, तुम्हें मुझसे कुछ पूछना हो तो हिन्दी में पूछो, तब मैं तुम्हें सब कुछ बता दूँगा। ’’
डॉ वेद प्रकाश वैदिक कहते हैं- मेरे पासपोर्ट पर भारत एक मात्र ऐसा देश है जिसका छापा उसकी अपनी जबान में नहीं है। मैंने करीब-करीब आधा से अधिक दर्जन देशों की हवाई कम्पनियों पर यात्राएं की किन्तु भारत की परिचारिकाओं को छोडक़र किसी भी देश की विमान परिचारिकाएँ अपनी मातृभाषा के अलावा अन्य भाषा में नहीं बोलती। वे आगे लिखते हैं- मैं चेकोस्लोवेकिया के प्रसिद्ध जन नेता और संसद अध्यक्ष डॉ स्मरकोवस्की से मिलने गया तो उनके विदेश मंत्रालय ने एक ऐसा दुभाषिया भेजा जो अंग्रेजी से चेक में अनुवाद करता था, मैने कहा, ‘‘मै भारतीय हँू, मेरे लिए अंग्रेजी वाला दुभाषिया क्यों भेजा? उनका उत्तर था, ‘‘आपके देश से आने वाले विद्वान नेता और कूटनीतिज्ञ अंग्रेजी का ही प्रयोग करते हैं।’’
विश्व में पांच से छ: मिलियन लोग हिन्दी भाषी हैं। भारत में नई पश्चिमी तकनीकि हिन्दी के लिए खतरा है। चलित दूरभाष और अन्तरताने की लिपि देवनागरी न होकर रोमन हो गई है जो हिन्दी के लिए खतरा है। कुछ अध्ययनों के अनुसार दुनिया में 2013 के अंत तक भारत दुनिया के मोबाइल अर्थात चलित दूरभाष का इस्तेमाल करनेवालों में तीसरा सबसे बड़ा देश होगा। काशी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर राधेश्याम दुबे ने इन्टरनेट के बढ़ते इस्तेमाल से हिन्दी की देवनागरी लिपि को खतरा बताया है।
भारतीय जनसंचार संस्थान के प्रोफेसर आनन्द प्रधान का मानना है कि हिन्दी पर अंग्रेजी के दबदबे की मुख्य वजह आम लोगों के भीतर ‘भाषा का गौरव’ न होना है। अंग्रेजी ऐसी भ्रामक करेंसी बन गई है जो नौकरी देती है।
आठवें विश्व हिन्दी संम्मेलन में पारित कुछ मन्तव्य-
1. विदशों में हिन्दी शिक्षण और देवनागरी लिपि को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से दूसरी भाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण के लिए एक मानक पाठ्यक्रम बनाया जाए तथा हिन्दी के शिक्षकों को मान्यता प्रदान करने की व्यवस्था की जाय।
2. विश्व हिन्दी सचिवालय के कामकाज को सक्रिय एवं उदे्दश्य परक बनाने के लिए सचिवालय को भारत तथा मारीशस सरकार सभी प्रकार की प्रशासनिक एवं आर्थिक सहायता दे। अन्य देशों में सचिवालय के क्षेत्रीय कार्यालय खोले जाए।
3. हिन्दी ज्ञान-विज्ञान, प्राद्योगिकी एवं तकनीकी विषयों पर सरल एवं उपयोगी हिन्दी पुस्तकों के सृजन को प्रोत्साहित किया जाए। एक सर्वमान्य यूनीकोड को विकसित कर सर्वसुलभ बनाया जाय।
आइये हम भी संकल्प करें
क कि हम हस्ताक्षर अपनी मातृभाषा में करेंगे।
क घर, कार्यालय, दुकान में नाम पट्टिका अपनी मातृभाषा में बनवायेंगे।
क कभी भी लिखने बोलने में अपने देश का नाम भारत ही प्रयोग करेंगे।
क अपने व्यक्तिगत पत्र,पारिवारिक कार्यक्रमों के निमंत्रण-पत्र, आवेदन आदि मातृभाषा में ही लिखेंगे।
क भारतीय तिथियों, महीनों का प्रयोग अपने दैनिक जीवन में करेंगे।
कथन
1. ‘‘हिन्दी अपनी बहनों में सबसे प्राचीनतम और बड़ी बहिन है।’’ महामना मदनमोहन मालवीय, सभापति-प्रथम अधिवेशन,काशी,सं 1967
2. ‘मेधिका नख रंजनी’ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल मेंहदी को यवनों द्वारा लाई गई वस्तु मानते थे। किन्तु जब उन्होंने अपने गुरु केशव प्रसाद मिश्र से पूछा तो उन्होंने कहा,‘मेहदी को संस्कृत में मेधिका नख रंजनी कहते हैं, मैंने किसी ग्रंथ में पढ़ा है।’ मेहदी के उस जंगल का नाम ‘मंधिकाटवी’ रखा गया है जो मिर्जापुर के पास है।
3. ‘‘मातृभाषा की यथोचित उन्नति के साथ ही अपनी और अपने देश की दशा को सहज सुधार सकते हैं।’’ - पं. गोविन्द नारायण मिश्र, सभापति-द्वितीय अधिकवेशन,प्रयाग,सं.1968
4. ‘‘मातृभाषा हिन्दी की यथाशक्ति सेवा और भक्ति आराधना करना हमारा परम कर्तव्य है।’’- पं. गोविन्द नारायण मिश्र, सभापति-द्वितीय अधिकवेशन,प्रयाग,सं.1968
5. ‘‘जब तक अपनी मातृभाषा का आदर और सम्मान करना न सीखेंगे तब तक इसकी दुर्दशा का कभी अन्त न होगा।’’- पं. गोविन्द नारायण मिश्र,सभापति-द्वितीय अधिकवेशन,प्रयाग,सं.1968
6. ‘‘सर्व प्रथम आपको अपने प्रदेश के राज कार्यालयों में अपनी भाषा को प्रवेश को उद्योग करना चाहिए।’’- बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ सभापति-तृतीय अधिवेशन, कलकत्ता, सं.1969
7. ‘‘जब तक आपकी भाषा की पूछ न होगी, उसका कोई ग्राहक न होगा, क्यों कोई उसकी योग्यता बढ़ाने के व्यर्थ श्रम करेगा। ’’- बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ सभापति-तृतीय अधिवेशन, कलकत्ता, सं.1969
8. ‘‘भाषा को सरल बनायें और उसमें भाषापन लाएँ।’’ बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ सभापति-तृतीय अधिवेशन, कलकत्ता, सं.1969
9. हिन्दी के एक नहीं कोटि लाल हैं, ये यदि अपनी ललाई को बचाना चाहते हैं तो मातृभाषा हिन्दी की तन-मन-धन से सेवा करें।’’- बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ सभापति-तृतीय अधिवेशन, कलकत्ता, सं.1969
10. ‘‘परभाषा के द्वारा विचार उठने से जहाँ सभ्यता विदेशी होगी, वहाँ राष्ट्र भी भारतीय न रहेंगा। - महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) सभापति- चतुर्थ अधिवेशन,भागलपुर, सं.1970
11. ‘‘देवनागरी लिपि का प्रचार भारतवर्ष में ही नहीं वरन् सारे संसार में किया जाना अत्यावश्यक है।’’ - महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) सभापति- चतुर्थ अधिवेशन, भागलपुर, सं.1970
12. ‘‘राष्ट्र का मूल सूत्र राष्ट्रभाषा है। -पं. श्रीधर पाठक, सभापति-पंचम अधिवेशन, लखनऊ, सं. 1971
13. ‘‘सबसे प्रथम गुण, जिसके कारण हिन्दी का स्थान और भाषाओं की अपेक्षा उच्च है, वही उसका अपनी मातामही से घनिष्ट सम्बन्ध है।’’ - बाबू श्यामसुन्दर दास,सभापति-छठा अधिवेशन, प्रयाग, सं.1972
14. ‘‘वही भाषा शक्ति-सम्पन्न और सजीव मानी जाती है जो दूसारी भाषा के शब्दों को ग्रहण कर उन्हें अपने रंग में रंग ले।’’ - बाबू श्यामसुन्दर दास,सभापति- छठा अधिवेशन, प्रयाग, सं.1972
15. ‘‘समाज शिक्षा का मुख्य द्वार देश की प्रचलित भाषा ही हो सकती है।’’- महामहोपाध्याय, पं. रामावतार शर्मा, सभापति- सप्तम अधिवेशन, जबलपुर,सं. 1973
16. ‘‘अपने गुणों से तथा सूर, तुलसी, हरिश्चन्द्र आदि महाकवियों की अपूर्व प्रतिभा से हिन्दी केवल भारत में ही नहीं, द्वीपान्तरों में भी माननीय हो रही है।’’ -महामहोपाध्याय, पं. रामावतार शर्मा, सभापति- सप्तम अधिवेशन, जबलपुर,सं. 1973
17. कोई भी देश सच्चे अर्थों में तब तक स्वतंत्र नहीं है जब तक वह अपनी भाषा में नहीं बोलता।’’ - मोहनदास करमचन्द गाँधी, सभापति- अष्टम अधिवेशन,इन्दोर, सं.1974
18. ‘‘भाषा वही श्रेष्ठ है जिसको जनसमूह सहज में ही समझ ले।’’ - मोहनदास करमचन्द गाँधी, सभापति- अष्टम अधिवेशन,इन्दोर, सं.1974
19. ‘‘यदि भारत को राष्ट्र बनना है तो चाहे कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा तो हिन्दी ही बन सकती है।’’ - मोहनदास करमचन्द गाँधी, सभापति- अष्टम अधिवेशन,इन्दोर, सं.1974
20. ‘‘राष्ट्रीय व्यवहार में हिन्दी को काम में लाना देश की एकता और उन्नति के लिए आवश्यक है।’’- मोहनदास करमचन्द गाँधी, सभापति- अष्टम अधिवेशन,इन्दोर, सं.1974
21. ‘‘विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा की हिमायत करने वाले जनता के दुश्मन हैं।’’ - मोहनदास करमचन्द गाँधी, सभापति- अष्टम अधिवेशन,इन्दोर, सं.1974
22. ‘‘हिन्दी भाषा एक ऐसी सार्वजनिक भाषा है, जिसे सब भेदभाव छोडक़र प्रत्येक भारतीय ग्रहण कर सकता है।’’ - पं.मदनमोहन मालवीय,सभापति-नवम् अधिवेशन,बम्बई, सं.1975
23. ‘‘न्याय उस भाषा में होना चाहिए, जिसका एक-एक शब्द उसकी समझ में आता हो, जिसका कि न्याय हो रहा है।’’- पं.मदनमोहन मालवीय,सभापति-नवम् अधिवेशन,बम्बई, सं.1975
24. ‘‘हिन्दी भाषा को देशव्यापी राष्ट्रभाषा बनाने के लिए जितनी प्रचार की आवश्यकता है उससे कहीं अधिक साहित्य के सम्पूर्ण अंगों की वृद्धि करने की आवश्यकता है।’’ - रायबहादुर पं. विष्णुदत्त शुक्ल, सभापति-दशम अधिवेशन, पटना, सं. 1976
25. ‘‘भाषा भी देश के अनुसार बनती है, इसको बनाने वाली प्रकृति देवी है।’’ - पं. जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी, सभपति-12वाँ अधिवेशन, लाहौर, सं. 1978
26. ‘‘यदि कोई भाषा है, जो भारत के अधिकांश भाग में स्वीकृत हा ेसकेगी, तो वह हिन्दी ही है। ’’ - पं. जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी, सभपति-12वाँ अधिवेशन, लाहौर, सं. 1978
27. ‘‘भाषा हृदय को उत्तेजित करती है, मन की भावनाओं को दृढ़ बनाती है, आत्मा को शुद्ध रखती है।’’ - राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन,सभापति- 13वां अधिवेशन, कानपुर, सं.1979
28. ‘‘नवयुवकों के मस्तिष्क में विदेशी भाषा वह भाव कदापि नहीं उत्पन्न कर सकती, जो उनकी मातृभाषा करती है।’’- राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन,सभापति- 13वां अधिवेशन, कानपुर, सं.1979
29. हिन्दी के द्वारा राष्ट्रीयता की भावना जागी है। - राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन,सभापति- 13वां अधिवेशन, कानपुर, सं.1979
30. भाषा और संस्कृति से खिलवाड़ करने वाले राजनीतिक आते हैं और चले जाते हैं। भारतीय संस्कृति की प्रतीक हिन्दी सदा अमर रहेगी। - राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन, सभापति- 13वां अधिवेशन, कानपुर, सं.1979
31. यदि हम अपनी मातृभाषा को खो बैठें तो निश्चय है हमारी राष्ट्रीयता का भी लोप हो जायगा।- राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन,सभापति- 13वां अधिवेशन, कानपुर, सं.1979
32. बिना अपनी भाषा की नींव दृढ़ किये स्वतंत्रता की नींव नहीं दृढ़ हो सकती।- राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन,सभापति- 13वां अधिवेशन, कानपुर, सं.1979
33. हिन्दी राष्ट्रीयता के मूल को सींचती और उसे दृढ़ करती है।- राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन,सभापति- 13वां अधिवेशन, कानपुर, सं.1979
34. भाषा ही वह खुराक और वह हवा है जिस पर देश के हर एक बच्चे की विचार शक्ति परवरिश पाती है।- राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन,सभापति- 13वां अधिवेशन, कानपुर, सं.1979
35. उर्दू भाषा की प्रकृति आज भी हिन्दी है। व्याकरण उसका आज भी हिन्दी प्रणाली में ढला हुआ है।- महाकवि अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ सभापति-14वां अधिवेशन ,दिल्ली,सं.1980
36. हिन्दी भाषा चाहे उन्नत या अवनत जिस किसी स्थिति में क्यों न हो, एक उसी में ही भारतवर्ष भर की राष्ट्रभाषा होने की गुणावली है। अमृतलाल चक्रवर्ती, सभापति-16वां अधिवेशन, वृन्दावन,सं. 1982
37. एक राष्ट्रभाषा के बिना सर्व भारत का परम कल्याण त्रिकाल में भी नहीं हो सकता। -अमृतलाल चक्रवर्ती, सभापति-16वां अधिवेशन, वृन्दावन,सं. 1982
38. समस्त देश के लिए शिक्षा का माध्यम बनने की पात्रता यदि किसी भाषा में है तो राष्ट्रभाषा हिन्दी में ही है। आचार्य पद्म सिंह शर्मा, सभापति-18वां अधिवेशन, मुजफ्फरपुर,सं.1985
39. हिन्दी का शब्द भण्डार भरने के लिए भी संस्कृत शिक्षा की अत्यन्त आवश्यकता है।- आचार्य पद्म सिंह शर्मा, सभापति-18वां अधिवेशन, मुजफ्फरपुर,सं.1985
40. कोई भी देश मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने बिना सुरक्षित नहीं रह सकता।- आचार्य पद्म सिंह शर्मा, सभापति-18वां अधिवेशन, मुजफ्फरपुर,सं.1985
41. यदि भारत को राष्ट्र बनाना है, तो चाहे कोई माने या न माने, राष्ट्रभाषा तो हिन्दी ही बन सकती है। - महात्मा गाँधी, सभापति-अधिवेशन, वृन्दावन,सं. 1974 एवं 92
42. भाषा जातीय जीवन और उसकी संस्कृति की सर्वप्रधान रक्षिका है, वह उसके शील का दर्पण है और उसके विकास का वैभव है। - गणेश शंकर विद्यार्थी, सभापति-19वां अधिवेशन ,गोरखपुर, सं. 1986
43. एक दिन हिन्दी एशिया में नहीं विश्व की पंचायत में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी।- गणेश शंकर विद्यार्थी, सभापति-19वां अधिवेशन,गोरखपुर, सं. 1986
अन्य सन्दर्भ-
‘किसी ने कहा है कि बुद्धिमान पुरुष काम करने के पहले सोचते हैं, समझदार काम करते समय और मूर्ख काम करने के बाद सोचते हैं।’
1. इस देश में अंग्रेजी को चुनौती देने का काम तीन लोगों ने किया- महर्षि दयानन्द सरस्वती, गुजराती भाषा भाषी, संस्कृत के विद्धान। जिनके शिष्यों ने मारिशस, त्रिनिडाड, ब्रिटिश गुयाना, सूरीनाम,फीजी आदि में हिन्दी पहुँचाई। उनका मानना था कि स्वभाषा के बिना स्वराज अधूरा है।
2. दूसरे मोहनदास करमचन्द गाँधी। ये भी गुजराती थे। गाँधी जी ने कहा- ‘‘भारत के आजाद होने के बाद मैं छ: महीने का समय दूँगा, यदि इन छ: महीनों के बाद संसद में किसी ने अंग्रेजी बोली तो उसको मैं तुरन्त गिरफ्तार करवा दूँगा।’’
3. तीसरे हैं- स्वामी श्रद्धानन्द। मौलिक लेखन और चिन्तन का काम गुरुकुल कांगड़ी में स्वामी श्रद्धानन्द ने 19वीं सदी में गुरुकुल कांगड़ी में किया।
4. अंग्रेजी का बोलबाला ऐसा है कि विदेशी पर्यटक/ राजनायिक पूछते हैं कि क्या आप के देश की कोई भाषा नहीं है?
5. दिल्ली घूमने वाले विदेशी विद्वान कहते हैं कि- साउथ ब्लाक, नार्थ ब्लाक, साउथ एक्टेशन आदि की जगह आपकी भाषा में नाम नहीं हो सकते? यह गुलामी आप के यहाँ क्यों है?
6. अंग्रेजी का अपना कोई व्युत्पत्ति शास्त्र नहीं है। उसमें ग्रीक,जर्मन,फ्रेंच, डच, हिन्दी,संस्कृत भाषाओं के शब्द हैं।
7. अंग्रेजी में कोई ऐसी किताब नहीं लिखी गई जिससे विश्व में कोई महान क्रांति हुई हो।
8. दुनिया में सबसे बड़ा धर्म बौद्ध उसकी पुस्तके पाली में। ईसाइयों की मूल पुस्तक किस भाषा में है?- क्या अंग्रेजी मेँ? क्या ईसा और मूसा अंग्रेजी बोलते थे? बाइबिल की मूल भाषा- हिब्रू है। ईसाई से पुरान धर्म यहूदी की भाषा हिब्र् है।
9. हिन्दी संस्कृति की पुत्री जिसकी एक-एक धातु में एक-एक लाख शब्द बनाने की छमता है। पाणिनी ने संस्कृत में 19 सौ धातुएं खोजी।
10. कुरान शरीफ की भाषा क्या है ? हदीश किस भाषा में हैं तो अरबी या फारसी में।
11. कालमाक्र्स का दासकैपिटल किस भाषा में है तो- जर्मन में। यह ग्रंथ रुस और चीन का आधार ग्रंथ है। न्यूटन ने अपनी किताब किस भाषा में लिखी तो- लैटिन में। वह पुस्तक की भूमिका में लिखता है कि-‘अंग्रेजी कोई भाषा है जिसमें मैं अपनी पुस्तक लिखूँ?’
12. आईस्टीन की भाषा अंग्रेजी नहीं- जर्मन है।
13. फ्रांस में कोई अंग्रेजी बोले तो उसे हेय की दृष्टि से देखा जाता है।
14. महान साहित्यकार वर्नाल्ड सॉ अंग्रेजी के नही- स्काट थे।
15. अंग्रेजी विश्व के साढ़ चार देशों की भाषा- अमरीका, ब्रिटेन,न्यूजीलैण्ड, आस्ट्रेलिया, और आधा कनाडा।
16. काबुल विश्वविद्याल में प्रोफसर को उस्ताद कहा जाता है।
17. मैक्समूलर ने ज्ञान के लिए संस्कृत सीखी।
18. दुर्भाग्य है कि नोवल पुरस्कार विजेता जिनके नाना हिन्दी में ‘समाचार सुधा वाण’ 1854 में हिन्दी में निकाला करते थे नाती अमत्र्यसेन अपनी पुस्तक ‘द आगर््यूमेंटिव इण्डिया’ में अंग्रेजी सुधारने वाले विदेशी स्कालर की प्रशंसा करते हैं।
19. हिन्दी माध्याम से पढ़े छात्र सीधे भातीय प्राचीन परम्परा से जुड़ेगे। हमारे पूर्वजों ने चिकितसा, विध्ाि, वास्तु गणित रसायन, ज्योतिष,भौतिकी आदि के क्षेत्रों में मौलिक उपलब्धियां क्यो विदेशी भाषाओं से प्राप्त की हैं।
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