Tuesday, 13 October 2020

राष्ट्रभाषा हिन्दी : बाधाएँ, चुनौतियाँ और निदान

  राष्ट्रभाषा हिन्दी : बाधाएँ, चुनौतियाँ और निदान

‘‘जब से हमने प्रेम को द्यश1द्ग या इश्क का पर्याय मान लिया, तभी से ‘काम’ शब्द की महत्ता घट गयी। सम्भवत: विवेकवादियों की आदर्श भावना के कारण, इस शब्द मेें केवल स्त्री-पुरुष सम्बन्ध के अर्थ का ही भान होने लगा।’’ -प्रसाद 

आज विदेशी पर्यटक / राजनायिक पूछते हैं कि क्या आप के देश की कोई भाषा नहीं है?दिल्ली घूमने वाले विदेशी विद्वान कहते हैं कि- साउथ ब्लाक, नार्थ ब्लाक, साउथ एक्टेशन आदि की जगह आपकी भाषा में नाम नहीं हो सकते? यह गुलामी आप के यहाँ क्यों है?दुनिया में सबसे बड़ा धर्म बौद्ध उसकी पुस्तकें पाली में। ईसाइयों की मूल पुस्तक किस भाषा में है? क्या ईसा और मूसा अंग्रेजी बोलते थे? नहीं, बाइबिल की मूल भाषा-हिब्रू है। ईसाई से पुराने धर्म यहूदी की भी भाषा हिब्र् है। कुरान शरीफ की भाषा क्या है? हदीश किस भाषा में हैं तो अरबी या फारसी में। कालमाक्र्स का दासकैपिटल किस भाषा में है तो-जर्मन में। यह ग्रंथ रुस और चीन का आधार ग्रंथ है। न्यूटन ने अपनी किताब किस भाषा में लिखी तो-लैटिन में। वह पुस्तक की भूमिका में लिखता है कि-‘अंग्रेजी कोई भाषा है जिसमें मैं अपनी पुस्तक लिखूँ ?’ आईस्टीन की भाषा अंग्रेजी नहीं-जर्मन है। फ्रांस में कोई अंग्रेजी बोले तो उसे हेय की दृष्टि से देखा जाता है। महान साहित्यकार वर्नाल्ड सॉ अंग्रेजी के नहीं, स्काट थे। अंग्रेजी विश्व के साढ़े चार देश- अमरीका, ब्रिटेन-न्यूजीलैण्ड, आस्ट्रेलिया, और आधा कनाडा की भाषा है। काबुल विश्वविद्याल में प्रोफसर को उस्ताद कहा जाता है। मैक्समूलर ने ज्ञान के लिए संस्कृत सीखी। किन्तु हमारी स्थिति क्या है? हमारे भी सारे ग्रंथ संस्कृत में हैं किन्तु दुर्भाग्य है कि नोवल पुरस्कार विजेता जिनके नाना हिन्दी में ‘समाचार सुधा वाण’ 1854 में हिन्दी में निकाला करते थे  उनके नाती अमत्र्यसेन अपनी पुस्तक ‘द आगर््यूमेंटिव इण्डिया’ में अंग्रेजी सुधारने वाले विदेशी स्कालर की प्रशंसा करते हैं। ऐसा क्यों है? विचार करें तो समझ में आता है कि अन्य मतावलम्बियों / राष्ट्रवासियों को अपनी भाषा और उसके गौरव का बोध है, उसके प्रति स्वाभिमान है किन्तु भारतीयों को ? जबकि वास्तविकता यह है कि अपनी राष्ट्रीय भाषा में पढ़े छात्र अपनी परम्परा से जुड़ते हैं। इसीलिए जब हम राष्ट्रभाषा के बारे में विचार करते हैं तो स्पष्ट होता है कि हिन्दी माध्याम से पढ़े छात्र सीधे भारतीय प्राचीन परम्परा से जुड़ेगे। हमारे पूर्वजों ने चिकितसा, विधि, वास्तु, गणित, रसायन, ज्योतिष, भौतिकी आदि के क्षेत्रों में मौलिक उपलब्धियां क्या विदेशी भाषाओं से प्राप्त की हैं? हम भूल गये है कि हिन्दी संस्कृति की पुत्री है जिसकी एक-एक धातु में एक-एक लाख शब्द बनाने की क्षमता है। पाणिनी ने संस्कृत में 19 सौ धातुएं खोजी। तात्पर्य यह कि हिन्दी राष्ट्र के अस्मिता की भाषा है। 

आइये स्वतंत्र देश में इसकी बाधाएं, चुनौतियों का आंकलन करें और निदान को समझें। (यहाँ एक बात पहले स्पष्ट कर दूँ कि यहाँ जिस राष्ट्रभाषा को लेकर चिंता हो रही है वह वस्तुत: राजभाषा है अर्थात् सरकारी कामकाज की भाषा। इस देश में जब परकीय सत्ताएँ आईं तो उनकी अपनी राजकाज की भाषाएँ थीं। मुस्लिम शासकों की राजभाषा फारसी थी तो बाद में अंग्रेजों की अंग्रेजी बनी। तब भी यहाँ एक विशाल सांस्कृतिक राष्ट्र था और उसकी अपनी राष्ट्रभाषा थी जो आज भी है। ) किन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद जुलाई 1945 में ब्रिटेन में एक नयी सरकार बनी। इस नयी सरकार ने भारत संबन्धी अपनी नई नीति की घोषणा की तथा एक संविधान बनाने हेतु समिति का निर्माण किया, जिसे संविधान सभा कहा जाता है। संविधान सभा के सदस्य भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा चुने गए थे। जिनमें पं.जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि प्रमुख सदस्य थे। संविधान सभा में राजभाषा हिन्दी को लेकर 12 सितम्बर, 1949 को 4 बजे सायं से बहस शुरु हुई और 14 सितम्बर, 1949 को  समाप्त हुई। बहस प्रारंभ होने के पहले संविधान सभा के  अध्यक्ष और देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अंग्रेजी में एक संक्षिप्त भाषण दिया जिसमें उन्होंने कहा भाषा को लेकर संविधान सभा के निर्णय को सभी को मान्य करना चाहिए। भाषा संबंधी अनुच्छेदों पर उन्हें लगभग तीन सौ या उससे अधिक संशोधन मिले। 14 सितम्बर सायं बहस के बाद संविधान का तत्कालीन भाग 14 (क) और वर्तमान भाग 17 संविधान का भाग बन गया। तब राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने कहा, अंग्रेजी के स्थान पर हमने एक भारतीय भाषा को अपनाया है। इससे हमारे संबन्ध घनिष्ट होंगे क्योंकि हमारी परंपराएँ, सभ्यताएं और संस्कृति एक हैं। यदि हम इस भाषा को स्वीकार नहीं करते तो इस देश में बहुत सी भाषाओं का प्रयोग होता और वे प्रांत पृथक हो जाते और वे फिर किसी एक भाषा को स्वीकार नहीं करते।’ यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि यह सरकारी कामकाज के लिए संविधान पीठ का निर्णय था।

13 सितम्बर 1949 को प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भाषा संबंधी बहस में भाग लेते हुए कहा था, किसी विदेशी भाषा से राष्ट्र महान नहीं बन सकता। क्योंकि कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं बन सकती। भारत के हित में, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, एक ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्मविश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिन्दी को अपनाना चाहिए। डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बहस में भाग लेते हुए हिन्दी भाषा और देवनागरी को राजभाषा के रूप में सर्मथन किया और भारतीय अंकों के अन्तर्राष्ट्रीय अंकों को मान्यता देने के लिए अपील की। उन्होंने निर्णय को एतिहासिक बताते हुए कहा-‘‘इस अवसर के अनुरूप निर्णय करंे और अपनी मातृभूमि में राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में वास्तविक योग दें। अनेकता में एकता ही भारतीय जीवन की विशेषता रही है। हम हिन्दी को इसलिए स्वीकार कर रहे हैं कि इस भाषा के बोलनेवालों की संख्या अन्य किसी भाषा के बोलने बालों की संख्या से अधिक है- उस समय लगभग 32 करोड़ में से 14 करोड़ (सन् 1949 में) लोग हिन्दी भाषा-भाषी थे।’’ उन्होंने अपने भाषण में बल दिया कि अंग्रेजी को हमें ‘उत्तरोत्तर हटाते जाना होगा’। उन्होंने कहा,-‘‘स्वतंत्र भारत के लोगों के प्रतिनिधियों का कर्तव्य होगा कि वे इस संबंध में निर्णय करें कि हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को उत्तरोत्तर किस प्रकार प्रयोग में लाया जाय और अंग्रेजी को किस प्रकार त्यागा जाए।’’ संविधान सभा की भाषा विषयक बहस लगभग 278 पृष्ठों में मुद्रित हुई है। भाषा विषयक समझौते की बातचीत में डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और श्री गोपाल स्वामी आयंगार की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही। अंग्रेजी को 15 वर्ष या उससे अधिक अवधि तक प्रयोग करते रहने के बारे में बड़ी लंबी-चौड़ी गरमा-गरम बहस हुई अंत में आंयगर-मुंशी फार्मूला भारी बहुमत से स्वीकार हुआ। वास्तव में अंकों को छोडक़र संघ की राजभाषा के प्रश्र पर अधिकांश सदस्य सहमत हो गए। अंकों के बारे में सभी का तर्क था कि अंक भारतीय अंकों का ही एक अन्तर्राष्ट्रीय नया संस्करण है।

पन्द्रह वर्ष 1966 में समाप्त होने वाला था उससे पूर्व ही संसद में उसे अनिश्चित काल तक बढ़ाने का प्रस्ताव पेश हुआ। स्व. लालबहादुर शास्त्री और पंण्डित नेहरू को यह कार्य सौपा गया। कुछ सदस्य बहिष्कार कर गये। बाद में शास्त्री जी ने कहा- ‘आप सब की बात मैं समझता हूँ, सहमत भी हूँ किन्तु लाचारी है, आप इस लाचारी को भी तो समझिये।’ और उस लाचारी का परिणाम है कि हिन्दी नाम की राजभाषा है वास्तविक राजभाषा अंग्रेजी बन कर बैठ चुकी है। राष्ट्रभाषा आज तक नहीं बन पाई। वस्तुत: यह हमारी कमजोरी रही है। आयंगार जी ने उसी समय कह दिया था कि लंबे समय तक उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियाँ, अंग्रेजी भाषा में होंगी, अध्यादेशों, विधेयकों तथा अधिनियमों के प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी भाषा में ही होंगे। संवैधानिक दृष्टि से भारत की राजभाषा हिन्दी और सह राजभाषा अंग्रेजी है किन्तु व्यवहार में हिन्दी की स्थिति विचारणीय है।

  राष्ट्रभाषा के लिए चुनौती हमारी हीनता बोध है। बी.बी.सी. के पूर्व संवाददाता मार्कटेली लिखते हैं- भारत में अंग्रेजी बनाम हिन्दी का दृश्य है। दिल्ली में जहाँ मैं रहता हूँ उसके आस-पास अंग्रेजी पुस्तकों की तो दर्जनों दुकाने हैं, हिन्दी की एक भी नहीं। हकीकत तो यह है कि दिल्ली में मुश्किल से ही हिन्दी पुस्तकों की कोई दुकान मिलेगी। टाइम्स आफ इण्डिया समूह के समाचार पत्र नवभारत टाइम्स की प्रसार संख्या कही ज्यादा होने के बावजूद भी विज्ञापन दरें अंग्रेजी अखबारों के मुकाबले अत्यंत कम हैं। इसके उल्लेख का कारण है कि हिन्दी दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने बाली पाँच भाषाओं में से एक है। जबकि भारत में बमुश्किल दो या तीन प्रतिशत लोग अंग्रेजी समझते हैं। यही दो-तीन प्रतिशत बाकी भाषा-भाषियों पर अपना प्रभुत्व जमाए हुए है। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी के इस दबदबे का कारण गुलाम मानसिकता तो है ही, उससे ज्यादा भारतीय विचार को लगातार दबाना और चंद कुलीनों के आधिपत्य को बरकरार रखना है। अपने अनुभव को लिखते हुए वे कहते हैं कि, इगलैण्ड में मुझसे अक्सर संदेह भरी नजरों से यह सवाल पूछा जाता है कि तुम क्यों भारतीयों को अंग्रेजी के इस वरदान से वंचित करना चाहते हो जो इस समय विज्ञान, कंप्यूटर, प्रकाशन और व्यापार की अन्तर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है? तुम क्यों दंभी-देहाती बनते जा रहे हो? इन तर्कों के अलावा जो बात मुझे अखरती है वह है, ‘भारतीय भाषाओं के ऊपर अंग्रेजी का विराजमान होना। क्योंकि मेरा यकीन है कि बिना भारतीय भाषाओं के भारतीय संस्कृति जिंदा नहीं रह सकती।’

अंग्रेजी हमारे राष्ट्र भाषा के लिए चुनौती हमारे हीनता बोध के कारण तो हैं ही किन्तु कोढ़ में खाज का काम अंग्रेजी पढ़ाने का ढंग भी है। पुराना पारंपरिक अंग्रेजी साहित्य अभी भी पढ़ाया जाता है। मार्कटुली कहते हैं,मेरे भारतीय लेखक मुझे अंग्रेजी साहित्य के ज्ञान से हमें शर्मिंदा कर देते हैं। एन. कृष्णस्वामी और टी.श्रीरामन ने ठीक ही लिखा है कि जो अंग्रेजी जानते हैं उन्हें भारतीय साहित्य की जानकारी नहीं और जो भारतीय साहित्य के पंण्डित है वे अपनी बात अंग्रेजी में नहीं कह सकते। वे कहते हैं कि यदि अंग्रेजी को अपने देश में पढ़ाना ही है तो उसे भारतीय साहित्य समेत विश्व के बाकी साहित्य के साथ जोड़ कर पढऩा चाहिए न कि ब्रिटिश संस्कृति के इकहरे द्वीप से। वे लिखते हैं कि यदि अंग्रेजी भारत में इसी तरह पढ़ाई जाती रही तो भविष्य में पीढिय़ों के हाथ से उनकी भाषा और संस्कृति जबरन छीनना होगा। निश्चित रूप से भारतीय राष्ट्र की इमारत किसी विदेशी भाषा की नींव पर नहीं खड़ी हो सकती। भारत अमरीका और आस्ट्रेलिया की तरह महज भाषाई समूह नहीं है। यह उन भाषाओं की सभ्यता है जिसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि उन्हें सदियों की औपनिवेशिक गुलामी भी नहीं हिला पाई।

हिन्दी की बिडंबना है कि हिन्दी तो केवल उन लोगों की कार्यभाषा है जिनको या तो अंग्रेजी आती नहीं या फिर कुछ पढ़े लिखे लोग जिनको हिन्दी से कुछ ज्यादा ही मोह है और ऐसे लोगों को सिरफिरे, पिछड़े या बेवकूफ की संज्ञा से सम्मानित कर दिया जाता है। आज कुछ सरकारी या पूरा गैर सरकारी काम अंग्रेजी में ही होता है। दुकानों वगैरह की नाम पट्टिका, होटलों-रेस्टारेन्टों को तो हमने उनके मीनू (सामनों की सूची) के साथ यथावत स्वीकार कर लिया है। न्यायालय के निर्णय से लेकर अनेक महत्त्वपूर्ण संसद की बहसे अंग्रेजी में होती हैं जिसे देश का आम नागरिक देख-सुन सकता है पर समझ नहीं सकता। जब कि दुनिया के सभी विकसित राष्ट्रों का काम उनकी अपनी राष्ट्रभाषा में होता है।

यद्यपि इधर हिन्दी में संसद में भाषण देने वालों की संख्या बढ़ी है, कुछ निर्णय भी हिन्दी में न्यायालयों में आने लगे हैं तथापि स्थिति अच्छी नहीं है। जब संविधान पारित हुआ तब आशा जगी कि हिन्दी सम्पर्क  भाषा के रूप को प्राप्त करेगी और धीरे-धीरे राष्ट्रभाषा बनेगी। संविधान के अनुच्छेद 350 में निर्दिष्ट है कि किसी शिकायत के निवारण के लिए प्रत्येक व्यक्ति संघ या राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को संघ में या राज्य में प्रयोग होनेवाली किसी भी भाषा में प्रतिवेदन देने का अधिकार होगा। 1956 में अनुच्छेद 350 (क) संविधान में यह व्यवस्था दी गई कि प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था किया जाय। अनुच्छेद 344 में राजभाषा के संबंध में आयोग और संसद की समिति गठित करने का निर्देश दिया गया जिसका प्रयोजन था कि संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी अधिकाधिक प्रयोग हो, राजभाषा का प्रयोग बढ़े। अनुच्छेद 351 में दिया गया है कि-संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके एवं उसका शब्द भंडार समृद्ध और संवर्धित हो।

हिन्दी के विषय में लगता है कि संविधान के संकल्पों का निष्कर्ष कहीं खो गया है। प्रश्र उठता है कि हमने संविधान के सपने को साकार करने के लिए क्या किया ? अंग्रेजी भाषा की मानसिकता हम और हमारी युवा-किशोर पीढिय़ों पर इतनी हावी हो चुकी है कि हमारी अपनी भाषाओं की अस्मिता और भविष्य संकट में है?

अब जरा उन सपनों को भी स्मरण कर लें जो हमारे समाने चुनौती बने हुए हैं। जिन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी और देश को लोकतंत्र दिया उनकी मंशा क्या थी? क्या हम उसे पूरा कर पा रहे हैं देखना आवश्यक है। शिक्षा, व्यापार, व्यवहार, संसदीय, प्रशासकीय, न्यायायिक प्रक्रियाओं में हिन्दी गायब होती जा रही है। 1949 से लेकर आज तक में हमने राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की यह घोषणा साकार नहीं कर पाए- ‘है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी भरी। हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी।। भारतेन्दु ने कहा- ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।।’ गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा- ‘‘ जिस हिन्दी भाषा के खेत में ऐसी सुनहरी फसल फली है, वह भाषा भले ही कुछ दिन यों ही पड़ी रहे, तो भी उसकी स्वाभाविक उर्वरता नहीं मर सकती, वहाँ फिर खेती के सुदिन आएँगे और पौष मास में नवान्न उत्सव होगा।’’ कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने कहा था- ‘‘हिन्दी ही हमारे राष्ट्रीय एकीकरण का सबसे शक्तिशाली और प्रधान माध्यम है। यह किसी प्रदेश या क्षेत्र की भाषा नहीं, बल्कि समस्त भारत की भारती के रूप में ग्रहण की जानी चाहिए।’’ नेता जी सुभाषचन्द्र बोस ने यहा घोषणा की थी कि ‘‘हिन्दी के विरोध का कोई भी आंदोलन राष्ट्र की प्रगति में बाधक है।’’ भागलपुर में महामना पंडित मदनमोहन मालवीय का हिन्दी भाषण सुन कर गांघी जी ने कहा था- ‘पडित जी का अंग्रेजी भाषण चाँदी की तरह चमकता हुआ कहा जा सकता है, किन्तु उनका हिन्दी भाषण इस तरह चमका है कि जैसे मानसरोवर से निकलती हुई गंगा का प्रवाह सूर्य की किरणों से सोने की तरह चमकता है।’ चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जिन्होंने राजभाषा के रूप में हिन्दी का एक समय विरोध किया था सन् 1956-57 में यह माना कि हिन्दी भारत के बहुमत की भाषा है और राष्ट्रीय भाषा होने का दावा कर सकती है और भविष्य में हिन्दी का राष्ट्रभाषा होना निश्चित है। खुसरों ने कहा था- ‘‘ मैं हिन्दी की तूती हँू, तुम्हें मुझसे कुछ पूछना हो तो हिन्दी में पूछो, तब मैं तुम्हें सब कुछ बता दूँगा। ’’   सुमित्रानंदन पंत ने लिखा है- ‘‘अपने देश की जनता में, उसके विभिन्न वर्गों और सम्प्रदायों में, एकता स्थापित करने के लिए तथा अपने राष्ट्रीय जीवन को सशक्त, संयुक्त एवं संगठित बनाने के लिए हमें एक भाषा के माघ्यम की नितांत आवश्यकता है, जिसका महत्व किसी भी दूसरे तर्क या विवाद से घटाया नहीं जा सकता। उससे राष्ट्रीय चेतना का स्वर भी मुखरित होता है, राष्ट्रीय एकता भी मजबूत होती है। तात्पर्य यह कि भौतिक दृष्टि से सम्पन्न और मानसिक आत्मिक दृष्टि से अकिंचन मनुष्य संभवत: मनुष्य कहलाने का अधिकरी नहीं हो सकता।’’ समझना होगा कि इस देश में अंग्रेजी को चुनौती देने का काम तीन लोगों ने किया- गुजराती भाषी संस्कृति के विद्वान महर्षि दयानन्द सरस्वती, जिनके शिष्यों ने  मारिशस, त्रिनिडाड, ब्रिटिश गुयाना, सूरीनाम, फीजी आदि में हिन्दी पहुँचाई। उनका मानना था कि स्वभाषा के बिना स्वराज अधूरा है। दूसरे मोहनदास करमचन्द गाँधी। ये भी गुजराती थे। गाँधी जी संकल्प और सपना था, ‘‘भारत के आजाद होने के बाद मैं छ: महीने का समय दूँगा, यदि इन छ: महीनों के बाद संसद में किसी ने अंग्रेजी बोली तो उसको मैं तुरन्त गिरफ्तार करवा दूँगा। यदि भारत को राष्ट्र बनाना है, तो चाहे कोई माने या न माने, राष्ट्रभाषा तो हिन्दी ही बन सकती है। कोई भी देश सच्चे अर्थों में तब तक स्वतंत्र नहीं है जब तक वह अपनी भाषा में नहीं बोलता। विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा की हिमायत करने वाले जनता के दुश्मन हैं।’’ तीसरे हैं, मौलिक लेखन और चिन्तक  स्वामी श्रद्धानन्द जिन्होंने 19वीं सदी में गुरुकुल कांगड़ी महत्वपूर्ण कार्य किया। महामना मदनमोहन मालवीय का मानते हंै, ‘‘हिन्दी अपनी बहनों में सबसे प्राचीनतम और बड़ी बहिन है।’’ पं.गोविन्द नारायण मिश्र, कहते हैं, ‘‘जब तक अपनी मातृभाषा का आदर और सम्मान करना न सीखेंगे तब तक इसकी दुर्दशा का कभी अन्त न होगा।’’ बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ ‘‘सर्व प्रथम आपको अपने प्रदेश के राज कार्यालयों में अपनी भाषा को प्रवेश को उद्योग करना चाहिए। भाषा को सरल बनायें और उसमें भाषापन लाएँ।’’ महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द)  ‘‘परभाषा के द्वारा विचार उठने से जहाँ सभ्यता विदेशी होगी, वहाँ राष्ट्र भी भारतीय न रहेंगा। पं. श्रीधर पाठक कहते हैं, ‘‘राष्ट्र का मूल सूत्र राष्ट्रभाषा है। बाबू श्यामसुन्दर दास जी कहते हैं ‘‘सबसे प्रथम गुण, जिसके कारण हिन्दी का स्थान और भाषाओं की अपेक्षा उच्च है, वही उसका अपनी मातामही से घनिष्ट सम्बन्ध है।’’ राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन, ‘‘यदि हम अपनी मातृभाषा को खो बैठें तो निश्चय है हमारी राष्ट्रीयता का भी लोप हो जायगा। हिन्दी राष्ट्रीयता के मूल को सींचती और उसे दृढ़ करती है। भाषा ही वह खुराक और वह हवा है जिस पर देश के हर एक बच्चे की विचार शक्ति परवरिश पाती है।’’ गणेश शंकर विद्यार्थी, ‘‘भाषा जातीय जीवन और उसकी संस्कृति की सर्वप्रधान रक्षिका है, वह उसके शील का दर्पण है और उसके विकास का वैभव है। एक दिन हिन्दी एशिया में नहीं विश्व की पंचायत में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी।’’ 

यह हमारे अग्रजों का हिन्दी के प्रति अमिट विश्वास है। किन्तु उसका आज रूप कैसा है हम सब एक उदाहरण से समझ सकते हैं, डॉ वेद प्रकाश वैदिक कहते हैं, ‘‘ मेरे पासपोर्ट पर भारत एक मात्र ऐसा देश है जिसका छापा उसकी अपनी जबान में नहीं है। मैंने करीब-करीब आधा से अधिक दर्जन देशों की हवाई कम्पनियों पर यात्राएं की किन्तु भारत की परिचारिकाओं को छोडक़र किसी भी देश की विमान परिचारिकाएँ अपनी मातृभाषा के अलावा अन्य भाषा में नहीं बोलती। वे आगे लिखते हैं-‘‘ मैं चेकोस्लोवेकिया के प्रसिद्ध जन नेता और संसद अध्यक्ष डॉ स्मरकोवस्की से मिलने गया तो उनके विदेश मंत्रालय ने एक ऐसा दुभाषिया भेजा जो अंग्रेजी से चेक में अनुवाद करता था, मैने कहा, ‘मै भारतीय हँू, मेरे लिए अंग्रेजी वाला दुभाषिया क्यों भेजा?’ उनका उत्तर था, ‘आपके देश से आने वाले विद्वान नेता और कूटनीतिज्ञ अंग्रेजी का ही प्रयोग करते हैं।’

राष्ट्रभाषा (राजभाषा) हिन्दी के पथ की बाधाएँ और चुनौतियों को हम इन सब बातों से समझ सकते हैं। समाधान के लिए हमें विचार करना होगा कि हमारे पास आज हिन्दी शिक्षण और देवनागरी लिपि के लिए एक मानक पाठयक्रम नहीं है। विश्व हिन्दी सचिवालय के कामकाज को सक्रिय एवं उदे्दश्य परक बनाने के लिए सचिवालय को भारत तथा मारीशस सरकार सभी प्रकार की प्रशासनिक एवं आर्थिक सहायता तो दे रहा है किन्तु सचिवालय के क्षेत्रीय कार्यालय न होने से प्रचार प्रसार जनसुलभ नहीं है। हिन्दी ज्ञान-विज्ञान, प्राद्योगिकी एवं तकनीकी विषयों पर सरल एवं उपयोगी हिन्दी पुस्तकों की कमी है। भाषा के प्रति स्वाभिमान न होने से हम अपने हस्ताक्षर अपनी भाषा में नहीं करते हैं। हमारे घर, कार्यालय, दुकान में नाम पट्टिका राष्ट्र और राजभाषा में नहीं है। अपने देश का नाम भारत न बोल-लिख कर अभी भी हम इण्डिया पर जोर देते हैं। अपने व्यक्तिगत पत्र, पारिवारिक कार्यक्रमों के निमंत्रण-पत्र, आवेदन आदि राष्ट्रभाषा में नहीं छपते हैं। हम भारतीय तिथियों, महीनों का प्रयोग अपने दैनिक जीवन में नहीं करते। आज संसद से लेकर सडक़ तक लगता है कि ‘अंग्रेजी बिन सब सून’। ऐसा माहौल बना दिया गया है कि अंग्रेजी ही एक ऐसी भाषा है जो रोजगार की गारंटी देती है। संसद और विधान सभाओं में हिन्दी के प्रश्र का उत्तर अंग्रेजी में आता है जबकि संसद में ऐसे अनेक सांसद है जो अंग्रेजी बिलकुल नहीं समझते। उन्हें अनुवादक उपलब्ध कराया जाता है। आखिर भारत की संसद में इतनी हीनताबोध क्यों? आज अमरीका जैसा देश हिन्दी भाषा पर जोर दे रहा है। क्या हमें हमारी पढ़ाई, हमारा विज्ञान अपनी भाषा में नहीं पढऩा चाहिए? हमारी भाषा क्या रोजगार की भाषा नहीं? गांधी ने कहा है ‘ देश में भाषा का माध्यम हिन्दी होना चाहिए। हिन्दी केवल भाषा नहीं अपने स्वाभिमान और संस्कार की भी भाषा है।’ भाषा के हीनताबोध के कारण हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आज ग्लोबलाइजेशन के युग में दुनिया के सभी बड़े उद्योगपतियों का मार्केट हिन्दी है। वह माल अंग्रेजी में बनाता है किन्तु बेचता तो हिन्दी में, कन्नड़ में, असमिया में, गुजराती में है। विश्व में पाँच से छ: मिलियन लोग हिन्दी भाषी हैं। किन्तु हिन्दी पर अंग्रेजी के दबदबे की मुख्य वजह आम लोगों के भीतर ‘भाषा का गौरव’ न होना है और अंग्रेजी का ऐसी भ्रामक करेंसी बन जाना जो नौकरी देती है। अत: आवश्यकता है हमें अपने हीनताबोध को हटाने और भाषा के स्वाभिमान को अपना स्वाभिमान बनाने की। रोजगार और तकनीकी की जो बातें हमारे सामने चुनौती और बाधाएँ हैं, वस्तुत: उन्हीं में हमारा समाधान भी है।  हमें केवल और केवल अपने राष्ट्रबोध प्राप्त महापुरुषों के स्वप्रों को साकार करने का संकल्प लेना होगा। न केवल संकल्प बल्कि उसको व्यवहार में उताराना होगा। भारत के लिए सदा चुनौती और बाधाएँ रही हैं और अग्रजों द्वारा उसके समाधान अतीत का गौरव रही हैं। आइये, हम उन्हें अपने से जीना प्रारंभ कर वर्तमान के साथ भविष्य के लिए पथ प्रशस्त करें। नान्या: पंथा:।


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