Tuesday, 13 October 2020

वतर्मान सरसंघचालक

  गांधी वांड़.मय आमुख

वतर्मान सरसंघचालक मोहन जी भागवत कहते हैं-‘‘प्रतिकूलता के दिनों में हमें कोई रोक नहीं सका। लेकिन वर्तमान में संकट बढ़ा है। अनुकूलता जनित प्रतिकूलता का लाभ उठाकर, साधनों के प्रभाव में हम खड़े हैं या,साधनों के अभाव में हमनें खड़े आना समय के साथ सीखने के प्रयास किये हैं।’’ 

कार्यकर्ता के विकास का मापदण्ड क्या है, तो कहा गया- ‘‘त्येजेदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलम् तजेत । ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथ्वींत्यजेद।।’’

यह भाव कैसा आता है जब हमारी ध्येय निष्ठा जाग्रत रहे इसके लिए महापुरुषों का जीवन पढऩा, ध्येयवाद जागृत करना-धीरे धीरे देष, समाज, राष्ट्र का चिंतन प्रारंभ हो, व्यक्तिगत तथा पारिवारिक भाव से ऊपर उठे। समाज सापेक्ष बनने की मन:स्थिति तैयार हो। इसके लिए बौद्धिक विकास अर्थात दृढ़ ध्येय निष्ठा का विकास, धारणा षक्ति की प्रवलता बढ़े। अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों में अविचल निष्ठा का अभ्यास, अनुषासन का दृढ़ता से पालन करने की सिद्धता हो।

  हमारे देष के महापुरुषों ने समाज का अध्ययन किया, श्रेष्ठ संस्कारों को जगाया तथा समाज में ब्याप्त कमियों को दूर किया और समाज को चिरजीवी बनाया। 

वैदिक परम्परा एवं आदर्षों को विस्मृतकर समाज में कर्मकाण्ड, अन्धश्रद्धा, अस्पृष्यता, पाखंड, षोषण आदि का प्रावल्य हो गया तो उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप बौद्ध एवं जैन मतों का प्रादुर्भाव हुआ। त्याग, तप और सदाचार जनमानस को प्रभावित करता है। बुद्ध और महावीर क्षत्रिय राजकुमार थे। वैभव और ऐष्वर्य को ठोकर मारकर तप एवं त्याग का जीवन अपनाया, वैचारिक क्रांति का सूत्रपात किया। इससे समाजिक कुरीति एवं पाखण्डों से ग्रस्त समाज को दिषा मिली, प्रेरणा मिली। महावीर स्वामी: जो अपने श्रेष्ठ कर्मो के कारण भगवान बने। वन की ओर जा रहे थे, रास्ते में हरिकेषी चाण्डाल को गले लगाया। छुआछूत उस समय बहुत था। भगवान बुद्ध ने वत्सराज उदय के पुत्र बोधिराज कुमार को कहा था’- ‘‘राजकुमार ! ......‘सुख में सुख नहीं प्राप्त हो सकता, दु:ख में सुख प्राप्त हो सकता है। ’इसलिए ...मैं तरुण बहुत काले केषोंवाला ही, सुन्दर यौवन के साथ, प्रथम वयस में माता-पिता को अश्रुमुुख छोड़ घर से ....प्रब्रजित हुआ।’’ ऊँच-नीच, भेदभाव दूरकर सामाजिक समरसता एवं एकात्मता की अनुभूति करने का मार्ग बुद्ध ने प्रषस्त किया। तथाकथित अस्पृष्य जाति का युवक सुनीत मार्ग पर झाडू लगा रहा था,गौतम मार्ग से निकले उन्हे षिष्य बनाया।

षंकराचार्य-सम्पूर्ण सहस्त्राब्दी का इतिहास केन्द्रापगामी बौद्धधर्म तथा केन्द्रभिमुखी हिन्दु धर्म के पारस्परिक संघर्ष व समन्वय का इतिहास है। बौद्ध और षंकर में षास्त्रार्थ- ‘‘आप भी हिंदू हैं, हम भी, हममें और आप में भेद कहां। षास्त्रार्थ किया हम हिंन्दू नहीं बौद्ध हैं। आप हिंदू हैं और बौद्ध भी। आप हिंदू हैं और वैष्णव भी, आप हिंदू हैं और षैव भी। आप हिन्दू हैं और सब कुछ भी।’’........... हम एक ही सरित प्रवाह के जलकण है। इस सरिता का प्रवाह रूकेगा नहीं।’’

रामानुजाचार्य- यादव प्रकाष का षिष्यत्व। रामानुज सत्रहबार गये लौटा दिये, अठरहवी वार मंत्र दिया। मंत्र की गोपनीयता भंग होने पर पाप या नरक का द्वार। मंत्र था ‘ओम नमों नारायण’। किंतु गुरु की बात की  अवहेलना कर समाज में इस मंत्र को सबको बताया तथा सामाजिक मुक्ति हेतु स्वयं पाप के भागीदार बनने को तैयार, किंतु राष्ट्र कल्याण सर्वोपरि। मेहतरानी का सम्मान, मां तुम्ही पवित्र हो हम तो अपवित्र हैं। विषिष्टाद्वैत की स्थापना की।

बल्लभाचार्य ने षुद्वाद्वैत तथा मध्वाचार्य ने द्वैत एवं निम्बाचार्य ने द्वैताद्वैत के माध्यम से भक्ति का प्रचार किया।    

आचार्य विद्यातीर्थ: पर्वत पर तपस्या-दैवी विपदा को दूर करने हेतु न कि स्वयं के मोक्ष के लिये। हरिहर  व बुक्का में (गड़रिया) ने सेवा की। देवी प्रसन्न। अगले जन्म में तुम्हारी कामना पूर्ति होगी। संन्यास लिया। सन्यास ग्रहण एक तरह का पुनर्जन्म है। पुनर्जन्म हो गया है, कृपा कीजिए। विजयनगर का निर्माण। साधना का मार्ग सामाजिक जीवन के लिये,राष्ट्र के लिये।

महारष्ट्र में संत नामदेव-विठ्ठल वारकरी, ज्ञानदेव के साथ तीर्थयात्रा-गंगा कुम्हार ने सिर पर मारा, ये घड़ा कच्चा है।’गुरु किया। एक कुश्रा रोटी, घी चुपडक़र दिया।गुरु विठोवा खैभर। अंभग घर घर गाये जाते हैं। एकनाथ-108 बार स्नान कर पुण्य प्राप्त किया। पैठण में कावेरी स्नान। 

चेतन्य महाप्रभु-बंगाल: हरि हरि बोल का कीर्तन। 

नरसी मेहता-कृष्ण के प्रति अनन्य भक्तिभाव के कारण साक्षात्कार प्राप्त हुआ। गुजरात में सामाजिक जागरण के आधार स्तंभ बने।

समर्थ रामदास -सौ मठों की स्थापना-लोकसंग्रह का मंत्र, लोकनेता। अपने आध्यात्मिक बल से, निर्भीकता से, आदर्ष से जागृति पैदा की और ‘हिन्दवी स्वराज की स्थापना’ करवाई। लोक संग्रह जीवन का सूत्र रहा। जय जय रघुवीर समर्थ ’की गूंज आज भी है।

रामकृष्ण परमहंस के गुरु तोतापुरी जी प्रतिदिन दो घंटे साधना करते थे क्योंकि साधना के द्वारा जो अर्जित किए उसे टिकाए रखने के लिये भी साधना की आवष्यकता है। रामकृष्ण परमहंस-परमहंस की समाधि की अवस्था से विवेकानंद प्रकट हुए। स्वामी विवेकानंद-विवेकानंद ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। भारतमाता को इष्ट मानकर ‘नर सेवा नारायण सेवा’ की, दरिद्र ही नारायण स्वरूप दिखा।

.भारत की प्राचीन संत परंपरा प्रकारान्तर से देश में संघ प्रचारक व्यवस्था के रूप में आज भी जीवन्त है। कैसे-कैसे अनामिक भाव वाले, कैसे काम किया जा सकता है आगे की पीढ़ी को भी करना है इसके जीवन्त उदाहरण को आत्मसात करने के लिए -  

डाक्टर जी के प्रयास से एक दिन बाईस स्वयंसेवक एक साथ प्रचारक निकले। पूरे देष में जहां भेजे गये वहां गये। परिणाम स्वरूप 1940 में पूरे देष में षिक्षावर्ग में आये, लघुभारत का स्वरूप देखने को मिला। डाक्टर जी के परिश्रम की पराकाष्ठा, रक्त पानी बन गया।  जीवन षैली - मैं पहुच रहा हूॅ या संघ कार्य पहुँच रहा है। अपनी छाप या संघ छाप छूट रही है। क्रोध लोक संग्रह में बाधक होता है। प.पू.डाक्टर जी का पूरा परिवार क्रोधी था किंतु डाक्टर जी ने उस मूल स्वभाव को भी बदल दिया।   

गुरुजी ने षंकराचार्य का पद ठुकराया, निजी साधना छोडक़र राष्ट्र साधना में समय देना। गुरुजी ने कहा मेरा अंतिम संस्कार सार्वजनिक हो।- ‘‘मैत्री करुणा मुदितो पे आभाम् सुख दुख पुण्यापुण्य विष्यानाम् भावनात चित्र प्रसादनम्‘‘। (पातंलति), सुखी के लिये मैत्री भाव,दुखी हेतु करुणा भाव, पुण्यजन हेतु आनंद भाव,दुष्ट हेतु उपेक्षा भाव। प.पू. श्रीगुरुजी का ऐसा ही भाव था। समय की प्रामाणिकता-पू. गुरुजी का पटरीपर चलकर कार्यक्रम में पहुंचना।  

प.पू बाला साहब को यति सम्राट की संतों ने उपाधि दी। बाला साहव व्यावहारिक आदर्शवादी थे। वे बड़ी  बरीकी से समस्याओं को समझते थे। असम में घुसपैठ के आन्दोलन में उन्होंने शरणार्थी हिन्दू और योजनाबद्ध रीति से आने वाले मुसलमानों का अन्तर समझाया। जब भारतीय जनता पार्टी ने अल्पसंख्यक आयोग  बनाय  तो उन्होंने तुरन्त कहा-गलत हुआ: मानव अधिकार आयोग  बनाना चाहिए।   

रज्जू भैया -जहाँ मृत्यु हो वहीं अंतिम संस्कार, घर संदेषा भेज देना। एक जेष्ठ कार्यकर्ता ने लिखा-रज्जू भैया के व्यक्तित्व के बारे में सोचते समय श्री गुरूजी का कार्यकर्ता सम्बन्धी विवेचन स्मरण आता है- कोयला और हीरा दोनों का मूल धातु कार्बन है। कोयला जलता है और शेष रहती है राख। जलते कोयले को सब दूर से देखते हैं। असहनीय उष्णता के कारण कोई पास नहीं जाता। जबकि हीरा जलता नहीं चमकता है, सब उसके पास जाते हैं, उसको हथेली पर रखते हैं, निहारते हैं, अपनान चाहते हैं। ध्येयवादिता की दृष्टि से कोयला हीरा समान हैं, किन्तु उपगम्यता  एवं स्वीकार्यता की दृष्टि से कोयला कोयला है और हीरा हीरा। रज्जू भैया सबके उपगम्य हीरा थे।       

पूज्य सुदर्शन जी ने कहा- संघ अपने राष्ट्र के श्रेष्ठ स्वभाव की पुनरावृत्ति एवं सुपोषण के लिए प्रयत्नशील है। यह विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है। संघ हिन्दू समाज को संगठित तथा एकीकृत करने का दाियत्व संभाले हुए है।    

अभिलाषा- ‘‘हमारे नाम का कोई जन्मा भी था यह भी अवषेष षेष न रहे, यही तो कामना है हमारी। इस कामना का जो क्षण हमारे जीवन में भले ही कुछ पल के लिए क्यंू न आया हो, यही क्षण हमें प्रचारक बना गया। वह क्षण हमें सदा समरण रहे, हम उसे पकडक़र रखें। जीवन की सार्थकता अंतिम क्षण तक उस क्षण से चिपके रहने की है। यह क्षमता प्राप्त करने का नित्य प्रयास चल रहा है क्या ? चले, चलता रहे। साधु संत भी हमें साधक, श्रेष्ठ साधु मानते ही हैं, यह विरासत हमें मिली है। हमें इस स्कूल को चलना है। पहले कंटकाकीर्ण मार्ग है-बताना नही पड़ता था पर अब अपने जीवन से समझाना होगा। प्लेयर नही, पूर्वजों की तपस्वी परंपरा के हम साधक हैं।- प.पू. मोहन राव

इसी भारतीय सांस्कृतिक वातावरण को अपने अन्त: में समेटे रा.स्वयंसेवक संघ का जन्म हुआ। उसके भागीरथ प्रवाह के कुछ घाटों का अवगाहन हम स्वयंसेवक करें साथ ही समाज में इस गंगाजल के कुंभ जाय और तन, मन, पुलकित हो इस हेतु यह पुस्तक आपके हाथों में समर्पित है।

अन्त में- चलो वीरो थको मत। खाओ पियो रुको मत। बोलो चालो वको मत। देखों भालो तको मत।


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