सम्पादकीय
(क)
‘‘आप देशद्रोही हैं!, चीखते हुए ये शब्द श्री पुरुषोत्तम दास टंडन के श्री गोविन्द वल्लभ पंत तत्कालीन गृह मंत्री जी के लिए थे। अवसर था राष्ट्रभषा पर संसदीय समिति की बैठक 25.11.58 का। वे कहते ही गये, ‘उत्तरप्रदेश में भी जब मैं विधानसभा का स्पीकर था और आप मुख्यमंत्री, मुझे आपके हिंदी प्रेम के बारे में तब भी संदेह था, मुझे आज पता चला कि आपका हिंदी प्रेम क्या है’?
टंडन जी केक्रोध का कारण उस प्रस्ताव का एक वोट से गिरना था जिसमें अंग्रेजी से हिंदी परिवर्तन के लिए एक निश्चित समय सीमा की बात कही गयी थी। अंतिम नकारात्मक वोट श्रीपाद अमृत डांगे का था, और पंत जी अपना वोट इस संतुलन को निर्णायक बनाने में उपयोग कर सकते थे, लेकिन उन्होंने अनुपस्थित रहना ठीक समझा।
हिंदी के समर्थक अंग्रेजी को जल्द से जल्द उखाड़ फेेंकने के लिए अधीर थे। उनका तर्क था कि अधिकांश राज्यों में शिक्षा का माध्यम हिंदी है और प्रतियोगी परीक्षाओं में इन राज्य के बच्चों को उस भाषा में परीक्षा देने के लिए बाध्य करना ठीक नहीं होगा जो उन्होंने पढ़ी ही नहीं। पंतजी जी के सामने दो विपरीत माँगे उपस्थित थीं, पहली, केंद्र पर तत्काल अंग्रेजी से हिंदी की ओर कूच करने की और दूसरी तरफ गैर हिंदी भाषी राज्यों से ऐसी किसी तारीख को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित रखने की।
हिंदी के समर्थक इस बात से प्रसन्न थे कि क्षेत्रीय भाषाएंॅ अंग्रेजी का स्थापन्न बन रही हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में वे हिंदी को होने वाली हानि से अनिभिज्ञ थे। यदि राजभाषा आयोग किसी भी तारीख को दृढ़ता से घोषित कर देता तो सरकार के लिये काम आसान होता, राजभाषा आयोग के दो सदस्यों, मद्रास से डॉक्टर पी सुब्बारायण और पश्चिम बंगाल से डॉक्टर सुनीति चौधरी ने आयोग में अपनी एक अलग राय रख दी कि हिंदी को राजभाषा बनाने की बात संविधान सभा ने पारित की है, न कि संसद सदस्यों ने जो जनता का प्रतिनिधित्व करते है।
संसदीय समिति ने राष्ट्रभाषा पर 16.11.1957 को जब विचार करना प्रारम्भ किया तो वहाँ सदस्यों के दो फाड़ थे। एक जो हिंदी के समर्थक थे, श्री पुरूषोत्तमदास टंडन, डॉक्टर रघुवीर, कुमारी मणिबेन वल्लभभाई पटेल और गोविन्ददास, ये आसंदी के बायीं ओर बैठे और उनके नामों के पथ हिंदी में लगे थे और श्री फैं्रकअन्थोनी, श्री मुदलिआर, श्री मूर्ति और श्री डांगे, हिंदी की राजभाषा के रूप में स्थापना के धुर विरोधी थे वे आसंदी के दाएं ओर बैठे उनके नाम पट अंग्रेजी में लिखे थे।
अवगत होना चाहेंगे कि समिति की ऐसी 26 बैठकें हुई और एक भी बैठक आरोप प्रत्यारोप और शब्दों की मर्यादा को लांघने के अवसरों से रहित नहीं थी। इस दृश्य को देखें तो बाये-दाये की प्रचलित धारणा पर बिना हँसे नहीं रह सकते। जो बाये ओर बैठे हैं वे आज के दक्षिणपंथी हैं और जो दायी ओर बैठे हैं वे वामपंथी हैं?
एक विवाद था जो दस्तावेज़ समिति के सामने हैं वे अनुचित हैं। सदस्यों का कहना था कि पश्चिम बंगाल द्वारा पारित वह प्रस्ताव जो 1957 में एक मत से हिंदी को राज भाषा के रूप में $खारिजकर अंग्रेजी को बनाये रखने की बात कही गयी थी भी रखा जाये। आप उन सदस्यों को समझ सकते हैं,नाम लिखने की आवश्यकता नहीं।
तथाकथित विद्वानों में कैसी अफरातफरी थी जरा देखें, राजगोपालाचारी जी ने जब ङ्क्षहदी का विरोध किया तो उनके सामने प्राइमरी स्कूल की वह किताब रख दी गयी जिसकी प्रस्तावना में उन्होंने लिखा था कि भारत एक सशक्त देश बने और हिंदी इस एकीकरण और सशक्तिकरण का माध्यम बने।
मुदलिआर के अनुसार भारत गणराज्य को मौजूदा समय में द्विभाषी होना ही होगा ताकि इससे भ्रम और संदेह की स्थिति न बने। श्री अन्थोनी और श्री प्रमत नाथ बनर्जी ने स्पष्ट रूप से अंग्रेजी के प्रयोग को चालू रखने की वकालत की।
श्री मुदलियार का नया प्रश्न यह था कि हम यहाँ राष्ट्रीय भाषा नहीं बल्कि भारत सरकार की भाषा पर चर्चा करने आये हैं। बिहार से एक सदस्य श्री एम.पी.मिश्रा ने इसका समर्थन किया कि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में ‘राष्ट्रीय भाषा’ का जिक़्र ही नहीं किया है।
जब श्री टंडन ने कहा ‘सभी सदस्य ईमानदारी से एक ऐसी तारीख का निर्धारण करें जब अंग्रेजी से पीछा छुड़ाया जायेगा’। श्री मूर्ति का कथन था कि २६ जनवरी, 1965 को निश्चित तारीख के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि तब तक इसके लिए गैर हिंदी भाषी कर्मचारियों का प्रशिक्षण पूरा नहीं हो पायेगा अत: यह तारीख 1965 से आगे की होनी चाहिए।
निर्णय निकला कि हिंदी प्रधान भाषा दप्रिंसिपल लैंग्वेज½ हो और अंग्रेजी सब्सिडियरी दसहायक½ भाषा। कोई निश्चित तारीख निर्धारित करना जल्दबाज़ी होगी क्योंकि संविधान में ही ऐसी किसी निश्चित तारीख का उल्लेख नहीं है और संसद निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है।
अब जरा इस परिभाषा को समझें, ‘दीनता जिसकी गृहणी, दासता जिसकी भगिनी और अस्पृश्यता जिसकी संगिनी हो, वह दलित है।’ क्या हिन्दी आज भी दलित नहीं है? अब तक समझ में आ ही गया होगा कि हिन्दी राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन सकी और अंग्रेजी क्यों बिदा नहीं हो सकी। इसमें किन महानभावों की भूमिका थी और क्या आज भी उन्हीं के वंशजों की भी नहीं है?
(ख)
अब जरा दुनिया में भाषा के परिदृश्य पर नजऱ डालें। अपनी आत्मकथा में इंडोनेशिया के तत्कालीन राष्ट्रपति ने इस बात का उल्लेख गर्व के साथ किया कि उनके देश में ७००० द्वीप है लेकिन उनके प्रत्येक टापू का नागरिक इंडोनेशिया की नयी भाषा ‘बहासा’ का प्रयोग करता है।
स्विट्जरलैंड की चार राष्ट्रीय भाषाएं थीं, जर्मन, फेंच्र, इतालियन और रोमांश पहली तीन भाषाओं को सरकारी भाषा बनाकर इनमें समानता की घोषणा की गयी। उनकी संसद में सांसद किसी भी भाषा में प्रश्न पूछने और कार्यवाही में किसी भी भाषा का उपयोग कर सकते थे, लेकिन कार्यवाही को इन तीनों भाषाओं में ही दर्ज किया जाता है।
कनाडा में दो राष्ट्रीय भाषाएं हैं, अंग्रेजी और फें्रच। फें्रच और अंग्रेजी का उपयोग क्यूबेक के विधायक मंडल में होता है जबकि अंग्रेजी का उनकी राष्ट्रीय संसद में। कैनेडियन अदालतों में इन दोनों भाषाओं में कार्यवाही अनुमति है। कनाडा की फेडरल सरकार की कामकाज की भाषा अंग्रेजी है लेकिन फ्रेंच में प्राप्त पत्रों का उत्तर फ्रेंच में दिया जाता है। इसके लिए एक अनुवाद ब्यूरो बनाया गया है। बेल्जियम में तीन भाषाएं हैं, फ्लेमिश, फ्रेंच और जर्मन, फ्रेंच और फ्लेमिश दोनों को सरकारी कामकाज की भाषा बनाया गया है, वहाँ पर यह समस्या इतनी विकट इसलिए नहीं थी कि वहाँ के बहुसंख्यक लोग तीनों भाषाओं में पारंगत थे।
सोवियत रूस में लगभग 200 भाषाएं और बोलियाँ हैं, इनमें से 16 भाषाएं प्रमुख हैं, इनमें रशियन बोलने समझने वाले अधिकतम संख्या में थे, यहाँ पर सरकार ने सभी भाषाओं को फलने फूलने का अवसर दिया। ऐसी भाषाओं में जिनमें पहले से कोई साहित्य उपलब्ध नहीं था, उसके रचनाकारों को प्रोत्साहित किया गया, नए स्कूल खोले गए, नए अखबार निकाले गए। विज्ञान और तकनीक में भी सभी भाषाओं का पोषण किया गया। सुप्रीम सोवियत अर्थात उनकी संसद और न्यायालयों में रशियन का प्रयोग होता है लेकिन इनका अनुवाद इन 16 भाषाओं में उपलब्ध होता है।
चीन के साथ स्थिति थोड़ी अलग थी, बोलियों की विविधता के बावजूद जो लिपि थी वह सामान थी। मौखिक रूप से बोली जाने वाली बोलियों की विविधता के कारण स्थिति यह थी की दूर दराज में दो चीनी लिखित रूप में तो बात एक दूसरे को समझा पाते थे लेकिन उनकी बोली का वैशिष्ट्य इस समझ को बाधित करता था। चीनियों ने इस समस्या का समाधान अक्षर पर आधारित लिपि अपना कर किया जो पहले चित्रात्मक थी।
चेखव, ताल्सतोंय और दोंस्तोयव्यस्की जैसे रूसी दिग्गजों के आगे अंग्रेजी का कोई कथाकार नहीं ठहरता। मिजऱ्ा ग़ालिब जैसा शायर हमारे पास है। तुलसीदास की रामचरितमानस दुनिया की अनेक भाषाओं में अनुदित हो रही है फिर भी हिन्दी को लेकर देश में भाषायी झगड़ा गंभीर विषय है।
वस्तुत: भाषायी विवाद विश्व में नये नहीं हैं और यह स्वाभाविक था कि औपनिवेशिकता से स्वतंत्रता की ओर बढ़ते राष्ट्र अपनी-अपनी राष्ट्रभाषा के लिए आन्दोलित हो। इन दो खण्डों में इसका स्मरण इसलिए नहीं किया जा रहा है कि यह राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी दिवस है बल्कि विषय इसलिए आया कि अब समय आ गया है कि स्वतंत्रता के एकहत्तर साल में हम हिन्दी को दिवसों से बाहर निकाल कर व्यवहार में लाये। कारण बहुत स्पष्ट है जिसे अनदेखा करने का परिणाम भविष्य में घातक होगा। बोलिओं, क्षेत्रीय भाषाओं का संवद्र्धन हो, मातृभाषा व्यवहार में हो, राजभाषा हिन्दी को देश में सर्वत्र मान्यता हो अन्यथा भाषा और बोलियों के आधार पर तामिलनाडु, महाराष्ट्र से निकली आग गुजरात से होकर जिस तरह राजनैतिक पलक पावड़ों पर चढक़र हिन्दी भाषियों के लिए खूनी संघर्ष कर रही है उसकी दिशा भी बदल सकती है और वह फिर किसी के सम्हाले नहीं सम्हलेगी।
जब देश महात्मा गाँधी जी की १५०वी जन्मसती मना रहा हो तो उनके माध्याम से भी इस विषय को देखना चाहिए। १० सितम्बर, १९३८ के ‘हरिजन’ में लिखे शब्दों को दे कर इस विषय को आप के ऊपर छोड़ता हूँ, ‘‘हमने बार-बार घोषणा की है कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा या प्रान्तों के आपसी व्यवहार की सामान्य भाषा है या होनी है। यदि हमारी इस घोषणा के पीछे ईमानदारी है तो हिन्दी के ज्ञान को अनिवार्य बनाने में बुराई कहाँ है ? ‘मातृभाषा खतरे में है’ यह नारा या तो अज्ञान रूप है या एक पाखंण्ड है और जहाँ इसके पीछे ईमानदारी है वहाँ भी उन लोगों की देशभक्ति के लिए अपवादमाय चीज है।.. यदि हमें अखिल भारतीय राष्ट्रीयता के धर्म तक पहुँचना है,तो प्रान्तीयता के आवरण को भेदना होगा। भारत एक देश अैर एक राष्ट्र है अथवा अनेक देश और अनेक राष्ट्र ? जो मानते हैं एक देश है उन्हें इस पर पूरा समर्थन देना चाहिए।’’
(ग)
रूद्ग ह्लशश अपनी सम्पूर्ण सत्ता के साथ वर्षों के कूड़े-कचरे को पचाकर ऐसा नाईट्रोजन खाद बन कर आया है जिसे लग रहा है कि स्त्री की पूरी ऊर्जा के साथ सम्पूर्ण भूमण्डल में नई फसल पैदा कर देगा जो नारी शसक्तीकरण का अचूक परिणाम होगा। होगा की नहीं यह तो पाठक तय करेगा किन्तु मुझे इस समय भवानी प्रसाद मिश्र याद आ रहे हैं, ‘‘, ‘आज सभ्यता की दुनिया में दो राजनीतिक विचार और उनसे जुड़े हुए आचारों का बोलबाला है। एक है पश्चिमी ढंग का प्रजातन्त्र और दूसरा है माक्र्स के ढंग का अधिनायकवाद, जो साम्यवाद के नाम से पहचाना जाता है।.. .. माक्र्सवाद को बिना किसी लाग-लपेट के एक मु_ीबांध, हिंसक, निरन्तर आक्रमणशील मानसिकता कहा जा सकता है, जिसका जन्म पूँजीपतियों को सर्वहारा के द्वारा कब्र में दबाकर, सत्ता, सर्वहारा के हाथ में दी जानी है। बेशक साधन, सशस्त्र क्रान्ति है। ’’ वे आगे लिखते हैं, ‘‘ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलुओं से देखें तो पश्चिमी सभ्यता के दो रूप स्पष्ट हैं। एक तरफ है उदार, संविधान से संचालित बहुदलीय जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों की ऐसी प्रजातंत्रीय प्रणाली, जो व्यक्ति की स्वतंत्रता पर जोर देती है। मैग्नाचार्टा, 1628 का फरियादी अधिकार (पिटीशन राइट), बेकून का नोवम आगेनॉन, लॉकी का नागरिक शासन (सिविल गवर्नमेंट), रूसो का सोशल कॉनट्रेक्ट, अमेरिका का स्वतंत्रता का घोषणा पत्र (डिक्लेरेशन ऑफ इनडिपेंडेंस), रिकार्डो कृत पोलिटिकल इकॉनॉमी और मिल कृत ग्रंथ, ऑन लिबर्टी आदि अनेक महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों में उदार राज्यप्रणाली और आर्थिक प्रणाली का रूप निर्धारित है। लिंकन ने शासन पद्धति की जो रूपरेखा बनायी और चलाई बावुर, कोल, लॉस्की, मेरीयाम और नेक्वलेवर जैसे विचारकों ने उसकी व्याख्या और मीमांसा ही नहीं की, उसे ठोस आधार में उतारने की उपाय-योजना भी प्रस्तुत की। इस में से ‘लोगों द्वारा, लोगों पर, लोगों के शासन’ के प्रयोग विकसित होते रहे।’’ निष्कर्ष देते हुए भवानी भाई लिखते हैं, असल में ये दोनों विचार पद्धतियाँ आज विकसित होकर हमारे सामने जिस रूप में हाजिर-नाजिर हैं- उसने ‘‘आदमी ही नहीं, सारे जीव रक्षणीय और प्रिय हैं, संसार का हित सबके विकास में है, केवल इसके या उसके विकास में नहीं।इस शिव-कल्पना को हास्यास्पद बना डाला है। संसार एक है, सब हिलमिलकर समूची सृष्टि बनाते हैं और एक समग्रता को अपनाकर परस्पर एक-दूसरे के लिए भय के नहीं, प्रेम और उल्लास के कारण हो सकते हैं, आज ऐसी बात अगर कोई कहना चाहे तो उसे इन दोनों पद्धतियों के हामी बेखटके ‘महामूर्ख’ का खिताब दिये बिना नहीं रह सकते।.. .. कहने को ये दोनों प्रणालियाँ अपने को मानवतावादी प्रणालियाँ कहती हैं, मगर मैं कहना चाहता हूँ कि तमाम् अच्छे इरादों के बावजूद इन प्रणालियों ने दिशा जो पकड़ी हैं वह मानवीयता की नहीं है। दानवीयता की है। ’’
दूसरी ओर रूद्ग ह्लशश ह्यद्धड्डद्मह्लद्ब को समझने के लिए भी भवानी भाई को देखना होगा, ‘‘यह संस्कृति-विचार किसी एक दिशा में अंधी गति पकडक़र कभी नहीं भागा, इसने ठोस धरती और खुले गगन में प्रेम-यात्राएँ की हैं। यहाँ वेद और उपनिषद हुए हैं, वाल्मीकि और व्यास हुए हैं, शंकराचार्य, रामानुज, दयानन्द, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द और रामतीर्थ हुए हैं और हुए हैं- वास्तविक अस्तित्व अर्थात सत, चित और आनन्द का अनुभव करने वाले ही नहीं, कराने वाले कृष्ण, पतंजलि, महावीर, बुद्ध और अभी-अभी आकर गये हैं हमारे बीच से इन सबके सार को समेटकर हमारे सामने रख देने वाले श्री अरविन्द, रवीन्द्रनाथ और गांधी और उन विचारों को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया में अपना सब कुछ अर्पण कर देने वाले विनोबा, जयप्रकाश और कृष्णमूर्ति। मनुष्य को ‘परम’ से साक्षात्कार करा देने वाली वह दृष्टि जो व्यक्ति और समाज को निर्भय बनकर मिलती है, इस देश में सदा उपस्थित रही है।’’
मी टू और मी टू शक्ति दोनों दो दृष्टियों की परिचायक हैं। एक में भोगवाद है तो दूसरे में समनवय है, अपनी पहचान है, मनुष्यता है। इस दृष्टि को शोपनहॉवर ने उपनिषदों में मन की शांति, पाइफेड्रिक शेजेल ने भारत में जुड़ा, एथेन्स और रोम की जली धरती को हरा करने की संभावना देखी, मैक्समूलर ने वेदान्त की आत्मस्थ नीति में सृष्टि मात्र को गतिशील बनाने के प्रमाण पाये, झ्यूसन ने कहा कि प्लेटो आर कांट और गेल प्रकारान्तर से शंकराचार्य की बात कहते हैं। इमर्सन, थोरो, हुम बोल्ट और बीटैस्की जैसे अनेक विचारक भी भगवद्गीता और वेदांत विचार से प्रभावित हुए भगवान बुद्ध के विचारों ने तो आधे जगत को नया प्रकाश दिया।
फिर ऐसा अचानक क्या हो गया की सारी तथाकथित नारी प्रतिभाएँ अचानक ‘मी टू’ की हुंकार करने लगीं। अपराध और स्त्री का शोषण जब भी आये उसे उठाना ही चाहिए। किन्तु जब वह लामबन्द हो कर कुनियोजित ढंग से खाद बना कर छिडक़ा जाये और पश्चिम से लेकर भारत तक एक साथ स्वर उठे और उसमें एक विशेष शक्ल-सूरत को उभारा जाये तो कुछ तो षडय़ंत्र की बू आती है।
याद रखना चाहिए कि हम जिन स्वतंत्रता की वैचारिकी पर खड़े हो कर भोगवाद की उच्छृखल धरती को उर्वरा कह रहे हैं उनमें वे कैसे मौन हैं जिन्होंने स्त्री जाति को ही भोग का मार्ग सिखया है? क्या साहित्यकारों, प्रशासकों के उन कालेचिठ्ठों को भी उजागर किया जायेगा जो ‘हंस’ की मध्यकालीन परम्परा को लिए ही आगे बढ़ती रही है।
हम अपनी धरती मुक्ति और शोषण की जिस अवधारणा को कारणों के कारण, अभिप्रायों को समेटे, निहितार्थ भाव से समाज के सामने खींचकर खड़ा कर देना चाहते हैं, वे स्त्री और पुरुष को एक-दूसरे के मित्र के रूप में नहीं देखतीं। वे पति और पत्नी की भारतीय परिवार की संकल्पना से बाहर हैं। वे मानती हैं कि स्त्री और पुरुष आपस में चूसे जाने के लिए है, हम एक दूसरे से जितना लेते जा सकते हैं लेते जायें; बुद्धि और धन तथा प्रतिभा जो हमारे पास है, उसका सबसे बड़ा उपयोग दोहन के साधन ढूंढने में है। पराजित प्रतिभा वहीं है जो अधिकाधिक शोषण पर विश्वास करती है। इसीलिए यह तथाकथित शोषित प्रतिभाएँ अब मान्य समस्त मान्यताओं का दम तोड़ डालने के तट पर खड़ी होकर अपने अव्यर्थ बाण का प्रयोग करने की धुन में हैं।
यह स्थिति जो आयी, मैं मानता हूँ कि उसकी जड़ में हमारी भोगवृत्ति और चकाचौध की है, जबकि हमारे पास संसार को इस स्थिति से बचाने की कीमिया परिवार नाम की इकाई है। हम अपने इस इकाई का, विचार का विनियोग नहीं करने का निश्चय करते हुए दिखाई देते हैं । आखिर यह देश अचानक समलैंगिकता, स्त्री विमर्श, थर्ड जेंडर से मी टू तक कैसे आ गया। क्या यह इलीट वर्ग का दर्द है? क्या भारत दलित को उबार चुका है? क्या सर्वत्र दलित प्रकारान्तर से दलित ही दलित हैं?
राजनीति में पारस्परिकता को ताक पर धर दिया, राष्ट्रीय एकता को कोई भौगोलिक चीज मानकर उन सूक्ष्म तत्वों की ओर पीठ दे दी जो भाषा, संस्कृति, स्नेह और आध्यात्मिकता में निहित हैं। हमने धर्म की अवज्ञा की। धर्म-निरपेक्ष होकर संप्रदायों और जातियों को महत्त्व दिया और इसी प्रक्रिया के बीच जब हम स्वतन्त्र हुए तो हमने अपनी आँख सप्तसिंधुओं के पानी से धोकर जागने की जगह, जहरीले कुंडों में मग्न हो जाने को परमपुरुषार्थ माना। हमने बावजूद गांधी के, आजादी की लड़ाई के दौरान और उसके आ जाने तक यह नहीं समझा कि मानवता, एक समग्र व्यक्तित्व और व्यक्तित्व-संभावना को आत्मा अर्थात विश्वात्मा के साक्षात्कार में सक्षम बनाने का नाम है। यह कृतित्व सुविधाओं के अंबार लगाने से, एक-दूसरे का अपने लिए उपयोग करने से नहीं, बल्कि अपने को दूसरों के लिए बना मानकर चलते रहने से सधता है। हम आत्मा को जानने, परम अज्ञेय को प्राणों में समेटने के बदले एक अधबीच के अज्ञेय और जड़ और व्यक्तित्वहीन अणु को तोडऩे में लगे हुए लोगों का मुँह ताकने लगे और सोचने लगे कि हम भी इस मझधार अज्ञेय में डुबकी लगायेंगे; भाप, बिजली, पेट्रोल तो विरासत में हमने पा ही लिये हैं, इसलिए अब हम भी अणु तोड़ेंगे और प्रजातंत्र या समाजवाद के नाम पर ऐसे नक्शे में रंग भरने का काम करेंगे जो संसार के चेहरे का रंग $फ$क कर दे, याने सब नीका, फीका ही न हो जाये, महाकाल के भाल पर एक ऐसा लाल टीका लगा दे कि मानवता का नाम लेवा, पानी देवा न बचे।
आज से कोई 34-36 बरस पहले हम आजाद हुए। आजाद होते ही अगर हमने अपनी माटी की प्रतिभा को पहचान कर एकाध काम शुरू किया होता, गांधी के बताये कार्यक्रमों को आगे बढ़ाया होता, अपनी कुछ जानी-मानी बुराइयों को एक झटके में खत्म कर दिया होता, कुछ प्राणवान जोड़ा होता, कुछ प्राणहीन छोड़ा होता तो हम एक तीसरी-निर्माण-शक्ति संसार को देते- आज की प्रचलित दो विनाशकारी शक्तियों की जगह। मगर शायद, गांधी के ज्यादातर सहयोगी गांधी की तरह आजाद होकर, संसार को आजादी देने की आकांक्षा से व्याकुल नहीं थे। वे तो किसी के राज से छुटकारा पाकर खुद राज करना चाहते थे। इसीलिए जब गांधीजी ने उनसे कहा कि हमने जिस संघर्षशील संस्था का पल्ला थामा था, वह अब समाप्त कर दी जानी चाहिए। हम सेवक हैं, शासन का संचालन लोगों पर छोड़ें, हम तो सेवा करें और शक्यता इस बात की निर्मित करें कि देश का अंतिम आदमी राहत महसूस करे- ऐसा दिन आये कि समानता का अर्थ केवल आर्थिक क्षेत्र में समानता न बच रहे। सबको लगभग समान भौतिक सुविधाओं के साथ-साथ लगभग एकसी मानसिक, बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक समानता की ओर ले जाने की या सब में उस ओर जाने की स्थितियों के अंकुर जमें, फूलें और फलें। मगर ‘तुलसी भाँवर के परे, नदी रिसावत मौर’। हमने हर सही अर्थ में अपना वह ‘सेहरा’ पानी में सिरा दिया और गिरा लिया अपने को स्वार्थपूर्ण राजनीति के ऐसे गर्त में जो शायद चोर-रेत का बना था, हम रोज-रोज उसमें गहरे धँसते जा रहे हैं, किस दिन साँस टूट जायेगी, यह नहीं कह सकते।
पश्चिम की प्रचलित दोनों तथाकथित मानवीयता, ह्यूमैनिज्म शुद्ध रूप से भौतिक है, खालिस स्वार्थ से गढ़ी हुई है, जहाँ केन्द्र में सबका हित न होकर सत्ता, शासन और प्रशासन है, इसके हाथ जिससे मजबूत होते हैं वही दूसरों को करना है- ऐसा इसका भाव है। अगर हमने इस तथाकथित मानवीयता की जगह अपनी दार्शनिक मानवीयता या कहिए नैतिक और आध्यात्मिक मानवीयता को पकड़ा होता तो दुनिया की हवा बदल जाती, शोषण की जगह सेवा और प्रेम शासन की जगह आत्मानुशासन और युद्ध की जगह समस्त जड़-चेतन से मन में बिरादरी का एक भाव पैदा हुआ होता।
आध्यात्मिक मानवतावाद अपना ‘होना’ जानता है और दूसरी तमाम चीजें भी मेरे बराबर महत्त्व की हैं, इसे मानता है। वह अल्प में भी सुविधा देखता है और ऐश्वर्य में भी। ऐश्वर्य ईश्वर का गुण है- वह आत्मा में उतरना चाहिए। ऐश्वर्य का निधान चीजें नहीं हैं, वस्तु बाहुल्य नहीं है। हमने संतोष को एक दुर्गुण घोषित कर दिया और कहा कि हमारा देश जो सैकड़ों बरस गुलाम रहा वह इसलिए कि उसने अल्प में संतोष माना। हमने सोचा नहीं कि ‘अल्पे सुखं नास्ति भूमैव सुखं’ का क्या अर्थ है। अल्प, याने व्यक्तिगत सुख, सुख नहीं है; सार्वभौम सुख ही सच्चा सुख है। हमने यह भी नहीं सोचा कि जो पदार्थगत-सुख मुहैया करने में लगे हैं, वे अनेक दूसरों को इस प्रक्रिया में किस हद तक दीन-हीन और दुखी बनाते चले जा रहे हैं।
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