मातृभाषा,राष्ट्रीय शिक्षा नीति और
महात्मा गांधी
(२ अक्टूबर, गांधी जयन्ती के अवसर पर विशेष)
डॉ उमेश कुमार
सिंह
मित्रों नमस्कार
स्वामी विवेकानन्द कॅरियर
मार्गदर्शन योजना अन्तर्गत व्यक्तित्व विकास प्रकोष्ठ द्वारा गांधी जयन्ती दो
अक्टूबर पर आयोजित इस कार्यक्रम में आप सब का स्वतागत है। तुसलीबाबा ने कहा है, ‘बड़े भाग मानुष
तन पावा। सुर दुर्लभ मुनि ग्रंथन गावा।।
यह शरीर जिन पाँच तत्वों ‘ क्षिति जल पावक
गगन समीरा। पंच रचित यह अधम शरीरा।’ की बात की भारतीय समाज परावैदिक काल से उन तत्वों की पूजा
करता आ रहा है। उनमें भूमि को हमने साक्षात माता माना और कहा, ‘माता भूमि:
पुत्रोऽहम पृथिव्या:’। और इस माता तथा
उन पांच तत्वों का आभार आराधना हमारे ऋषियों ने जिस माध्यम से की उसे हमने भाषा
कहा।
और चूकि वह हमारे जीवन की
सम्पूर्णता को अभिव्यक्त करने का आधार है इसलिए उसे माता का सिंहासन देते हुए
मातृभाषा कहा। और इनमें जिन तीन तत्वों का आधार मिला उन्हें ब्रह्म की संज्ञा दी ]
जैसे - नाद ब्रह्म, अक्षर ब्रह्म और
शब्द ब्रह्म । इसलिए जब हम मातृभाषा की आराधना अर्थात् अपने व्यवहार में लाते हैं
तो अपरोक्ष रूप से उक्त तीनों ब्रह्मों की उपासना करते हैं।
परावैदिक काल से लेकर आज
तक इस राष्ट्र के निवासियों ने संस्कृत, पालि, प्राकृत की यात्रा करते हुए भारत की हजारों बोलियों और
भाषाओं को अपने अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया और विश्व के श्रेष्ठ चिंतन परम्परा में
अग्रणी बने रहे।
इन्हीं भारतीय भाषाओं में
भारतीय विरासत, संस्कृति, परम्परा, लोक और कला
समृद्ध हुए हैं। ऋषियों ने संस्कृत का सहारा लिया तो जैन और बुद्ध ने प्राकृत और
पालि का। तो पूर्वांचल के संत- महावीर स्वामी, ध्रनीदास, संत दरिया साहब, महर्षि मेहदीदास, चैतन्यप्रभु,
बाउल संत, रामकृष्ण परमहंस, माधव कंदली, शंकर देव, भीमा भाई ने, दक्षिण में -
रामानुजाचार्य, कवियित्री मोला, संत वेमना, श्री कोंडयाचार्य, मलयाल स्वामी, कुन्दुकुरु
वीरेशलिंगम पन्तुलु, नायम्बर संत, तिरुमूलर, मधुरकवि, तिरुवल्लुबर, संत त्यागराज, संत
रामलिंगमस्वामीगल, महर्षि रमण, इसी तरह महाराष्ट्र
के रामदास, संत नामदेव, कर्नाटक के- श्री अल्लुम प्रभु, अक्कमहादेवी, श्री विद्यारण्य
स्वामी, संत पुरन्दरदास, केरल से- श्रीमद्
शंकराचार्य, निरणम कवि, आचार्य तुंजतु, श्री नारायण गुरु, महाकवि करुप्पन, उत्तर में -कबीर, सूर, तुलसी, जायसी एक लम्बी
मातृभाषा में अभिव्यक्ति की परम्परा है।
समझने की बात यह
है कि आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व चीन के महान दार्शनिक कनफ्यूशियस ने भाषा को लेकर
क्या कहा था, ‘‘ समाज की गलतियों
या खराबियों को सिर्फ समाज की भाषा को ठीक करके ही खत्म किया जा सकता है क्योंकि
भाषा अगर गलत हो जाए तो गलत बोला जाएगा, गलत बोला जाए तो गलत सुना जाएगा, और गलत कहकर जो
गलत सुनाया गया है, उस पर जो अमल
किया जाएगा वह गलत ही होगा और गलत अमल का परिणाम हमेशा गलत ही हुआ करता है। इसलिए
गलत समाज की गलत बुनियाद हमेशा गलत भाषा ही डालती है।’’
लंदन में पढ़ाई
से लेकर दक्षिण अफ्रिका (१८९३ से १९१४ तक) के रंगभेद आन्दोलन तक गांधी को समझ आ
गया था कि बिना स्वभाषा के साम्राज्यवादी ताकतों से नहीं लड़ा जा सकता। राष्ट्र
अपनी मातृभाषा के माध्यम से ही ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा, साहित्य और संस्कृति को उन्नति कर संरक्षित रख सकती है।
गांधी की मान्यता भी कनफ्यूशियस के समान थी कि किसी भी कौम को पराई भाषा में काम
करना घातक है। इसका प्रमाण उनकी जनवरी,१९१० में छपी ‘हिन्द स्वराज’ तथा उनके ‘इंडियन ओपिनियन’ में छपे लेखों से मिलता है।
गांधी के मातृभाषा
सम्बन्धी चिन्तन पर विचार करते हुए दो बातों को ध्यान में रखना चाहिए- पहला कि वे
स्थानीय या प्रान्तीय स्तर पर शिक्षा के माध्यम के रूप में सम्बद्ध प्रांत की भाषा
के समर्थक थे। दूसरा यह कि समय निष्पादन के लिए आपसी सम्पर्क एवं राजनीतिक तथा
प्रशासनिक कार्यों के निष्पादन के माध्यम के रूप में एक राष्ट्रभाषा (हिन्दी) के
वे प्रबल समर्थक रहे। गांधी का मत था कि जो मातृभाषा से सच्चा प्रेम करता है वह
राष्ट्रभाषा के प्रति भी वैसा ही भाव रखता है।
गांधी जी हिन्द स्वराज
में औपनिवेशिक मंशा का खुलाशा करते हुए लिखते हैं, ‘‘करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें
गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने जिस शिक्षण की नींव डाली, वह सचमुच गुलामी
की नींव थी। उसने इसी इरादे से वह योजना बनायी, यह मैं नहीं कहना चाहता। किन्तु इस कार्य का परिणाम यही हुआ
है। हम स्वराज्य की बात भी पराई भाषा में करते हैं, यह कैसी बड़ी दरिद्रता है।.. यह भी जानने लायक
है कि जिस पद्धति को अंग्रेजों ने उतार फेंका है, वही हमारा शृंगार बनी हुई है। वहाँ शिक्षा की
पद्धतियाँ बदलती रही हैं। जिसे उन्होंने भुला दिया है, उसे हम मूर्खतावश
चिपटये रहते हैं। वे अपनी भाषा की उन्नति करने का प्रयत्न कर रहे हैं। वेल्स
इंग्लैण्ड का एक छोटा-सा परगना है। उसकी भाषा धूल के समान नगण्य है। अब उसका
जीर्णोद्धार किया जा रहा है।
.. अंग्रेजी शिक्षण
स्वीकार करके हमने जनता को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षण से दम्भ, द्वेष, अत्याचार आदि
बढ़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों ने जनता को ठगने और परेशान करने में कोई
कसर नहीं रखी। भारत को गुलाम बनाने वाले तो इस अंग्रेजी को जानने वाले लोग ही है। जनता
की हाय अंग्रेजों को नहीं हमको लगेगी।’’
दूसरी बात कि ‘‘जब वेल्स जैसी
उपेक्षित भाषा के उद्धार के लिए वहां के लोग प्रयत्न कर सकते हैं, तब भारतवासी भी
क्यों नहीं अपनी भाषाओं के विकास के लिए प्रयत्नशील हों। अंग्रेजी शिक्षण को
स्वीकार करके हमने जनता को गुलाम बनाया है।’’
वे हिन्द स्वराज में
लिखते हैं, ‘‘हमें अपनी सभी
भाषाओं को चमकाना चाहिए।..
२८/५/१९१० को ‘इंडियन ओपिनियन’ में शिक्षा में
मातृभाषा का स्थान विषय पर कहते हैं, ‘‘भारतीय युवक संस्कार सम्पन्न भारतीय की भांति अपनी मातृभाषा
पढ़ या बोल नहीं सकता तो उसे शर्म आनी चाहिए। भारतीय बच्चों और उनके माता-पिताओं
में अपनी भाषाएँ पढऩे के बारे में जो लापरवाही देखी जाती है, वह अक्षम्य है।
इससे तो उनके मन में अपने राष्ट्र के प्रति रत्ती-भर भी अभिमान नहीं रहेगा।’’
१९/८/१९११ को ‘इंडियन ओपिनियन’ में क्या लिखते
हैं, ‘‘हम लोगों में
बच्चों को अंग्रेज बनाने की प्रवृत्ति पायी जाती है। मानो उन्हें शिक्षित करने का
और साम्राज्य की सच्ची सेवा के योग्य बनाने का वही सबसे उत्तम तरीका है। हमारा
ख्याल है कि समझदार से समझदार अंग्रेज भी यह नहीं चाहेगा कि हम अपनी राष्ट्रीय
विशेषता अर्थात् परम्परागत प्राप्त शिक्षा और संस्कृति को छोड़ दें अथवा यह कि हम
उनकी नकल किया करें। .. इसलिए जो अपनी मातृभाषा के प्रति-चाहे वह कितनी ही साधारण
क्यों न हो-इतने लापरवाह हैं, वे एक विश्वव्यापी धार्मिक सिद्धांत को भूल जाने के खतरा
मोल ले रहे हैं।’’
४ फरवरी, १९१६ काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय का उद्घाटन समारोह वक्तव्य (जहाँ गांधी जी को छोडक़र शेष लोगों ने
अंग्रेजी में भाषण दिया था), ‘‘इस महान विद्यापीठ के प्रांगण में अपने ही देशवासियों से
अंग्रेजी में बोलना पड़े,
यह अत्यन्त
अप्रतिष्ठा और लज्जा की बात है। .. मुझे आशा है कि इस विश्वविद्यालय में
विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबन्ध किया जाएगा।
.. आगे कहते हैं, यदि हमें पिछले पचास वर्षों में देशी भाषाओं
द्वारा शिक्षा दी गयी होती,
तो आज हम किस
स्थिति में होते। हमारे पास एक आजाद भारत होता, हमारे पास अपने शिक्षित आदमी होते जो अपनी ही भूमि में
विदेशी जैसे न रहे होते, बल्कि जिनका
बोलना जनता के हृदय पर प्रभाव डालता।’’
खैर गांधी जी के
जीवन का एक पक्ष ही भाषा पर आधारित है। लंदन में रहकर अपनी मातृभाषा गुजराती पर
अध्ययन करनेवाला विद्यार्थी वहाँ आवश्यकता के लिए फ्रेंच और लेटिन भी सीखते हैं किन्तु सोते और जागते ही नहीं तो
मरते भी ‘हे राम’ में ही हैं।
बापू ने १५/१०/१९१७ को बिहार के भागलपुर शहर
में छात्रों के एक सम्मेलन में अध्यक्ष पद से बोलते हुए कहा, ‘‘मातृभाषा का
अनादर माँ के अनादर के बराबर है। जो मातृभाषा का अपमान करता है, वह स्वेदश भक्त
कहलाने लायक नहीं है। बहुत से लोग ऐसा कहते सुने जाते हैं कि ‘हमारी भाषा में
ऐसे शब्द नहीं, जिनमें हमारे
ऊँचे विचार प्रकट नहीं किये जा सकते।’
यदि भाषा में तकनीकी शब्दों की कमी मान भी लें
तो गांधी जी उससे असमत होते हए समाधान में कहते हैं, ‘‘जब तक हमारी मातृभाषा में हमारे सारे विचार
प्रकट करने की शक्ति नहीं आ जाती और जब तक वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं
समझाये जा सकते, तब तक राष्ट्र को
नया ज्ञान नहीं हो सकेगा।
गांधी जी की इस बात में बड़ा दम है कि ,
१. सारी जनता को नये
ज्ञान की जरूरत है।,
२. सारी जनता कभी
अंग्रेजी नहीं समझ सकती।,
३. यदि अंग्रेजी पढऩे
वाला ही नया ज्ञान प्राप्त कर सकता है, तो सारी जनता को नया ज्ञान मिलना असम्भव है।’’
अत: यदि हिन्दुस्तान एक
राष्ट्र है तो उसके जन की एक राष्ट्रभाषा भी होनी चाहिए। मातृभाषा और
शिक्षा पर गांधी जी के क्या विचार थे, उनके भागलपुर के भाषण से समझें- ‘‘ मुझे अंग्रेजी
भाषा से बैर नहीं है। इस भाषा का भंडार अटूट है। यह राजभाषा है और ज्ञान की निधि
से भरी-पूरी है। फिर भी मेरी राय है कि हिन्दुस्तान के सब लोगों को इसे सीखने की
जरूरत नहीं है। किन्तु इस बारे में मैं ज्यादा नहीं कहना चाहता। जो विद्यार्थी
अंग्रेजी पढ़ रहे हैं और जब तक दूसरी योजना प्रचलित नहीं होती और राज्य की शालाओं
में परिवर्तन नहीं होता, तब तक
विद्यार्थियों के लिए दूसरा कोई उपाय नहीं। इसलिए मैं मातृभाषा के इस बड़े विषय को
यही समाप्त कर देता हूँ। मैं केवल इतना ही प्रार्थना करूँगा कि आपस के व्यवहार में
और जहाँ जहाँ हो सके वहाँ सब लोग मातृभाषा का ही उपयोग करें। और विद्यार्थियों के
सिवा जो महाशय यहाँ आये हैं, वे मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का भगीरथ प्रयत्न
करें।’’
२०/१०/१९१७
द्वितीय गुजरात शिक्षा सम्मेलन (भड़ौच) में ‘मातृभाषा शिक्षा का माध्यम हो’ को लेकर दिया गया
वक्तव्य, ‘‘यह बात सबको
अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि इस दिशा में हमारा पहला काम है विचारपूर्वक शिक्षा का
माध्यम निश्चित करना। इसके बिना और सब कोशिशें लगभग बेकर साबित हो सकती हैं। ..
..वैसे तो यह प्रश्र सारे भारत का है, किन्तु हर एक क्षेत्र अथवा प्रांत इस पर अपनी हद तक
स्वतंत्र रूप से विचार कर सकता है। फिर भी ऐसा नहीं है कि जब तक भारत को सारे भाग
एकमत न हो जाएं तब तक अकेला गुजरात आगे क दम बढ़ा ही नहीं सकता।’’
उनका मानना था कि ‘‘विदेशी भाषा
द्वारा शिक्षा पाने में दिमाग पर जो बोझ पड़ता है वह असह्य है। वह बोझ हमारे बच्चे
उठा तो सकते हैं, लेकिन उसकी कीमत
उन्हें चुकानी पड़ती है। वे दूसरा बोझ उठाने के लायक नहीं रह जाते। इससे हमारे
स्नातक अधिकतर निकम्मे, कमजोर, निरुत्साही, रोगी और कोरे
नकलची बन जाते हैं। उनमें खोज करने की शक्ति, साहस, धीरज, वीरता, निर्भयता और अन्य गुण बहुत क्षीण हो जाते हैं।
वे आगे कहते हैं, ‘‘माँ के दूध के
साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा
के माध्यम से शिक्षा देने में टूट जाता है। हम ऐसी शिक्षा के वशीभूत होकर
मातृद्रोह करते हैं। इसके अतिरिक्त विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा देने से अन्य
हानियाँ भी होती हैं। शिक्षित वर्ग और सामान्य जनता के बीच में अन्तर पड़ गया है।
हम जनसाधारण को नहीं पहचानते। जनसाधारण हमें नहीं जानता। वे हमें साहब समझते हैं
और हमसे डरते हैं। वे हम पर भरोसा नहीं करते। यदि यही स्थिति अधिक समय तक कायम रही
तो एक दिन लार्ड कर्जन (जो १८९९-१९०५ तक भारत के वायसराय थे) का यह आरोप सही हो
जाऐगा कि शिक्षित वर्ग जनसाधारण का प्रतिनिधि नहीं है।’’
२१/०४/१९२० को ‘यंग इण्डिया’ में गाँधी जी
भाषा के पक्ष में ‘देशी भाषाओं का
हित’ लेख में विदेशी
विद्वान को उद्धृत करते हुए, ‘‘सेंट पॉल्स कैथिड्रल कॉलेज, कलकत्ता के प्रिंसिपल रेवनेंड डब्ल्यू.ई.एस.हालैंड
अपनी गवाही में लिखते हैं कि ‘जापान ने अपनी भाषा के प्रयोग से एक ऐसी शिक्षा प्रणाली
खड़ी कर दी है जिसका पाश्चात्य जगत सम्मान करता है।’’
महर्षि अरविन्द ने अपनी
पूरी शिक्षा फ्रेंच में पूरी करने के बाद अपनी मातृभाषा बंगाली को सीखा। देश के
पूर्व प्रधानमंत्री ने अपनी मातृभाषा हिन्दी में यूएनओ में भाषण दे कर एक अमिट लीक
बना दी। पूर्व राष्ट्रपति और विश्व के जाने माने वैज्ञानिक अपनी प्राथमिक शिक्षा
मातृभाषा में पूरी कर श्रेष्ठ और अनुकरणीय जीवन का उदाहरण सामने रखा।
मित्रों, सारांश यह कि यदि एक वार मातृभाषा में व्यक्ति की नींव पड़ गई तो जीवन के सुन्दर महल को फिर दुनिया की अनेक भाषाओं से उसे सजाया जा सकता है।
यह एक सुखद संयोग है कि
भारत सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति -2020 हमारे इन पूर्वजों की आकाक्षाओं को साथ लेकर हमारे सामने
आई है। जो अपनी अवधारणा में हर विद्यार्थी को अपने मूल स्वत्वों से जोडक़र न केवल
विश्व मानव बनाने की अपेक्षा रखती है बल्कि ‘स्वं स्वं चरित्रण शिक्षेरण पृथिव्या: सर्वमानव:’ के अवधारणा के
साथ वसुधैव कुटुम्बकम् को साकार रूप देने संकल्प बद्ध है।
मित्रों, इसी विश्वास के
साथ कि जिन विद्यार्थियों को गढऩे का कुशल कारीगर होने का अवसर हमें प्राप्त हुआ
है, हम अपने मातृभाषा
रूपी छेनी को इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति को ध्यान में रखकर पूर्वजों के सपनों के
अनुरूप एक विश्वमानव गढ़ने का प्रयत्न करेंगे।
बहुत बहुत आभार । धन्यवाद
सर बहुत पढ़कर लिखा गया विद्वतापूर्ण और प्रेरक और आत्मसम्मान जगाने वाला आलेख
ReplyDeleteExcellent
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