चार- समीक्षा- वीणा: अप्रेल-मई : मार्च, २०१९ अंक के बहाने से
प्रो उमेश कुमार सिंह
डॉ. लोहिया का माक्र्सवाद पर विचार, ‘माक्र्सवाद वस्तुगत रूप से सम्पति का उन्मूलन करता है,जबकि ईशावास्योपनिषद् वैयक्तिक रूप से सम्पत्ति के उन्मूलन का विचार करता है।’ लोहिया जी का विश्वास है, ‘माक्र्सवाद की सामाजिक और अर्थिक गलतियों के बावजूद, निजी संपत्ति के वस्तुगत उन्मूलन की उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि को दर्ज किया जाना चाहिए और उम्मीद बनाए रखी जानी चाहिए कि कोई और भी ऊँचा विचार फैलेगा जो निजी संपत्ति के विचार का मानसिक रूप से भी उन्मूलन करेगा और जो व्यक्ति तथा वातावरण दोनों के सुधार को अपना आधार बनाएगा।’ डॉ. लोहिया जी का ‘कोई और भी ऊँचा विचार’ भारतीय सनातन विचार ही है। किन्तु उनकी यह बात कहाँ पहुँची यह तो नहीं कह सकता किन्तु लोहियावादियों ने उन्हें अवश्य अपने जीवनोपयोगी व्यवहार से अलग कर दिया है। जो व्यक्ति सनातन दृष्टि को आधार बनाकर अधुनातन भौतिक दृष्टि की समीक्षा करते हुए एक बोध की आशाभारी आश्वस्ति के साथ हमें दिशा देता है उसकी बुद्धिजीवी संतानें धन संग्रह के लिए यादववंशी कारागार में बन्दी बन जीवन यापन कर रहे हैं या पश्चिम बंगाल में माक्र्स के अनुयायी धन का अंम्बार लगाते दिख रहे हैं या राजनेताओं की बहू-बेटिया सोना ले जाती पकड़ी जा रही हैं। यह शंशय की रात कब समाप्त होगी कहना असम्भव है।
नामवर सिंह भी उन्हीं एक माक्र्सवादी समर्थकों में हैं जो संग्रह और त्याग की लोकेषणा के द्वंद्व में जीते रहे। उनकी तुलना किसी भी तरह अज्ञेय से नहीं की जा सकती। अज्ञेय का सारा जीवन आध्यात्मिक है। वे भौतिकता को कहीं नकारते नहीं किन्तु उसका आधार केवल और केवल आध्यात्मिकता को मानते हैं। यदि नामवर सिंह अज्ञेय से जानबूझ कर दूरी रखते हैं तो इससे अज्ञेय की छाया पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अज्ञेय और नामवर सिंह में मूल अन्तर यह है कि अज्ञेय अपनी मेधा के आधार पर सांस्कृतिक मूल्य स्थापित कर मील के पत्थर बनते हैं तो नामवर सिंह शिष्य परम्परा के कंधें पर बैठकर अन्तिम यात्रा करते हैं, इसलिए सम्पूर्ण आनास्थावादी शिष्यों की अंध परम्परा के बावजूद उनकी छाया अर्थी के साथ ही सिमट कर रह जाये तो आश्चर्य नहीं। रमेश दवे का आलेख बड़ी सधी टिप्पणी के साथ सामने आता है। ऐसा लग रहा था कि सामांजस्य बनाने के फेर में नामवर सिंह खुल कर नहीं आ पाये। नामवर सिंह को समझने के लिए जानना आवश्यक है कि नामवर सिंह माक्र्सवादी चेतना को बाह्यवस्त्र के समान पहनते हैं और विश्वविद्यालयीन और साहित्यिक खेमेवाजी में वे माक्र्सवाद के नजदीक खड़े हैं, यह उनके जीवन का द्वंद्व है। उनकी इस प्रतिभा को प्रणाम तो है किन्तु उनके जीवन की सादगी और वैचारिक अभिव्यक्ति को उपेक्षित नहीं किया जा सकता। नामवर सिंह भले ही आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हजारी प्रसाद जी के बीच शिष्य परम्परा का निर्वहन करते दिखते हों किन्तु उनकी जातीय चेतना और गोत्र का गौरव और काशी की विरासत ओझल नहीं होता। उनकी शिष्य परम्परा ही उनके व्यक्तित्व का आधार है। कुछ कमजोरियों और कुछ सामथ्र्य के बीच झूलता उनका व्यक्तित्व अन्त तक उन्हें खेमेवाजी से अलग नहीं कर सका अन्यथा प्रतिभा उनकी अद्वितीय है।
तोमियों मिजोकामि अपने साक्षात्कार में कहते हैं, ‘भारत एक रहस्यमय देश है, ‘लैंड ऑफ वन्डर्स’ है।’ वे कहते हैं, ‘हिन्दी के विश्व भाषा बननें में सबसे बड़ी चुनौती अंग्रेजियत है, अंग्रेजियत मार देती है। भारत में अंग्रेजी का मोह दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। आज से ५० साल पहले भी अंग्रेजियत थी, लेकिन मुझे आशा थी कि नई पीढ़ी हिन्दी को बढ़ावा देगी, पर ऐसा नहीं हुआ। वह अंग्रेजी के मोहपाश से मुक्त नहीं हो पा रही है। ठीक इसके विपरीत, जापान में लोग अपनी मातृभाषा में बात करने में सम्मान महसूस करते हैं। जापान में अंग्रेजी का कोई महत्व नहीं है।’ मुझे स्मरण आ रहा है कि क्लॉड अल्वारिस ने लिखा है, ‘भारत देश नहीं विचार है।’ भाषा को लेकर भारत में द्वंद्व है। हम संस्कृति की बात करते हैं लेकिन उसकी संवाहक संस्कृत को राष्ट्रभाषा कहने में सकोच करते हैं। एक बात और स्मरण रखनी होगी कि जब भारत को विचार कहते हैं तो वह गाँधी के चरखे और खादी तक सीमित कर देने से काम नहीं चलेगा। हमें फिर से उसी उननिषद के विचार सरिता में ही गोता लगाना पड़ेगा। हमारी सामूहिक चेतना में हाँका लगना आवश्यक है। वस्तुत: जिस वर्तमान सामूहिक चेतना में पिछले 70 सालों से माक्र्सवादियों ने डॉका डाला है उसे दुष्यन्त के शब्दों में फिर से ढूँढऩा होगा, ‘यह शोर सुन-सुन के तो लगता ह ै/ कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका पड़ा होगा।’ आज देश का माहौल इस बात से बाहर आने को छटपटा रहा है कि ‘राजनीतिक, आर्थिक और समाजिक स्वतंत्रता ही काफी नहीं है, इसके आगे भी कुछ है जो मनुष्य को मनुष्यता से भरती है।’ दुख यह है कि देश को राजनीति चलाने लगी है और मतिहीन नेताओं के पिछलग्गू हुआ-हुआ बोलने लगे हैं। युवा नेतृत्व के नाम पर वोट साधक और बाधक जातीय उन्मादी नेता तैयार हो रहे हैं तो दूसरी तरफ अंधभक्त चौकीदार। जिन्हें चौकीदार की हैसियत नहीं मालूम, कहने वाले का मन्तव्य नहीं मालूम वे भी श£ोगन करते नजर आते हैं। ऐसे में चोर और चौकीदार का अन्तर समझना कठिन होता जा रहा है। कल एक टी वी चैनल पर स्मृति ईरानी से एक पत्रकार ने पूछा , यदुरप्पा और .. अपने नाम के आगे चौकीदार लगा रहे हैं तो इसके मायने क्या लगाया जाये ? उत्तर कुछ हो भी नहीं सकता था। जो आना अपेक्षित था, वहीं आया। दूसरी तरफ पुरस्कार वापसीकर्ता जब लिखने और बोलने बैठते हैं तो ऐसे पुरुष को गाँधी बना देते हैं जो न तो महात्मा है, न नागरिक-योद्धा लेकिन जमात में शोर अच्छा मचाता है। एक बात को इतना बार रिटेक करता है कि टी वी के रिटेक भी फेल हो जायें।
जिस देश में गांधी जैसे निरहंकारी नेतृत्व के सामने मद और घमण्ड से चूर नेतृत्व को गांधी की जमात में खड़ा करने का अभ्यास सालों-सालों से पड़ गया हो उसके लिए मनुष्य प्रकृति और समाज के सम्बन्ध को समझना और समझाना अंधे को दीपक दिखाना ही होगा। जिस भारतीय राजनीति में गांधी का प्रयत्न भारतीयता और नैतिकता को एक करने का रहा हो वहाँ अनैतिकता इस कदर हावी होगी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था।
जहाँ तक व्यंग्य को देखने का मेरा अपना नजरिया है उसमें उन्हें खरा नहीं पाता। व्यंग्य जब केवल नकारात्मकता को लेकर ही चलते हैं तो प्रभाव नहीं छोड़ते। पंच की कमी दिखती है। लेखक को गुदगुदाना और रोने को विवश करना व्यंग्य की विशेषता होनी चाहिए। हर कोई हरिशंकर परसाई बनना चाहता है किन्तु उनके शिल्प की कसावट नहीं पकड़ता केवल वस्तु का ही चिथड़ा लिए झंडावरदार बना रहना चाहता है। काका कालेलकर ने पत्रकारिता के लिए एक बात कही थी जो आज के रचनाकारों के लिए भी उतनी ही प्रासंगिक है, ‘कलम पकडऩा यानी एक दायित्व स्वीकार करना! कलम पकडऩा यानी लोक-सेवक, लोक-प्रतिनिधि, लोक-नायक और लोक-गुरु की चतुर्विध भूमिका स्वीकार करना।’ मुझे लगता है शब्द शिल्पियों को भी यह स्मरण रहना चाहिए। चौकीदार कहने से जिस तरह चोर चौकीदार नहीं हो सकता उसी तरह चोर-चोर कहने से चौकीदार चोर नहीं हो सकता। हाँ लेखक, वक्ता और उसके अनुयायियों की बौद्धिक चेतना और राजनीतिक मानसिकता अवश्य समझ में आती है। अत: व्यंग्य को यह भी पंच करना आवश्यक होता है कि वह चेला नहीं शिष्य तैयार करें। अपेक्षित राजनीति धर्माधारित है तो सापेक्ष सत्ता छल और प्रपंच की सेज पर विश्राम करती है। जितनी देर तक छल और प्रपंच दृढ़ता से स्थिर रहेगा राजनीति उस या इस दल की उतने ही देर तक व्यक्ति के सिर पर सत्ता का ताज जड़ेगी। किन्तु राष्ट्र और समाज की रक्षा वहीं राजनीतिज्ञ और साहित्यिक कर सकता है जिसका आधार धर्म होगा। भरत का उदाहरण तुलसी बाबा ने दिया किन्तु वह हनुमान को भी उतनी ही ऊँचाई प्रदान करता है। केवल भरत की सार्थकता बिना राम और हनुमान के सिद्ध नहीं हो सकती। इसलिए ललित निबंध टिप्पणी नहीं हो सकते उन्हें विस्तार में जा कर लोक और काल की पहचान के साथ सामने आना होगा। शब्दों के घिसे पिटे मुहावरों के साथ ललित विगलित ज्यादा होगा, बद्ध कम। इसीलिए भरत प्रसंग में तुलसी के साथ मैथिलीशरण गुप्त जी आज भी प्रासंगिक हैं। फिर भी ..साधु शब्द को उठाना अच्छा लगा। कई बार लगता है कि भारतीय मनीषा को भक्त, संत, मुनि, ऋषि आदि पर स्वतंत्र लेखन कर भावी पीढ़ी को समझ देनी चाहिए। समय को देखते हुए यह इसलिए भी आवश्यक है कि साधु और संतों को हमारे विश्वविद्यालयीन शोध गोष्ठियों ने महिला संत, पुरुष संत में विभाजित कर विमर्श प्रारंभ कर दिया है। भला हो उनका महिला संत विमर्श में पुरुषों के उपस्थिति की वर्जना नहीं थी तो दलित महिला संत, जेंडर महिला संत का जिक्र नहीं था। शंकराचार्य को बिना पढ़े ही युवा आलोचक बेवाक टिप्पणी करने में नहीं हिचकते।
साहित्य में लघुकथाएँ अपना स्थान बना रही हैं किन्तु लघु कथाएँ अपने विषय वस्तु को बदलने को तैयार नहीं हो पा रही हैं। शब्दों की हेराफेरी के साथ आज भी एक साथ ‘माता-पिता’ और उनको अपमानित करते कुपुत्र ही दिखाई देते हैं, कहीं तो कुछ अच्छा आज भी होगा ! उसकी भी तलाश होनी चाहिए। कहानियों को पढ़ते हुए दीपदान, पंच परमेश्वर की भूमि की तलाश आज भी अधूरी है।
वीणा ने युवा शोधार्थियों के आलेख को छापने का स्तुत्य कार्य किया है। ऐसे शोधार्धियों को केवल एक ही सुझाव दिया जाना चाहिए कि आलेख में उनका अपना भी कुछ मौलिक चिंतन प्रकट हो। उदाहरण से बात कहें पर अपनी टिप्पणी के साथ और सामयिक परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए कुछ ऐसे भी उदाहरण आने चाहिए कि मस्जिद और मंदिर का विवाद केवल विमर्श से खत्म नहीं हो पा रहा है, अन्यथा कबीर से अधिक प्रशंसा प्राप्त करने वाला कोई नहीं । यूनान दार्शनिक प्लेटो को सदा स्मरण रखना चाहिए जिसमें वह आग्रह करता है कि उन कवियों को कभी माफ नहीं किया जाना चाहिए या उन्हें राज्य में रहने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए जो कल्पना के आधार पर यथार्थ का खण्डन कर प्रतिमाओं को क्षतिग्रस्त करते हैं। आज भारत में तथाकथित बौद्धिक वर्ग सचमुख जिस तरह से दैवीय प्रतिमाओं के साथ महापुरुषों की प्रतिमाओं को खण्डन करने पर प्रगतिशीलता और वैचारिक स्वतंत्रता के नाम पर तुला है वह निन्दनीय ही नहीं आपराधिक श्रेणी में आता है। मैं उन्हें पशु कहना चाहता हूँ जो केवल भोग को ही जीवन मानते हैं किन्तु मैथिलीशरण जी आड़े आ जाते हैं जब वे कहते हैं, ‘किन्तु मनुज को पशु कहना ..’। आलेख सभी अपनी जगह अच्छे हैं किन्तु रमेश शर्मा जी का आलेख और प्रभावी हो सकता था यदि सरल शब्दों का प्रयोग किया जाता। कुछ ज्यादा ही सावधानी में आलेख तैयार किया गया है, प्रवाह कम है। जनमत, कई पत्र पढ़ते हुए बी.एस. शांताबाई , प्रधान सचिव कर्नाटक महिला हिन्दी सेवा समिति बेंगलुरू का पत्र पढ़ा। पत्र में जो भी है पाठकों ने पढ़ा ही होगा किन्तु लगभग आठ दशक का जीवन जी चुकी शांताबाई की पत्रिकाओं के आते ही उन पर एक सकारात्मक टिप्पणी के साथ पत्र डालना प्रणम्य स्वभाव है, पाठकों के लिए प्रेरणा भी।
समाचारों और श्रद्धांजलि के बाद समीक्षा देखी। सुझाव के रूप में केवल इतना ही कहना चाहूँगा कि ज्यादा समीक्षाएँ देने की जगह कुछ कम किन्तु विस्तार से समीक्षा दी जाये तो पाठक अधिक लाभान्वित हो सकेंगे। कारण पुस्तकें न तो प्राप्त होती और न ही खरीदकर पढऩे की अब आदत रही। साथ ही साहित्यिक कृतियों की ही समीक्षा दी जानी अपेक्षित है।
अन्त में सम्पादकीय। ‘बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने उत्पाद के विज्ञापनों के लिए आखिर हिन्दी को क्यों अपना रही हैं?इसलिए कि उन्हें मालूम है कि इस देश में हिन्दी के माध्यम से उत्पाद की विशेषताएँ जनमानस को समझायी जा सकती हैं।’ एक दृष्टि हो सकती है किन्तु सम्पूर्ण नहीं। पहली बात तो यह कि उत्पाद की विशेषताएँ नहीं बताई जाती बल्कि उनके माध्याम से उपभोक्ता को भ्रमित किया जाता है जो आपराधिक कृत्य है। चूकि राजनेता, सामजसेवक और दल सभी उनसे उपकृत हैं इसलिए उपभोक्ता की अनसुना स्वाभाविक है। भाषा का सहारा इसलिए लिया जाता है कि उन्हें भी अभी भ्रम है कि उत्तर भारत में हिन्दी जनभाषा है, जबकि परिस्थिति इसके बिपरीत है। माता जन्मजात शिशु को तोते की तरह अंग्रेजी रटा रही है, चाहे वह किसी जाति, वर्ग की हो। राष्ट्रभाषा और राजभाषा का द्वंद्व जब तक बना रहेगा, भाषा का द्वंद्व बना रहेगा। मेरा यह मानना है कि संस्कृत यदि जिन्दा रही तो प्राकृत, पालि, अप्रभंश और हिन्दी तथा उसकी बोलियाँ के सामान आगे आने वाले समय में कोई और रूप आ जायेगा किन्तु यदि संस्कृत गायब हो गई तो भाषा का पाताल सुनिश्चित है। राष्ट्र की अभिव्यक्ति, संस्कृति की प्रवाह स्वभाषा में ही सम्भव है। हो कसता है कुछ काल तक माक्र्सवादी आलोचक जिंदा रह ले किन्तु उनकी आत्मा यदि होगी तो उसे मुक्ति माक्र्स नहीं ú ही देगा जिसका झगड़ा और अस्तित्व किसी भाषा से नहीं। विश्वास है हम इस दिशा में बढऩे का प्रयत्न करेंगे। ‘सार -सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय।’ समाप्ति अज्ञेय के साथ, ‘भव सारा तुझको है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने। तेरी पुकार-सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यास बने!
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