Tuesday, 13 October 2020

म.प्र. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की साहित्य साधना में प्रकृति

           सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की साहित्य साधना में प्रकृति

  स्वतंत्रोत्तर भारत में राजनीतिक चेतना कई स्तरों पर हमारे सामने उभर कर आई। आर्थिक विषमता, धार्मिक पाखंडवाद, झूठा सेक्युलिरिज्म साथ ही सामाजिक और वैयक्तिक चेतना की छटपटाहट एवं उससे संघर्ष करने की प्रवृति हिन्दी काव्य में देखी जा सकती है। स्पष्टत: समसामयिक परिस्थितियों में व्यक्ति और सत्ता राजनीति का एक-दूसरे से गहरा सम्बन्ध हो गया है। समाज के नैतिक पतन से समस्त व्यवस्था और  राजनीति अछूती नहीं रही। लिहाजा, राजनीतिक अवमूल्यन, सत्ता-संघर्ष, स्वार्थ और पद-लिप्सा जैसे कुत्सित मनोवृत्तियों ंका तेजी से विकास हुआ है। आज का आम आदमी इस भ्रष्ट सत्ता एवं व्यवस्था की जकड़ से मुक्त होने की कोशिश कर रहा है पर उसकी स्थिति त्रिशंकु जैसी हो गयी है। ऐसे में सहज ही प्रश्न उठता है कि इस परिस्थिति में रचनाकार का दायित्व क्या है? उनकी रचनाएं स्वान्त:सुखाय थी या सर्वजन सुखाय। 

तुलसीदास जैसा साहित्यकार, भक्त, कवि जब रामचरित मानस को स्वान्त:सुखाय कहता है तो उसका अर्थ क्या है?  गोस्वामी तुलसीदास जब स्वान्त:सुखाय की बात करते हैं तो उनके काव्य में लोकमंगल है। अत: स्वान्त:सुखाय आत्मकेन्द्रित होने के लिये नहीं। जब सब 'सिया राम मय सब जग जानी' को अर्थात राष्ट्र रूपी देवता को समर्पित होता है तो वहीं स्वान्त:सुखाय सर्वजनसुखाय बन जाता है। तुलसी कहते हैं- 'क्या वरनौ छवि आपकी भले बने हो नाथ। तुलसी मस्तक तब नवै धनुष वाण लै हाथ।।' यह स्वान्त:सुखाय तब सर्वजनहिताय में बदल जाता है जब वे कहते हैं- 'सियाराम मय सब जग जानी। करऊं प्रणाम जोर जुग पानी।' इसका दूसरा कारण तुलसी का कवि के साथ भक्त होना अर्थात आध्यात्मिक जीवन होना भी है।

    सर्वेश्वर दयाल जी ने कहानी, कविता और नाटक तीनों  प्रकार की रचनाएं की। यहां हम उनकी काव्यगत यात्रा पर विचार करेंगे और यहीं पर देखेंगे कि उनकी रचना स्वान्त:सुखाय है या सर्वजनहिताय। सर्वेश्वरदयाल सक्सेना व्यक्तिगत संवेदना को लोक संवेदना बनाते हैं। उनकी व्यक्तिगत चाह देखें- 'मैं नहीं चाहता' शीर्षक में वे कहते  हैं- 'सड़े हुए फलों की पेटियों की तरह/बाजार में एक भीड़ के बीच मरने की अपेक्षा/एकान्त में किसी सूने वृक्ष के नीचे/गिर कर सूख जाना बेहतर है।' 

    सर्वेश्वरदयाल जी के ऊपर विचार करते समय कुछ रचनाओं को छोडक़र उनकी जिन रचनाओं को आधार बनाया गया है उसमें 'प्रतिनिधि कविताएं-राजकमल प्रकाशन से है। और उसका कारण पुस्तक के सम्पादक: प्रयाग शुक्ल का यह लेख है- 'सुधी पाठकों को एक बात और बताना चाहूंगा। इस संकलन की कविताएं सर्वेश्वर जी की पहली किताब 'काठ की घंटियां' से लेकर उनके अन्तिम कविता संग्रह 'खूटियों पर टंगे लोग'  तक से ली गयी है। इस तरह यह उनकी कविताओं का केवल प्रतिनिधि संग्रह ही नहीं है, ऐसा संग्रह भी है जो उनकी काव्ययात्रा के लगभग हर चरण से हमें परिचित करायेगा।

बात को स्पष्टता से समझने के लिए 'प्रतिनिधि कविताएं- राजकमल प्रकाशन के पीछे सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के ऊपर दी टिप्पणी को यहां उद्धृत करना उचित होगा- "समकालीन हिन्दी कविता की व्यापक जनवादी चेतना और प्रगतिशील जीवन-मूल्यों के सन्दर्भ में सर्वेश्वर एक ऐसे कवि के रूप में सुपरिचित हैं जिनकी रचनाएं पाठकों से बराबर धडक़ता हुआ रिश्ता बनाए हुए हैं। उनकी कविताएं नयी कविता की उहा और आत्मग्रस्तता से बड़ी हद तक मुक्त रही हैं। इस संग्रह में उनके समूचे काव्य-कृतित्व से महत्वपूर्ण कविताएं संकलित की गयी हैं। जिन्दगी के बड़े सरोकारों से जुड़ी उनकी कविताएं उन शक्तियों की खिलाफत करती हैं जो उसे किसी भी स्तर पर कुरूप करने के लिए जिम्मेदार हैं। वे घेरों से बाहर के कवि हैं। उनकी कविताओं में हिन्दी कविता का लोकोन्मुख जातीय संस्कार घनीभूत रूप में मौजूद है और उन्हें न तो राजनीतिक-सामाजिक परिस्थियों से काटकर देखा जा सकता है और न कवि के अपने आत्मसंघर्ष को नकारकर। वस्तुत: दु:ख और गहन मानवीय करुणा से प्रेरित संघर्षशीलता, उदात्त सौन्दर्यबोध, मधुर भावनाओं के संधि संस्पर्श की छन्दाछन्द विभिन्न मुद्राएं इन कविताओं को व्यापक अर्थ में मूल्यवान बनाती हैं। 

रचनाकार की पृष्ठिभूमि: रचनाकार की कृति पर उसके पारिवारिक वातावरण, समसामयिक परिवेश और युगीन स्थिति का प्रभाव दिखाई देता है। अत: आवश्यक है कि थोड़ा सा इस पृष्ठभूमि को भी देख लिया जाय। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जीवन भी हर सामान्य व्यक्ति की तरह संघर्षशील रहा। उन्होंने भी अपने जीवन में अनेक उतार-चढ़ावों को देखा और अनुभव किया। आजीवन उन्होंने भागदौड़, स्थानान्तरण, पद-त्याग, पारिवारिक जिम्मेदारी और साहित्यिक रुचि का जो अनुभव प्राप्त किया, कमोवेश उसे ही अपनी रचनाओं द्वारा सम्प्रेषित किया। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना मूलत: कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार और पत्रकार रहे। उनका जन्म 15 सितम्बर, 1927 में बस्ती -उत्तरप्रदेश के पिकोरा गांव में हुआ। माता श्रीमती सौभाग्यवती सक्सेना शासकीय हाई स्कूल में शिक्षक तथा पिता व्यवसायी थे। प्रारम्भिक शिक्षा गांव में तथा बाद में 1942 में एंग्लों संस्कृत हाई स्कूल, बस्ती; तथा 1944 क्वीन्स कालेज, वाराणसी से इंटरमीडियेट तथा प्रयाग विश्वविद्यालय से एम. ए. हिन्दी में पास की। आजीविका के लिए आध्यापक, क्लर्क, आकाशवाणी में सहायक प्रोडूसर, 'दिनमान' के उप-सम्पादक और 'पराग' के सम्पादक रहे।

  साहित्यिक जीवन का आरम्भ कविता से हुआ। 'तीसरा सप्तक में कविताएं संकलित हुईं। 'प्रतीक और अन्य पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे, 'दिनमान के चरचे और चरखे स्तम्भ में वर्षों मर्मभेदी लेखन-कार्य। कला, साहित्य, संस्कृति और राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय हिस्सेदारी। कविता के अतिरिक्त बालोपयोगी साहित्य में महत्वपूर्ण लेखन किया साथ ही अनेक भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद। 1965 में भारतीय सांस्कृतिक मण्डल के प्रतिनिधि के रूप में नेपाल तथा 1972 में सोवियत लेखक संघ के निमन्त्रण पर पुश्किन काव्य समारोह में सम्मिलित हुए। 24 सितम्बर,1983 को आकस्मिक निधन।

बचपन से ही साहित्यिक, सांस्कृतिक वातावरण प्राप्त होने से साहित्य सृजन की अभिरुचि पैदा हुई। परिवार आर्यसमाजी था सामान्य पूजापाठ में अभिरुचि भले ही न रही हो पर राष्ट्रप्रेम के गीत गाना, सुनना उनके लिए आकर्षण का विषय था। उनकी प्रमुख रचनाएं- 'काठ की घंण्टिया','बांस का पुल,'एक सूनी नाव','गर्म हवाएं.

 कविता संग्रह- ,उड़े हुए रंग. उपन्यास -सोया हुआ जल,'पागल कुत्तों का मसीहा ;लघु उपन्यास; 'अंधेरे-पर-अंधेरा ;कहानी संग्रह; 'बकरी ;नाटक;'भों-भों: खों-खों, 'लाख की नाक ;बालोपयोगी नाटक- 'बतूता का जूता, 'महंगू की टाई ;बालोपयोगी कविताएं; 'कुछ रंग कुछ गंन्ध ;यात्रा-वृतान्त तथा 'शमशेर, नेपाली कविताएं सम्पादित।

अपने व्यक्तित्व की खोज में प्रयोगशील कवि आत्मान्वेषण और आतमोंपलब्धि की दिशा में उन्मुख हुआ था। परम्परा से इन तत्वों को आत्मसात करती हुई नयी कविता यथार्थ के प्रति नयी दृष्टि और नये मूल्यों के अन्वेषण की ललक लेकर आगे बढ़ी। यथार्थ के प्रति बदलती दृष्टि से प्रयोगशील कविता अपने पूर्ववर्ती काव्य से अलग पहचान बनाती हुई भी चली थी। यथार्थ के उद्देेश्यगत रूप, यथार्थोन्मुखी आदर्श और भावावेश से काव्य को उबारकर उसने व्यक्ति और युगजीवन के प्रति लगाव तथा संदर्भ का परचिय दिया था। बदलते हुए भाव-बोध के अनुरूप उसने शिल्प का संधान किया। नयी कविता के ये लक्षण सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के काव्य से भली भांति पहचाने जा सकते हैं। उनकी कविताओं में तत्कालीन परिस्थितियों की झलक मिलती है जिनमें यथार्थ ही यथार्थ है।

  सर्वेश्वर के काव्य का प्रारंभ 'काठ की घंटिया' 1949 से 1957 स्वच्छंद मनोभाव के छूटने से होता है। कवि की यह स्वच्छंद भावना युग-यथार्थ से टकराकर अवसाद, वीरान जंगल, जवानी के चिटकते छिलके और दर्द का महासागर है। 'अक्सर एक व्यथा में' दर्द, अवसाद और निराशा का भाव व्यंजित हुआ है- 'अक्सर एक हंसी/ठंडी हवा-सी चलती है,/अक्सर एक दृष्टि/कनटोप-सा लगती है, /अक्सर एक बात/पर्वत-सी खड़ी होती है,/अक्सर एक खामोशी/मुझे कपड़े पहनाती है।/मैं जहां होता हूं/वहां से चल पड़ता हूं,/अक्सर एक व्यथा/या़त्रा बन जाती है।

युग जीवन के संदर्भ में सर्वेश्वर ने अपने युग के विघटन, दर्द, पीड़ा, अनास्था, विवशता, विजडि़त स्थितियों और अकेलेपन का गहरा तथा तीखा अनुभव किया है। 'शांतिमयी तुम हो' में कवि कहता है: -'दर्द के महासागर से कहो,/सामने मेरे न नाचो, /मैं अकेला हूं।

'बांस के पुल' में यह स्वर और भी सघन बनकर आया है। इसमें कवि का स्वच्छंद मनोभाव युग यथार्थ से सम्पृक्त होकर आत्मनिर्वासन, परायेपन के अहसास और मूल्यबोध के रूप में व्यक्त हुआ है। 'सांझ होते ही, 'दर्द किससे कहूं', 'बीत गया यूं दिन बसंत का, 'सर्पमुख के सम्मुख तथा 'अंत में, ये भावनायें फिर से व्यक्त हुई हैं:-'अब मैं कुछ नहीं चाहता/ सुनना चाहता हूं/ एक समर्थ सच्ची आवाज/ यदि काहीं हो।/अन्यथा/ इसके पूर्व कि/ मेरा हर कथन/ हर मंथन/ हर अभिव्यक्ति/ शून्य से टकराकर फिर वापस लौट आए,/उस अनन्त मौन में समा जाना चाहता हूं/ जो मृत्यु है।'

ये भाव स्वच्छंद कल्पनाओं और महत्वाकंक्षाओं के साथ युग यथार्थ के टकराने से जन्में हैं। 'एक सूनी नाव' में एक सूनी नाव की पहली कविता अक्सर एक व्यथ्या में सर्वेश्वर ने लिखा है- 'मैं जहां होता हूं,/वहां से चल पड़ती है,/अक्सर एक व्यथा,/यात्रा बन जाती है।'

सर्वेश्वर की काव्य यात्रा व्यथा के ताने बाने से अधिक बुनी है। 'एक सूनी नाव में कवि की स्वच्छन्द चेतना फिर से सिर उठाती है या अवसाद को ढोती हुई चलती है-'चांद आकाश में/ बड़े सुनहरे मकड़े की तरह/ धीरे-धीेरे गर्व से रेंगता आता है/ या नीला जांधियां पहने।7

'काठ की घंटियां', में यह स्वर धीमा या 'बांस के पुल' में तीव्र हो गया है। जीवन के यथार्थ की विषमता से जन्मा अवसाद अनुभव की तटस्थ व्यंजना के स्थान पर जब स्वच्छंद भाव में पुन: रूपांतरित हो जाता है, तब इसे कवि की प्रकृति  संबंधी कविताओं में देखा जा सकता है। जहां रोमांटिक मनोभाव और युग यथार्थ में यह टकराहट नहीं है, वहां स्वच्छंद मनोभाव कविता को केन्द्रीय स्वर बन गया है। 'सुबह का गीत्य, भयह भी क्या रात', 'तुम कहो्, 'चांद की नीं, और 'प्रेम नदी के तीर'  में यह स्वच्छंद मनोभाव पूरे उभार के साथ अभिव्यक्त हुआ है। 

व्यक्तित्व की खोज और उसको सार्थक बनाने की छटपटाहट सर्वेश्वर की प्रारंभिक कविता में प्रखर रूप में मिलती है, 'पंख दो' में कवि का कथन है:-'पंख दो, पंख दो, अरे मेरे पंख दो,/ और कब तक इस सुलगती डाल पर/ बैठा रहूं निरुपाय।'

सर्वेश्वर परिवेश के बहुआयामी यथार्थ के अनुभवों के माध्याम से व्यक्तित्व की सार्थकता खोजते हैं। व्यक्तित्व का यह अन्वेषण कवि को व्यष्टि से समष्टि तक ले जाता है, जहां उसका व्यक्तित्व अधिक उदार और व्यापक हो जाता है। जैसे 'आत्मसाक्षात्कार, 'नये वर्ष पर',, में यह व्यक्तित्व व्यापक और उदात्त भाव-भूमि से संयुक्त होकर सामाजिक चेतना से संवेदित हुआ है।

ग्राम्य प्रकृति के मोहक चित्र समसामयिकता का दायित्व और जन जीवन के गहरे लगाव को व्यक्त करने में सर्वेश्वर नई कवितावादियों में उल्लेखनीय हैं। 'सावन का गीत',, 'चरवाहों का युगल गान 'गांव की शाम और 'मेरे भीतर की कोयल', 'तुम्हारा मन का सफर' में लोक सम्पृक्ति और ग्राम्य प्रकृति के मोहक चित्र अंकित हुए हैं-'मेरे भीतर कहीं/एक कोयल पागल हो गयी है।.....कहां से लाऊं एक घनी फलों से लदी अमराई'..वह नहीं रहेगी।/ मेरे भीतर की यह पागल कोयल/तब मुझे पागल कर जायेगी।'

लोकगीतों के साथ लोक-भाषा के शब्द जैसे निवोली, भुइयां, ओठंगी, उतानी, करेजवा, कजरी, फुलगंदवा, बिछिया, भूमर, मुंदरी, तरकी, अजोरिया आदि का सुंदर एवं सार्थक प्रयोग किया हैं प्रकृति कें सुंदर ओर संश्लिष्ट बिम्बों, नये उपमानों एवं प्रतीकों से संगुम्फित सांगरूपकों के माध्यम से सर्वेश्वर अपने को, अपने अनुभवों और रचनात्मक कौशल को व्यक्त करते हैं। 'भोर, संध्या का भय, और 'कल राम में अभिव्यक्ति का यह सौंदर्य पूरी तरह उभरा है।

  सर्वेश्वर नये मूल्यों की खोज में आधुनिकता को साथ लेकर चले हैं। युग की समस्याओं के प्रति जागरुक रहकर वे समसामयिकता को व्यंजित करते हैं। विरोधाभासों, विसंगतियों और मूल्यों के विपयर्य पर वे साहस के साथ तीखें व्यंग्य करते हैं। युद्ध, शांति, स्वतंत्रता, प्रतिबद्धता, पूंजीवाद और साम्यवाद को उन्होंने युग-बोध के स्तर से उठाकर, नये प्रतीकों के माध्याम से रचनात्मक अनुभवों के रूप में व्यक्त किया है। पीस पैगोड़ा, कलाकार और सिपाही, बेबी का टैंक, आरे की चिडिय़ा, सिपाहियों का गीत, खाली जेबें, पागल कुत्ते, बासी कविताएं आदि में युद्ध, मतवाद और हिंसक प्रवृत्तियों के विरोधी स्वरों को नये प्रतीकों के माध्यम से संयोजित किया गया है। पीस पैगोड़ा में यह विरोध व्यंग्यपरक हो गया है- 'और इस बार यदि फिर, पीस पैगोड़ा बनाना पड़े/ तो बौद्ध भिक्षुओं के गैरिक वसनों को न भूलना/ क्योंकि उन ढीले चोगों के नीचे/बड़ी-बड़ी आटोमेटिक राइफलें तक/ आसानी से छिपायी जा सकती हैं।।'

  सर्वेश्वर ने भाव-बोध के अनुरूप भाषा का संधान किया है। प्रारंभ में छायावादी शब्दावली और उर्दू के शब्दों का प्रयोग मिलता है, किन्तु धीरे-धीरे उससे निजात पाकर काव्यानुभवों को व्यक्त करने में समर्थ भाषा अपनाने में सफल हुए हैं। नये प्रकृति, प्रतीकों और बिम्बों की ललक 'बांस का पुल' में पुन: उभरी है। 'अपनी बिटिया के लिये दो कविताएं' में प्रकृति का बाल उपकरणों के साथ सुंदर संयोजन हुआ है-भपेड़ों के झुन/बजने लगे;/लुढक़ती आ रही है/सूरज की लाल गेंद।/उठ मेरी बेटी, सुबह हो गयी।' 11 

सांझ एक चित्र, 'जाड़े की सुबह', 'एक प्रतीक्षा', 'जाड़े की धूप', 'आये महंत बसंत', मेें नये बिम्बों और प्रतीकों का सौंदर्य कवि की स्वच्छंदचेतना को सघनता से मूर्त करता है-'आये महंत बसंत।/ मखमल के झूल पड़े हाथी-सा टीला/ बैठे किंशुक छत्र लगा बांध पाग पीला,/ चंवर सदृश डोल रहे सरसों के सर अनन्त। आये महनत बसंत।

ग्राम्य-प्रकृति और लोक-जीवन से गहरा लगाव इन कविताओं में पहले की अपेक्षा अधिक दीप्त होकर आया है। दृश्य, स्पर्श और गंध के बिम्बों तथा रंग-बोध का अनूठा संसार खुलने लगता है। सर्वेश्वर ने मानवीय व्यापारों को प्रकृति के माध्याम से सुंदर ढंग से व्यक्त किया है:- 'अगहनी मुरैठा बांधे' विश्वेश्वर का चरवाहा,/ठाकुर छोर की कच्ची दीवार से/पीठ टिकाए बैठा/धूप सेंक रहा है/सुबह/दमकते सोने से रंग वाली/एक अल्हड़  किशोरी/तुल के रंग की साड़ी पहने/रंग-बिरंगी मूंज की डलिया बन रही है।

  नयी सभ्यता और बुद्धिजीवियों के बनावटीपन, दोगलेपन, धूर्तताओं पर कवि गहरी चोट करता हुआ चलता है। 'भेडिय़ा' की कविता में व्यंग्य देखें-'भेडिय़ा फिर आयेंगे।/ अचानक/तममें से ही कोई एक दिन/भेडिय़ा बन जायेग/उसका वंश बढऩे लगेगा।.... इतिहास के जंगल में/हर बार भेडिय़ा मांद से निकाला जायेगा।/ आमी साहस से, एक होकर/ मशाल लिये खड़ा होगा। इतिहा जिंदा रहेगा/ और तुम भी/ और भेडिय़ा भी।' 

सर्वेश्वर की सोच जब अनुभवों से संयुक्त होती है, तब उनका रचनात्मक अनुभव विशिष्टता के साथ व्यक्त होता है। लगता है अपनी काव्ययात्रा की एक सीमा के बाद सर्वेश्वर दुविधाग्रस्त हो जाते हैं। आत्मबोध और युग यथार्थ की टकराहट से बचने की कोई राह उन्हें दिखायी नहीं पड़ती। विसंगतियों को खोलते-छीलते अवश्य हैं पर उनके कोई विकल्प नहीं खोज पाते हैं। इस दुविधा में वे निजी ढंग के उपमानों और बिम्बों के माध्यम से अपने अनुभवों को बार-बार मांजते रहते हैं या प्रतीकों का सहारा लेकर युग की विसंगतियों पर चोट करके  संतुष्ट हो जाते हैं। गोबरैले कविता में देखें- भयह क्या हुआ/ देखते-देखते/ चारों तरफ गोबरैले छा गए।/ जितनी विष्ठा/उतनी निष्ठा। कितनी तेजी से/यहां हर कोई रच रहा है/ एक गोल मटोल संसार।.. पच्चीस वर्षों से लगातार/यही देखते-देखते/लगता है हम सब/ गोबरैलों में बदल गये हैं।' 

  सर्वेश्वर विसंगतियों की तह में जाकर उनके कारणों को खोजने का प्रयत्न नहीं करते। इसी कारण से वे अपनी समूची ग्राम्य संवेदना, जनजीवन से लगाव, मूल्यों की  खेाज, पहचान की छटपटाहट, अस्तित्व की सार्थकता और नये शिल्प के संधान के बावजूद आगे बढऩे का आभास नहीं दे पाते हैं। यही उनकी उपलब्धियां, उनकी सीमाएं बन जाती हैं।

सर्वेश्वर की काव्य-चेतना में आस्था और विश्वास के स्वर क्षीण और विरले हैं तथा व्यथा के स्वर सघन और स्फीत हैं। 'एक सूनी नाम कवि की्य निराशा के भाव- 'अब मैं कवि नहीं रहा,/एक काला झंडा हूं/ तिरपन करोड़ भौंहों के बीच।/मातम में/खड़ी है मेरी कविता।'

यह कविता कवि के बदलते मिजाज एवं लहजे का सूचक बन जाती है। सनझ् 60 के बाद हिन्दी कविता में युग यथार्थ और राजनीतिक विसंगतियों से सीधी टकराहट व्यक्त हो रही थी। उसे काव्यानुभव के स्तर पर युग कवियों ने ही नहीं, नयी कविता के जाने पहचाने कवियों ने भी व्यक्त किया था। इस समय की अव्यवस्था शासन की असफलता, लंबे-चौड़े नारों, योजनाओं और वक्तव्यों का खोखलापन जाहिर हो चुका था। सर्वेश्वर ने भी उसका अहसास किया था- भढोल की लय धीमी होती जा रही है/ धीरे-धीरे एक क्रांति यात्रा/शव-यात्रा में बदल रही है/सड़ांध फैल रही है/नक्शे पर देश के/ और आंखों मेंं प्यार के/ सीमांत धुंधले पड़ते  जा रहे हैं/और हम चूहों से देख रहे हैं।'

 'गरीबी हटाओं' कविता एक राजनैतिक सोच, सरकारी योजनाओं पर गहरा कटाक्ष है- गरीबी हटाबो सुनते ही/कब्रिस्तानेां की ओर लपके/और मुर्दों पर पड़ी वे चादरे उतारने लगे/जो गंदी और पुरानी थी/फिर वे नयी चादरें लेने चले गये/जब लौटकर आये/तो मुर्दों की जगह गिद्ध बैठे थे।'

  सर्वेश्वर को राजनीतिक विसंगतियों का तीखा अहसास था। 'कुआनो नदी्य की अधिकांश कविताओं में यह अहसास बार-बार उभरा है किन्तु जन-भावनाओं को उभारने के लिये सर्वेश्वर सक्रिय भागीदार नहीं बनते। जरा देर में खौलते और जरा देर में ठंडे पड़ते नजर आते हैं। राजनीतिक-विसंगतियों को उघारते और छीलते हुए भी सर्वेश्वर किसी विचारधारा से प्रतिबद्ध नहीं हैं। लोहिया के प्रति अपनी आस्था और विश्वास को उन्होंने कई कविताओं में अवश्य व्यक्त किया है, किन्तु उन्हें लोहियावादी नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार भखूंटियों पर टंगे लोग्य की कुछ कविताएं ऐसी हैं जिससे लोग उन्हें वामपंथी पक्षधरता का कवि मानते हैं   लेकिन इसी संग्रह में भमृत्यु-दंड्य और भपोस्टमार्टम्य की रिपोर्ट कविताओं में हिंसा और वामपंथी चेतना दोनों को नकरा है। 

  सर्वेश्वर की काव्य यात्रा में कुछ ऐसे बिन्दु हैं जो बार-बार कवि चेतना को उत्पेरित करते हैं। कवि का दर्द, अकेलापन, और निरर्थकता का अहसास जो प्रारंभिक कविताओं में व्यक्त हुआ था वह कवि चेतना को भखुंटियों पर टंगे लोग्य तक मथता रहा है। किन्तु बाद में इन बिन्दुओं से बंधा हुआ कवि छुटकारे का प्रयत्न करता है। सब कुछ कह लेने के बाद कविता में सक्सेना जी की व्यक्ति से समष्टि की यात्रा दिखाई देती है- 'वह मुझसे या मेरे युग से ऊपर है,/वह भावी मानव की थाती है, भू पर है,/बर्बरता में भी देवत्व की कड़ी है वह,/इसीलिए ध्वंस और नाश से बड़ी है वह,/अन्तराल है वह नया सूर्य उगा लेती है,/नये लोक, नयी सृष्टि, नये स्वप्न देती है,/वह मेरी कृति है/पर मैं उसकी अनुकृति 

हूं /तुम उसको मत वाणी देना।। '  

नयी कविता में कवि की अलग पहचान का बनना वस्तुत: उनकी छटपटाहट, और उसके अभिव्यक्ति के लिए नए रूपकों, बिम्बों का सहारा है। कवि अन्त में आस्थावादी और राष्ट्र की मूल चेतना की ओर ही बढ़ता दिखाई देता है। इसलिए कहा जा सकता है कि वस्तुत: सर्वेश्वरदयाल सक्सेना मूलत: प्रकृति, ग्राम्य-जीवन तथा सांस्कृतिक पृष्ठिभूमि में जुड़े रहकर अपनी सामाजिक, राजनैतिक कमजोरियों को संस्कृति और परंपरा के माध्यम दूर करने का प्रयत्न करते हैं।



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