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संवेदना की नोक से झांकता है आज मन।
ओस सी बूंदे छिपाए अश्रु पूरित आज मन।।
लूट लेगा पास पाकर षुभ्र सृजित बूंद धन
देख कर प्राची प्रभा सूखता है आज मन ।।
सांझ संचित किए को फिर पकाता रात यौवन
भोर में उषा किरण से सहम जाता नित्य मन ।।
धन हमारा मन हमारा स्वत्व भी प्रतिदान का
संषय भरे दिन स्वप्न लाता रोज क्यों मन।।
युग-युग की सतत आराधना का छू षून्य पथ
वासना वीणा अचंचल ढो रहा नित साज मन।।
दे सको तो आज दे दो मृत्यु का ताजा कलेवर
हो अमर उस बोध को पा सकूं निज स्वत्व धन।।
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