ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्
'यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:।।‘
अर्थ यह है कि जब तक जीना है सुख से जीना चाहिये। अगर अपने पास साधन नहीं है तो दूसरे से उधार लेकर मौज करना चाहिये। शमशान में शरीर के जलने के बाद शरीर को किसने वापस आते देखा है? मीमांसको का मानना है कि चार्वाक के अनुयायी प्रत्यक्ष दृश्यमान देह और जगत के अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ को स्वीकार नहीं करते। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक पुरुषार्थ चतुष्टय को वे लोग पुरुष अर्थात् मनुष्य देह के लिये उपयोगी मानते हैं। उनकी दृष्टि में अर्थ और काम ही परम पुरुषार्थ है। धर्म नाम की वस्तु को मानना मूर्खता है क्योंकि जब इस संसार के अतिरिक्त कोई अन्य स्वर्ग आदि है ही नहीं तो धर्म के फल को स्वर्ग में भोगने की बात अनर्गल है। पाखण्डी धर्मज्ञों के द्वारा कपोल कल्पित स्वर्ग का सुख भोगने के लिये यहाँ यज्ञ आदि करना धर्म नहीं है बल्कि उसमें की जाने वाली पशु हिंसा आदि के कारण वह अधर्म ही है तथा हवन आदि करना तद वस्तुओं का दुरुपयोग तथा व्यर्थ शरीर को कष्ट देना है इसलिये जो कार्य शरीर को सुख पहुँचाये उसी को करना चाहिये। जिसमें इन्द्रियों की तृप्ति हो, मन आनन्दित हो ही कार्य करना चाहिये।।
देश में दो प्रकार की प्रवृत्ति दिखाई देती है। एक तरफ हजारों करोड़ का कर्ज लेकर या छल कपट से धन जमाकर तथाकथित कुबेर दिखाई देते हैं तो दूसरी तरफ अपने परिवार को रोटी, कपड़ा, मकान जुटाते अतिनिर्धन। निर्धन याचक बना है तो धनी कृपण। कुबेर बैंकों को लूट कर जनता की गाढ़ी कमाई का करोवार कर दिवालिया बन देश विदेश में रह रहे हैं तो कहीं शुक्राचार्य (भृगुवंशी) निर्धनता में आरत बन वंचित कुकर्म कर रहे हैं।
आचार्य क्षेमेन्द्र के कला विलास में कथा आती है कि शुक्राचार्य अपनी गरीबी से तंग आकर अपने मित्र कुबेर के पास जाते हैं और उनसे कहते हैं, 'मित्र! देव और दानवों की अपेक्षा भी अधिक तेरा पूर्ण वैभव मित्र को अतिशय आनन्द देता है और शत्रुओं को दु:ख। तेरी अपार कीर्ति का कुछ पारावार नहीं परन्तु तुझ जैसे धनाढ्य मित्र केरहते मैं दरिद्री रहता हूँ। परम्परा से मान्य है कि दु:ख और सुख में मित्र को सहायता करने केलिए अवश्य कहना चाहिए अत: मैं तुम्हारे पास आया हूँ..अधिक पुण्य से प्राप्त कर यत्नों केकारण से संग्रह कर धरा हुआ भंडार जैसे अनुपम सुख दे कर सुख-दु:ख में सहायता करता है, वैसे ही पूर्वपुण्य से प्राप्त मित्रमणि भी सदा सुख और दु:ख में सहायक होता है।‘ कुबेर ने बात सुनी और कहने लगे, 'तू मेरा मित्र है, मैं तुझको पहचानता हूँ परन्तु प्राणपण सदृश अति बल्लभ इस अपार धन में से तुझको किचिंतमात्र भी नहीं दूँगा।‘
कथा विस्तार पाती है और शुक्राचार्य कपट कर कुबेर की काया में प्रवेश कर उनसे अपने ही शिष्यों को भेजकर धन की याचना करते हैं और शुक्राचार्य कुबेर के भण्डार का एक-एक पाई दान कर देते हैं। शुक्राचार्य जैसे ही उनकी काया से बाहर आते हैं कुबेर को सब ध्यान में आता है और वे न्याय के लिए शिव के पास जाते हैं। शिव के शुक्राचार्य को समझाने पर कि 'तूने कृतघ्र होकर अपने मित्रमणि को ठग कर कांचवत् बना दिया है, यह बहुत ही अनुचित कार्य तूने किया, कारण कि कृतघ्र भी मित्र पर द्रोह नहीं करता। यश की चाह न करने वाले, अपनी मर्यादा को लोप करने वाले कृतघ्री जैसी ठगाई करते हैं वैसी ही ठगाई अपने प्रेमपात्र एकमात्र मित्र से करना तुझ सदृश के लिए उचित नहीं। अरे सुमति! ऐसा कार्य क्या तेरे जैसे विद्धान को उचित कहावेगा? ऐसा आचरण सदगुणों को नाश करनेवाला है। ..तू भृगु के निर्मल वंश को क्यों कलंक लगा रहा है।‘
शुक्राचार्य का उत्तर था, 'महाराज! जो भाग्य अच्छे हों तो इन्द्र के मुकुट पर विश्राम करनेवाली-इन्द्रादि देवों से स्वीकृत आपकी आज्ञा को कौन नहीं स्वीकार करेगा ? परन्तु जिस दरिद्र के घर में लडक़ी, लडक़ा, नौकर-चाकर आदि दु:खी रहते हों उसका पराये का धन हरण करने में बुरे-भले का विचार आदि नहीं रहता। .. शठशिरोमणि लोभी कुबेर ने तो स्पष्ट अस्वीकार किया और मेरी आशा नष्ट कर दी। उसने बिना शस्त्र के मेरा बध किया, बिना विषपान कराये और बिना अग्रि के उसने मुझे दग्ध किया। इस कारण ऐसे परम शत्रु को छलना कोई नीच कर्म नहीं।‘
यह सुन शंकर ने कहा, 'हे शुक्र कुबेर का धन उसे लौटा दे।‘ शुक्र ने कहा प्रभु लिया हुआ धन भी लौटाया गया है, कहीं आप ने सुना है? प्राणांत तक उसका धन नहीं दूँगा।‘शंकर उसे अपनी जठराग्रि में डालकर मर्मांतक पीड़ा देते हैं किन्तु शुक्राचार्य को महादेव की कमजोरी ज्ञात थी वह धीरे से पार्वती का स्मरण करता है और पार्वती प्रसन्न होकर शिव की स्तुति करती हैं और वह बाहर आ जाता है। क्षेमेन्द्र लिखते हैं कि 'हे चन्द्रगुप्त ! लोभी मनुष्य इस प्रकार असह्य दु:ख सहते हैं परन्तु अपने प्राण जाने तक भी हलके लोगों की तरह अपनी कुटिलता नहीं छोड़ते तथा सहज मिल सके ऐसे धन का भी त्याग नहीं कर सकते। इस कारण लोभी होना उत्तम नहीं लोभी का संसर्ग भी अनुचित है।‘ विचार करना होगा हम सत्ता संपन्न जन क्या कर रहें हैं.
जरा आज का परिदृश्य देखें तो समझ में आता है कि शुक्राचार्य निर्धनता में कुबेर से मित्रवत याचना करते हैं किन्तु धन न मिलने पर आरत की तरह कुकर्म करते हैं। राजतंत्र का मुखिया उसे सजा देता है किन्तु मुखिया को नियंत्रित करनेवाली न्यायपालिका शुक्र की याचिका स्वीकार करने सत्ता को मजबूर कर देती है। प्रश् है यह समस्या कुछ वर्षों से ही उत्पन्न हुई है? या यह समाज की सहज कुवृत्ति है।
तभी एक दूसरे छोर से एक आवाज आती है, वंचित को बार-बार अपने स्वार्थवश जब हम उसे लालीपाप देते हैं और कर्ज लेकर अनपेक्षित सुविधाओं में जीने का उसका स्वभाव स्थायी बन जाता है तो उसे सुविधाओं से वंचित करना कठिन ही नहीं दुसाध्य रोग बन जाता है। तब साहित्यकार की भूमिका क्या हो का समाधान देते हुए स्मरण आते हैं पं. माखनलाल चतुर्वेदी, 'दृष्टि का काम बाहर को देखना भी है और भीतर को भी। जब वह बाहर को देखती है, तब रचनाओं पर समय केपैरों के निशान पड़े बिना नहीं रहते। जब वह भीतर को देखती है, तब मनोभावनाओं के ऐसे चित्रण कलम पर आ जाते हैं, जिन्हें समय द्वारा शीघ्र पोंछा नहीं जा सकता-यदि मनोभावनाओं की सतह ऐसी हो जिसमें अगणितों का उल्लास और उनकी भावना प्रतिबिम्बित हो उठी हो, और जिनकी कहानी, अपने अवतरण में, दुहराहटों के दाग से बची रह सकी हो ? यही कारण है कि नेत्र से दीखने वाले सब-कुछ की ओर से आँखें मूँद लेने पर उसका पता नहीं लगता; किन्तु भीतर को देखने वाली दुनिया आँख मूँद लेने केबाद भी दीखती है और सूझती रहती है, इसलिए वह समय के हाथ के मिटाये नहीं मिटती। इसलिए, समय के निशानों वाली वस्तु, समय बदलते ही अपना अस्तित्व खोने लगती है ..। युग का लेखक, न तो खुली आँखों से देखकर, उलट-पुलट होते जगत् पर अपना रक्तदान करने से चूक सकता, न मुँदी आँखों की दुनिया में महामहिम मानव की कोमलतर और प्रखरतर मनोभावनाओं की पहुँच तक जाने से ही रुक सकता है।“
जब-जब समाज के अन्दर एक बिखराव, टूटन, संघर्ष की स्थिति बनी है तब-तब साहित्यकारों की गंभीर भूमिका सामने आई है। पं. माखन लाल चतुर्वेदी लिखते हैं, 'वस्तुओं में उनके रूप, स्वाद और उनकी उम्र की तरह घटते-बढ़ते रहनेवाले, तथा उनके अस्तित्व के कारण की तरह छिपकर अमर होकर बैठने वाले तत्त्व को कौन सा नाम दिया जाये ? मानव-मनोभावनाओं के विकार मानव-निर्माण के दिन से भले ही सुसंस्कृत होते गये हों, किन्तु उनके स्रोत है गिने-चुने ही। तत्त्वज्ञ उनके मूल स्रोतों तक मन को पहुँचाने में यत्नशील रहा; कवि उन स्रोतों को उज्ज्वल रूप और बेदाग वाणी प्रदान करने में अपने स्वप्रों में जागरूक रहा। यही कारण है कि कवि मानव की, मानवी की, नदी की, पर्वत की, पत्थर की, पानी की, झरने की किस-किसकी ओर से नहीं बोला ? उसकी बोली उसकी अनुभूति और आकलन का अनोखा आविष्कार बनकर आती रही। वह खुली आँखों के कौशल को भी रूप, रस और वाणी दान करता रहा और सूझ के पैरों अनुभूतियों तक पहुँचने के अपने मूक वैभव को भी। शायद उसकी इसी बात के समर्थन में, अनन्त युगों के ऐसे पुराने लोग, जिनकी वाणी पुरानी नहीं हो पाई, कह गए हैं कि- '' यदि मानव की महत्ता है जानना और सोचना, तो इस दोनों पक्षियों की उड़ान का प्राण है याद। और याद के इतिहास को पीछे खींचो, तो उसी दिन से मानव निर्मित होता चला आ रहा है”. तभी तो कवि की याद मुखर हो उठती है, 'सूली का पथ ही सीखा हूँ, सुविधा सदा बचाता आया, मैं बलि-पथ का अंगारा हूँ, जीवन-ज्वाल जलाता आया।‘ क्या साहित्यकार की यह भूमिका वर्तमान संक्रमित-राजनीतिक परिवेश में समाज को जगाने की नहीं हो सकती ?
उमेश कुमार सिंह
umesksingh58@gmail.com
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