Sunday, 2 June 2024

brahm jigyasa , akshar brahm, panchkosh (personality development ) व्यक्तित्व विकास -ब्रह्म, अक्षर ब्रह्म तथा पंचकोश part one

 

व्यक्तित्व विकास के प्रश्न

इकाई एक


(यह जिज्ञासा समाधान स्नातक एवं परा स्नातक के साथ शोध क्षेत्र में लगे विद्यार्थियों के लिए है . यह दर्शन, साहित्य, मनोविज्ञान, धर्म शास्त्र , योग एवं भाषा के विद्यार्थियों के लिए भी उपयोगी है . शिक्षक भी लाभ उठा सकते हैं . इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करना चाहिए - सादर )

1.      जिज्ञासा - “ॐ शं नो मित्रः शं वरुण: शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विश्नुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षम ब्रह्मास्मि । त्वामेव प्रत्यक्ष्मं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यम वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्त्रारमवतु । अवतु माम् । अवतु वक्तारम् । ॐ शांतिः शांतिः शांति:” यह प्रार्थना किस उपनिषद से ली गई है ?

             समाधान  - कृष्ण यजुर्वेदीय तैतरीय शाखा ,तैत्तिरीयोपनिषद ।

  

2.      जिज्ञासा - “दुष्टः शब्दः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्या प्रयुक्तो न तमर्थमाह । स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोपराधात् ।। यह कथन किसका है ?

       समाधान  -  महर्षि पतंजलि का  ( महाभाष्य पस्पशाह्निक में )

3.      जिज्ञासा - स्वर भेद कितने प्रकार के होते हैं ?

       समाधान - हस्व, दीर्घ और प्लुत ।

4.      जिज्ञासा - मात्रा भेद को  समझ कर उच्चारण न करने से क्या हानि होती है ?

       समाधान  -  हस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर हस्व का उच्चारण करने से अर्थ बदल जाते हैं, जैसे- सीता और सिता । कृष्ण और कृष्णा ।

5.      जिज्ञासा- ‘बल का अर्थ क्या है ?

समाधान - ‘ बल’ का अर्थ प्रयत्न है, वर्णों के उच्चारण में उनके ध्वनि को व्यक्त करने में जो प्रयास करना पड़ता है,  वही ‘प्रयत्न’ कहलाता है ।

6.      जिज्ञासा - ‘प्रयत्नकितने प्रकार के होते हैं ?

समाधान -‘प्रयत्न’ दो प्रकार के होते हैं 'आभ्यांतर और बाह्य ।'

7.      जिज्ञासा- ‘अभ्यांतर’ के कितने भेद (प्रयत्न) होते हैं ?

समाधान -  स्पृष्ट, ईषत्-स्पृष्ट, विवृत, ईषद-विवृत, संवृति - ये पांच आभ्यांतर के भेद हैं

8.      जिज्ञासा- ‘बाह्य’ के कितने भेद (प्रयत्न) हैं ?

समाधान- ‘बाह्य’ के स्वारित, विवर, अनुदात्त, उद्दात्त, महाप्राण, अल्पप्राण, अघोष, घोष, नाद, श्वांस, संवार ग्यारह भेद होते हैं ।  

  

9.      जिज्ञासा- ‘क’ से लेकर ‘म’ तक के अक्षरों के आभ्यांतर प्रयत्न को क्या कहते हैं ?

समाधान - स्पृष्ट’, क्योंकि कंठ आदि स्थानों में प्राणवायु के स्पर्श से इनका उच्चारण होता है

 

10.  जिज्ञासा - ‘क’ के बाह्य प्रयत्न कौन से हैं ?  

समाधान - बाह्य प्रयत्न विवर, श्वांस, अघोष तथा अल्पप्राण है

 

11.  जिज्ञासा- ‘साम’ किसे कहते हैं ?

समाधान - वर्णों का संवृति से उच्चारण या साम-गान की रीति को सामकहते हैं

 

12.  जिज्ञासा- ‘ संतान’ का अर्थ क्या है ?

समाधान - ‘संहिता या  संधि ।


13.  जिज्ञासा- ‘संधि’ किसे कहते हैं ?  

समाधान - स्वर, व्यंज्जन, विसर्ग अथवा अनुस्वार आदि अपने परवर्ती वर्णों के संयोग से कहीं-कहीं नूतन रूप धारण कर लेते हैं । इस प्रकार वर्णों का यह  संयोग जनित विकृति भाव संधि कहलाती है ।


14.  जिज्ञासा- ‘प्राकृति भाव’ क्या है ?

समाधान -  किसी स्थान, विशेष स्थल में जहां संधि बाधित होती है, वहां वर्ण में विकार नहीं आता, अत: उसे प्रकृति भाव कहते हैं ।

 

15.  जिज्ञासा- ‘संहिता’ किसे कहते हैं ?  

समाधान - वर्णों में जो संधि होती है, उसे संहिता कहते हैं


16.  जिज्ञासा- ‘महासंहिता’ किसे कहते हैं ?

समाधान- संहिता दृष्टि जब व्यापक रूप धारण करके लोक आदि को अपना विषय बनाती है, तब उसे महा संहिताकहते हैं


17.  जिज्ञासा - महासंहिता या महासंधि के कितने आश्रय होते हैं ?  

समाधान - लोक, ज्योति, विद्या, प्रज्ञा और आत्मा (शरीर) पांच आश्रय होते हैं ।


18.  जिज्ञासा  - प्रत्येक संधि के कितने भाग होते हैं ?

समाधान - पूर्व रूप, उत्तर रूप, संधि और संधान यह चार भाग होते हैं

 

19.  जिज्ञासा-  ‘नियम’ क्या है ?

समाधान- पूर्व रूप और उत्तर रूप के मेल से होने वाला रूप तथा दोनों का संयोजक ‘नियम ’ कहलाता है ।


20.  जिज्ञासा - ‘ लोक’ को संधि के चार प्रकारों से समझाइए ?

समाधान-  पृथ्वी यह लोक ही पूर्व रूप है, स्वर्ग ही संहिता का उत्तर रूप’ (पर वर्ण’ हैं ।आकाश या अन्तरिक्ष ही इन दोनों की ‘संधि’ है और वायु इनका ‘संधान’ । यहाँ वायु का अर्थ प्राण है ।


21.  जिज्ञासा- ‘अग्नि’ को संधि के  चार प्रकारों से समझाइए?  

समाधान-  ‘अग्नि’ इस भूतल पर सुलभ है उसे पूर्व रूप, सूर्य द्युलोक में प्रकाशित रहता है अत: उसे उत्तर रूप,  इन दोनों से उत्पन्न होने के कारण ही संधि मेघ है तथा विद्युत् शक्ति ही इस संधि की हेतु है। इन ज्योतियों के सम्बन्ध से उत्पन्न होने वाले भोग्य पदार्थों को ‘जल’ का नाम दिया गया है ।


22.  जिज्ञासा -  वेद या विद्या को संधि के चार प्रकारों से समझाइए ? 

समाधान - आचार्य  को ‘पूर्व रूप’ पहला वर्ण मना गया है, अन्तेवासी शिष्य ‘उत्तर’ वर्ण है । दोनों के मिलन से उत्पन होने वाली ‘विद्या’ है, गुरु को श्रधा से सुनकर उसे धारण करना संधि या संधान है  


23.  जिज्ञासा- ‘संतान’ उत्पति को संधि के चार प्रकारों से समझाइए ?

       समाधान - माता को पूर्व रूप, पिता को उत्तर रूप, संतान उत्पन्न होने का उद्देश्य संधान तथा संतान उत्पन्न होना  ‘संधि’ हैं


24.  जिज्ञासा -  ‘मुख’ को संधि के चार प्रकारों से समझाइये ?

       समाधान - नीचे के जबड़े को ‘पूर्व रूप’,ऊपर के जबड़े को ‘परवर्ण’, दोनों के मिलन को ‘संधि’ तथा जिह्वा वर्ण से उत्पन्न होने के कारण ‘संधान’ है ।


25.  जिज्ञासा-   ॐ क्या है ?

समाधान -   ॐ ब्रह्मदेवानां प्रथमः संबभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता ।         

स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह ॥ (मुण्डको१..)

ॐ इत्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं

भूतं भवद् भविष्यदिति सर्वमोङकार एव

       यच्चान्यत् त्रिकालतीतं तदप्योङकार एव ॥(माण्डूक्य-१)

  ॐ - यह अविनाशी शब्द ही इस दृश्यमान ब्रह्माण्ड का सम्पूर्ण स्वरूप है। इसकी व्याख्या इस प्रकार है-क्या हो  गया है, क्या हो रहा है, क्या होगा, यह सब वास्तव में ॐ है । और जो समय की इन तीन अवस्थाओं से परे है, वह भी, वास्तव में, ॐ है। ॐ यह पमेश्वर का नाम वेदोक्त जितने भी मन्त्र है उनमें सर्वश्रेष्ट मन्त्र कहा गया है ।  यह ईश्वर स्वरुप है । ‘ॐकार’नाम है, परमेश्वर नामी है ।


26.  जिज्ञासा-  ॐ में श्रध्दा-भक्ति कैसे हो ?

समाधान -  ॐ परमब्रह्म परमात्मा का नाम होने से (प्रणव ‘ॐ’उसका वाचक होने से ) स्वयं साक्षात् परमब्रह्म ही है । यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला जगत ही ॐ है । ॐ यह अनुकृति अर्थात् अनुमोदक सूचक है ।


27.  जिज्ञासा- ‘परा से लेकर बैखरी’ तक की यात्रा क्या है ?

 समाधान - उपनिषद का ऋषि परा से लेकर बैखरी’ तक की यात्रा पूर्ण कर आत्मोघटन करता है कि विश्व में भूत, भविष्य और वर्तमान में तथा इसके परे भी जो नित्य तत्व सर्वत्र व्याप्त है, वह ॐ है । यह सब ब्रह्म है और यह आत्मा भी ब्रह्म है ।  यहीं से नाद की वह यात्रा प्रारंभ होती है जहाँ ब्रह्म के भेद का प्रपंच नहीं होता और  केवल अद्वैत शिव (ॐ) ही रह जाता है।


28.  जिज्ञासा - गायत्री मन्त्र में तीन व्याव्हृतियाँ ?

 समाधान - गायत्री मन्त्र में तीन व्याव्हृतियाँ जिनका प्रथम रूप - भू:, भुवः, स्वः और चौथी व्याहृति ‘मह:’ आती है । ऋषियों का मत है कि यही ‘मह:’ ब्रह्म है । ‘भू:’ यह पृथ्वीलोक है तो भुवः’ यह अन्तरिक्ष लोक और ‘स्वः’ यह स्वर्गलोक है । ‘मह:’ यह सूर्यलोक है । अर्थात् ‘भू:, भुवः, स्वः’ यह तीनों व्याव्हृतियाँ परमेश्वर के विराट शरीर रुपी इस ब्रह्माण्ड को बताने वाली हैं, तो ‘मह:’ यह चौथी व्याव्हृति परमेश्वर के आत्मस्वरूप है ।


दूसरा रूप - ‘भू:’ यह व्याहृति अग्नि का नाम होने से मानों ‘अग्नि’ ही है ।  यह ज्योतिस्वरूप है । ‘भुवः’ यह वायु स्वरुप है । वायु देवता त्वक-इन्द्रिय स्पर्श को प्रकाशित करनेवाली ज्योति और त्वचा भी समझना चाहिए । ‘स्वः’ यह सूर्य है ।  सूर्य चक्षु -इन्द्रिय का अधिष्ठाता देवता है । ‘मह:’ यह  मानो चन्द्रमा है और चन्द्रमा मन का देवता है । ‘मन’ के कारण ही सभी इन्द्रिया क्रियाशील रहती हैं, अत: ‘मन’ ही  प्रधान है ।

 तीसरा स्वरुप - भू: ऋग्वेद , भुवः सामवेद, स्वःअजुर्वेद और मह: यह ब्रह्म है । चौथा - भू: प्राण, भुवःअपान, स्वः व्यान और मह अन्नं है । अन्न में ही सभी प्राण महिमायुक्त होते हैं, अत: ‘मह:’ ही ब्रह्म स्वरुप प्राण है ।


29.  जिज्ञासा  -  ‘ब्रह्मरन्ध्र’ क्या है ?

समाधान - ह्रदय के भीतर जो अंगुष्ठ मात्र परिणाम वाला आकाश है, उसी में विशुद्ध प्रकाश स्वरुप अविनाशी मनोमय अंतर्यामी पर पुरुष पमेश्वर विराजमान हैं, वहीं उनका साक्षात्कार होता है । मनुष्यों के मुख में तालुओं के बीचोबीच जो एक न के आकार का मांस -पिंड लटकता है, जिसे बोलचाल की भाषा में ‘घंटी’ कहते हैं उसके आगे केशों का मूलस्थान ‘ब्रह्मरन्ध्र’ है ।


30.  जिज्ञासा- ‘सुषुम्ना’ क्या है ?

समाधान- ह्रदय देश से निकलकर घंटी के भीतर से होती हुई दोनों कपालों को भेद कर जो नाड़ी गई हुई है वह सुषुम्ना नाम से प्रसिद्ध है , उसे परमेश्वर प्राप्ति का द्वार कहा जाता है ।


31.  जिज्ञासा  -पदार्थ के कितने भाग यहाँ सामने आते हैं?

समाधान- पदार्थ के दो भाग यहाँ सामने आते हैं, प्रथम में आधिभौतिक पदार्थों को लोक, ज्योति और स्थूल पदार्थ माना जाता है तथा दूसरे भाग में प्राण, करण और धातु का वर्णन आता है


32.  जिज्ञासा  - लोक की आधिभौतिक दिशाएं कितनी हैं ?

समाधान - लोक की आधिभौतिक दिशाएं- पृथ्वीलोक, अन्तरिक्षलोक, स्वर्गलोक, पूर्व-पश्चिम दिशाएँ आदि तथा आग्नेय, नैरित्य, वायव्य ,ईसान,आकाश, पाताल आदि अवांतर दिशाएं हैं ।


33.  जिज्ञासा  -   लोक की आधिभौतिक ज्योतियाँ  कितनी हैं ?

समाधान - अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्र यह ज्योतियों की आधिभौतिक पंक्ति हैं ।


34.  जिज्ञासा  - भौतिक स्थूल शरीर (जड़ पदार्थों ) की आधिभौतिक पंक्तियाँ कितनी हैं ?

समाधान - जल, औषधियां, वनस्पतियाँ,आकाश और पांच भौतिक स्थूल शरीर जड़ पदार्थों की आधिभौतिक               पंक्तियाँ हैं ।


35.  जिज्ञासा  - प्राणों की पंक्ति कितनी हैं ?

समाधान - प्राण, अपान, उदान, सामान और व्यान प्राणों की पंक्ति हैं ।


36.  जिज्ञासा  -  करण समुदाय की पंक्ति कितनी हैं ?

समाधान -  नेत्र, कान, मन, वाणी और त्वचा करण समुदाय की पंक्ति है ।


37.  जिज्ञासा  - शरीरगत धातुओं की पंक्ति कितनी हैं ?

समाधान -  चर्म, मांस, नाड़ी, हड्डी और मज्जा शरीरगत धातुओं की पंक्ति हैं ।


38.  जिज्ञासा - आधिभौतिक और आध्यात्मिक विकास में लोक ,ज्योति , स्थूल पदार्थों का आपस में क्या समबन्ध है ?

समाधान -  इनके सम्बन्ध को सारिणी से इस प्रकार समझा जा सकता है -

(1)आधिभौतिक ‘लोक’ सम्बन्धी पंक्ति से चौथी प्राण- (प्राण, अपान, उदान, सामान और व्यान) समुदाय रूप आध्यात्मिक पंक्ति का सम्बन्ध है । 

(2) ‘ज्योति’ विषयक आधिभौतिक पंक्ति से पांचवीं करन -(नेत्र, कान, मन, वाणी और त्वचा) समुदाय रूप आध्यात्मिक पंक्ति का सम्बन्ध है ।

(3) ‘स्थूल’ पदार्थों की आधिभौतिक पंक्ति का छ्ठी शरीरगत धातुओं -(चर्म, मांस, नाडी, हड्डी और मज्जा) से सम्बन्ध है क्योंकि ओषधि और वनस्पतियाँ अन्न से ही मांस-मज्जा आदि की पुष्टि और वृद्धि करती हैं ।


39.  जिज्ञासा  - तपश्चर्या क्या है ?

समाधान -  ॐ उच्चारण के साथ सत्य भाषण और सत्यभाव पूर्वक कार्य करने को ही तपश्चर्या कहलाती है । पुरुशिष्ट पुत्र तपोनित्य ने तपश्चर्या को ही सर्व श्रेष्ठ माना गया है । मुद्गल पुत्र नाक का कहना है, धर्मशास्त्रों का अध्यन-अध्यापन ही तप है । त्रिशंकु का कहना है की अंत:करण में भावना करना भी परमात्मा की प्राप्त का साधन है ।


40.  जिज्ञासा  -   आचारण क्या है ?

समाधान -  “ सत्यंवद । धर्मं चर । स्वध्यायान्मा प्रमद: । इसी में “मातृदेवो भाव । पितृदेवो भाव । आचार्य देवो भव।” की  भी बात कही है । यही भाव लेकर जीवन का निर्वाह करना सत्याचरण है ऐसा शास्त्रों का मत है ।


  षठचक्र और वर्णमाला

41.  जिज्ञासा  - ॐ क्या है ?

समाधान -  ॐ अ, उ और म तीन अक्षरों के योग से बनता है । ॐ ईश्वर माला का प्रथम अक्षर है ।


42.  जिज्ञासा  - स्वर माला में ‘अ’ का महत्व क्या है ?

समाधान -  स्वरों में ‘अ’ वर्णमाला का प्रथम अक्षर है । प्रत्येक ध्वनि के उच्चारण के लिए इसकी आवश्यकता पड़ती है,  चाहे शिशु हो, गूंगा हो या पशु जो कंठ , जिह्वा अथवा तालव्य से ध्वनि निकाल सकता है । ‘अ’ स्वर के बिना, जब तक की अन्य कोई स्वर अंत में न आ रहा हो, कोई भी ध्वनि उच्चारण योग्य नहीं होती ।


43.  जिज्ञासा  -   ‘अ’ स्वर के बाद कौन से स्वर आते हैं ?

समाधान -  ‘अ’ स्वर के बाद उ, इ आदि स्वर आते हैं । ॐ का दूसरा अक्षर ‘उ’ प्रथम स्वर की ध्वनि परिवर्तन में सहायता करता है । ॐ का तीसरा अक्षर ‘म’ अनुस्वार की ध्वनि उस प्रत्येक शब्द में अंतर्निहित है जो नासिका के सहयोग से उच्चारित होता  है    इस प्रकार ॐ सभी उच्चारित और अनुच्चारित ध्वनियों की पृष्ठभूमि का कार्य करता है और इसीलिए इसे मूर्तिमंत ईश्वर अथवा शब्द ब्रह्म  माना जाता है ।


44.  जिज्ञासा - भारतीय ज्ञान और दर्शन परम्परा में वाणी को कितने भागों में बांटा गया है ?

समाधान -  ऋषियों ने वाणी को चार भागों में परिचय कराया है - परा, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी । ‘परा’ अव्यक्त ज्ञान  की मूल चिति शक्ति है । ‘पश्यन्ति’ ज्ञान की व्यक्त चेतना है । ‘मध्यमा’ ज्ञान की विचारों और भावों में अभिव्यक्ति  की मध्य अवस्था है और ‘वैखरी’ शब्दों के आवरण में अलंकृत उच्चारित ध्वनि है ।

45.  जिज्ञासा  -   संस्कृत के पचास अक्षरों का मनुष्य शरीर से क्या सम्बन्ध है ?

समाधान -  अक्षरों में सोलह ‘अआइईउऊऋऌळॄएऐओऔअंअ:’ स्वर होते हैं, जो विशुद्ध चक्र में स्थापित हैं ।


46.  जिज्ञासा - पच्चीस व्यंजनों को कितने श्रेणियों में बांटा गया है?

समाधान - क,च,ट,त,प वर्ग के पच्चीस व्यंजनों को पांच श्रेणियों में बांटा गया है- कखगघङ, चछजझञ, टठडढण, तथदधन,पफबभम । 


47.  जिज्ञासा -  क,च,ट,त,प वर्ग के व्यंजनों के प्रत्येक श्रेणी पाँचों अक्षरों की स्थिति कैसी होती है ?

समाधान - क,च,ट,त,प वर्ग के पहले दो अक्षर कठोर, बाद के दो कोमल और अंतिम अनुनासिक हैं ।


48.  जिज्ञासा  -  अर्द्ध व्यंजन क्या हैं ?

समाधान -  ‘यरलवशषसहळ’ अर्द्ध व्यंजन हैं ।


49.  जिज्ञासा  - संयुक्त अक्षर क्या हैं ?

समाधान -  ‘क्ष’ ‘क्’ और ‘ष्’ का संयुक्त अक्षर है । सभी मन्त्र इन्हीं अक्षरों और ध्वनियों के संयोग से बनाते हैं, जिनका उच्चारण शरीर और मन को वांछित रीति से प्रभावित करता है ।


50.  जिज्ञासा  -  मन्त्रों का योग विज्ञान से क्या सम्बन्ध है ?

समाधान -  मन्त्रों का योग विज्ञान से सम्बन्ध वर्णमाला के आधार पर होता है ।


51.  जिज्ञासा  - मन्त्रों का योग विज्ञान से सम्बन्ध कितने प्रकार से होता है ?

समाधान -  इस सम्बन्ध को हम तीन प्रकार से समझ सकते हैं -

(i)  ध्वनि के प्रभाव से सभी स्वर मुख्यतः इड़ा से जुड़े होते हैं ।

(ii)  इनमें अल्प स्वर पिंगला, दीर्घ स्वर इड़ा तथा ए ऐ ओ औ चार स्वर सुषुम्ना से सम्बंधित हैं ।

(iii)  अनुनाशिक ध्वनि आत्मा एवं विसर्ग शक्ति से सम्बंधित है ।


52.  जिज्ञासा - पुलिंग , स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग कैसे समझेंगे ?

समाधान -  अल्प स्वर पुलिंग और दीर्घ स्वर स्त्री लिंग हैं तथा ए ऐ ओ औ नपुंशक लिंग हैं ।


53.  जिज्ञासा  - पिंगला, सुषुम्ना, इड़ा के साथ वर्णमाला के सम्बन्ध बताइए ?

समाधान -  क् से लेकर म् तक पच्चीस व्यंजन मुख्यत: पिंगला एवं नौ अर्द्ध व्यंजन (यरलवशषसहळ) सुषुम्ना से सम्बंधित हैं । इसके आगे अल्प-स्वर  सहित क् से लेकर क्ष् तक सभी व्यंजन पिंगला से, दीर्घ स्वर इड़ा से एवं ए ऐ ओ औ आदि स्वरों से संपृक्त होने पर सुषुम्ना से संबध होते हैं । अनुनासिक से अंत होने पर आत्मा और विसर्ग से शक्ति प्रभावित होती है ।


54.  जिज्ञासा  -  षट्चक्रों से अक्षरों के सम्बन्ध बताइये ?

समाधान -  षट्चक्रों से अक्षरों का सम्बन्ध इस प्रकार है - सोलह स्वर (अआइईउऊऋऌळॄएऐओऔअंअ:) विशुद्ध चक्र स्थित कमल की सोलह पंखुड़िया हैं । क् से लेकर ठ् तक के बारह व्यंजन अनाहत चक्र के पटल हैं । ड से लेकर फ तक के दस व्यंजन मणिपूर चक्र से सम्बंधित हैं । ब से लेकर ल् तक के छह अक्षर स्वाधिष्ठान चक्र तथा व् श् ष् स आदि चार अक्षर मूलाधार चक्र से सम्बंधित हैं । ह क्ष् आज्ञा चक्र स्थित बताएं गए हैं । 


55.  जिज्ञासा  - उच्चारण की दृष्टि से वर्णमाला का विभाजन बताइये ?

समाधान -  उच्चारण की दृष्टि से वर्णमाला का विभाजन इस प्रकार माना गया है- अ आ क ख ग घ ङ ह- विसर्ग कंठ्य, इ ई च छ ज झ ञ य श तालव्य, उ ऊ ओ औ प फ ब भ म ओष्ठ्य,ऋ ट ठ ड ढ ण र ष कोमल तालव्य , ऌ त थ द ध न ल स  दन्त्य, ङ ञ म ण न  अनुस्वार और अनुनासिक हैं तथा व् दन्त्योष्ठ है ।


56.  जिज्ञासा - हठयोग की परिधि कहाँ से प्रारम्भ होती है ?

समाधान -  जब उच्चारण से जिह्वा की संवेगी तंत्रिकाएं प्रभावित होकर कंठ, तालू, नासिका, दन्त्योष्ठ आदि में स्थित ज्ञान तंतुओं को भेद कर कपाल, भ्रुवोर्मध्य आदि के नाड़ी जाल के केंद्र को उद्वेलित कराती हैं तब यह हठयोग की परिधि में आता है । 

57.  जिज्ञासा  -  लय योग की परिधि कहाँ से प्रारम्भ होती है ?

समाधान - जब ध्वनि श्रवणेद्रियों के माध्यम से तत्संबंधी मस्तिष्क केंद्र को उद्बुद्ध करती हैं तब यह क्रिया लय योग के अंतर्गत आती है ।


58.  जिज्ञासा  - भक्ति योग की परिधि कहाँ से प्रारम्भ होती है ?

समाधान -  जब संवेगी तंत्रिकाएं  मन प्रभावित होकर प्रेम, आनंद, शांति और भक्ति से भर उठाता है ,तब यहाँ से  भक्ति योग का क्षेत्र प्रारम्भ होता  है ।


59.  जिज्ञासा -  साधक या योगी कौन-सी ध्वनि को सुनता है?

समाधान - साधक या योगी उसी ध्वनि को सुनता है जिसका सम्बन्ध सुषुम्ना नाड़ी से होता है।


60.  जिज्ञासा -   मन्त्र और ईश्वरीय नामों  का निर्माण वर्णमाला के किन अक्षरों से होता है ?

समाधान - मन्त्र का निर्माण ए ऐ ओ औ य र ल व श ष स ह आदि विसर्ग और अनुनासिकों से बनाते हैं । मन्त्र के साथ नाम भी इन्हीं से बनाते हैं - ॐ, हरी, हर, राम, शिव, ईश, ह्वीम, एम, श्री, हुम, आदि । ‘क’ ब्रह्म वाचक होने से शंकर, कृष्ण, काली, क्लीम आदि में पुनरावृति होती है ।


61.  जिज्ञासा  - मन्त्र का उच्चारण कितने प्रकार कार्य करता है ? 

समाधान- मन्त्र का उच्चारण तीन प्रकार से कार्य करता है - (i) उच्चारण एक वाचिक आभास है इनकी अर्थ चेतना एक मानसिक क्रिया है ।

(ii) ध्वनि के श्रवण से मस्तिष्क प्रभावित होता है । ‘मननात त्रायते इति मन्त्र’ ।

(iii)  इसके अतिरिक्त उच्चारण और ध्वनि श्रवण जहाँ सीधे मस्तिष्क केन्द्रों को प्रभावित करता है , वहीं अप्रत्यक्ष रूप से इड़ा, पिंगला, और सुषुम्ना एवं पृथ्वी, अग्नि,जल,वायु और आकाश ये पांच तत्व भी प्रभावित होते हैं ।  

 

62.  जिज्ञासा  - संस्कृत वर्णमाला की यात्रा कहाँ तक रहती है ?

समाधान -  संस्कृत वर्णमाला से आकार लेते ॐ की यह यात्रा अंड से लेकर ब्रहमांड तक को बाँध रखती है । आनन्दमय कोष में अनहद नाद उठाता है, तब ऋषि बोध करता है ‘ अहम ब्रह्मष्मि’ मैं ही ब्रह्म हूँ । इसी ‘अस्मि’ से ब्रह्म और जीव के बीच एकात्म की यात्रा प्रारम्भ होती है । 


63.  जिज्ञासा - उपनिषद के अनुसार पञ्च तत्वों के उत्पन्न होने का क्रम क्या है  ?

समाधान -  सबसे पहले आकाश तत्व उत्पन्न हुआ । आकाश से वायु तत्व, वायु से अग्नि तत्व, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी उत्पन्न हुई ।


64.  जिज्ञासा - अन्नमय कोष की अवधारणा क्या है ?

समाधान - पृथ्वी से नाना प्रकार की औषधियां - अनाज और मनुष्य के आहार पैदा हुए । उसी अन्न से मनुष्य का स्थूल शरीर पुरुष उत्पन्न हुआ ।  अन्न से बना हुआ यह जो मानुष शरीरधारी पुरुष है इसकी पक्षी के रूप में कल्पना की गयी है । “अन्नाद्वै प्रजा: प्रजायन्ते” सब प्राणी इसको खाते हैं तथा यह भी सब प्राणियों को खा जाता है , अपने में  विलीन कर लेता है, इसलिये ‘अद्यते,अत्ति च इति अन्नं”  इस व्युत्पत्ति के अनुसार इसका नाम अन्न है । यही अन्नमय कोष की अवधारणा है 


65.  जिज्ञासा - प्राणमय कोष (शरीर) क्या है ?

समाधान - अन्नमय शरीर के रस से बने हुए स्थूल शरीर से भिन्न उस स्थूल शरीर के भीतर रहनेवाला एक और शरीर है, उसका नाम ‘प्राणमय’ है । उस ‘प्राणमय’ से यह ‘अन्नमय’ शरीर पूर्ण है । अन्नमय स्थूल शरीर की अपेक्षा इसके सूक्ष्म होने के कारण प्राणमय शरीर अन्नमय कोष के अंग- प्रत्यंग में व्याप्त है । इन प्राणों में प्राण श्रेष्ठ है और वह मुख्य है । व्यान दाहिना पंखा है और अपान बाया पंख है । अर्थात् आकाश के समान सर्वशरीर व्यापी  ‘समान’ वायु आत्मा है क्योंकि यह सम्पूर्ण शरीर में रस पहुंचाकर प्राणमय शरीर को पुष्ट करता है । इसका स्थान शरीर का मध्यभाग है तथा इसी का बाह्य आकाश से सम्बन्ध है, यह बात प्रश्नोपनिषद के पांचवें और आठवें मन्त्रों में कही गई है । ‘अपान’ वायु को पृथ्वी अर्थात् आधिदैविक शक्ति  को रोकने वाली यह  प्राणमय वायु को पुरुष का आधार कहा गया है ।  इसका वर्णन प्रश्नोपनिषद के तीसरे और आठवें मन्त्र में कही गई है । “प्राणं देवा अनुप्राणान्ति भाव यह की जितने भी देवता, मनुष्य, पशु आदि शरीरधारी प्राणी हैं, वे सब प्राण के सहारे ही जी रहे हैं । इसलिए यह प्राण ‘सार्वायुष’ कहलाता है । यह प्राणियों की आयु है, इसलिए यह सबका जीवन कहलाता है, यों समझकर जो इस प्राण की ब्रह्मरूप से उपासना करते हैं, वे पूर्ण आयु को प्राप्त कर लेते हैं । जो सर्वात्मा परमेश्वर अन्न के रस से बने हुए स्थूल शरीरधारी पुरुष का अंतरात्मा है, वही उस प्राणमय पुरुष का भी शरीर के अंतर रहने वाला आत्मा है ।


66.  जिज्ञासा - मनोमय कोष (शरीर) क्या है ?

समाधान -तस्माद्वाएतस्मात्प्राणमयादन्योऽन्तर आत्मा मनोमयः।’ प्राणमय कोष से भी सूक्ष्म और उसके भीतर रहने वाला पुरुष मनोमय कोष है । उस मनोमय कोष से यह प्राणमय कोष सर्वत्र व्याप्त हो रहा है । वेद मन्त्रों के वर्ण और वाक्य आदि के उच्चारण के लिए पहले मन में ही संकल्प उठाता है ; अत: संकल्पात्मक वृत्ति के द्वार मनोमय आत्मा के साथ वेद मन्त्रों का घनिष्ठ सम्बन्ध है । इसलिए इन्हें मनोमय पुरुष के ही अंगों में स्थान दिया गया है । शरीर में जो स्थान दोनों भुजाओं का है , वही स्थान मनोमय पुरुष के अंगों में ऋग्वेद और सामवेद का है । संकल्पात्मक वृति के द्वारा मनोमय पुरुष का इन सब के साथ नित्य संम्बन्ध है ।

          एक बात और यहाँ ध्यान रखने की है कि जिनके अक्षरों की कोई नियत नियम न हो, ऐसे मन्त्रों को ‘यजु:’ छंद  के अंतर्गत समझा जाता है, इस नियम के अनुसार जिस किसी वैदिक वाक्य या मन्त्र के अंत में ‘स्वाहा’ पद जोड़कर अग्नि में आहुति दी जाती है, वह वाक्य या मन्त्र ‘यजु:’ ही कहलाता है । इस प्रकार यजु: मन्त्र के द्वारा ही अग्नि को हविष्य अर्पित किया जाता है, इसलिए वहां ‘यजु:’ प्रधान है । “यतो वाचो निवर्तन्ते।अप्राप्य मनसा सह। आनन्दमब्रह्मणों विद्वान् ।” इस मन्त्र में ब्रह्म के आनंद को जानने वाले विद्वान् की महिमा के साथ अर्थान्तर से उसके मनोमय शरीर की महिमा प्रकट की गयी है । भाव यह की परब्रहम परमात्मा का जो स्वरुप भूत परम आनंद है, वहाँ तक मन, वाणी आदि समस्त इन्द्रियों के समुदाय रूप मनोमय शरीर की भी पहुँच नहीं है, परतु ब्रह्म को पाने के लिए साधन करनेवाले मनुष्य को यह ब्रह्म के पास पहुंचाने में विशेष सहायक है । ये मन-वाणी आदि साधन परायण पुरुष को उन परब्रह्म के द्वार तक पहुंचाकर, उसे वहीं छोड़ कर स्वयं लौट आते हैं और वह साधक उनको प्राप्त हो जाता है । मनोमय शरीर के भी अन्तर्यामी आत्मा वे ही परमात्मा हैं जो अन्नमय कोष और प्राणमय कोष के हैं ।  

 

67.  जिज्ञासा - विज्ञानमय कोष (शरीर) क्या है ?

समाधान - विज्ञानमय कोष अर्थात् विज्ञानमय शरीर का वर्णन है । मनोमय कोष से भी सूक्ष्म जो आत्मा है उसे विज्ञानमय कोष या शरीर कहते हैं । सदाचरण, सत्य भाषण, ध्यान के साथ ‘मह:’ नाम से प्रसिद्ध परमात्मा पुच्छ अर्थात् आधार है । उपनिषद में भू:, भुव:, स्व: और मह: इन चार व्याह्रितियों में ‘मह:’ को ब्रह्म का स्वरुप बताया गया है; अत: ‘मह:’ व्याहृति ब्रह्म का नाम है और ब्रह्म को आत्मा की प्रतिष्ठा बताना सर्वथा युक्तिसंगत है । विज्ञान अर्थात बुद्धि के साथ तद्रूप हुआ जीवात्मा ही यज्ञों का अर्थात् बुद्धि से ही सम्पूर्ण कर्मों को प्रेरणा मिलती है । अन्नमय, प्राणमय, मनोमय की भाँति विज्ञानमय कोष में भी वही परमात्मा का निवास है ।

 

68.  जिज्ञासा - आन्नद मय कोष (शरीर) क्या है ?

    समाधान - आनन्दमय कोष के अंदर विज्ञानमय पुरुष व्याप्त रहता है । प्रियता, मोद, प्रमोद और आनंद ही परमात्मा का रूप है । ब्रह्म के आनंदमय स्वरुप को जान लेनेवाला विद्वान् कभी भयभीत नहीं होता । इसे प्रश्न और अनुप्रश्न से ही गुरु शिष्य समझते हैं । सामान्यतया आनंद का विचार आरंभ करने की सूचना देकर सर्वोत्तम मनुष्य लोक से भोगों से मिल सकने वाले  बड़े से बड़े आनंद की कल्पना की गई है । भाव यह की एक मनुष्य युवा हो; सदाचारी, अच्छे स्वभाववाला, अच्छे वातावरण  में उत्पन्न श्रेष्ठ पुरुष हो, उसे संपूर्ण वेदों की शिक्षा मिली हो तथा शासन में ब्रह्मचारियों को सदाचार की शिक्षा देने में अत्यंत  कुशल हो, उसके संपूर्ण अंग और इंद्रियां रोग रहित समर्थ और सुदृढ़ हों और वह सब प्रकार के बल से संपन्न हो । फिर धन  संपत्ति से भरा यह संपूर्ण पृथ्वी उसके अधिकार में आ जाए तो यह मनुष्य का एक बड़े से बड़ा सुख है । वह मानव लोक का  एक सबसे महान आनंद है ।

  जो मनुष्य योनि में उत्तम कर्म करके गंधर्व भाव को प्राप्त हुए हैं. उनको ‘मनुष्य गंधर्व’ कहते हैं । यहां इनके आनंद  को उपर्युक्त मनुष्य के आनंद से सौ गुना बताया गया है। ‘मनुष्य गंधर्व’ की अपेक्षा देव गन्धर्वों  के आनंद को 100 गुना  बताया गया है। देव गन्धर्वों  के आनंद की अपेक्षा चिर स्थाई पितृलोक को प्राप्त दिव्य पितरों के आनंद को 100 गुना बताया      गया है। इस वर्णन में चिरस्थाई लोगों में रहने वाले दिव्य पितरों के आनंद की अपेक्षा 'आजानज' नामक देवों के आनंद को 100 गुना बताया गया है । देवलोक की एक विशेष स्थान का नाम ‘आजान’ है; जो लोग स्मृतियों में प्रतिपादित किन्हीं पुण्य  कर्मों के कारण वहां उत्पन्न हुए हैं, वे ‘आजानज’ कहलाते हैं। 

     स्वभाव सिद्ध देवों के आनंद की अपेक्षा इंद्र के आनंद को सौ गुना बताया गया है। और इंद्र के आनंद की अपेक्षा बृहस्पति के आनंद को 100 गुना बताया है । इसी तरह वृहस्पति के आनंद की अपेक्षा प्रजापति के आनंद को 100 गुना  बताया गया है  । प्रजापति के आनंद से भी हिरण्यगर्भ  के आनंद को 100 गुना बताया गया है । इस प्रकार यहां एक से दूसरे            आनंद की  अधिकता का वर्णन करते करते सबसे बढ़कर हिरण्यगर्भ के आनंद को बताकर यह भाव दिखाया गया है कि इस जगत में जितने प्रकार के जो-जो आनंद देखने सुनने तथा समझने में आ सकते हैं, वह चाहे कितने ही बड़े क्यों न हो उस पूर्ण आनंद स्वरूप परमात्मा के आनंद की तुलना में बहुत ही तुक्ष्य हैं।

       तात्पर्य की आनंद के एकमात्र केंद्र परम आनंद स्वरूप परब्रह्म परमात्मा ही सबके अंतर्यामी हैं,  इस प्रकार जो जान  लेता है वह मरने पर इस मनुष्य शरीर को छोड़कर पहले बताए हुए अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और  आनंदमय आत्मा को प्राप्त होता है। यह अमृत्व के प्राप्त का साधन है ।

69.  जिज्ञासा - ‘यजु:’ छंद या मन्त्र क्या हैं ?

समाधान -  जिनके अक्षरों की कोई नियत-नियम न हो, ऐसे मन्त्रों को ‘यजु:’ छंद के अंतर्गत समझा जाता है, इस नियम के अनुसार जिस किसी वैदिक वाक्य या मन्त्र के अंत में ‘स्वाहा’ पद जोड़कर अग्नि में आहुति दी जाती है, वह वाक्य या मन्त्र ‘यजु:’  कहलाता है ।

70.    जिज्ञासा - अनुप्रश्न किसे कहते हैं ?

समाधान -  अनुप्रश्न उन प्रश्नों को कहते हैं जो आचार्य के उपदेश के अनंतर किसी शिष्य के मन में उठते हैं या जिन्हें वह उपस्थित करता है । वे तीन हैं- क्या वास्तव में ब्रह्म है कि नहीं ? जब ब्रह्म आकाश की भाँति सर्वगत तथा पक्षपात रहित है- सम है, तब क्या वे अविद्वान को भी प्राप्त होते है या नही ? यदि अविज्ञानी को प्राप्त नहीं होते तो ‘सम’ कैसे हुए । “अथातोऽनुप्रश्ना: । और आगे “सोऽकामयत ।”, “बहुस्याम प्रजायेयेति।” की बात आती है ।

71.  जिज्ञासा - अमरत्व क्या है ?

   समाधान - तप के द्वारा जिसने चित्त को जीत लिया है, जो शब्द रहित एकांत स्थान में स्थित होकर संग शून्य तत्व के लिए  योग का ज्ञाता हो जाता है और धीरे-धीरे अपेक्षा रहित बन जाता है । जैसे बंधन  को काटकर हंस आकाश में निशंक उड़ जाता  है, वैसे ही जिसके बंधन कट गए हैं, वह जीव संसार से सदा के लिए तर जाता है, जैसे दीपक बुझने के समय सारे तेल को जला जाता है, वैसे ही योगी समस्त कर्मों को जलाकर ब्रह्म में लीन हो जाता है । साधक जब समस्त कामनाओं से छूट जाता  है और सारी एषणाओं से रहित हो जाता है, तब वह अमरत्व को प्राप्त होता है ।

 

72.  जिज्ञासा - ऋषि भृगु का पिता वरुण से प्रश्न - भगवान ! मैं ब्रह्म को जानना चाहता हूं ?

समाधान-  वरुण ने कहा, हे तात ! अन्न, प्राण, नेत्र, श्रोत, मन, वाणी यह सभी ब्रह्म के उपलब्धि के द्वार हैं । इन सब में ब्रह्म की सत्ता स्फुरित होती है । यह प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले सब प्राणी जिससे उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जिन के सहयोग से बल पाकर जीते हैं, जीवन उपयोगी क्रिया करने में समर्थ होते हैं और महाप्रलय के समय जिसमें विलीन हो जाते हैं, उनको वास्तव में जानने की इच्छा कर ।  वे ही ब्रह्म है ।


73.  जिज्ञासा - (भृगु) तो क्या अन्न ही ब्रह्म है ?

 समाधान - ‘अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात् ।’ भृगु को अनुभव आता है कि अन्न ही ब्रह्म है । समस्त प्राणी अन्न से और अन्न के परिणाम भूत वीर्य से उत्पन्न होते हैं ।अन्न से ही उनका जीवन सुरक्षित रहता है और मरने के बाद अन्न स्वरूप इस पृथ्वी में ही प्रविष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार निश्चय करते हुए अपने पिता के पास गए । पिता को अपनी बात बतलाई । इससे वरुण को समझ में आया कि अभी भृगु की बुद्धि वास्तविक रूप से स्थूल पर ही टिकी हुई है । तब उन्होंने कहा कि तुम अपने तप के द्वारा ब्रह्म के स्वरूप को समझो ।


74.  जिज्ञासा - (भृगु) तो क्या प्राण ही ब्रह्म है ?

समाधान - भृगु ने तप के द्वारा यह तय किया कि ‘प्राण ही ब्रह्म’ है और जब उन्होंने इस अपने निश्चय से पिता को अवगत कराया। वरुण ने कहा कि परमात्मा को समझने के लिए फिर से आप तप करें   तप के द्वारा ब्रह्म को जानने की चेष्टा करें । यह तप ही ब्रह्म है अर्थात ब्रह्म के तत्व को जानने का प्रधान साधन है  


75.  जिज्ञासा - (भृगु) तो क्या मन ही ब्रह्म है ?

 समाधान - ब्रह्म का ध्यान करते हुए भृगु यह निश्चय किया कि मन ही ब्रह्म है, क्योंकि उन्होंने सोचा पिताजी के बताए हुए ब्रह्म के सारे लक्षण मन में पाए जाते हैं । मन से सब प्राणी उत्पन्न होते हैं । स्त्री और पुरुष के मानसिक प्रेम पूर्ण संबंध से ही प्राणी बीज रूप से माता के गर्भ में आकर उत्पन्न होते हैं । उत्पन्न होकर मन से ही इंद्रियों द्वारा समस्त जीवन उपयोगी वस्तुओं का उपयोग करके जीवित रहते हैं और मरने के बाद मन में ही प्रविष्ट हो जाते हैं । मरने के बाद शरीर में प्राण और इंद्रियां नहीं रहती । इसलिए मन ही ब्रह्म है । इस प्रकार निश्चय करके वे पुनः पहले की तरह अपने पिता वरुण के पास गए और अपने अनुभव की बात पिताजी को सुनाई । इस बार भी पिता से कोई उत्तर नहीं मिला। पिता ने सोचा कि यह पहले की अपेक्षा तो गहराई में उतरा है, परंतु अभी इसे और भी तपस्या करनी चाहिए और उत्तर ना देना ही ठीक समझा । पिता से अपनी बात का उत्तर ना पाकर भृगु पुनः पहले की भांति प्रार्थना की- भगवन यदि मैंने ठीक ना समझा हो तो कृपया आप ही मुझे ब्रह्म को समझाइए । तब वरुण ने पुनः वही उत्तर-तू तप के द्वारा ब्रह्म के तत्व को जानने की इच्छा कर अर्थात तपस्या करते हुए मेरे उपदेश पर पुनः विचार कर। यह तप रूप साधन ही ब्रह्म ।


76.  जिज्ञासा - (भृगु) तो क्या विज्ञान स्वरूप चेतन जीवात्मा ही ब्रह्म है?

समाधान - इस बार उन्होंने पिता के उपदेश स्वरूप यह निश्चय किया कि क्योंकि पिताजी ने जो ब्रह्म के लक्षण बताए थे, वह सब के सब पूर्णतया इसमें पाए जाते हैं । यह समस्त प्राणी जीव आत्मा से ही उत्पन्न होते हैं । सजीव चेतन प्राणियों से ही प्राणियों की उत्पत्ति प्रत्यक्ष देखी जाती है । उत्पन्न होकर इस विज्ञान स्वरूप जीवात्मा से ही जीते हैं; यदि जीवात्मा ना रहे तो यह मन, प्राण, इन्द्रिय कोई भी नहीं रह सकते और कोई भी अपना-अपना काम नहीं कर सकते तथा मरने के बाद यह मन आदि सब जीवात्मा में ही प्रविष्ट हो जाते हैं-जीव के निकलने पर मृत शरीर में यह सब देखने में नहीं आते । अतः विज्ञान स्वरूप जीवात्मा ही ब्रह्म है । पिताजी ने इस बार भी कोई उत्तर नहीं दिया और यह समझा कि इस बार यह बहुत कुछ ब्रह्म के निकट आ गया है। इसका विचार स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के जड़ तत्वों से ऊपर उठकर चेतन जीवात्मा तक तो पहुंच गया है, परंतु ब्रह्म का स्वरूप तो इससे भी विलक्षण है । वह तो नित्यानंद स्वरूप एक अद्वितीय परमात्मा है । इसे अभी और तपस्या करनी की आवश्यकता है । और वरुण ने यही उत्तर दिया - तप के द्वारा ही ब्रह्म के तत्व को जानने की इच्छा कर अर्थात् तपस्या पूर्वक पूर्व कथन अनुसार विचार कर तप कर । तप ही ब्रह्मा है।


77.  जिज्ञासा - (भृगु) तो क्या आनन्द ही ब्रह्म है?

    समाधान - इस बार भृगु ने पिता के उपदेश पर गहरा विचार करके यह निश्चय किया कि आनंद ही ब्रह्म है। यह आनंद ही  परमात्मा रूप में सबकी अंतरात्मा है । वह सब भी इन्हीं के स्थूल रूप है । इसी कारण इनमें ब्रह्म बुद्धि होती है और ब्रह्म के  आंशिक लक्षण पाए जाते हैं । इन सबके आदि कारण तो वही हैं तथा इस आनंदमय के आनंद का लेस मात्र भी पाकर ही यह सब पुराने जीवन के कोई भी दुख के साथ जीवित रहना नहीं चाहता । इतना ही नहीं, उस आनंदमय सर्वान्तर्यामी परमात्मा   की अचिंत्य शक्ति की प्रेरणा से ही इस जगत के समस्त प्राणियों की क्रिया चल रही है । उनके शासन में रहने वाले सूर्य आदि यदि अपना-अपना काम ना करें तो एक क्षण भी कोई प्राणी जीवित नहीं रह सकता । सबके जीवन आधार सचमुच में आनंद  स्वरूप परमात्मा ही है । तथा प्रलय काल में समस्त प्राणियों से भरा हुआ यह ब्रह्मांड उन्हीं में प्रविष्ट होता हुआ उन्हीं में विलीन होता है; वही सब के सब प्रकार से सदा सर्वदा आधार हैं । इस प्रकार भृगु को परब्रह्म का यथार्थ ज्ञान हो गया कि आनन्द ही ब्रह्म है । श्रुति स्वयं उस विद्या की महिमा बतलाने के लिए कहती है- वही यह वरुण द्वारा बताई हुई और भृगु को प्राप्त हुई ब्रह्मविद्या (ब्रह्मा का रहस्य बस लाने वाल) है । यह विद्या विशुद्ध आकाश स्वरूप परब्रह्म परमात्मा में स्थित है। वही  इस विद्या के भी आधार हैं।

7 comments:

  1. उत्तम अति उत्तम और सर्वोत्तम तथा प्रशंसनीय एवं अद्भुत कार्य किया गया है; जो कि अध्ययन और अनुसंधान के लिए आवश्यक है🙏

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  3. अभी आपका निवास भोपाल ही है या अन्य जगह आपसे मिलना चाहता हूं।

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