अत्रि मुनि द्वारा श्री राम की प्रार्थना-
नमामि भक्त वत्सलं ।कृपालु शील कोमलं ॥
भजामि ते पदांबुजं ।अकामिनां स्वधामदं ॥
निकाम श्याम सुंदरं ।भवाम्बुनाथ मंदरं ॥
प्रफुल्ल कंज लोचनं ।मदादि दोष मोचनं ॥
प्रलंब बाहु विक्रमं ।प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥
निषंग चाप सायकं ।धरं त्रिलोक नायकं ॥
दिनेश वंश मंडनं ।महेश चाप खंडनं ॥
मुनींद्र संत रंजनं ।सुरारि वृन्द भंजनं ॥
मनोज वैरि वंदितं ।अजादि देव सेवितं ॥
विशुद्ध बोध विग्रहं ।समस्त दूषणापहं ॥
नमामि इंदिरा पतिं ।सुखाकरं सतां गतिं ॥
भजे सशक्ति सानुजं ।शची पति प्रियानुजं ॥
त्वदंघ्रि मूल ये नराः ।भजंति हीन मत्सराः ॥
पतंति नो भवार्णवे ।वितर्क वीचि संकुले ॥
विविक्त वासिनः सदा ।भजंति मुक्तये मुदा ॥
निरस्य इंद्रियादिकं ।प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥
तमेकमद्भुतं प्रभुं ।निरीहमीश्वरं विभुं ॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं ।तुरीयमेव केवलं ॥
भजामि भाव वल्लभं ।कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥
स्वभक्त कल्प पादपं ।समं सुसेव्यमन्वहं ॥
अनूप रूप भूपतिं ।नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥
प्रसीद मे नमामि ते ।पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥
रामचरितमानस (अयोध्या काण्ड-172-73)
सोचिअ विप्र जो बेद बिहीना ।
तजि निज धरमु बिषय लयलीना ॥
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना ।
जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना ॥
सोचिअ बयसु कृपन धनवानू ।
जो न अतिथि सिव भगति सुजानू ॥
सोचिअ सूदु बिप्र अवमानी।
मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी ॥
सोचिअ पुनि पति बंचक नारी ।
कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी ॥
सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई ।
जो नहिं गुर आयसु अनुसरई ॥
सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग ।
सोचिअ जती प्रपंच रत बिगत बिबेक बिराग ॥ १७२ ॥
बैखानस सोइ सोचै जोगू ।
तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू ॥
सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी ।
जननि जनक गुर बंधु बिरोधी ॥
सब बिधि सोचिअ पर अपकारी।
निज तनु पोषक निरदय भारी॥
सोचनीय सबहीं बिधि सोई ।
जो न छाड़ि छलु हरि जन होई ॥
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• रामचरितमानस (अयोध्या काण्ड-174)
परसुराम पितु अग्या राखी ।
मारी मातु लोक सब साखी ॥
तनय जजातिहि जौबनु दयऊ।
पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ ॥
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सोक समाजु राजु केहि लेखें ।
लखन राम सिय बिनु पद देखें।
बादि बसन बिनु भूषन भारू ।
बादि बिरति बिनु ब्रह्म बिचारू। ।
दो-
ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार ॥ अयोध्या काण्ड।।180॥
गुर बिबेक सागर जगु जाना ।
जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना ॥
मो कह तिलक साज सज सोऊ ।
भएँ विधि बिमुख विमुख सबु कोऊ ।।181।।
परिहरि रामु सीय जग माहीं।
कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं ॥
सो मैं सुनब सहब सुखु मानी।
अंतहुँ कीच तहाँ जहँ पानी ॥
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तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर ।
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ॥ १६१ (ख)
दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग।
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग ॥ ४६/अरण्य
अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि । ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि ॥ ४४ ॥
हे नारद मुनि! सुनो, मैं (राम)संतों के गुणों को कहता हूँ-
षट बिकार जित अघ अकामा ।
अचल अकिंचन सुचि सुखधामा ।
अमित बोध अनीह मितभोगी ।
सत्यसार कबि कोबिद जोगी ।
सावधान मानद मदहीना।
धीर धर्म गति परम प्रवीना।।
गुनागार संसार दुख रहित बिगत संदेह।।
तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह ॥
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं ।
पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं ॥
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती।
सरल सुभाउ सबहि सन प्रीती।।
जप तप व्रत दम संजम नेमा ।
गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा ।।
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना ।
बोध जथारथ बेद पुराना ॥
दंभ मान मद करहिं न काऊ ।
भूलि न देहिं कुमारग पाऊ ॥
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला ।
हेतु रहित परहित रत सीला ॥
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते।
कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते ॥
(अरण्य 45)
वरषहिं जलद भूमि निअराएँ।
जथा नवहिं बुध विद्या पाएँ ।
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसें ।
खल के वचन संत सह जैसे ॥
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई ।
जस थोरेहुँ धन खल इतराई ॥
भूमि परत भा ढाबर पानी ।
जनु जीवहि माया लपटानी ॥
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा ।
जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा ॥'
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई ।
होइ अचल जिमि जिव हरि पाई ।।
हरित भूमि तृन सकुल समुझि परहिं नहिं पंथ ।
जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ ॥ १४ ॥
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई ।
बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ॥
नव पल्लव भए बिटप अनेका।
साधक मन जस मिलें बिबेका ॥
अर्क जवास पात बिनु भयऊ ।
जस सुराज खल उद्यम गयऊ ॥ -
खोजत कतहुँ मिलइ नहिँ धूरी ।
करई क्रोध जिमि धरमहि दूरी ॥
ससि संपन्न सोह महि कैसी ।
उपकारी के संपति जैसी ॥
निसि तम घन खद्योत बिराजा ।
जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा॥
महावृष्टि चलि फूटि किआरीं।
जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं ॥
कृषि निरावहिं चतुर किसाना ।
जिमि बुध तजहिं मोह मद माना ॥
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं ।
कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं ॥
ऊसर बरसई तृन नहिं जामा ।
जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा॥
विविध जंतु संकुल महि भ्राजा ।
प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा ॥
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना ।
जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना ॥
कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं ।
जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं ॥ १५ (क) ॥
कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग।
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग ॥ १५ (ख) ॥
वर्षा ऋतु -
बरषा बिगत सरद रितु आई ।
लछिमन देखहु परम सुहाई ।।
फूले कास सकल महि छाई ।
जनु वर्षा ऋतु प्रगट बुढाई ॥
उदित अगस्ति पंथ जल सोषा ।
जिमि लोभहि सोसई संतोषा ॥
सरिता सर निर्मल जल सोहा ।
संत हृदय जस गत मद मोहा॥
रस रस सूख सरित सर पानी ।
ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी ॥
जानि सरद रितु खंजन आए ।
पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए ॥
पंक न रेनु सोह असि धरनी ।
नीति निपुन नृप के जसि करनी ।।
जल संकोच बिकल भइँ मीना ।
अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना ॥
बिनु घन निर्मल सोह अकासा ।
हरिजन इव परिहरि सब आसा॥
कहुँ कहुं बृष्टि सारदी थोरी ।
कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी ॥
दश चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि ।
जिमि हरिभगति पाइ श्रम तजहिं आश्रमी चारि ॥ १६ ॥
सुखी मीन जे नीर अगाधा ।
जिमि हरि सरन न एकउ बाधा ॥
फूलें कमल सोह सर कैसा ।
निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा ॥
गुंजत मधुकर मुखर अनूपा ।
सुंदर खग रव नाना रूपा ॥
चक्रबाक मन दुख निसि पेखी ।
जिमि दुर्जन पर संपति देखी ॥
चातक रटत तृषा अति ओही ।
जिमि सुख लहई न संकरद्रोही ॥
सरदातप निसि ससि अपहरई ।
संत दरस जिमि पातक टरई ॥
देखि इंदु चकोर समुदाई ।
चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई ॥
मसक दंस बीते हिम त्रासा ।
जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नामा॥
दशभूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ।
(किष्किन्धाकाण्ड 14-1
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