Saturday, 8 June 2024

रामचरितमानस


अत्रि मुनि द्वारा श्री राम की प्रार्थना-

नमामि भक्त वत्सलं ।कृपालु शील कोमलं ॥
भजामि ते पदांबुजं ।अकामिनां स्वधामदं ॥

निकाम श्याम सुंदरं ।भवाम्बुनाथ मंदरं ॥
प्रफुल्ल कंज लोचनं ।मदादि दोष मोचनं ॥

प्रलंब बाहु विक्रमं ।प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥
निषंग चाप सायकं ।धरं त्रिलोक नायकं ॥

दिनेश वंश मंडनं ।महेश चाप खंडनं ॥
मुनींद्र संत रंजनं ।सुरारि वृन्द भंजनं ॥

मनोज वैरि वंदितं ।अजादि देव सेवितं ॥
विशुद्ध बोध विग्रहं ।समस्त दूषणापहं ॥

नमामि इंदिरा पतिं ।सुखाकरं सतां गतिं ॥
भजे सशक्ति सानुजं ।शची पति प्रियानुजं ॥

त्वदंघ्रि मूल ये नराः ।भजंति हीन मत्सराः ॥
पतंति नो भवार्णवे ।वितर्क वीचि संकुले ॥

विविक्त वासिनः सदा ।भजंति मुक्तये मुदा ॥
निरस्य इंद्रियादिकं ।प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥

तमेकमद्भुतं प्रभुं ।निरीहमीश्वरं विभुं ॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं ।तुरीयमेव केवलं ॥

भजामि भाव वल्लभं ।कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥
स्वभक्त कल्प पादपं ।समं सुसेव्यमन्वहं ॥

अनूप रूप भूपतिं ।नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥
प्रसीद मे नमामि ते ।पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥

 रामचरितमानस (अयोध्या काण्ड-172-73)

 सोचिअ विप्र जो बेद बिहीना ।  
तजि निज धरमु बिषय लयलीना ॥
 सोचिअ नृपति जो नीति न जाना । 
 जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना ॥ 

सोचिअ बयसु कृपन धनवानू । 
जो न अतिथि सिव भगति सुजानू ॥ 
सोचिअ सूदु बिप्र अवमानी। 
मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी ॥ 

सोचिअ पुनि पति बंचक नारी ।
 कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी ॥ 
सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई ।
 जो नहिं गुर आयसु अनुसरई ॥ 

सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग । 
सोचिअ जती प्रपंच रत बिगत बिबेक बिराग ॥ १७२ ॥

बैखानस सोइ सोचै जोगू ।
तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू ॥
सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी । 
जननि जनक गुर बंधु बिरोधी ॥ 

सब बिधि सोचिअ पर अपकारी।  
निज तनु पोषक निरदय भारी॥
सोचनीय सबहीं बिधि सोई । 
जो न छाड़ि छलु हरि जन होई ॥
…................

• रामचरितमानस (अयोध्या काण्ड-174)

परसुराम पितु अग्या राखी ।  
मारी मातु लोक सब साखी ॥
 तनय जजातिहि जौबनु दयऊ। 
पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ ॥ 
…................

सोक समाजु राजु केहि लेखें । 
लखन राम सिय बिनु पद देखें। 
बादि बसन बिनु भूषन भारू । 
बादि बिरति बिनु ब्रह्म बिचारू। ।

दो-
 ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार ॥ अयोध्या काण्ड।।180॥

गुर बिबेक सागर जगु जाना । 
जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना ॥
मो कह तिलक साज सज सोऊ । 
भएँ विधि बिमुख विमुख सबु कोऊ ।।181।।

परिहरि रामु सीय जग माहीं। 
कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं ॥
 सो मैं सुनब सहब सुखु मानी। 
अंतहुँ कीच तहाँ जहँ पानी ॥ 
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तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर ।
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ॥ १६१ (ख)

 दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग।
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग ॥ ४६/अरण्य 
अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि । ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि ॥ ४४ ॥

हे नारद मुनि! सुनो, मैं (राम)संतों के गुणों को कहता हूँ-
षट बिकार जित अघ अकामा ।  
अचल अकिंचन सुचि सुखधामा ।
अमित बोध अनीह मितभोगी । 
 सत्यसार कबि कोबिद जोगी ।
सावधान मानद मदहीना।
धीर धर्म गति परम प्रवीना।।
गुनागार संसार दुख रहित बिगत संदेह।।
तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह ॥
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं ।
 पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं ॥ 
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती।
 सरल सुभाउ सबहि सन प्रीती।।

जप तप व्रत दम संजम नेमा ।
गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा ।।
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना । 
बोध जथारथ बेद पुराना ॥ 

दंभ मान मद करहिं न काऊ ।
भूलि न देहिं कुमारग पाऊ ॥
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला । 
हेतु रहित परहित रत सीला ॥ 

मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते।
कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते ॥
(अरण्य 45)

वरषहिं जलद भूमि निअराएँ।
जथा नवहिं बुध विद्या पाएँ । 
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसें ।
 खल के वचन संत सह जैसे ॥
 छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई ।
 जस थोरेहुँ धन खल इतराई ॥ 
भूमि परत भा ढाबर पानी ।
 जनु जीवहि माया लपटानी ॥ 
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा । 
जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा ॥'
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई । 
होइ अचल जिमि जिव हरि पाई ।।

 हरित भूमि तृन सकुल समुझि परहिं नहिं पंथ ।
 जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ ॥ १४ ॥
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई ।
 बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ॥
 नव पल्लव भए बिटप अनेका। 
साधक मन जस मिलें बिबेका ॥ 
अर्क जवास पात बिनु भयऊ ।
 जस सुराज खल उद्यम गयऊ ॥ -
 खोजत कतहुँ मिलइ नहिँ धूरी । 
करई क्रोध जिमि धरमहि दूरी ॥ 
ससि संपन्न सोह महि कैसी । 
उपकारी के संपति जैसी ॥
 निसि तम घन खद्योत बिराजा ।
 जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा॥ 
महावृष्टि चलि फूटि किआरीं। 
जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं ॥ 
कृषि निरावहिं चतुर किसाना । 
जिमि बुध तजहिं मोह मद माना ॥ 
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं ।
 कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं ॥ 
ऊसर बरसई तृन नहिं जामा ।
 जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा॥

विविध जंतु संकुल महि भ्राजा ।
 प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा ॥ 
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना ।
 जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना ॥
कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं ।
 जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं ॥ १५ (क) ॥

 कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग।
 बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग ॥ १५ (ख) ॥
वर्षा ऋतु -
बरषा बिगत सरद रितु आई ।
 लछिमन देखहु परम सुहाई ।। 
फूले कास सकल महि छाई ।
 जनु वर्षा ऋतु प्रगट बुढाई ॥
 उदित अगस्ति पंथ जल सोषा । 
जिमि लोभहि सोसई संतोषा ॥
सरिता सर निर्मल जल सोहा ।
 संत हृदय जस गत मद मोहा॥ 
रस रस सूख सरित सर पानी ।
 ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी ॥ 
जानि सरद रितु खंजन आए ।
 पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए ॥ 
पंक न रेनु सोह असि धरनी ।
 नीति निपुन नृप के जसि करनी ।। 
जल संकोच बिकल भइँ मीना । 
अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना ॥ 
बिनु घन निर्मल सोह अकासा ।
 हरिजन इव परिहरि सब आसा॥ 
 कहुँ कहुं बृष्टि सारदी थोरी । 
कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी ॥

दश चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि ।
 जिमि हरिभगति पाइ श्रम तजहिं आश्रमी चारि ॥ १६ ॥

 सुखी मीन जे नीर अगाधा ।
 जिमि हरि सरन न एकउ बाधा ॥ 
फूलें कमल सोह सर कैसा ।
 निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा ॥ 
गुंजत मधुकर मुखर अनूपा । 
सुंदर खग रव नाना रूपा ॥ 
चक्रबाक मन दुख निसि पेखी । 
जिमि दुर्जन पर संपति देखी ॥ 
चातक रटत तृषा अति ओही ।
 जिमि सुख लहई न संकरद्रोही ॥ 
सरदातप निसि ससि अपहरई । 
संत दरस जिमि पातक टरई ॥ 
देखि इंदु चकोर समुदाई ।
 चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई ॥ 
मसक दंस बीते हिम त्रासा ।
 जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नामा॥

दशभूमि  जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ। 
(किष्किन्धाकाण्ड 14-1



 

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