अनुवाद के प्रकार
पाठ्य सामग्री
1. प्रक्रिया के
आधार पर अनुवाद: (1) पाठधर्मी अनुवाद, (2) प्रभावधर्मी अनुवाद।
2.
पाठ के आधार पर अनुवाद: (1) पूर्ण अनुवाद (2) आंशिक अनुवाद (3) समग्र अनुवाद (4) परिसीमित अनुवाद- (i) स्वनिमिक (ii)
लेखिकीय (iii) व्याकरणिक (iv) शब्दकोशीय (v) शब्द प्रति शब्द अनुवाद (vi) शाब्दिक
अनुवाद(vii) भावानुवाद (viii) छायानुवाद ।
3.
गद्य-पद्य के आधार पर अनुवाद- (i) गद्यानुवाद (ii) पद्यानुवाद (iii) छन्दमुक्तानुवाद।
4.
साहित्य विधा के आधार पर अनुवाद- (i) काव्यानुवाद (ii) नाट्यानुवाद (iii) कथा अनुवाद (iv) रूप प्रधान
अनुवाद (vi) ललित साहित्य अनुवाद (vii) धार्मिक पौराणिक अनुवाद (viii) सारानुवाद (ix)व्याख्यानुवाद (x)
रुपान्तण।
5.
विषय की प्रकृति के आधार पर अनुवाद - (i) मूलनिष्ठ (ii) मूलमुक्त ।
6. अनुवाद के अन्य प्रकार- (iv) परोक्ष अनुवाद (v) पुनरानुवाद (vi) सूचनानुवाद (vii) शैक्षिक अनुवाद (xi) वैज्ञानिक एवं तकनीकी अनुवाद
(xii) विधि अनुवाद (xiii) प्रशासनिक, मानविकी एवं
समाजशास्त्रीय अनुवाद (xiv) संचार
माध्यमों का अनुवाद ।
अनुवाद के प्रकार : विषय-वस्तु, अनुवाद सिद्धातों, भाषा आदि के
विभिन्न रूपों के कारण अनुवाद करने के कई प्रकार सामने आते हैं । इससे अनुवाद के
सामर्थ्य को भी समझा जा सकता है साथ ही भाषा की व्यापकता के साथ अर्थ बोध भी
विस्तार पाता है । अनुवाद में प्रयोजन और
प्रयोक्ता के आधार पर प्रयोग होता है, जिसके कारण अनुवाद के प्रकार दिखाई देते हैं
।
1. प्रक्रिया के आधार पर अनुवाद: प्रक्रिया के आधार पर अनुवाद के दो रूप सामने हैं- एक
पाठ धर्मी अनुवाद , दूसरा प्रभाव धर्मी अनुवाद । इसमें विषय वस्तु की संरचना और उसका प्रकार
अधिक निर्भर करता है ।
(i)
पाठधर्मी अनुवाद : इस अनुवाद में विषय-वस्तु की प्रधानता रहती है । इसमें अनुवादक पाठ्य सामग्री से बाहर नहीं जा
सकता । इसमें मूल कृति ही आदर्श होती है । यह अनुवाद वैज्ञानिक, कानूनी दस्तावेजों
और संसदीय सामग्री पर लागू होता है । (ii) प्रभावधर्मी
अनुवाद: इस अनुवाद में अनुवादक पाठक और लेखक के बीच
सेतु का काम करता है।
इसमें वाक्य विन्याs, अर्थबोध पर ज्यादा निर्भरता रहती है । इससे लक्ष्य भाषा के पाठकों पर सार्थक प्रभाव पड़ता है ।
2.
पाठ के आधार पर अनुवाद: इसमें कथ्य और अभिव्यक्ति दोनों का समन्वय मिलता
है । इसमें कई रूप सामने आते हैं - (1) पूर्ण अनुवाद- पूर्ण अनुवाद में लक्ष्य भाषा की
पूरी निर्भरता रहती है । इसमें रचना या विषयवस्तु के प्रत्येक अंश, शब्द,
पदबंध, वाक्य, उप्व्कक्य और अनुच्छेद को ध्यान में रखकर अनुवाद किया जाता है । (2) आंशिक अनुवाद- इस अनुवाद प्रक्रिया में आंचलिक शब्दों, उनके
सांस्कृतिक परिवेश से कटाने के भय से उनका अनुवाद नहीं होता, ताकि शब्द का
कुल-गोत्र सुरक्षित रहे, यथा - वेद, उपनिषद, पुराण, ब्रह्मचार्य, धर्म ।
(3) समग्र अनुवाद- इसमें स्रोत भाषा के भाषिक स्तर को लक्ष्य
भाषा के पाठ में प्रतिस्थापित किया जाता है , किन्तु यह पूरी तरह से संभव नहीं
होता । (4) परिसीमित अनुवाद- इस अनुवाद में व्याकरण, ध्वन्यात्मक और शब्दगत
स्तर पर पाठ्य सामग्री का समतुल्यता के आधार पर लक्ष्य भाषा में प्रतिस्थापन होता
है । (i) स्वनिमिक- इसमें स्वनिम के आधार पर लक्ष्य
भाषा की व्यवस्था की जाती है । मूलभाषा की उन स्वनिमिक इकाइयों के स्थान पर लक्ष्य भाषा की वे
स्वनिमिक इकाइयां आ जाती हैं जिनमें
स्वनिक अभिलक्षणों की समानता अधिकतम मिलाती है, जैसे - अंग्रेजी के फ के स्थान पर
फ़ आ जाता है । (ii) लेखिकीय- इसके अंतर्गत एक लिपि के दोसरे लिपि के चिन्हों में परिवर्तन होता है । (iii) व्याकरणिक-
इसमें मूल पथ / भाषा की व्याकरणिक इकाई के स्थान पर
लक्ष्य भाषा की व्याकरणिक इकाई को स्थान मिलता है , उदहारण के लिए - मूल - he will travel by car. अनुवाद - वह कार से यात्रा
करेगा या वह कार से ट्रेवल करेगा। इसे द्विभाषा में ‘कोडमिश्रण’ कहते हैं।शब्दकोशीय- मूल
पाठ्यसामग्री के शब्द कोष के स्थान पर लक्ष्य भाषा के शब्दकोष आ जाते है किन्तु
व्याकरण मूल स्रोत भाषा का ही रहता है। यथा - वह साइंस फेकलिटी के पास जाएगा। (v) शब्द प्रति शब्द
अनुवाद -इस प्रकार के अनुवाद में शब्द पर ही ध्यान दिया जाता है न की वाक्य
योजना पर किन्तु यह न तो पठनीय होता है और न ही सही अर्थ बोध करता है , जैसे - Ram is going अनुवाद
-राम है जा रहा। (vi) शाब्दिक अनुवाद- इस
प्रक्रिया में वाक्य विन्यास के आधार पर
मूल पाठ का ही अनुवाद किया जाता है। इसे
कोशगत अनुवाद भी कहते हैं, यथा - Burn the lamp अनुवाद - बत्ती जलाओ । भारतीय ज्ञान परम्परा के ग्रंथों का अनुवाद भी
इसी प्रकार किया जाता है क्योंकि इसमें मूल रचना के शब्दों का विशेष महत्व होता है
। (vii) भावानुवाद- इस अनुवाद पद्धति में मूल ग्रन्थ के शब्द , वाक्य रचना पर ध्यान न
देकर उसके भाव पक्ष पर ध्यान दिया जाता है। इसमें कभी कभी sense for sense translation अथवा Free translation भी कहा जाता है। यथा - आपने मुझसे ज्यादा दुनिया
देखी है । अनुवाद - You are far
more experienced than me. (viii) छायानुवाद -मूल पाठ या सामग्री पढने के बाद अनुवादक जो अनुभव करता है या उसके मन को जो चीज
छू जाती है उसके सन्दर्भ में वह लक्ष्य भाषा में
जिस प्रकार कथ्य का रुपान्तरण करता है उसे छायानुवाद कहते हैं ।
3. गद्य-पद्य के आधार पर अनुवाद- गद्य पद्य का गद्य और पद्य में ही जो अनुवाद
किया जाता है उसे गद्यानुवाद या पद्यानुवाद कहते हैं । (i)
गद्यानुवाद - गद्यानुवाद का सबसे अच्छा उदहारण कालिदास के मेघदूतम का कवि नागार्जुन का अनुवाद माना जाता है। (ii) पद्यानुवाद- मेघदूतम , कुमार संभव, टैगोर की गीतांजलि ,
रामचरित मानस आदि के अनुवाद इस श्रेणी में आते हैं । इसमें अनुवाद करते
समय प्रायः स्रोत भाषा के व्यहार में लाए छंदों का ही उपयोग किया जाता है (iii) छन्दमुक्तानुवाद- वर्तमान में सबसे प्रचलित अनुवाद पद्धति है क्योकि
इसमें स्रोत भाषा के छंदों के स्वीकारने की बाध्यता नहीं रहती । अनुवाद विषय के अनुरूप छंद का चयन किया जता है।
4. साहित्य विधा के आधार
पर अनुवाद- (i) काव्यानुवाद
- स्रोत-भाषा में लिखे गए साहित्य का लक्ष्य-भाषा में रूपान्तरण
काव्यानुवाद कहलाता है । यह गद्य, पद्य एवं मुक्त छन्द में से किसी में भी किया जा
सकता है। होमर के महाकाव्य ‘इलियड’ एवं
कालिदास के ‘मेघदूतम्’ एवं ‘ऋतुसंहार’ इसके उदाहरण माने जाते हैं। (ii) नाट्यानुवाद- किसी भी नाट्य कृति का नाटक के रूप में ही अनुवाद करना नाट्यानुवाद
कहलाता है। चूंकि नाटक में रंगमंच और दर्शक महत्वपूर्ण होते है अत अनुवाद इनको
ध्यान में रखकर ही किया जता है । इस अनुवाद में अनुभव और अभ्यास दोनों की
आवश्यकता होती है। संस्कृत के नाटकों के हिन्दी अनुवाद तथा शेक्सपियर के नाटकों के
अन्य भाषाओं में किए गए अनुवाद इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं। (iii) कथा अनुवाद- विश्व
प्रसिद्ध उपन्यासों एवं कहानियों के अनुवाद काफ़ी प्रचलित एवं लोकप्रिय हैं।
मोपासाँ एवं प्रेमचन्द की कहानियों का दुनिया की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुआ
है। रूसी उपन्यास ‘माँ’, अंग्रेजी
उपन्यास ‘लैडी चैटर्ली का प्रेमी’ तथा
हिन्दी के ‘गोदान’, ‘त्यागपत्र‘
तथा ‘नदी के द्वीप’ के
विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुए हैं। (iv) रूप प्रधान अनुवाद- रूप प्रधान अनुवाद में मूल के अर्थ पक्ष की उपेक्षा कर उसके ध्वनि-योजना
पक्ष (रूप पक्ष) को संरक्षित रखते हुए लक्ष्यभाषा में अंतरित किया जाता है ।
प्रायः बाल कविताओं के अनुवाद के लिए इस प्रणाली का प्रयोग किया जाता है ताकि
मूलपाठ की ध्वनि योजना बनी रहे। (vi)
ललित साहित्य अनुवाद- ललित साहित्यानुवाद के अन्तर्गत कविता, ललित निबन्ध,
कहानी, डायरी, आत्मकथा,
उपन्यास आदि का अनुवाद किया जता है । (vii) धार्मिक पौराणिक अनुवाद- धार्मिक-पौराणिक
साहित्यानुवाद थोड़ा जोखिम भरा होता है क्योंकि इसमें धार्मिक गर्न्थो , मत-पन्थो
के मान्य साहित्य का अनुवाद किया जाता है। अत: आवश्यक होता है की अनुवादक को
मत-पंथों की गहरी समझ हो अन्यथा अनुवाद विवाद का कारण बनाता है । (viii) सारानुवाद- इसमें महत्वपूर्ण यह है कि
मूलपाठ का एकाधिक वार से अधिक पठन करने के पश्चात ही मूल-अर्थ को ग्रहण किया जाता
है। इसमें केंद्रीय विचार को बनाए रखने की आवश्यकता होती है। पहले मूल का सार पाठ
बनाया जता है, तदुपरांत उसका अनुवाद किया जाता है। यह
संक्षिप्त, अति संक्षिप्त, अत्यंत
संक्षिप्त आदि कई प्रकार का होता है। अपनी संक्षिप्तता, सरलता-स्पष्टता
तथा मूल और लक्ष्यभाषा के स्वाभाविक-सहज प्रवाह के कारण व्यावहारिक कार्यों के
सामान्य अनुवाद की तुलना में सारानुवाद ही अधिक उपयोगी है। न्यायालयों द्वारा दिए
गए लंबे निर्णयों तथा महत्वपूर्ण व्यक्तियों के वक्तव्यों और प्रशासनिक एवं संसदीय
मामलों के सार इसी रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं। इसमें मूलपाठ का सावधानीपूर्वक
पठन तथा केंद्रीय भाव को बनाए रखने की चुनौती होती है। इस पर अधिक चर्चा इसी
पाठ्यक्रम की ‘‘सारानुवाद’’ इकाई में
की जाएगी। (ix) व्याख्यानुवाद-
इस प्रकार के अनुवाद में अनुवादक अपने
व्यक्तित्व, ज्ञान और विषय संबंधी अनुभव के आधार पर कथ्य में
स्पष्टीकरण के लिए कुछ अतिरिक्त उदाहरण, प्रमाण इत्यादि जोड़
सकता है । संस्कृत श्लोकों या सूत्रों पर भाष्य, टीका आदि
इसके उदाहरण हैं। तार्किक संयोजनों में अनेक प्रसंग जोड़े जाते हैं ताकि मूल के
निहितार्थ को स्पष्ट किया जा सके। लोकमान्य तिलक का ‘गीतानुवाद’
इसका श्रेठ उदहारण है । (x) रुपान्तण-
रूपांतरण का अर्थ है स्रोतभाषा के पाठ के रूप को बदलना। इसमें रूपांतरणकार मूलपाठ
को पाठक अथवा दर्शक की रुचि और आवश्यकता
के अनुसार परिवर्तित करके लक्ष्यभाषा में रखता है। इसमें मूल सामग्री, संक्षिप्त या विस्तृत, सरल या कठिन तथा विधा-रूप में
परिवर्तित होकर आती है; जैसे उपन्यास या कहानी का
नाट्य-रूपांतरण जिसमें मूलपाठ की विधा, परिवेश, पात्रा, स्थान आदि परिवर्तित हो जाते हैं। भारतीय
सिनेमा तथा रंगमंच पर रूपांतरण के सफल एवं उत्तम प्रयोग द्रष्टव्य हैं।
5. विषय की प्रकृति और
अनुवाद की प्रकृति के आधार पर अनुवाद - विषय की प्रकृति के
आधार पर रेखाचित्र, निबन्ध,
संस्मरण, रिपोर्ताज, डायरी
एवं आत्मकथा आदि के अनुवाद आते हैं । पं. जवाहर लाल नेहरू की कृति ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ तथा महात्मा गांधी एवं
हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथाओं के विभिन्न भाषाओं में किए गए अनुवाद इसी श्रेणी के
अन्तर्गत आते हैं। प्रकृति के आधार पर
अनुवाद - विषय या प्रयुक्ति के आधार पर अनुवाद के अनेक भेद किए जा सकते
हैं। जैसे सरकारी रिकार्डों का अनुवाद, गजेटियरों का अनुवाद,
पत्रकारिता से संबद्ध अनुवाद, विधि-साहित्य का
अनुवाद, ऐतिहासिक साहित्य, धार्मिक साहित्य
तथा ललित साहित्य का अनुवाद। इसमें दो श्रेणी कर सकते हैं - (i) मूलनिष्ठ- मूलनिष्ठ अनुवाद कथ्य और शैली दोनों की दृष्टि से मूल का अनुगमन करता है।
इस प्रकार के अनुवाद में अनुवादक का प्रयास रहता है कि अनूदित विचार या कृति
स्रोत-भाषा के विचारों एवं अभिव्यक्ति के निकट रहे। (ii) मूलमुक्त - मूलमुक्त अनुवाद को भोलानाथ तिवारी ने मूलाधारित अथवा मूलाधृत अनुवाद भी
कहा है। वैसे तो मूलमुक्त का अर्थ ही होता है मूल से हटकर, किन्तु
किसी भी अनुवाद में विचारों के स्तर पर परिवर्तन की गुँजाइश नहीं होती। अत: यहाँ
मूल से भिन्न का अर्थ है शैलीगत भिन्नता तथा कहावतों एवं उपमानों का देशीकरण करने
की अनुवादक की स्वतंत्रता।।
अनुवाद के अन्य प्रकार- (i) परोक्ष अनुवाद- मूल भाषा से अनुवाद न कर जब मध्यवर्ती पाठ से अनुवाद किया जाएँ तो यह
परोक्ष अनुवाद कहलाता है। इसमें पहले किसी भाषा में किए गए अनुवाद से अनुवाद किया
जाता है। (ii) पुनरानुवाद- मूल भाषा पाठ के अनुवाद
की पुनः भाषा में पुनरावृत्ति करना पुनरानुवाद है। इसमें अनुवाद कार्य दो बार होता
है- पहली बार में जो लक्ष्यभाषा पाठ निष्पन्न होता है वही दूसरी बार में मूल भाषा
पाठ बन जाता है, और जो भाषा पहली बार में मूल भाषा होती है
वह दूसरी बार में लक्ष्यभाषा बन जाती है; जैसे- एक अंग्रेजी
पाठ का हिंदी में अनुवाद और फिर उस हिंदी पाठ का अंग्रेजी में अनुवाद। अनुवाद मूल्यांकन के लिए इस पद्धति का प्रायः
प्रयोग किया जाता है।(vi) सूचनानुवाद- मूलपाठ की विधा संबंधी विशेषता की उपेक्षा कर केवल विषयवस्तु अर्थात कथ्य
या संदेश का अनुवाद करना सूचनानुवाद है। यह सारांश और संक्षेप से लेकर अविकल
अनुवाद तक हो सकता है। यह प्रायः व्याख्यात्मक हो जाता है और रूप, बिंब, लक्षण; शैली आदि पूर्णतः
उपेक्षित रहती हैं। इसमें प्राचीन भाषाओं
के माध्यम से प्रस्तुत ज्ञान के प्रति समसामयिक पाठकों को परिचित कराना इसका
उद्देश्य है। (vii) शैक्षिक अनुवाद- भारत तथा अनेक दूसरे देशों में जहाँ बहुभाषिकता जैसी स्थितियाँ हैं वहाँ
ज्ञान साहित्य अमानक तथा अर्थ-साहित्यिक विधाओं में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
अतः मूल रचनाओं का (लोक-साहित्य को इसमें लिया जा सकता है) मानक साहित्यिक शैली
में अनुवाद करने की आवश्यकता बनी रहती है, जिससे शिक्षित
वर्ग मूल रचनाओं का कुछ आस्वाद कर सके और पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित व संवर्धित
भी किया जा सके। यह ज्ञानात्मक साहित्य में होने वाले अनुवाद से इतर अनुवाद माना
जाता है । (xi) वैज्ञानिक एवं तकनीकी
अनुवाद- वैज्ञानिक एवं तकनीकी अनुवाद में विषय
मुख्य होता है जबकि शैली को उतना महत्व नहीं दिया जाता है । वैज्ञानिक अनुवाद में ‘कैसे’ से ज़्यादा ‘क्या’ का महत्त्व
होता है। इसमें शब्दानुवाद अपेक्षित है। इसमें पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग
अपेक्षित है । कुल मिलाकर इस प्रकार के अनुवाद में सूचना, संकल्पना
तथा तथ्य महत्त्वपूर्ण होते हैं। सबसे ज़रूरी बात यह कि वैज्ञानिक एवं तकनीकी
अनुवाद में अनुवादक विषय का सम्यक् जानकार हो और साथ ही प्रशिक्षित भी। तभी वह
अनुवाद के साथ न्याय कर पाएगा। (xii) विधि अनुवाद- इसमें कानून की सामग्री
को दूसरी भाषा में अनुवाद किया जाता है। कानून की किताबें, अदालत
के मुकद्दमे, तत्सम्बन्धी विभिन्न आवेदन-पत्र, कानूनी संहिताएँ, नियम-अधिनियम, संशोधित अधिनियम आदि कानूनी अनुवाद के प्रमुख हिस्से हैं। इस प्रकार के
अनुवाद में प्रत्येक शब्द का अपना विशेष महत्त्व होता है। इसमें भावार्थ नहीं
शब्दार्थ महत्त्वपूर्ण होता है। इसके प्रत्येक शब्द का अर्थ स्पष्ट होता है। एक
शब्द का एक ही अर्थ अपेक्षित होता है। इस प्रकार के अनुवाद की भाषा पूरी तरह
तकनीकी प्रकृति की होती है। (xiii) प्रशासनिक, मानविकी एवं
समाजशास्त्रीय अनुवाद- प्रशासनिक अनुवाद में भाषा
की प्रशासन सम्बन्धी सामग्री को दूसरी भाषा में परिवर्तित किया जाता है। प्रशासनिक
अनुवाद का सम्बन्ध सरकारी कार्यालयों से होने के कारण इसे कार्यालयीन अनुवाद भी
कहा जाता है। इस अनुवाद के अन्तर्गत प्रशासन के सरकारी पत्र, परिपत्र, सूचनाएँ-अधिसूचनाएँ, नियम-अधिनियम,
प्रेस विज्ञप्तियाँ आदि आते हैं। केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, संसद, विभिन्न
मंत्रालय आदि में द्विभाषी तथा बहुभाषी स्थिति के कारण प्रशासनिक अनुवाद के बिना
काम नहीं चलता। यहाँ भी पारिभाषिक शब्दावली का सहारा लिया जाता है। प्रशासनिक
अनुवाद में ‘कथ्य’ अर्थात् ‘कही गई बात’ महत्त्वपूर्ण होती है। मानविकी एवं समाजशास्त्र से
सम्बन्धित सामग्रियों के अनुवाद के लिए अनुवादक का विषय ज्ञान अत्यन्त
महत्त्वपूर्ण होता है। इस तरह का अनुवाद अनुसंधान, सर्वेक्षण,
परियोजना एवं शैक्षिक आवश्यकता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होता है।
इस तरह के अनुवाद में सरलता एवं स्पष्टता अपेक्षित होती है। (xiv) संचार माध्यमों का
अनुवाद- वर्तमान युग में विविध देशों में विविध
भाषाएँ होने के कारण संचार माध्यम की सामग्री का अनुवाद महत्त्वपूर्ण बना हुआ है।
इस अनुवाद के अन्तर्गत मुख्यत: दैनिक समाचार, सभी प्रकार की
पत्र-पत्रिकाओं, दूरदर्शन तथा आकाशवाणी और सोशल मिडिया आदि क्षेत्रों की सामग्री के अनुवाद आते हैं। इन
सम्पर्क माध्यमों में दुनिया के सारे ज्ञान-विज्ञान की सामग्री समाहित होती है।
इसमें राजनीति, व्यापार, खेल, विज्ञान, साहित्य आदि की अर्थात् जीवन से सम्बन्धित
सभी विषय-क्षेत्रों की सामग्री होती है। (xiv) आशु अनुवाद-आशु अनुवाद को तत्काल
अनुवाद भी कहा जाता है जो आशु अनुवाद करता है उसे
दुभाषिया कहते हैं। यह दुभाषिया आम जनता की भाषा में मुख्य बात का अनुवाद करता
चलता है। दुभाषिए के पास सोचने समझने के लिए कुछ ही क्षण होते हैं। लोकसभा,
राज्यसभा, चुनाव रैलियों, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर आशु अनुवाद को की मांग रहती है।
पर्यटन केंद्रों पर भी दुभाषिए अथवा आशु अनुवाद की आवश्यकता होती है।
उपर्युक्त बिन्दुओं के अतिरिक्त विषयाधारित
अनुवाद में संगीत, ज्योतिष,
पर्यावरण, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अभिलेखों,
गजेटियरों आदि की सामग्री, वाणिज्यानुवाद,
काव्यशास्त्र, भाषाविज्ञान सम्बन्धी अनेकानेक
विषयों को शामिल किया जा सकता है।
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शिक्षकों और विद्यार्थियों को अनुवाद के बारे में विस्तृत और शुद्ध जानकारी और पाठ्य सामग्री से परिपूर्ण आलेख।सादर।
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